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________________ ( ६६८ ) अवगाहन किये हुवे ( ४ ) अणुवा सूक्ष्म ( ५ ) बादर स्थूल ( ६ ) ऊर्ध्व दिशा का ( ७ ) अधो दिशा का ( ८ ) तीछीं दिशा का ( ६ ) आदि का (१०) अन्त का ( ११ ) मध्य का ( १२ ) स्वविषय का ( भाषा योग्य ) (१३) अनुपूर्वी [ क्रमशः ] ( १४) त्रस नाली की ६ दिशा का (१५) ज. १ समय उ. असंख्यात समय की थोकडा संग्रह। . मुके सान्तर पुद्गल ( १६ ) निरन्तर ज. २ समय ज २ समय उ. असंख्य समय की अं. सु. का ( १७ ) प्रथम के पुलों को ग्रहण करे, अन्त समय त्यागे मध्यम कहे और छोड़ता रहे ये १७ वोल और ऊपर के २२२ मिल कर कुल ३३६ बोल हुवे समुच्चय जीव और १६ दण्डक एवं २० गुण करने से २३६ २०-४७८० बोल हुवे ( ६ ) सत्य भाषा पने पुद्गल ग्रहे तो समुच्चय जोव और १६ दण्डक ये १७ बोल २३६ प्रकार से [ ऊर‍ अनसार ] ग्रहे अर्थात् १७२३ - ४०६३ बोल इसी प्रकार असत्य भाषा के ४०६३ बोल और मिश्र भाषा के ४०६३ बोल, तथा व्यवहार भाषा के समुच्चय जीव और १६ दण्डक एवं २० + २३६ = ४७८० बोल, कुल मिल कर २१७४६ बोल एकवचनापेक्षा और २१७४६ बहु वचनापेक्षा, कुल ४३४६८ भांगा भाषा के हुवे ॥ [१०] भाषा के पुद्गल मुँह में से निकलते जो वो भेदाते निकलें तो रास्ते में से अनन्त गुणी वृद्धि होते २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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