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________________ ( ६७६ ) थोडा संग्रह | परि०, ५-६ देव - में रूप परि०, ७-८ देव में शब्द परि० ६ से १२ देव० में मन परि०, आगे नहीं । २३ पुन्य द्वार - जितने पुन्य व्यंतर देव १०० वर्ष में क्षय करते हैं उतने पुन्य नागादि ६ देव २०० वर्ष में, असुर० ३०० वर्ष में, ग्रह-नक्षत्र तारा ४०० वर्ष में चंद्र सूर्य ५०० वर्ष में, सौधर्म ईशान १००० वर्ष में ३–४ देव० २००० वर्ष में, ५ - ६ देव. ३००० वर्ष में, ७-८ देव. ४००० वर्ष में, ६ से १२ दे. ५००० वर्ष में, १ ली. त्रिक १ लाख वर्ष में दूसरी त्रिक २ लाख वर्ष में तीसरी त्रिक ३ लाख वर्ष में, ४ अनु. वि. ४ लाख वर्ष में और सर्वार्थ सिद्ध के देवता ५ लाख वर्ष में इतने पुन्य क्षय करते हैं । -- मनुष्य २४ सिद्ध द्वार - वैमानिक देव में से निकले हुवे में आकर एक समय में १०८ सिद्ध हो सक्ते हैं देवी में से निकल कर २० सिद्ध हो सक्ते हैं । २५ भव द्वार - वैमानिक देव होने के बाद भव करे तो ज० १-२-३ संख्यात, असंख्यात यावत् अनन्त भव भी करे । Jain Education International २६ उत्पन्न द्वार - नव ग्रीयवेक में अनन्ती वार यह जीव उत्पन्न हो में जाने के बाद संख्यात ( २-४ ) सिद्ध से १ भव में मत जावे | वैमानिक देव रूप चुका है ४ अनु०वि० भव में और सर्वार्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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