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________________ ( ५६३) थोकडा संग्रह। परन्तु जीव किसी के कारण नहीं । जैसे-जीव को और धर्मा० कारण मिलने से जीव को चलन कार्य की प्राप्ति होवे । इसी प्रकार दूसरे द्रव्य भी समझना । २५ का द्वार-निश्चय से समस्त द्रव्य अपने २ स्वभाव कार्य के कर्ता हैं । व्यवहार से जीव और पुद्गल कर्ता हैं। शेष अकर्ता हैं। २६ गति द्वार-आकाश की गति ( व्यापकता) लोकालोक में है। शेष की लोक में हैं। २७ प्रवेश द्वार-एक २ आकाश प्रदेश पर पांचों ही द्रव्यों का प्रवेश है । वे अपनी २ क्रिया करते जारहे हैं। तो भी एक दूसरे से मिलते नहीं जैसे एक नगर में ५ मानस अपने २ काय करते रहने पर भी एक रूप नहीं होजाते हैं। २८ पृच्छा द्वार-श्री गौतम स्वामी श्री वीर प्रभु को सविनय निम्न लिखित प्रश्न पूछते हैं। १ धर्मा०के १ प्रदेश को धर्मा०कहते हैं क्या ? उत्तर नहीं ( एवंभूत नयापेक्षा ) धर्मा० काय के १-२.३, लेकर संख्यात असंख्यात प्रदेश,जहां तक धमा० का १ भी प्रदेश बाकी रहे वहां तक उसे धमा०नहीं कह सक्ते सम्पूर्ण प्रदेश मिले हुवे को ही धर्मा० कहते हैं! २ किस प्रकार १ एवंभूत नयवाला थोडे भी टूटे हुवे पदार्थ को पदार्थ नहीं माने, अखण्डित द्रव्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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