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________________ समकित के ११ द्वार। (५२१ ) समकित के ११ द्वार १ नाम २ लक्षण ३ श्रावन (आगति) ४ पावन ५ परिणाम ६ उच्छेद ७ स्थिति ८ अन्तर ह निरन्तर १० आगरेश ११ क्षेत्र स्पशना और अल्प बहुत्व । १ नाम द्वार-समकित के ४ प्रकार । क्षायक, उपशम, क्षयोपशम और वेदक समकित । २ लक्षण द्वारः-७ प्रकृति [अनंतानुबन्धी क्रोध मान, माया, लोभ और ३ दर्शन मोहनीय ] का मूल से क्षय करने से क्षायक समकित व ६ प्रकृति उपशमावे और समकित मोहनीय वेदे तो वेदक समाकित होता है अनंतानु० चोक का क्षय करे और तीन दर्शन मोह को उपशमावे उसे क्षयोपशम समकित कहते हैं । ३ श्रावन द्वार-क्षायक सम० केवल मनुष्य भव में आवे शेष तीन समकित चार गति में आवे । ४ पावन द्वार-चार ही समकित गति में पावे । ५ परिणाम द्वार-क्षायक समकित अनन्ता [सिद्ध आश्री शेष तीन समकित वाला असंख्यात जीव ६ उच्छेद द्वार-क्षायक समकित का उच्छेद कभी न होवे । शेष तीन की भजना। ७ स्थिति द्वार-क्षायक समकित सादि अनन्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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