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थोकडा संग्रह |
बुद्धि रख कर कुशील (मैथुन ) का सेवन करती है तो यदि गर्भ में पुत्री होवे तो उनके माता पिता दुष्ट में दुष्ट, पापी में पापी और रौ नरक के अधिकारी बनते हैं । गर्भ भी अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहता यदि जिन्दा रहे भी तो वो काना, कुबड़ा, दुर्बल, शक्ति हीन तथा खराब डीलडोल का होता है । क्रोधी, क्लेशी, प्रपंची और खराब चाल चलन वाला निकलता है । ऐसा समझ कर प्रजा (सन्तति) की हितइच्छने वाली जो माताएं गर्भकाल में शील बन्ती रहती हैं । वे धन्य हैं ।
विशेष में उपरोक्त गर्भावास के स्थानक में महा कष्ट तथा पीड़ा उठानी पड़ती है । इस पर एक दृष्टान्त दिया जाता है - जिस मनुष्य का शरीर कोढ तथा पित्त के रोग से गलता होवे ऐसे मनुष्य के शरीर में साड़ातीन क्रोड़ सूई में गरम करके साढ़े तीन रोमों के अन्दर पिरोवे । पुन: शरीर पर निमक तथा चूने का जल छींटकर शरीर को गीले चमड़े से मढ़े व मढ़ कर धूप के अन्दर रखे सूखने ( शरीर का चमड़ा ) पर जो अत्यन्त कष्ट उसे होता है उस ( दुख ) को सिवाय भोगने वाले के और सर्वज्ञ के अन्य कोई नहीं जान सकता । इस प्रकार वेदना पहिले महीने गर्भ को होती है दूसरे महीने दुगनी एवं उत्तरोत्तर नववें महीने नव गुणी वेदना होती है । गर्भ वास की जगह छोटी है और गर्भ का शरीर ( स्थूल ) बड़ा
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