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________________ दश द्वार के जीव स्थानक । ( १७७ ) (३) सादि सपर्यवसित:-जिस मिथ्यात्व की आदि है और अन्त भी है । अनादि काल से जीव को यह नि: थ्यात्व लगा है। परन्तु किसी समय भव्य जीव समकित की प्राप्ति करता है व संसार परिभ्रमण योग कर्म के प्राबाल्य से फिर समकित से गिर कर मिथ्यात्व को अंगीकार करता है । ऐसे भव्य जीवों को समदृष्टि पडिवाइ कहते हैं इस मिथ्यात्व जीव स्थानक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्तन में देश न्यून । ऐसे जीव निश्चय से समकित पाकर मोक्ष जाते हैं । शाख सूत्र जीवाभिगम दण्डक के अधिकार से । २-३ दूसरे व तीसरे जीव स्थानक की स्थिति जघन्य एक समय की उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की। .. चोथे जीव स्थानक की स्थिति:-जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट ६६ सागरोपम जाजरी । पांचवे जीव स्थानक की स्थितिः-जघन्य की उत्कृष्ट करोड़ पूर्व में देश न्यून । .. छठ जीव स्थानक की स्थिति-परिणाम आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट करोड़ पूर्व में देश यून । ____ प्रवर्तन आश्री जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट करोड़ पूर्व में देश न्यून । धर्म देव आश्री, शाख सूत्र भगवती शतक १२ उद्देश है। सातवें, आठवें, नववें, दशवें, इग्यारवें, जीव स्थानक हत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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