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( ४२२ )
थोकडा संग्रह |
अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार
शिष्य ( विनय पूर्वक नमस्कार करके पूछता है ) हे गुरु ! जीव तत्व का बोध देते समय आपने कहा कि जीव उत्पन्न होते समय अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता कहलाता है । सो यह कैसे ? कृपा करके मुझे यह समझाइये |
गुरु- हे शिष्य ! जीव यह राजा है । आहार शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन ये ६ प्रजा हैं और ये चारों गति के जीवों को लागू रहने से ५६३ भेद माने जाते हैं । इनमें पहली हार पर्याप्त लागू होती हैं । यह इस प्रकार से है कि जब जीव का आयुष्य पूर्ण होवे तब वह शरीर छोड़ कर नई गति की योनि में उत्पन्न होने को जाता है । इसमें श्रविग्रह गति अर्थात् सीधी व सरल बान्ध कर आया हुवा होवे वो जीव जिस समय आया हुवा होवे उसी समय में आकर उत्पन्न होता है उस जीव को आहार का अन्तर पड़ता नहीं इस प्रकार का बन्धन वाला जीव " सीए आहारिए " अर्थात् सदा आहारिक कहलाता है । ऐसा भगवती सूत्र का न्याय है ।
अब दूसरा प्रकार विग्रह गति का बन्ध बान्ध का आने वाले जीवों का कहा जाता है । इसके तीन प्रकार कितनेक जीव शरीर छोड़ने के बाद एक समय के अन्त
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