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________________ संयता ( संयति ) । ( ६०७ १ १ स्थिति कल्प नियंठा में बताये हुवे १० कल्प, प्रथम तथा चरम तीर्थंकर के शासन में होवे | २ अस्थित कल्प = २२ तीर्थंकर के साधुओं में होवे १० कल्प में से शय्यान्तर, कुतकर्म और पुरुष ज्येष्ट एवं ४ तो स्थित हैं और वस्त्रकल्प, उद्देशीक, आहार कल्प, राजपीठ, मासकल्प, चातुर्मासिक कल्प और प्रतिक्रमण कल्प एवं ६ स्थित हांवे । ३ स्थिवर कल्प = मर्यादापूर्वक वस्त्र पात्रादि उपकरण से गुरुकुलवास, गच्छ और अन्य मर्यादा का पालन करे । ४ जिनकल्प = जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट उत्सर्ग पक्ष स्वीकार करक, अनेक उपसर्ग १६ स्वीकार करके तथा अनेक उपसर्ग सहन करते हुवे जङ्गल आदि में रहे (विस्तार नंदी सूत्र में से जानना ) ५ वल्पातीत आगम विहारी अतिशय ज्ञान वाले महात्मा जो कल्परहित भूत- भावि के लाभालाभ देख कर वर्ते । सामायिक संयति में ५ वल्प, छेदोप० परि० में ३ कल्प (स्थित, स्थिर, जिनकल्प ) सूक्ष्म, यथा० में २ कल्प ( स्थित और कल्पातीत ) पावे | ५ चारित्र द्वार - सामा०, छेदो० में ४ नियंठा ( पुलाक, वकुश, पडिसेवण, और कृपाय कुशील ) परि०, सूक्ष्म में १ नियंठा ( कषाय कुशील) और यथा० में २ नियंठा (निर्ग्रन्थ और स्नातक) पावे | For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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