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________________ अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार | ( ४२७ ) ५६३ भेद व्यवहार नय से गिनने में आते हैं और ये सर्व कर्म विपाक के फल हैं इससे जीवों की ८४ लक्ष योनियों का समावेश होता है । योनियों में बार बार उत्पन्न होना, जन्म लेना व मरण पाना आदि को संसार समुद्र के नाम से सम्बोधित करते हैं यह सब समुद्रों से अनन्त गुणा बढ़ा है । इस संसार समुद्र को पार करने के लिये धर्म रूपी नाव है, व जिसके नाविक ( नाव को चलाने वाले ) ज्ञानी गुरु हैं । इनका शरण लेकर, आज्ञानुसार, विचार कर प्रवर्तन । करने वाला भाविक भव्य कुशलता पूर्वक प्राप्त की हुई जिन्दगी ( जीवन ) की सार्थकता प्राप्त कर सकता है । इसी प्रकार अन्य भी आचरण करना योग्य है । ॥ इति अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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