SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 672
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६६० ) थेकडा संग्रह | वाण व्यन्तर विस्तार वाण व्यन्तर के २१ द्वार - १ नाम २ वास ३ नगर ४ राजधानी ५ सभा ६ व ७ वस्त्र ८ चिन्ह ६ इन्द्र १० सामानिक ११ आत्म रक्षक १२ परिषद १३ देवी १४ अनीका १५ वैक्रिय १६ अवधि १७ परिचारण १८ सुख १६ सिद्ध २० भव २१ उत्पन्न द्वारं । १ नाम द्वार - १६ व्यन्तर- १ पिशाच २ भूत ३ यक्ष ४ राक्षस ५ किन्नर ६ किंपुरुष ७ महोरग ८ गंधर्व पन्नी १० पान पनी ११ ईसीवाय १२ भूय वाय १३ कन्दिय १४ महा कन्दिय १५ कोदण्ड १६ पयंग देव । २ वासा द्वार - रत्नप्रभा नरक के ऊपर का १ हजार योजन का जो पिण्ड है उसमें १०० योजन ऊपर १०० योजन नीचे छोड़ कर ८०० योजन में ८ जाति के वायव्यन्तर देव रहते हैं और ऊपर के १०० यो० पिएट में १० यो० ऊपर, १० यो० नीचे छोड़कर ८० यो० में 8 से १६ जाति के व्यन्तर देव रहते हैं । ( एकेक की यह मान्यता है कि ८०० यो० में व्यन्तर देव और ८० यो० में १० जृम्भका देव रहते हैं । ) ३ नगर द्वार - ऊपर के वासाओं में वायव्यन्तर For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy