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________________ धर्म ध्यान | ( ४७३ ) तथा असंख्यात ज्योतिषी की राजधानीये हैं। इसमें अढाई द्वीप के अन्दर तीर्थकर जघन्य २० उत्कृष्ट १७०, केवली जघन्य दो क्रोड़ उत्कृष्ट नव क्रोड़, तथा साधु जघन्य दो हजार कोड उत्कृष्ट नव हजार क्रोड होते हैं । जिन्हें वंदामि, नम॑सामि, सक्कर म समाणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेयं 'पजुवास्सामि । तीर्थे लोक में असंख्याते श्रावक श्राविका हैं उन के गुण ग्राम करना चाहिए तीर्थे लोक से असंख्यात 1 अधिक ऊर्ध्व लोक है । जिसमें बारह देवलोक नव ग्रीय वे पांच अनुत्तर विमान एवं सर्व मिला कर चोराशी लाख सत्ताणु हजार तेवीश विमान हैं । इनके ऊपर सिद्ध शीला है जहां पर सिद्ध भगवान विराज मान हैं । उन्हें वंदामि जाव पजुवासामि । ऊर्ध्व लोक से नीचे अधोलोक है जिसमें चोराशी लाख नरक वासे हैं और सातकोड़ बहत्तर लाख भवन पति के भवन हैं । ऐसे तीन लोक के सर्व स्थानक को समकित रहित करणी बिना सर्व जीव अनन्ती बार जन्म मरण द्वारा फरस कर छोड़ चुके हैं । ऐसा जानकर समकित सहित श्रुत और चारित्र धर्म की श्राराधना करनी चाहिये जिससे अजरामर पद की प्राप्ति होवे । धर्म ध्यान के चार लक्षण :- १ आणा रुई - वीतराग की आज्ञा अङ्गीकार करने की रुचि उपजे उसे श्राणारुई कहते हैं । २ निसग्ग रुई: जीव की स्वभाव से ही तथा For Private & Personal Use Only Jain Education International . www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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