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________________ देवोत्तत्ति के १४ बोल। ( ५५७ ) - देवोत्पत्ति के १४ बोलः निम्न लिखित १४ बोल के जीव यदि देव गति में जावें तो कहां तक जा सकें? मार्गणा जघन्य उत्कृष्ट ... १ असंयति भवि द्रव्य देव भवनपति में नव ग्रीयवेक में २ अविराधिक मुनि सौधर्म कल्पमें अनुत्तर विमानमें ३ विराधिक मुनि भवनपति में सौधर्म कल्प में ४ अविराधिक श्रावक सौधर्म कल्पमें अच्युत कल्प में ५ विराधिक श्रावक भवनपति में ज्योतिषी में ६ असंज्ञी तिर्यच व्यन्तर देवी में ७ कंद मूल भक्षक तापस ज्योतिषी में ८ हांसी करने वाले मुनि सौधर्म कल्प में ह परिव्राजक संन्यासी तापस ब्रह्म देवलोक में १० प्राचार्यादि निंदक मुनि " लांतक " ११ संज्ञी तिथंच आठवें " १२ आजीविक साधु(गोशालापंथी)" अच्युत " १३ यंत्र मंत्र करनेवाले अभोगी साधु" १४ स्वलिंगी ववन्नगा (सम्यक् । श्रद्धा विहीन) " नव ग्रीयवेक में चौदहवें बोल में भव्य जीव हैं शेष में भव्याभव्य दोनों हैं। * इति देवोत्पत्ति के १४ बोल सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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