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________________ खण्ड। जोयणा । (५२६ ) देव कुरु , १५८४२-२ ५३००० ६०४१८.१२ उत्तर कुरु , ११८४२.२ . ५३००० ६०४१८-१२ रम्यक् वास , ८४२१- १ १३३६१६ ७३६०१.१७ ८४०१६-४ हिरण वाय , २१०१५, ६७५५-३ ३७६७४.१६ ३८७४०.१० दक्षिण ऐरावत , २३८३ १८६२-७॥ १४४७१-६ १४५२८११ उत्तर , ,, २३८- ३ ० १७४८.१२ १७६६ १ (४) पव्वय द्वार ( पर्वत )-२६६ पर्वत शाश्वत हैं । देव कुरु में ५ द्रह हैं जिसके दोनों तट पर दश २ कंचन गिरि सर्व सुवर्ण मय हैं दश तट पर १०० पर्वत हैं। इसी प्रकार १०० कंचन गिरि उत्तर कुरु में हैं तथा दीर्घ वैता ढ्य १६ वक्षार पर्वत, ६ वर्षधर पर्वत, ४ गजदंता पर्वत, ४ वृतल वैताट्य, ४ चित विचितादि और १ मेरु पर्वत एवं २३६ हैं। ३४ दीघ वैताट्य-३२ विजय विदेह १ भरत १ ऐरावर्त के मध्य भाग में है । १६ वक्षार-१६.१६ विजय में सीता, सीतोदा नदी से ८.८ विजय के ४ भाग होगये हैं इसके ७ अन्तर है । जिनमें ४ वक्षार पर्वत और ३ अंतर नदी हैं। एक एक विभाग में ४ वक्षार पर्वत एवं ४ विभागों में १६ वक्षार है। इनके नाम-चित्र विचित्र,निलन, एकशैल, त्रिकुट,वैश्रमण, अंजन, भयांजन, अंकाबाई, पवमावाई, आशीविष, सुहावह, चन्द्र, सूर्य, नाग, देव । ६ वर्ष धर-७ मनुष्य क्षेत्रों के मध्य में ६ वर्षधर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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