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________________ पांच शरीर । ( २६५) २ वैक्रिय में-(भव प्रत्यायिक में) देव में सम चतुरस संस्थान व नेरियों में हुंड संस्थान ( लब्धि प्रत्ययिक में ) मनुष्य में व तिर्यच में सम चतुरम् सस्थान व अनेक प्रकार का-वायु में हुंड संस्थान । ३ आहारिक शरीर में-स चतुरम संस्थान । ४-५ तेजस् व कार्मण में ६ संस्थान । ४ स्वामी द्वार। १ औदारिक शरीर का स्वामी-मनुष्य व तिथच । २ वैक्रिय शरीर का स्वामी चार ही गति के जीव । ३ आहारिक शरीर का स्व मी--चौदह पूर्व धारी मुनि ४-५ तेजस कामण शरीर के स्वामी-सर्व संसारी जीव । अवगाहना द्वार। १ औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य प्राङ्गुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट हजार योजन की। . २ वैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य प्राङ्गुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट ५०० धनुष्य उत्तर वैक्रिय करे तो जघन्य आंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट लन योजन जाजेरी ( अधिक)। ३ आहारिक शरीर की अवगाहना जघन्य एक हाथ न्यून उत्कृष्ट एक हाथ की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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