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________________ (७०८) थोकडा संग्रह। सावचया सोवचया ( श्री भगवती सूत्र, शतक ५, उ०८) १ सावचया [ वृद्धि] २ सोवचया [ हानि ] ३ सावचया सोवचया [वृद्धि-हानि ] और ४ निरूवचया [ न तो वृद्धि और न हानि ] इन चार भागों पर प्रश्नोतर समुच्चय जीवों में चौथा भांगा पावे, शेष तीन नहीं. २४ दण्डक में चार ही भांगा पावे । सिद्ध में भागा २ ( सावचया-और निरुवचया-निरवचया ) समुच्चय जीवों में जो निरुवचया-निरवचया है वो सर्वार्ध है । और नारकी में निस्वच या-निरवचया सिवाय तीन भागों की स्थिति ज० १ समय की उ० आवालिका के असंख्यात भाग की तथा निरबचया--निरवचया की स्थिति विरह द्वार वत्, परन्तु पांच स्थावर में निरुवचयानिवचया भी ज० १ समय, उ० आवलिका के असंख्यातवें भाग सिद्ध में सावचया ज० १ समय उ० ८ समय की और निरूवचया-निरवचया की ज० १ समय की उ० ६ माह की स्थिति जानना । नोट:-पांच स्थावर में अवस्थित काल तथा निरुवचया निरवचया काल श्रावलिका ये असंख्यातवें भाग कही हुई है यह परकायापेक्षा है । स्वकाय का विरह नहीं पड़ता। ॥ इति सावचया सोवचया सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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