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________________ ( ५२६ ) थोडा संग्रह | योजन ऊंची, ५०० धनुष्य चौडी है दोनों तरफ नीले पन्नों के स्तम्भ हैं जिन पर सुन्दर पुतलियें और मोती की मालाएं हैं | मध्य भाग के अन्दर पद्मवर वेदिका के दो भाग किये हुवे हैं । [१] अन्दर के विभाग में एक जाति के वृक्षों का वनखण्ड है जिसमे ५ वर्ण का रत्न मय तृण है । वायुकं संचार से जिसमें ६ राग और ३३ रागनियें निकलती हैं | इसमें अन्य वावडियें और पर्वत हैं, अनेक आसन है जहां व्यन्तर देवी-देवता कीड़ा करते हैं [२] बाहर के विभाग में तृण नहीं है । शेष रचना अन्दर के विभाग समान है। I मेरु पर्वत से चार ही दिशा में ४५-४५ हजार योजन पर चार दरवाजे हैं । पूर्व में विजय, दक्षिण में विजयचन्त, पश्चिम में जयन्त और उत्तर में अपराजित नामक हैं प्रत्येक दरवाजा ८ योजन ऊंचा ४ योजन चौड़ा है । दरवाजे के ऊपर नव भूमि और सफेद घुमट [ गुम्बज ] छत्र, चामर, ध्वजा तथा ८-८ मंगलीक हैं । दरवाजों के दोनों तरफ दो दो चोतरे हैं जो प्रासाद, तोरण चन्दन, कलश, झारी, धूप, कड़छा और मनोहर पुतलियों से सुशोभित है । क्षेत्र का विस्तार [१] भरत क्षेत्र - मेरु के दक्षिण में अर्धचन्द्राकारवत् है मध्य में वैताढ्य पर्वत आने से भरत के दो भाग हो For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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