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________________ दश द्वार के जीव स्थानक । ( १८७) क्षायिक निष्पन्न । जिनमें से क्षायिक से आठ कर्म का क्षय होवे । आठ कर्म खपाने (क्षय करने ) के बाद जोर पदार्थ निपजे उसे क्षायिक निष्पन्न कहते हैं। क्षायिक निष्पन्न के आठ भेद १ ज्ञाना वरणीय कर्म का क्षय होवे तब केवल ज्ञान उत्पन्न होव २ दर्शना वरणीय कर्म का क्षय होवे तब केवल दर्शन उत्पन्न होवे ३ वेदनीय कर्म का क्षय होवे तब निराबाधत्वपन उत्पन्न होवे ४ मोहनीय कमे का क्षय. होवे तब क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होवे ५ आयुष का क्षय होवे तर अक्षयत्वपन उत्पन्न होवे ६ नाम कर्म का क्षय होवे तव अरूपीपन उत्पन्न होवे ७ गोत्र कर्म का क्षय होवे तो अगुरूलघु पन उत्पन्न होवे ८ अंतराय कर्म का क्षय होवे तो वीयपना उत्पन्न होवे । ४क्षायोपशमिक भाव के दो भेदः-१ बायोपशमिक २क्षायोपशमिक निष्पन्न । उदय में आये हुवे कमाँ को खपावे और जो कर्म उदय में नहीं आये उन्हें उपशमावे उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। क्षायोपशम करने से जो २ पदार्थ निपजे उन्हें क्षायोपशमिक निष्पन्न कहते हैं। क्षायोपशम से जो २ पदार्थ निपजे उस पर गाथा:दस उव उग तिदिठि चउ चरित्त, चरित्ता चरितें य । दाणाइ पंच लद्धि, वीरियत्ति पंच इंदिए ॥ १॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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