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________________ थोकडा संग्रह | लोक संज्ञा - श्रन्य लोगों को देख कर स्वयं वैसा ( ५७६ ) ही कार्य करना । ओघ संज्ञा - शून्य चित्त से विलाप करे, घास तोड़े प्रथ्वी ( जमीन ) खोदे आदि । नरकादि २४ दण्डक में दश दश संज्ञा होवे । किसी में सामग्री अधिक मिल जाने से प्रवृति रूप से है । किसी में सत्ता रूप से है, संज्ञा का अस्तित्व छठे गुणस्थान तक है । इनका अल्पबहुत्व आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह संज्ञा का अल्प बहुत्व नारकी में सर्व से कम मैथुन, उस से आहार सं० उस से परिग्रह सं० भय सं०, संख्या० गुणी | तिर्यच में सर्व से कम परिग्रह उससे मैथुन सं० भय सं०, आहार संख्या० गुणी । मनुष्य में सर्व से कम भय उससे व्याहार सं०, परि ग्रह सं०, मैथुन संख्या० गुणी । देवता में सर्व से कम आहार उस से भय सं०, मैथुन सं०, परिग्रह संख्या० गुणी । क्रोध, मान, माया और लोभ संज्ञाका अरूप बहुत्व नारकी में सर्व से कम लोभ, उससे माया सं० मान सं० क्रोध संख्या ० गुणी । तिर्थच में सर्व से कम मान; उस से क्रोध विशेष; माया विशेष लोभ विशेष अधिक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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