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________________ तीन जाग्रिका ( जागरण )। (४६५) •wwwwwwwwwwn armerammarrrrrrrrrr ८ अनुबन्ध दया-वह जीव को त्रास देवे परन्तु अन्तहदय से उसको सुख देने की भावना है। जैसे-माता पुत्र का रोग दूर करने के लिये कटुक औषधि पिलाती है परन्तु हृदय से उसका हित चाहती है । तथा जैसे पिता पुत्र को हित शिक्षा देने के लिये ऊपर से तर्जना करे, मारे परन्तु हृदय से उसको सद्गुणी बनाने के लिये उसका हित चाहता है । ४ स्वभाव धर्म-जीव व अजीव की प्रणति के दो भेद-१ शुद्ध स्वभाव से और २ कर्म के संयोग से अशुद्ध प्रणति । इनसे जीव को विषय कषाय के संयोग से विभावना होती है । जिसे दूर कर के जीव अपने ज्ञानादिक गुण में रमन करे उसे स्वभाव धर्म कहते हैं। और पुद्गल का एक वर्ण,एक गन्ध, एकरस, दो फरस (स्पर्श) में रमण होवे तो यह पुद्गल का शुद्ध स्वभाव धर्म जानना । इसके सिवाय चार द्रव्य में स्वभाव धर्म है परन्तु विभाव धर्म नहीं। चलन गुण, स्थिर गुण, अवकाश गुण, वर्तना गुण आदि ये अपने २ स्वभाव को छोड़ते नहीं अतः ये शुद्ध स्वभाव धर्म है । एवं चार प्रकार की धर्म जानिका कही। २ अधर्म जाग्रिका-संसार में धन कुटुम्ब परिवार आदि का संयोग मिलना व इसके लिये प्रारम्भादिक करना, उन पर दृष्टि रखना व रक्षा करना आदि को अधर्म जानिका कहते हैं। सुदखु जाग्रिका-सु कहेता अच्छी व दखु कहेता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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