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________________ छ काय के बल । (३५) से उत्पन्न होने वाली अग्नि १३ दावानल की अग्नि १४ बड़वानल की अग्नि । इसक सिवाय अग्नि के और भी अनेक भेद हैं । एक अग्नि की चिनगारी में भगवान् ने असंख्यात जीव फरमाये हैं। एक पर्याप्त की नेश्रा से असंख्यात अपर्याप्त है। जो जीव इनकी दया पालेगा वह इस भव में व पर भव में निराबाध सुख पावेगा ! तेजस् काय का आयुष्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त का,उत्कृष्ट तीन अहोरात्रि (दिन रात) का। इसका संस्थान सुइयों की भारी के आकारवत् है । तेजस् काय का 'कुल' तीन लाख करोड़ जनना। वायु काय । वायु काय के दो भेद-१ सूक्ष्म २ बादर । सूक्ष्म-सर्व लोक में भरे हुवे हैं । हनने से हनाय नहीं, मारने से मरे नहीं, अग्नि में जले नहीं, जल में डूबे नहीं, आँखों से दीखे नहीं व जिसके दो भाग होवे नहीं, उसे सूक्ष्म वायु काय कहते हैं। बादर-लोक के देश भाग में भरे हुवे हैं । हनने से हनाय, मारने से मरे, अग्नि में जले, आंखों से दीखे व जिसके दो भाग होवे उसे बादर वायु काय कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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