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गर्भ विचार ।
(४२६)
पन्त्रवणाजी सूत्र में कम प्रकृति पद से समझना । मन सदा चंचल व चपल है और कर्म संचय करने में अप्रमादी व कर्म छोड़ने में प्रमादी है इस से लोक में रहे हुए जड़ चैतन्य रूप पदार्थों के साथ, राग द्वेष की मदद से, यह मिल जाता है । इस कारण उसे " मन योग" कह कर पुकारते हैं । मन योग से नवीन कर्मों की श्रावक आती है । जिसका पांच इन्द्रियों के द्वारा भोगोपभोग किया जाता है । इस प्रकार एक के बाद एक विपाक का उदय होता है। सबों का मूल मोह है, तश्चात् मन, फिर इन्द्रिय विषय और इन से प्रमाद की वृद्धि होती है कि जिसके वश में पड़ा हुवा प्राणी, इन्द्रियों को पोषण करने के रस सिवाय, रत्नत्रयात्मक अभेदानन्द के आनन्द की लहर का रसीला नहीं हो सका किंतु उलटा ऊंच नीच कमों के आकर्षण से नरक आदि चार गति में नाता व पाता है। इनमें विशेष करके देव गति के सिवाय तीन गति के जन्म अशुचि से पूर्ण हैं। जिसमें से नरक कुण्ड के अन्दर तो केवल मल मूत्र और मांस रुधिर का कादा (कीचड़) भरा हुवा है व जहां छेदन भेदन आदि का भयङ्कर दुख होता है जिसका विस्तार सुयगडांग सूत्र से जानना।
यहां से जीव मनुष्य या तिर्यंच गति में आता है यहां एकांत अशुचि तथा अशुद्धि का भण्डार रूप गर्भावास
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