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________________ पांच देव | ( ४५७ ) मन का सन्देह दूर करती है । ४ भगवन्त के चौवीश जोड़ चामर दुलते हैं ५ स्फटिक रत्न मय पाद पीठ सहित सिंहासन स्वामी के आगे हो जाता है भामण्डल श्रम्बोड़े के स्थान पर तेज मण्डल विराजे व दशदिशाओं का अन्धकार दूर करे ७ आकाश में साड़ावारह कोड़ देवदुन्दुभि बजे भगवन्त के ऊपर तीन छत्र ऊपरा - उपरी विराजे ६ अनन्त ज्ञान अतिशय १० अनन्त अर्चा अतिशय - परम पूज्यपना ११ अनन्त वचन अतिशय १२ अनन्त अपायापगम अतिशय ( सर्व दोष रहित पना ) एवं बारह गुणों करसहित ( ५ ) भाव देव- १ भवनपति २ वाण व्यन्तर ३ ज्योतिषी ४ वैमानिक एवं चार प्रकार के देव भाव देव कहलाते हैं । ३ उबवाय द्वार : - १ भवि द्रव्य देव में मनुष्य तिर्यच १ युगलिये २, और सर्वार्थ सिद्ध ३ एवं तीन स्थान छोड़ कर शेष सर्व स्थानों के आकर उत्पन्न होते हैं २ नर देव में चार जाति के देव और पहली नरक एवं पांच स्थान के श्राकर उत्पन्न होते हैं ३ धर्म देव में छठ्ठी सातवीं नरक, तेज, वायु, मनुष्य तिर्येच व युगलिये एवं छ स्थानके छोड़ कर शेष सर्व स्थान के आकर उत्पन्न होते हैं ४ देवाधिदेव में पहेली दूसरी, तीसरी नरक, और किल्विषी छोड़ कर वैमानिक देव के आकर उपजते हैं ५ भाव देव में तिर्यच, पंच For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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