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________________ गता गति द्वार । (१४७ ) तीसरे देवलोक से आठवें देवलोक तक, नव लोकां. तिक और दूसरा तीसरा किल्विषी-इन १७ प्रकार के देवताओं में २० बोल की आगति १५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्यंच एवं २० बोल का पर्याप्ता । गति ४० बोल की-१५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्यंच एवं २० का पर्याप्ता और अपर्याप्ता। नवें, दशवें इग्यारहवें और बारहवें देवलोक में, नव ग्रीवेक व पांच अनुत्तर विमान में आगति १५ बोल की-१५ कर्म भूमि का पर्याप्ता । गति ३० बोल की-१५ कर्म भूमि का पर्याप्ता और अपर्याप्ता एवं ३० बोल । पृथ्वी, अप, वनस्पति-इन तीन में २४३ की आगति १०१ संमूर्छिम मनुष्य का अपर्याप्ता, १५ कर्म भूमि का अपर्याप्ता और पर्याप्ता, ३०, ४८ जाति का तिर्यच, और ६४ जाति का देव ( २५ भवनपति, २६ वाण व्यन्तर १० ज्योतिषी, पहेला किल्विषी, पहेला और दूसरा देवलोक एवं ६४ जाति का देव ) का पर्याप्ता एवं ( १०१४३०४ ४८४६४) २४३ बोल । गति १७६ बोल की-१०१ संमूर्छिम मनुष्य का अपर्याप्ता , १५ को भूमि का अपर्याप्ता और पर्याप्ता, और ४८ जाति का तिर्थच एवं १७६ बोल। तेजसू वायु की आगति १७६ बोल की-ऊपर समान । गति ४८ बोल की-४८ जाति का तिर्थच । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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