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________________ पाठ कर्म की प्रकृति । (१२७ ) आदरण ४ नेत्र विज्ञान आवरण ५ घ्राण आवरण ६ घ्राण विज्ञान प्रावरण ७ रस अावरण ८ रस विज्ञान आवरण 8 स्पर्श आवरण १० स्पर्श विज्ञान प्रावरण । ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट तीश करोड़ा करोड़ी सागरोपम की, अबाधा काल तीन हजार वर्षे का। ॐ दर्शनावरणीय कर्म का विस्तार ॥ दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृति नव ॥ १ निद्रा--सुख से उंघे और सुख से जागे । २ निद्रा निद्रा -दुःख से उघ और दुःख से जागे । ३ प्रचला-बैठे २ उंधे।। ४ प्रचला प्रचला-बोलता बोलताव खातां खातां उधे। ५ थीणाद्धि (स्त्यानद्धि ) निद्रा--उंघ के अन्दर अर्ध वासुदेव का बल आवे । जब उघ के अन्दर ही उठ बैठे, उठ कर द्वार (किवाड़) खोले, खोल कर अन्दर से आभूषणों का डिब्बा और वस्त्रों की गठड़ी लेकर नदी पर जावे । वो डिब्बा हजार मन की शिला उठा कर उसके नीचे रखे व कपड़ों को धो कर घर पर आवे, सुबह सोकर उठे परन्तु मालूम होवे नहीं कि रात को मैंने क्या २ किया। डिब्बे को ढूंढे परन्तु घर में मिले नहीं। ऐसी निद्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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