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________________ पच्चीस बोल । (६७) तीन अज्ञान का-१ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान ३ विभंग अज्ञान । चार दर्शन के--१ चक्षु दर्शन २ अचक्षु दर्शन ३ अवधि दर्शन ४ केवल दर्शन एवं बारह उपयोग। १० दशवें बोले 'कर्म आठ-१ ज्ञानावरणीय २ दर्शनावरणीय ३ वेदनीय ४ मोहनीय ५ आयुष्य ६ नाम ७ गोत्र और ८ अन्तराय । ११ इग्यारहवें बोले गुण "स्थानक चौदह । १ मिथ्यात्व गुणस्थानक २ सास्वादान गुणस्थानक ३मिश्र गुणस्थानक ४ अव्रती समदृष्टि गुणस्थानक ५ देश व्रती गुणस्थानक ६ प्रमत्त संयति गुणस्थानक ७ अप्रमत्त संयति गुण स्थानक ८ (नियठी) निवर्तीवादर गुण स्थानक ६ ( अनिय छ ) अनिवर्ती बादर गुण स्थानक १० सूक्ष्म संपराय गुण स्थानक ११ उपशान्त मोहनीय गुण स्थानक १२ क्षीण मोहनीय गुणस्थानक १३ सयोगी केवली गुण स्थानक १४ अयोगी केवली गुण स्थानक । १२ बारहवें बोले पांच इन्द्रिय के २३ "विषय १० जीव को पर भव में घुमावे, विभाव दशा में बनावे व अन्य रूप से दिखावे सो कर्म है। ११ सकर्मी जीवों की उन्नति की भिन्न २ अवस्था को गुणस्थान कहते हैं । अवस्था अनन्त है परन्तु गुणस्थान १४ ही है कक्षा ( Class) वत् । १२ जिस इन्द्रिय से जो २ वस्तु ग्रहण होती है वही उस इन्द्रिय का विषय है । कान का विषय शब्द । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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