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________________ दश द्वार के जीव स्थानक | (( १८१ ) (७) जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से सोलह का क्षयोपशम, १२ का उदय १५ बोल तो ऊपर कहे वो और १ संज्वलन का क्रोध एवं १६ का क्षयोपशम २८ प्रकृति में से ये १६ छोड़ शेष १२ का उदय । १६ के क्षयोपशम में २३ संपराय क्रिया नहीं लगे | १२ के उदय में एक माया बत्तिया क्रिया लगे । आठवें जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकति में से सात का उपशम तथा क्षायिक ( क्षय ) १० का क्षयोपशम और ११ का उदय । सात उपशम तथा क्षायिक१ अनन्तानुबंधी क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ ५ समकित मोहनीय ६ मिथ्यात्व मोहनीय ७ मिश्र मोहनीय श्रप्रत्याख्यानी चार, प्रत्याख्यानी चार एवं ८, ६ संज्वलन का क्रोध १० संज्वलन की माया ११ लोभ एवं ११ का उदय । १० के क्षयोपशम में २३ संपराय क्रिया नहीं लगे । ११ के उदय में एक माया वत्तिया क्रिया लगे । नववें जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से १० का उपशम तथा क्षायिक, ११ का क्षयोपशम ७ का उदय । अनन्तानुबंधी के चार ५ समकित मोहनीय ६ मिथ्यात्व मोहनीय ७ मिश्र मोहनीय और तीन वेद एवं १० का उपशम तथा क्षायिक, अप्रत्याख्यानी चार प्रत्यख्यानी चार, ८, ६ संज्वलन का क्रोध १० मान ११ माया एवं ११ का क्षयोपशम, नो कषाय के नव में से तीन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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