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________________ अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार। (.४२३) से, कितनेक दो समय के अन्तर से, और कितनेक तीन समय के अन्तर से, अथोत चौथे समय में उत्पन्न हो सकते हैं । एवं चार ही प्रकार से संसारी जीव उत्पन्न हो सक्ते हैं । यह दूसरी विग्रह अर्थात् विषम गति करके उत्पन्न होने वाले जीवों को एक दो, तीन समय उत्पन्न होते अन्तर पड़े, इसका कारण ग्रंथ कार आकाश प्रदेश की श्रेणी का विभागों की तरफ आकर्षित हो जाना बतलाते हैं । गुप्त मेद गीतार्थ गुरु गम्य है । ऐसे जीव जितने समय तक मार्ग में रोके जाते हैं उतने समय तक अनाहारिक ( आहार के बिना ) कह लाते हैं । ये जीव बान्धी हुई योनि के स्थान में प्रवेश करके उत्पन्न होवें (वास करे ) उसी समय वो योनि स्थान-कि जो पुगल के बन्धारण से बन्धा हुवा होता है-उसी पुद्गल का आहार-कढाई में डाले हुए बड़े ( भुजिये) के समान श्राहार करते है । उसका नाम-श्रीझ पाहार किया हुवा कहलाता है । और सारे जीवन में एक ही वार किया जाता है । इस आहार को खेंच कर पचाने में एक अन्तमुहूर्त का समय लगता है। यह पहली आहार प्राप्ति कहलाती है। (१) इस प्रकार इस आहार के रस का ऐसा गुण है कि उसके रज कण एकत्रित होने से सात धातु रूप स्थूल शरीर की आकृति बनती है । और ये मूल धातु जीवन पर्यन्त स्थूल शरीर को टिका रखते हैं । ऐसे शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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