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________________ संजया ( संयति ) | २ परिहार विशुद्ध के ३ 19 99 ४ सामा० छेदो० ५ सूक्ष्म संपराय ६ 11 " ७ यथा ख्यात 99 उत्कृष्ट 17 19 " 99 99 जघन्य उत्कृष्ट " ज० उ० , 91 " ܕ 99 अनन्त गुणा,” " 99 19 ( ६११ ) ** 79 परस्पर तुल्य ** 99 १६ योग द्वार - ४ संयति, सयोगी और यथा • सयोगी " " 99 39 19 19 "" और योगी । १७ उपयोग द्वार - सूक्ष्म में साकार उपयोगी होवे शेष चार में साकार - निराकार दोनों ही उपयोग वाले होवें । १८ कषाय द्वार - ३ संयति संज्वलन का चोक ( चारों की कषाय ) में होवे सूक्ष्म० संज्ज० लोभ में होवे और यथा० कषायी ( उपशान्त तथा क्षीण ) होवे १६ लेश्या द्वार - सामा० छेदो० में ६ लेश्या परि० में ३ शुभ लेश्या सूक्ष्म० में शुक्ल लेश्या यथा० में १ शुक्ल लेश्या तथा अलेशी भी होवे । २० परिणाम द्वार-तीन संयति में तीनों ही परि णाम उनकी स्थिति हायमान तथा वर्धमान की ज० १ उ० ७ ० मु० की, अवस्थित की ज० १ समय उ० ७ समय की, सूक्ष्म० में २ परिणाम ( हायमान वर्धमान ) इनकी स्थिति ज उ० अं० मु० की, यथा० में २ परिणाम; वर्धमान ( ज० उ० ० मु० की स्थिति ) और श्रवस्थित ( ज० १ समय उ० देश उणा कोड़ पूर्व की स्थिति ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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