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________________ ( ६६२) थोकडा संग्रह। wwwmmmmarrmanane, २ पिंडस्थ-शरीर में रहे हुवे अनन्त गुण युक्त चैतन्य का अध्यात्म-ध्यान करना । ३ रूपस्थ-अरूपी होते हुवे भी कर्म योग से आत्मा संसार में अनेक रूप धारण करती है । एवं विचित्र संसार अवस्था का ध्यान करना व उससे छूटने का उपाय सोचना। ४ रूपातीत-सच्चिदानन्द, अगम्य, निराकार, निरंजन सिद्ध प्रभु का ध्यान करना । २० चार अनुयोग-१ द्रव्यानुयोग-जीव,अजीव, चैतन्य जड़ ( कर्म ) आदि द्रव्यों का स्वरूप का जिसमें वर्णन होवे २ गणितानुयोग-जिसमें क्षेत्र, पहाड़, नदी. देवलोक, नारकी, ज्योतिषी आदि के गणित-माप का वर्णन होवे ३ चरण करणानुयोग-जिसमें साधु-श्रावक का आचार, क्रिया का वर्णन होवे ४ धर्म कथानुयोग-जिस में साधु श्रावक, राजा रंक, श्रादि के वैराग्य मय बोध दायक जीवन प्रंसगों का वर्णन होवे २१ जाहरण तीन-(१) बुध जाग्रिका तीर्थकर और केवलियों की दशा (२) अबुध जाग्रिका छिमस्थ मुनियोंकी और (३) सुदाखु जानिका- श्रावकों की ( अवस्था)। २२ व्याख्या नव-एकेक वस्तु की उपचार नय से ह-६ प्रकार से व्याख्या हो सकती है। (१) द्रव्य में द्रव्य का उपचार-जैसे काष्ट में वंशलोचन (२) द्रव्य में गुण का " -" जीव ज्ञानवन्त है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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