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________________ दश द्वार के जीव स्थानक । ( १८५ ) * १० छः भाव का द्वार छः भाव का नाम १ औदयिक २ औपशमिक ३ चायिक ४ क्षायोपशमिक ५ पारिणामिक ६ सान्निपातिक छः भाव के भेदः - १ श्रदयिक भाव के दो भेद:- १ जीव औदयिक २ जीव श्रदयिक | १ जीव श्रदयिक के दो भेद:- १ भौदधिक २ औदयिक निष्पन्न १ जिसमें आठ कर्म का उदय हो वो कर्म के उदय से जो २ पदार्थ उत्पन्न और होवे ( निपजे) वो श्रदयिक निष्पन्न | आठ कर्म के उदय से जो २ पदार्थ उत्पन्न होवे उसपर ३२ बोल | गाथा: गई, काय, कसाय, वेद, लेस्स मिच्छदिठि, प्रविरिए सन्नी नाणी आहारे, बउमथ्य सजोगी संसारथ्य असिद्धेय । अर्थः- गति चार ४ काय छः, १०, कषाय ४, १४, वेद तीन, १७, लेश्या ६, २३, २४ मिथ्यात्व दृष्टि २५ व्रतीत्व (अत्रतीपना ) २६, असंज्ञीत्य २७, अज्ञान २८ आहारिक पना २६ छद्मस्थपना ३० सजोगी (सयोगीपना ) ३१ सांसारिकपना ( संसार में रहना ) ३२ - सिद्धपना एवं ३२ बोल जीव श्रदयिक से पावे । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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