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________________ ( ५२२) थोकडा संग्रह। उपशम समक्ति ज० उ० अं० मु०, क्षयोप० और वेदक की स्थिति ज० अं० मु०, उ०६६ सागर जाजरी । ८ अन्तर द्वार-क्षायक समकित में अन्तर नहीं पड़े । शेष ३ में अन्तर पड़े तो ज० अं० उ० अनन्त काल यावत् देश न्यून [ उणा ] अर्ध पुद्गल परावर्तन । ६ निरन्तर द्वार:-चायक समाकित निरन्तर पाठ समय तक आवे शेष ३ समकित पावलिका के असं. में भाग जितने समय निरन्तर आवे । १० प्रागरेश द्वार-क्षायक समकित एक वार ही आवे । उपशम समकित एक भव में ज० १ वार उ०२ बार आवे और अनेक भव आश्री ज० २ वार आवे शेष २ समकित एक भव पाश्री ज० १ वार उ० असंख्य वार और अनेक भव आश्री ज०२ वार उ असंख्य वार अवे। ११ क्षेत्र स्पशना द्वार:-क्षायक समकित समस्त लोक स्पर्श [ केवली सम्म० आश्री ] शेप ३ सम देश उण सात राजू लोक स्पर्श।। १२ अल्प बहुत्व द्वार:-सर्व से कम उपशम सम० वाला, उनसे वेदक समक्ति वाला असंख्यात गुणा, उनसे क्षयोप० सम० वाला असंख्यात गुणा, उनसे क्षायक सम० वाला अनन्त गुणा (सिद्धापेक्षा )। ॥ इति समक्ति के ११ हार सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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