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________________ ( ४८६ ) थोकडा संग्रह | अनेक नेरिये २३ दण्डक ( मनुष्य सिवाय ) रूप से आहा० समु० न की, न करेंगें, मनुष्य रूप से भूतकाल में असं की, भविष्य में असं० करेगें । एवं २३ दएडक ( वनस्पति सिवाय ) रूप से भी समझना । वनस्पति में अनंती कहनी | ● एकेक मनुष्य २३ रूप से आहा० समु० की नहीं और करेगें भी नहीं । मनुष्य रूप से भूत काल में स्वात् सेख्याती, स्यात् श्रसंख्याती की और भविष्य में भी करें तो स्यात् संख्या०, स्यात् असं० करेगें । अनेक नरकादि २३ दण्डक के जीवों ने अनेक नरकादि २३ दण्डक रूप से केवली समु० की नहीं और करेंगे भी नहीं मनुष्य रूप से की नहीं, जो करे तो संख्या ० सं० करेगें । अनेक मनुष्यों ने ६३ दण्डक रूप से केवली समु० की नहीं, व करेगें भी नहीं । और मनुष्य रूप से की होने तो स्यात् संख्याती की | भविष्य में करें तो स्यात् संख्याती, स्यात् श्रसंख्याती करेगें । ( ७ ) अल्प बहुत्व द्वार । नरक का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम मर०स वाले १ सर्व से कम श्राहा, समु. वाले २ उनसे वैक्रिय समु. अ. गु. २ के वली समु. वाले सख्या, गुणा रे, कपाय, संख्या. " For Private & Personal Use Only समुच्चय अल्प बहुत्व Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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