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श्रागुणस्थान द्वार ।
(२०१)
गाथा:
मद, विषय, कषाया, निंदा, विगहा पंचश, भणिया ।
ए ए पंच पमाया, जीवा पाडंति संसारे ।। इन पांच प्रमाद का त्याग व उक्त १५ प्रकृति और १ संज्वलन का क्रोध एवं १६ प्रकृति का क्षयोपशम करे इससे किस गुण की प्राप्ति होवे । जीवादि नव पदार्थ द्रव्य से, काल से, भाव से तथा नोकारसी आदि छ मासी तप ध्यान युक्ति पूर्वक जाने, श्रद्धे, परूपे, फरसे वह जीव जघन्य उसी भव में उत्कृष्ट तीसरे भव में मोक्ष जावे । गति प्रायः कल्पातीत की पावे, ध्यान में, अनुष्टान में अप्रमत्त पूर्वक प्रवर्ते, व शुम लेश्या के योग सहित अधसाय प्रव. तता हुवा जिसके प्रमत्त कषाय नहीं वो अप्रम संयति गुणस्थान कहलाता है।
८ निवर्ती (नियट्टि) बादर गुणस्थान:-उक्त १६ प्रकृति व संज्वलन का मान एवं १७ प्रकृति का क्षयोपशम करे तब आठ गुणस्थान आवे (ता गतम स्वामी हाथ जोड़ पूछने लगे आदि उपरोक्त समान ) इस गुण स्थान वाले को किस गुण की प्राप्ति होवे । जो परिणाम धारा व अपूर्व करण जीव को किसी समय व किसी दिन उत्स. न नहीं हुवा हो ऐसी परिणाम धारा व करण की श्रेणी जीव को उपजे। जीवादिक नव पदार्थ द्रव्य से,क्षेत्र से,काल
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