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________________ (४२६) थोकडा संग्रह। " कर रहे तब उसे लब्धि पर्याप्ता कहते हैं । एवं करण तथा लब्धि पर्याप्ता के चार भेद होते हैं । शिष्य-हे गुरु ! जो जीव मरता है वो अपर्याप्ता में मरता है अथवा पर्याप्ता में ? गुरू-हे शिष्य ! जब तीसरी इन्द्रिय पर्या बान्ध कर जीव करण पर्याप्ता होता है तब मृत्यु प्राप्त कर सकता है। इस न्याय से पर्याप्ता हो कर मरण पाता है । परन्तु करण अपयोप्ता पने कोई जीव मरण पावे नहीं । वैसे ही दूसरे प्रकार से अपर्याप्ता पने का मरण कहने में आता है यह लब्धि अपर्याप्ता का मरण समझना । यह इस तरह से कि चार वाला तीसी, पांच वाला तीसरी चौथी, और छः वाला तीसरी चौथी और पांचवी पर्या पूरी बन्धने के बाद मरण पाते हैं । अब दूसरे प्रकार से अपर्याप्ता व पर्याप्ता इसे कहते हैं कि जिस जीव को जितनी पर्या प्राप्त हुई अर्थात् बन्धी उस को उतनी पर्या का पर्याप्ता कहते हैं । और जो बन्धना बाकी रही उसे उसका अपप्तिा अर्थात उतनी पर्या की प्राप्ति नहीं हो सकी यह भी कह सकते हैं। .. ऊपर बताये हुवे अपर्याप्ता और पर्याप्ता के भेदों का अर्थ समझ कर गर्भज, नो गर्भज और एकेन्द्रिय आदि असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को ये भेद लागू करने से जीव तत्व के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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