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________________ ( ५६ ) थोकडा संग्रह | सो योजन का दल ऊपर छोड़ कर, बीच में आठ सो योजन का पोलार है । जिसमें सोलह जाति के व्यन्तर के नगर हैं । ये नगर कुछ तो भरत क्षेत्र के समान हैं । कुछ इन से बड़े महाविदेह क्षेत्र समान हैं । और कुछ जंबु द्वीप समान बड़े हैं । पृथ्वी का सो योजन का दल जो ऊपर है, उसमें से दश योजन का दल नीचे व दश योजन का दल ऊपर छोड़ कर, बीच में अस्सी योजन का पोलार है । इन में दश जाति के जृंभिका देव रहते हैं जो संध्या समय, मध्य रात्रि को सुबह व दोपहर को 'अस्तु' 'अस्तु' करते हुवे फिरते रहते हैं (जो हंसता हो वो हंसते रहना, रोता हो वो रोते रहना, इस प्रकार कहते फिरते हैं ) अतएव इस समय ऐसा वैसा नहीं बोलना चाहिये। पहाड़, पर्वत व वृक्ष ऊपर तथा वृक्ष नीचे व मन को जो जगह अच्छी लगे वहां ये देव आकर बैठते हैं तथा रहते हैं । ज्योतिषी देवः - इनके दश भेद १ चन्द्रमा २ सूर्य ३ ग्रह ४ नक्षत्र ५ तारे । ये पांच ज्योतिषी देव अढाई द्वीप में चर हैं व अढाई द्वीप के बाहर ये पांच अचर ( स्थिर ) हैं। इन देवों की गाथाः - तारा, रवि, चंद, रिख्खा, बुह, सुका, जून, मंगल, सणी, सग सय ने उच्चा, दस, असिय, चउ, चउ, कसमो तीया चउसो । १ । अर्थ :- पृथ्वी से ७६० योजन ऊंचा जाने पर ताराओं का विमान आता है, पृथ्वी से ८०० योजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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