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________________ आठ कर्म की प्रकृति । ( १३१) अशाता वेदनीय की स्थिति जघन्य एक सागरके सातहिस्सोमें से तीन हिस्से और एक पल्य के असंख्यातवें भाग उणी (कम ) उत्कृष्ट तीश करोडा करोडी सागरोपम की, अबाधा काल तीन हजार वर्ष का। *४ मोहनीय कर्म का विस्तार मोहनीय कर्म के दो भेदः-१ दर्शन मोहनीय २चारित्र मोहनीय। १ दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतिः-१ सम्यक्त्व मोहनीय २ मिथ्यात्व मोहनीय ३ मिश्र (सममिथ्यात्व) मोहनीय । २ चारित्र मोहनीय के दो भेदः-१ कषाय चारित्र मोहनीय २ नोकषाय चारित्र मोहनीय । कषाय चारित्र मोहनीय की सोलह प्रकृति, नौकषाय चारित्र मोहनीय की नव प्रकृति एवं २८ प्रकृति ।। कषाय चारित्र मोहनीय की १६ प्रकृति । १ अनन्तानु बंधी क्रोध-पर्वत की चीर समान २ ,,, मान-- पत्थर के स्तम्भ समान ३ , माया-वांस की जड (मूल), ४ , ,, लोभ-कीरमजी रंग समान इन चार प्रकृति की गति नरक की, स्थिति जाव जीव की और घात करे समाकित की। ५ अप्रत्याख्यानी क्रोध-तालाब की तीराड़ के समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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