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श्री वीर-जिन का
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सर्वोदय तथा
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MargamMENHSसर्वाऽन्तवत्तद्ग-मुख्य-कल्प सर्वाऽन्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम् सर्वा पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
श्रीवीर जिनालय
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जीव
एक नित्य अनेक अनित्य अजीव। मान
पुण्य लोक स्विभाव बक्ष्य सामान्य पाप परलोका बिभाव। पाया विमोष
हिंसा सम्यक विपा
देखनय पक्ति/सुसि/आत्मा आहत आहसा मिथ्याअखिया निरपेक्ष पुरुषाधाममाण अगम अख/परमात्मा
Rullalatha/
Vत/यति/ममिति माराया।
वी प्रमोद मरुण्य
MES
ARRIANAVINYATANI KAVIAसमता निर्भयता निमुहता लोकसेवा
तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पु. दधे
भव्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कले येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्ततं
कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपति वीरं प्रणोमि स्टम्॥
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विषय-सूची १ वीर-वन्दना (कविता)--युगवीर
१ ११. जैनी कान ? (कविता)--युगवार २ वीर-बागी (कविता)--युगवीर
२ २० सर्वोदयतीर्थ और उसके प्रति कर्तव्य--बा. उपमन ३ वीर-शामनाभिनन्दन--ममन्तभद्रादि
जैन M. A. LL. B. ४ ४ वीर-तीर्थाऽवतार--सम्पादक
२५ बीत रही है अनपम घटियों (कविता)--इन्दुजन : ५ समन्नभद्र-वचनामृत--युगवीर
२. उद्बोधन (कविता)--श्रीचन्द्रभान 'कमलेग' ६ ६ मानवधर्म (कविता)-युगवीर
२१ मोहनजोदड़,कालीन और आधुनिक जैन-मा कृति ७ महावीर-मन्देश (कविता)--युगवीर
--बा० जयभगवान एडवोकेट . ८ श्रीवीरका सर्वोदयतीर्थ--सम्पादक
२४ भगवान महावीर ओर उनका मदियतीर्थ ५. सर्वोदय नीर्थ--५० कैलाशचन्द्र जैन शास्त्री १७
--10 परमानन्द शास्त्री '. १० सर्वोदय या निजोदय--प्रो० देवेन्द्रकुमार एम.ए. १३ ११ जैनधर्म और समाजवाद--प्रो० महेन्द्र कुमार न्या० -१
२५ वीर-गागनके कुछ मल मूत्र--यगवीर
२६ परम उपाम्य कान ' (कविता)--युगीर १२ सर्वोदय और मामाजिकना--श्रीऋषभदाम गका
२७ अज-मम्बोधन (मचित्र कविता)--यगवीर १३ मर्वोदय कैमे हो?-बा० अनन्तप्रमाद B.Sc. ५
०८ मम्ताग्श्री जगलकिशोरजोका ट्रम्टनामा १४ अहिमक-परम्परा-श्री विश्वम्भग्नाथ पाड६१ १५ महावीरम्बामीसे भवनको प्रार्थना (कविता)
०१. माहित्य-पग्निय ओर ममालोचन--1०परमानन्द ७८ --० नायगम प्रमी
३. लोकका अद्वितीय गर अनकान्तवाद--पदरबारी१६ मबका उदय--महात्मा भगवानदीन
लाल, न्यायानायं ७ १७ मादय नीयं के नाम पर-श्रीजमनालाल गा.10:
८ १ ख गरि-उदयगिरि-परिनय--त्रान्छोटेलाल जैन ? १८ आनायं थीसमन्तभद्रका पार्टीलपुत्र-श्रीदगग्य
2. सम्पादकीय (0) अनकान्तका नया वर्ष शर्मा एम०ए०, डी. लिट
(२)चित्र परिचय अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग (१) अनेकान्तके 'मरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना।
स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना । (३) विवाह-गादी आदि दानके अवमरोंपर अनेकान्तको अच्छी सहायता भजना
तथा भिजवाना। (४) अपनी ओरसे दूसरोको अनेकान्त भट-म्वरूप अथवा फ्री भिजवाना, जैसे विद्या
संस्थाओ, लायब्रेरियों, सभा-मोसाइटियो और जैन-अजैन विद्वानोको । विद्याथियों आदिको अनेकान्त अर्ध मल्यम देनेके लिये २५).५०)आदिकी महायता
भेजना । २५) की महायतामें १०को अनेकान्त अर्धमूल्यमे भेजा जा मकेगा।)। (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा दिलाना।
लोकहितकी माधनाम सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादिमामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना ।
गहायनादि भजन तथा पत्रव्यवहारका पता-- नोट--दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोको
___ मैनेजर 'अनेकान्त' 'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेंटस्वरूप भेजा जायगा।
वीरसेवामदिर, सग्मावा जि. सहारनपुर ।
(५) विद्या
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अनेकान्त
वारजिन-शासन
वीरजिन अथवा को
ANASI
श्रुतविवेक
दुःश्रुतिवर्जन - एकाग्रता -हित-मित-वचन (भाषासमिति)
स्याद्वाद (सापेक्षवाद,
ना
- विश्व प्रेम
विश्वविज्ञान
१
समाधि सध्याना
विज्ञता
काधमाचरण
समता
मानवतत्त्व-विज्ञा
वतत्त्व-विज्ञान
सविवेक-भोजन-पाना
सविवेक.मलादुत्सा
RTIYAR
उसमक्षमादित
न
नय-प्रमाण-निक्षेप विज्ञान
जये
निर्भयता निःस्पृहता परिषद
.
समापविरति गा54
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-
पंचेन्द्रिय-विषय
AT.
जड़-चेतन-वस्तु
Linctua
पंचविधमिथ्यादर्शन- पंचविधनसस्थावरसमूह समन्वयित) जीव (अहिंस्य)
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विश्वतत्व-प्रकामाक
वार्षिक मूल्य ५)
इस विशेषाङ्कका मूल्य २)
नीतिविरोषवसीयोकव्यवहारवर्तकसम्म परमागमस्यबीजभुबनेकर कर्जपत्यन्त
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
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मार्च
वर्ष ११ किरण १
वीरसेवामन्दिर सरसावा जि. सहारनपुर फाल्गुन शुक्ल, वीर-संवत् २४७८, विक्रम संवत् २००८
बीर-वन्दना शुद्धि-शक्तिको पराकाष्ठा को अतुलित प्रशान्तिके साथ । पा, सत्तीर्थ प्रवृत्त किया जिन नमें वीर प्रभु साञ्जलि-माथ ॥१॥ जीते भय, उपसर्ग - परीषह जीते, जिनने मनको मार ; जीतीं पंचेन्द्रियाँ जिन्होंने औ' क्रोधादि-कषायें चार । राग-द्वेष-कामादिक जीते, मोह-शत्रुके सब हथियार ; सुख-दुख जीते, उन वीरोंको नमन करूं मैं वारंवार । जिन वीरोंने कर्म-प्रकृतियोंका सब मूलोच्छेद किया ; पूर्ण तपश्चर्याके बलपर स्वात्म-भावको साध लिया । उन सिद्धोंको सिद्धि-अर्थमें वन्दै अतिसन्तुष्ट हुआ ; उनके अनुपम-गुणाकर्षमे भक्ति-भावको प्राप्त हुआ ॥
-युगवीर
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अनेकान्त
[वर्ष ११
वीरवाणी
अखिल-जग-तारन को जल-यान प्रकटी, वीर, तुम्हारी वाणी, जग में सुषा-समान ॥
अनेकान्तमय, स्यात्पद-भांछित, नीति-न्याय की खान । सब कुवाद का मूल नाश कर, फैलाती सत् शान ॥ अखिल.
नित्य-अनित्य-अनेक-एक-इत्यादिक वादि महान । नतमस्तक हो जाते सम्मुस, छोड़ सकल अभिमान ॥ मलिल.
जीव-अजीव-तत्व निर्णय कर, करती संशय-हान । साम्यभावरस चखते है, जो करते इसका पान ॥ अखिल.
ऊंच, नीच औ, लघु-सुदीर्घ का, भेद न कर भगवान् । सबके हितकी चिन्ता करती, सब पर दृष्टि समान ॥ अखिल.
अन्धी श्रद्धा का विरोध कर, हरती सब अज्ञान । युक्ति-बाद का पाठ पढ़ाकर, कर देती सज्ञान ॥ अखिल.
ईशन जगकर्ता, फल-दाता, स्वयं सृष्टि-निर्माण । . निज-उत्थान-पतन निज कर में, करती यों सुविधान ।। अखिल.
(८) हृदय बनाती उच्च, सिखा कर, धर्म सुदया-प्रधान । जो नित समझ आदरें इसको, वे 'युग-वीर महान ॥ अखिल.
-युगवीर
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किरण १]
वीर-शासनाभिनन्दन
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वीर-शासनाऽभिनन्दन
तब जिन | शासन-विभवो
सिद्धाोंका स्थान है-उसके द्वारा प्रतिपादित सब पदार्थ । जयति कलावपि गुणाऽनुशासन-विभवः । कल्पित न होकर प्रमाणसिद्ध है--जो लोग वास्तव में उसका दोष-कशासनविभवः
आश्रय लेते हैं उन्हें वह अनुपम सुखस्वरूप है-मोक्ष स्तुवन्ति चनं प्रभा-शाऽऽसनविभवः॥ सुख तककी प्राप्ति कराने वाला है और सब --समन्तभद्राचार्य: कुसमयोंका विशासक है-उन सारे मिथ्या दर्शनों (मतों) के
गर्वको चूर-चूर करनेकी शक्तिसे सम्पन्न है जो सर्वथा हैवीर जिन | आपका शासन-माहात्म्य आपके प्रवचन एकान्तवादके आश्रयको लेकर शासनाव बने हुए है और का यथावस्थित पदार्थोके प्रतिपादन-स्वरूप गौरव-कलिकाल मिथ्या तत्त्वोंके प्ररूपण-द्वारा जगतमें दुःखोंका जाल में भी जयको प्राप्त है-सर्वोत्कृष्टरूप से वर्त रहा है-उस फैलाये हुए है।' प्रभावसे गुणोंमें अनुशासन-प्राप्त शिव्यजनोंका भव विनष्ट हमा है-संसारपरि-भ्रमण सदाके लिये छूटा है-इतना श्रीमत्परमगम्भीर-स्याद्वाराऽमोघलाग्छनम् । ही नहीं, किन्तु जो दोषरूप चाबुकों का निराकरण करने में
जीयात्रलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ समर्थ है-चाबुकोंकी तरह पीड़ाकारी काम-क्रोधादि दोषोंको अपने पास फटकने नहीं देते-और अपने ज्ञानावि-तेजसे
-अकलंकदेवः जिन्होंने आसन-विभुगोंको-लोकके प्रसिद्ध नायकोंकोनिस्तेज किया है वे---गणघरदेवादि महात्मा-भी आपके
जो श्रीसम्पन्न है-यथार्थवादिता निर्बाधता और इस शासन-महात्म्यको स्तुति करते हैं।'
परहित-प्रतिपादनादि गुणोंकी शोभासे संयुक्त है-,परम
गम्भीर है-विविध-नय-भंगोंकी गहनता एवं सुयुक्ततासिद्ध सिद्धत्याण ठाणमणोवमसुह उबगयाण ।
को लिये हुए अतीव गहरा है-और 'स्याधाव' जिसका कुसमय-विसासण सासण जिणाण भव-जिणाणं । अमोघ लक्षण है-सर्वथा नियमका त्यागी जो 'स्यात्' शब्द
बोला है उस पूर्वक कथन अथवा सर्वथा एकान्तदृष्टिको त्यागकर
मुख्य-गौण की व्यवस्थाको लिये हुए सापेक्ष नयवादरूप कथन 'भवको जीतनेवाले संसार-परिभ्रमणके कारण शाना- ही जिसकी अचूक पहिचान है-यह तीन लोकके नाव, वरणादि कर्मोसे सदाके लिये अपना पिंड छुड़ानेवाले- (श्रीवीरप्रभु) का शासन-प्रवचनतीर्थ-जिसे 'बिन-1 जिनों-अर्हन्तोंका शासन-प्रवचनतीर्थ-सिद्धस्वरूप है- शासन' कहते है, अपवन्त हो-लोकहृदयोंको सदा अपने अपने ही गुणोंसे आप प्रतिष्ठित हैं-(क्योंकि) वह प्रभावसे प्रभावित करता रहे।'
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वीर-तीर्थाऽवतार
तीर्थोत्पत्तिका समय
सावणबहुलपडियदे सहमसे सुहोदए रविणो । जैनियोंके २४ वें तीर्थकर श्री वीरजिन, जिन्हें महावीर,
अभिजिस्स पढ़मजोए जत्प चुगावी मुणेयव्वा ॥३॥ सन्मति और बर्द्धमान नामों से भी उल्लेखित किया जाता है, श्रीवीर भगवानका जन्म चैत्रशुक्ला त्रयोदशीको जब अपनी मौनपूर्वक बारह वर्ष की घोर तपश्चर्या के अनन्तर हुआ था। उन्होने मोटे रूपसे ३० वर्षकी अवस्थामें जिनदीक्षा वैशाख सुदि दशमीके दिन अशेष घातिकर्ममलका नाश कर ली, १२ वर्ष तक तपश्चरण किया और ३० वर्ष तक उपदेश केवलज्ञानको प्राप्त हुए-विश्वके सारे चराऽचर पदार्थ के लिये विहार करके कार्तिकी अमावस्याके दिन निर्वाणउनके विमल-अनन्त शानमें साक्षात् झलकने लगे-तब पदको प्राप्त किया। उनके तीर्थको अवतार लिये आज उससे ६६ दिनके बाद उनकी सर्वलोक-हितकारिणी संपूर्ण (माघशुक्ला पूर्णिमाको) २५०७ वर्ष ७ महीने का समय पदार्थ तत्त्वोका यथार्थ प्रतिपादन करनेवाली और समस्त हो गया है । संशयोंका उच्छेदन करने वाली पवित्रवाणी सर्वप्रथम खिरी।। इसी वाणीसे वीरके तीर्थका अवतार (जन्म) हआ है. तोत्पित्तिका स्थानजिसे प्रवचनतीर्थ, धर्मतीर्थ, स्याद्वादतीर्थ, वीरशासन, उक्त तीर्थकी उत्पत्तिका स्थान पंचशैलपुर (राजगृह अनेकान्तशासन और जिनशासनादिक भी कहा जाता है। नगर) की नैऋत दिशामें स्थित विपुलाचल पर्वत है, जिस उस समय इस भरतक्षेत्रके अवसर्पिणी-कल्प-सम्बन्धी के मस्तक पर होने वाले तत्कालीन समवसरणमंडलकी चतुर्थ कालके प्रायः (कुछ ही अंश कम)चौतीस वर्ष अवशिष्ट गन्धकुटीमें सिंहासनारूढ हुए श्री वर्धमान भट्टारक (भ रहे थे; तब वर्षके प्रथम मास प्रथम पक्ष और प्रथम दिनमें महावीर) ने अपना तीर्थ प्रवर्तित किया है। इस विषयका भावणा मा प्रतिपदाको पूर्वाह्रके समय, जब कि विस्तृत वर्णन उक्त 'धवला' टीका और 'जयधवला' में भी द्र महर्तमें अभिजित नक्षत्रका योग हो चका था और सर्यका 'तित्थु पत्ती कम्हि खेते ?' इस प्रश्नके उत्तरमें प्राचीन उदय हो रहा था, इस तीर्थकी उत्पत्ति हुई है। जैसा कि गाथाओंके उल्लेखसहित पाया जाता है। यहां उसका विक्रमकी ९वी शताब्दीके विद्वान आचार्य वीरसेन- बहुत थोडा-सा उपयुक्त अंश नीचे दिया जाता हैके द्वारा सिद्धान्त-रीका 'धवला' मे उद्धत निम्न तीन ... पंचसलउर-रह-विसा-बिसय-अइविउल-विउलप्राचीन माथाओंसे प्रकट है:
गिरिमत्ययत्पए x x x समवसरणमंडलेxxx गन्धइमिस्सेऽवसप्पणीए बउत्थममयल्स पच्छिमे भाए। उडिप्पासायम्मि द्विसिंघासगारदेण वड्डमाणभडारएण बोत्तीसवाससेते किंचिति सेसूणए संते ॥१॥
तित्यप्पाइवं ।' उतच-पंचसेलपुरे रम्मे विउले पटवदुत्तमे । बासस्स पढममासे पढमे पक्सम्मि सावणे बहुले । णाणादुमसमाइण्णे देवदाणवबदिदे ॥१॥ महावीरेणत्यो मारिखपुष्वदिवसे तित्युप्पती दु अभिजम्मि ॥२॥ कहिओ भवियलोअस्स।
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समन्तभद्र-वचनामृत
मदनिषेध
'बो गर्वितचित हुआ घरमें बाकर-कुल-आति श्रीवीर-तीर्थके अनन्य भक्त और महाप्रभावक आचार्य आदि-विषयक किसी भी प्रकारके मदके वशीभूत होकरस्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन-धर्म-शास्त्रमें धर्मके सम्यग्दर्शनादिरूप धर्ममें स्थित अन्य पार्मिकं को तिरस्कृत अंगभूत सम्यग्दर्शनका लक्षण प्रतिपादन करते हुए उसे परता है-उनकी अवज्ञा-अवहेलना करता है-वह (वस्तुतः) स्मयसे रहित बतलाया है। वह 'स्मय' क्या वस्तु है, इसका मामय धर्मको-सम्यग्दर्शनादिरूप अपने आत्म-धर्मकोस्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजी स्वयं लिखते है
ही तिरस्त करता है, उसीकी अवज्ञा-अवहेलना करता है।
क्योंकि पार्मिकोंके विना धर्मका अस्तित्व कहीं भी नहीं जानं पूजा कुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः ।
पाया जाता--गुणीके अभावमें गुणका पृथक् कोई अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्मतस्मयाः ।।
सद्भाव ही नही; और इसलिये जो गुणी धर्मात्माकी 'शान-विद्या-कला, पूजा-आदर-सत्कार-प्रतिष्ठा- अवज्ञा करता है वह अपने ही गुण-धर्मकी अवज्ञा करता है, यशःकीति, कुल-पितृकुल-गुरुकुलादिक, जाति- यह सुनिश्चित है।' ब्राह्मण-क्षत्रियादिक, बल-शक्ति-सामर्थ्य अथवा जन- भावार्थ-जो अहंकारके वशमें अन्धा होकर दूसरे धन-वचन-काय-मंत्र-सेनाबलादिक, ऋद्धि-अणिमादिक धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंको अपनेसे कुल, जाति आदिमें हीन ऋद्धि अथवा लौकिक विभूति और पुत्रपौत्रादिक सम्पत्ति, समझता हुआ उनका तिरस्कार करता है-उनकी उस कुल, तप-अनशनादिरूप तपश्चर्या तथा योगसाधना, और जाति, गरीबी, कमजोरी या संस्कृति आदिकी बातको लेकर वपू-शोभनाकृति तथा सौदर्यादि गुण-विशिष्ट शरीर, उनकी अवज्ञा-अवमानना करता है अथवा उनके किसी इन बाठोंको आश्रित करके-इनमेंसे किसीका भी आश्रय- धर्माधिकारमें बाधा डालता है-वह भूलसे अपने ही धर्मआधार लेकर-जो मान (गर्व) करना है उसे गतस्मय आप्त- का तिरस्कार कर बैठता है ! फलतः उसके धर्मकी पुरुष 'स्मय' अर्थात् मद कहते हैं। (और इस तरह ज्ञानादि स्थिति बिगड जाती है और भविष्यमै उसके लिये उस धर्मरूप आश्रयके भेदसे मदके ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, की पूनःप्राप्ति अति दुर्लभ हो जाती है। यही इस मदपरिणतिजातिमद आदि आठ भेद होते है । )'
का सबसे बड़ा दोष है और इसलिये सम्यग्दृष्टिको आत्मइस मदकी मदिराका पानकर मनुष्य कभी-कभी इतना पतनके हेतुभूत इस दोषसे सदा दूर रहना चाहिए। उन्मत्त (पागल) और विवेकशून्य हो जाता है कि उसे उक्त मद-दोष किस प्रकारके विचारों द्वारा दूर किया मात्मा तथा आत्म-धर्मकी कोई सुषि ही नहीं रहती जा सकता है, इस विषयका तीन कारिकाओंमें दिशा-बोष और वह अपनेसे हीन कुल-जाति अथवा ज्ञानादिकमें न्यून कराते हुए स्वामीजी लिखते हैपार्मिक व्यक्तियोंका तिरस्कार तक कर बैठता है ! यह एक बदि पाप-निरोपोमयसम्पदा किं प्रयोजनम् बड़ा भारी दोष है। इस दोष और उसके भयंकर परिणामको
अब पापालायोस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । सुझात हुए स्वामाजान जा वचनामृतका वषा का ह बह इस 'यदि (किसीके पास) पापनिरोष है-पापके नाखव
को रोकनेवाली सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयधर्मरूप निषि मौजूद स्मयेन योऽन्यानत्यति धर्मस्थान् गविताशयः । है-तो फिर अन्यसम्पत्तिसे-सम्यग्दर्शनादिसे भिन्न दूसरी सोऽत्येति धर्ममास्मीन धर्मो धामिर्कबिना। कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी सम्पत्तिसे-पया प्रयोजन है?
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अनेकान्त
[वर्ष ११ उससे आत्माका कौनसा प्रयोजन सघ सकता है? कोई भी जाता है, और पापके प्रभावसे-मिथ्यादर्शनादिके कारणनहीं। और यदि पासमें पापानव है-मिथ्यादर्शनादिरूप एक देव भी कुत्तका जन्म ग्रहण करता है। धर्मके प्रसाबसे अधर्म-प्रवृत्तिके कारण बात्मामें सदा पापका बावष तोहपारियोंको दूसरी अनिर्वचनीय सम्पत्तककी प्राप्ति बना हमा है तो फिर अन्य सम्पत्तिस-मात्र कुल- हो सकती है। (ऐसी हालतमें कुल, जाति तथा ऐश्वर्यादिसे जाति-ऐश्वर्यादिकी उक्त सम्पत्तिसे-क्या प्रयोजन है ? हीन धर्मात्मा लोग कदापि तिरस्कारके योग्य नहीं होते।)' वह आत्माका क्या कार्य सिद्ध कर सकती है ? कुछ भी नही। ___ भावार्थ-धर्मात्मा वही होता है जिसके पाप- गृहस्थोको गौरव-प्रदान . का निरोष है-पापासव नहीं होता। विपरीत इसके स्वामी सामन्तभद्रने, अपने समीचीनधर्मशास्त्रमें, जो पापास्रवसे युक्त है उसे पापी अथवा अधर्मात्मा समझना 'चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्' इस वाक्यके चाहिए। जिसके पास पापके निरोषरूप धर्मसम्पत्ति अथवा द्वारा सामायिकमें स्थित गृहस्थको उस मुनिके समान यतिभावपुण्यविभूति मौजूद है उसके लिये कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी को प्राप्त हुआ निर्ग्रन्थ मुनि लिखा है जिसको किसी भोले भाईसम्पत्ति कोई चीज नहीं-अप्रयोजनीय है। उसके अन्तरंग- ने दयाका दुरुपयोग करके वस्त्र ओढ़ा दिया हो और वह में उससे भी अधिक तथा विशिष्टतर सम्पत्तिका सद्भाव मुनि उस वस्त्रको अपने लिये एक प्रकारका उपसर्ग समझ है, जो कालान्तरमें प्रकट होगी, और इसलिये वह रहा हो, और इस तरह गृहस्थ एक ही दिनमें प्रतिदिन श्रावक तिरस्कारका पात्र नहीं। इसी तरह जिसकी आत्मामें और मुनि अथवा अणुव्रती और महाव्रती' दोनोंकी अवस्थापापास्रव बना हुआ है उसके कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी को प्राप्त होता है-वह एकान्ततः श्रावक या अणुवती ही सम्पत्ति किसी कामकी नहीं। वह उस पापावके कारण नही है, ऐसा सूचित किया है। परन्तु इससे भी अधिक शीघ्र नष्ट हो जायगी और उसके दुर्गति-गमनादिको गृहस्थोंको गौरव प्रदान करनेवाली उनकी निम्न अमृतवाणी रोक नही सकेगी। ऐसी सम्पत्तिको पाकर मद करना मूर्खता खास तौरसे ध्यान देने योग्य है, जिसमें एक गृहस्थको है। जो लोग इस सम्पूर्ण तत्त्व (रहस्य) को समझते हैं वे मुनिसे भी श्रेष्ठ बतलाया गया हैकुल, जाति तथा ऐश्वर्यादिसे हीन धर्मात्माओंका
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । सम्यग्दर्शनादिके धारकोंका-कदापि तिरस्कार नहीं करते।
अनगारो, गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ।। सम्यग्दर्शन-सम्पन्नमपि मातंगवेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगाराऽन्तरोजसम् ॥
'निर्मोही-दर्शनमोहसे रहित सम्यग्दृष्टि-गृहस्य 'जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न है-सत् श्रद्धानरूप ।
मोक्षमार्गी है-धर्मपथपर आरूढ है, भले ही वह धर्मसम्पत्तिसे युक्त है-वह चाहालका पुत्र होनेपर भी पुलजात
पर कुल जाति अथवा वेष तथा चारित्रादिसे कितना ही हीन -कुलादिसम्पत्तिसे अत्यन्त गिरा हुआ समझा जानेपर भी
परी क्यों न हो-किन्तु मोहवान-दर्शनमोहसे युक्त देव-आराध्य है, और इसलिये तिरस्कारका पात्र नही, मिथ्यादृष्टिगृहत्यागी मुनि मोक्षमार्गी नहीं है-धर्मपथपर ऐसा आप्तदेव अथवा गणापराविक देव कहते है। उसकी
आरूढ़ नहीं है, भले ही वह कुल-जाति-वेषसे कितना ही उच्च बशा उस अंगारेके सदृश होती है जो बाहामें भस्मसे
तथा बाह्य चारित्रमें कितना ही बढ़ा-चढा क्यों न हो। आच्छावित होनेपर भी अन्तरंगमें तेज तथा प्रकाशको लिए
अतः जो भी गृहस्थ मिथ्यावर्मनसे रहित सम्पन्दष्टि है हुए है, और इसलिये कदापि उपेक्षणीय नहीं होता।
बह बर्शनमोहसे युक्त (प्रत्येक जाति के) मिथ्यावृष्टिमुनिसे स्वापि देवोऽपि देवः वा बायतेपर्मकिल्वियात् । काऽपि नाम भवेबन्या सम्पबाच्छरीरिणाम् ॥ 'व्रती गृहस्थको दिग्वत और देशव्रतकी अवस्थाओंमे सीमासे
“(मनुष्यतो मनुष्य) एक कुत्ता भी धर्मके प्रतापसे बाहरके क्षेत्रोंकी दृष्टिसे पंचमहाव्रतोंकी परिणतिसे युक्त तथा -सम्यग्दर्शनादिके माहात्म्यसे-स्वर्गादिमें जाकर देव बन उनका प्रसाधक तक लिखा है। (सा०प० ७०,७१,९५)।
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फिरणं १]
मानव-धर्म
भावार्थ--गृहत्यागी मुनिका दर्जा आम तौरपर और चांडालके पुत्र तकको सम्यग्दर्शनका पात्र बतलाया गृहस्थसे ऊँचा होता है। परन्तु जो गृहस्थ सम्यम्बर्शनसे गया है। ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि हीन-से-हीन जातिसम्पन्न है उसका दर्जा जैनागमकी दृष्टिके अनुसार
कुलवाला गृहस्थ भी जो सम्यग्दृष्टि है-अनेकान्तदृष्टिसे
पाला गृहस्थ भा जा सम्यग्दा
सम्पन्न है-वह उस उच्च-से-उच्च जाति-कुलवाले मुनिसे उस मनिसे ऊंचा है जो सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न नहीं है
भी ऊंचे दर्जे पर है जो शास्त्रोंका बहुत कुछ पाठी तथा अथवा अनेकान्तदृष्टिसे विहीन है । गृहस्थपदमें सभी बायाचारमें निपुण होते हुए भी मिथ्यादृष्टि है-सर्वथा जातियों और सभी श्रेणियोंके मनुष्योंका समावेश होता है एकान्तदृष्टिको लिये हुए द्रव्यलिंगी है।
-युगवीर
मानव-धर्म
W
मानव-धर्म मानवोंसे नहिं करना घृणा सिखाता है; मनुज-मनुजको एक बताता भाई-भाईका नाता है। असली जाति-भेद नही इनमें गो-अश्वादि-जाति-जैसा; शूद्र-बाह्मणीके संगमसे उपजे मनुज, भेद कैसा ? ॥१॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये भेद कहे व्यवहारिक है। जाति-कुमदसे गवित हो जो धार्मिकको ठुकराता है; निज-निज कर्माश्रित, अस्थिर, नहिं ऊंच-नीचता-मूलक है। वह सचमुच आत्मीय धर्मको ठुकराता न लजाता है। है सब है अंग समाज-देहके, क्या अन्त्यज, क्या आर्य महा; क्योंकि धर्म धार्मिक पुरुषोंके बिना कही नही पाता है;
क्या चाडाल-म्लेच्छ,सबहीका अन्योन्याश्रित कार्य कहा ॥२॥ धार्मिकका अपमान इसीसे वृष-अपमान कहाता है ॥५॥
सब है धर्मपात्र, सब ही है पौरिकताके अधिकारी; मानव-धर्मापेक्षिक सब है धर्मबन्धु अपने प्यारे; धर्मादिक अधिकार न दे जो शूद्रोंको वह अविचारी। अपनोंसे नहिं घृणा श्रेष्ठ है, हैं उद्धार-योग्य सारे । ६ शूद्र तिरस्कृत-पीडित हो निज कार्य छोड़ दें यदि सारा; अतः सुअवसर-सुविधाएँ सब उन्हें मुनासिब देना है। है तो फिर जगमें कैसी बीते ? पंगु समाज बने सारा ||३|| इस से ही कल्याण उन्होंका औं अपना भी होना है ।।६।।
गर्भवास औ' जन्म-समयमें कौन नहीं अस्पृश्य हुआ? बन करके 'युग-वीर' उठा दो रूढि-जनित संस्कारोंकाहै कौन मलोंसे भरा नहीं ? किसने मल-मूत्र न साफ किया? पर्दा हृदय पटलसे अपने, हा दो गढ़ हुंकारोका । है किसे अछूत जन्मसे तब फिर कहना उचित बताते हो? तब होगा दर्शन सुसत्यका, मानवधर्म-पुण्यमयका; इतिरस्कार भंगी-चमारका करते क्यों न लजाते हो? ॥४॥ जीवन सफल बनेगा तब ही, अनुगामी हो सत्पथका ॥७॥
-युगवीर
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मनेकान्त
महावीर - सन्देश
यही है महावीर सन्देश ।
विपुलाचल पर दिया गया जो प्रमुख धर्मं- उपदेश || यही ० ||
सब जीवोको तुम अपनाओ, हर उनके दुःख-क्लेश । असद्भाव रक्खो न किसीसे, हो अरि क्यों न विशेष ॥ १॥
वैरीका उद्धार श्रेष्ठ है, कीजे सविधि-विशेष । वेर छुटे, उपजे मति जिससे वही यत्न यत्नेश ॥२॥
घृणा पापसे हो, पापीसे नहीं कभी लव-लेश । भूल सुझा कर प्रेम-मार्गसे, करो उसे पुण्येश ॥ ३॥
तज एकान्त-कदाग्रह - दुर्गुण, बनो उदार विशेष । रह प्रसन्नचित सदा, करो तुम मनन तत्त्व-उपदेश ॥४॥
जीतो
राग-द्वेष-भय-इन्द्रिय-मोह कषाय अशेष । धरो धैर्य, समचित्त रहो, औ' सुख-दुखमें सविशेष ॥५॥
अहकार-ममकार तजो, जो अवनतिकार विशेष । तप-संयम में रत हो, त्यागो तृष्णा-भाव अशेष || ६ ||
'वीर' उपासक बनो सत्यके, तज मिथ्याऽभिनिवेश | विपदाओंसे मत घबराओ, घरो न कोपावेश ||७||
संज्ञानी संदृष्टि बनो, औ' तजो भाव सक्लेश । सदाचार पालो दृढ़ होकर, रहे प्रमाद न लेश ॥८॥
सादा रहन-सहन भोजन हो, सादा भूषा-वेष । विश्व- प्रेम जाग्रत कर उरमें, करो कर्म निःशेष ॥ ९ ॥
हो सबका कल्याण, भावना ऐसी रहे हमेश । दया - लोकसेवा-रत चित हो, और न कुछ आदेश ॥१०॥
इसपर चलने से ही होगा, विकसित स्वात्म- प्रदेश । आत्म-ज्योति जगेगी ऐसे जैसे उदित दिनेश ॥ ११॥
यही है महावीर-सन्देश ।
— युगवीर
[ वर्ष ११
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श्रीवीरका सर्वोदयतीर्थ
[सम्पादकीय ] विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीके महान विद्वान यह प्रदर्शित किया गया है कि वीर-जिन-द्वारा इस शासनमें आचार्य स्वामी समन्तभद्रने अपने 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थमें, वर्णित वस्तुतत्त्व कैसे नय-प्रमाणके द्वारा निर्बाध सिद्ध होता जोकि आप्त कहे जानेवाले समस्त तीर्थप्रवर्तकोंकी परीक्षा है और दूसरे सर्वथैकान्त-शासनोंमें निर्दिष्ट हुआ वस्तुतत्त्व करके और उस परीक्षा-द्वारा श्री वीरजिनको सत्यार्थ आप्त- किस प्रकारसे प्रमाणबाधित तथा अपने अस्तित्वको ही सिद्ध के रूपमें निश्चित करके तदनन्तर वीरस्तुतिके रूपमें लिखा करनेमे असमर्थ पाया जाता है। सारा विषय विश पाठकोगया है, वीर भगवानको (मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण के लिये बडा ही रोचक और वीरजिनेन्द्रकी कीतिको और अन्तराय नामके चार घातिया कर्मोका अभाव हो दिग्दिगन्तव्यापिनी बनानेवाला है। इसमें प्रधान-प्रधान जानेसे) अतुलित शान्तिके साथ शुद्धि और शक्तिके उदय- दर्शनों और उनके अवान्तर कितने ही वादोंका सूत्र अथवा की पराकाष्ठाको प्राप्त हुआ एवं ब्रह्मपथका नेता लिखा सकेतादिके रूपमे बहुत कुछ निर्देश और विवेक भा गया है और इसीलिये उन्हें "महान्" बतलाया है। साथ ही उनके है। यह विषय ३९वी कारिका तक चलता रहा है। इस अनेकान्त शासन (मत) के विषयमें लिखा है कि 'वह दया कारिकाकी टीकाके अन्तमें ९वी शताब्दीके विद्वान् श्री (अहिंसा), दम (संयम), त्याग (परिग्रह-स्यजन) और विद्यानन्दाचार्यने वहां तकके वणित विषयकी संक्षेपमें समाधि (प्रशस्त ध्यान) की निष्ठा-तत्परताको लिये हुए मूचना करते हुए लिखा है:है, नयों तथा प्रमाणोंके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिलकुल स्पष्ट- स्तोत्रे यूपयनुशासने जिनपतेरिस्य निःशेषतः सुनिश्चित करनेवाला है और (अनेकान्तवादसे भिन्न) सम्प्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवीं काष्ठा परामाभितान् । दूसरे सभी प्रवादोंके द्वारा अबाध्य है-कोई भी उसके विषय- निर्णीत मतमद्वितीयममल सतोप्राकृत को खण्डित अथवा दूषित करने में समर्थ नहीं है। यही सब तबाह्य वितथ मत सकल सखीवनप्यताम् ॥ उसकी विशेषता है और इसीलिये वह अद्वितीय है।' जैसा
अर्थात्-यहां तकके इस युक्त्यनुशासनस्तोत्रमें शुद्धि और कि ग्रन्थकी निम्न दो कारिकाओसे प्रकट है
शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्रकै अर्मकान्तात्मक त्वं शुद्धि-शवस्योरुदयस्य काष्ठा
स्याद्वादमत (शासन) को पूर्णतः निर्दोष और अद्वितीय तुला-व्यतीतां जिन! शान्तिरूपाम् ।
निश्चित किया गया है और उमसे बाह्य जो सर्वथा एकान्तअवापिय ब्रह्मपथस्य नेता के आग्रहको लिये हुए मिध्यामतोंका समूह है उस सबका महानित यत्प्रतिवतुमीशाः ।।
संक्षेपसे निराकरण किया गया है, यह बात सद्बुद्धिशालियोंबयापम-त्याग-समाधि-निष्ठं
को भले प्रकार समझ लेनी चाहिये।। नय-प्रमाण-प्रकृताऽऽञ्जसार्थम् ।
इसके आगे, ग्रन्थके उत्तरार्धमें, वीरशासन-वणित तत्त्वअपृष्यमन्यरखिलः प्रवाद
ज्ञानके मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोंको स्पष्ट जिन! त्वदीयं मतमद्वितीयम् । ६॥
करके बतलाया गया है जो ग्रन्थकार-महोदय स्वामी समन्तइनसे अगली कारिकाओंमें सूत्ररूपसे वर्णित इस वीर- भद्रसे पूर्वके ग्रन्थोंमें पायः नहीं पाई जाती, जिनमें 'एव' शासनके महत्वको और उसके द्वारा वीर-जिनेन्द्रकी तथा 'स्यात्' शब्दके प्रयोग-अप्रयोगके रहस्यकी बातें भी महानताको स्पष्ट करके बतलाया गया है-खास तौरसे शामिल है और जिन सबसे वीरके तत्वज्ञानको समझने
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तथा परबनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है। बीरके इस अनेकान्तात्मक शासन (प्रवचन) को ही ग्रन्थमें 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया है—संसारसमुत्रसे पार उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा मार्ग सूचित किया है जिसका आश्रय लेकर सभी भव्यजीव पार उतर जाते है और जो सबोंके उदय-उत्कर्षमें अथवा आत्माके पूर्ण विकास में परम सहायक है। इस विषयकी कारिका निम्न प्रकार है
अनेकान्त
[ वर्ष १९
तीन शब्दोंसे मिलकर बना है। 'सर्व' शब्द सब तथा पूर्ण (Complete) का वाचक है; 'उदय' ऊंचे-ऊपर उठने, उत्कर्ष प्राप्त करने, शंकट होने अथवा विकासको कहते हैं; और 'तीर्थ' उसका नाम है जिसके निमित्तसे संसारमहासागरको तिरा जाय । वह तीर्थ वास्तवमें धर्मतीर्थ है। जिसका सम्बन्ध जीवात्मासे है, उसकी प्रवृत्ति में निमित्तभूत जो आगम अथवा आप्तवाक्य है वही यहां 'तीर्थं' शब्दके द्वारा परिग्रहीत है। और इसलिये इन तीनों शब्दोंके सामासिक योगसे बने हुए 'सर्वोदयतीर्थ' पदका फलितार्थ यह है कि -- जो आगमवाक्य जीवात्माके पूर्ण उदय उत्कर्ष अथवा विकासमें तथा सब जीवोंके उदय उत्कर्ष अथवा विकास में सहायक है वह सर्वोदयतीर्थ है। आत्माका उदय उत्कर्ष अथवा विकास उसके ज्ञान-दर्शन-सुखादिक स्वाभाविक गुणोंका ही उदय उत्कर्ष अथवा विकास है । और गुणोंका वह उदय - उत्कर्ष अथवा विकास दोषोंके अस्त- अपकर्ष अथवा बिनाशके बिना नही होता। अत. सर्वोदयतीर्थं जहां ज्ञानादि गुणोंके विकास में सहायक है जहां अज्ञानादि दोषों तथा उनके कारण ज्ञानावर्णादिक कर्मोके विनाशमें भी सहायक है-वह उन सब रुकावटोंको दूर करनेकी व्यवस्था करता है जो किसीके विकासमें बाधा डालती हैं। यहां तीर्थको सर्वोदयका निमित्त कारण बतलाया गया है तब उसका उपादान कारण कौन ? उपादान कारण वे सम्यग्दर्शनादि आत्मगुण ही है जो तीर्थंका निमित्त पाकर मिथ्यादर्शनादिके दूर होनेपर स्वयं विकासको प्राप्त होते है । इस दृष्टिसे 'सर्वोदयतीर्थ' पदका एक दूसरा अर्थ भी किया जाता है और वह यह कि 'समस्त अभ्युदय कारणोंका — सम्यगदर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक्चारित्ररूप त्रिरत्न धर्मोका जो हेतु है उनकी उत्पत्ति अभिवृद्धि आदिमें ( सहायक ) निमित्त कारण है - वह सर्वोदयतीर्थं है'। इस दृष्टिसे ही, कारणमें कार्यका उपचार करके इस तीर्थको धर्मतीर्थ कहा जाता हैं और इसी दृष्टिसे वीरजिनेन्द्रको घर्मतीर्थंका कर्ता (प्रवर्तक) लिखा है; जैसा कि ९ वीं शताब्दीकों बनी 'जयवला' नामकी सिद्धान्तटीकामें उद्धत निम्न प्राचीन
सर्वान्तयतय-मुख्य कल्प सर्वान्त नियोऽनपेक्षन् सर्वावसकर निरन्त सर्वोदय सर्वमिद सबैच 1.६१॥
इसमें स्वामी समन्तभद्र वीर भगवानकी स्तुति करते हुए कहते हैं-' ( हे वीर भगवन् ! ) आपका यह तीर्थप्रवचनरूप शासन, अर्थात् परमागमवाक्य, जिसके द्वारा संसार - महासमुन्द्रको तिरा जाता है— सर्वान्तवान् है— सामान्य- विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध ( भाव -अभाव), एक-अनेक, मादि अशेष धर्मोको लिये हुए है; एकान्ततः किसी एक ही धर्मको अपना इष्ट किये हुए नहीं है और गौण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुए हैं--एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है; जो गौण है वह निरात्मक नहीं होता और जो मुख्य है उससे व्यवहार चलता है; इसीसे सब धर्म सुव्यवस्थित हैं; उनमें असंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नही है । को शासन-वाक्य धर्मो में पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है-वह सर्वधर्मोसे शून्य हैउसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नही बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-मवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही यह शासनतीचं सब दुःखोंका अन्त करने बाला है, यही निरन्त है--किसी भी मिथ्यादर्शनके द्वारा खण्डनीय नहीं है और यही सब प्राणियोंके अभ्युदय का कारण तथा आत्मा पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा सर्वोदयतीर्थ है--जो शासन सर्वथा एकान्तपक्षको लिये हुए हैं उनमें से कोई भी 'सर्वोदयतीर्थ' पदके योग्य नही हो सकता।'
वहां 'सर्वोक्ती' यह पद सर्व उपय और सीर्ष न
१ "तरति संसारमहार्णवं येन निमितेन तत्तीर्थमिमिति" २ "सर्वेषामभ्युदयकारणायां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभेवानां हेतुत्वादभ्युदयहेतुश्योपतेः ।" -- विद्यानन्यः
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श्रीवासा वाक्यतीर्थ
गाचासे प्रकट है
भूल सुखाई थी और यह कहते हुए उनका विरोष मिटाना निस्संसपकरो पौरो महावीरो जितमो। बा कि 'तुमने हाथीके एक-एक अंगको ले रखा है, तुम सब राग-बोस-मयादीयो चम्मतित्यस कारो॥
मिल जाबो तो हाथी बन जाय-तुम्हारे अलग-अलग इस गाथामें वीर-जिनको जो निःसंशयकर-संसारी
कथनके अनुरूप हाथी कोई चीज नहीं है और इसलिये जो प्राणियोंके सन्देहोंको दूरकर उन्हें सन्देहरहित करनेवाला
वस्तुके सब अंगोंपर दृष्टि गलता है-उसे सब बोरसे
देखता और उसके सब गुण-धर्मोको पहचानता है-वह महावीर-जान-वचनादिकी सातिशय-शक्तिसे सम्पन्नजिनोत्तम-जितेन्द्रियों तथा कर्मजेताओंमें श्रेष्ठ-और राग-द्वेष
वस्तुको पूर्ण तया यचार्य रूपमें देखता है, उसकी दृष्टि भयसे रहित बतलाया है वह उनके धर्मतीर्थ-प्रवर्तक होनेके
बनेकान्तदृष्टि है और यह अनेकान्तदृष्टि ही सती अथवा उपयुक्त ही है। बिना ऐसे गुणोंकी सम्पत्तिसे युक्त हुए कोई
सम्यग्दृष्टि कहलाती है और यही संसारमें बैर-विरोधको सच्चे धर्मतीर्थका प्रवर्तक हो ही नहीं सकता। यही वजह
मिटाकर सुख-शान्तिको स्थापना करने में समर्थ है। इसीसे है कि जो ज्ञानादि-शक्तियोंसे हीन होकर राग-द्वेषादिसे
श्री अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थ सिद्धपुपायमें अनेकान्तको अभिभूत एवं आकुलित रहे हैं उनके द्वारा सर्वथा एकान्त
विरोधका मथन करनेवाला कहकर उसे नमस्कार किया शासनों-मिथ्यादर्शनोंका ही प्रणयन हुआ है, जो जागतमे
है। और श्रीसियसेनाचार्यने वह बतलाते हुए कि अनेकान्तअनेक भूल-प्रान्तियों एवं दृष्टिविकारोंको जन्म देकर दुःखों
के बिना लोकका कोई भी व्यवहार सर्वथा बन नहीं सकता के जालको विस्तृत करने में ही प्रधान कारण बने हैं। सर्वथा
उसे लोकका अद्वितीय गुरु कह कर नमस्कार किया है।' एकान्तशासन किस प्रकार दोषोंसे परिपूर्ण है और वे कैसे
सिद्धसेनका यह कहना कि 'अनेकान्त' के बिना लोकका दुःखोंके विस्तारमें कारण बने हैं इस विषयकी चर्चाका यहां
व्यवहार सर्वथा बन नहीं सकता सोलहों आने सत्य है। अवसर नहीं है। इसके लिये स्वामी समन्तभद्रके देवागम,
सर्वथा एकान्तवादियों के सामने भी लोक-व्यहवहारके न बम युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र जैसे प्रन्थों तथा अष्ट -
सकनेकी यह समस्या रही है और उसे हल करने तथा लोकसहस्री जैसी टीकाओंको और श्रीसिद्धसेन, अकलंकदेव,
व्यवहारको बनाये रखने के लिये उन्हें माया, अविद्या, संवृत्ति विद्यानन्द आदि महान् आचार्योंके तर्कप्रधान ग्रन्थोंको
जैसी कुछ दूसरी कल्पनाये करनी पड़ी है अथवा यों कहिये कि देखना चाहिये।
अपने सर्वथा एकान्तसिद्धान्तके छप्परको संभालनेके लिये यहा पर मै सिर्फ इतनाही कहना चाहताह किजोतीर्थ- उसके नीचे तरह-तरहकी टेबकियां (थूनियां) लगानी पड़ी शासन--सर्वान्तवान् नहीं-सर्वधर्मोको लिये हुए और उनका है। परन्तु फिर भी वे उसे संभाल नहीं सके और न अपने समन्वय अपने में किये हुए नहीं है--वह सबका उदयकारक सर्वथा-एकान्त सिद्धान्तको किसी दूसरी तरह प्रतिष्ठित करने में अथवा पूर्ण-उदयविधायक हो ही नहीं सकता और न सबके ही समर्थ हो सके है। उदाहरणके लिये अद्वैत एकान्तवादको सब दुःखोंका अन्त करनेवाला ही बन सकता है। क्योकि लीजिये, ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्मके सिवाय दूसरे किसी भी वस्तुतस्व अनेकान्तात्मक है-अनेकानेकगुण-धर्मोको लिये पदार्थका अस्तित्व नही मानते-सर्वथा अभेदवादका हुए है। जो लोग उसके किसी एक ही गुण-धर्मपर दृष्टि ही प्रतिपादन करते हैं -उनके सामने जब साक्षात् दिखाई डालकर उसे उसी एक रूपमें देखते और प्रतिपादन करते --- है उनकी दृष्टियां उन जन्मान्ध पुरुषोकी दृष्टियोंके समान १ परमागमस्य बीज निषिद्ध-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । एकांगी है जो हाथीके एक-एक अंगको ही पकड़कर-देखकर
सकल-नय-विलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ।। उसी एक-एक अंगके रूपमें ही हाथीका प्रतिपादन करते
-पुरुषार्थसिदषुपाय पे, और इस तरह परस्परमें लड़ते, मगड़ते, कलहका बीज २. जेण विणा लोगस्पवि ववहारो सम्बहाण बिडा। गोते और एक दूसरेके दुःखका कारण बने हुए थे। उन्हें तस्स भुक्तकणरुणो णमो बजेगंतवायस ॥६॥ हाचीके सब अंगोंपर दृष्टि रखनेवाले सुनेत्र पुरुषने उनकी
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देनेवाले पदार्थ-भेदों, कारक-क्रिया-भेदों तथा विभिन्न लोक- संतवाय-बोसे सक्कोलया भगंति संसाणं। . व्यवहारोंकी बात आई तो उन्होंने कह दिया कि 'ये सब संखा य असवाए तेसि सम्वे विते. सबा ॥५०॥ मायाजन्य है' अर्थात मामाकी कल्पना करके प्रत्यक्षमें दिखाई ते उ भयणीवणीया सम्मईसणमणुत्तरं होति ।... पड़नेवाले सब भेदों तथा लोक-व्यवहारोंका भार उसके
भव-दुक्ख-विमोक्खं दो वि ण पूरति पाडिलकं ॥५१॥ पर रख दिया। परन्तु यह माया क्या बला है और वह 'सांख्योंके सदवादपक्षमें बौद्ध और वैशेषिक जन जो सत् रूप है या असतूरूप इसको स्पष्ट करके नही बतलाया दोष देते है तथा बौद्धों और वैशेषिकोंके असद्वादपक्षमें गया। माया यदि असत् है तो वह कोई वस्तु न होनेसे किसी सांख्यजन जो दोष देते है वे सब सत्य हैं-सर्वथा एकान्तभी कार्यके करनेमें समर्थ नही हो सकती । और यदि सत् बादमें वैसे दोष आते ही है। ये दोनों सद्वाद और असद्वाद है तो वह ब्रह्मसे भिन्न है या अभिन्न है ? यह प्रश्न खड़ा होता दृष्टियां यदि एक दूसरेको अपेक्षा रखते हुए संयोजित हो है। अभिन्न होनेकी. हालतमें ब्रह्म भी मायारूप मिय्या जायँ-समन्वयपूर्वक अनेकान्त-दृष्टिमें परिणत हो जायेंठहरता है और भिन्न होनेपरमाया और ब्रह्म दो जुदी वस्तुए तो सर्वोत्तम सम्यगदर्शन बनता है। क्योंकि ये सत्-असत् होनेसे तापत्ति होकर सर्वथा अढतबादका सिद्धान्त बाधित रूप दोनों दृष्टियां अलग-अलग संसारके दुःखोंसे छुटकारा हो जाता है। यदि हेतुसे अद्वैतको सिद्ध किया जाता है तो दिलाने में समर्थ नहीं हैं-दोनोंके सापेक्ष संयोगसे ही हेतु और साध्यके दो होनेसे भी द्वैतापत्ति होती है और हेतु- एक-दूसरेकी कमी दूर होकर संसारके दुःखोंसे मुक्ति एवं के बिना वचनमानसे सिद्धि माननेपर उस वचनसे भी शान्ति मिल सकती है। द्वतापत्ति हो जाती है। इसके सिवाय द्वैतके बिना अद्वैत इस सब कथनपरसे मिथ्यादर्शनों और सम्यग्दर्शनोंका कहना बनता ही नही जैसे कि हेतुके बिना अहेतुका तत्त्व सहज ही समझमें आ जाता है और यह मालूम हो और हिंसाके बिना अहिंसाका प्रयोग नही बनता । अद्वैत- जाता है कि कैसे सभी मिथ्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शनके में द्वैतका निषेष है, यदि द्वैत नामकी कोई वस्तु नही तो रूपमें परिणत हो जाते है। मिथ्यादर्शन अथवा जैनेतरदर्शन उसका निषेध भी नहीं बनता, द्वतका निषेध होने- जबतक अपने-अपने वक्तव्यके प्रतिपादनमें एकान्तताको से उसका अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। इस तरह सर्वथा अपनाकर पर-विरोधका लक्ष्य रखते हैं तबतक सम्यग्दर्शनअद्वैतवादकी मान्यताका विधान सिद्धान्त-बाधित ठहरता है, में परिणत नही होते, और जब पर-विरोधका लक्ष्य छोड़कर वह अपने स्वरूपको प्रतिष्ठित करने में स्वयं असमर्थ है पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते और उसके आधार पर कोई लोकव्यवहार सुघटित नही हो है तभी सम्यग्दर्शनमें परिणत हो जाते है, और जैनदर्शन सकता। दूसरे सत्-असत् तथा नित्य-क्षणिकादि सर्वथा कहलानेके योग्य होते है। जैनदर्शन अपने अनेकान्तामक एकान्त-वादोंकी भी ऐसी ही स्थिति है, वे भी अपने स्वरूपको
स्याद्वाद-न्यायके द्वारा समन्वयकी दृष्टिको लिये हुए हैप्रतिष्ठित करने में असमर्थ है, और उनके द्वारा भी अपने
समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है न कि विरोष, और स्वरूपको बाधा पहुंचाये बिना लोक-व्यवहारकी कोई
इसलिये सभी मिथ्यादर्शन अपने-अपने विरोधको भुला
कर उसमें समा जाते है। इसीसे सन्मतिसूत्रकी अन्तिम गाथा व्यवस्था नहीं बन सकती।
में जिनवचनरूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मंगलश्रीसिखसेनाचार्यने अपने सन्मतिसूत्र में कपिलके कामना करते हुए उसे 'मिथ्यादर्शनोंका समूहमय' बतलाया सांख्यदर्शनको द्रव्याथिकमयका वक्तव्य, शुद्धोधनपूत्र बब- है वह गाथा इस प्रकार हैके बीडवर्शनको परिशुद्ध पर्यायाथिक नयका विकल्प और भई मिच्छासणसमूहमयस्स अमयसारस्स । उलक (कणाद) के वैशेषिकदर्शनको उक्त दोनों नयोंका जिणवपणस्त भगवमो संविग्ग-सुहाहिगम्मस्स ॥७॥ बक्तव्य होनेपर भी पारस्परिक निरपेक्षताके कारण मिथ्या- इसमें जिनवचनरूप जैनदर्शन (जिनशासन) के तीन त्व बतलाया है और उसके अनन्तर लिखा है:
खास विशेषणोंका उल्लेख किया गया है-पहला विशेषण
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किरण 1
मिथ्यादर्शनसमूहमय, दूसरा अमृतसार और तीसरा संविग्न सुखाभिगम्य है । मिथ्यादर्शनोंका समूह होते हुए भी वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, यही उसकी सर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्ष नयवाचमें सन्निहित है-सापेक्षनय मिथ्या नहीं होते, निर्पेक्षनय ही मिथ्या होते है; जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है-मिया-समूहो नियास मियंकान्तताऽस्ति न । मिरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽवृत् ॥
श्रीवीका सर्वोदयी
बागम
श्रीवीरजिनके सर्वधर्मसमन्वयकारक उदार शासनमें सत्-असत् तथा नित्य-क्षणिकादि रूप वे सब नय-धर्म जो निरपेक्षरूपमें अलग-अलग रहकर अतस्त्वका रूप धारण किये हुए स्व-पर- घातक होते है। वे ही सब सापेक्ष (अविरोध) रूपमें मिलकर तत्त्वका रूप धारण किये हुए स्व-परउपकारी बने हुए है" तथा आश्रय पाकर बन जाते है और इसलिये स्वामी समन्तभद्रने युक्त्यनुशासनकी उक्त (६१वी) कारिकामें वीरशासनको जो सर्वधर्मवान् सर्वदुःखप्रणाशक और सर्वोदयतीर्थं बतलाया है वह बिल्कुल ठीक तथा उसकी प्रकृतिके सर्वथा अनुकूल हैं। वीरका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयो ( परस्पर निरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्यादर्शनोका अन्त (निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही संसारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं । अतः जो लोग भगवान महावीरके शासनकाउनके धर्म तीर्थका - सचमुच आश्रय लेते हैं— उसे ठीक तौर पर अथवा पूर्णतया अपनाते हैं— उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दु:ख यथासाध्य मिट जाते है । और वे इस धर्मके प्रसादसे अपना पूर्ण अभ्युदय - उत्कर्ष एवं विकास – तक सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते है। !
महावीरकी बोरसे इस धर्मतीर्थका द्वार सबके लिये खुला हुआ है, जिसकी सूचक अगणित कथाएं जैनशास्त्रोंमें पाई जाती है और जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पतित
१. य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षा: स्व-पर-प्रणाशिनः । त एव तत्रत्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिणः ॥ स्वयमूस्तोत्र
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से पतित प्राणियोंने भी इस धर्मका आश्रय लेकर अपना उद्धार और कल्याण किया है; उन सब कथाओंोंको छोड़ कर यहां पर जैनग्रन्थोंके सिर्फ कुछ विधि-वाक्योंको ही प्रकट किया जाता है जिससे उन लोगोंका समाधान हो जो इस तीर्थको केवल अपना ही साम्प्रदायिक तीर्थ और एकमात्र अपने ही लिये अवतरित हुआ समझ बैठे हैं तथा दूसरोके लिये इस तीर्थसे लाभ उठाने में अनेक प्रकारसे बाधक बने हुए है। वे वाक्य इस प्रकार है:
(१) वीज्ञायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चतुर्थश्च विषोचितः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः : (२) उच्चावच-जनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । नेकस्मिन्पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः ॥ यशस्तिलके, सोमदेवसूरिः
(३) आवाराऽनवद्यत्वं शुचितपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति शुत्रानपि देव-द्विजाति-तपस्वि-परिकर्मसु योग्यान् । नीतिवाक्यामृते, सोमदेवसूरिः (४) शूद्रोऽप्युपस्कराऽऽचार-वपुः शुद्धयाऽस्तु तावृश: 1
जात्या होनोपि कालाबिलब्धी ह्यात्माऽस्ति धर्म भाक् ॥ सागारधर्मामृते, आशाधरः
(५) एह धम्म जो आयरह बंभणु सुदु वि कोइ । सो साबउ किं साम्रग्रहं अष्णु कि सिरि मणि हो६ । ७६ । सावयधम्म दोहा (देवसेनाचार्य)
इन सब बाक्योंका आशय क्रमसे इस प्रकार है:
(१) 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों वर्ण (आम तौरपर) मुनिदीक्षाके योग्य हैं और चौथा शूद्र वर्णं विधिके द्वारा दीक्षाके योग्य है । ( वास्तवमें) मन, वचन, तथा कायसे किये जानेवाले धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये सभी जीव अधिकारी है ।' —यशस्तिलक
(२) 'जिनेन्द्रका यह धर्म प्रायः ऊंच और नीच दोनों ही प्रकारके मनुष्योंके आश्रित हैं। एक स्तम्भके आधारपर जैसे मन्दिर-मकान नहीं ठहरता उसी प्रकार ऊंच-नीचमेसे किसी एक ही प्रकारके मनुष्यसमूहके आधारपर धर्म ठहरा हुआ नही है वास्तवमें धर्म धार्मिकोंके नामित होता है, भले ही उनमें ज्ञान, धन, मान-प्रतिष्ठा, कुरु-जाति,
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रोर बना और किाल जानता है।
बाबा-ऐश्वर्य, शरीर, बल, उत्पत्तिस्थान और आचार- सम्बन्धन-सम्मानमपि मातङ्गबहन।। बिचाराविकी दृष्टिसे कोई ऊंचा और कोई भीचा हो।' देवा बिदुर्भस्म-गमगारान्तरोजसम् ॥२८॥ -यशस्तिलक
-रलकरण्डके: समन्तभद्रः (३) 'मद्य-मांसादिके त्यागरूप नाचारकी निदोषता, पालन सुरिलो उसमयमेन संभवति । गृह-पात्रादिकी पवित्रता और नित्यस्नानादिके द्वारा शरीर
--स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की शुद्धि, ये तीनों प्रवृत्तियां (विधियां) शूद्रों को भी देव, वीरका यह धर्म इन ब्राह्मणादि जाति-भेदोंको तथा द्विजाति और तपस्वियों (मुनियों) के परिकर्मोक योग्य दूसरे चाण्डालादि विशेषोंको वास्तविक ही नही मानता बनाती है।
-नीतिवाक्यामृत किन्तु वृत्ति अथवा आचार-भेदके बाधारपर कल्पित एवं (४) 'मासन बोर बर्तन बादि उपकरण बिसके शुद्ध परिवर्तनशील जानता है । साथ ही यह स्वीकार करता है हो, मधमांसादिके त्यागसे जिसका बावरण बवित हो और कि अपने योग्य गुणोंकी उत्पत्तिपर जाति उत्पन्न होती है, नित्य स्नानादि द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा उनके नाशपर नष्ट हो जाती है और वर्णव्यवस्था गुणकर्मोंशूद्र भी ब्राह्मणादिक वर्णोके समान धर्मका पालन करनेके के आधारपर है न कि जन्मके । यथा:योग्य है। क्योंकि जातिसे हीन आत्मा भी कालादिक लब्धि- "चातुर्वण्र्य यथाऽन्यच्च बाबालादिविशेषणम् । कोपाकर धर्मका अधिकारी होता है।' -सागारधर्मामृत सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ॥११-२०५॥ (५) 'इल (वाबक) धर्मका जो कोई भी आचरण
--पद्यचरिते, रविषेणाचार्य. पालन करता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र, वह श्रावक है।
__ "माचारमानमवेन जातीनां भेवकत्पनम् । श्रावकके सिरपर और क्या कोई मणि होता है? जिससे नजाति बाह्मणीयाऽस्ति नियता काऽपि तात्विकी॥१७-२४॥ उसकी पहिचान की जा सके।' -सावयधम्मदोहा 'गुणः
मावलमदोता "गुणैः सपबते जातिर्गम बसविपद्यते" ॥-३२॥ नीच-से-नीच कहा जानेवाला मनुष्य भी जो इस धर्म
-धर्मपरीक्षायां, अमितगतिः प्रवर्तककी शरणमें आकर नतमस्तक हो जाता है-प्रसन्नता
"तस्माद्गुणैर्वर्ण-व्यवस्थितिः।" ११-१९८ पूर्वक उसके द्वारा प्रवर्तित धर्मको धारणा करता है-वह
-पद्मचरिते, रविषेणाचार्य:
"क्रियाविशेषादिनिबबन एव ब्राह्मणाविन्यबहार।" इसी लोकमें अति उच्च बन जाता है । इस धर्मकी दृष्टि में कोई जाति गहित नहीं-तिरस्कार किये जानेके योग्य
--प्रमेयकमलमार्तण्डे, प्रभाचन्द्राचार्य. नहीं-सर्वत्र गुणोंकी पूज्यता है, वे ही कल्याणकारी है,
इस धर्ममें यह भी बतलाया गया है कि इन ब्राह्मणादि और इसीसे इस धर्ममें एक चाण्डालको भी व्रतसे युक्त
जातियोका आकृतिआदिके भेदको लिये हुए कोई शाश्वत होनेपर 'बाह्मण' तथा सम्यग्दर्शनसे युक्त होनेपर 'देव' लक्षण भी गो-अश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्यशरीरमें (बाराध्य) माना गया है और चाण्डालको किसी साधारण नही पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योमसे ब्राह्मणीधर्म-क्रियाका ही नहीं किन्तु 'उत्तमधर्म' का अधिकारी सचित आदिमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक किया है, जैसा कि निम्न आर्य-वाक्योसे प्रकट है:
जाति-भेदके विरुद्ध है। इसी तरह जारजका भी कोई चिह्न
शरीरमें नहीं होता, जिससे उसकी कोई जुदी जाति कल्पित .यो लोके त्वा ततः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुयंतः।
की जाय; और न महज़ व्यभिचारजात होनेकी बजहसे बालोऽपिता नितंगीतिको नो नीतिपुर कुतः ॥८॥
ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता है-नीचताका कारण --स्तुतिविवायां, समन्तभद्र.
इस धर्ममें 'अनार्य आचरण' अथवा 'म्लेच्छाचार' माना नजातिमाहता साबि गुणाः कस्याणकारणम् । गया है। इन दोनों बातोंके निर्देशक वो वाक्य इस प्रकार है:स्तरमनपिपायालं तलवाह्मणं पितुः ॥११-२०॥ वर्णाहत्यादिवाना हस्मिनात् ।
नवपरित, रविषणाचार्यः मालपारिए मूदायगर्भाधानप्रवर्तनात् ।।
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बीवीरा सोक्यता
नास्ति पाति-मतो भेदो मनुष्याणां पाश्ववत् । सारी ही योग्यताएं मौजूद है. हर कोई भव्य जीव इसका माकृतिहणाशस्मावन्यपा. परिकल्पते ।
सम्यक् बाभय लेकर संसारसयुव्रते पार उतर सकता है। -महापुराणे, गुणभद्राचार्यः परन्तु यह समाजका और देशका दुर्भाग्य है जो बाज बिहानि विटवातस्य सन्ति नाज कानिचित् । हमने-जिनके हाथों दैवयोगसे यह तीर्थ पड़ा है-स मनामाचरन् किञ्चज्जावते नीचवोचरः॥ महान् तीर्थकी महिमा तथा उपयोगिताको भुला दिया है।
--पप्रचरिते, रविषेणाचार्य इसे अपना घरेलू, क्षुद्र या असर्वोदयत्तीका-सा रूप देकर वस्तुतः सब मनुष्योंकी एक ही मनुष्यजानि इस धर्म- इसके चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर दी है
और इसके फाटकमें ताला डाल दिया है। हम लोग न तो को अभीष्ट है, जो 'मनुष्यजाति' नामक नामकर्मके उदय- ा से होती है, और इस दृष्टिसे सब मनुष्य समान है-
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"
खुद ही इससे ठीक लाभ उठाते है और न दूसरोंको लान आपसमें भाई-भाई हैं और उन्हें इस धर्मके द्वारा अपने
उठाने देते है-महज अपने थोड़ेसे विनोष बथवा क्रीड़ाके विकासका पूरा अधिकार प्राप्त है। जैसा कि निम्न वाक्यों
स्थल-रूपमें ही हमने इसे रख छोड़ा है और उसीका से प्रकट है
यह परिणाम है कि जिस 'सर्वोदयतीर्थ' पर रात-दिन उपा--
सकोंकी भीड़ और यात्रियोंका मेला-सालमा रहना चाहिये मनुष्यजातिरेकैब बालिकर्मोदयोद्भवा ।
था वहां आज सन्नाटासा छाया हुआ है, जैनियोंकी संख्या भी वृशिवाहिता वाचातर्विध्यमिहाश्नुते ॥३८.४५॥
अगुलियोंपर गिनने लायक रह गई है और जो जैनी कहे -आदिपुराणे, जिनसेनाचार्य
जाते है उनमें भी जैनत्वका प्रायः कोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई विप्र-मत्रिय-बिट-शूवा प्रोक्ता. क्रियाविशेषत ।
नही पड़ता-कही भी दया, दम, त्याग और समाधिकी जैनधर्म परा शक्तास्ते सर्व बान्धवोपमा ॥
तस्परता नजर नहीं आती-लोगोंको महावीरके सदेश-धर्मरसिके, सोमसेनोद्धृत की ही खबर नही, और इसीसे संसारमें सर्वत्र दुःख ही दुःख इसके सिवाय, किसीके कुलमें कभी कोई दोष लग फैला हुआ है । गया हो तो उसकी शुद्धि की, और म्लेच्छों तक की कुलशुद्धि ऐसी हालतमें अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका करके उन्हे अपने में मिलाने तथा मुनिदीक्षा आदिके द्वारा उद्धार किया जाय, इसकी सब रुकावटोंको दूर कर दिया ऊपर उठानेकी स्पष्ट आज्ञाएं भी इस धर्मशासनमे पाई जाय, इसपर खुले प्रकाश तथा खुली हवाकी व्यवस्था की जाती है। और इसलिये यह शासन सचमुच ही जाय, इसका फाटक सबोंके लिये हर वक्त खुला रहे, 'सर्वोदयतीर्थ' के पदको प्रात है-इस पदके योग्य इसमें सबोके लिये इस तीर्थ तक पहुचनेका मार्ग सुगम किया जाय, *जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
वैवाहिकसम्बन्धानां सयमप्रतिपतेरविरोधात् । बया १. कुतश्चित्कारणास्य कुलं सम्माप्त-पूषणम्
तत्कन्यकाना चकवादिपरिणीतानां गर्भवत्पन्नस्य मातसोऽपि राजादिसम्मत्या शोषयेत्स्वं यदा कुलम् ॥४०-१९८॥ पक्षापेक्षया म्लेच्छ-व्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तपाजातीयतबाऽस्योपनयाहत्वं पुत्र-पौत्रादि-सन्तती ।
कानां दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात् ॥" न निषिद्धं हि बीमाहें कुलेखेदस्य पूर्वजा. ॥४०-१६९॥
-लम्धिसारटीका (गाचा १९३वी) २. स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छाप्रजा-बाधा-विधायिनः ।
नोट-यहां म्लेच्छोंकी दीक्षा-योग्यता, सकलकुलशुद्धि-प्रदानाचः स्वसाकुर्यादुपकमै ॥४२-१७९॥ संयमग्रहणकी पात्रता और उनके साथ वैवाहिक सम्बन्ध
--आविपुराणे, जिनसेनाचार्यः आदिका जो विधान किया है वह सब कसायपहुडकी ३. "मलेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहगं कथं 'जयघवला' टीकामें भी, जो लब्धिसारटीकासे कईसौ भवतीति नाऽशंकितव्यं । दिग्विजयकाले बातिना सह वर्ष पहलेकी रचना है, इसी क्रमसे प्राकृत और संस्कृत भार्यक्षमामागताना म्याराणानां बवादिभिः सह बात- भाषामें दिया है।
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बनेकान्त
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इसके तटों तथा घाटोंकी मरम्मत कराई जाय, बन्द रहने महावीरके इस अनेकान्त-शासन-रूप तीर्थमें यह खूबी तथा पर्से तक यथेष्ट व्यवहार में न मानेके कारण तीर्घजल खुद मौजूद है कि इससे भरपेट अथवा यषेष्ठ वेष रखनेवाला पर जो कुछ काई जम गई है अथवा उसमें कहीं-कहीं शैवाल मनुष्य भी यदि समदृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ उपपत्ति-चक्षुसे उत्पन्न हो गया है उसे निकालकर दूर किया जाय और (मात्सर्यक त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसे) सर्वसाधारणको इस तीर्षके महात्म्यका पूरा-पूरा परिचय इसका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका कराया जाय । ऐसा होनेपर अथवा इस रूपमें इस तीर्थका मान-श्रंग खण्डित हो जाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्याउद्धार किया जानेपर आप देखेंगे कि देश-देशान्तरके कितने मतका आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्याबेशुमार यात्रियोंकी इसपर भीड़ रहती है, कितने विद्वान् दृष्टि होता हुआ भी सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन इसपर मुग्ध होते हैं, कितने असख्य प्राणी इसका आश्रय जाता है। अथवा यू कहिये कि भ. महावीरके शासनपाकर और इसमें अवगाहन करके अपने दुःख-संतापोंसे तीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है। इसी छुटकारा पाते है और ससारमें कैसी सुख-शान्तिकी लहर बातको स्वामी समन्तभद्रने अपने निम्न वाक्य द्वारा व्यक्त व्याप्त होती है। स्वामी समन्तभद्रने अपने समयमें, जिसे किया हैआज डेढ़ हजार वर्षसे भी ऊपर हो गये हैं, ऐसा ही किया है; और इसीसे कनड़ी भाषाके एक प्राचीन शिलालेख*
* कामं विपनप्युपपत्तिचः समीलता ते समदृष्टिरिष्टम् । में यह उल्लेख मिलता है कि 'स्वामी समन्तभद्र भ० महावीर स्वाय ध्रुव साम्तमानभूगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभवः॥ के तीर्थकी हजारगुनी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए'
-युक्तधनुशासन अर्थात्, उन्होंने उसके प्रभावको सारे देश-देशान्तरोंमें
अतः इस तीर्थके प्रचार-विषयमे जरा भी संकोचकी व्याप्त कर दिया था। आज भी वैसा ही होना चाहिये। जरूरत नही है, पूर्ण उदारताके साथ इसका उपर्युक्त रीतियही भगवान् महावीरकी सच्ची उपासना, सच्ची भक्ति
से योग्यप्रचारकोंके द्वारा खुला प्रचार होना चाहिये और और उनकी सच्ची जयन्ती मनाना होगा।
सबोंको इस तीर्थकी परीक्षाका तथा इसके गुणोंको मालूम *यह शिलालेख बेलर ताल्लुकेका शिलालेख नम्बर करके इससे यथेष्ट लाभ उठानेका पूरा अवसर दिया जाना १७ है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके अन्दर सौम्य- चाहिये । योग्य प्रचारकोंका यह काम है कि वे जैसे-तैसे नायकी-मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है और शक जनतामें मध्यस्थभावको जाग्रत करें, ई-द्वेषादिरूप मत्सर सवत् १०५९ का लिखा हुआ है। देखो, एपिग्रेफिका भावको हटाएं, हृदयोंको युक्तियोंसे संस्कारित कर उदार कर्णाटिकाकी जिल्द पांचवीं अथवा स्वामी समन्तभद्र बनाएं, उनमे सत्यकी जिज्ञासा उत्पन्न करें और उस सत्यकी (इतिहास) पृष्ठ ४६ वा।
दर्शनप्राप्तिके लिये लोगोंकी समाधान दृष्टिको खोलें।
सरसावा, जनवरी १९५२, जुगलकिशोर मुस्तार
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सर्वोदय तीर्थ
(पं० कैलाशचन्द्र जैन शास्त्री)
जैनधर्मके सिवाय अन्य किसी धर्ममें धर्मको 'तीर्थ' क्योंकि उसका काम तारना है, लोग उसे अपनाकर संसार और धर्मके प्रवर्तकको 'तीर्थकर' संज्ञा दिये जानेकी बात समुद्रसे तिर जाते हैं और फिर सदाके लिये उस जंजालसे मेरी दृष्टि में तो नही है । मैं तो इतना ही जानता कि छूट जाते है । अन्य धर्मों और उनके प्रवर्तकोंमें यह भावना जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसके प्रवर्तक 'तीर्थकर' कहे उस रूपमें लक्षित नहीं होती। वे शास्ता है, अवतार है, स्रष्टा जाते है । शब्दकोश तकमें तीर्थकरका अर्थ जैनोंके उपास्य है, रक्षक है, सहारक है किंतु तारक नही है। और जो तारक देव किया गया है। इसी तरह 'तीर्थ' शब्दका प्रयोग भी नही है वह तीर्थकर भी नही है । और जो तीर्थंकर नहीं है, पवित्र स्थानोंके लिये किया जाता है। किंतु जैनधर्ममें उसका धर्म धर्म भले ही हो किंतु वह तीर्थ तो नहीं ही है। धर्मको तीर्थ कहा है, तभी तो उसके प्रवर्तक तीर्थकर अतः जैनधर्म केवल धर्म नहीं है किंतु तीर्थ है। इसीसे कहे गये है। जो धर्म तीर्थका कर्ता है वही तीर्थकर है। स्वामी समन्तभद्रने अपने बृहत्स्वयंभू स्तोत्रमें धर्मनाथ
अब प्रश्न यह होता है कि क्यों जैनधर्ममें धर्मको तीर्थ तीर्थकरका स्तवन करते हुए उन्हें निष्पाप-बर्मतीर्थका और उसके प्रवर्तकको तीर्थकर संज्ञा दी गई है ? क्या प्रत्येक प्रवर्तक' कहा है। धर्म तीर्थ और उसका प्रवर्तक तीर्थकर कहा जा सकता है? इसपर पुनः प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या धर्म-सीर्ष उक्त प्रश्नपर विचार करनेके लिये हमें तीर्थ शब्दका
सपाप भी होता है जो उसके पहले 'निष्पाप' विशेषण अर्थ जान लेना चाहिए । 'तीर्य' शब्दका अर्थ होता है
लगाया है। तारनेवाला अथवा जिसके द्वारा निरा जाता है। नदियोंके
यद्यपि इस प्रश्नका समाधान यह हो सकता है कि किनारे जो घाट बने होते है उन्हें भी इसीलिये ही तीर्थ कहते यहां निष्पाप विशेषण इतरव्यवच्छेदक नहीं है, किंतु वस्तूहै, उन स्थानोंमें स्नान अवगाहन आदि करने में कोई खतरा स्वभाव सूचक है अर्थात् वह इस बातको बतलाता है कि नही रहता। क्योकि वे स्थान अवगाहित होते हैं। तैरनेमें धर्मतीर्थ निष्पाप होता है, किंतु मुझे तो वह इतरव्यवच्छेदक कुशल अनुभवी पुरुषोंके द्वारा ही स्थापित किये जाते हैं। भी प्रतीत होता है और वस्तु-स्वरूप-निरूपक भी। जब धर्म
तीर्थसे हम ऐसे धर्मको लेते हैं जो धर्म ही नहीं है किंतु जैनधर्ममें इस संसारकी उपमा समुद्रसे दी गई है।
तीर्थ भी है तब निष्पाप विशेषण उसके स्वरूपका सूचक जैसे समुद्रको पार करना बहुत कठिन है वैसे ही इस संसारको
हो जाता है, क्योंकि ऐसा धर्मतीर्थ सपाप हो ही नहीं सकता। भी पार करना बहुत कठिन है। किंतु कभी-कभी कोई ऐसे ।
किंतु जब हम धर्मतीर्थसे ऐसे धर्मको लेते हैं जो वास्तवमें भी वीर पुरुष जन्म लेते है जो अपनी भुजाओंसे समुद्र
समुद्र तीर्थ नही है किंतु श्रद्धावश उसे धर्मतीर्थ संज्ञा दे दी गई है, को भी पार कर जाते है और फिर अपने अनुभवके बलपर
तब निष्पाप विशेषण ऐसे धर्म तीर्थोसे वास्तविक धर्मतीर्थका पार उतरनेकी प्रक्रिया ही स्थापित कर जाते हैं जिसके
व्यवच्छेदक उसकी विभिन्त्रताका बोष करानेवाला होता आश्रयसे पार उतरनेके इच्छुक पार उतरते रहते हैं।
है । अब प्रश्न यह होता है कि बसली और नकली ___ तीर्थकर ऐसे ही वीर पुरुष होते हैं, वे संसाररूपी समुद्रको धर्मतीर्थकी पहिचान क्या है? इसके समाधानके लिये अपने बाहुबलसे पार करके धर्म-तीर्थकी स्थापना करते हैं। हमें वस्तु-स्वरूपका विश्लेषण करना होगा। क्योंकि वस्तुअतः उनका स्थापित किया हुआ धर्म वास्तवमें एक तीर्थ है। स्वरूपका नाम ही तो धर्म है।
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
ही क्षणमें सर्वथा नष्ट हो जाते। किंतु सत्का सर्वथा विनाश नही होता और सर्वया असत्की उत्पत्ति नहीं होती । किंतु वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेसे सत्का सर्वथा नाश और सर्वथा असत्का उत्पाद मानना पड़ता है जो ठीक नहीं है । अतः वस्तु किसी दृष्टिसे नित्य है और किसी दृष्टिसे अनित्य है । अर्थात् द्रव्य दृष्टिसे नित्य है और पर्याय दृष्टिसे अनित्य हैं । इसी तरह द्रव्यकी अपेक्षा वस्तु एक है और पर्याय अथवा गुणोंकी अपेक्षा अनेक है; क्योकि प्रत्येक द्रव्यमें अनेक पर्याएं और अनेक गुण रहते है ।
प्रत्येक वस्तु दो बातोंपर कायम है-स्वरूपका ग्रहण और पररूपोंका अग्रहण इन दोनोंके बिना वस्तु कायम ही नहीं रह सकती । उदाहरणके लिये किसी एक घटको ले लीजिये । वह घट अपने स्वरूपको लिये हुए हैं, इसमें तो किसीको कोई विवाद हो नहीं सकता। किंतु उस घटका अस्तित्व केवल स्वरूपके ग्रहणपर ही कायम नहीं है, बल्कि उस घटके सिवाय संसार भरके अन्य जितने भी पदार्थ हैं, उन सब पदार्थोंके स्वरूपोंको वह जो ग्रहण नही किये हुए हैं उस पर भी उसका अस्तित्व कायम है, यदि ऐसा न हो तो इसका मतलब यह होता है कि वह घट केवल अपने स्वरूपको ही ग्रहण किये हुए नही है, किंतु अन्य वस्तुओंके स्वरूपोंको भी ग्रहण किये हुए हैं। और ऐसा होनेसे वह घट सबरूप कहा जायेगा। फिर वह केवल एक विवक्षित घट न रहकर पट, मठ आदि अन्य पदार्थरूप भी हो जायगा । जो बात एक घटके विषयमें है, वही सब वस्तुओंके विषयमें लागू होती है । अतः प्रत्येक वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा है और पररूपकी अपेक्षा नही है। यदि ऐसा नही माना जायगा तो सब वस्तुएं सबरूप हो जायेंगी और ऐसी स्थितिमें किसी वस्तुका कोई निश्चित आकार नही रहेगा। फिर तो किसीसे दही खानेको कहनेपर वह ऊँट खानेके लिये भी दौड़ पड़ेगा; क्योंकि दही और ऊंटमें तब कोई स्वरूप भेद नहीं बनेगा ।
अतः कोई वस्तु न सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है । जो सत् है वह किसी अपेक्षासे ही सत् है और जो असत् है वह किसी अपेक्षासे ही असत् है । दूसरे शब्दोंमें जो सत् है वह किसी अपेक्षासे असत् भी है और जो असत् है वह किसी अपेक्षासे सत् भी है। इसी तरह न कोई बस्तु सर्वथा नित्य ही है और न कोई वस्तु सर्वथा afree ही है । यदि वस्तु सर्वथा नित्य होती तो संसारमें जो परिवर्तन दिखाई देता है वह न हो सकता । क्योकि परिवर्तनका नाम ही तो अनित्यता है । परिवर्तनशील भी हो और सर्वथा नित्य भी हो दोनों बातें एक साथ संभव नहीं है । इसी तरह यदि वस्तु सर्वथा अनित्य अर्थात् क्षणिक होती तो क्षण-क्षणमें वस्तुका सर्वथा विनाश होनेसे देन लेनका जितना भी लौकिक व्यवहार है वह नहीं होता; क्योंकि जिसने दिया और जिसने लिया वे दोनों दूसरे
इस तरह विभिन्न दृष्टिकोणोसे विचार करने पर ही वस्तुके यथार्थ स्वरूप तक पहुंचा जा सकता है । यदि इन विभिन्न कोणोंको भुला दिया जाये और वस्तुके किसी एक धर्मको ही पूर्ण वस्तु मान लिया जाय तो इसे सत्यका घात करना ही कहा जायगा । खेद है कि संसारके एकान्तबादी दर्शनोंने इस वस्तुसत्यकी ओर ध्यान नही दिया और वस्तु स्वरूपका विचार एकागी दृष्टिसे किया। किंतु अनेकान्तवादी जैन-दर्शनने वस्तुस्वरूपको जानने और उसका निरूपण करनेमें सापेक्षवादका अवलम्बन लिया और निरपेक्षवादको मिथ्या बतलाया। अतः जहां विश्वके इतर दर्शन एक-एक दृष्टिकोणको अपनाकर उसे पूर्ण सत्य समझ बैठे हैं वहां जैन दर्शन प्रत्येक दर्शनके अपने अपने दृष्टिकोणको पूर्ण सत्यका अंश मानता है, किंतु वे सब अंश चूकि परस्पर निरपेक्ष हैं इसलिये वे मिथ्या है। यदि सभी परस्पर सापेक्ष हो जायें तो उनके समीकरणसे पूर्ण सत्य तक पहुंचा जा सकता है ।
विश्वमें जितने भी झगड़े फिसाद हुए हैं तथा आगे होंगे, उन सबके मूलमें एक ही तत्व रहा है और रहेगा और वह तत्त्व है अपने दृष्टिकोणको ही सत्य मानना और शेषको असत्य । यह हो सकता है कि विभिन्न परिस्थितियों में fafe दृष्टिकोणोकी प्रधानता और अप्रधानता रहे, किंतु निरपेक्ष एक ही दृष्टिकोण कभी भी सत्य नही हो सकता । और इसलिये वह आपत्तियोंका घर है ।
इसके विपरीत सब दृष्टियोंका समन्वय करके चलने से सब आपत्तियोंका अन्त हो जाता
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अतः जो धर्म निरपेक्षवादका आलम्बन लेकर एकान्त
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सर्वोदय था निजोदय
किरण १
वादके प्रचारक हैं वे धर्मतीर्थ कहे जानेके सर्वथा अयोग्य हैं। किंतु जो धर्म सब दृष्टिकोणोंकी अपेक्षासे यथार्थं वस्तुस्वरूपको पहचान कर उसीका प्रतिपादन करता है वही धर्मतीर्थ कहे जानेके योग्य हैं क्योंकि उसे सबका उदयउत्कर्ष इष्ट है। अतः सर्वोदय तीर्थ ही धर्मतीर्थ है, जैसा कि .
स्वामी समन्तभद्रने कहा है:सर्वान्तव तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मियोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्षमिदं तवैव ॥
बनारस, २९-११-५१
. सर्वोदय या निजोदय
(प्रो० देवेन्द्रकुमार जैन, एम० ए० )
गत महायुद्धकी प्रतिक्रिया सबसे अधिक विचार कातिके रूपमें प्रकट हुई, और इस क्रांतिके मुख्य कारण दो है - एक तो यूरोपके सत्ता लोलुप राष्ट्रोंका विघटन और और दूसरे एशियाके देशोका अभ्युदय । यह सभी जानते हैं कि पिछले विश्वयुद्धके प्रधान सूत्रधार यूरोपके ही प्रमुख राष्ट्र थे, जिन्होने उपनिवेशीकरण आर्थिकशोषण और सत्ता पाने हेतु यह अग्निकुड चेताया था; पर उसमें उन्हें बहुत कुछ अपनी गांठका होमना पड़ा। इस प्रत्याशित असफलतासे यूरोपके प्रमुख विचारक और राजनीतिश अब विश्वमानवता या विश्व संस्कृतिकी बात करने लगे है, एशियाई देशोंके प्रति उनकी सक्रिय सहानुभूति भी इसी विचारक्रांतिकी सूचक है। दूसरी ओर द्वितीय विश्वयुद्धके फल स्वरूप जो देश स्वतन्त्र हुए है वे भी नवीन राष्ट्र रचना और विश्व संस्कृतिकी आशासे ओत-प्रोत है । उनकी ग्रह नीति चाहे जो हो, पर वैदेशिक नीतिमें उनके राष्ट्रनेता इसी महान आदर्शसे प्रेरित हैं। उनकी यह नीति क्षणिक लाभकी दृष्टिसे नहीं है अपितु उसमें स्थायी विश्व समाज-रचनाकी भावना निहित है। उनका यह दृढ़ विश्वास है कि निरस्त्रीकरण, सैन्य विघटन बोर संतुलित समाजव्यवस्थासे ही यह लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा उसके लिये मानव-मनका संयम भी आवश्यक है। संभवत: इसीलिये कुछ राष्ट्रनेता या भारतीय धर्म प्रचारक समाज परिवर्तन की अपेक्षा हृदय परिवर्तनपर अधिक जोर देते हैं, उनका विश्वास है कि मनकी गांठ खुलनेपर व्यक्ति स्वयं सुसंस्कृत
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और सर्वअभ्युदय सम्पन्न हो जायगा और इसीसे सर्वोदयकी समस्या भी सुलझ जायगी। ठीक इसके विपरीत यूरोपके प्रमुख विचारक समाज परिवर्तनको ही सर्वोदयका आधार मानते है । उन सबका लक्ष्य एक है, पर साघनोंके विषयमें मतभेद है, इस दृष्टिसे यूरोपमें अमेरिका और रूसका जो महत्व है वही एशियामें चीन और भारतका है। इसमें संदेह नही कि चीन और भारतमें रूस और अमेरिकाकी तरह उग्र मतभेद नही है, और बहुत समयसे चीन संस्कृतिके विषयमें भारतका ऋणी रहा है, तथा उसे स्वतन्त्रता भी अपेक्षाकृत देरसे मिली है, तो भी, वह बहुत सी बातों में, भारतकी तरह आवश्यकतासे अधिक सिद्धांत-वादी न होनेसे भौतिक और आर्थिक दृष्टिसे कही अधिक उन्नत हो गया हैसर्वोदयके लक्ष्यकी उसे काल्पनिक अनुभूति चाहे अभी तक न हुई हो पर उसकी भूमिका उसने प्रस्तुत कर ली है, जबकि हमारा यह महादेश अभी पुरानी रूढ़ियोंका उन्मूलन भी नही कर सका ।
कुछ समय पहले गांधीजीने 'सर्वोदय' का नया आन्दोलन चलाया था, इसके मूलमें प्राचीन और नवीन तथा पूर्व और पश्चिमके आदर्शोंके समन्वयकी भावना निहित थी । प्राचीन धर्मवादियोंसे गांधीजीका मतभेद इस बात में था कि सर्वोदयकी उनकी कल्पना लौकिक थी, अलौकिक नही। सर्वोदयके लिये लोक व्यवस्थामें परिवर्तन उन्हें अभीष्ट तो था -- पर अहिंसात्मक रंगसे। और यहीं पर वर्ण संघर्षवादियोंसे उनका मतभेद था। पश्चिमी राष्ट्र
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अनेकान्त
वादियोंकी तरह गांधी लौकिक सर्वोदयके समर्थक थे- महावीर, कबीर और गांधी युगके सभी सामाजिक और पर उनके साधनोंसे वे सहमत नहीं थे, उनके सर्वोदयके दार्शनिक आदर्श उस समाजकी उपज है जिसमें उत्पादन सिद्धांतकी प्रतिक्रिया भारतके राजनीतिक क्षेत्रमें उतनी और उसके साधनोंका स्वामित्व व्यक्तिगत था। प्राचीन नहीं हुई जितनी कि सांस्कृतिक क्षेत्रमें, वह राजनीतिज्ञों- आदोंमें सामूहिक उत्पादनको हेय दृष्टिसे तो देखा गया, की नहीं अपितु थामिकोंकी चर्चाका विषय बन गया, पर उसके विरुद्ध कोई नैतिक कड़ा विधान नहीं लगाया प्रत्येक नवीन विचारधाराको अपने सीमित धार्मिक सिद्धांतों- गया। गांधीजीकी अर्थनीतिके अनुसार वर्तमान व्यवस्थामें की परिधिमें ले आना भारतीयोंका स्वाभाविक गुण है, व्यक्तिके लिये उत्पादनके स्वामित्वकी नैतिक छूट है, और इसीसे साम्यवादकी तरह सर्वोदयके सिद्धातका भी हां उससे यह आशा अवश्य है कि वह पूंजीको जनताकी प्राचीन दार्शनिक दृष्टिसे आकलन हुआ। मै भी इसे अशुभ थाती समझ कर उसका व्यक्तिगत उपयोग न करे। जिन नहीं समझता; क्योंकि इससे हमारी दृष्टिकी लौकिकता परिस्थितियोमें गांधीजीने इन विचारोंका प्रचार किया था लक्षित होती है, पहले भी इस देशमें अनेक तीर्थोंकी कल्पना उसमें एक सीमा तक अपने युगका प्रतिनिधित्व था, होती रही है, पर उसका लक्ष्य अपरलोक था किंतु आज पर गांधीजी सर्वोदयके लिये विकेन्द्रीकरण अनिवार्य जो हम सर्वोदयतीर्थको बांधना चाहते हैं वह शुद्ध प्रत्यक्ष मानते थे। काग्रेस राजमें गांधीजीकी पूजा चाहे जितनी भी लौकिक जीवनके ही उन्नयनके लिये है । और में हुई हो पर सरकारी योजनाएं उनके आदशोंसे एक दम समझता है कि इस विचारसे गांधीके सर्वोदय और अछूती है। नेहरू सरकार उस भारतीय समाजका सक्रिय साम्यवादमें अधिक स्थूल अन्तर नही है, साम्यवादकी स्वप्न देख रही है जो नदीके बांधोंके विद्युत्प्रवाहसे प्रस्तुत व्यवस्थामें 'समाज' मुख्य है व्यक्ति गौण । पर आलोकित होगा और जो वाष्पचालित यंत्रोंकी सहायतासे सर्वोदयमें सबके उदयकी भावनाके साथ व्यक्तिके अशन-वसनकी समस्या सुलझाएगा। उस यांत्रिक समाजकी विकासका लक्ष्य भी निहित है। यह बात सच है कि रूसी खट-पट और धूल-धकड़में बैलगाड़ीकी टिकटिक कोलकी यांत्रिक साम्यवादमें व्यक्तिका बहुविध विकास संभव ची-बी और तन्तुवायकी भिन्नभिन्न सुननेके लिये भारतीय नहीं। और 'निजोदय के बिना 'सर्वोदय तक पहुंचना कान प्रस्तुत न होंगे। श्रद्धेय आचार्य विनोबाने जो भूमिदान कठिन ही नही असंभव है। किंतु ठीक इसके विरुद्ध यह भी यज्ञ रचा है उससे पुराने यज्ञ शब्दका पुनरुद्धार चाहे हो सच है कि प्रस्तुत विषमता-मूलक समाजमें व्यक्तिका जाय पर भूमिहीनोंकी अवस्थामें कोई विशेष सुधार नही स्वविकास या निजोदय असंभव है। और समाजको होगा। जहां तक भारतीय संस्कृतिका सम्बन्ध है वह एक बामल बदलनेके लिये पहले निजोदय चाहिए न कि विशेष ऐतिहासिक परम्परा और परिणतिमें व्यक्तित्वसमाजोदय । उसपर भी भारतीय समाज दुहरी विषमता- का विकास और हृदयशुद्धिपर जोर देती आई है। के कोढसे ग्रस्त है। आर्थिक विषमता तो व्यक्तिको केवल
और विश्व-संस्कृति तथा सर्वोदय मूलक समाज-रचनाके श्रम और उत्पादनके फलोपभोगसे वंचित करती है, पर
लिये उसकी यह बहुत बड़ी देन है, क्योंकि सर्वोदयके लिये वर्णगत विषमता तो व्यक्तिको जन्मसे ही सभी मानवीय
मानवमनकी तरह लोकमनकी शुद्धि और संयम भी अधिकारोंसे मुक्त कर देती है। जहां भिखमंगापन आध्या
आवश्यक है, पर लोकमनकी शुद्धि संतुलित लोकव्यवस्थात्मिकताका प्रतीक हो और लोकशोषण लोकप्रभुताका, जहां बहुत बड़ा जनसमुदाय ईश्वरीय विधान या पुण्य-पाप
में ही संभव है। आर्थिक स्वतन्त्रताके बिना जिस तरह राजरूप अदृष्टदेवके नामपर गरीबी और अपमानका
नैतिक स्वतन्त्रताका कोई अर्थ नहीं उसी तरह निजोदयके जीवन-यापन करने के लिये विवश हो उस समाजमें निजोदय
बिना सर्वोदयका कोई मूल्य नहीं। जैसे आर्थिक स्वतन्त्रताकी कल्पना करना आध्यात्मिकताका हनन करना है। के लिये राजनीतिक स्वतन्त्रता अपेक्षित है वैसे ही निजोदययह बात निर्विवाद है कि समय-समयपर भारतीय लोक पुरुषों के लिये सर्वोदय भी; क्योंकि दोनों एक दूसरेके पूरक ने हमारी सदोष समाज-रचनाको बदलनेकी चेष्टाकी हैं। चुनावके बाद अगले पांच वर्षोंमें यदि हम अपनी नवीन और उन्हें उसमें आंशिक सफलता भी मिली, 'सर्वोदय स्वतन्त्र समाज व्यवस्था नहीं बनाते तो भारतीय संस्कृतिकी कल्पना भी उसी प्रकारकी चेष्टा है। राम, कृष्ण, बुट, की पराजय निश्चित है।
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जैनधर्म और समाजवाद
(प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) धर्मपुरुषार्थ ?
सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि जिन विवाह, सम्पत्तिका वैदिक परम्परामें सामाजिक विधि-विधान, विवाह:
उत्तराधिकार आदि लौकिक व्यवहारोंको वर्ण-व्यवस्थाकी प्रथा, उत्तराधिकार-विधि, आदि लौकिक कार्योंके नियम
विषमताकी मोटमें धर्मका नाम दिया जाता था और धर्मउपनियम वर्णव्यवस्थाकी भित्तिपर संगठित किये गये हैं
पुरुषार्थ कहा जाता था उसका अस्तित्व ही श्रमणपरम्पराने
नहीं माना। इस परम्पराने मनुष्यमात्रको दुखोसे छुड़ाकर और इन सबको वर्णधर्म कहकर धर्मपुरुषार्थ में शामिल किया है । धर्मशास्त्र और धर्मसूत्रोंमें इन्ही लोक-व्यवहारोंके
सुखके मार्गको समानभावसे खोला । इन सन्तोंने एक बातविधि-निषेध दंड-प्रायश्चित आदिका निरूपण है। इसीलिये
का स्पष्ट दर्शन किया कि परिग्रहकी तृष्णा ही समस्त अशान्ति वैदिक-परम्परामें मोक्षसे भिन्न धर्म नामका पुरुषार्थ गिनाया
और दुःखोंकी जड़ है। इस परिग्रहकी तृष्णा बोर
संग्रहवृत्तिसे ही सत्ता और प्रभुत्वका अहंकार फूटता है। गया है । मोक्ष-पुरुषार्थमें कर्म-सन्न्यास और त्यागकी मुख्यता
उसीमेंसे जाति, वर्ण, रंग, वंश बादिकी विषवेलोंके अंकुर है जबकि धर्म-पुरुषार्थ प्रवृत्तिमय है। श्रमण-परम्परामें
निकलते हैं। हिंसा, संघर्ष, युद्ध और विनाशके तांडव होते चारपुरुषार्थवाली पद्धति वैदिकोके प्रभाववश बादको आई।
है। अतः व्यक्तिकी मुक्ति और जगत्की शान्तिका प्रथम वस्तुतः वर्णधर्मपर जिसका भवन रचा हुआ है ऐसा धर्मपुरुषार्थ तो वर्ण-व्यवस्थाको जन्मसे न माननेके कारण
और मूल मार्ग है तृष्णाका नाश करना । तृष्णाकी उत्पति
अज्ञानसे होती है। यह मोही प्राणी अज्ञानवश पर-पदापों श्रमण-परम्परामें हो ही नहीं सकता । श्रमणपरम्परा तो
पर अधिकार करनेकी अनधिकार चेष्टा करके हिंसाका समताके आधारसे मोक्षपुरुषार्थका ही समर्थन करनेवाली
अवसर लाता है । अतः अज्ञान और तृष्णाके नाशसे ही है। शूद्रके लिये सन्न्यास और व्रतोका प्रतिषेध करनेवाली
सुख-शांतिके अमृतदर्शन हो सकते हैं। उनने इन हिंसा वैदिक परम्पराका मोक्षपुरुषार्थ भी वर्णव्यवस्थाकी विषमता
परिग्रह और संघर्षरत सांसारिक प्राणियोंको कहा किसे सीमाबद्ध है, जबकि श्रमणपरम्पराका मोक्षमार्ग मनुष्य
संसारके एक 'परमाणु' पर भी तुम्हारा अधिकार नहीं है, मात्रके लिये उन्मुक्त है। श्रमण-परम्पराके दो प्रधान ज्यो
सब स्वतन्त्र है, सबकी परिणति अपनी-अपनी योग्यतासे तिधरोंने आजसे २६०० वर्ष पूर्व विहारकी पुण्य भूमिमें
होती है, जिसे हम सम्पत्ति कहते है वे अचेतन पदार्थ भी अपनेइसी समताधर्मकी ज्योति जगाई थी। इन्होंने अपने श्रमण
में परिपूर्ण है, अतः उनपर अधिकार जमानेकी चेष्टा ही संघोंमें नाई माली चांडालों तकको समभूमिकासे दीक्षित
हिंसा है। तात्पर्य यह कि वर्णधर्मके नामपर सत्ता और किया था। जिन शूद्रोंको व्रत धारण करने का अधिकार नहीं
अहंकार तथा विषम विशेषाधिकारोंके समर्थक विधि-विधान था उन्हें श्रमणसंघका उच्चतम पद भी अपनी साधनासे
कभी 'धर्म' नही हो सकते । उन उस समयकी समाज-व्यवस्थाउसी पर्यायमें मिल जाता था। मनुष्यमात्रको व्रत-चारित्र
के कानूनोंको धर्मका जामा पहिनाकर मानवताके सहनबंर देनेवाली परम्पराका वेदोंमें 'व्रात्य' शब्दसे उल्लेख किया
करना धर्मपुरुषार्थ नहीं कहा जा सकता। गया है। सामाजिक विधि-विधानोंके विषयमें श्रमणपरम्पराका अपना कोई खास मत और विषि-शास्त्र नहीं रहा। पर चरम व्यक्तिस्वातन्त्र्यउसने जो समत्वपूर्ण और वर्णविहीन सर्वोदय संघकी स्थापना जैनधर्मने मूलतः समस्त जगत्को स्वभावसिड माना की उसका असर समाजव्यवस्थापर पड़े बिना नहीं रहा। है, इसका रचनेवाला कोई ईपवर नहीं है। ऐसी कोई सत्ता
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
नहीं है जिसके इशारेपर जगत्का अणु-परमाणु स्थावर- इसीलिये वह गुट बनाता है, समाज बनाता है, रक्तसम्बन्धअंगम नाचते हों। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं जिसमें किसी के नामपर जाति और वर्णोकी रचना करके सामन्तशाही वर्गविशेषको ईश्वर जन्मना विशेषाधिकार देकर उत्पन्न बार राजतन्त्रको जन्म देता है। जैनतीथंकरोंने कहा—यह करता हो। ऐसा कोई विषान स्वीकृत नहीं जिससे वर्णविशेष- मार्ग गलत है। जब मूलतः सब मनुष्य स्वतन्त्र द्रव्य है, मनुष्य को सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक संरक्षण-प्राप्त हों। ही नही पशु-पक्षी और प्रत्येक चेतन स्वतन्त्र द्रव्य है और संसारमें अनन्त चेतन अनादिसिद्ध स्वतन्त्र और परिपूर्ण एकका दूसरेको गुलाम बनानेका, उसपर अपनी प्रभुता असंड द्रव्य हैं। अनन्त, जड़ परमाणु बादि बचेतन पदार्थ स्थापन करनेका कोई अधिकार नहीं तब यह गिरोहबाजी भी अनादिसिद्ध अखंड द्रव्य है। एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर विषम समाजव्यवस्था वर्गसर्जक वर्णव्यवस्था आदि, जिनसे कोई निसर्गसिद्ध अधिकार नहीं । सब अपने परिणमन एक दूसरेकी गुलामीमें पड़ता है, हिंसा है, अनधिकार-वेष्टा अपनी उपादान-योग्यताके अनुसार करते रहते है, योग्यताके है, मिथ्यात्व है और पाप है । सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक प्राणी विकासमें अवश्य ही एक दूसरेको प्रभावित करते है, पर का मूलतः समान अस्तित्व और समान अधिकार स्वीकार इससे व्यक्ति (द्रव्य) के परिणमन और अस्तित्वकास्वातन्त्र्य किये जायें। जब तक यह समानाधिकार स्वीकार नही किया मष्ट नहीं होता। जहां तक अचेतन पदार्थोंका प्रश्न है- जाता तब तक जगत्में अहिंसाका बीज पनप नही सकता। अपनी सामग्रीके अनुसार प्रतिक्षण परिणत होते रहते हैं, और हिंसा तथा युद्धकी तेजी कम नहीं की जा सकती। इसी उनमें परस्पर कोई झगड़ा या छीना-झपटी नहीं होती। तरह सम्पत्ति जिसमें मुख्यतः भौतिकपदार्थ है, किसीकी वैज्ञानिक कार्यकारणभावके नियमानुसार जिस और जैसे नही है, उसका अणु परमाणु भी स्वतन्त्र है। पर यदि प्राणियों परिणमनकी सामग्री उपस्थित होती है वह और वैसा का उसके बिना काम नहीं चलता, उनका जीवन-धारण सम्भव परिणमन हो जाता है। एक हाइड्रोजनका परमाणु है। उसका नहीं है तो काम चलाने के लिये व्यवहार निर्वाहके लिये यह निसर्गसिद्ध स्वभाव है कि प्रतिक्षण पूर्वपर्यायको सब मिलकर सब समानभावसे बैठकर उसे व्यवहारमें छोड़कर नई पर्यायको धारण करना। अब यदि संयोगवश लानेका रास्ता निकालो। छीन-झपट कर व्यक्तिविशेष उसका आक्सिजनके परमाणुसे संयोग हो जाता है तो दोनों परिवारविशेष, जातिविशेष, समाजविशेष और प्रान्तविशेष का जलरूप परिणमन हो जायगा। और यदि नही, तो वह आदिकी गिरोहबाजी कर उसे हड़पनेकी चेष्टा न करो और हाइड्रोजन का हाइड्रोजन बना रह सकता है या जो सामग्री जगत्में संघर्ष और युद्धका अवसर न आने दो। तात्पर्य जुटेगी उसके अनुसार कोई-न-कोई सदृश या विसदृश परिणमन यह किकरेगा ही। परिणमन-चक्रसे बाहर नही जा सकेगा। अतः
मूलतः सम्पत्तिपर किसीका अधिकार नहीं है पर जब अचेतन जगत्में संघर्ष हिंसा या युद्धका प्रश्न नही । जैसी
व्यवहारनिर्वाहार्य उसका उपयोग करना अत्यावश्यक है सामग्री मिली तदनुसार परस्पर प्रभावित होकर उनका
तब जगत्के प्रत्येक प्राणीको उसके उपयोगकी समान सुविधा कार्यक्रम चलता रहता है। परन्तु चेतन जगत्में वृक्ष कीड़े.
होना ही अहिंसा है। आजका समाजवाद मनुष्य-समाजकी मकोड़े पशु-पक्षी आदिसे मनुष्यमें चेतना और बुद्धिका विकास
सुविधा और शान्तिका विचार करता है पर जैनधर्मने अत्यधिक होनेसे उसमें संग्रह और प्रभुता-स्थापनकी वृत्ति
पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े तकके पृथक और समान अस्तित्वभी जाग्रत होती है। उसमें रागद्वेष और तृष्णाका प्रकट
को स्वीकार कर उन्हें भी जीनेका अहिंसक वातावरण बनाया विकास होता है। वह अपना गिरोह बांधता है और दूसरे है और कहा है कि अय मनुष्यो, तुममें यदि अधिक चेतनागिरोहोंसे संघर्ष और युद्धका प्रसंग लाता है और जमत्- का विकास है तो वह इसलिये है कि तुम अपने सजातीय में अशान्ति और हिंसाको जन्म देता है। चाहता है कि संसार- मनुष्योंमें जिस प्रकार समानताका व्यवहार करना के अधिक-से-अधिक अचेतन पदार्थ उसकी मालिकीमें या चाहते हो-उन्हें जीने देना चाहते हो-उसी तरह इन बांब और अधिक-से-अधिक चेतन उसके गुलाम बनें। किंचित् विजातीय पशु-पक्षी बादिको भी जीने दो, ये भी
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किरण १
सर्वोदय और सामाजिकता
तुम्हारी ही तरह स्वतन्त्र चेतन है। इनके अधिकारको कहता है कि यह अधिकार स्वीकृति ही मूलतः भान्त है। मत हड़पो।
यद्यपि भौतिक साधनोंके बिना हमारा जीवन-यवहार नहीं आदर्शकी सर्वोदयी उच्चता
पलता और उनके आहार-व्यवहारके लिये स्वीकार करना आजके समाजवादका उदय सामन्तशाही और राज
लाजिमी है फिर भी हमें यह तो मानना ही चाहिये कि इन तन्त्रकी प्रतिक्रियाके फलस्वरूप हुआ है। अतः उसकी यह
पदार्थापर हमारा निसर्गतः कोई अधिकार नहीं, यह परवशता घोषणा स्वाभाविक है कि भौतिक सम्पत्ति पर प्रत्येक
है जो हम इनको स्वीकार किये हैं। मतः जितना कम हो मागरिकका समान अधिकार है, सम्पत्ति राष्ट्र या समाज
सके उतना कम इनका सहारा लिया जाय क्योंकि ये परकी है व्यक्ति की नहीं । पर सिद्धान्ततः आदर्श तो जैनधर्म
पदार्थ है । जब प्रत्येक प्राणीको यह सम्यक्दर्शन होगा तो का ही उच्च है जो संपत्तिपर क्या, एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य
परिग्रहके संग्रहकी तृष्णाको जड़ ही कट जाती है, उसके पर मूलतः कोई अधिकार ही स्वीकार नहीं करता । अतः
संग्रहकी होड़ समाप्त होकर अन्तर्दष्टिका विशुद्ध वातावरण जबतक कोई भी प्राणी परपदार्थको ग्रहण करनेकी तृष्णा
तैयार होता है और जीवन में सग्रहकी 'नही त्यागकी प्रतिष्ठा
होती है। जैनधर्मने आदर्शके स्थानपर परमव्यक्तिस्वातन्त्र्य भी करता है तबतक वह अनधिकार-चेष्टा करनेवाला
और त्यागनिष्ठाको रखा है, समता और अहिंसाको उसका हिंसक है। और यही कारण है कि इस परम्पराके सन्तोंने सर्वस्व-त्यागका उपदेश दिया और कम-से-कम परका सहारा
प्राण माना है और माना है निर्ग्रन्थताको स्वावलम्बनकी लेकर परमस्वतन्त्र निर्ग्रन्थजीवन बितानेका आदर्श उपस्थित
पराकाष्ठा। किया। आदर्श उच्च और महान होनेपर ही उसका व्यवहार इस तरह जैनधर्म उस परमस्वातन्त्र्यका सर्वोदयी उच्चशुद्ध हो सकता है । समाजवाद जहां सम्पत्तिपर समाज और तम बादशं उपस्थित कर समाजवादको आध्यात्मिक भूमिका राष्ट्रका अधिकार मानकर समाजघटक और राष्ट्रघटक तथा दार्शनिक आधारको सुन्दरतम-अकलंक-व्याख्या करता होनेके नाते व्यक्तिका अधिकार मान लेता है वहां जैनधर्म है। उसकी अन्तर्द ष्टि समाजवादकी अहिंसक प्रसाधना है।
सर्वोदय और सामाजिकता
(श्री रिषभदास रांका)
व्यक्तिसे समाज बनता है और समाजकी भूमिकापर मानवका स्वभाव है कि वह सुख चाहता है, दुःख कोई व्यक्तिका विकास होता है। हजारों वर्षोंसे सन्त, शानी और नही चाहता। लेकिन दिखाई तो यह देता है कि सुख चाहनेविचारक विचार करते आये है कि समाजकी व्यवस्था ठीक वाले स्वयं दुःखमें डूबे है। मानव मनका अध्ययन करनेरहने,लोगोंमें योग्य गुणोंका विकास होने और सुखपूर्वक जीवन से यही ज्ञात होता है कि इस दुखके मूलमें हर व्यक्तिका वितानेके लिये किन-किन गुणों या नियमोंकी आवश्यकता दूसरे व्यक्तिके सुखकी उपेक्षा करना है। अपने सुखके है। सन्त और ज्ञानी प्रायः सार्वकालिक और सार्वजनिक होते लिये आदमी दूसरेको दुःख देने में संकोच नहीं करता। इसी इं। वे जो कुछ सोचते हैं सबके लिये सोचते हैं। हम उनके लिये संसारमें दुःखकी वृद्धि होती है, पारस्परिक अशान्ति उपदेशको 'सर्वोदय' कह सकते है या 'सर्वोदयतीर्ष' कह बढ़ती है, स्पर्षा लग जाती है, तरह-तरहकी नैतिक, सामासकते हैं।
जिक और कानूनी व्यवस्थायें बनती है, परन्तु सुबहाथ नहीं
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अनेकान्त
वर्ष ११
लगता इसलिये सन्तोंने जो कहा है कि सबकी भलाईमें पर एक बात है, ऊंची दृष्टि और भावना होनेपर भी अपनी भलाई माननेसे ही सुख हाथ लग सकता है, इसमें यदि ऐसे आदमीमें सद्गुण नहीं हुए, अनुकूल वातावरण बहुत बड़ा तथ्य है। जो बादमी संकीर्ण सीमाको न हुआ तो उससे कोई भलाईका प्रत्यक्ष काम नहीं हो सकेगा। लांपकर व्यापक क्षेत्रमें आ जाता है या कि 'मैं को छोड़कर सबकी भलाईका काम है सर्वोदय और ऐसे मार्गको हम तीर्थ सबका हो जाता है उसके दुःखको खेलने के लिये दुनिया गांखें कह सकते है। सर्वोदयतीर्थपर चलनेवालेमें इन गुणोंबिछा देती है। किसीने सच ही कहा है कि सुख बांटनेसे का होना आवश्यक है। बढ़ता है और दुःख बांटनेसे घटता है।
(१) अहिंसा-सभी लोग अपनी तरह सुखके ___ शान्तिके लिये राज्य व्यवस्थायें, लोकतन्त्र, समाजवाद, अभिलाषी है इसलिये हम अपने प्रति जैसी अपेक्षा दूसरोंसाम्यवाद जैसी कई विचारधारायें, अपने-अपने ढंगपर से रखते है वैसा ही सबके साथ व्यहार करना अहिंसा है। प्रयत्न कर रही है और सब यही चाहते है कि किसी तरह (२) संयम-ऐसी अहिंसाका पालन करनेके लिये शान्ति स्थापित हो, परन्तु संसारमें अशान्ति ही फैली हुई है। संयम अत्यन्त आवश्यक है। संयमके अभावमें मोह या लोभघरसे लेकर विश्व तक अपनी-अपनी सीमाओंके भीतर से मुक्ति नही मिल सकती। अहिंसाकी साधनामें कभी-कभी कोम्बिक, सामाजिक, जातीय, धार्मिक, प्रांतीय, राष्ट्रीय, सहन भी करना पड़ता है, श्रम भी उठाना पड़ता है, लेकिन और अन्तर्राष्ट्रीय प्रगड़े, युद्ध, कलह, पक्ष और अशान्ति छाई यह सहन करना और श्रम संतोष देता है। अन्तमें उससे हुई मिलेगी। और स्पष्ट है कि यहां मूलमें स्वार्थ है। स्वार्थ, हित ही होता है। मोह और लोभके कारण ही वातावरणमें विषमता आती (३) समन्वयवृष्टि-संयमका पालन समन्वयहै और पारस्परिक टकराहट होती है। दूसरेकी भलाईमें दृष्टिके बिना नही हो सकता। दूसरोंके दृष्टिकोणको अपनी भलाई मानकर वैसा आचरण करें तो उससे हमारा समझनेका धीरज और उदारता होनी चाहिये। समन्वयमें भी हित ही होगा। हम जिस तरहका बर्ताव दूसरोंके साथ हठ का आग्रह नहीं होता। अपने विचारों या सिद्धान्तोंके करेंगे उसकी प्रतिक्रिया भी वैसी ही होगी। जब हम दूसरोंका प्रति दृढ़ निष्ठा होनेपर भी दूसरोंपर लादनेकी वृत्तिसे दूर हित देखेंगे तब दूसरे भी हमारे हित का ध्यान रखेंगे। लेकिन रहना पड़ता है। जीवन में समझौतेका भी एक स्थान होता है। खींचातानीमें तो सबका ही अहित है। एक रस्सेको अगर दो अगर यह न हो तो द्वंद्व खड़े हो जाते है। एकाकी जीवनके व्यक्ति बराबर खींचते रहे तो घंटो व्यतीत होनेपर भी सिवा लिये शायद यह उतना आवश्यक न हो, पर सामाजिकतामें परेशानीके किसीके हाथ कुछ न आयेगा।
रहनेवालेके लिये तो यह अत्यन्त आवश्यक है। सुख-प्राप्तिकी पहली शर्त यह है कि आदमी अपने लिये (४) विवेक-परन्तु किस समय, कहां क्या करना कम-से-कम लेकर दूसरोंको अधिक-से-अधिक सेवा दें। आवश्यक है, यह विवेक यदि न हो तो सद्गुणोंका समन्वय ऐसा आदमी जहां जायगा आदर पायेगा और वहां सुखकी न होकर एकांगी विकास होता है जिससे व्यक्तिके सामाजिक बढ़वारी ही होगी। उससे किसीको कष्ट नहीं होगा। कुटम्ब- विकासमें बाधा उपस्थित होती है और समाजके लिये में रहकर वह बड़ोंकी सेवा करेगा, छोटोंपर प्रेम और वात्सल्य ऐसा विकास प्रायः हितकर नही हो जाता। रखेगा । समाजमें भी वह अप्रमत्त भावसे अपने कर्तव्य- (५) पुरुषार्च-उपर्युक्त सभी गुणोंके होते हुए भी को पूरा करेगा। कुटुम्ब और समाजके लिये की हुई उसकी अगर पुरुषार्थ नही हुआ, शक्ति न हुई तो भी सद्गुणोंका सेवा देशके लिये पूरक ही होगी; क्योंकि ऐसा आदमी अपनी सर्वागीण विकास नहीं हो पाता और फिर समाजका भी मर्यादाको जानता है और किस क्षेत्रमें कितनी सेवा करनी पालण-पोषण भली-भांति नहीं हो सकता है। चाहे व्यक्तिगत पाहिये यह विवेक उसे होता है। उसका ध्येय सबकी भलाई भलाईका काम हो या समाज-हितका जबतक पूरी ताकतहोनेसे किसी एकको भलाईके लिये वह दूसरोंको कष्ट नहीं के साथ नहीं जुटाया जायगा तबतक उसके परिणामसे बेगा । एककी सेवाके लिये दूसरोंकी कुसेवा नहीं करेगा। हम वंचित ही रहेंगे।
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किरण १
सर्वोदय कैसे हो?
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(६) अनासक्तभाव-और इन सबसे अधिक महत्व- सीमाओंसे घिरा नही रहेगा, वह तो राष्ट्रके कण-कण पूर्ण चीज है अनासक्तभाव। हम जो भी करें उसमें तनिक भी में व्याप्त होगा। उससे कुटुम्ब, समाज, जाति और राष्ट्र आसक्ति नीचे गिरा देगी। हमारे सामने जो भी कर्तव्य हो ही नहीं, सारी मानवजातिका हित होगा। चारों ओर शान्ति उसे शक्ति और मर्यादाको न छुपाते हुए सहजभावसे, और सुख फैलकर मानवताका विकास होगा। बिना किसी फलाशाके करते चले जायें। इस तरह किये जो मार्ग हजारों वर्षसे महान् संत पुरुष बताते आये, जानेवाले कार्य भाररूप नही बनते और अगर हमें सफलता
भगवान महावीरने उस तीर्थ-मार्गको अपने अनुभव द्वारा नही मिलती है तो भी निराश या वेदना नही होती।
प्रसारित किया । इसी कारण वे तीर्थकर यानी मार्गद्रष्टा सर्वोदय-तीर्थकी ओर बढ़नेवालेके लिये ये प्रायः बने। यह तीर्थ प्राणी मात्रके लिये हितकर है ऐसी मूलगुण है। इनकी ओर पूर्णरूपसे ध्यान देनेसे ही सर्वोदय पथ व्याख्या आचार्य समन्तभद्रने दो हजार वर्ष पहले की। पर आगे बढना हो सकता है। इससे निजी भलाई तो होती ही उसी सबके भलाईके रास्ते की याद महत्मागान्धीजीने है, समाजका भी कल्याण होता है। ऐसा व्यक्ति चाहे जिस इस युगमें दिलाई, और उसको देशव्यापी बनानेके लिये स्थिति, अवस्थामे रहे वह सुखी ही होगा। राष्ट्रके लिये व्यक्तिगत जीवन में ही नही सामाजिक जीवनमें उतारनेके ऐसे लोग स्वर्ग उतारनेवाले कहे जा सकते है। ऐसे लोगों लिये संत विनोबा आज विचरण कर रहे हैं। द्वारा स्थापित सर्वोदय-तीर्थ किसी पहाड़, नदी, वनकी वर्वा, ३१-१२-५१
सर्वोदय कैसे हो ?
(बा० अनन्तप्रसाद जैन B. Sc. (Eng.) 'लोकपाल') संसारके सभी व्यक्तियों और सभी संस्थाओंका समुचित कुछ कहा ही ह। संसारके सारे धर्मग्रंथ इसी सर्वोदयउत्कर्ष ही सर्वोदयका अर्थ है। इस शब्दका व्यवहार तो बहुतों की भावनासे लिखे गये है। धर्म सिद्धांत और फिलोसोफी ने किया है और करते है पर इसका यथार्थ रूप, प्रयोगके भी इसी एक ध्येयको लेकर ही प्रतिपादित किये जाते रहे हैं। तरीके एवं इसे उपलब्ध करनेका ठीक सही मार्ग कितने अभी भी इस प्रकारके विचारों,सुझावों,उपदेशों और आदेशोंजानते है ? बहुत कम । वर्तमान युगमें महात्मा गांधीने की कमी नहीं । इनकी बहुलताके बावजूद "सर्वोन्नति" देश-काल-व्यवहारका ध्यान रखते हुए आधुनिक आवश्यक- “सर्व हिताय" और "सर्व सुखाय"के स्थान पर दुःखों और ताओंके अनुरूप एक व्यावहारिक मार्ग (Practical way) कष्टोकी ही वृद्धि होती गई है। आज तो सारा संसार मानों संसारके सामने उपस्थित अवश्य किया, पर उस पर भी दुःखोंसे और असत्य तथा हिसात्मक भावोंसे ही परिपूर्ण चलने वालोंकी या उसमें सच्चा विश्वास रखने वालोकी दीखता है। हिसा और असत्य ये ही सर्वोदयका समूल नाश संख्या भारतमें ही जब काफी नही तो बाहरी भौतिक जगतमें करनेवाले है। फिर भी लोग जानबूझकर इनसे चिपके हुए क्या हो सकती है यह आसानीसे अनुमान किया जा सकता है। है और अधिकाधिक चिपकते जाते दीखते है। राष्ट्रोंका ऐसा क्यो? पहले भी भगवान् बुद्धने अपने 'बोष' के अनुसार आपसी मनोमालिन्य,अविश्वास एक दूसरेको हर तरह छलनेकी एक मार्ग लोगोंको दिया और बहुतसे दूसरे महानुभावों- सच्ची भूठी प्रवृत्ति और एक दूसरेको हर प्रकारसे प्रभावित ने भी अपनी-अपनी सूझबूझ और समझके मुताबिक कुछ न एवं अपने वशमें कर लेने या कर रखनेकी ऊंच-नीच, प्रच्छन
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और प्रत्यक्ष चेष्टाएं हमारे सामने प्रदीप्त रूपसे प्रदर्शित औरतोंको एक-एक बारमें कत्ल कर देते है वे विजयी और हो रही है । आजकी राजनीति या व्यवहारनीतिकी कुशलता बहादुर (Hero) कह कर सम्मानित किये जाते हैं। ही छलकपट, मायाचार और असत्यको सत्यके रूपमें क्यों ? परिवर्तित करके दिखलानेकी विशेषतामें ही समझी जाती है। आज भी कुछ देश बड़े जोरोंमें तीव्रतम रूपसे ये महाकिसीको किसी तरह ठग लेना ही चतुरता मानी जाती है। ध्वंसकारी एटमबम हजारों-हजारोंकी संख्या में तैयार कर रहे सभी महापुरुष और धर्म-प्रवर्तक बड़े जोरोके साथ कह गये है है और संसारके सिरके ऊपर बैठकर चिल्ला-चिल्लाकर हर और उनके अनुयाई आज भी जोर-जोरसे चिल्ला-चिल्लाकर आधनिक प्रचार यंत्रों द्वारा घोषित करते है कि जो लोग सप्रमाण घोषित करते जाते है कि 'ये सब प्रवृत्तियां विनाश- उनका विरोध करनेवाले है वे यदि विरोध नही छोड कारी और हानिकर है, पर लोगोंके ऊपर कुछ ऐसी 'मोहनी' तो उनपर और उनके बालबच्चोंपर वे एटमबमका प्रयोग छा गई है कि जैसे वे किसी तीव्र शराबके नशेमें हों और करके उन्हें संसारसे मिटा कर इस विरोधका बदला लेंगे उनपर किसी अच्छी सच्ची और साफ बात या तर्कका और फिर विजयी बनकर उन भूमियो पर राज्य करेंगे जो प्रभाव ही न पड़ता हो । मानों वे आंख मूंदे हुए से बेहोशीमें
इस तरह खाली हो जायेंगी। इतना ही नहीं, यह सारी या विवशतामें विनाश पथकी ओर जबरदस्ती खिचते खनी हिंसात्मक घोषणा शान्ति या शन्तिकी रक्षाके
जा रह हा आर उन्हें अपन-आपम अपन-आपको किन नाममें की जाती है। क्या यह बेह्यापन की हद नही है ? या रक्षा करनेकी क्षमता ही एक दम न हो। क्यो?
फिर भी ये सुर्खरू और पाकसाफ बने हुए अपनेको संसारआज सारा संसार शान्ति-शान्ति (Peace) की का रक्षक और भलाई करनेवालोमें सर्वश्रेष्ठ होनेका रटन लगा रहा है; पर शान्तिके स्थानमें अशान्तिकी दावा करते हैं। यह है हमारे संसारकी दशा, जो हमें संभावना बढ़ती हुई दीखती है। एक दूसरेको निगल जाना किसी तरह विनाश अथवा महाप्रलयकी ओर हर घड़ी चाहता है, इसके लिये तरह-तरहके राजनीतिक चकमें, खीचती जा रही है । हिकमत, हथकंडे और बहाने व शक्ति सम्पन्न राष्ट्र (व्यक्ति इन शक्तिशाली राष्ट्रो या देशोंकी विशाल, सुव्यवस्थित भी) विचित्र उपायों द्वारा निकालते रहते है और काम और सभी आधुनिकतम युद्ध सामग्रियों एवं यंत्रोसे सुसज्जित में लाते रहते है, यहा तक कि उनके षड़यंत्रों, कुचक्रों या फौज और फौजी साजसज्जाके आगे या उसके डरके आगे कूटनीतिक चालबाजियोंको देख-देख कर कोई भी समझदार कमजोर राष्ट्र या देश ससारमें बहुत बड़ी जनसंख्या वाले दंग, आश्चर्य-चकित, भौंचक्का और किंकर्तव्य विमूढ होकर होकर भी निरीह हो गये है। उनकी कोई सुनवाई कही नही। रह जाता है। ये राजनीतिक दाव-मेंच इतने गहरे, भीषण और जिन छोटे-छोटे देशोने इन बड़ी शक्ति वाले देशोके साथ "बड़ी दूर से चल कर" लाये गये होते हैं कि बड़े-बड़ोंकी अपनी दुम बांध दी है उन्होने राष्ट्रसंघके नाममें बाकी कमजोर अक्ल बेकार हो जाती है। यह दल-दल इतना भयानक राष्ट्रोंपर एक डिक्टेटरशिप कायम कर रखी है। ये लोग जो और सर्व ग्रासी हो गया है कि जो इधरकी ओर पैर बढ़ाता चाहते है मनमानी करते हैं। जिसे चाहा "ऐग्रेसर" करार दे है उसकी मुक्ति या निस्तारकी फिर कोई आशा नही रह दिया और उसे फिर सम्मिलित सघ-शक्ति-द्वारा मटियामेट जाती है। राजनीतिज्ञ लोगोंने अपने-अपने देशोंकी लूटमई करते इन्हें जरा भी हिचकिचाहट नही होती। और जहां सत्ता दूसरों पर अधिकाधिक कड़ा कर या कर रखनेके अपना क्षुद्र स्वार्थ देखा वहां किसी सच्चे ऐग्रेसरको सजा देनेलिये ऐसे-ऐसे उपायोंका अवलम्बन कर रखा है या करते के बजाय और उसे अधिक संरक्षण दे देते है। कोरिया और जाते हैं कि जिन्हें यदि किसी छोटे रूपमें कोई व्यक्ति करनेकी काश्मीरके दो ज्वलन्त उदाहरण अभी भी हमारे सामने है। धृष्टता करे तो उसे "महापाप" और भयानक सजाका ऐसी स्थितिमें आज हम धर्म, समाज और व्यक्तिको अन्तर्देशीय भागी होना पड़े। पर जो लोग राज्यके नाममें “एटम बम" और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिसे पृथक् नहीं कर सकते। हमारा गिरा-गिरा कर लाखों करोड़ों बे-गुनाह .बालक-बूढ़े मर्द- सारा सुख और हमारी सारी शान्ति एवं समृद्धि इन राज
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नैतिक व्यवस्थाओ और परिस्थितियों द्वारा ही संचालित और आजका वस्तु विज्ञान (Meterial Science) ही पूर्ण है। प्रवर्तित हो रही है । आजके संसारमें यदि कोई व्यक्ति, वह भी अधूरा है। वस्तुविज्ञान और मानवविज्ञान जब तक समाज, सम्प्रदाय या देश अपनेको अकेला समझकर अपने मन एक दूसरे से मिलकर आगे नही चलेंगे तो तब तक दोनों मुताबिक एक आदर्श-पथमें ही चलनेकी चेष्टा करे तो अधूरे कहे जायंगे और आजके संसारमें कोई मसला हल यह उसकी महामूर्खता होगी। वह कोरा आदर्शवादी ही नहीं हो सकेगा और न कोई समस्या ही सुलझ पायेगी। रहेगा । आजका मानव स्वयं अपनी परिस्थितिका ही उलझन बराबर बढ़ती ही जायगी-ज्यो-ज्यों उसे सुलझाने नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियोका सबसे बड़ा गुलाम की चेष्टा होगी। यही हो रहा है। आज जो निराशा और है। यदि हमारे धार्मिक नेता, पंडित और उपदेश या गुरु असमर्थताका वातावरण फैला हुआ है वह इसी कारण लोग अब भी वही पुराना राग अलापते रहे तो यह कोरी है कि हमारा ज्ञान, जिसके सहारे हम सब कुछ कर या बकवास होकर ही रहेगी। उसका कोई असर नहीं हो सकेगा। करवा रहे है, पूरा नहीं है। और इसीलिये आधुनिक विज्ञान सर्वोदय भी अकेला न होना है न होगा। सारा संसार एक सर्व मानवोकी सुख-समृद्धिका ही जरिया न रहकर साथ सूत्रमें कुछ इस तरह गुथ गया है कि यदि समष्टिके रूपमें ही साथ नये-नये भयोकी सृष्टि और विस्तार करता जा रहा सर्व मानव समाजको एक कुटुम्बके प्राणी समझकर कोई है। सारा संसार भयभीत है हर दम डरता-कांपता रहता है व्यवस्था वर्तमान समयकी मागके अनुसार बनाई जाय या कि न जाने विज्ञान और राजनीति मिलकर कल क्या कर कायम की जाय तो दशा कुछ सुधरनेकी उम्मीद या डालें, जिससे मानवताका अन्त ही हो जाय । ऐसा क्यों? आशा हो सकती है, अन्यथा नही ।
प्रधान कारण यही है कि आजका पश्चिमी ज्ञान पूर्ण प्रश्न उठ सकता है कि सारा संसार विविध विद्वानोंसे नही है। विज्ञान जिसे हम विज्ञानके रूपमें समझ रहे हैं भरा पड़ा है जो हर तरहके सुझाव देते ही रहते है, वह एकतर्फी और अधूरा है-फिर भी हमारे वैज्ञानिक विज्ञानने इतनी उन्नति कर ली है और करता ही जा रहा अपने ज्ञानको एक खास सीमामें बन्द किये उसीमें इतने है जैसी पहले कभी नही, ज्ञानका प्रसार पहलेकी अपेक्षा व्यस्त रहते है कि उन्हें दूसरी ओर ध्यान देनेकी या तो हजारो हजार गुना हो गया है और बढ़ता ही जाता है, फुर्सत नही या उसे वे अपना मार्ग, लाइन या कार्य भी नही फिर भी एक कमी सभी महसूस करते है और अपनेको समझते। परिस्थितियोको बदलनेमे एकदम असमर्थ पाते है, वह क्यो? मानव मानव है । ससारमें मानव भी है और दूसरा कुछ क्या आजका ज्ञान पूर्ण नही ? अधूरा है ? एक-तर्फा है ? भी है। जानदार लोग या जीवधारी वस्तुएं भी है और या उस ज्ञानमें कोई खास त्रुटि है ? हां, बात ऐसी ही है। बेजान भी । अभी तक हमारा विज्ञान यह न जान पाया है न ज्ञानके विकासका कोई अन्त न है न होगा । ज्ञान जितना ही इसने सचमुच तर्कयुक्त उपायोंसे यह जाननेको ही चेष्टा की विकसित होता जायगा उतना ही और अधिकाधिक ज्ञान- है कि मानव क्या है ? मानवका निर्माण कैसे हुआ है ? के क्षेत्रोंका वितस्तारचक्र वृद्धिकी तरह होता जायगा। कोई मानव क्यों किसी विशेष प्रकारसे ही आचरण करता ज्ञान असीम है । यह समझ लेना कि जो कुछ पहलेके लोग है। दूसरे जीवधारी भी क्यों क्या करते हैं ? कहां इनका कह गये या लिख गये उसके अन्दर ही ज्ञानकी पूर्णता हो गयी समन्वय, समानता तथा कहां विरोध है, और क्यों कैसे? और आगे कुछ भी जाननेको नही है तो यह ज्ञानकी बात नही- इत्यादि । अज्ञानकी बात है। पर हमारे अधिकतर पडित इसीमें गर्व जैन तीर्थंकरोंने इन बातोंका विमल ज्ञान प्राप्त किया अनुभव करते है कि उनके पूर्वजोंने जो कुछ कह दिया या था, जो परम तर्कयुक्त, वैज्ञानिक और बुद्धिपूर्ण था। उन्होंने लिख दिया वही सब कुछ है। बाकी जो हो रहा है वह झूठ उसे संसारके सामने अपने समयमें रखा और संसारनेहै-"मिथ्या" है। यह भावना विशेष रूपसे हमारे देशमें बड़ी मानवताने-उमकी कद्र की और उसे मानकर एवं उस हानिकारक रही है और अब भी है। यह मै नहीं कहता कि मुताबिक आचरणकर सुख शान्ति भी प्राप्त की। पर समय
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के साथ पुनः स्वार्य और पाखंडके कारण उस सुज्ञानकी लोग तर्क और बुद्धिको धर्मके मामले में घुसने ही नहीं अवनति होती गई, लोग अज्ञान या कुज्ञानकी ओर अग्रसर देना चाहते। वैज्ञानिकोंने भी इधरसे उदासीनता दिखलाहोते गये और दिन व दिन अवस्था बुरी ही होती गई। कर बड़ी भारी हानि की है । आज संसारमें जो युद्ध और जैनियोंके भगवान ऋषभदेवसे लेकर भगवान महावीर
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का
आसुरिक शक्तिका ही बोलबाला हर तरफ दिखाई दे रहा है वर्षमान तक चौवीस परमज्ञानी तीर्थकर हुए, जिन्होने यह
तक चौवीस परमज्ञानी तोकर बार वह इसी कारणसे है। उस विमल शानकी संस्थापना, पुनरुत्थान और संवृद्धि
; पुनरुत्थान और संवृद्धि आजके संसारमें ईश्वरके नामकी आड़में धनकी ही की। यह शान विशद विवरणके साथ बतलाता है कि मानव सच्चे ईश्वरके रूपमें पूजा होती है। ईश्वर भी धनियोंका क्या है; वह कैसे बना है, आत्मा क्या है; शरीर क्या है; ही ईश्वर है या यों कहिये कि पूजीवादी व्यवस्थाने ही ईश्वरआत्मा और शरीरका संयुक्त रूप मानव कैसे क्या करता है; को कायम कर रखा है ताकि कुछ लोग धन बटोरकर किसी व्यक्तिका स्वभाव या आचरणादि एक खास तरह बाकियोको गरीब रख उन पर अपना प्रभुत्व बनाये रख के ही क्यों होते है और उन्हें कैसे बदला जा सकता है या सके । जब तक एक काल्पनिक ईश्वरका अस्तित्व रहेगा बदलनेकी संभावना है, कि नहीं इत्यादि । संसारकी सारी संसारसे ऊंच-नीचकी भावनाएं और दूसरोंपर निर्भर रहकर मानवकृत व्यवस्थाएं मानवसे सम्बन्धित है और उसीको केवल प्रार्थनाके बलसे सब कुछ पा जानेकी चेष्टाओंमें केन्द्रित करके उसीके लिये बनी या बनायी गयी है। सच्चा अदल-बदल होकर स्वावलम्बनका विस्तार होना संभव वैज्ञानिक ज्ञान वही है जो हर सम्बन्धित पहलुओं और नही दीखता। भाग्य और भगवान्का मनुष्यके सुख-दुःखमें बातोंको देखकर सुन कर तथा जांच कर कुछ कहे। ठीक-ठीक क्या स्थान, अर्थ और मतलब है यह जानना यदि मूल मानव और उससे सम्बन्धित सभी बातोंकी ठीक- जरूरी है। नहीं तो संसारसे भ्रमपूर्ण मिथ्या धारणाएं नहीं ठीक जानकारी न हो तो जो भी व्यवस्था बनेगी वह गलत, हट सकेंगी और न कुछ सुधार ही होगा। भगवान् महावीरअधूरी या त्रुटियोसे भरी होनेसे पूर्ण लाभदायक न के बताये सिद्धांतोंमे इनका ठीक-ठीक सीधा सच्चा प्रतिपादन होगी और जितनी कमी या त्रुटि उसमें होगी उतनी ही मिलेगा। हानिकारक भी वह होगी। यही बात हमारी वर्तमान यों भी सारा संसार और संसारका हर एक पदार्थ, सामाजिक व्यवस्थाओंके साथ लागू है। राजनैतिक, आर्थिक हर एक प्राणी, हर एक परमाणु तक एक दूसरेपर अपना सामाजिक या धार्मिक व्यवस्थाएं सभी ही मानवसे ही मुख्यतः प्रभाव सर्वदा डालते रहते है । सभी वस्तुएं शाश्वत कम्पनसम्बन्धित होनेसे सब एक दूसरेसे गुथी हुई है और अलग नही प्रकम्पनसे युक्त है और उनमें परमाणुओं (युग्दलो) की जा सकती। फिर यदि मानवके बारेमें पूरी जानकारी का आदान-प्रदान, अदला-बदली होती ही रहती है। हर शरीर न होगी तो हानि या गलती या भ्रम वगैरह तो होना ही या वस्तुसे परमाणुओं (मुगदलों) की धारा हर समय है। संसारमें फैले हजारों मतमतान्तरों और धमोंने बड़ा निकलती रहती है । आन्तरिक बनावटोंमें भी ये परमाणु फेरगोलमाल कर रखा है । फिलोसोफरोने बिना बातके मूल बदल करते ही रहते है। इनका प्रभाव इतना शक्तिशाली है तक पहुंचे हुए ही तर्कके जोरपर जो चाहा उसे ही सत्य कि वह कभी व्यर्थ नहीं होता। भले ही हम इसे समझें, जानें बनाकर लोगोंके सामने रखकर मनवा लिया। राज्य या न जानें, हमारे वैज्ञानिक इसे बतलायें या न बतलाएं, पर शासनों और राजाओने अपने मतलब मुताबिक बातें प्रचारित यह तो सर्वदा-निरन्तर-अवाधरूपसे होता ही रहता है । यही करवा दीं। लोगोंने भी भौगोलिक और सामयिक जरूरतों- लोगोंके भाग्योंके परिवर्तनका भी प्रमुख कारण है। के मुताबिक अपने-अपने धर्म गढ़ लिये। समयके साथ ये ही एक मानव या कोई जीव या कोई वस्तु जब हिलती-डुलती है रूढ़ियोंमें बदलकर स्थायी रूपमें स्थित हो गये। अब लोगोंके तब उसमेंसे तरह-तरहके परमाणुओंकी वर्गणाएं उन विश्वासों और धारणामोंको हटाना आसान नहीं रह धाराओं और किरणोंकेरूपमें निकलती है। जब कभी मया है। उसपर भी वर्तमान राज्य व्यवस्थाओंके संचालक मानव कुछ सोचता है उसके मन प्रदेशमें हलन-चलन होनेसे
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भी ये युग्दल (परमाणुओं) की धाराएं हर तरहकी बनावटों ने भी वर्तमानकालमें काफी उन्नति की है पर वह भी के रूपमें धाराप्रवाहकी तरह निकलकर सारे संसारमें फैलती यह नहीं जाननेके कारण मनुष्यकी बनावट कैसी है अधूरा है। इस तरह संसारका हर मानव--हर प्राणी-हर पदार्थ- होनेसे पूरा कारगर नहीं होता । इन सबके लिये जरूरी है एक दूसरेपर प्रभाव डालता रहता है। पर हमारा आधुनिक भगवान महावीरका कर्मसिद्धांत(Karma Philosophy) विज्ञान इन बातोंको अभी तक न जान सका है न इनको सामा- पहले वे वैज्ञानिक उसे जान लें, फिर अपनी बुद्धि और तर्क जिक व्यवस्थाओंसे कुछ सम्बन्धित ही समझता है। यही सबसे लगाकर यदि कुछ नये आधुनिक वातावरणका ध्यानकर बड़ी गलती आजकलके विज्ञानकी है। यदि शक्तिशाली देश कहें तो वह सचमुच कारगर और सही होगा । भगवान यह अच्छी तरह समझ जांय कि वे अकेले न तो सच्ची स्थायी महावीरने “अनेकान्त" रूपसे सब प्रश्नोका उत्तर निकाला शान्ति प्राप्त कर सकते है, न उन्हे सच्ची समृद्धि ही प्राप्त था। इसी तरहका ज्ञान विज्ञान हो सकता है । और इसीकी हो सकती है, न सच्चे सुखानन्दका ही दर्शन उपलब्ध संसारमें सुख शान्तिकीवृद्धि के लिये परम आवश्यकता है ।* हो सकता है, यदि बाकी संसार या संसारके दूसरे देश
भगवान महावीरने जो "सर्वोदय" का समतामई मार्ग पिछड़े रहें और लोग दुःख तथा अभावों (कमियों) के कारण
बतलाया है वह समयकी प्रगतिके साथ अनुयायियोंकी कराहते ही रहे । आज अमेरिका इंग्लंड इत्यादि देश जिसे
अज्ञानताके फलस्वरूप धीरे-धीरे लुप्त होता चला गया । समृद्धि समझे बैठे है वह एक झूठी और धोखेकी चीज है,
आजका जैन समाज केवल कहनेके लिये ही जैन या महावीरसच्ची नही । सच्चा आनन्द सुख तो तभी प्राप्त होगा जब
का अनुयायी है पर सचमुच में वह भी धन नामक ईश्वरका संसारके मानवमात्र उन्नत हो-सच्चे अर्थोंमें सर्वोदय हो। ही पजारी हो गया है। हां. एक सर्वशक्तिमान वरदान देनेतब अमेरिका इग्लैंड जैसे देश भी सच्चे आनन्द का वाले ईश्वरकी जगह वह तीर्थकरकी मूर्ति बनाकर पूरे ठाठअनुभव प्राप्त कर सकेगे। अभी तो उनका ईश्वर या आनन्द बाट और सोनेचांदीकी चकाचौधके साथ पूजा करके
अपनेको धर्मात्मा समझता है और अपने कर्तव्यकी 'इतिश्री' से-अधिक धन बटोर लें। यही बात व्यक्तियोके साथ भी लागू मान लेता है। जैनियोंने अपने धार्मिक सिद्धांतोंको पोषियों है। हर व्यक्ति इस पूजीवादी व्यवस्थामे अधिक-से-अधिक धन में सात-सात वेष्टनोंके भीतर इस तरह बन्द रखा कि सम्पत्ति संचय कर लेना चाहता है। एकको किसी-न-किसी बाहर के लोग कल जान ही न सके उनका निवासी तरह लट कर ही या वंचित करके ही दूसरा धनी हो सकता है, रुक गया। नतीजा यह हआ कि जैनीस्वयं ही धर्मकी असिलियत अन्यथा नही । तब इसके लिये ऊंच-नीचकी व्यवस्था भी से वंचित होकर पाषडके शिकार हो गये । धनी जैनियोंने बनाये रखनी जरूरी है। धनी गरीब भी रहना ही है तब अपने कर्त्तव्यकी बड़ी भारी उपेक्षा और अवहेलना करसच्ची सुख शान्ति भला कैसे मिल सकती है । असभव है। के महान पाप किया है। धर्म तीर्थ बनाया ही गया है सबका जबतक लोग "समता" या "समानता" की भावना हर उद्धार करनेके लिये उन्हें ऊपर उठानेके लिये । यदि यहां भी जगह हर प्रकारके लोगोमे उत्पन्न और सुदृढ़ नही करेंगे अर्थहीन ऊंच-नीचकी भावना ला दी गई तो वह भगवान 'सर्वोदय' असभव है। सर्वोदय तो दूर रहा "एकोदय" भी महावीरका धर्म ही न रह जायगा। जब मै सुनता हूं कि सच्चा नही हो सकता । यदि आजका वैज्ञानिक संसार 'समदर्शी' कहे जाने वाले मुनि लोग भी जन्मसे मानव-मानवअपने ज्ञानके साथ-साथ तीर्थंकरोके कहे उस ज्ञानको भी
*देखो मेरे लेख (१) "जीवन और विश्व के शामिल कर ले जो मानवके बारेमें उन सभी जानकारियों- परिवर्तनोंका रहस्य" -अनेकान्तवर्ष १०-किरणको पूर्ण-विशद एवं व्यवस्थित रूपमें प्रतिपादित करता है ४-५(२) "रूप और कर्म"-जैन सिद्धांतभास्कर तो आजका विज्ञान अधूरा न रहकर पूर्ण हो जाय और तब भाग १७. किरण-१; "Soul, Life, consजो मसले या प्रश्न या गुत्थियां अबतक हल न हो सकी हैं ciousness"-Voice of Ahinsa- Vol. 1, वे भी हल हो जायेंगी। दूसरे विज्ञानोंके साथ मनोविज्ञान- No.3.)
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में छुत-अछूत और ऊंच-नीचका भेद-भाव वर्तते और प्रचारित आज संसार युद्धकी विभिषिकासे विक्षुब्ध और भयकरते हैं तो मुझे धर्मके नाममें इस तरहके अज्ञान और भीत है, आज तो खास तौरसे जैन सिद्धातोंके व्यापक प्रवंचना पर बड़ा ही दुःख होता है एक समय था जब जैन- प्रचारकी सख्त जरूरत है। समय भी पूर्ण रूपसे उसके समाजके अगुमा लोगोंने जैन-ग्रंथोंके छापनेका प्रबल विरोष उपयुक्त है। सारा पश्चिमी संसार सच्चे ज्ञानके लिये भीषण किया था, पर आज ग्रंथोंके लाखोंकी संख्यामें छप जानेके रूप से भूखा प्यासा है। यदि हम भगवान महावीरके सर्वोदकारण हर वर्ष उन्हें पढ़-पढ़कर हजारों लोग पंडित होते यात्मक सिद्धांतोंको आधुनिक प्रचारके तरीकों द्वारा जा रहे है। किंतु दुःख है कि ये ही पंडित लोग अधिकतर विस्तारित करें तो अपना भला भी करेंगे और संसारका भी उस 'असमतावाद' को सुदृढ़ बनाये रखना चाहते हैं जो संसारकी भलाई से ही अपना भला भी सचमुच हो सकता है। "समतावाद" के विरुद्ध, भगवान महावीरकी शिक्षाओंके हम भी संसार मे ही है-उससे बाहर नही है। सर्वोदय होने खिलाफ और सर्वोदयका हनन करने वाला है।
से ही हमारा या किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा देशका हम जैनी जोर-जोरसे चिल्ला-चिल्लाकर अपने धर्म- उदय-अभ्युत्थान हो सकता है । अबतक हम भ्रम और लोभको 'सर्वोदयात्मक विश्व धर्म' होनेका दावा करते है पर में वह अपना परम प्रमुख कर्त्तव्य भूले रहे जो हमें सबसे क्या सचमुच हमारा व्यवहार इस दावेके अनुकूल है? पहले करना था। अभी भी समय है यदि जैनी चेत जायं धर्म और सिद्धांत तो ठीक है पर हमारा अर्थका अनर्थ और ऊंच-नीचके भेद-भाव छोड़कर जैनसिद्धांतको सारे करना ही सारे खुराफातोंकी जड़ है। उसमें भी हमारे अधिकांश संसारमें फैलावें। एक "विश्व-जैन-मिशन" नाम की संस्था पनिक वर्गने प्रचारकी सबसे बड़ी उपेक्षाकी है और पाप भी स्थापित हुई है, जिसने कुछ काम भी किया है,पर दुख है एवं मिथ्यात्वके बढ़ने-बढानेमें वे प्रमुख कारण रहे है। कि समाजके धनिक वर्गका सहयोग और सहायता अभी उसे एक पूंजीवादी सांसारिक व्यवस्था और समाजमें धन ही नहीं मिल सकी है । इस समय आवश्यकता है कि नये मन्दिर शक्ति है, वगैरधनके कुछ भी नही हो पाता-फिर उन्होंने और मूर्तियोकी सस्थापना और रथयात्रा इत्यादि कुछ अर्सेके सर्व जीवोका सच्चा कल्याण करनेवाले धर्मका यदि सच्चा लिये बन्द करके और उनमें लगने वाला सारा रुपया इकट्ठा प्रचार न किया तो उनका भी सच्चा कल्याण कैसे हो सकता करके लाखों करोड़ोंके रूप में इस सर्वोदय धर्मकी प्रभावना है? वे लोग थोड़े बहुत दानवान करके और कुछ मन्दिर की जाय। यही सच्चा तीर्थ है और इसीलिये भगवान महावीरबगैरह धनवा कर समझ लेते है कि उनसे बढ़कर धर्मात्मा
की वाणीको "सर्वोदय तीर्थ" कहा गया है। एव इसीसे कोई है ही नहीं, पर यह बात ठीक वैसी ही है जैसे धानमें से
सबका कल्याण होगा । ॐ शान्तिः ॐ । चावल निकार कर फेक दिया जाय और ऊपरके छिलके भूसी-को ही सुदृढ़तासे यत्न पूर्वक सुरक्षित रखा जाय । पटना, ता: ४-१-५२
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अहिंसक - परम्परा
( श्री विश्वम्भरनाथ पांडे, सम्पादक विश्ववाणी इलाहाबाद )
छान्दोग्य उपनिषद् में इस बातका उल्लेख मिलता है कि देवकीनन्दन कृष्णको घोर आंगिरसऋषिने आत्म-यज्ञकी शिक्षा दी । इस यज्ञकी दक्षिणा तपश्चर्या, दान, ऋजुभाव, अहिंसा तथा सत्यवचन थी ।
जनग्रथकारोका कहना है कि कृष्णके गुरु तीर्थंकर नेमिनाथ थे । प्रश्न उठता है कि क्या यह नेमिनाथ तथा घोर आंगिरस दोनों एक ही व्यक्ति के नाम थे ? कुछ भी हो, इससे एक बात निर्विवाद है कि भारतके मध्यभागपर वेदोंका प्रभाव पड़ने से पूर्व एक प्रकारका अहिंसा धर्मं प्रचलित था ।
स्थानांग सूत्रमें यह बात आती है कि भरत तथा ऐरावत प्रदेशों में प्रथम और अन्तिमको छोड़कर शेष २२ तीर्थंकर चातुर्मास धर्मका उपदेश इस प्रकार करते थे— " समस्त प्राणघातोंका त्याग', सब असत्यका त्याग, सब अदत्तादानका त्याग, सब बहिर्धा आदानोका त्याग।" इस धर्म रीतिमें हमें उस कालमे अहिसाकी स्पष्ट छाप दिखाई देती है ।
'मज्झिम निकाय' में चार प्रकारके तपोका आचरण करनेका वर्णन मिलता है— तपस्विता, रूक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता । नंगे रहना, अञ्जलिमें ही भिक्षान मांगकर खाना, बालतोड़ कर निकालना, कांटोंकी शय्या पर लेटना, इत्यादि देहदंडके प्रकारोको तपस्विता कहते थे। कई वर्ष की धूल वैसी ही शरीर पर पड़ी रहे, इसे रूक्षता कहते थे । पानीकी बूदतकपर भी दया करना इसको जुगुप्सा कहते थे । जुगुप्सा अर्थात् हिंसाका तिरस्कार । जगलमें अकेले रहनेको प्रविविक्तता कहते थे ।
तपश्चरणकी उपरोक्त विधिसे स्पष्ट है कि लोग अहिंसा तथा दयाको तपस्याका केन्द्र विन्दु मानते थे ।
अधिकतर पाश्चात्य पंडितोका यह मत है कि जैनोंके तेईसवें तीर्थंकर पारवं ऐतिहासिक व्यक्ति थे। यह
एक ऐतिहासिक तथ्य है कि चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमानके १७८ वर्ष पूर्व पार्श्व तीर्थंकरका परिनिर्वाण हुआ ।
यह बात भी इतिहास सिद्ध है कि वर्धमान तीर्थंकर और गौतम बुद्ध समकालीन थे । बुद्धका जन्म वर्धमानके जन्म से कमसेकम १५ वर्ष बाद हुआ होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बुद्धके जन्म तथा पार्श्वके परिनिर्वाणमें १९३ वर्षका अन्तर था। निर्वाणके पूर्व लगभग ५० वर्ष तो पार्श्व तीर्थंकर उपदेश देते रहे होगे । इस प्रकार बुद्धके जन्मके लगभग २४३ वर्ष पूर्व पार्श्व मुनिने उपदेश देनेका कार्य प्रारम्भ किया होगा । निर्ग्रन्थ श्रमणोका सघ भी उन्होने स्थापित किया होगा ।
परीक्षित राजाके राज्यकालसे कुरुक्षेत्रमें वैदिक संस्कृतिका आगमन हुआ । उसके बाद जन्मेजय गद्दी पर आया। उसने कुरु देशमें महायज्ञ करके वैदिक धर्मका झडा फहराया। इसी समय काशी देशमे पार्श्व तीर्थकर एक नयी संस्कृतिकी नीव डाल रहे थे। पार्श्वका जन्म वाराणसी नगरमे अश्वसेन नामक राजाकी बामा नामक रानीसे हुआ । पार्श्वका धर्मं अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह इन चार यमका था। इतने प्राचीन कालमें अहिंसाको इतना सुसम्बद्धरूप देनेका यह पहला ही उदाहरण है ।
पार्श्व मुनिने एक बात और भी की। उन्होने अहिंसाको सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह, इन तीन नियमोके साथ जकड़ दिया। इस कारण पहले जो अहिसा ऋषिमुनियोंके व्यक्तिगत आचरण तक ही सीमित थी और जनताके व्यवहारमे जिसका कोई स्थान न था वह अब इन नियमोंके कारण सामाजिक एवं व्यवहारिक हो गयी ।
पार्श्व तीर्थकरने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्मके प्रचारके लिये संघ बनाया। बौद्ध साहित्यसे हमें इस बात का पता लगता है कि बुद्धके समय जो संघ विद्यमान थे, उन सबों में जैन साधु साध्वियोंका संघ सबसे बड़ा था ।
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उपर्युक्त वर्णनसे मालूम होगा कि ऋषि-मुनियोंकी तपश्चर्या- दिशामें बर्मा, श्याम, चीन आदि देशोंमें फैला और उसने रूपी अहिंसासे पार्श्व मुनिकी लोकोपकारी अहिंसाका . इन सब दिशाओंसे भारतको सम्भावित राजनैतिक विपत्तियों उद्गम हुआ।
से उन्मुक्त किया। यदि जैनधर्म भी इसी तरह भारतसे बाहर लोकोपकारी अहिंसाका सबसे प्रमुख प्रभाव हमें सर्व- पश्चिमी देशोंकी ओर फैला होता तो शायद भारत अनेक भूत दयाके रूप में दिखाई देता है। यों तो सिद्धांततः सर्वभूत राजनैतिक दुर्गतियोंसे बच गया होता।" दयाको सभी मानते है किन्तु प्राणिरक्षाके ऊपर जितना बल जैन परम्पराने दिया, जितनी लगनसे इसने उस विषयमें
इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है उनसे काम किया, उसका परिणाम समस्त ऐतिहासिक युगमें
यह स्पष्ट है कि ईसवी सन्की पहली शताब्दीमें और उसके
बादके १००० वर्षों तक जैनधर्म मध्यपूर्वके देशोंमें किसीयह रहा है कि जहां-जहां और जब-जब जैनोंका प्रभाव रहा वहां सर्वत्र आम जनता पर प्राणि-रक्षाका प्रबल संस्कार
न-किसी रूपमें यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, और इसलामको पडा है। यहां तक कि भारतके अनेक भागोंमें अपनेको अजैन
प्रभावित करता रहा है । प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेखक वान कहनेवाले तथा जैन-विरोधी समझनेवाले साधारण लोग भी
केमरके अनुसार मध्यपूर्वमें प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय
'श्रमण' शब्दका अपभ्रश है। इतिहासलेखक जी. एफ. मूर जीवमात्र की हिंसासे नफरत करने लगे है । अहिसाके इस सामान्य संस्कारके ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेतर
लिखता है कि-"हजरत ईसाके जन्मकी शताब्दीसे पूर्व परम्पराओके आचार-विचार पुरातन वैदिक परम्परासे
ईराक, श्याम और फिलस्तीनमे जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सर्वथा भिन्न हो गये है। तपस्याके बारेमे भी ऐसा
सैकड़ोकी सख्यामें चारों ओर फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया, ही हुआ है । त्यागीहो या गृहस्थी सभी जैन तपस्याके ऊपर
मिस्र, यूनान और इथियोपियाके पहाडों और जंगलोंमें
उन दिनो अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने त्याग अधिकाधिक झुकते रहे है। सामान्य रूपसे साधारण जनता जैनोंकी तपस्याकी ओर आदरशील रही है। लोकमान्य तिलकने
और अपनी विद्याके लिये मशहूर थे । ये साधु वस्त्रो तकका ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रान्तोंमें जो
परित्याग किये हुए थे।" प्राणिरक्षा और निरामिष भोजनका आग्रह है वह जैन-परम्परा
इन साधुओके त्यागका प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियों का ही प्रभाव है।
पर विशेषरूपसे पड़ा। इन आदर्शोका पालन करनेवालोंकी, जैनधर्मका आदि और पवित्र स्थान मगध और पश्चिम यहदियोमें, एक खास जमात बन गई जो 'एम्सिनी' कहलाती बंगाल है। संभव है कि बंगालमें एक समय बौद्ध धर्मकी थी। इन लोगोने यहूदीधर्मके कर्मकाण्डोका पालन त्याग अपेक्षा जैन धर्मका विशेष प्रचार था । परन्तु क्रमश: जैन दिया। ये बस्तीसे दूर जगलों या पहाड़ोंपर कुटी बनाकर धर्मके लुप्त हो जानेपर बौद्ध धर्मने उसका स्थान ग्रहण किया। रहते थे। जैन मनियोकी तरह अहिंसाको अपना खास धर्म बंगालके पश्चिमी हिस्सेमें स्थित 'सराक' जाति 'श्रावको' मानते थे। मांस खानेसे उन्हे बेहद परहेज था। वे कठोर की पूर्व स्मृति कराती है। अब भी बहुतसे जैन-मन्दिरोके और संयमी जीवन व्यतीत करते थे। पैसा या धनको छूने ध्वंसावशेष, जैनमुर्तियां, शिलालेख, आदि जैन स्मृतिचिन्ह तकसे इनकार करते थे। रोगियों और दुर्बलोंकी सहायताको बंगालके भिन्न-भिन्न भागोमें पाये जाते है।
दिनचर्याका आवश्यक अंग मानते थे । प्रेम और सेवाको प्रोफेसर सिलवन लेवी लिखते है कि-"बौद्धधर्म पूजा-पाठसे बढकर मानते थे। पशुबलिका तीव्र विरोध जिस तरह आकुण्ठित भावसे भारतके बाहर और अन्दर करते थे । शारीरिक परिश्रमसे ही जीवन-यापन करते थे। प्रसारित हो सका, उस तरह जैनधर्म नही । दोनों धर्मोका अपरिग्रहके सिद्धान्तपर विश्वास करते थे। समस्त सम्पत्तिको उत्पत्ति-स्थान एक होते हुए भी यह परिणाम निकला कि समाजकी सम्पत्ति समझते थे। मिस्रमें इन्ही तपस्वियोंको बौद्धधर्म प्रतिष्ठित हुआ पूर्व भारतमें, और जैनधर्म पश्चिम 'थेरापूते' कहा जाता था। थेरापूते का अर्थ है 'मौनी अपरितथा दक्षिण भारतमें । बौद्धधर्म भारतके अतिरिक्त पूर्व प्रही।
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अहिंसक-परम्परा
. 'सियाहत नाम ए नासिर का लेखक लिखता है कि ये लोग अन्तिमबार स्वदेश लौटे तब उस समुदायके साथ इसलाम धर्मके कलन्दरी तबकेपर जैनधर्मका काफी प्रभाव सीरियाके सुविख्यात अन्ध-कवि अबुलअला अलमारीका पड़ा था। कलन्दरोंकी जमात परिव्राजकोंकी जमात थी। कोई परिचय हुआ। अबुलअलाका जन्म सन् ९७३ ईसवीमें कलन्दर दो रातसे अधिक एक घर में न रहता था। कलन्दर हुआ था और मृत्यु सन् १०५८ ईसवीमें। जर्मन विद्वान वान चार नियमोंका पालन करते थे-साधुता, शुद्धता, सत्यता, केमरने लिखा है कि अबुलअला सभी देशों और सभी युगोंमोर दरिद्रता । वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे। के सर्वश्रेष्ठ सदाचार शास्त्रियोंमेंसे एक था।
एक बारका किस्सा है कि दो कलन्दर मुनि बगदादमें अबुलअला जब केवल चार वर्षके थे तभी चेचकके माकर ठहरे। उनके सामने एक शुतुरमुर्ग गृह-स्वामिनीका भयंकर प्रकोपसे अन्धे हो गये थे। किन्तु उनकी ज्ञान-तृष्णा हीरोंका एक बहुमूल्य हार निगल गया। सिवाय कलन्दरोंके इतनी अदम्य थी कि वे स्पेनसे मिस्र और मिस्रसे ईरान तक किसीने यह घटना देखी नहीं। हारकी खोज शुरू हुई। अनेकों स्थानमें गुरुकी तलाशमें ज्ञानार्थी बनकर घूमते रहे। शहर कोतवालको सूचना दी गई। उन्हें कलन्दरमुनियोपर अन्तमें बगदादमें जैन-दार्शनिकोंके साथ उनका परिपूर्ण सन्देह हुआ। कलन्दरमुनियोंसे प्रश्न किये गये । मुनियोंने ज्ञान-समागम हुआ। साधना द्वारा उन्होने परमयोगी पदको उस मूक पक्षीके साथ श्विासघात करना उचित नहीं समझा। प्राप्त किया। उनकी ईश्वरकी कल्पना इसलामकी कल्पनासे क्योंकि हारके लिये उस मूक पक्षीको मारकर उसका पेट नितान्त भिन्न थी । बहिश्तके लिये उनकी जरा भी ख्वाहिश फाड़ा जाता । सन्देहमें मुनियों को बेरहमीके साथ पीटा गया। नही थी। वे दुःखमय सत्ताको ही समस्त दुःखोंका मूल मानते वे लोह-लोहान हो गये किन्तु उन्होंने शुतुरमुर्गके प्राणोंकी थे। बगदादसे सीरिया लौटकर एक पर्वतकी कन्दरामें रक्षा की।
रहकर उन्होने अति कृच्छतपश्चरण किया। उसके बाद सालेहबिन अब्दुल कुलूस भी एक अहिंसावादी अपरि- उनका जीवन ही बदल गया। मद, मत्स्य, मांस, अण्डे एवं ग्रही परिव्राजक मुनि था, जिसे उसके क्रान्तिकारी विचारोंके दूध तकका उन्होंने परित्याग कर दिया। उनका जीवन कारण सन् ७८३ ईसवीमें सूली पर चढ़ा दिया गया। अकुल अहिसामय एवं मैत्रीपूर्ण बन गया। अतारिया, जरीर इब्न हज्म, हम्माद अजरद, यूनान बिन अबुलअलाका इस बातमें विश्वास नहीं था कि मुर्दे हारून, अली बिन खलील और बरशार अपने समयके प्रसिद्ध किसी दिन कब्रमेंसे निकलकर खड़े हो जायेंगे। बच्चा पैदा अहिसावादी निर्ग्रन्थी फकीर थे।
करनेके कार्यको वह पाप मानता था। अपने पृथक् अस्तित्वनवमी और दशमी शताब्दियोंमें अब्बासी खलीफाओंके को मिटा देनेको वह मनुष्य जीवनका वास्तविक लक्ष्य मानता दरबारमें भारतीय पंडितों और साधुओंको आदरके साथ था। वह आजीवन मनसा, वाचा, कर्मणा ब्रह्मचारी रहा। निमन्त्रित किया जाता था। इनमें बौद्ध और जैन साधु भी उसने अपने एक भजनमें लिखा है:रहते थे। इब्न अन नजीम लिखता है कि-"अरबोंके "हनीफ ठोकरे खा रहे है, ईसाई सब भटकहुए है, यहूदी शासनकालमें यहिया इन्न खालिद वरमकीने खलीफाके चक्कर में है, भागी कुराहपर बढ़े जा रहे है । हम नाशमान दरवार और भारतके साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित मनुष्योंमें दो ही खास तरहके व्यक्ति है-एक बुद्धिमान किया । उसने बड़े अध्यवसाय और आदरके साथ भारतसे शठ और दूसरे धार्मिक मूढ़।" हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानोंको निमन्त्रित किया।"
अबुलअलाका एक दूसरा भजन है:सन् ९९८ ईसवीके लगभग भारतके बीस साधु "कोई वस्तु नित्य नही है। प्रत्येक वस्तु नाशमान है। सन्यासियोंने मिलकर पश्चिमी एशियाके देशोंकी यात्रा इसलाम भी नष्ट होनेवाला है। हजरत मूसा आये, उन्होंने की। इस दलके साथ चिकित्सकके रूपमें एक जैन सन्यासी भी अपने धर्मका उपदेश दिया और चलबसे। उनके बाद हजरत गये थे। एक बार स्वदेश लौटकर यह दल फिर पर्यटनके ईसा आये। फिर हजरत मोहम्मद आये और उन्होंने अपनी लिये निकल गया। २६ वर्षके बाद जब सन् १०२४ ईसवीमें पांच वक्तकी नमाज चलाई। कुछ दिनो बाद कोई दूसरा
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अनेकान्त
वर्ष ११
रह सकती । अनेक कारणोंसे, जिनके विस्तारमें जानेकी यहां आवश्यकता नहीं है, जैन जीवन-धारा व्यापक रूपसे मानवसमाजको अधिक समय तक परिप्लावित नहीं कर सकी । उसके अनुगामी स्वयं अनाचार और मिथ्याचारमें फंस गये। आज हमें फिर अहिंसाकी उस परम्परामें नई प्राण-शक्तिका संचार करना होगा 'गांधीजीने अपने जीवन का अर्घ्य देकर एकबार उसे देदीप्यमान कर दिया । किन्तु हमें निरन्तर साधनामय जीवनसे उस अग्निको प्रज्वलितकर अपनी प्राण-शक्तिका प्रमाण देना होगा। सत्य और अहिंसाके आदर्शको व्यवहारमें प्रतिष्ठित करनेके सहजमार्गको न स्वीकार कर यदि केवल वाक्य, तर्क, और प्रमाण चातुर्यका मार्ग ग्रहण किया जायगा, तो विश्व धर्मके महाकालके विधानमें जैनधर्मके लिये कोई आशा नहीं ।
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मजहब आकर इसकी जगह ले लेगा। इस तरह मानवजाति वर्तमान और भविष्य के बीचमें मौतकी तरह हंकाई जा रही है। यह धरती नाशमान है। जिस तरह इसका आरम्भ हुआ था उसी तरह इसका अन्त होगा । जन्म और मृत्यु हर चीजके साथ लगी हुई है। कालका प्रवाह नदीकी धारके सदृश बहता चला जा रहा है। यह प्रवाह हर समय किसी न-किसी नई वस्तुको सामने लाता रहता है ।"
सभी जीव-जन्तुओं यहांतक कि कीड़ेमकोड़ोंके प्रति भी वे अपरिसीम करुणापरायण थे। इस सम्बन्धका उनका . एक भजन है :
"वृथा पशुहिंसामें क्यों जीवन कलंकित करते हो ? बेचारे बनवासी पशुओंका क्यों निष्ठुर भावसे संहार करते हो ? हिंसा जाबसे बड़ा कुकर्म है । बलिके पशुओंको आहार न बनाओ। अंडे और मछलियां भी न खाओ। इन सब कुकर्मों से मैंने अपने हाथ धो डाले हैं। वास्तवमें आगे जाकर न बधिक रहेगा और न बध्य । काश कि बाल पकनेसे पहले मैने इन बातोंको समझ लिया होता ।"
इसी प्रकार जैन दर्शनने जलालुद्दीन रूमी एवं अन्य अनेक ईरानी सूफियोंके विचारोंको प्रभावित किया । अहिंसाका सिद्धान्त मानवजीवनका सर्वोच्च सिद्धान्त है । प्रत्येक प्रगतिशील आत्मा उससे आकृष्ट हुए बिना नहीं
"यदि जिन-मानितधर्मं अनेक मिथ्या आडम्बरों, आर्यहीन आचारों आदिको त्यागकर दया, मैत्री, उदारता, शुद्ध जीवन, आन्तरिक और बाह्य प्रकाश और प्रेमकी उदार तपस्या द्वारा अपने में अन्तर्निहित मृत्युहीन जीवनका परिचय दे सके तो सब अभियोग और आरोप स्वयं शान्त हो जायेंगे और इससे जैन स्वयं धन्य होंगे तथा समस्त मानवसभ्यताको भी वे धन्य करेगे ।"
( हुकुमचन्द अभिनन्दन ग्रन्यसे साभार )
महावीरस्वामी भक्तकी प्रार्थना
( पं० नाथूराम 'प्रेमी')
मुझे है स्वामी ! उस बलकी दरकार ।
(१)
(४)
बड़ी लड़ी हों अमित अड़चनें आड़ी अटल अपार ।
असफलताकी चोटोंसे नाह, दिलमें पड़े दरार ।
तो भी कभी निराश निगोड़ी, फटक न पावे द्वार ॥ मुझे० ॥ अधिकाधिक उत्साहित होऊं मानूं कभी न हार ॥ मुझे० ॥
(२)
सारा ही संसार करे यदि, दुर्व्यवहार प्रहार । हटेन तो भी सत्यमार्ग-गत, श्रद्धा किसी प्रकार ॥ मुझे० ॥ तो भी कभी निवद्यम हो नहीं, बैठूं जगदाधार ॥ मुझे० ॥
(६)
(३) धन-वैभवकी जिस आंधीसे, अस्थिर सब संसार । उससे भी न कभी डिग पावे, मन बन जाय पहार ॥ मुझे ०॥
(५)
बुल-दरिद्रता-कृत अति भ्रमसे, तन होवे बेकार ।
जिसके आगे तन-बल धन-बल, तृणवत् तुच्छ असार । महावीर जिन ! बही मनोबल, महामहिम सुखकार ॥ मुझे० ॥
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सबका उदय
(महात्मा भगवानदीन) एक कहावत है 'दूसरेकी थालीका भात मीठा लगता नहीं कि वह सूरजके लिए भी भला होगा। आज यह बात कोन है। बोलीके मामलेमें यह कहावत पढ़े-लिखोंपर पूरी-पूरी नहीं जानता कि जिस वक्त हिन्दुस्तानमें सूरज निकलता है लागू होती है । हिन्दुस्तानमें कालेज और स्कूलके विद्यार्थी उस वक्त वह अमरीकामें डूब रहा होता है, जापानमें सिर भी इससे नहीं बच पाये। सबको अपनी बोली पसन्द न आकर पर होता है। तब सूरजके उदय होनेका क्या अर्थ रह जाता दूसरोंकी बोली भली मालूम होती है । विद्यार्थी अंग्रेजीमें है ? उसका हरदम उदय हरदम अस्त और हरदम उत्थान जो रस लेता है वह अपनी बोलीमें नही । पंडित और मौलवी है। सूरजके उदयकी बात अगर हम सोचें और उसके उदयके संस्कृत और अरबीमें जितना रस लेते है उतना अपनी बोलीमें लिए हम कुछ करने लगें तो हो सकता है जापानी नही । सबका उदय करना चाहते हैं और उसका नाम रखा हमसे बिगड़ बैठें क्योंकि जितना-जितना हम अपने यहां सूरजहै सर्वोदय । हिन्दुस्तानमें एक पेड़ है जिसका नाम है सर्व। के उदयके लिए जोर लगायेंगे उतना-उतना जापानमें सूरजगांववाले, हो सकता है, सर्वोदय शब्दसे उसी पेड़का उदय अस्त होगा। सूरजका निकलना डूबना, हर वक्त होता रहता समझलें ।
है। सूरजकी तरह हम सबका भी यही हाल है। मै जब छोटा था, मेरी नानी सुबह उठते ही कहा करती लोग बूढ़े होकर बचपनकी बहुत याद करने लगते हैं। थी, “सबका भला हो"। कितना प्यारा और मीठा बोल है। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि उनको जल्दी हिन्दू जिस बच्चेके कानमें पड़े, वह समझले कि नानी क्या कह रही धर्मके अनुसार, मरकर बच्चा बनना है, पर जवान तक है । सर्वोदय सुनकर छोटा बच्चा कुछ न समझ पायगा। कभी-कभी, अपने बचपनकी याद कर बैठते हैं और चाहते हां, अपनी आदतके अनुसार अपनी जीभको घुमा-फिराकर है, बच्चा होते तो अच्छा होता । अब सर्वोदयके विश्वासियोंसे किसी तरह ठीक-ठीक उसे रट लेगा। सर्वोदयका ठीक-ठीक हम यह पूछना चाहते है कि जब वह किसी बालकका उदय मतलब उसकी समझमें कब आयेगा, कौन जाने। करने बैठेंगे तो बहरहाल उसे जवान बनायेंगे यानी उसके
सर्वोदय नामसे हम 'सबकी भलाई करना चाहते बालकपनका अस्तकर देंगे, फिर उनका उदय क्या रह गया? है। पर सर्वोदय शब्दसे सबकी भलाई नही टपकती। सर्वोदय- और उदयके माने अगर वह निकलनेके होते हैं तो जवानीके के दो टुकड़े सर्व और उदय अलग-अलग बहुत लोग समझ उदयमें बालकपनका अस्त हुआ, फिर सबका उदय और लेते है, पर उदयका मतलब जो वह समझते है उसके लिए सबका अस्त एक बात हो गई। हिन्दी शब्द है निकलना। पंडितोंकी बहुत मेहनतसे सूर्योदय हमारे पाठक यह बिलकुल न समझें कि हम बेमतलब शब्द हमारे कुछ बालकोकी जीभपर चढ़ गया है पर गांवके शब्दोंकी बहस ले बैठे है। सचमुच हमारी समझमें सर्वोदयकी लड़के तो सूरज निकलना ही कहते है। अब उदयका अर्थ बात नहीं आती। हमें ऐसा मालूम होता है, जिस सर्वोदयकी रहा निकलना।
बात लेकर हम खड़े हुए है वह प्रकृतिमें हर छिन होता रहता सूर्योदय यानी सूरजका निकलना पथ्वीपर रहनेवालों- है। अगर प्रकृतिके इस काममें, हम सब, कहीं हाथ बंटाने के लिए बारी-बारीसे अच्छा मालूम होता है । रोज-रोज बैठ गये तो कुछ नुकसान न कर बैठे ? उदय होनेपर उसकी भलाई कम नही हो पाती। सूरजका महावीर और बुद्धने जवानीमें जब अपना घर छोड़ा, उदय होना हम लोगोंके लिए मला है, यह इस बातका सबूत राज छोड़ा तब उन दोनोंका उदय हुमा या अस्ती उन
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अनेकान्त
वर्ष ११
और अमरीकामें सूरज डूबनेसे अमरीका वालोंको बाहर घंटे का चैन मिल जाता है, जिस चैनके लिये बारह घंटेके बाद हिन्दुस्तान तड़फ उठेगा। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे ऊपर जब सूरजरूपी बल्ब चमकता है तो इसके पीछे वह चैनसे पड़ी हुई अमरीकाकी जनताकी ताकत होती है जो सूरजको चमकानेका काम करती रहती हैं ? यह किसको नही मालूम कि बल्ब जब बुझ जाता है तब उस बैटरीकी ताकत आराम पाती है जिससे वह बल्ब चमक रहा था, बल्के चमकनेमें बैटरीका नाश है और बल्बके बुझनेमें बैटरीकी उमर बढ़ती है |
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दिनोंके राजनीतिके पंडितोंके लिए बिलकुल ऐसा मालूम हुआ होगा कि महावीर और बुद्धके साधु हो जानेसे राजनीतिका सूर्य अस्त हो गया। दोनों ही राजनीतिके सूरजकी तरह राजनीतिकी दुनियापर उदय होनेवाले थे कि घर छोड़कर चल दिये ।
राजनीतिके पंडितोंकी तरह दोनोंके घरवालोंकी नज़रमें भी ऐसा मालूम हुआ होगा मानो उनके भाग्यका सूरज अस्त हो गया ।
इधर नांगोमें ऐसे ही शोर मच उठा होगा जिस तरह सूरज निकलनेपर पक्षी चहचहाने लगते है और गाय रम्भाने लगती है । नांगोंको सचमुच कितनी खुशी हुई होगी कि उन्हें अपना साथ देनेके लिए राजाओके लड़के मिल रहे है । उसको वह अपना उदय और राजपुत्रोंका उदय समझते होंगे।
बहुत दूर जानेकी जरूरत नही। गांधीजीने जब अपने सोनेका बिल्ला सरकारको वापस भेजा होगा तब कांग्रेसकी
राजनीतिका सूरज उदय हुआ होगा और सरकारकी वफादारीका सूरज अस्त हुआ होगा। अब यह समझमें नहीं आता कि इसमे गाधीजीका क्या उदय अस्त हुआ । गाधीजीका तो उदय ही बना रहा। जब वह अंग्रेजोमे चमकते थे, अब हिन्दुस्तानियोमें चमकने लगे । जिस तरह महावीर और बुद्ध पहले राजाओंमें चमकते थे, त्यागी बनकर साधुओंमें चमकने लगे । उनका तो हमेशा उदय ही रहा ।
क्या अब यह साफ नही हो गया कि प्रकृति हरदम हर आदमीका उदय कर रही है और इस उदयमें अगर कोई बाधा डाल रहा है तो आदमीकी अधूरी समझ ।
बिजलीका बल्ब जल रहा है। सब उससे फायदा उठा रहे है, सब उसकी तारीफ करते है, सब उसके गीत गाते है । और शायद यही समझते है कि बल्बका खूब उदय हो रहा और उस वक्त अगर उस बल्बसे लाभ उठानेवाले एक-दूसरेको असीस दे बैठें तो यही कहेंगे कि तुम दुनियामें बल्बकी तरह चमको, ऐसा तो कोई भी नही कहेगा कि बल्बकी तरह बुझो । अब भी ऐसी असीस देनेका रिवाज है कि तुम दुनियापर सूरजकी तरह चमको, कोई यह नहीं कहता कि तुम दुनिया में सूरजकी तरह डूबो । पर सोचना यह है कि अमरीका में सूरजके डूबे बिना हिन्दुस्तानमें सूरजका उदय नहीं हो सकता
चीनमें आज जनताका राज है और इस तरहका राज है जिसमें जनता, जनताके लिए, जनतापर राज कर रही है । इस राजमें एक बड़ी अनोखी बात हुई है। जितने साधुब्रह्मचारी थे, सबकी शादी करदी गई है और सबने खुशीसे शादी करली है । आज भी हर जगहके साधु शादीके लिए खुशीसे तैयार हो सकते है अगर समाज उनको वही आदर देनेके लिए तैयार हो जो उन्हें साधु-हैसियतसे मिल रहा है। गाधीजी मरते दम तक हर तरह गृहस्थी रहे क्योंकि उनके आदरमें कोई अन्तर नही आने पाया । चीनमें साधुओंके राजनीति में शामिल हो जानेसे राजकाजी मैदानमें अनेक सूर्य उदय हो गये और धर्मके कर्मकाण्डके मैदानमें अनेक सूरज अस्त हो गये । पर उन साधुओंका उदय अस्त कुछ नहीं हुआ । उनका तो हरदम उदय रहा। आदमीका उदय अगर वह ढंगसे रहे और दूसरे लोग उसके उदयके लिए बेमतलब - की कोशिश न करे, हरदम होता रहता है।
हिन्दुस्तानपर जब अग्रेजोका राज था तब खूब कालेज और स्कूल खुले हुए थे, और हिन्दुस्तानी मां-बाप अपने लड़कोंको इन स्कूल और कालेजोंमें भेजकर यही समझते थे कि वह अपने लड़कोंका उदय कर रहे है। सन् '२१ में गांधीजीने उन्ही मां-बापको समझाया कि वह तो अपने लड़कोंका अस्त कर रहे हैं । उदय इसमें है कि वह कालेज और स्कूलोंको छोड़ें, बर्तन मानें, कपड़े धोयें, गांव गांवमें घूमें, चरखा कातें, कपड़ा बुनें इत्यादि। बहुत लोगोंको यह बात पसन्द आई। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने चरखा कातनेमें अपने लड़कोंका अस्त समझा और पढ़ते रहने में उदय । आज दोनों तरहके मां-बाप मिल सकते है जो पक्का सबूत देकर यह साबित कर सकते
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किरण १
सबका उदय
है कि उन्होंने जिस तरह उदय और अस्त समझा था वही सम्बन्ध तोड़ले तो नतीजा यह होगा कि बल्ब तुरन्त बुझ ठीक था। अब बताइये उदय और अस्त क्या रह गया? ही जायगा । बैटरी भी अपनी मौत अपनेआप मर जायगी।
लारी और बस चलानेवाले जब मोटर हांकना सिखानेके हमारा उदय और अस्त इस बातमें नही है कि दूसरे लिए मोटर हांकनेके स्कूलका उदय करते है तब आप बता उसका फैसला करें। क्या हमारे पढ़नेवालोंको यह नहीं मालूम सकते है किसका अस्त करते है? वह उन बड़ी-बड़ी तनखाहों- कि जिन तारोंको वह सबसे छोटा समझे हुए है उनमेंसे कई का अस्त करते है जो मोटर हांकनेवाले मांगा करते है। इतने बड़े है कि उनमें हमारे कई सूरज समा सकते है। हमारे हांकनेवाले बहुत हो जायेंगे, भाव सस्त हो जायगा। कुछ तुच्छ समझनेसे वह तारे तुच्छ नहीं हो सकते। इसलिए बेकार रह कर जुते चटखातें फिरेगे। कैसा अच्छा उदय हुआ। मर्वोदयके मैदानमें कूदनेसे पहले हमें अपनी नजर ठीक
कामर्स कालेजों यानी अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालयोंने करनी होगी, तभी हम दुनियाका भला कर सकेंगे। उदय होकर और हजारों बी. काम यानी बेकाम पैदा करके
एक बार हमने कुछ पद्य लिख डाले थे । वह मौकेके है उन जवान लडकोका अर्थ-सूर्य अस्त कर दिया है । पर उधर व्यापारियोंका मुनीम-सूर्य खूब तेजीसे चमक उठा है और
तरक्की है इसमे कि मशहूर हों हम, व्यापारी जो अबसे पहले बिजली और लकडीपर खर्च करके
या इसमे कि शोहरतसे ही दूर हों हम? घाटा उठा रहे थे अब इस मुनीम-सूरजकी धूपसे खूब फायदा
तरक्की है इसमें कि जरदार हो हम, उठाने लगेंगे।
या ज़रसे हुए दस्त-बरदार हों हम ? हम अपनी तरह सोचकर सर्वोदयपर एक किताब लिख
तरक्की है ये हो निरी हुक्मरानी, सकते है, पर उसकी जरूरत नही। हमारे पढ़नेवाले इस
या असली तरक्की है खिदमतजहानी ? तरहके उदाहरण अपने पास सोचकर अपनी-अपनी किताब
तरक्की है ये मुझसे डरती हो दुनिया, तैयार कर सकते है । हम तो सिर्फ यह कहना चाहते है कि
मोहब्बतसे या मुझपे मरती हो दुनिया ? सर्वोदयका काम उन आदमियोको अपने हाथमें नहीं लेना
तरक्की है ये सबको काबूमें लाऊँ,
या ये पूरा काबू मै अपने 4 पाऊँ ? चाहिए जिन्होने प्रकृतिको अच्छी तरह न पढ लिया हो, और जो सिरसे पैर तक सबकी-भलाईको इच्छामें न हब
बना बल्ब क्या मै अंधेरेको मेटे, चुके हो। और जब ऐसे आदमी इस काममे लगेगे तो उदय
या बन बैटरी एक कोनेमें लेट् ?
तसल्ली मिलेगी मुझे बीज बनकर, अस्तका सवाल न रह जायगा। फिर सबका उदय इस
जमीसे उग मै या खुदको दफन कर ? बातमें रह जायगा कि हम यह समझे कि हम क्या है ?
तरक्की है इसमें कि जो हो लुटाऊँ, हमारा रिश्ता और आदमियोंके साय क्या है ? देशोके साथ
या जो चाहता हूँ उसे मै जुटाऊँ ? क्या है ? और दूसरे प्राणियोके साथ क्या है ?
मुझे बाद मरनेके है याद करके, सर्वोदयके लिए सबको अस्त होनेकी जरूरत है। अब
ये क्या सच नही वक्त बरबाद करते? जो-जो अस्त होनेके लिए तैयार है वही उदयका काम कर
मैं क्या कर गया, लड़ रहे जिसको लेकर, सकता है। गिरेहुएको उठानके लिए झुकना पड़ता है,
मेरा शब्द है अड़ रहे जिसको लेकर । अपनेआपको मिट्टी में लथेड़ना पड़ता है, उसके बिना उठानेका
तरक्की है छोडूं हजारो हवेली काम नही हो सकता । बल्बको चमकानेके लिए बैटरी अगर या ईश्वरके भजनोंकी पोथी अकेली ? अंधेरे बक्समें बन्द होनेसे घबराये तो काम कैसे चले ? तरक्की है इसमें कि अपनेको जाने, बैटरीका उदय इसीमें है कि वह अन्धेरेमें बैठे । अगर बैटरी या अपनेको ज्ञानी, जगत खान मानूं ? किसी उपदेशककी बातोंमें आकर अपने उदयमें अपना अस्त आप भले बनिये, औरोंकी भलाई आप हो जायगी। समझने लगे और वह हवामें आना चाहे और बल्बसे अपना उदय-अस्तके चक्करमें पड़नेसे क्या लाभ !
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सर्वोदयतार्थके नामपर
[श्री जमनालाल साहित्यरत्न ] आचार्य समन्तभद्रने वीरके शासनको सर्वोदयतीर्थ समन्तभद्रने दो हजार बरस पहले यह शब्द प्रयुक्त किया, कहा है, जिस तीर्थमें सबके उदयकी संभावना हो वह सर्वोदय- पर आज इसकी पूछ क्यों हो रही है ? कारण का तीर्थ, वीरका शासन वह जो वीरने कहा, इस तरह हम स्पष्ट है कि रस्किनके इस शब्दको गांधीजीने कह सकते है कि वीरने जो कुछ कहा है वह सबके उदयके राष्ट्रव्यापी महत्व दिया और अब सर्वोदयसमाज स्थापित लिये कहा और उनका कहना इतना साफ स्पष्ट और यथार्थ हो गया, जैनोंने अपने दबे शब्दको उठानेका यह अच्छा था कि उसे तीर्थ कहा गया है ।
मौका देखा और उसके विविध उपाय होने लगे। अचरज वीरने किसी धर्मविशेषकी स्थापना की हो ऐसा नही तो यह है कि इस सीधे-सादे शब्दको इतिहासकी नजरोंसे लगता। उन्होंने किसी ग्रंथको या परम्पराको प्रमाण मानकर देखा जाने लगा और इसके लिये शक्ति लगाई जाने लगी कुछ कहा है ऐसा भी नही लगता। उन्होंने जो कुछ कहा है कि इस शब्दका प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया । अपने अनुभवसे कहा है, जनतासे कहा है और हम इस तरह उस शब्दकी बाहरी चीर-फाड़में लग गये जनताको भाषामें कहा है। जिस तरह आजके विद्वान
और भावनासे दूर पड़ गये। हमें यह जाननेकी शायद चिन्ता मागम-प्रमाण और वेद-प्रमाणकी दुहाई देकर अपने वचनोंकी नही कि उस शब्दका मूल अर्थ क्या है और किसने किस अर्थमें सत्यता पर प्रामाणिकताकी मोहर लगाना चाहते है
उसका प्रयोग किया है। ऐसी ही शोष-खोज हम सदा करते वैसा उन्होंने कुछ नहीं किया। ऐसा करके आजके विद्वान तो रहे है। जैन बड़े खुश है, यह सिद्ध करनेमें कि सारे तीर्थकर अपनी सत्यता और विद्वताको प्रायः संदिग्धताकी कोटिमें उन्हीके यहां हुए है, वे उनकी अपनी थाथी है । और वे हए रख रहें हैं। उन्हें शायद अपने वचनों पर, अनुभवों पर इसलिये हैं कि जबजब समाजमें बुराइयां फैल गई है, स्वयं ही इतना विश्वास नहीं कि वे जो कुछ कह रहे पापाचार बढ़ गया है, तबतब उसे दूर कर दिया जाय । है वह पूर्णत: ठीक है। महावीरके आगे वेद मौजूद था, वे चौबीस बार तीर्थकर हुए और हर बार उन्होंने समाजमेंसे उसके पाठी थे, उसका उन्हें अच्छा ज्ञान था। पर उन्होंने बुराईको दूर करनेका प्रयत्ल किया। पर हर बार गन्दगी उसका कहीं जिक्र नहीं किया, किसी शास्त्रका भी उल्लेख बढ़ती गयी और तीर्थकर भी पैदा होते गए। अगर ऐसा ही नहीं किया। उन्होंने प्राचीन शब्दोंके अर्थोको अपने हमारा समाज है कि कितना ही उपदेश देनेपर भी बुराई और अनुभवसे नया रूप दिया और उनकी वाणीमें इतना बल था पापाचार समाप्त नही हो सकता तो इससे अधिक शर्मकी कि जनताने उसे स्वीकार भी किया। इतना ही क्यों, स्वामी बात और क्या हो सकती है? स्कूल में एक लड़का वह होता है रामतीर्थने स्वयं कहा कि वे स्वयं ज़िन्दा वेद है मुर्दा वेद की जो अध्यापककी बातको एकबारके कहनेपर समझ जाता है तरफ क्यों देखा जाय !
और फिर कोई भूल नहीं करता, अपना काम बराबर धर्ममें देखा-देखी खूब चलती है, पहले भी चली है, करता जाता है, और एक वह होता है जो बारबार कहनेपर, आज भी चल रही है। हिंदुओंने अपने यहां अवतार मारने पर भी नहीं समझता और समझता भी है तो उतनी माने तो बौदोंने अपने यहां तथागत माने और जैनोंने ही देरके लिये जितनी देर अध्यापक उपस्थित रहता है। तीर्थकर मान लिये। मैं यहां नये और पुरानेके झमेलेमें नहीं स्पष्ट है कि दोनोंमें दूसरा लड़का मूर्ख है, नालायक है। पड़ना चाहता, इस सर्वोदयको ही ले लीजिये, यह ठीक कि यही हाल उन धर्मात्माओंका समझिए जो अपनी शानमें
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सर्वोदयतीर्थक नामपर
आकर कहते है कि सारे अवतार, सारे तीर्थकर या सारे व्यर्थका भेदभाव खड़ा करना धर्मका उपहास करना है और बुद्ध हमारे यहीं हुए है। इस देखा-देखीने ही धर्मके असली अधर्म है। रूपको नष्ट कर दिया है और उसका वह रूप रह गया है धर्मकी उन्नतिको हमने संख्या से तोलना चाहा। धर्म जिसको लेकर बुद्धि दिवालिये प्रेत पर गिद्धकी तरह को संख्यासे कभी तोला नहीं जा सकता और जहां तोला झपटते है।
जाता है वहां निश्चित समझिये कि धर्मका असली तत्व ___ महावीर जंगलमें गये और आदमीके बच्चेसे कहा खतरेमें होता है। पर इसमें भी सर्वोदयतीर्थके अनुयायी कि प्रगति कर, उस सडांधसे निकल जहां अहंताकी असफल ही रहे-वे सब जाति-मर्यादा और कुलाचारमें ही बिना खिड़कीकी इमारतमें खड़े-खड़े तेरा दम घुट रहा है। अटके रहे और जिसने जरा उनकी तथाकथित मर्यादाका वीरने तो घर ही क्या तन भी छोड़ा और अपना नाम भी भंग किया कि उन्होने उसे जातिसे बाहर कर दिया। मिटाकर चले गये। शरीरका एक कण भी पृथ्वीवालोंके जैनधर्मको माननेवाली अधिकांश जातियोंका इतिहास यह लिये नही छोड़ा क्योंकि उसको लेकर भी न जाने कितनी स्पष्ट बोल रहा है कि जोड़ने और मिलानेका काम कमी कल्पनाएं जोड़ी जा सकती थीं, लेकिन भक्त ही तो होते हैं हुआ ही नहीं, जो भी कुछ हुआ है वह तोड़ने और अपने नेता की दुर्दशा करनेवाले । महावीरका भी यही हाल फेंकनेका ही हुआ । अगर हमने सर्वोदयको समझा हुआ। महावीरके नाम पर ऐसी ऐसी इमारतें खड़ी की गयी होता तो यह कैसे हो सकता था? जिन्होंने समझा वे अलग जिनमें जाति-संप्रदाय आदिके कितने ही विभाग हो गये, पड़ गये और अलग ही खत्म हो गये। यह कैसी विडम्बना पर हवाके खुलकर बहनेके लिये खिड़की एक भी नहीं है कि जीवन्त महावीरके पास तो पशु-पक्षी तक पहुंच रखी गयी। सर्वोदयके हिमायती ही आज स्वार्थोदयी सकते थे, पर उनकी मूर्तिके पास बिना टिकट लिये आदमी बन गये है। अगर आज कही फिरसे महावीरका अवतरण भी नहीं पहुंच सकता ! हो जाय और वे देखें कि उनका नाम लेनेवाले क्या क्या कालेजका कोई विद्यार्थी प्रोफेसरसे सीखते समय क्या करते है तो असंभव नही, वे उस सबको मिटा दें जो कुछ यह समझ कर सीखता है कि प्रोफेसरका ज्ञान ही परिपूर्ण उन्होंने कहा था।
है और उसके आगे वह नहीं बढ़ सकेगा? मेरे खयालसे धर्म अपने आपमें बुरा नहीं होता, उसमें बुराई तो कोई विद्यार्थी ऐसा नही हो सकता और जो ऐसा होगा तब आती है जब उसे लोकोत्तर या आदमीकी पहुंचके वह कालेजमें प्रविष्ट ही नही हो सकता । इसी बाहर का बना दिया जाता है, और यह चीज बिना अनुकरणके तरह महावीर एक प्रोफेसर थे जिन्होने एक रास्ता बताया नहीं होती। महावीरके साथ भी प्रायः ऐसा ही हुआ है, और चले गये । अब इसका अर्थ यह तो नहीं कि जो कुछ वे आदमी ही नहीं रह गये। जब कि उन्होंने स्वयं बताया कि उन्होंने बताया या वे परिस्थितियोंके अनुरूप बता सके आदमी ही सारी शक्तियोंका भंडार है । इतना उतना ही परिपूर्ण है, उसमें कुछ फेरबदल नहीं हो सकता। ही नहीं कुछ लोग उनपर अपना अधिकार भी जमा बैठे जो तरीका उन्होंने बताया वह साफ था, बढ़िया था उसमें कि अमुक वर्ग और श्रेणीके अतिरिक्त कोई दूसरा उनकी किसी प्रकारका आवरण और भेद नहीं था, वह प्रगतिशील मूर्तिको स्पर्श भी नहीं कर सकता। यह इस महापुरुषका या । हमारा काम था कि हम खुले मनसे उस रास्तेपर बढ़ते, बादर है या अपमान? समन्तभद्रने उनके धर्मको या उपदेशको अपनी बुद्धिका उपयोग करते,प्रगति करते और उस चीजको सर्वोदयतीर्थ यों ही नहीं कहा था। आजकी स्थितिमें तो प्राप्त करते जो आजके लिये सर्वोत्कृष्ट है। पर ऐसा हुमा उसे बनोदयतीर्थ भी नहीं कह सकते। जो सत्य दूसरेके छूनेसे कहां ? हम तो उस विद्यार्थीकी तरह ही रहे जो यह मानता असत्य बन जाता है या अपवित्र बन जाता है वह सत्य ही रहा कि उसके अध्यापकने जो कुछ बताया उसके आगे नहीं है, यह बात हमारे ध्यानमें तब तक नही आ उस के लिये कोई रास्ता नहीं है, वहीं उसकी सीमा है, सकती जब तक हम यह न समझ लें कि आदमी-आदमीमें महावीरको अपनी कमजोरीकी सीमा में बांधकर हमने अपने
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अनेकान्त
भीतर बैठे भगवानका जो अपमान किया है वह हमें युगों तक अज्ञानके अंधकार में रखनेके लिए पर्याप्त है । इससे महावीरका क्या बिगड़ा, बिगड़ा तो हमारा ही कि हम सुस्त पड़ गये, कोई प्रगति नहीं कर सके और ज्ञानकी, सत्यकी खोजमें दुनियाकी प्रगतिमें पिछड़ गये । महावीर तो एक विज्ञानी थे, अपने जीवनमें जितना प्रयोग वे कर सके कर गये और बता गये । उसे आगे बढ़ाना हमारा काम था पर हम निकले शब्दोंसे चिपकने बाले । और यही कारण है कि हम दूसरा महावीर दुनियाको अबतक नहीं दे सके, दे नही सकते । बहुत ही कुछ हुआ तो आजकी वैज्ञानिक शोध-खोज और प्रगतिकी चर्चा चलने पर मोहवश इतना कहकर शान्त हो जाते है कि यह सारी प्रगति हमारे शास्त्रोकी देन है, हमारे सिद्धांतमें यह सब है । ये भोले भाई यह नहीं जानते कि किस विज्ञानीने कौन-सी चीज दी है और वह इनका सिद्धांत पढ़ने कहा गया होगा और कौन इतना प्रगतिशील था जिसने अपना शास्त्र उसके हाथमें थमाया होगा । जैनोंने तो शास्त्रोंको भी मूर्तिकी तरह पूजाकी वस्तु बनाया और उन्हें जनतातक लानेसे इन्कार किया है ।
वर्ष ११
साहब, संसारमें रहकर सच बोलना बड़ा कठिन है।' ओर ताज्जुब तो यह होता है कि यह छल- फरेब धर्मके नामपर भी चलता है और उसका बखान भी शानके साथ किया जाता है ।
अधिक कुछ नही कहना चाहता, केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि जिन लोगोंने महावीरको किसी कुंद और बेहवाकी इमारतमें बन्द कर दिया है और जो जाति, रूढ़ि तथा खानेपीनेके कोरे आडम्बरमें फंसे हुए है उनके हाथों न उनकी खैर है, न सर्वोदयतीर्थंकी और न वे सर्वोदयतीर्थंके अनुयायी कहलानेके योग्य है । कौन ऐसा है जो मन्दिरों परसे ताले उठवा दे, कौन हैं ऐसा जो मुंहपरसे कपड़ा हटा दे, कौन है ऐसा जो अपराधीपर भी प्यारकी निगाह रखे, कौन है ऐसा जो दूसरेको अधार्मिक कहना छोड़ दे और कौन है ऐसा जो अपने ही आचार-विचारोंकी बड़ाई करना छोड़ दे ? हमारी स्थिति उस रोगी जैसी है जो वैद्यके नुस्खेको तकियेके नीचे संवारकर रखता है, उसकी प्रशंसा करता है, उसे नमस्कार करता है, पर उसमें लिखी दवाइयोंको मिला कर पी नही सकता । हम मन्दिरमें जाते हैं, मूर्तिके आगे माथा रगड़ते हैं, उसके गुणोंका गान करते हैं, नाचते गाते हैं, पर बाहर भाकर दुनियादारीके फरेब भरे चक्करमें फँस जाते हैं और किसीके ताना मारनेपर झट कह देते हैं कि 'क्या करें
असल में धर्म या तो ज्ञानकी चीज है या बहादुरोंकी । दुर्भाग्यसे वह पड़ गया है कायरोंके हाथमें । कायर तो इसे अपनी दृष्टिसे ही देखेगा और ग्रहण करेगा । कायरमें होती है भयकी भावना । भय एक ऐसा अस्त्र है जो उसे काबू में ला सकता है । जब धर्म कायरके पल्ले पड़ गया तब ज्ञानीको तो अपनी गुजर-बसर करनी ही थी और उसने अपना रास्ता कायरको और डराकर निकाल लिया । उसने स्वर्गका सब्ज बाग दिखाया और नरककी यातनाका चित्र खड़ा किया । लोभ और भयके आधारपर धर्मका झंडा कायरके हाथ सौंप दिया। यह तो समन्तभद्र जैसे महान ज्ञानी ही कह सकते थे कि वे भगवानके अतिशय से प्रभावित नही हैं, कायर कही कह सकता है ? वह नहीं कह सका, इसीलिये तो सैकड़ों तरहके चमत्कार और अतिशय उसकी आंखोंमें नाचने लगे और आज भी वह जो कुछ मन्दिर और धर्मालयमें करता है वह केवल चमत्कारकी ही तो पूजा करता है। एक ज्ञानीकी दृष्टिसे यह सब बच्चोंका खेल ही समझिये । 'चमत्कारको नमस्कार कहावत ही बन गयी है ।
भयमें सर्वोदय भावना नही रह सकती, सर्वोदयकी भावनाके लिये जिस निष्पृहता, स्पष्टता, प्रगतिशीलता और समन्वयशीलताकी जरूरत होती है वह कायरमें कभी हो नही सकती। वह दया करता है तो उसे याद रखनेके लिये, एहसानका पत्थर सिरपर पटककर उसकी दया क्षणमात्रमें अदया बन सकती है । डरपोक तो वह इतना होता है कि कोई गाली देकर उससे भिक्षा ले जाय, सरलतासे वह कौड़ी नहीं देगा। सच यह है कि आजके समाजपर धर्मका भूत सवार है और यह भूत धर्मकी आत्माका भान नही होने देता और आगे भी नही बढ़ने देता ।
मुझे शंका है कि आजकी समाजके लिये सर्वोदयतीर्थं इस पृथ्वीमें जीवित रह सकता है, वह तो स्वर्गकी तरह अचरजकी चीज बन चुका । सर्वोदयका तीर्थं अगर इस पृथ्वी पर कहीं होता तो वह हर गांवके हर मन्दिरमें, हर जातिमें, हर विचारमें और हर प्रवृत्तिमें होता ।
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किरण १
सर्वोदयतीर्यके नामपर
मैं यह बात यों ही नही कह रहा हूं। इसके पीछे एक कारण जो शुरूसे ही साफ, सच्चा और पवित्र हो। दवाकी जरूरत और है। सर्वोदयतीर्थका पुजारी प्रगतिशील होता है, कर्मठ रोगीको ही होती है। विज्ञान उपदेश नहीं देता, प्रयोग करता होता है, वह काल और शापसे डरता नहीं । पर कौन ऐसा है और परिणाम प्रत्यक्ष दिखा देता है, सुनहले सपने नहीं माईका लाल है जो ऐसा है ? मेरा सर्वथा सत्य और दूसरेका दिखाता । धर्मकी दुनिया प्रायः सपनोंकी दुनिया है और सर्वथा झूठ कहनेवाला तो सर्वोदय नहीं है । और हां, विज्ञानने सपनोंको बांधना शुरू कर दिया है और अभी एक बात कायर प्रतिवर्ष कहता है आगे का जमाना बड़ा नहीं किया है तो कर ही देने वाला है। सपनोंकी तरह ही खराब है, इससे तो पिछला साल ही अच्छा था, एक फर्मकी अधिकांश धर्मोंने हमें मृगजलमें भटकाया है। हमें उस धर्मसे ४५ वर्षकी बहियोंमें प्रति वर्ष यह लिखा पाया गया। यह मुक्त होना चाहिए जो आदमी-आदमीमें भेद करता है, रोने की वृत्ति है, आलस और भाग्यकी सहायक है। जो अपने पैसे-पैसे में भेद करता है, और मनुष्यतासे गिराता है। आपपर विश्वास नहीं रख सकता वह दुनियापर क्या रखेगा सर्वोदयीकी विचारधारा किसी सीमामें,श्रद्धामें बन्धकर और जो दुनियापर नही रखता वह अपने ऊपर भी नहीं नहीं चलनी चाहिए, उसमें विचारकी स्वतन्त्रता, जीनकी रख सकता ।
स्वतन्त्रता होनी चाहिए ।। दुनिया सचाईकी ओर भाग रही है । धर्मके ठेकेदार 'सर्वोदयतीर्थ' शब्दको प्रकाशमें लाकर अगर उसके भले ही कहें कि अनीति बढ़ गई है, भ्रष्टाचार बढ़ गया है, अनुरूप कुछ नही हो पाया तो, डर है कि कही रही-सही और सबकी जबानपर झूठ खेल रहा है। हो सकता है वे इज्जत भी जनी न खो दें। 'सर्वोदय' चाहनेवाले जब तक सच कहते हों, पर यह भी तो सच है कि दुनिया धर्मसे सबके लिये अपने द्वार उन्मुक्त नही करेंगे और सबको भाग रही है, धर्ममें अगर सचाई हो तो धर्मसे दुनिया गले नहीं लगायेंगे तब तक उसकी सार्थकता कहां रहेगी? भागे क्यों? विज्ञान सचाई है इसीसे दुनिया उसे अपना रही सबसे पहला काम तो यह होना चाहिए कि जितने भी मन्दिर है । विज्ञानकी दौड़में आज धर्म प्रायः पिछड़ गया है और है वे सबके लिये योग्य व्यवस्थाके साथ खुलजाने चाहिएं अब वह संभवतः किसी भी हालतमें उसे पकड़ नहीं और त्यागकी दृष्टि होनी चाहिए । सकेगा। बड़ा-से-बड़ा पूज्य और पवित्र समझा जानेवाला परकी पंक्तियां विचारके लिये ही लिख गया , अथ उपदेशसे भरा है। उस आदमीको उपदेशकी क्या जरूरत किसीपर उबलने और रोष प्रकट करनेकी नीयतसे नहीं।
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आचार्य श्रीसमन्तभद्रका पाटलिपुत्र
(श्रीदशरथ शर्मा एम०ए०, डी० लिट् .) आचार्य श्री समन्तभद्रने भारतके अनेक प्रान्तों और भी थे। अतः यह मानना ठीक नहीं जंचता कि वे नगरोंमें विहार कर जैनधर्मकी जयपताका फहराई और बिहारके पाटलिपुत्र तक गये । अनेक व्यक्तियोंको जैनधर्ममें दीक्षित किया । उनकी श्रीमहाजनकी ये तीनों ही युक्तिया निर्बल है। थिरुकुछ विजयोंका उल्लेख इस श्लोक में है:
पडरिपुलियुरका हम उनके कथनानुसार अर्थ करें तो भी पूर्व पाटलिपुत्रमण्यनगरे भेरी मया ताडिता उसका समानार्थक शब्द पाटलिपुत्र नहीं, बल्कि श्रीपाटलिपश्चान्मालवसिंधुटक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे। व्याघ्रपुर बनता है। व्याघ्रपुर और पुत्र दो सर्वथा भिन्नार्थ प्राप्तोहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कट संकटं शब्द हैं, श्रीमहाजनने शायद इस तथ्यको ध्यानमें नही
बादायों विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ रखा । जिस पाटलिपुत्रसे आचार्य समन्तभद्रने अपनी विजयों- श्रीमहाजन यह मानने में भी भूल करते है कि बिहारका प्रारम्भ किया उसे पंडित जुगलकिशोर मुख्तार आदि की राजधानी पाटलिपुत्रकी समृद्धि मौर्योके साथ ही जाती संमान्य विद्वान् प्रायः बिहार प्रान्तका 'पटना' समझते आये रही। दिव्यावदान अथसे सिद्ध है कि पुष्यमित्र पाटलिपुत्रसे है। किंतु लखनऊकी गत अ रियन्टल कान्फ्रेंसमें एक लेख ही राज्य-सचालन करता था। जिस जिनमूर्तिकी खारवेलने द्वारा श्री डी.जी. महाजनने इस मान्यताको असिद्ध करने- अपनी राजधानीमें स्थापनाकी वह उससे पूर्व पाटलिपुत्रके का प्रयत्न किया है' । आपके अनुसार आचार्य श्रीसमन्तभद्र- समृद्ध नगरमे ही वर्तमान थी। प्रभावकचरितमें पाटलिपुत्रके का पाटलिपुत्र वास्तवमें द्रविड़ देशका 'थिरुपडरीपुलिगुर' मुरुण्ड वंशका वर्णन है, जिससे प्रतीत होता है कि नामका नगर था। इसीका वर्तमान नाम कडेलोर विदेशियोंके हाथमे जानेपर पाटलिपुत्रके गौरवमें कमी न (Cuddailore) है। श्रीमहाजनकी युक्तियां संक्षिप्त हुई थी। चीनी इतिहाससे भी हमें ज्ञात है कि मुरुण्ड वंशी रूपमें निम्न लिखित है:
भारतके पूर्वी भागमे राज्य करता था। उसकी तत्कालीन (१) थिरुका 'श्री', पडरीका 'पाटलि' और 'पुलियुरका अर्थ समृद्धिका सुन्दर वर्णन भी हमें चीनियोंसे प्राप्त है।
'व्याघ्रपुर' होता है। इस लिये थिरुपडरीपुलियुर समद्रगुप्तकी राजधानी सभवतः पाटलिपुत्र थी । शब्द पाटलिपुत्रका बोधक है।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके राज्य कालमें जब फाह्यान भारतमें (२) आचार्य समन्तभद्रका समय ईसाकी दूसरी शताब्दी आया तो वह पाटलिपुत्रके ऐश्वर्य और धर्मानुरागसे दग रह
है। उस समय उत्तरी पाटलिपुत्र नगण्य हो चुका था। गया। उसने यह तीन साल तक संस्कृत भाषाका अध्ययन पुष्यमित्र, अग्निमित्र और खारवेल उसके गौरवको नष्ट किया और बौद्ध धर्मशास्त्रोंकी नकल की। नगरमें अनेक कर चुके थे। केवल दक्षिणी पाटलिपुत्र दूसरी शताब्दी- चिकित्सालय थे जिनमे सब प्राणियोकी मुफ्त चिकित्सा
में पूर्णतया समृद्ध और जैनधर्मका केन्द्र था। की जाती, भोजनवस्त्र आदि सब मुफ्त मिलते और रोगी (३) आचार्य दक्षिणी थे। वे भस्मक व्याधिसे पीडित ठीक होनेपर अपनी सुविधानुसार वहांसे चले जाते थे। 8. Summaries of Papers--All India
- चौदहवो शताब्दीमें विविधतीर्थकल्पके रचियिता Oriental Conference, 1951, 110-4.
२. देखें समुद्रगुप्तकी प्रयाग-प्रशस्ति ।
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किरण १
आचार्य श्रीसमन्तभद्रका पाटलिपुत्र
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जिनप्रभ सूरि इसके महत्त्वसे अच्छी तरह परिचित थे। काचीका नाम हो सकता है, कितु उसके साथ लगा 'वैदिश यही उमास्वातिवाचकने तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी रचना की। शब्द शायद यह घोतित करता है कि यह कांचीपुर विदिशायही कल्कि और धर्मदत्त, जितशत्रु, मेघघोष आदिने विषयका कोई शहर था। इस प्रकार तमाम उत्तर देशका राज्य किया। यही भद्रबाहु, महागिरि, सुहस्ती, वास्वामी, विजयकर आचार्य दक्षिणकी तरफ मुडे और महाराष्ट्रप्रातिपदाचार्य आदिने विहार किया। यही स्थूलभद्र मुनिने के करहाटक विषयमें वहांके वादाथियोंको परास्त किया। वर्षारात्र चतुर्मास किया था। यहीं। आर्यरक्षित भी चौदह द्रविड देशके विषयमें श्लोकमें एक भी शब्द नहीं है। विद्याओंका अध्ययन कर दशपुर गये थे ।'
और शायद उसकी आवश्यकता भी न थी। आचार्य द्रविड
देशके सम्मान्य आचार्य थे। वहां उनका मत पहले ही मान्य ऐसे विख्यात नगरसे अपने दिग्विजयका आरम्भ था। आवश्यकता थी तो केवल इस बातकी कि वे दूरस्थ करना आचार्य समन्तभद्रके लिये स्वाभाविक था। भस्मक प्रान्तोंमें अपना विमल संदेश पहुँचाएँ और जैनधर्मविषयक व्याधि ही वास्तवमें यदि बाधक होती तो आचार्य टक्क, अनेक भ्रान्तियोंको दूर करे। मालव, सिंध आदि देशोमें कैसे विहार करते? वास्तवमें
४. दसवी शताब्दीके प्रसिद्ध कवि और साहित्य-मीमांइस लेखके आरम्भमे उद्धृत श्लोकसे तो यही ध्वनित
संक राजशेखरने भी इसी (बिहारस्थ) पाटलिपुत्रहै कि समन्तभद्रकी दिग्विजयका आरम्भ माधकी।
को शास्त्रकारोंका परीक्षास्थल माना है। उज्जयिनीराजधानी पाटलिपुत्रसे हुआ, न कि कड्डलूर आदि किसी
में कवियोकी और पाटलिपुत्रमे शास्त्रोंके रचियिअन्य स्थानसे। पाटलिपुत्रमे विजयके बाद आचार्य मालव,
ताओकी परीक्षा होती थी। उपवर्ष, वर्ष, पाणिनि, सिंधु, और टक्क विषयोमें गये। विजय दक्षिणसे आरम्भ
पिंगल, व्याडि, वररुचि और पतञ्जलि यही परीक्षोहोती तो विहारक्रम कुछ अन्य ही होता। कांचीपुर दक्षिणी
तीर्ण होकर प्रसिद्ध हुए थे। (देखे 'काव्यमीमांसा', ३. देखें विविधतीर्थकल्पमें पाटलिपुत्रकल्प । गायकवाडग्रंथमाला, पृष्ठ ५८)
कम-इन्द्रियोको जीत जो, 'जिन' का परम उपासक जो।
हेयाऽऽदेय-विवेक-युक्त जो, लोक-हितैषी जैनी सो ॥१॥ अनेकान्त-अनुयायी हो स्याद्वाद-नीतिसे वर्ते जो । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण-मय, शान्ति-विधायि मुमुक्षुक जो। बाप-विरोध-निवारण-समरथ, समता-युत हो जैनी सो॥२॥ मन-वच-काय-प्रवृत्ति एक हो जिसकी निश्चय जैनी सो॥७॥ परम अहिंसक दया-दानमें तत्पर सत्य-परायण जो। आत्म-ज्ञानी सद्ध्यानी जो, सुप्रसन्न गुण-पूजक जो । घर शील-सन्तोष अवंचक, नही कृतघ्नी जैनी सो ॥३॥ नहिं हठग्राही शुची सदा संक्लेश-रहित-चित जैनी सो ॥८॥ नहिं आसक्त परिग्रहमें जो, ईर्षा-द्रोह न रखता हो । परिषह-उपसर्गोको जीत, धीर-शिरोमणि बनकर जो । न्याय-मार्गको कभी न तजता, सुख-दुखमे सम जैनी सो ॥४॥ नही प्रमादी सत्सकल्पों में महान् दृढ जैनी सो ॥९॥ लोभ-जयी निर्भय निशल्य जो, अहंकारसे रीता जो। जो अपने प्रतिकूल दूसरोके प्रति उसे न करता जो। सेवा-भावी गुण-ग्राही जो, विषय-विवजित जैनी सो ॥५॥ सर्वलोकका अग्रिम सेवक, प्रिय कहलाता जनी सो॥१०॥ राग-द्वेषके वशीभूत नहिं, दूर मोहसे रहता जो। पर-उपकृतिमें लीन हुआ भी स्वात्मा नहीं भुलाता जो। स्वात्म-ध्यानमे सावधान जो, रोष-रहित नित जैनी सो॥६॥ युग-धर्मी 'युग-वीर' प्रवर है, सच्चा धार्मिक जैनी सो॥१९॥
-युगवीर
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सर्वोदयतीर्थ और उसके प्रति कर्त्तव्य
( बाबू उग्रसेन जैन M. A., LL. B. वकील ) संसारमें छोटेसे लेकर बड़े तक जितने भी प्राणी है वैर-विरोधका काम नही,. प्राणीमात्र अभय रहता है, सब ही सुखके इच्छुक है, दुःखको कोई नहीं चाहता। जहां व्यक्तिगत विचार-स्वातन्त्र्यकी महत्ता तथा परीक्षासब सुख और शान्तिके लिये इधर उधर भटकते फिरते है प्रधानताकी मुख्यता हो, विशुद्ध आत्मज्ञानकी प्राप्ति हो, कि कहीं ऐसा कोई आश्रय हाथ लग जावे कि जिसकी शरण- वही सच्चा शासन है और सर्वोदयतीर्थ है। यह कल्याणकारी में रहकर वे सुखको पा सकें, उनकी सब आपदाएं दूर हो जावें तीर्थ परमात्माके नाम रूप है, सम्यक् ज्ञान रूप निर्मल जलसे और पूर्णरूपसे उनकी शक्तियोंका उदय अर्थात् विकास भरा है, जिसमें दैदीप्यमान सम्यक्दर्शनरूप तरंगें है होवे । कुछ तो स्वयं परमात्मपदको प्राप्तकर संसार-परि- तथा अविनाशी अनन्तसुखके कारण जो शीतल है और भ्रमणसे सदैवके लिये छुटकारा पाने तकके इच्छुक है। सब प्रकारके पापोंका क्षय करनेवाला है । ऐसे जो शासन बिना भेदभावके जगतके समस्त प्राणियोके परमात्मस्वरूपतीर्थमें लीन होना ही प्राणीमात्रके लिये दुःखोंको दूर करके उनको वास्तविक सुख और शान्ति- श्रेयस्कर है । यह तीर्थ सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, के स्थानमें पहुंचा देवे या यूं कहिये कि जिसके आश्रयसे सम्यकचारित्र (रत्नत्रय) रूप है । यह तीर्थ उत्तम क्षमादि एक संसारी प्राणी संसार-समुद्रसे पार हो मुक्ति प्राप्त कर दशलक्षणधर्मरूप है । जिसका आश्रय ग्रहण करनेसे अन्तरंग लेवे वही तीर्थ है। भगवान महावीरका शासन एक ऐसा तथा बहिरंगकी शुद्धि होती है, जैसा कि कहा भी है:ही तीर्थ है कि जिसका द्वार प्राणीमात्रके लिये खुला है, जो वीरप्रभुके परम कल्याणकारी सर्वोदयरूप शासनका
सत्यं तीर्थ ममा तीर्थ तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । माश्रय ग्रहण करते है उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर
सर्वभूतदया तीर्थ सर्वमार्जवमेव ॥ सब दुःख और क्लेश मिट जाते है और वे इस धर्मके प्रसादसे
बानं तीर्थ' बमस्तीर्थ सन्तोषस्तीर्यमुच्यते । अपना पूर्ण अभ्युदय सिद्ध कर सकते है। जैसा कि श्री
ब्रह्मचर्य परं तीर्थ तीर्थ व प्रियवादिता ॥ समन्तभद्रस्वामीने अपने ग्रंथ युक्तधनुशासनमें प्रकट ज्ञानं ती तिस्तीर्थ पुण्यतं यमुदाहृतम् । किया है:
तीर्थानामपितत्तीर्थ विशुद्धिर्मनसापरा॥ सर्वान्तवरावगृणमूख्यकल्प सन्तिशून्यं च मियोऽनपेक्षम् । वीर भगवानका यह तीर्थ पतितपावन है, समस्त सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तबंब ॥ आधि-व्याधियोंको क्षय करनेवाला है, परमशान्तिके लिये
जिस तीर्थकी शरणमें जाकर आत्मस्वातन्त्र्यकी अमोघ उपाय है । विविधदुर्गुणोंको हटाकर अनेक सद्गुणोंको प्राप्ति होती है, जिसके द्वारा ऐहिक परिपूर्णता-अपरिपूर्णता- विकासमें लानेवाला है, सर्व प्रकारके दरिद्र, दुःख, क्लेश तथा का यथार्थ दर्शन होता है, जिस शासनमें रूढिवादको भयको हर कर मनुष्यको निर्भय तथा सुखी बनाता है और कोई स्थान नहीं, जो प्रगतिशील है, जिस शासनका आश्रय क्रमशः अभ्युदयके शिखरपर पहुँचा देता है। पाकर पीड़ित पतित और मार्गच्युत सर्वसाधारण जनताको आधुनिक सभ्यतामें अति व्यवसाय, अति व्यय अपना आत्मकल्याण करनेका यथायोग्य पूरा अवसर नवीन २ पदार्थोका संग्रह, अधिकाधिक नवीन २ वस्तुओंके मिलता है, जिस शासनके द्वारा अधर्म और अज्ञानरूप घोर प्राप्त करनेकी कामना, लक्ष्मीकी दासता और विषय-भोगोंअन्धकारका नाश हो ज्ञानसूर्यका प्रकाश होता है, जहां की लालसा साक्षात् दिखाई दे रही है। ऐसी दशामें स्वार्थ
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किरण १
बीत रही हैं अनुपम घड़ियां
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त्याग, दया, परोपकार, प्रेम, सतोष तथा स्थिरताको हो स्वतन्त्रतापूर्वक अपना आत्मकल्याण कर परमधामको ठिकाना कहां? आज संसार दुखसे पीड़ित है, दुनियांके प्राप्त हो चुके है । मनुष्यों और देवोंकी बात तो दरकिनार बड़े-बड़े राष्ट्र स्थायी शान्ति स्थापित करनेके लिये उत्सुक है, तिथंच तथा नारकी भी इस धर्मको धारण करके अपना अनेक राजनैतिक, सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवनको कल्याण करते रहे है, और करेंगे। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे ऊँचा और सुखी बनानेकी जटिल समस्याएँ उनके सामने जैनशास्त्रोंमें मिलते है। जैन शासन सिखाता है कि घृणा है, उनको वे हल करना चाहते है, पर उन्हें हल करनेका करो तो पापसे करो, पापीसे नहीं, पापीका तो उद्धार ही उपाय सूझता नही । भगवान महावीर-द्वारा प्रतिपादित श्रेष्ठ है। महान पाप करनेवाला भी जैनधर्मको धारण कर अहिंसावाद, अनेकान्तवाद, साम्यवाद तथा कर्मवाद- त्रिलोकपूज्य हो सकता है। जैसा कि निम्न आदेशसे प्रकट है:द्वारा यह विश्वकी उलझनें सुलझाई जा सकती है। ये सिद्धांत महापापप्रकर्ताऽपि प्राणी श्रीजनधर्मतः । सिखाते है कि ससारमें निर्भय निर्वर रहकर शान्तिके साथ भवेत् लोक्य-संपूज्यो धर्माकि भोः परं शभम् ॥ आप जियो और दूसरोको जीने दो, रागद्वेष अहंकार तथा
अब देखना यह है कि हमारा कर्तव्य इस सर्वोदयतीयंअन्यायपर विजय प्राप्त करो और अनुचित भेदभावको
के प्रति क्या है ? हमारा कर्तव्य इस समय यही है कि त्यागकर सर्वतोमुग्वी विशाल दृष्टि प्राप्त करके नय-प्रमाण
हम इस तीर्थसे स्वयं लाभ उठावें, दूसरोंको लाभ द्वारा एक दूसरेके दृष्टिकोणको समझकर सत्य-असत्यका
उठाने दें, उदारताके साथ इसका प्रचार करें, इसके प्रभावनिर्णय करो, विरोधका परिहार करो तथा स्वावलम्बी
को देश-देशान्तरोंमें व्याप्त करें-करावें, इसके क्षेत्रको बनकर अपना हित और उत्कर्ष-साधना तथा दूसरोंके
संकुचित न रहने देकर उतना ही विशाल, विस्तृत और हितसाधनमें सहायता करना कराना सीखो। अपना उत्थान ।
सर्वोपयोगी बनावें जैसा कि वीर प्रभुके समयमें तथा बादको और अपना पतन अपने ही हाथमें है।
स्वामी समन्तभद्रके समयमें था। यह तीर्थ सबके लिये हैयह वीरशासनरूपी सर्वोदयतीर्थ बड़ा विशाल है, बालक, बूढा, युवा, धनवान-निर्धन, बलवान,निर्बल, सहायसबके लिये खुला है, इस तीर्थकी शरणमे आकर तथा सहित-असहाय, रोगी-निरोगी, देशी-विदेशी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, इसकी उपासना करके अनेक पातकियोने अपनेको शुद्ध और वैश्य, शूद्र कोई भी स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी २ शक्ति तथा पवित्र बनाया है, कितने ही दीनोंको उन्नत बनाया है, योग्यतानुसार इस तीर्थका आश्रय लेकर अपना कल्याण कर कितने ही दुराचारी कुमार्गको छोड़कर सन्मार्गपर आरूढ़ सकता है।
बीत रही हैं अनुपम पड़िया!
(श्री इन्दु जैन) ।
फैसा रहा दुनियादारीमें, हाय हाय मै समय गमाया! खाने सोने और कमानेसे, क्षणभर अवकाश न पाया ! सुख की मृग-तृष्णामें दौड़ा, पकडी नश्वर-जगकी छाया! कनक-कामिनीके चक्करमें,कलह कपटकर अहित कमाया! खलके टूक विषय-सुख बदले, मैने फेंकी मुक्ता लड़ियाँ सुबह हुई और शाम आ गयी, बीत रही हैं अनुपम घड़ियाँ !
जगकी देखा देखी, भयसे, मन्दिर में कुछ समय लगाया, महाश्रेष्ठ कर्मोका फल है, सुर-दुर्लभ यह नरतन पाया, सत्य बात है लेकिन कुछ भी,नही हृदयमें तत्त्व समाया! सोचो जरा,किया क्या पाकर?जाति-राष्ट्रके काम न आया! कोरम पूरा किया सदा ही, निजको ठगा जगत भरमाया, ना तो दिव्य-साधना द्वारा, अपनेहीका पता लगाया, कभी न सोचा गहराईसे, महं कौन कहांसे आया? और न प्रभुके पाद-पद्यमें पड़ कर अतिशय-पुण्य कमाया!
होकर सजग शीघ्र जोड़ो अब, विश्रंखल जीवनकी कड़ियाँ, कांच-खड-सम सुलभ न समझो,ये अमूल्य उपयोगी मणियाँ, हाथ नही आयेंगी ये फिर, बीत रही है अनुपम घड़ियाँ ! करना हो सो करले प्राणी, बीत रही है अनुपम घड़ियाँ!
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भनेकान्त
वर्ष ११
उदकोषन (श्री चन्द्रमान जन 'कमलेश') कह रहे आचार्य तू है सिद्ध-सम घव और पावन । चौंक मत! कुछ सोच तो जल उष्ण है जो जल रहे कर। किन्तु है शीतल स्वयंमें देख अंतर्द ष्टि देकर ॥
यदि न हो तो अग्नि हटते ही स्वयं क्यों शीत होता, शान्ति पाता देख लो वह निज स्वभावी शान्ति पाकर । उष्ण है तो भी बुझा दे अग्निको यह शक्ति उसमें,
जल सदृश ही तू सदा है, था, रहेगा तरन तारन ॥१॥ अष्ट कर्मोसे घिरा तू मानते ज्यो उष्ण है जल । किन्तु उसके शीत गुण-सम सिद्ध-सम तू भी विनिर्मल॥
कर्ममलके दूर होते ही प्रकट होते सुगुण जो, देख तेरा ही स्वधन बह मत उसे कहना करम-फल । ध्वंस करदे एक क्षणमें कर्मको वह शक्ति तुझमें,
मूल उसको तू भटकता व्यर्थ है क्यों भिक्षु वन-वन ॥२॥ पुण्य शुभ है औ' अशुभ है पाप, यह तो जानते तुम। और दोनों भेद आस्रवके इसे भी मानते तुम ॥
किन्तु आस्रव ही जगत है भूल क्या इसको गये जो, पुष्य ही को धर्म कहकर पूर्णतः उसमें गये रम। धर्म तो निज आत्मपरिणति औ' शुभाशुभ है विभावज,
बस शुभाशुभ-मल-रहित तू है अचल चैतन्य पावन ॥३॥ और देखो यह जिनालय हो रहा है शास्त्र-प्रवचन । औं' इधर है नृत्य करती एक वेश्या नित्य बनठन ।
देख सकते तुम युगल ही, किन्तु कब, जब छोडते घर,
आत्म-परिणति भूल त्योहोते शुभाशुभमे मगन मन। 'घर सदृश सुख है कही नहीं' यह कहावत भूल बैठे,
लाख चौरासी भटकते बस इसीसे हो विकल-मन ॥४॥ यदि तुझे विश्वास हो तो तू स्वरूप संभाल सकता। यदि न हो तो तू रहेगा सर्वदा संसार रुलता ॥
लक्ष्य जब जाना नही तो बोल छोड़ेगा कहां शर, लक्ष्य से ही भ्रष्ट होकर तो रहा अब तक भटकता। है समय अब भी संभालो भल बैठे हो स्वघन जो,
बस स्वयं होगा प्रकट निजरूप जो जग-दुख-नसावन ॥५॥ है अतः आदेश छोड़ो पापकी सारी क्रियायें। शुभ करो पर देखना वह भी नही तुमको लुभायें।
जिन-भवन औं' नृत्यमें ज्यों भूलते न कभी स्वघरको, भूलना मत आतमा त्यों जब करो वे शुभ क्रियायें। जानता है जो स्वधर वह पहुंच ही लेगा स्वधरको, वह स्वघर तेरा तुझीमें तू स्वयं चैतन्य पावन ।।६।।
कह रहे आचार्य तू है सिद्ध-सम घव और पावन ।।
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मोहनजोदड़ो - कालीन और आधुनिक जैन - संस्कृति
( श्री बाबू जयभगवान बी. ए., एडवोकेट )
raft मथुराकी कला और मोहनजोदडोकी कलाकी उपयुक्त विधिसे तुलना करनेपर दोनोंमें बहुत बड़ी समानता दिखाई पडती है तो भी दोनो कलाओमें ३००० वर्षका अन्तर होनेके कारण प्रश्न हो सकता है कि जब तक हम दोनों युगोंकी संस्कृतियोंमें एक शृङ्खलाबद्ध सम्बन्ध स्थापित न कर सकें, तब तक हम कैसे इन दोनोंको एक ही श्रमणसंस्कृति से सम्बोधित कर सकते है ?
पुरातात्त्विक प्रमाण --
इसमें संदेह नहीं कि जहां तक अब तककी प्राप्त पुरातात्त्विक सामग्रीका सवाल है, उसके आधारपर हम इन दोनों युगोके बीच एक अक्षुण्ण धाराकी स्थापना अभी तक नही कर पाये है ।
इस अभावके कई कारण है - प्रथम तो प्राचीनकालसे समय-समयपर जो अनेक आक्रमणकारी विद्रोही लोग भारतमें आते रहे है, उन्होंने अपने सांस्कृतिक विद्वेषके कारण मन्दिर और मूर्तियोंको तोड़-फोड़कर भारतकी प्राचीनकलाका बहुत विध्वंस किया है। दूसरे, प्राकृतिक उपद्रव और राज्यविप्लवोंके कारण भी बहुत-सी रचनाएं छिन्न-भिन्न होकर भूगर्भ मे दब गई है। तीसरे, मध्यकालीन और आधुनिक युगोंमें प्रलोभी लोगोंने इन पुराने सास्कृतिक केन्द्रोंकी सामग्री जड़मूलसे निकाल कर अपनी-अपनी नयी बस्तिया बसाने और मकान अथवा देवालय बनाने में खर्च कर ली है। चौथे, प्राचीनकालमें लकड़ी और मिट्टीकी मूर्तियां बनाने की जो प्रथा प्रचलित थी वह भी इस अभावकी बहुत उत्तरदायी है। पांचवें, बहुत-सी जैन मूर्तियां और जैन-कलाके अवशेष अन्य मतावलम्बियोके हाथोमे पड़कर आज उन्हीकी सम्पत्ति बन गये है और वे आज उन्हींके दिये हुए नामोंसे प्रसिद्ध है ।
इस सम्बन्धमें यह बात भी ध्यान रखने योग्य है, कि पुराने सांस्कृतिक केन्द्रोंको खोद-खोद कर पुरातात्विक वस्तुओंको निकालने अथवा इधर-उधर बिखरे हुए मूर्ति खंडोको सग्रह करनेकी आयोजना एक नयी आयोजना है, जो लार्ड कर्जनके जमाने से आरम्भ हुई है। इस आयोजनामें सरकारी महकमेके सिवाय अन्य गवेषकोंने अभी तक बहुत कम भाग लिया है । इस परसे हम कह सकते है कि इस थोड़ेसे कालमें थोड़ेसे परिश्रम द्वारा जो कुछ खोज आजतक हो सकी है, भारत देशकी विशालता और इसकी सभ्यताकी प्राचीनताको देखते हुए बहुत ही नगण्य है। अभी भारतके बहुतसे पुराने सभ्यता - केन्द्र, जो नदियों और झीलोके आसपास बसे हुए थे, खोजने बाकी हैं। अभी खोजे हुए क्षेत्रोंके भी निचले स्तर देखने बाकी हैं। इसलिये मौजूदा अभावपरसे यह नही कहा जा सकता कि मथुरा और मोहनजोदड़ोकी उपर्युक्त कलाओंके अन्तर्कालीन युगके कोई पुरातात्त्विक अवशेष भूगर्भ मे मौजूद नही है ।
अभी १९३७ में ही पटना जंक्शनके एक मील दूरीपर लोहिनपुरसे जो चमकदार पालिशवाले दो जैन मूर्ति-खंड'
• Patna Museum
Neg No 963--Arch No 8038 Neg No 962-Arch No 8038
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वर्ष ११
अनेकान्त
मिले हैं, वे डा. जायसवालके मत अनुसार आरम्भिक मौर्य्यकालके लगभग ३०० ई० पू० के है, कलाकी दृष्टिसे ये बहुत ही सुन्दर और वास्तविक है; ये उपलब्ध जैन मूर्तियोंमें अथवा भारतकी समस्त ज्ञात पाषाण मूर्तियोंमें, जो ऐतिहासिक युगमें पूजार्थ निर्मित सिद्ध हुई हैं, सबसे प्राचीन हैं। उनका यह भी मत है कि ये हड़प्पासे प्राप्त कायोत्सर्ग मूर्ति-खण्डके बहुत कुछ सदृश हैं' ।
४८
शिलालेखोंके प्रमाण -
पुरातात्त्विक प्रमाणके अतिरिक्त पुराने शिलालेख और दानपत्रकी साक्षी भी उक्त विषय-निर्धारणमें कुछ कम महत्त्वकी वस्तु नहीं है । कलिंगाधिपति सम्प्राद खारवेलके १६० ई० पू० वाले हाथी गुफा शिलालेखसे विदित है कि शिशुनागवंशी नन्दवर्धनके जमानेमें अर्थात् ४६० ई. पूर्वमें कलिंग और मगधदेशके लोग भगवान ऋषभ देवकी मूर्तियोंको पूजते थे ।
इस विषय में प्रभास - पाटन वाला प्राचीन ताम्रपत्र भी, जो प० हरिशंकर शास्त्रीको एक ब्राह्मणके पाससे मिला था, और जिसको कई सालके लगातार परिश्रमके बाद हिंदू विश्वविद्यालयके प्रोफेसर डा. प्राणनाथने पढ़कर अनुवादित किया है, बहुत महत्वकी वस्तु है । यह अनुवाद “The Illustrated Weekly of India" के १४ अप्रैल १९३५ वाले अंकमें प्रकाशित हुआ है। उससे विदित है कि सुराष्ट्र 'काठियावाड' के जूनागढनगरके निकटवर्ती रैवनक गिरनार पर्वतपर स्थित जैनियोके २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिकी मूर्तिकी पूजार्थं वेबीलोन देशके अधिपति नेवुचन्दनेजर प्रथम ११४० ई. पूर्वके निकट अथवा नेवुचन्दनेजर द्वितीयने ६०४-५६१ ई० पूर्वके लगभग अर्थात् भगवान महावीर के कालमें अपने देशकी उस आमदनीको जो नाविकोंसे कर-द्वारा प्राप्त होती थी प्रदान की थी।
पौराणिक आख्यान और अनुश्रुतियाँ -
इस स्थलपर यह बतला देना आवश्यक है, कि वह 'सुराष्ट्र' देश जिसके रैवतक पर्वतपर स्थित नेमिनाथकी मूर्तिके लिये वेबीलोनियाके अधिपति ने बुचन्दनेजरने दानपत्र लिखा था और वह 'सिंधु' देश जिसके पुराने नगर 'मोहनजोदडो'से योगियोंकी मूर्तियां प्राप्त हुई है, दोनों पश्चिम सागरके तटवर्ती देश है। पश्चिमी सागरके उपर्युक्त देश और पूर्वीसागरके मगध ( बगाल व बिहार ) और कलिंग (उड़ीसा) देश भारतीय अनुश्रुतिके अनुसार सदासे 'व्रात्य' अथवा 'श्रमण' संस्कृतिके केन्द्र रहे हैं ।
किसी देशके प्राचीन ऐतिहासिक तथ्योंका पता लगानेके लिये उस देशके पौराणिक आख्यान अनुश्रुतियां ही महत्वशाली प्रमाण होते है; इनके द्वारा ही मनुष्यने अपने अतीत युगोंके ऐतिहासिक तथ्योंको जीवित रखा है। इस विषयपर प्रकाश डालनेवाली जैन और वैदिक अनुश्रुतियां पर्याप्त मात्रामें आज भी मौजूद है ।
जैन अनुश्रुतियां
जैनियोंकी अनुश्रुति तो इस सम्बन्धमें प्रसिद्ध ही है । उनकी मान्यताके अनुसार पूर्वके मगध, अग, बंग, लाट, कलिग, विदेह (तिरहुत) आदि देश; पच्छिमके सुराष्ट्र (काठियावाड़), शत्रुंजय, आनट्टे (गुजरात), सिंधु, सौवीर ( सिधका उत्तरीय भाग), आदि देश; उत्तरके कैलाश, हिमांचल प्रदेश, आरट (पंजाब), मद्र (रावी और चनाब नदियोंका मध्यवर्ती भाग), आदि देश; मध्यके पंचाल (रुहेलखंड ), काशी, कोशल, वत्स (प्रयाग निकटवर्ती देश), चेदी (बुन्देलखंड ), अहिच्छेत्र (बरेली), मथुरा, शौरीपुर, मत्स्य ( राजपूताना ), कुरूजांगल, हस्तिनागपुर, आदि देश; दक्षिणके आंध्र, करनाटक, आदि
१ The Jain Antiquary 1937- pp. 17, 18
Archeological Survey of India-New Imperial Series, Vol. L I-Bihar and Orissa, 1931-PP. 264-269.
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किरण १
मोहन जोदड़ो कालीन बार आधुनिक जन संस्कृति देश; सब ही तीर्थंकरो और उनके तीर्थकालीन अगणित श्रमण सन्तोंके जन्म तप, शान, पर्यटन और निर्वाणसे सम्बन्धित होनेके कारण तीर्थक्षेत्रों और अतिशय क्षेत्रोंसे भरपूर है।
परन्तु इन सबमें पूर्वका मगध देश और पश्चिमका सुराष्ट्र देश तो बहुत ही माननीय है। चूंकि मगध देश अधिकांश तीर्थंकरों की जन्मभूमि होनेके अलावा अधिकांश तीर्थंकरोंकी निर्वाणभूमि भी रहा है। इसी देशमें सम्मेद शिखर, चम्पा और पावा आदि प्रसिद्ध तीर्थस्थान विद्यमान है, जहांसे पार्श्वनाथ, वासुपूज्य और महावीर आदि २२ तीर्थंकरोंने निर्वाण प्राप्त किया है। इसी देशमें सूर्यवंशी दशरथके ५०० पुत्र और पौत्र आदि वंशजोंने कलिंग देशस्थ कोटशिलासे मोक्ष प्राप्त किया है। श्रीरामके दोनों पुत्र लव और कुश तथा अन्य अनेक सूर्यवंशीजनोंने पावागिरि (बिहार) से निर्वाण हासिल किया है। वरवत्त, वरांग और सागरदत्त आदि सोरठके अनेक प्रसिद्ध मुनियोंने तारपुर जिला वीरभूमि (बिहार) से मोक्ष हासिल किया है।
इनके अतिरिक्त राजगृहीके निकट पंचशैल पर्वत की कुंडल गिरि अथवा पांडुकगिरि, वैभारगिरि, ऋष्याद्रि, विपुलाचल और बलाहकगिरि नामवाली पांचों पहाड़ियोंपरसे तथा द्रोणगिरि (मध्यप्रान्त सागरसे ६० मील), विन्ध्याचल, पोदनपुर (दक्षिणमें गोदावरी नदीपर स्थित एक नगर जो प्राचीनकालमें अस्मक देशको राजधानी थी), वृषदीपक (संभवत: ऋषभ पर्वत जो दक्षिणके मदुरा जिलेमे मलयपर्वतके उत्तरीय भागमें स्थित है) सह्याचल (कावेरी नदीके उत्तरमें पच्छिमी घाटका उत्तरीय भाग) हिमवान, आदि स्थानोंपरसे भी असख्य योगियोंने तपस्या द्वारा शिवपदकी प्राप्ति की है।
पश्चिमके सुराष्ट्र देशमें जैनियोंके प्रसिद्ध तीर्थ रैवतक पर्वत (गिरनार पर्वत) तथा शत्रुजय स्थित है, यहांसे २२ में तीर्थकर अरिष्ट नेमि और अनेक यादव और कुरुवंशीय महापुरुषोने निर्वाण प्राप्त किया है। भगवान कृष्णके पुत्र प्रद्युम्न, शम्भुकुमार अनिरुद्ध आदि अनेक यादव वशियोने गिरिनार पर्वतसे मोक्ष हासिल किया। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तीन पांडव राजाओं और अगणित द्राविड़ जातिके महापुरुषोंने सुराष्ट्र देशस्थ शत्रुजय गिरिमे निर्वाण प्रा-त किया । बलभद्र
१. (अ) निर्वाण-भक्ति, पूज्यपाद-देवनन्दी (विक्रमकी छठी सदी)।
(आ) प्राकृत निर्वाण काड । () उदयकीति-कृत अपभ्रंश भाषाको निर्वाणभक्ति । (६) स्वयम्भू-स्तोत्र, समन्तभद्र (विक्रमकी दूसरी-तीसरी सदी)। (उ) शासन चतुस्त्रिशिका, मदनकीर्तिकृत (ईसाकी १३ वी सदी)। (ऊ) विविध तीर्थकल्प-जिनप्रभसूरि कृत (ईसाको १४ वी सदी)। (ए) प्रो. जगदीशचन्द्र M.A., Ph. D. कृत 'जैन ग्रंथोंमें भौगोलिक सामग्री और जैन धर्मका प्रसार
-प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ १९४४ पृ. २५१-२६८ । २. जैन और बौद्ध लोगोंमें इस पंचशैलार्वतकी पांचों गिरि भगवान बुद्ध और भगवान महावीर एवं उनके साधुसाध्वी संघोंके सम्पर्कमे रहने के कारण बहुत ही पूज्य मानी जाती है। बौद्ध साहित्यमें उक्त पांचों गिरि पांडव वैभार, वेपुल्ल इसिगिलि और गृद्धकूटके नामोंसे प्रसिद्ध है। हिंदू ग्रंथोंमें ऋष्याद्रि ऋषिभङ्गादिके नामसे प्रसिद्ध है। ३. NandLal Dey-Geographical Dictionary 1927 P. 12. ४. Nand Lal Dey वही पृ० 169 ५. , , वही पृ. 171 ६. पूज्यपाद देवनन्दा निर्माणपक्ति "लोक २९.१..।
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५०
बनेकान्त
वर्ष ११
मादि अनेक यादवोंने गजपन्या (जिला नासिक) से निर्वाण पाया है। श्री राम अथवा हनुमान, सुग्रीव, सुरील, गवय, गवाक्ष, नील, महानील आदि अनेक बानर वंशी तुगिगिरि (जिला नासिक) से मोक्ष गये है । अंग-अनंग कुमार आदि अनेक मुनियोंने सोनागिरि अथवा श्रमणगिरि (दतिया रियासत-मध्यभारत) से निर्वाण पाया है। रावणके आदिकुमार आदि पुत्र और अन्य अनेक राक्षस वंशी महापुरुषोंने रेवानदी (नर्वदा) के तटसे निर्वाण पाया है। नर्वदा नदीके पश्चिममें स्थित सिद्धवरकूटसे दो चक्रवर्ती, दश कामकुमार आदि मोक्षको गये है। मध्य भारत स्थित बड़वानी और चूलगिरि (मऊ छावनीसे ८० मील) से इंद्रजीत कुंभकरण आदि राक्षसवंशी अनेक महापुरुष मोक्षको गये है।'
इस अनुश्रुतिकी पुष्टिमें कितने ही स्वतन्त्र प्रमाण भी मौजूद हैं। इस सम्बन्धमें अजमेर जिलेके बडली ग्रामसे प्राप्त होनेवाला शिला-लेख' जो राजपूताना संग्रहालय अजमेरमें सुरक्षित है, बड़े महत्त्वकी वस्तु है, यह भारतवर्षके प्राचीनतम उपलब्ध होनेवाले शिलालेखोंमेंसे एक है। इसमें वीर सम्वत् ८४ अर्थात् ईस्वी पूर्व ४४३ का एक अभिलेख है, इस लेखसे सिद्ध है कि दक्खन पूर्व राजपूताने तथा पच्छिम भारतमें जैनधर्म प्राचीनकालसे प्रचलित रहा है। परन्तु मोहनजोदड़ोकी श्रमनकलाका पूर्ण मूल्य आंकने के लिये और श्रमण संस्कृतिसे उसकी तुलना सार्थिक बनानेके लिये जरूरी है कि पहले भारतीय सहित्य आख्यान और अनुश्रुतियोंपरसे भारतीय प्राचीन सभ्यता और संस्कृतिका एक विहंगावलोकन कर लिया जावे।
जैन-संस्कृतिका विस्तार और प्रभाव
जन संस्कृति श्रमण-संस्कृतिको अन्य शाखाओंके समान ही भारतको मौलिक प्राचीन संस्कृति है । यह भारतभूमि और इसके वातावरणकी स्वाभाविक उपज है, यह इसकी सामाजिक प्रगति और मानसिक विकासको पराकाष्ठा है, इसी लिये यह सदासे भारतके कोने-कोने में फैलती-फूलती रही है, इसका अन्दाजा इसी बातसे लगाया जा सकता है कि भारतका कोई प्रान्त ऐसा नहीं है जहां जैनियोंके माननीय तीर्थस्थान और अतिशय क्षेत्र मौजूद न हों। ये तीर्थस्थान उत्तरमें कैलाश पर्वतसे लेकर दक्षिणमें कर्णाटक तक और पच्छिममें गिरिनार पर्वतसे लेकर पूर्वमें सम्मेद शिखर तक सब ही दिशाओंमें फैले हुए हैं। ये बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बुन्देलखंड, अवध, रोहेलखंड, देहली, हस्तिनागपुर, मथुरा, बनारस संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रान्त, राजपूताना, मालवा, गुजरात, काठियावाड़, बरार, बड़ौदा, मैसूर और हैदराबाद आदिके सब ही इलाकोंमें मौजूद है। हर साल लाखों यात्री इनकी पूजा-वन्दना करनेके लिये लगातार आते रहते है। इसके अतिरिक्त जैनी लोग आज तक इन तीर्थस्थानोंकी जहांसे तीथंकरों अथवा भारतके नागवंशी, राक्षसवंशी, बानरवंशी, सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, यादववंशी प्रभति भारतकी अनेक प्राचीन क्षत्रिय जातियोंके महापुरुषोंने अपनी कठोर त्याग-तपस्या और ध्यान-साधना-द्वारा निर्वाणप्राप्त किया है, नित्य प्रति अपने मन्दिरोंमें पूजा-पाठके समय स्तुति-वन्दना करते रहते हैं।
इन तीर्थस्थानों तथा इनसे मुक्ति प्राप्त महापुरुषों-सम्बन्धी गाथा, स्तोत्र, काव्य, चम्पू चरितपुराण आदिके रूपमें एक विपुल साहित्य जैन-वाङ्गमय में मौजूद है । इन परसे पता चलता है कि श्रमण-संस्कृति कितनी विशाल और प्राचीन है ।
१. (क) निर्वाणभक्ति पूज्यपाद देवनन्दी (विक्रमकी छटी सदी).
(ख) (प्राकृत) निर्वाणकांड-; उदयकीति कृत अपभ्रन्श निर्वाणभक्ति । (ग) स्वम्भूस्तोत्र-समन्तभद्र (विक्रमकी तीसरी सदी )। (घ) शासनचतुस्त्रिशिका-मदनकीर्ति (ईसाकी १३ वीं सदी )।
(च) विविध तीर्थ कल्प, जिनप्रभसूरिकृत (ईसाकी १४ वीं सदी)। २. गौरीशंकर ओझा-भारतीय प्राचीन लिपिमाला पृ. २,३ । 1. जयचन्द विद्यालंकार-भारतीय इतिहासकी रूपरेखा-जिल्य १ पृ. ४९३-४९४ ।
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मोहन जोदड़ों कालीन और बावुनिक जैन संस्कृति
वास्तवमें श्रमण-संस्कृतिके जन्मदाता भारतके क्षत्रिय जन है, यही कारण है कि भारतके सभी अवतार क्षत्रिय कुलीन महापुरुष ही है।
प्रागेतिहासिककालसे लेकर भारतके सभी देशोंके क्षत्रिय लोग जहां युवावस्थामें शारीरिक पराक्रमसे ऐहिक शत्रुओंको जीत, भूमंडलके अधिपति बनते थे, वहा वे अन्तिम जीवनमें इन्द्रिय भोग, बन्धुजन और राज्य-वैभवको छोड़ तपः पराक्रमसे अन्तः शत्रुओंको जीतकर जिन शिव अरिहन्त और विश्वपति बन जाते थे। वे अपने आदर्श और उपदेश-द्वारा अगणित भव्य-जनोंको संसार-सागरसे पार उतारनेके कारण तीर्थकर, अवतार बन जाते थे।
भारतीय साहित्यमें क्षत्रियोंकी महिमाका बखान
इन क्षत्रियोंकी उक्त जीवन-वृत्तिको ही लक्ष्य करके श्री समन्तभद्राचार्यने तीर्थकर शान्तिनाथ (चक्रवर्ती) के सम्बन्ध में कहा है :
यस्मिनभूबाजनि राजचक्र, मुनी बया-बोषिति-धर्मचक्रम् ।
पूज्ये मुहः प्रांजलि देवचक्र, न्यानोन्मुखे ध्वंसि तान्तचक्रम् ॥७९॥ (स्वयम्भूस्तोत्र) अर्थात्--राज्यावस्थामें राजा लोग उसके आश्रित हुए, मुनि अवस्था धारण करनेपर दयारूप किरणोंवाला धर्मचक उसके आधित हुआ, केवलज्ञानकी उत्पत्ति होकर अर्हत्पूज्य बननेपर देवगण उसके आगे हाथ जोड़े खड़े रहे और ध्यानकी अवस्थामें कर्मचक्र ध्वस्त होकर उसके आश्रित हो गया।
इसी भावको ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदोंमें इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
(अ) तस्मात् पात्रात्पर नास्ति, तस्मा ब्राह्मणः क्षत्रियमवस्ताबुपास्त राजसूये, पत्र एक तयशो वर्षाति, सैपा क्षत्रस्य योनिर्यवबह्म-बृह. उप. ९.४.११--शत. ब्राह्मण १४.४.२ २३
अर्थ-क्षत्रियसे कोई बड़ा नही है, इसीलिये राजसूय यज्ञमें ब्राह्मण भी नीचे बैठकर क्षत्रियकी उपासना करता है, राजसूय यज्ञका यश क्षत्रिय ही धारण करता है, जिसको ब्रह्मविद्या कहा जाता है, वास्तवमें उसीसे क्षात्रधर्मकी उत्पत्ति हुई है--अर्थात् क्षत्रियोकी जीवनचर्याका आधार ब्रह्मविद्या है।
(आ) शत. बा. १४.१ ४.११ में कहा है कि युगकी आदिमें एक ही प्रकारकी जनता थी, इसलिये लोककी उन्नति न हो सकी, ब्रह्माने लोक-कल्याणार्थ प्रथम क्षत्रिय वर्गको ही पैदा किया था, (दुनियाके जितने भी पूजनीय देवता) इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु, ईशान आदि हुए है, वे सब क्षत्रिय ही थे।
(इ) "सव व्यभवत्, तच्छेयो रूपयत्यसृजत् धर्मम्, तदेतत्क्षत्रस्य क्षत्रं सदमस्तस्माइर्मात् परं नास्ति, अयो अबलीयान् बलीयांस सभा शंसते धर्मेण यया राशवम्"वह. उप. १.४.१४. ।
अर्थ-तीनों (क्षात्र, वैश्य, शूद्र) वर्णकी व्यवस्था करनेपर भी जब लोकका कल्याण न हुआ तब कल्याणात्मक धर्ममार्गको पैदा किया गया, वह कल्याणात्मक धर्म-मार्ग क्षत्रियों का ही विशेष मार्ग था, उस धर्म-मार्गसे बड़ा और कोई मार्य जीवनकल्याणके लिये नही है, चूकि जैसे राजा द्वारा शत्रु जीते जाते हैं, वैसे ही इस धर्म-द्वारा निर्बल जन भी बलिष्ठ अन्तः शत्रुओंको विजय कर लेते है।
(६) अथर्ववेदमें इन क्षत्रिय व्रात्योंका उल्लेख करते हुए कहा है:सोऽरज्यत् ततो राजन्योऽजायत ॥१॥ स विशः सबन्नन्ममन्नाबमभ्युबतिष्ठित् ॥२॥ विशाच स सबन्धूनां चासस्य चान्नाबस्यप प्रियं धाम भवति यः एवं बेह-अथर्व काण्ड १५, सूक्त ८.।
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मनेकान्त
वर्ष १९
अर्थ- वह समस्त बन्धुवर्ग और सम्बन्धियों सहित समस्त योगों और इंद्रिय विषयोंसे ऊपर उठ गया -- विरक्त हो गया || २ || वह रज ( मोह माया, इच्छा, कामना रूप आत्म-मल) को दूर करके विशुद्ध हो गया, इस कारण उसने अपने में राजन्य ( स्वराज्य) को उपजा लिया अर्थात् वह सर्वज्ञ हो गया ॥ १ ॥ जो इस तरह व्रात्यके स्वरूपका साक्षात् करता है वह समस्त बन्धु सहित जगका, भोगोंका प्रिय धाम हो जाता है ॥३॥
५२
इस जैन अनुश्रुतिकी सत्यता रामायण और महाभारत आदि सर्वमान्य ग्रंथोंसे भी भली भांति सिद्ध है । रामायण उत्तर कांड सर्ग २७-२९ में कहा है कि श्रीरामने लव और कुशको राज्य भार सोंप शत्रुघ्न, भरत और पुरवासियोंके साथ घरसे निकल सरयू नदीपर पहुंच, वहां समाधिस्थ हो परमधामको प्राप्त किया । पुनः रघुवंश ग्रंथमें महाकवि कालिदासने कहा है कि 'जब अपने-अपने समस्त प्रतिद्वंद्वी राजाओको युद्धमें जीत लिया तथा इदुमतीको स्वयंवरमें प्राप्त कर लिया तब रघुने अपने परिवार तथा राज्यका भार उसके कन्धोंपर डाल शान्तिमार्गका आश्रय लिया; क्योंकि उत्तराधिकारीके योग्य हो जानेपर सूर्यवंशीलोग कभी घरमें पड़े नही रहते। इसी प्रकार महाकवि दिग्नाग अपनी कुंदमाला नाटिका में कहते हैं :
nareenager भुवनं विजित्य "पुण्यविवः शर्तविरचम्य मार्गम् ।
इवमाकवः सुतनिवेशितराज्यभारा निश्रेयसाय वनमेतदुपाश्रयन्ते ॥ - कुन्दमाला ४.५.
अर्थात् 'केवल एक धनुषके बलपर भूमंडल अपनाकर, सौ यज्ञोसे मार्ग स्वर्गका सुन्दर सरस बनाकर । रघुवंशी दे भुवनभार पुत्रोंको चौथेपनमें, मोक्ष- सिद्धिके लिये सदासे आ इस वनमें ॥' इसी प्रकार महाभारत, आदिपर्व अध्याय १०१ में बतलाया गया है कि राजा शान्तनु, जिनसे कौरव वंशका इतिहास तथा उसकी गुण-गाथा शुरू होती है; बड़े धर्मशील राजा थे । पूर्ण अहिसक थे, उनके राज्यमें शिकार तक मना था, उन्होंने ३६ वर्षकी आयुमें गृहस्थ- सुखोंको छोड़ सन्यासमार्ग ग्रहण कर लिया था। उनके बड़े भाई देवायं तो उनसे भी पहले सन्यासी हो गये थे ।
1
पुनः महाभारत- आश्रम बासिका पर्व १५ वें और १६ वें अध्यायमें बतलाया गया है कि महाभारत युद्धके १५ वर्ष बाद धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती, संजय, विदुर सहित राजमहलको छोड़ वनमें जा तप करने लगे ।
पुनः महाभारत – १७ वां पर्व ( महाप्रस्थान पर्व ) के पहले अध्यायमे कहा गया है कि महाराज युधिष्ठर परीक्षितको राज्यभार सोंप कर द्रोपदी और अपने भाइयों सहित तपस्यार्थं हिमालयमे चले गये ।
पुनः महाकवि कालिदास अभिज्ञान शाकुन्तल नाटकमें पुरुवंशी दुष्यन्तसे यों कहलाते है.---
भवनेषु रसाधिकेषु पूर्व क्षितिरक्षार्थमुशन्ति ये निवासम् नियतकयतितानि पश्चाहरूमूलानि गृहा भवन्ति तेषाम् ।। ७-२०
अर्थात्- पुरुवंशी क्षत्रियोंका यही कुल-कर्तव्य है कि हम जो पहले पृथ्वी पालनार्थ इंद्रिय सुखोंसे भरपूर राजमहलों में निवास करते है, वे ही पीछेसे यतिव्रत धारण करके वनोंमें जा तरुमूलको ही अपना घर बनाते हैं ।
वैदिक अनुश्रुतयां
पूर्वमें मगध देश और पच्छिममें गान्धार (पेशावर ), आरट्ट (पंजाब) मद्र, खस (दक्षिणी कश्मीर), सुराष्ट्र (काठयावाड़) आनदं (गुजरात) सिन्धु, सौवीर (सिन्धु प्रदेशका उत्तरीय भाग ) ' ये देश श्रमण संस्कृतिके बड़े केन्द्र थे; इस बात से भी सिद्ध है कि पीछेसे सांस्कृतिक विषमता बढ़ जानेके कारण श्रोत्रसूत्र और स्मृति लेखकोने ब्राह्मणोंके लिए इन देशोंमें आना-जाना वर्जनीय ठहराया है।
Nand Lal Dey Geographical Dictionary 1927 P. 183.
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कात्यायन श्रोत्र सूत्र ८, ६, २८, तथा लाह्यायन श्रौत्र सूत्र २५, ४, २२ में लिखा है कि व्रात्यस्तोमके बाद (अर्थात उस अनुष्ठानके बाद जिसके द्वारा एक व्रात्यको शुद्ध करके ब्राह्माणिक संघमें सम्मिलित किया जाता था) व्रात्यका तमाम घरेलू सामान मगध देशके किसी ब्रह्मबन्धुको (अर्थात् नाममात्रके उस ब्राह्मणको जो ब्राह्मण धर्मको छोड़कर श्रमण संस्कृतिको अपनाने लग गया है) दे दिया जावे। इससे विदित है कि मगधके ब्राह्मण लोग व्रात्योंके पुरोहित हो जानेके कारण वैदिक ब्राह्मणोंमें घृणाकी दृष्टिसे देखे जाते थे।
इसके अतिरिक्त वौधायण-धर्मसूत्र १. १ ३२-३३ मे कहा गया है कि मगध, अंग, वंग, कलिंग, सुराष्ट्र, आरट (पंजाब) सिन्धु सौवीर (सिन्धु देशका उत्तरीय भाग) अथवा कारस्कर (कर्णाटक देशका कारकल जिला) में संकर जातियोंके लोग अर्थात् व्रात्य लोग रहते है इसलिये इन देशोमे किसीको यात्रा नही करनी चाहिये, जो इन देशोकी यात्रा करेगा उसे दोबारा शुद्ध होनेके लिए नरस्तोम नामका अनुष्ठान करना होगा।
इसी प्रकार देवल स्मृतिकारका मत है (इसके लिये देखें-याज्ञवल्क स्मृति ३. २९२ पर ईशाकी १२ शताब्दीकी बिज्ञानेश्वरकृत टीका) कि जो कोई सिन्धु, सौवीर, सुराष्ट्र, अंग, वंग, कलिग, आन्ध देशों की यात्रा करेगा उमे पुनः शुद्धिके लिए पुनरस्तोमका विधान करना जरूरी है।
इसी प्रकार हिजरी सन् ३७५ (ईस्वी ९८३) के अरब लेखक मुतहाहिरने, जो भारतमें यात्रार्थ आया था, अपनी 'किताबलविदसवत्तारीख' नामकी पुस्तकमें ब्राह्मणोके सम्बन्धमें लिखा है कि ये लोग मौकी पूजा करते है और गंगाके उस पार जाना पाप समझते है।
उक्त देशोंमें यात्रा करनेकी मनाई ब्राह्मण स्मृतिकारोंने जिन कारणोंके वश की है उनका कुछ परिचय हमें महाभारत कर्ण पर्व अध्याय ४५ में मिलता है। इसमे लिखा है कि 'आरट्ट (पंजाब) देशके निवासी वालीक लोग जो प्रजापतिकी सन्तान नही है तथा इस देशके नीच ब्राह्मण जो यहा प्रजापतिके समयसे रहते है, न तो वेदोंका पाठ करते हैं और न यज्ञ ही करते है । इन नीच व्रात्योंकी दी हुई कोई हवि देवताओंको नही पहुंचती, मद्र (रावी और चनाव नादियोंका मध्यवर्ती-देश) गान्धार आरट्ट (पंजाब) खस (कश्मीरका दक्षिणी भाग) सिन्धु, सौवीर (सिन्धुदेशका उत्तरीय भाग) के निवासी अधिकतर नीच है। .
इसी तरह पूर्वी देशोंकी सांस्कृतिक विषमताका परिचय एतरेय आरण्यकसे भी मिलता है जो इस प्रकार है:-- तदुक्तमृषिणा
प्रमाहं तितो मत्यायमीयूषन्या मर्कमभितो विविध । बार तस्बी भुवनेष्वन्तः पवमानो हरित मा विवेमेति ॥
ऋ०८, १०१, १४ ऋग्वेदकी इस ऋचाका अर्ष एतरेय आरण्यकर्म (आरण्यक २ अध्याय १) इस प्रकार किया गया है "प्रजाहं तिस्रोअत्यायभीयु रिति या वै ता इमाः प्रजास्तिस्रो अत्यायमायं स्तानीमानि वयासि वंगावगधाश्चेरपादाः" उक्त वाक्योका अर्थ सम्बन्धी टीका टिप्पण करते हुए जैसा कि स्व० धर्मानन्द कोशम्बीने अपने "भारतीय संस्कृति और अहिंसा" नामक हिन्दी ग्रन्थके पृष्ठ ३६ पर लिखा है वाक्योंका "वंगावगधा श्चेरपादा" यह पाठ दोषपूर्ण है, इसका मूल पाठ "वंगा मगपाश्चेर
१Nand Lal Dey वही भौगोलिक कोश पृष्ठ ९३ ॥ Nand Lal Dey Geographical Dictionary (92)
५ मौलाना सुलेमान नदवी-मरव और भारत के सम्बन्ध १९३०, १७३ ।
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बनेकान्त
वर्ष ११
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पादा" होना चाहिये । उपर्युक्त अशुद्धिके रहते हुए सायणाचार्यने जो अर्थ किया है वह बहुत ही विचित्र है-तीन प्रजा श्रद्धा रहित हो गई अर्थात् वैदिक कर्मोंसे उनका विश्वास उठ गया-वे तीन प्रजा यह है वासि अर्थात् कौवे इत्यादि पक्षी वंगा अर्थात् अरण्यगत वृक्ष, अवगधा अर्थात् चावल जौ आदि अन्न चेरपादा अर्थात् बिलमें रहने वाले सर्प इत्यादि जन्तु ये सब वैदिक काँका त्याग करनेसे नरकका अनुभव करते है।" पाठ शुद्धि होनेपर उक्त वाक्योंका स्पष्ट अर्थ यह है कि तीन प्रजा प्रखा रहित हो गई अर्थात् वैदिक कर्मोंसे इनकी निष्ठा उठ गई वे तीन प्रजा यह है-वंगा अर्थात् मगधके पूर्वीय देशोंके रहने वाले, मगषा अर्थात् मंगध देशके रहनेवाले और चेरपादा अर्थात् वज्जी देशके रहनेवाले वज्जीगण-लिच्छिवि क्षत्रिय वज्जी शब्द वृजिनः (घुमक्कड़) से बना है और चेर या चेल घातु भी गतिका निर्देशक है, इसलिये चेरपादा शब्द वज्जिन लोगोंका घोतक है।
इन प्रमाणोंके अतिरिक्त अथर्ववेद, काण्ड ५, सूक्त २२, मन्त्र ५-१४ से भी सिद्ध है कि पंजाब, गान्धार, अंग, वंग, मगधमें अवैदिक लोग बसे हुए थे, जिनसे वैदिक आर्यजन सास्कृतिक विभिन्नताके कारण विद्वेष करते थे। चूंकि इस सूत्र में ज्वर निवृत्तिके अर्थ यह भावना की गई है कि हम अपने ज्वरको एक नौकरके समान, एक कोशके समान, गन्धार (पेशावर) मुजवन्त (दक्षिणी कश्मीर), अंग (पश्चिमी बिहार) और मगधके निवासियोको दे देवें।
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वीरसेवामन्दिर सरसावा का उत्तखार
१ "गान्बारिभ्यो मूजवदृभ्यो मगषेभ्यः । "प्रेष्यत जनमिव शेवर्षि तथपानं परिदयसि ॥" अथर्ववेद ५. २२.१४.
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भगवान महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ
[पं० परमानन्द जैन शास्त्री]
भारतीय धर्मप्रवर्तक महात्माओं में भगवान महावीर• किया हो। धर्म किसी मन्दिर, मस्जिद, शिवालय और का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका जीवन आध्यात्मिक विशेष- गिरजाघरमें नहीं है किन्तु वह तो प्रत्येक प्राणीकी अन्तरात्माताओंसे परिपूर्ण था। उन्होंने राजकीय भोग-विलासोंका में निहित है। यह अज्ञप्राणी अपने स्वार्थमें जब अन्धा हो परित्याग कर बारह वर्ष तक कठोर एवं दुर्घर तपश्चर्याके जाता है अथवा अहंकार-ममकारकी ऊंची चट्टान पर सवार द्वारा जो आत्म-साधना की वह असाधारण थी। उन्होंने हो जाता है तब धर्मके असली स्वरूपको भूल जाता है और पूर्णज्ञान ( केवलज्ञान ) के साथ आत्मामें अहिंसाकी पूर्ण अपने स्वार्थकी सिद्धिमें या उसे पुष्ट करनेके लिये अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त की, जो परमब्रह्मपदके अनुरूप है। वे सर्वज्ञ सारी शक्तियोको केन्द्रित कर देता है। उस समय वह और सर्वदशी बने। उस समय देशकी स्थिति अत्यन्त विषम विवेकशून्य होता है, और 'अर्थी दोषं न पश्यति' की नीतिथी, धर्म और अधर्मकी कोई मर्यादा न थी, प्रायः अधर्मने के अनुसार उसके हृदयमें विवेकके स्थान पर अज्ञान और धर्मका स्थान ले लिया था, बड़े-बड़े विद्वान धर्मकी दुहाई अहंकार अपना प्रभाव जमाये रहते हैं। इस कारण उसे देकर याज्ञिक क्रियाकाण्डोंमें धर्म बतला रहे थे। स्त्रियों, अपनी उस सदोष परिणतिका स्वयं पता नही लगता और एवं शूद्रोंको धर्म-सेवनका कोई अधिकार नही था, वे वेद- न उसे आत्मनिरंक्षणादिका कोई ऐसा अवसर ही प्राप्त मत्रका उच्चारण भी नही कर सकते थे। 'यज्ञ की बलि वेदी होता है जिससे उसका विवेक जागृत हो सके। इसी कारण पर होमे हुए जीव स्वर्गसुख प्राप्त करते हैं', यह दुहाई दी जा वह अपने हितसे सर्वथा दूर रहता है। उस समय यदि उसे रही थी। ऐसे समयमें भगवान महावीरने अपने बिहार कोई हितका मार्ग सुझाता भी है, तो भी वह उसे नहीं और उपदेशों द्वारा उस विषम स्थितिको सुधारनेका मानता, किन्तु उसे अपना शत्रु समझने लगता है। उस समय प्रयत्न किया, उन धर्म विहीन शुष्क क्रियाकाण्डोंका घोर उसकी दशा पित्तज्वर वाले रोगीके समान होती है जिसे विरोध किया। जगतमें अहिंसाको दुदुभि बजाई, जीवों- दूध भी नही सुहाता । वह धर्मको बुरा एवं भयावह समझता को सुख-शान्तिका दिव्य उपदेश दिया और बतलाया कि है किन्तु अधर्मको अच्छा और ग्राह्य मानता है। इस तरह संसारके सभी जीव समान है, जिस तरह हमें अपने प्राण भगवान महावीरने अपने उपदेशों द्वारा संसारी जीवोंके प्यारे है उसी तरह दूसरोंको भी अपने प्राण प्यारे है, स्वयं कल्याणका मार्ग प्रशस्त किया, धर्म अधर्मका विवेक कराते
हुए उनकी अन्धश्रद्धाको दूर किया और उससे सबको सुखपूर्वक जियो और दूसरोंको भी जीने दो, धर्म किसीकी
धर्म सेवनका अवसर तथा अधिकार मिला। भगवान बपौती जायदाद नहीं है, वह तो प्रत्येक प्राणीके अभ्युदय महावीरके उपदेशोंका तत्कालीन जनता पर इतना गहरा एवं विकास का कारण है। संसारके सभी प्राणी सुख चाहते प्रभाव पड़ा कि वे अपनी हिंसक प्रवृत्तिको छोड़कर अहिंसक है और दुखसे डरते हैं। सभी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं,
बनें, दयाके उपासक हुए, भगवानकी शरणमें आए और
अपना आत्म-विकास करनेके लिए समुद्यत हो गए। कोई भी मरना नहीं चाहता। ऐसी स्थितिमें यदि कोई किसी
इसीसे आचार्य समन्तभद्रने भगवान महावीरके को मारता है या उसे कष्ट पहुंचाता है अथवा उसके घन
शासन को उनके द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित धर्म कोएवं स्त्री आदिका अपहरण करता है तो वह अवश्य हिंसक निम्न पद्यमें 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया है।है, पापी है। संसारका ऐसा कोई भी जीव नहीं है जिसने सर्वान्तवरावगुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं बमियोऽनपेक्षम् धर्मका माधय लिये बिना ही अपना उत्थान एवं विकास सपिबामन्तकरं निरन्तं सबॉक्यतार्थमिदंतवैव
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अनेकान्त
वर्ष ११
इस पद्यमें जिस शासनको 'सर्वोदयतीर्थ' कहा गया इंद्रियोंके दमन अथवा जीतनेके लिये जिसमें संयमका है वह संसारके समस्त प्राणियोंको संसार समुद्रसे तरनेके विधान किया गया हो, जिसमें प्रेम और वात्सल्यकी शिक्षादी लिए घाट अथवा मार्गस्वरूप है, उसका आश्रय लेकर सभी जाती हो, जो मानवताका सच्चाहामी हो, अपने विपक्षियोंजीव अपना आत्म विकास कर सकते है । वह सबके उदय, के प्रति भी जिसमें राग और द्वेषकी चंचल तरंगें म उठती हों, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नतिमें अथवा अपनी आत्माके जो सहिष्णु एवं क्षमाशील है, वही शासन सर्वोदयतीर्थ पूर्ण विकासमें सहायक है। सर्वोदयतीर्थमें तीन शब्द है सर्व, कहला सकता है और उसीमें विश्व-बधुत्वकी कल्याणकारी उदय और तीर्थ। सर्व शब्द सर्वनाम है वह सभी प्राणियोंका भावना भी अन्तनिहित होती है। वही शासन विश्वके वाचक है, उदयका अर्थ कल्याण, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नति समस्त प्राणियोंका हितकारी धर्म हो सकता है। है, और तीर्थ शब्द संसारसमुद्रसे तरनेके उपाय स्वरूप सर्वोदयतीर्थकी जो सक्षिप्त रूप-रेखा ऊपर खीची जहाज, घाट अथवा मार्ग आदि अर्थोंमें व्यवहृत होता है। गई है वह उसके सिद्धान्तोमें पद पद पर समाई हुई है। खेद इससे इसका सामान्य अर्थ यह है कि जो शासन ससारके है कि आज उसके अनुयायी सर्वोदय तीर्थकी सार्वभौमिकता सभी प्राणियोंके उत्कर्षमें सहायक है, उनके विकास अथवा मौलिकता और महत्तासे अपिरिचित है, वणिक्वृत्ति होनेउन्नतिका कारण है वह शासन 'सर्वोदय-तीर्थ कहलाता है। के कारण वे कृपण और सकीर्ण मनोवृत्तिको लिये हुए है। यह तीर्थ सामान्य-विशेष, विधि निषेध और एक अनेक प्राचीन समयसे भारतमे दो संस्कृतियां रही है श्रमण आदि विविध धर्मोको लिये हुए है, मुख्य-गौणकी व्यवस्थासे
संस्कृति और वैदिक संस्कृति । इन दोनोका परस्परमें व्यवस्थित है, सर्व दुःखोंका विनाशक है और स्वयं सामीप्य रहनेसे उनके अनुयाइयोमें एक दूसरेके विचारोंका अविनाशी है।
आदान-प्रदान हुआ है, एकका दूसरे पर प्रभाव भी अंकित इसके सिवाय जो शासन वस्तुके विविध धर्मों में हुआ है । यही कारण है कि आज भी कितने ही रीति-रिवाज पारस्परिक अपेक्षाको नही मानता उसमे दूसरे धर्मोका एक दूसरे धर्मके इन अनुयाइयो में देखे जाते है । जहा श्रमण अस्तित्व नहीं बनता, अत: वह सब धर्मोसे शुन्य होता है। संस्कृतिके अहिंसा सिद्धान्तकी गहरी छाप वैदिक धर्म पर उसके द्वारा पदार्थ व्यवस्था कभी ठीक नहीं हो सकती। वस्तु पड़ी, वहां वैदिक परम्परा-सम्मत वर्णाश्रम व्यवस्थाका तत्त्वकी एकान्त कल्पना स्व-परके वैरको कारण है, उससे प्रभाव वीरशासनके पुजारी वैश्यों पर भी पड़ा। इसका न अपना ही हित होता है और न दूसरेका हो सकता है, वह परिणाम यह हुआ कि भगवान महावीरका सर्वोदय शासन नोमया एकान्तके आपमें अनरक्त हआ वस्त तत्त्वसे जो इन वैश्योंको विरासतके रूपमें प्राप्त हुआ था, जिसका से दूर रहता है। इसीसे सर्वथा एकान्त शासन इन्हें अपने जीवनमें अनुष्ठान करते हुए दूसरोको भी उससे 'सर्वोदयतीर्थ' नहीं कहला सकते। अथवा जिस शासनमें परिचित एवं उपकृत करते रहना चाहिये था, वहां वे स्वयं सर्वथा एकान्तोके विषम प्रवादोंको पचानेकी शक्ति- ही उसकी महत्तासे प्राय. अपरिचित रहे-उसके स्वरूपसे क्षमता नही है और न जो उनका परस्परमें समन्वय ही कर अनभिज्ञ रहे, अतएव उसे वे अपना ही सम्प्रदाय धर्म समझने सकता है वह शासन कदाचित भी 'सर्वोदय' शब्दका वाच्य लगे। यही वह कारण है जिसकी वजहसे इसका प्रचार व नहीं हो सकता । जो धर्म या शासन स्याद्वादके समुन्नत
प्रसार जिस रूपमें होना चाहिये था नही हुआ और उसके सिद्धान्तसे अलंकृत है, जिसमें समता और उदारताका अनुयाइयोंकी संख्या दिन पर दिन घटती गई और वह सुधारस भरा हुआ है, जो स्वप्नमें भी किसी प्राणीका करोडोंसे घटकर बीस लाखके अनुमान रह गई। अकल्याण नहीं चाहता-पाहे वह किसी नीची-से-नीची जिस तीर्थ में विश्व व्यापी होनेकी शक्ति स्वयं विद्यमान पर्याय में ही क्यों न हो, जो अहिंसा अथवा क्यासे ओत-प्रोत हो, जिसका मूर्तिमान रूप विश्वके प्रत्येक प्राणीके हित एवं है, जिसके प्राचार-व्यवहारमें दूसरोंको दुःखोत्पादनको कल्याणकी भावनासे ओत-प्रोत हो, जिसकी उपासना अभिलाषा कर बत्री-भावनाका प्रवेश भी न हो. पंच एवं भक्तिसे बघता श्री भाता परिणत हो जाती हो,
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किरण १
भगवान महावीर और उनका सर्वोदय तीर्य
५७
बह शासन ही विश्वमें हितकारी और उपादेय हो सकता इनके सिवाय देशकी विषम परिस्थिति, राज्याश्रयका है; परन्तु खेद है कि ऐसे महान शासनके अनुयायी आज उसे अभाव, युद्ध, लड़ाई-झगड़े आदि अनेक कारण और भी है भूल चुके है, उनमें विचार-विभिन्नताके कारण संघर्षस्वरूप जो इसकी प्रगतिमें बाधक हुए है। दिगम्बर, श्वेताम्बर, काष्ठासंघ, माथुरसंघ, सेनसंघ, देव- जनसमाजका यह कितना नैतिक पतन हुआ, और वह संघ, और अनेक गणगच्छ तथा तेरापंथ, वीसपंथ, तारणपथ अपने धर्मके वास्तविक स्वरूपसे कितना अनभिज्ञ रहा, कि दस्सा, बीसा आदि अनेक भेद-प्रभेद होते गए, जिनमें से कुछ उस 'सर्वोदय तीर्थ'को अपना सम्प्रदाय समझने लगा जो उसे आज भी मौजूद है । वह शासन अनेक जाति-उपजातियोंमें आत्म-गौरवके लिये मिला था। इतना ही नही, किन्तु बंट गया और इस तरह जातिभेद संघभेद आदिकी गहरी उसे अपनी बपौती जायदाद समझने लगा; पर वह यह भूल दलदलमें फंस गया जिसका दर्शन विशाल साहित्य तथा गया कि धर्म वस्तका स्वभाव है, वह किसी सम्प्रदाय विशेषइतिहासकै अवलोकनसे होता है । ये सब भद हा इसका की सम्पत्ति नही बन सकता और न कोई उसे एक मात्र अवनतिके प्रधान कारण है क्योकि वे सब अनकान्तदृष्टि- अपने अधिकारमें रख ही सकता है। धर्मका उदय तो सबके से सर्वथा दूर है। जहां अनेकान्त उन सबमें समन्वय कर लिये दया। सभी लोग उसका
लिये हुआ है। सभी लोग उसका आचरण कर अपना विकास सकता था और उनके परस्पर भेदको मिटा कर उनमें प्रेम- कर सकते है। मनुष्योंकी तो बात क्या, हाथी आदि तिर्यचं का आभसचार कर सकता था वहा व सब उसका आर पाठ जीवोने भी उसका अनुष्ठान कर अपना आत्मकल्याण किया दिये हुए थे-उसे सर्वथा भूल गये थे। और विचार-संकीर्णता,
है। इस प्रकारके पौराणिक उदाहरण जैनधर्मकी उदारता अनदारता उनमे इतना घर कर गई थी कि वे एक दूसरेकी और उसके सर्वोदयतीर्थ होनेके उज्जवल प्रमाण है । इसके बातको सहने-समझनेकी भी आवश्यकता नही समझते सिवाय आगममें चारों गतिके संजी पर्याप्तक जीवोंके थे, इसीसे वे अवनत दशाको प्राप्त हुए। यहां आचार्य सम्यग्दर्शन होनेका उल्लेख किया गया है। उसमें जाति समन्तभद्रके युक्त्यनुशासनका एक खास वाक्य उल्लेख- भेदको कोई स्थान नही है, और न यही बतलाया गया है कि नीय है :
अमुक जाति वाला सम्यग्दृष्टि हो सकता है तथा सद्धर्मकाल: कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतु प्रवक्तुर्वचनाऽनयो वा। का पालन कर सकता है। हीनसे हीन जाति वालेके भी स्वच्छासनकाधिपतित्व-लक्ष्मी-प्रभुत्वशक्तेरपवावहेतुः ॥
उच्च विचार हो सकते है और वह सम्यग्दर्शन जैसे रनको इस पद्यमें आचार्य समन्तभद्रने वीरशासनके विश्व
पाकर आत्मलाभ भी कर सकता है । यही तो वीर-शासनकी व्यापीन होनेके अपवादके तीन कारण बतलाये है-कलिकाल,
विशेषता है। श्रोताओंका कलुषाशय और प्रवक्ताका वचनानय। इनमें
वास्तवमें धर्म किसीके अधिकारकी वस्तु है भी नहीं, कलिकालका प्रभाव जैसे साधारण कारणके साथ कलुषाशय वह तो प्रत्येक जीवके अन्तरात्मामें निहित है। और न
ताके कथनमें नय सापेक्ष-दृष्टिका न होना य दा कोई उस धर्मके आचरणसे किसीको अलग ही कर सकता खास कारण है। क्याकि जब श्राताआका चित्त कलुषत है। उदाहरणके लिये मान लीजिये मै अहिंसा और सत्यका हाता ह, दशनमाहोदयसे आक्रान्त हाता ह तब पदाथका आचरण अपने जीवन कर रहा हूं तो कोई भी मानव मेरे यथार्थ स्वरूप प्रतिभासित नही होता। अतः विपरीताभि
उस अहिंसा और सत्य धर्मका अपहरण नही कर सकता, निवेशवश पदार्थोंकी अन्यथा कल्पना और हठधर्मी ही उक्त ।
भले ही मुझे आर्थिक और शारीरिक हानि उठानी पड़े; शासनके ग्रहणमें बाधक हुई है। इसी तरह बक्ताका नय-विषक्षा अथवा सापेक्ष दृष्टिकोणके बिना पदार्थका परन्तु वह मेरा धर्म मेरेसे अलग नहीं हो सकता। निरूपण करना, उपदेश देना भगवान महावीरके शासन- वर्णाश्रम और जातिभेद का समाजमें इतना गहरा प्रभाव प्रचारमें सबसे बड़ा बाधक कारण है। क्योंकि नयदृष्टिके
हा कि लोग धर्मके आयतनस्वरूप मन्दिरोंको भी धर्म बिना पदार्थका यथार्थ कथन नहीं हो सकता। इन दोनों
समझने लगे और स्वयं ही धर्मके ठेकेदार बन गये। उनमें कारणोंसे उक्त शासनका यथेष्ठ प्रचार नहीं हो सका और समशन लग जार स्वय हा धमक०कदार बन गय। उन न वह जगतका पूर्णतया उपकार करने में समर्थ ही हो सका। दूसरोंको प्रवेश नहीं करने देना जैसा एकान्त आग्रह करने
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५८ अनेकान्त
वर्ष १६ लगे । यदि किसी जैनीसे कदाचित् कोई अपराध बन गया तो ही परिणाम है । जातीय रीति-रिवाजोंके साथ धर्मसेवनका उसका द्वार भी जैन समाज एक अहिंसक समाज है, उसमें आत्मनिर्भयता बन्द कर दिया जाता था और फिर बार २ पंचोंकी अभ्यर्थना और वीरताकी कमी नहीं। अहिंसा धर्मने भारतको ही नहीं करने पर भारी दण्ड लेकर उसे मन्दिर प्रवेश करनेका किन्तु सारे विश्वको शान्तिका आदर्श मार्ग दिया है। अतः अधिकार दिया जाता था। अज्ञानी जन मन्दिरोंमें प्रतिष्ठित वह कितना प्रिय है इसे बतलानेकी आवश्यकता नहीं । मतियोंको देव मानते है और उन्हें उसी भावसे पूजते भी है। उसमें दया, दान, त्याग और समाधिकी उत्कट भावनायें पर वे उस मूर्तिसे मूर्तिमान देवका विचार नही करते, और अन्तनिहित हैं। ऐसे पवित्र धर्मकी उपासना एक जैन नहा-- न हृदय-मन्दिर में विराजमान उस आत्मदेवको समझने धोकर शुद्ध वस्त्र पहनकर अहिंसकवृत्तिसे-मद्य मांसावि एवं उसका साक्षात्कार करनेका ही प्रयत्न करते है। प्रत्युत, विकृत अभक्ष्य, अनुपसेव्य एवं अनिष्ट पदार्थोंके सेवनका उसका तिरस्कार करते है इच्छानुसार विविध सावध परित्याग करके-करता है और वह भी आत्मदेवके निरीप्रवृत्तियोंको करते हुए भी अहंकार वश अपनेको उच्च एव क्षणार्थ, ऐसी स्थितिमें जब तक हरिजन जैनधर्म बड़ा समझे हुए है। इसी अज्ञान भावसे अपना तो अकल्याण सम्मत अहिंसक वृत्तिका पालन नहीं करते, जैनोंके आचार करते ही हैं किन्तु साथ ही दूसरोके अकल्याणमें भी निमित्त एवं व्यवहार मार्गका अनुसरण कर अपनेको उस योग्य बन जाते है। जैनधर्म जहां उदार है वहा उसके अनुयायी नही बनाते और जैन धर्म में अपनी आस्था एवं श्रद्धा व्यक्त अनुदार और संकीर्ण है यह बड़े खेदकी बात है । आज भी नहीं करते, तब तक वे जैन मन्दिरोंमें प्रवेश पानेके अधिकारी मन्दिर प्रवेशाधिकार बिल को लेकर समाज में जो दो पार्टियां नही है।। हो गई है। कुछ लोग मन्दिर प्रवेशाधिकारसे जैनधर्मका विनाश
अब रही दर्शकके रूपमें जाने की बात, सो जैनमन्दिर और उसकी पवित्रताका नष्ट होना बतलाते है, तो दूसरी
केवल दर्शनकी वस्तु नही है वह तो आत्मदेव को पहचानने, ओर अनेक युक्तियों और पौराणिक उद्धरणों द्वारा उसे
आत्मनिरीक्षणादि करने तथा आत्माको निर्मल बनानेपुष्ट किया जाता है । पर इसमें सन्देह नहीं कि जैनधर्म
के विमल स्थल है। उनमें प्रतिष्ठित मूर्ति सबके लिये है। वह इतना कमजोर एवं असमर्थ भी नही है
वीतराग और शान्तिका अपूर्व मार्ग प्रदर्शित करती हैं, कि साधारण कारणोसे उसकी लोकव्यापी प्रतिष्ठाका
परस्पर में प्रेम की भावनाको प्रोत्तेजन देती है, वैर-भावको बिनाश संभव हो अथवा किसी तरहकी उसे ठेस पहुंच
विनष्ट करती है,और राग-द्वेषादि विभाव भावोंको जीतने सके तथा उसकी पवित्रतामें सन्देह किया जा सके, ऐसा
अथवा उनसे ऊपर उठनेकी मूक प्रेरणा करती है । भूले हुओं कोई कारण संभावित प्रतीत नहीं होता। जैनधर्मकी आत्मा
को आत्मस्वरूपकी याद दिलाती है। ऐसी स्थितिमें केवल तो अडोल है उसमें किसी प्रकारका विकार सम्भव नही है।
दर्शककी दृष्टिसे जाने वाला व्यक्ति आत्मकल्याणसे प्रायः क्योंकि उसके स्वरूपका निर्देश वीतरागी अर्हन्तोने किया
वंचित रहता है। हां, आत्म-कल्याणका इच्छुक व्यक्ति जिसहै। भले ही उसके अनुयाइयोंमें शिथिलता आ जाय, अथवा
की जैन धर्ममें आस्था है, जो उसके नियम उपनियमोंका वे उसके मर्मको भूल जाय और अन्यथा प्रवृत्ति करने लगें, पालन कर अपना समद्धार करनेका अभिलाषी है वह जैनपर उससे धर्मकी पवित्रतामें कोई हानि या विनाशकी धर्मकी शरणमें आकर अपना उत्थान कर सकता है। ऐसे संभावना नही है। दूसरे जिस धर्मकी छाया अथवा व्यक्तिके लिये कोई बन्धन नहीं है। प्रत्युत जिन्होंने जैन माश्रयसे पतित भी अपनी पतितावस्थाको छोड़कर वैभव- शासनका श्रद्धापूर्वक पालन किया, उसकी चर्याको जीवनमें सम्पन्न एवं निरंजन बने हों, मिथ्यादृष्टिसे सम्यग्दृष्टि हुए अंकित किया उनकी समाजने सवा प्रतिष्ठा ही की है। हों अथवा संसारके दुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखके भोक्ता अत: मन्दिर प्रवेश-अप्रवेश-सम्बन्धी दोनों एकान्तोंमें से बने हों, उसके विषयमें उक्त प्रकारकी कल्पना संगत नहीं कोई भी ठीक नही है। जान पड़ती, वह तो संकुचित एवं संकीर्ण मनोवृत्तिका सरसावा, ता. ११-२-५२
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वीर-शासनके कुछ मूल सूत्र
(संयोजक-'युगवीर') -सब जीव द्रव्य-दृष्टिसे परस्पर समान है।
१२-परमात्माकी दो अवस्थायें हैं, एक बोवन्मुक्त २-सब जीवोंका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही है। और दूसरी विदेहमुक्त ।
३-प्रत्येक जीव स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्त- १३-जीवन्मुक्तावस्थामें शरीरका सम्बन्ध जान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोंका रहता है, जबकि विदेहमुक्तावस्थामें कोई भी प्रकारके भाषार अथवा पिंड है।
शरीरका सम्बन्ध अवशिष्ट नहीं रहता। ४-अनादिकालसे जीवोंके साथ कर्ममल लगा हुआ १४-संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर ये मुल्यो है, जिसकी मूल-प्रकृतियां माठ, उत्तर प्रकृतियां एक सौ अड़- भेद हैं, जिनके उत्तरोत्तर मेव अनेकानेक हैं। तालीस और उत्तरोतर प्रकृतियां असंख्य है।
१५-एकमात्र स्पर्शन इनियके धारक जीव 'स्थावर' ५-स कर्ममलके कारण जीवोंका असली स्वभाव और रसनादि इन्द्रियों तथा मनके धारक जीव 'प्रस माच्छावित है, उनकी शक्तियां अविकसित है और वे परतन्त्र कहलाते है। हए नाना प्रकारकी पर्यायें धारण करते हुए नजर आते है। १६-जीवोंके संसारी मुक्तादि ये सब भेव पर्याय
६-अनेक अवस्थाओंको लिये हुए संसारका जितना वृष्टिसे है। इसी दृष्टिसे उन्हें अविकसित, अल्पविकसित, भी प्राणि-वर्ग है वह सब उसी कर्ममलका परिणाम है। बहुविकसित और पूर्णविकसित ऐसे चार भागोंमें भी -कर्ममलके भेवसे ही यह सब जीव-जगत भेद- बांटा जा सकता है।
१७-जो जीव अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे ८-जीवको इस कर्ममलसे मलिनावस्थाको 'विभाव- ही उनके पूज्य एवं आराध्य है जो अविकसित या अल्प विकपरिणति' कहते है।
सित है, क्योंकि आत्मगुणोंका विकास सबके लिये इष्ट है। ९-जब तक किसी जोवको यह विभावपरिणति बनी रहती है तब तक वह 'संसारी कहलाता है । और तभी
१८-संसारी जीवोंका हित इसी में है कि वे अपनी रागतक उसे संसारमें कर्मानुसार नाना प्रकारके रूप धारण करके
द्वेष-काम-क्रोषादिरूप विभावपरिणतिको छोड़कर स्वभावमें परिभ्रमण करना तथा दुःख उठाना होता है।
स्थिर होने रूप सिद्धिको प्राप्त करनेका यत्न करें। १०-जब योग्य-साधनोंके बलपर विभावपरिणति १९-सिद्धि स्वात्मोपलब्धिको कहते हैं। उसकी मिट जाती है, आत्मामें कर्ममलका सम्बन्ध नहीं रहता और प्राप्तिके लिये आत्मगुणोंका परिचय, गुणों में बर्बमान अनुराग उसका निजस्वभाव पूर्णतया विकसित हो जाता है तब वह और विकास-मार्गको वृद्ध भडा चाहिये। जीवात्मा संसारपरिभ्रमणसे छूट कर मुक्तिको प्राप्त होता २०-सके लिये अपना हित एवं विकास चाहने है और मुक्त सिड अमवा परमात्मा कहलाता है।
बालोंको उन पूज्य महापुरुषों मयबा सितास्माओंकी शरण११-आत्मकी पूर्णविकसित एवं परम-विशुद्ध में जाना चाहिये जिनमें मात्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें अवस्थाके अतिरिक्त परमात्मा या ईश्वर नामकी कोई या पूर्णरूपसे विकास हुआ हो, यही उनके लिये कल्याणका पुपरीवस्तु नहीं है।
सुगम-मार्ग है।
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६०
अनेकान्त
२१- शरणमें जानेका आशय उपासना-द्वारा उनके गुणोंमें अनुराग बढ़ाना, उन्हें अपना मार्गप्रदर्शक मानकर उनके पदचिह्नों पर चलना और उनकी शिक्षाओंदर अमल करना है ।
२२- सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्माओंकी भक्ति द्वारा आत्मोत्कर्ष साधनेका नाम ही 'भक्तियोग' है।
२३- शुद्धात्मोंके गुणोंमें अनुरागको तवनुकूल वर्तनको अथवा उनके गुणानुराग- पूर्वक आवर-सत्काररूप प्रवृत्तिको 'भक्ति' कहते हैं ।
२४ -- पुष्पगुणोंके स्मरणसे आत्मामें पवित्रताका संचार होता है।
२५ - सद्भक्तिसे प्रशस्त अध्यवसाय एवं कुशलपरिणामोंकी उपलब्धि और गुणावरोधक संचित कर्मोकी निर्जरा होकर आत्माका विकास सकता है ।
२६- सच्ची उपासनासे उपासक उसी प्रकार उपास्यके समान हो जाता है जिस प्रकार कि तैलाविसे सुसज्जित बत्ती पूर्ण तन्मयता के साथ दीपकका आलिंगनकरनेपर तद्रूप हो जाती है ।
२७ - जो भक्ति लौकिक लाभ, यश, पूजा-प्रतिष्ठा, भय तथा रूढि आदिके वश की जाती है वह सद्भक्ति नहीं होती और न उससे आत्मीय गुणोंका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है।
२८- सर्वत्र लक्ष्य-शुद्धि एवं भावशुद्धिपर दृष्टि रखनेकी जरूरत है, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है।
२९ -- बिना विवेकके कोई भी क्रिया यथार्थ फलको नहीं फलती और न विना विवेककी भक्ति ही सद्भक्ति कहलाती है ।
३० - जबतक किसी मनुष्यका अहंकार नहीं मरता तब तक उसके विकासकी भूमिका ही तैयार नहीं होती।
३१ - भक्तियोगसे अहंकार मरता है, इसीसे विकासमार्ग में उसे पहला स्थान प्राप्त है।
३२ -- बिना भावके पूजा-दान-जपाविक उसी प्रकार व्यर्थ हैं जिस प्रकार कि बकरीके गलेमें लटकते हुए स्तन ।
वर्ष ११
३४ – मोहके मुख्य दो भेद है एक दर्शनमोह जिसे मिथ्यात्व भी कहते है और दूसरा चारित्रमोह जो सदाचारमें प्रवृत्ति नहीं होने देता ।
३३- जीवात्माओंके विकासमें सबसे बड़ा बाधक कारण मोहकर्म है जो अनन्तदोषोंका घर है।
३५ - दर्शनमोह जीवकी दृष्टिमें विकार उत्पन्न करता है, जिससे वस्तुत्वका यथार्थ अवलोकन न होकर अन्यथा रूपमें होता है और इसीसे वह मिथ्यात्व कहलाता है ।
३६- दृष्टिविकार तथा उसके कारणको मिटानेके लिये आत्मामें तत्व-दचिको जागृत करनेकी जरूरत है
३७ -- तत्वदचिको उस समीचीन ज्ञानाभ्यासके द्वारा जाग्रत किया जाता है जो संसारी जीवात्माको तत्त्व-अतस्त्वकी पहचानके साथ अपने शुद्धस्वरूपका, पर-रूपका, परके सम्बन्धका, सम्बन्धसे होनेवाले विकार-दोषका अथवा विभाव परिणतिका, विकारके विशिष्ट कारणोंका और उन्हें दूर करके निर्विकार - निर्दोष बनने, बन्धनरहित मुक्त होने तथा अपने निजस्वरूपमें सुस्थित होनेका परिज्ञान कराया जाता है, और इस तरह हृदयान्धकारको दूर कर -- भूल-भ्रान्तियोंको मिटाकर -- आत्मविकासके सम्मुख किया जाता है ।
३८ - ऐसे ज्ञानाभ्यासको ही 'ज्ञानयोग' कहते है । ३९ -- वस्तुका जो निज स्वभाव है वही उसका धर्म है । ४० -- प्रत्येक वस्तुमें अनेकानेक धर्म होते हैं, जो पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुये अविरोध-रूपसे रहते है और इसीसे वस्तुका वस्तुत्व बना रहता है।
४१ -- वस्तुके किसी एक धर्मको निरपेक्षरूपसे लेकर उसी एक धर्मरूप जो वस्तुको समझना तथा प्रतिपादन करना वह एकान्त अथवा एकान्तवाद है। इसीको निरपेक्ष-नयवाद भी कहते है ।
४२ -- अनेकान्तवाद इसके विपरीत है। वह वस्तुके किसी एक धर्म का प्रतिपादन करता हुआ भी दूसरे धर्मोको छोड़ता नहीं, सबा सापेक्ष रहता है और इसीसे उसे 'स्याद्वाद' अथवा 'सापेक्षनयवाद' भी कहते है ।
४३ - जो निरपेक्षनयवाद है वे सब मिथ्यादर्शन हैं और जो सापेक्षनयवाद हैं वे सब सम्यग्दर्शन हैं।
४४ - निरपेक्षनय पर विरोधकी दृष्टिको अपनाये हुए स्वपरवरी होते है, इसीसे जगतमें अशान्तिके कारण हैं।
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किरण १
वीर-शासनके कुछ मूल सूत्र ४५-सापेक्षनय परके विरोषको न अपनाकर समन्वय ५८-तदतत्स्वभावमें एक धर्म दूसरे धर्मसे स्वतन्त्र की दृष्टिको लिये हुए स्वपरोपकारी होते हैं, इससे जगतमें न होकर उसकी अपेक्षाको लिये रहता है और मुख्य-गोषकी शांति-सुखके कारण है।
विवश उसकी व्यवस्था उसी प्रकार होती है जिस प्रकार ४६-द्दष्ट और इष्टका विरोषी न होनेके कारण कि मथानीकी रस्सीके दोनों सिरॉकी। स्यावाद निर्दोषवाद है जबकि एकान्तबाद दोनोंके विरोधको ५९-विवक्षित मुख्य और अविवक्षित गौण होता है। लिये हुए होनेसे निर्दोषवाद नहीं है।
६.-मुख्यके बिना गौण तथा गौणके बिना मुख्य नहीं ४७-'स्यात्' शब्द सर्वयाके नियमका त्यागी, पया- बनता। जो गौण होता है वह निरात्मक या सर्वथा अभावरूप इष्टको अपेक्षामें रखनेवाला, विरोधी धर्मका गौणरूपसे नहीं होता। बोतनकर्ता और परस्पर-प्रतियोगी वस्तु के अंगरूप षौकी
६१-वही तत्व प्रमाण-सिख है जो तबतत्स्वभावको संधिका विधाता है।
लिए हुए एकान्तवृष्टिका प्रतिषेधक है। ४८-जो प्रतियोगीसे सर्वथा रहित है वह आत्महीन ६२-वस्तुके जो अंश (धर्म) परस्पर निरपेक्ष हों होता है और अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता। वे पुरुषार्थके हेत अथवा अर्थ-क्रिया करने में समर्थ नहीं होते, ___ ४९स तरह सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक, अनेक, सापेक्ष अंश ही उस रूप होते है। शुभ-अशुभ, लोक-परलोक, बन्ध-मोक्ष, द्रव्य-पर्याय, सामान्य
६३-जो द्रव्य है वह सत्स्वरूप है। विशेष, विद्या-अविद्या, गुण-दोष अथवा विधि-निवेधाविके
६४-जो सत् है वह प्रतिक्षण उत्पाव-व्यय-प्रौव्यसे रूपमें जो असंख्य अनन्त जोडे है उनमेसे किसी भी जोके एक साथीके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं बन सकता।।
__६५-उत्पाद तथा व्यय पर्यायमें होते हैं और प्रौव्य गुण५०-एक धर्मीमें प्रतियोगी धर्म परस्पर अविनाभाव
में रहता है, इसीसे द्रव्यको गुण-पर्यायवान् भी कहा गया है। सम्बन्धको लिये हुए रहते है, सर्वथा रूपसे किसी एकको कभी व्यवस्था नहीं बन सकती।।
६६-जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता। ५१-विधि-निषेधाविरूप सप्त भंग संपूर्णतत्त्वार्थपर्यायों- ६७-जो सर्वथा असत् है उसका कभी उत्पाद नहीं में घटित होते है और 'स्यात्' शब्द उनका नेतृत्व करता है। होता।
५२-सारे ही नय-पक्ष सर्वथा रूपमें अति दूषित है और ६८-व्य तथा सामान्यरूपसे कोई उत्पन्न या विनष्ट स्थातरूपमें पुष्टिको प्राप्त है।
नहीं होता; क्योंकि द्रव्य सब पर्यायोंमें और सामान्य सब ५३-जो स्यावादी है वे ही 'सुवादी' है, अन्य सब विशेषोंमें रहता है। कुवादी है।
६९-विविध पर्याय व्यनिष्ठ एवं विविध विशेष १४ जो किसी अपेक्षा अथवा नयविवक्षाको लेकर सामान्यनिष्ठ होते है। वस्तुतत्त्वका कथन करते है वे स्याद्वादी है, भले ही 'स्यात्
७.-सर्वथा द्रव्यको तथा सर्वपापर्यायको कोई शम्बका प्रयोग साथमें न करते हों।
व्यवस्था नहीं बनती और न सर्वथा पृथग्भूत व्य-पर्याय५५-कुशलाऽकुशल-कर्माविक तया बन्ध-मोक्षाविककी
की मुगपत् ही कोई व्यवस्था बनती है। सारी व्यवस्था स्याद्वादियों अथवा अनेकान्तियोंके यहां हो
७१-सर्वथा नित्यमें उत्पाद और विनाश नहीं बनते, बनती है, दूसरोंके यहां वह नहीं बन सकती।
विकार तथा क्रिया-कारककी योजना भी नहीं बन सकती। ५६-सारा वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक है।
५७-जो अनेकान्तात्मक है यह अभेव-भेदात्मकको ७२-विषि और निवेष दोनों कर्वचित् इष्ट है, सर्वा तरह तक्ततस्वभावको लिये होता है।
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भनेकान्त ७३-विधि-निषेध विवक्षासे मुख्य-गौणकी व्यवस्था ९२-सबोध-पूर्वक बो बाचरण है वही सन्चारित्र
है अथवा ज्ञानयोगीके कर्मावानको निमित्तभूत बोलियम् -७४-वस्तुके किसी एक धर्मको प्रधानता प्राप्त होने- उनका त्याग सम्यक्चारित्र है। पर शेष धर्म गौण हो जाते है।
९३-अपने राग-मेष-काम-कोचास्मिोपोंको शान्त ७५-स्तु वास्तवम विधि-निवेवादि-स्प दो-दो करनेसे ही आत्मामें शान्तिको व्यवस्था और प्रतिष्ठा अवषियोंसे ही कार्यकारी होती है।
होती है। ७६बाह्य और माभ्यन्तर अथवा उपावाल और निमित्त
९४-ये राग-नेवावि-दोष, जो मनकी समताका निरादोनों कारणोंके मिलनेसे ही कार्यको निष्पत्ति होती है।
करण करनेवाले है, एकान्त धर्माभिनिवेश-मूलक होते हैं ___ो सत्य है वह सब बनेकान्तात्मक है, अनेकान्तके
और मोही जीवोंके अहंकार-ममकारसे उत्पन्न होते है। विना सत्यकी कोई स्थिति ही नहीं।
९५-संसारमें अशान्तिके मुख्य कारण विचार-पोष
और आचार-बोष हैं। ७८-जो अनेकान्तको नहीं जानता वह सत्यको नहीं " पहचानता, भले ही सत्यके कितने ही गीत गाया करे।
९६-विचारदोषको मिटानेवाला 'अनेकान्त' मौर ७९-अनेकान्त परमागमका बीज अथवा नागम- आचारदोषको दूर करनेवाली 'अहिंसा है। का प्राण है।
. ९७-अमेकान्त और अहिंसा हो शास्ता बीरविन
अपवावीरजिन-शासनके दो पद है। ८०-जो सर्वथा एकान्त है वह परमार्थ-शून्य है।
९८-अनेकान्त और हिंसाका मामय लेनेसे ही ८१-जो दृष्टि अनेकान्तात्मक है वह सम्यग्दृष्टि है।
विश्व शान्ति हो सकती है। ८२-मोवृष्टि अनेकान्तसे रहित है वह मिथ्या दृष्टि है।
९९-जगतके प्राणियोंको अहिंसा ही परमाह्म है, ८३-जो कथन अनेकान्तदृष्टिसे रहित है वह सब
किसी व्यक्तिविशेषका नाम परमब्रह्म नहीं। मिथ्या है।
१००-जहां बाह्याभ्यन्तर बोनों प्रकारके परिप्रहोंका ८४-सिद्धि अनेकान्तसे होती है।
त्याग है वहीं उस अहिंसाका वास है। ८५-सर्वथा एकान्त अपने स्वरूपकी प्रतिष्ठा करने में
१०१-जहां दोनों प्रकारके परिग्रहोंका भारवहन भी समर्थ नहीं होता।
अथवा वास है वहीं हिंसाका निवास है। ८६-ओ सर्वथा एकान्तबादी है वे अपने बरी माप हैं।
१०२-जो परिग्रहमें आसक्त है वह वास्तव में ८७-जो अनेकान्त-अनुयायी है वे वस्तुतः महज्जिन- हिंसक है। मतानुयायी है, भले ही वे 'महन्त' या जिनको म जानते हों।
१०३-आत्मपरिणामके घातक होनेसे मूठ, चोरी, ८८-चया, बम, त्याग और समाधिमें तत्पर रहना कुशील और परिग्रह ये सब हिंसाके ही रूप है। आत्मविकासका मूल है।
१०४-धन-धान्यादि सम्पत्तिके रूपमें जो भी सांसा. ८९-समीचीन धर्म सवृष्टि,सद्घोष और सच्चारित्र-रिक विभूति है वह सब बाघ परिग्रह है। रूप है, यही रत्नत्रय-पोत और मोलका मार्ग है।
१०५-आभ्यन्तर परिग्रह पनिनोह, राग, शेक, काल, १०-अनेकान्तवृष्टिको 'सदृष्टि' या सम्यग्दृष्टि कोष, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय और गुप्ता के
रूपमें है। १४ावृष्टिको लिये हुए जो ज्ञान है यह सदोष १०६-तृष्णा-मबीको अपरिपह-सूर्यकेशारा सुखाया
माता और विद्या-नौकासे पार किया जाता है।
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किरण १
परम उपास्य कौन ?
६३
१०७-पाको शान्ति बभीष्ट इम्निय-विषयोंकी ११४-वस्तु हो अबस्तु हो जाती है, प्रक्रियाके बदल सम्पत्तिसे नहीं होती, प्रत्युत इसके वृद्धि होती है।
जाने अथवा विपरीत हो जानेसे । १०८-आध्यात्मिक तपको वृति लिये है बाह्य ११५-कर्म कर्तारको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता। तप विषय है।
११६-जोकर्मका कर्ताह वही उसके फलका भोक्ताहै। १०९-यदि आध्यात्मिक तपकी वृद्धि ध्येय अथवा
११७ अनेकान्त-शासन ही अशेष-धोका आश्रय-भूत लक्ष्यमें न हो तो बाह्य तपश्चरण एकान्ततः शरीर-पीडन- और सर्व-आपदाओंका प्रणाशक होनेसे 'सर्वोदयती है। के सिवा और कुछ नहीं।
११८-जो शासन-वाक्य धोंमें पारस्परिक अपेक्षा११० सद्ध्यानके प्रकाशसे आध्यात्मिक अन्धकार
का प्रतिपावन नहीं करता वह सब धर्मास शून्य एवं विरोषदूर होता है।
का कारण होता है और कदापि 'सर्वोदयतीर्ष नहीं हो १११-अपने वोषके मूल कारणको अपने ही समाधि- सकता। तेजसे भस्म किया जाता है।
११९-आत्यन्तिक-स्वास्थ्य ही जीवोंका सच्चा स्वार्थ ११२-समाधिकी सिद्धिके लिये बाह्य और आभ्यन्तर है, क्षणभंगुर भोग नहीं। बोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग आवश्यक है।
१२०-विभावपरिणतिसे रहित अपने अनन्तज्ञानादि११३-मोह-शत्रुको सदृष्टि, संवित्ति और उपेक्षा- स्वरूपमें शाश्वती स्थिति हो 'आत्यन्तिकस्वास्थ्य कहलती म अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित किया जाता है।
है, जिसके लिये सवा प्रयत्नशील रहना चाहिये।
परम उपास्य कौन ?
वे है परम उपास्य, मोह जिन जीत लिया ॥घव।। काम-क्रोध-मद-लोभ पछाड़े सुभट महा बलवान । माया-कुटिलनीति-नागनि हन, किया आत्म-सत्राण ॥१॥ मोह.
ज्ञान-ज्योतिसे मिथ्यातमका जिनके हुआ विलोप ।
राग-द्वेषका मिटा उपद्रव, रहा न भय औं शोक ॥२॥ मोह. इन्द्रिय-विषय-लालसा जिनकी रही न कुछ अवशेष। तृष्णा नदी सुखादी सारी, घर असंग-व्रत-वेष ॥३॥ मोह.
दुख उद्विग्न करें नहिं जिनको, सुख न लुभावें चित्त।
आत्मरूपसन्तुष्ट, गिर्ने सम निर्धन और सवित्त ॥४॥ मोह. निन्दा-स्तुति सम लखें बने जो निष्प्रमाद निष्पाप । साम्यभावरस-आस्वादनसे मिटा हृदय:सन्ताप ॥५॥ मोह.
अहंकार-ममकार-चक्रसे निकले जो धर धीर ।
निर्विकार-निर्वैर हुए, पी विश्व-प्रेमका नीर ॥६॥ मोह. साप आत्महित जिन वीरोंने किया विश्व-कल्याण। 'युग-मुमुक्षु' उनको नित ध्यावे, छोड़सकल अभिमान ॥७॥ मोह.
-युगबीर
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FIND TH
अज-सम्बोधन (वध्य-भूमि कोजाता हुमा बकरा)
हे अज !क्यों विषण्ण-मुख हो तुम, किस चिन्ताने घेरा है ? पर न उठता देख तुम्हारा, खिन्न चित्त यह मेरा है। देखो, पिछली टांग पकड़ कर, तुमको वषक उठाता है । और बोरसे चलनेको फिर, धक्का देता जाता है !!
कर देता है उलटा तुमको दो पैरोंसे खड़ा कभी ! दाँत पीस कर ऐंठ रहा है कान तुम्हारे कभी कभी !! कभी तुम्हारी क्षीण-कुक्षि मुक्के खूब जमाता है ! अण्ड-कोषको खींच नीच यह फिर फिर तुम्हें चलाता है!!
सहकर भी यह घोर यातना, तुमनहिं कदम बढ़ाते हो, कभी दुबकते, पीछे हटते, और ठहरते जाते हो !! मानों सम्मुख खड़ा हुआ है सिंह तुम्हारे बलधारी, आर्तनावसे पूर्ण तुम्हारी 'मे में है इस बम सारी !!
शायद तुमने समझ लिया है अब हम मारे जावेंगे, इस दुर्बल औं दीन-दशामें भी नहि रहने पावेंगे !! छाया जिससे शोक हृदय में इस जगसे उठ जानेका, इसी लिए है यत्न तुम्हारा, यह सब प्राण बचाने का !!
पर ऐसे क्या बच सकते हो, सोचो तो, है ध्यान कहां ? तुम हो निबल, सबल यह घातक, निष्ठुर, करुणा-हीन महा। स्वायं-साधुता फैल रही है, न्याय तुम्हारे लिए नहीं ! रक्षक भक्षक हुए, कहो फिर,कौन सुने फरियाद कहीं !!
इससे बेहतर खुशी खुशी तुम वध्य-भूमिको जा करके, बधक-छुरीके नीचे रख दो निज सिर, स्वयं मुका करके। 'आह भरो उस बम यह कहकर,"हो कोई अवतार नया, महावीरके सदृश जगतमें, फैलावे सर्वत्र दया" ॥
-युगवीर
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मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीका 'ट्रस्टनामा"
और पब्लिक ट्रस्टके रूपमें 'वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट' की स्थापना
[मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीने सन् १९४२ में अपना 'वसीयतनामा' लिखकर उसकी रजिस्टरी करादी थी, जिसमें अपने द्वारा संस्थापित 'वीर-सेवा-मन्दिर के लिये ट्रस्टकी भी एक योजना की गई थी। यह योजना उनके देहावसानके बाद ही कार्य में परिणत होती। अब उन्होंने अपने जीवनमें ही उक्त ट्रस्टकी स्थापना करके उसे पब्लिक-ट्रस्टका रूप दे दिया है, ट्रस्टकी रजिस्ट्री करा दी है और अपनी सम्पत्ति ट्रस्टियोके सुपुर्द कर दी है। उनके ट्रस्टनामा ( Deed of Trust) की पूरी नकल सर्वसाधारणकी जानकारीके लिये यहां प्रकाशित की जाती है।
-नेमिचन्द वकील, मंत्री वीरसेवामन्दिरट्रस्ट']
श्रीसमन्तभद्राय नमः मैकि जुगलकिशोर 'मुख्तार' पुत्र चौधरी लाला नत्थूमल व पौत्र चौधरी लाला धर्मदासका, जातिसे जैन अग्रवाल सिंहल-गोत्री, निवासी कस्बा सरसावा तहसील नकुड़ जिला सहारनपुरका हूं।
जो कि में सम्पत्तिवान हूं और मेरे कोई सन्तान पुत्र या पुत्रीके रूप में नहीं है, धर्मपत्नी श्रीमती राजकली देवी भी जीवित नहीं है-उसकी मृत्यु १६ मार्च सन् १९१८ ईस्वीको हो चुकी है, अपनी पचास वर्षकी उम्र हो जाने पर के शुरु दिन ता० ४ दिसम्बर सन् १९२७ को मेरे ब्रह्मचर्यव्रत ले लेनेकी वजहसे इन दोनोंकी यानी पत्नी और सन्तानकी आगे को कोई सम्भावना व आवश्यकता भी अवशिष्ट नही है और दत्तक पुत्र लेनेके विचारको मै बहुत अर्सेसे छोड़ चुका हूं। इसके सिवाय, मंगसिर सुदि एकादशी सम्बत् १९३४ विक्रमका जन्म होनेके कारण उम्र (आयु) भी मेरी इस वक्त ७३ वर्षसे ऊपर हो गई है और १२ फर्वरी सन् १९१४ को मुख्तारकारी छोड़ देनेके वक्तसे मेरी चित्तवृत्ति एवं आत्म-परितका झुकाव अधिकसे अधिक लोकसेवा यानी पब्लिक सर्विस और धर्म एवं जातिको खिदमतकी तरफ होता चला गया है, जिसका आखिरी नतीजा यह हुआ कि मैने जीवनके उस ध्येय (मकसद) को कुछ आला पैमाने पर पूरा करनेके लिये अपनी जात खाससे खुदकी पैदा की हुई भारी रकम लगाकर अपनी जन्मभूमि कस्बा सरसावामें 'वीर-सेवा-मन्दिर' नामक एक आश्रमकी स्थापनाके लिए बिल्डिग ( building ) का निर्माण किया, जो अम्बाला-सहारनपुर-रोड पर स्थित है और जिसमे उक्त आश्रमके उद्घाटन की रस्म (opening ceremony) वैशाख सुदि ३ (अक्षय तृतीया) सम्बत् १९९३ मुताबिक ता० २४ अप्रेल सन् १९३६ को एक बड़े उत्सवके रूपमें अमलमें आई थी। उद्घाटनकी रस्मके बादसे उक्त आश्रममें पब्लिक लाइब्रेरी, कन्या-विद्यालय, धर्मार्थ औषधालय, अनुसन्धान ( Research ), अनुवाद, सम्पादन, प्राचीन ग्रन्थ-संग्रह, ग्रन्थनिर्माण, ग्रन्थप्रकाशन और 'अनेकान्त' पत्रका प्रकाशनादि जैसे लोकसेवाके काम होते आये हैकन्या-विद्यालय और औषधालयको छोड़कर शेषकार्य इस वक्त भी उसम बराबर हो रहे है-धार्मिक और लोक-सेवा ( Religious and charitable) जैसे कामोंके लिये ही वह संकल्पित है, कई विद्वान् पंडित उसमें काम करते है, मै भी वहीं रहकर दिन रात सेवा-कार्य किया करता हूं और वही मेरी सारी तवज्जह ( attention) और ध्यानका केन्द्र बना हुआ है। १. यह ट्रस्टनामा ४६८)के ८स्टाम्पों पर है जिनकी खरीद २० अप्रेल सन् १९५१को खजाना कलक्टरी सहारनपुरसे हुई
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अनेकान्त
[वर्ष ११
उक्त 'बीर-सेवा-मन्दिर को अपनी सम्पत्तिका सबसे बड़ा हकदार और वारिस समझकर मैंने उसके हकमें एक वसीयतनामा ता० २० अप्रेलको स्वयं अपनी कलमसे लिखकर उसे २४ अप्रेल सन् १९४२ ई० को सहारनपुरमें सब-रजिस्ट्रार, के यहां रजिस्ट्री करा दिया था, जिसमें वीरसेवामन्दिर संस्थाकी भावी उन्नतिके लिए 'वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट की भी एक योजना की गई थी और उसके उद्देश्य व ध्येय निर्षरित किये गये थे। अब में अपने जीवन में ही 'वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट' को कायम करके और उसको अपनी सम्पत्ति देकर भावी चिन्ताओंसे मुक्त होना चाहता हूं और चाहता हूं कि ट्रस्टकी कार्रवाई मेरे सामने ही अबाधितरूपसे प्रारम्भ हो जाय । उसीके लिए यह दस्तावेज़ ट्रस्टनामा ( Deed of Trust ) अपनी स्वस्थ दशामें बिना किसीके दबाव या जबरदस्तीके अपनी स्वतन्त्र इच्छा और खुशीसे लिख रहा हूं और इसके द्वारा बीरसेवामन्दिर-ट्रस्टको कायम करता हूं और यही वह ट्रस्ट होगा जिसका उल्लेख मेरे उक्त वसीयतनामा( Will ) में है और अब इसीके अनुसार ट्रस्टकी सब कार्रवाई संचालित हुआ करेगी।
ट्रस्टका और ट्रस्टको प्राप्त संस्थाका नाम, ट्रस्टके उद्देश्य व ध्येय, ट्रस्टकी सम्पत्ति, ट्रस्टियोंके नाम और ट्रस्टियोंके अधिकार व कर्तव्य निम्न प्रकार होंगे:
१. ट्रस्टका और दृस्टको प्राप्त संस्थाका नाम -इस ट्रस्टका नाम 'वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट' होगा और जिसके हितार्थ यह ट्रस्ट कायम किया गया है उस संस्था (Beneficiery) का नाम 'वीरसेवामन्दिर' है, जिसे मुझ ट्रस्ट-संस्थापक (Founder or author of the Trust) ने २४ अप्रेल सन् १९३६ ई० को अपनी जन्मभूमि सरसावा नगरमें संस्थापित किया था और जिसको जनता ( Public ) ने अपने दानों ( Donations) आदिके द्वारा अपनाया है तथा जिससे वह बराबर उपकृत एवं लाभान्वित होती रही है।
२. दृस्टके उद्देश्य और ध्येय-इस ट्रस्ट और वीरसेवामन्दिरके उद्देश्य और ध्येय (Aims and Objects) निम्न प्रकार होंगे, जो सब जैन धर्म और तदाम्नायकी उन्नति एवं पुष्टिके द्वारा लोककी सच्ची ठोस सेवाके निमित्त निर्धारित किये गये है
(क) जैनसंस्कृति और उसके साहित्य तथा इतिहाससे सम्बन्ध रखनेवाले विभिन्न ग्रंथों, शिला-लेखों, प्रशस्तियों, उल्लेख-वाक्यों, सिक्कों, मूत्तियों, स्थापत्य व चित्र-कलाके नमूनों आदि सामग्रीका लायब्रेरी व म्यूजियम (Library and Museum) आदिके रूपमें अच्छा संग्रह करना और दूसरे ग्रंथोंकी भी ऐसी लायब्रेरी प्रस्तुत करना जो धर्मादि-विषयक खोजके कामोंमें अच्छी मदद दे सके।
(ख) उक्त सामग्री परसे अनुसंधान-कार्य चलाना और उसके द्वारा लुप्तप्राय प्राचीन जैन साहित्य, इतिहास व तत्वज्ञानका पता लगाना और जैनसंस्कृतिको उसके असली तथा मूल रूपमें खोज निकालना।
(ग) अनुसंधान व खोजके आधार पर नये मौलिक साहित्यका निर्माण कराना और लोक-हितकी दृष्टिसे उसे प्रकाशित कराना; जैसे जैनसंस्कृतिका इतिहास, जैनधर्मका इतिहास, जनसाहित्यका इतिहास, भगवान महावीरका इतिहास, प्रधान प्रधान जैनाचार्योंका इतिहास, जाति-गोत्रोंका इतिहास, ऐतिहासिक जैनव्यक्तिकोष, जैनलक्षणावली, जैनपारिभाषिक शब्दकोष, जैनग्रंथोंकी सूची, जैन-मन्दिर-मूर्तियोंकी सूची और किसी तत्त्वका नयी शैलीसे विवेचन या रहस्यादि तैयार कराकर प्रकाशित करना ।
(घ) उपयोगी प्राचीन जैनग्रंथों तथा महत्त्वके नवीन ग्रंथों एवं लेखोंका भी विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओंमें नयी शैलीसे अनुवाद तथा सम्पादन कराकर अथवा मूलरूपमें ही प्रकाशन करना। प्रशस्तियों और शिलालेखों आदिके संग्रह भी प्रथक् रूपसे सानुवाद तथा बिना अनुवादके ही प्रकाशित करना।
(ङ) जैनसंस्कृतिके प्रचार और पब्लिकके आचार-विचारको ऊंचा उठानेके लिये योग्य व्यवस्था करना, वर्तमानमें प्रकाशित 'अनेकान्त' पत्रको चालू रखकर उसे और उन्नत तथा लोकप्रिय बनाना । साथ ही, सार्वजनिक उपयोगके पैम्पलेट व ट्रैक्ट (लघु-पत्र-पुस्तिकाएं) प्रकाशित करना और प्रचारक घुमाना।
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किरण १]
मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी का 'ट्रस्टनामा'
(च) जैन साहित्य, इतिहास और संस्कृतिकी सेवा तथा तत्सम्बन्धी अनुसंधान व नई पद्धति से ग्रंथ निर्माणके कामोंमें दिलचस्पी पैदा करने और यथावश्यकता शिक्षण (ट्रेनिंग) दिलानेके लिये योग्य विद्वानोंको स्कालशिप्स (वृत्तियांबजीफ़े) देना।
(छ) योग्य विद्वानोंको उनकी साहित्यिक सेवाओं तथा इतिहासादि-विषयक विशिष्ट खोजोंके लिये पुरस्कार या उपहार देना । और जो सज्जन निःस्वार्थ-भावसे अपनेको जैनधर्म तथा समाजकी सेवाके लिये अर्पण कर देवें उनके भोजनादि-खर्च में सहायता पहुंचाना ।
(ज) 'कर्मयोगी जैनमंडल' अथवा 'वीर-समन्तभद्र-गुरुकुल की स्थापना करके उसे चलाना ।
३. दृस्टकी सम्पत्ति—मेरी निम्नलिखित सम्पत्ति (जायदाद) जिसका मै हर तरहसे बिना किसीकी शराकत या साझेदारीके मालिक व काबिज है, जिस पर किफालत (बन्धकत्व) वगैरहका कोई भार नहीं है और जिस पर मुझे स्वतन्त्ररूपसे पूरा अधिकार किसीको देने या बेचने आदिका प्राप्त है, उसको मैं वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टकी सम्पत्ति घोषित करता हुबास्टियोंको (जिनमें वे सब ट्रस्टी शामिल है जिनके नाम नीचे दिये गये हैं, जो उनमें से अवशिष्ट रहें या रहे और जिसकी या जिनकी समय समय पर नये ट्रस्टीके रूपमें नियुक्ति की जाय, मुन्तकिल और समर्पित (Transfer and Assign) करता हूं और ट्रस्टीजन इस सम्पत्ति को वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टके हितार्थ अग्रोल्लेखित अधिकारों व कर्तव्यों और प्रतिबन्धनोंके साथ अपने अधिकारमें रखेंगे। (I hereby transfer and assign to the Trustees, which expression includes the Trustees named below, Survivor or Survivors of them and the Trustee or Trustees for the time being appointed for the Trust hereby created, all my property detailed below to hold the same to the Trustees upon the Trust and with and subject to the powers, provisions and conditions here-in-after declared and expressed concerning the same.)
यह सम्पत्ति अब वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टकी मौजूदा (वर्तमान) सम्पत्ति होगी और ट्रस्टके उक्त उद्देश्यों तथा ध्येयोंको अथवा उनमेंसे किसीके भी पूरा करनके काममें आवेगी। मैने इस सम्पत्तिसे अपना कब्जा व दखल मालकाना उठाकर ट्रस्टियोंका कब्जा व दखल करा दिया है। अब मेरा या मेरे स्थानापन्नों और उत्तराधिकारियोंका निजी कोई स्वत्व (Right), अधिकार अथवा सम्बन्ध किसी प्रकारका नहीं रहा और न आगामीको होगा
(अ) वीरसेवामन्दिर-बिल्डिंग, जिसकी चौहद्दी नीचे दी जाती है, मय उन सब इमारातके जो उस अहातेमें तामीर की गयी है जो बैनामा(विक्रय-पत्र) मवर्खा २५ फर्वरी व मुसद्दका रजिस्ट्री २८ फर्वरी सन् १९३४के द्वारा ला. नाहरसिंह जैन सरसावा निवासीके पाससे खरीद किया गया था और जिसमें भीतरकी तरफ नीचेकी मंजिलमें एक गुसलखाना तथा दो जीनोके अलावा एक हाल (Hall) व बारह कमरे हैं, ऊपरकी मंजिलमें, तीन कमरे हैं और बाहरकी तरफ तेरह दुकानें हैं, मय उक्त अहातेकी समस्त अराजी (भूमि) के जिसमें से कुछ अराजी दक्षिणद्वारकी तरफ अभी खाली पड़ी हुई है और जिसमें मकानों आदिके लिये कुछ बुनियादें भरवा दी गयी है, उस घेर-सहित जिसका विवरण अगले नं. (आ) में दिया गया है । इस बिल्डिंगसे किरायेकी सालाना आमदनी ६७२) है और मालियत २०४२५) रुपये है तखमीनन । बिल्डिंगकी चौहद्दी निम्न प्रकार है
पूर्वी हद-दरवाजा सदर वीरसेवामन्दिर-बिल्डिग तत्सम्बन्धी दुकानोंके दर्वाजों-सहित, मय चबूतरों-सायबानों व सहन (मांगन) वगैरह दुकानात और उनके बाद पड़ाव सरकारी ।
पश्चिमी हद-आबचक मुश्ता , जिसमें वीरसेवामन्दिर-बिल्डिगका पानी पड़ता व बहता है और उसकी निजी नाली भी मय पुश्तेके बनी हुई है तथा अपना एक बन्द दरवाजा भी उपर जानेके लिये है और जिसके बाद वारिसान ला. कबूलसिंह वगैरहके मकानात घोड़ेसे टूटे-फूटे मलबेकी शक्ल में पड़े हैं और कुछ मकानात वारिसान ला जीयालालके भी है।
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भनेकान्त
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उत्तरी हद-दरबाजा सदर (द्वितीय) बिल्डिंग-सम्बन्धी दुकानोंके दरवाजों-सहित, मय सहन दुकानोंके और उसके बाद सड़क सरकारी 'अम्बाला-सहारनपुर-रोड मय कूचा खास वीरसेवामन्दिर जो द्वितीय द्वार उत्तरमुखीसे होकर सड़क सरकारीसे जा मिलता है।
दक्षिणी हद--मदरसा सरकारी, कूचा खास मुश्ता , दरवाजा दक्षिणी वीरसेवामन्दिर-बिल्डिंग अभिमुख कुँचा खास मय अराजी सहन, मकानात वारिसान बाबू रामप्रसाद और पंचदरा मुत्ताल्लिक जैनमन्दिर मुसम्मात बुल्ली कवर।
(आ) एक घेर (अहाता) पूर्वमुखी, मय दो मकानात पूर्वमुखीके, जो बजरिये बैनामा मवर्खा १५ दिसम्बर सन् १९३६ व मुसद्दका रजिष्टरी १२ अप्रैल सन् १९३७ पाससे मुसम्मात पुष्पमाला व लाला समन्दरलाल जैनके ३००)तीन सौ रु० में खरीद किया था और जिसका जरूरी तामीर व मरम्मतके बाद एक दरवाजा उत्तरकी तरफ खोलकर उसे वीरसेवामन्दिरबिल्डिगमें शामिल कर लिया गया है, मय लघु बागीचेके जो उक्त अहाते में स्थित है और इसलिये इसकी हदें वीरसेवामन्दिर-विल्डिंगकी चौहद्दीमें आ गई है अर्थात् पूर्वमें वीरसेवामन्दिर-बिल्डिंगके दक्षिण-द्वारकी तरफ खाली पड़ी हुई अराजी है, पश्चिममें आबचकादिक है, दक्षिणमें वारिसान बाबू रामप्रसादके मकानात तथा उक्त पंचदरा है और उत्तरमें वीरसेवामन्दिर बिल्डिंग के मकान तथा भीतरी सहन (आगन) है। इस की मालियत जायदाद नं० (अ) में शामिल कर दी गई है।
(इ) एक हवेली पूर्वमुखी जद्दी, जो बैठक तथा मकतबके नामसे प्रसिद्ध है, सरसावा मुहल्ला कानूगोयानके चौकमें स्थित है और तकसीमनामा मवर्खा ११ फर्वरी सन् १९२८ व मुसद्दका रजिस्ट्री १३ फर्वरी सन् १९२८के द्वारा मुझे भाईबांटमें प्राप्त हुई है और जिसकी हदें नीचे दी जाती है। इससे किरायेकी सालाना आमदनी प्रायः ७२) रुपये है और इस लिये मालियत १४४०) के करीब है। हदें निम्न प्रकार है:
पूर्वी हद-चबूतरा ब सहन उक्त हवेली और उसके बाद रास्ता शारज आम। सहन मुश्तर्का है। पश्चिमी हद-अहाता दक्षिणमुखी लाला रूपचन्द अलीपुरा निवासीका । उत्तरी हद-मकानात हवेली ला. रूपचन्द जैन अलीपुरा निवासीके । दक्षिणी हद-आम रास्ता अर्थात् सड़क सरकारी ।
(ई) एक चौबारा सूर्यमुखी व दक्षिणमुखी जो उक्त मुहल्ला कानू गोयानमें अपनी पुरानी हवेली जद्दी पश्चिममुखीकी, जिसकी हदें नीचे दी जा रही है, ऊपरकी मंजिलमे स्थित है और अपना अपने भाइयोंका तथा पिता-पितामहादिका जन्मस्थान है और उक्त तकसीमनामाके द्वारा मुझे भाई-बाँटमें प्राप्त हुआ है। इससे किरायेकी सालाना आमदनी प्रायः ४८) रुपये है और इस लिये मालियत ९६०) रु. है। हदें हवेली पश्चिममुखी इस प्रकार है:
पूर्वी हद-मकानात वारिसना ला. गोविन्दराय साहब जैन । पश्चिमी हद-रास्ता शारा आम । उत्तरी हदमकानात ला० महावीर प्रसाद जैन चौरीवालोंके मय आवचक मुश्तर्का । दक्षिणी हद-रास्ता शारज आम ।
(उ) उक्त पुरानी हवेली जद्दी पश्चिममुखीके अन्य मकानात, जिनमें तीन कोठे एक तिदरी और तीन चौबारे तो बजरिये तबादलेनामा मवर्खा ६ मई सन् १९४८ व ततिम्मा (परिशिष्ट) तबादलेनामा मवर्खा ७ मई, दोनों मुसद्दका रजिस्ट्री ७ मई सन् १९४८ के चि० बाबू प्रदमन कुमार के पास से मेरी मिलकियत और कब्जे व दखलमें आये हैं और जिनके कुछ हिस्सोंके गिर जाने आदिके कारण उन्हें बादको बनवाया गया है, और एक कोठा बजरिये बैनामा मवर्खा १४ नवम्बर वमुसहका रजिस्ट्री १५ नवम्बर सन् १९४९ पास से डा. श्री चन्द पुत्र बाबू रामप्रसाद के खरीदा गया और जिसके ऊपर चौवारा नं (ई) स्थित है। इन मकानोंसे किरायेकी सालाना आमदनी प्रायः १२०) और इस लिये मालियत प्रायः २४००) रु. है।
(ऊ) देहली क्लाथ एंड जनरल मिल्स कं. लिमिटेड देहलीके सात सौ छह आडिनेरी शेयर्स (Ordinary Shares) जिनके नम्बर इस प्रकार है-१४६२३५ से १४६४५४ तक, २६०५६९ से २६०६७८ तक, ४७५४९१ से ४७५५१३ तक, ६४०८९८ से ६४१११७ तक, ७५५२३२ से ७५५३४१ तक, ९७०१५४ से ९७०९७६ तक । इन में से प्रत्येक शेयर (हिस्से)
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किरण १
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर का 'ट्रस्टनामा'
की फेस वेल्यू ( Face value) २५) है और ये सब शेयर्स क्रमशः सार्टिफिकेट नं. ५०५,११४ प्रत्येक मवर्खा ३० अप्रैल सन १९३९ वनं. २९१८ मवर्खा १० मार्च सन् १९४१ (ट्रांसफर नं.६०६७ मवर्खा १९ मार्च सन् १९४१) नं. ८९/४३६, ९४/९६१, १०८/२३९८ प्रत्येक मवर्खा १५ जनवरी सन् १९४७ में दर्ज है । मालियत प्रायः १७६५०) रु. है।
(ऋ) देहली क्लाथ ऐंड जनरल मिल्स कम्पनी लिमिटेड देहलीके ६० क्यूम्यूलेटिव प्रिफिरेंस शेयर्स (Cumulative Preference Shares), जिनसे फर्स्ट क्यू. प्रि. शेयर्सके नं. १८७१७ से १८७४६ तक हैं, जो सार्टिफिकेट नं. ३५९ मवर्खा ३० अप्रेल सन् १९३९ में दर्ज है, और ३० सैकेंड क्यू. प्रि. येशेयर्सके नं. ५३३७१ से ५३३९० तक तथा ६३१८४ से नं. ६३१९३ तक है जो क्रमशः सार्टिफिकेट नं. ५३० व ५९८, प्रत्येक मवर्खा ३० अप्रैल सन् १९३९ में दर्ज हैं। इनमेंसे प्रत्येक शेयरकी फेस वेल्यु भी २५) रु. है। मालियत प्रायः १५००) है।
(ऋ) साउथ बिहार सुगर मिल्स लिमिटेड कम्पनीके पचास आडिनेरी ( Ordinary ) और पचास डिफर्ड ( Deferred ) शेयर्स, जिनमेंसे आडिनेरी शेयर्सके नं. ५९५९९ से ५९६४८ तक हैं, जो साटिफिकेट ( Script )नं. ७९० मवर्खा २७ मार्च सन् १९३३ ट्रांसफर नं. ८ मबर्खा १० अगस्त सन् १९३३ में दर्ज है और डिफर्ड शेयर्सके नं. ४९५९६ से ४९६४५ तक है जो सार्टिफिकेट ( Script ) नं. ४२० मवर्खा १९ जुलाई सन् १९३९ में दर्ज है। इनमेंसे आडिनेरी शेयर्सकी फेस वेल्यू १०) प्रति शेयर और डिफर्ड शेयर्सकी फेस वेल्यू २॥) प्रति शेयर है । कुल मालियत ६२५) रु. है।
(ल) मेरी निजी लायब्रेरी मय तत्सम्बन्धी सामानके, जिस सबकी तफसील वीरसेवामन्दिरके रजिस्ट्ररोंमें दर्ज है । मालियत प्रायः ५००००) रु. है।
नोट-उक्त सम्पत्तिके अलावा जो सम्पत्ति नकदी, ग्रंथ, फर्नीचर या अन्य सामान आदिके रूपमें मुझे वीरसेवामन्दिरके लिये किसीसे भी प्राप्त हुई है या वीरसेवामन्दिरको प्राप्त आर्थिक सहायताके आधार पर खरीदी गयी है अथवा प्रकाशित-अप्रकाशित ग्रंथों आदिके रूपमें तैयार कराई गई है और जिसकी तफसील वीरसेवामन्दिरके रजिस्ट्ररोंमें दर्ज है वह मेरी निजी चीज या सम्पत्ति न होकर पहलेसे ही वीरसेवामन्दिरकी सम्पत्ति है और रहेगी।
(ट्रस्ट की सम्पत्ति (अ) से (ल) तककी कुल मालियत पचास हजार रु. के अन्दर है।)
४. इस्टियों के नाम-वीरसेवामन्दिर ट्रस्टके जो ट्रस्टी फिलहाल नियुक्त किये गये हैं उनके नाम मय पतेके इस इस प्रकार है
(१) बाब छोटेलालजी जैन सुपुत्र सेठ रामजीवन सरावगी, २९ इन्द्र-विश्वास रोड, पोष्ट बेलगछिया, कलकत्ता ३७॥
(२) लाला कपूरचन्दजी सुपुत्र ला. मूलचन्द्रजी जैन, मालिक फर्म 'विशेसुरनाथ मूलचन्द' टिम्बर मर्चेण्ट्स किराची खाना, कानपुर ।
(३) लाला जुगलकिशोरजी कागजी सुपुत्र लाला सरदारीमलजी जैन, पार्टनर फर्म 'धूमीमल धर्मदास', चावड़ी बाजार, देहली।
(४) बाबू जय भगवानजी एडवोकेट, सुपुत्र ला. सुलतानसिंहजी, पानीपत (ई. पंजाब)। (५) बाबू नेमचन्दजी एडवोकेट, सुपुत्र ला. धवलकिरतजी जैन, यादगारका वड़तल्ला, सहारनपुर । (६) बाबू नानकचन्दजी सुपुत्र ला. चिरंजीलालजी जैन रिटायर्ड एस.डी.ओ, जमींदार सरसावा जि. सहारनपुर । (७) जुगलकिशोर मुख्तार पुत्र ला. नत्थूमलजी जैन, अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर', सरसावा जि. सहारनपुर।
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अनेकान्त
५. दृस्टियोंके अधिकार व कर्तव्य-प्रस्तुत -वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टके ट्रस्टियोंके अधिकार व कर्तव्य निम्न प्रकार होंगे:
(१) ट्रस्टके उद्देश्यों व ध्येयोंको पूरा करने कराने के लिये हर संभव प्रयत्न करना ट्रस्टियोंका प्रधान कर्तव्य होगा और इसके लिये वे सम्पत्तिकी रक्षा, वृद्धि तथा सदुपयोगकी तरफ अपना पूरा ध्यान रखेंगे।
(२) द्रस्टियोंको अधिकार होगा कि वे ट्रस्टके उक्त उद्दश्यों तथा ध्येयोंको पूरा करने करानेके लिये अनेक विभाग मा डिपार्टमेंट कायम करें, संस्थाकी शाखाएं अथवा उपशाखाएं खोलें और उनकी ऐसी प्रबन्धकारिणी समितियां (कमेटियां) नियत करें जो ट्रस्टियोंकी देख-रेख में ट्रस्टियों द्वारा निर्धारित नियमोंके अनुसार अपना अपना कार्य सम्पन्न करेंगी और जिनमें ऐसे व्यक्ति भी शामिल किये जायेंगे जो ट्रस्टीज ( Trustees ) नही होंगे।
(३) ट्रस्टी जनोंको अधिकार होगा कि वे आवश्यकतानुसार नये ट्रस्टियोंका चुनाव करके अपनी संख्यावृद्धि करलें, परन्तु किसी भी समय ट्रस्टियोकी संख्या पन्द्रहसे अधिक नही होगी और न सातसे कम ही रहेगी।
(४) ट्रस्टियोंको अधिकार होगा कि वे अपनेमेंसे किसीको प्रधान, मन्त्री, कोषाध्यक्ष आदि पदाधिकारी नियत करल और ऐसे नियम-उपनियम भी निर्धारित करलें जो दृस्टके उक्त उद्देश्यों तथा ध्येयोंको ठीक तौरसे पूरा करने और ट्रस्टियोंकी कर्तव्य-पूर्तिके लिये जरूरी तथा मुनासिब हों। पदाधिकारियोंका चुनाव त्रिवार्षिक हुआ करेगा। दृस्टियोकी मीटिंग कम से कम छह महीने में एक बार जरूर हुआ करेगी। मीटिंगका कोरम किसी भी समय एक बटा तीन ट्रस्टियोंसे कमका नहीं होगा और ट्रस्टकी सब कार्रवाई बहुमतसे सम्पन्न हुआ करेगी। कोरमके लिये तिहाईका बटवारा बराबर न होनेपर बटाईके अंश अथवा उसकी कसरको एक व्यक्ति माना जायगा। यदि कोई मीटिंग पूरा कोरम न होनेके कारण स्थगित होगी तो अगली मीटिंग कोरमके पूरा न होनेपर भी की जा सकेगी।
(५) यदि कोई ट्रस्टी त्यागपत्र (इस्तीफा) दे, ट्रस्टके कामको ठीक तरह करनेके योग्य न रहे या कानूनी दृष्टिसे ट्रस्टका मेम्बर न रह सके अथवा किसी दैवी घटनासे उसका स्थान रिक्त (खाली) हो जाय तो ऐसी सब हालतोंमें शेष ट्रस्टियोंको अधिकार होगा कि वे ट्रस्टियोंकी न्यूनतम संख्या आदिको ध्यानमें रखते हुए यदि आवश्यक समझें तो दृस्टियोकी एक मीटिंग बुलाकर उसके स्थानपर कोई ऐसा नया ट्रस्टी चुन लेवें जो दृस्टीके कामको ठीक तौरसे सम्पन्न कर सके और जिससे ट्रस्टके कामोंमें अच्छी सहायता मिल सके और इस तरह बाद को नियुक्त हुआ हर ट्रस्टी आदिम अथवा अपने पूर्ववर्ती ट्रस्टियोंके समकक्ष होगा और उसको भी ट्रस्टीके सब अधिकार प्राप्त होंगे।
(६) यदि कोई ट्रस्टी ट्रस्टकी लगातार तीन मीटिंगोंमें बिना किसी खास कारणके अनुपस्थित रहेंगे तो उनसे पूछने के बाद ट्रस्टके प्रति उनकी उपेक्षा मालूम होनेपर शेष ट्रस्टियोंको उन्हें ट्रस्टसे पृथक् कर देने और उनके स्थानपर दूसरा योग्य ट्रस्टी चुन लेनेका अधिकार होगा। इस नयेचुने ट्रस्टीको भी ट्रस्टीके सब अधिकार प्राप्त होंगे।
(७) यदि कोई सज्जन 'वीरसेवामन्दिर' या 'वीरसेवामन्दिरट्रस्ट'को अपनी कोई चल या अचल सम्पत्ति प्रदान करना चाहें अथवा कर जाय तो ट्रस्टियोंको उसे ग्रहण करने तथा ट्रस्टके कामोंमें खर्च करनेका पूरा अधिकार होगा। ऐसी बादको प्राप्त सम्पत्ति भी ट्रस्टकी सम्पत्ति समझी जावेगी और उसके साथ भी इस ट्रस्टकी सम्पत्ति-जैसा व्यवहार होगा।
(८) ट्रस्टियोंको ट्रस्टकी जायदाद मौजूदा व आयन्दाका किराया, मुनाफा, लगान, सूद और इनकमटैक्सकी वापिसी आदि वसूल करने और सब प्रकारके प्रबन्ध करनेका पूरा अधिकार होगा। ऐसे रुपयेको भी वसूल करनेका उन्हें अधिकर होगा जिसे कोई कहीं वीरसेवामन्दिरको दान कर गया हो।
(९) ट्रस्टीजन ट्रस्टकी आमदनी और खर्चका हिसाब बाकायदे रक्खेंगे और उसे किसी योग्य ऑडीटर (Auditor) से बऑडिट (जांच) कराकर वार्षिक रूपमें सर्वसाधारणकी जानकारीके लिये अवश्य प्रकाशित करते रहा करेंगे।
(१०) वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टके लिये किसी शीडयूल्ड ( Scheduled ) बैंक या बैंकोंमें या पोस्ट
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किरण १
मुख्तार श्रीजुगुलकिशोरजीका 'ट्रस्टनामा'
बाफिसमें एकाउन्ट (हिसाब) खोला जायगा और ट्रस्टका प्राय: सब रुपया उक्त बैंक या बैंकों आदिमें जमा रहेगा और जरूरत पड़नेपर ट्रस्टकी व्यवस्थाके अनुसार प्रधान अथवा मन्त्री आदिके हस्ताक्षरोंसे निकाला जायगा। यदि ट्रस्टके हित एवं लाभकी दृष्टिसे तीन चौथाई ट्रस्टियोंकी सम्मति हो तो ट्रस्टका कुछ रुपया किसी विश्वस्त फर्म या व्यक्ति विशेषके पास भी जमा हो सकेगा।
(११) ट्रस्टीजन ट्रस्टको प्राप्त होनेवाली वार्षिक आमदनीके प्रायः भीतर ही वार्षिक खर्च किया करेगे और जहां तक भी हो सकेगा आमदनीका दसवां हिस्सा हर साल जरूरतके लिये रिजर्व ( Reserve ) रक्खा करेगे।
(१२) यदि किसी समय ट्रस्टीजन यह अनुभव करें कि ट्रस्टके उद्देश्यों व ध्येयोंकी यथेष्ट पूर्ति के लिये वीरसेवामन्दिर आश्रमका देहली आदि किसी अन्य स्थानमें स्थान परिवर्तन होना अत्यन्त आवश्यक है तो उन्हें अधिकार होगा कि वे इस संस्थाका स्थान-परिवर्तन उस दूसरे स्थानपर कर देवें; लेकिन शर्त यह है कि उस दूसरे स्थानपर ट्रस्टके कामोंके लिये पहलेसे बिल्डिगका अच्छा योग्य प्रबन्ध हो और कुछ सज्जनोंका ट्रस्टके कामोंमें हार्दिक सहयोग भी प्राप्त हो। परन्तु दूसरे स्थानपर ले जाकर इस सस्थाको सस्थापककी स्पष्ट इच्छा और अनुमतिके विना किसी दूसरी संस्थामें शामिल या अन्तर्लीन नही किया जायगा । इसका अस्तित्व 'वीरसेवामन्दिर' के नाम और कामके साथ अलग ही रहेगा।
(१३) यदि 'वीरसेवामन्दिर' संस्थाको स्थायी रूपसे किसी दूसरी जगह लेजाया जाय तो सरसावामें वीरसेवामन्दिरकी जो विशाल बिल्डिंग है वह बदस्तूर वीरसेवामन्दिर-बिल्डिंग के नामसे ही कायम रक्खी जायगी और ट्रस्टियोके ही प्रबन्ध, निरीक्षण एवं व्यवस्थाके आधीन रहेगी। ट्रस्टीजन उसे या उसके किसी भागविशेषको जैनियोंके किसी गुरुकुल, हाईस्कूल, त्यागी-ब्रह्मचारी आश्रम, कर्मयोगी या उदासीनाश्रम, औषधालय तथा विद्यालयको अथवा अहिंसा और अनेकान्तात्मक सत्यधर्मको प्रचारक किसी दूसरी संस्थाको मुनासिव शर्तोंके साथ उपयोगके लिये दे सकते है और ऐसा वे बिल्डिंगके किसी भागविशेषके सम्बन्धमें उस वक्त भी कर सकते है जब कि संस्थाका स्थायीरूपसे कोई स्थान-परिवर्तन न हुआ हो। स्थायी स्थान-परिवर्तनकी हालतमें यदि वे चाहें तो धर्मशाला या उद्योगशालाके रूपमें भी सारी बिल्डिंगको परिणत कर सकते है। परन्तु यदि दश वर्ष तक भी वैसी कोई जैनसंस्था उस बिल्डिंगमें संस्थापित न हो सके तो अधिकारप्राप्त ट्रस्टीजन उस बिल्डिंगको बेच भी सकेंगे और बेचनेसे प्राप्त हुआ रुपया ट्रस्टके विशेष कार्योंमें अथवा दूसरी किसी अच्छी उपयोगी एवं लाभप्रद जायदादके खरीदने में लगाया जायगा; मगर शर्त यह है कि बीरसेवामन्दिरके लिये पर्याप्त कोई स्थायी बिल्डिंग उस दूसरे स्थानपर पहलेसे बन चुकी हो और स्वतन्त्र उपयोगके लिये वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टके अधिकारमें हो तथा सरसावाकी उक्त बिल्डिंगको बेचने के लिये तीन-चौथाई ट्रस्टियोंका बहुमत प्राप्त हो।
(१४) दो जद्दी (पैतृक) हवेलियां जो ट्रस्टको सम्पत्ति घोषित की गयी है और जिनका ऊपर ट्रस्टकी सम्पत्तिके नं. (इ), (ई) और (उ) में उल्लेख है उनके किसी मकानको भी बेचनेका ट्रस्टियोको अधिकार नही होगा-उन्हें मरम्मत आदिके द्वारा प्रायः स्थिर रवखा जायगा। परन्तु किसी घटना-वश यदि मकानोको अधिक हानि पहुंच जावे और मरम्मतके द्वारा उनका स्थिर रखना ट्रस्टियोंकी दृष्टिमें ट्रस्टके लिये लाभप्रद न हो तो ट्रस्टीजन उन्हें कुछ शर्तोंके साथ प्रसूतिगृहादिजैसी किसी स्थानीय सार्वजनिक संस्थाको मरम्मतादि करके अपने उपयोगमें लानेके लिये दे सकते है अथवा सहायता आदि मिलनेपर स्वयं ही किसी समय उनमें या उनके स्थानपर आवश्यक परिवर्तनादिके साथ निर्मित हुए भवनोमें सार्वजनिक 'प्रसूतिगृह' संस्थाकी योजना कर सकते है। शेष बेचनेयोग्य जिस सम्पत्तिको भी ट्रस्टीजन ट्रस्टके हितके लिये बेचना उचित समझेंगे उसे बेच सकेंगे और बेचनेसे प्राप्त हुई रकमको ट्रस्टके कार्यों में खर्च करेंगे।
(१५) यदि ट्रस्टियोंका प्रबन्ध किसी बजह से ठीक न हो और ट्रस्ट के उद्देश्यों तथा ध्येयोंकी जानबूझकर अवहेलना अथवा उनके विरुद्ध प्रवृत्ति की जाती हो तो ट्रस्टसे सम्बन्ध रखने वाले ( interested in the Trust ) पब्लिक के प्रत्येक व्यक्तिको अधिकार होगा कि वह उस के विरोधर्म कानून जाब्ता दीवानी (Civil Pocedure Code) की धारा ९२ के अनुसार समुचित कार्रवाई करके उसको सुधारने और सुव्यवस्थित बनाने का यत्न करे।
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अनेकान्त
वर्ष ११
अतः यह ट्रस्ट नामा ( Deed of Trust ) लिख दिया कि सनद (प्रमाणित) हो और वक्त जरूरत के काम आवे । मिती वैशाख वदि पंचमी ५, वृहस्पतिवार, वीर - निर्वाण सम्वत् २४७७, विक्रम्सम्वत् २००८, ता. २६ अप्रेल सन् १९५१ ईस्वी ।
७२
नोट- यह दस्तावेज ट्रस्टनामा, जिसे मुझ ट्रस्ट-संस्थापक ने स्वयं अपनी कलम से लिख दिया है, दस पत्रों (पृष्ठों) पर है । इस के दूसरे पृष्ठ की १७ वीं पंक्ति के शुरू में 'उसी के लिये' ये शब्द पंक्ति के ऊपर लिखे गये है । तीसरे पृष्ठ की १४ वी पंक्ति में शब्द 'Library' कुछ संदिग्ध सा बना है किंतु ठीक है । ५वें पृष्ठ की ३२वीं पंक्ति में 'उत्तरमें' शब्द के पिछले दो अक्षर कुछ संदिग्धसे हो रहे हैं किंतु ठीक हैं। छठे पृष्ठ की १९ वी पक्ति में 'हिस्सो' शब्द कुछ संदिग्ध सा बना है किंतु ठीक हैं और २५ वी पंक्ति में शेयर न. ४७५४९१ में ९ का अंक '६' के रूप में कुछ संदिग्ध सा जान पड़ता है किंतु ठीक है । ७वें पृष्ठ की पहली पंक्ति में 'साउथ' से पहले 'बि' अक्षर अधिक लिखा गया था जिसे कलमजद किया गया है और छठी पंक्ति में (लु) नं. की सम्पत्ति देते हुए 'लायब्रेरी' शब्द के बाद 'में' से लेकर रु. है' तक की इबारत छूट गयी थी जिसे इस * चिह्न के साथ हाशिये पर बना कर हस्ताक्षर कर दिये है। नववें पृष्ठ की पहली पंक्ति में 'कोई' शब्द के बाद 'सज्जन' शब्द पंक्ति के ऊपर दिया गया है। दसवें पृष्ठ की १४ वी पंक्ति में प्रयुक्त हुए 'प्रवृत्ति' शब्द में एक 'प्र' अक्षर अधिक बन गया था उसे कलमजद किया गया है। पृष्ठ ९ की पंक्ति ३३ वी में 'किसी' शब्द पर स्याही पड़ गयी है ।
हस्ताक्षर - जुगलकिशोर मुख्तार Jgl. Kishore Mukhtar ( प्रत्येक पृष्ठ पर )
[ हाशिये के दस्तखत ] गवाह — Nanak chand S/o Charanji Lall Red. S.D.O. Sarsawa
गवाह - बाबूराम शर्मा पुत्र संसारचन्द शर्मा
प्रधानमन्त्री तहसील कांग्रेस कमेटी नकुड-सरसावा गवाह —— जम्बूप्रसाद पिसर चौधरी गिरधरलाल जैन कस्बा सरसावा (उर्दूमें)
· गवाह — अर्हदास पिसर मु० ला. जम्बूप्रसाद सहारनपुर
गवाह — परमानन्द जैन शास्त्री पुत्र ला. दरयावसिह जैन निवासी शाहगढ़ जि. सागर हाल सरसावा जिला सहारनपुर
गवाह —सुमतप्रसाद जैन रिटायर्ड अमीन मुहल्ला शोरमियान सहारनपुर बकलमखुद पिसर ला. ला मिट्ठन लाल जैन (उर्दूमें )
गवाह - ६. जिनेश्वर प्रसाद जैन वल्द लाला उदयराम जैन महोला शोरमियान सहारनपुर
जुगलकिशोर मुख्तार Jgl. Kishore Mukhtar
गवाह - महाराज प्रसाद पिसर लाला मगतराय कौम जैनी अग्रवाल साकिन
सरसावा बकलमखुद (उर्दूमें) गवाह --Naim Chand Jain Vakil, Saharanpur.
गवाह -- रोढामल खलफ लाला भिक्खनलाल जैन साकिन कस्बा सरसावा बकलमखुद 'उर्दूमें' गवाह — दस्तखत कोशल प्रसाद बेटा चमनलाल जैन सरसावा (मुंडी हिंदी में)
गवाह - जुगलकिशोर पुत्र ला. उग्रसेन बडतला यादगार सहारनपुर
गवाह — कुन्दनलाल पिसर लाला नरायणदास जैन
हाल सहारनपुर जमीदार व दरबारी ऐक्स ऑनरेरी मजिस्ट्रेट सहारनपुर गवाह - S. P. Chandra S/o
B. Nanak Chand Sarsawa
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किरण १
गवाह — Digamber Das ( Mukhtar) गवाह --- रिखीराम पु. बानूमल सैक्रेटरी कांग्रेस कमेटी सरसावा
मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीका 'ट्रस्टनामा'
गवाह – प. प्रसाद र. क. सहारनपुर
P. Prasad Regis. Clerk Saharanpur
फीस
२५५।। )
गवाह — Trilokchand Jain S/oL. Nanakchand Jain Sarsawa at present Clerk Hawali Munsafi Saharanpur
नकल
९)
गवाह - Jugmandar Das Jain
शब्द
३९००)
(रजिस्ट्रीकी इबारत प्रथम पृष्ठकी पुश्तपर)
कुल फीस
२६५०)
A. S/o B. Sundar Lal Jain Sarsawa
गवाह —— दीपचन्द जैन कबाले नवीस सहारनपुर (उर्दूमें)
गवाह - चन्द्रसेन पिसर लाला इंद्रसेन साकिन तहसील नकुड बकलमखुद ( उर्दूमें )
जुगलकिशोर मुख्तार पुत्रला० नन्त्थूमल रईस सा० सरसावा पर० खास तह० नकुड जि० सहारनपुरने आज ता० दूसरी २ मई सन् १९५१ ई० बीच ३, ४, बजे दिन के दफ्तर स० र० नकुड़ में पेश की मय तीन मुसन्नों के ।
( ह०) जुगलकिशोर मुख्तार ( हिंदी अंग्रेजी में)
(व० सबरजिस्ट्रार ) २-५-५१
७३
सुनकर मजमून बखूबी तकमील दस्तावेज हाजासे जुगलकिशोर मुकिर मजकूर ने इकबाल किया मुकिरसे में उहदेदार रजिस्ट्री ख़ुद परिचित हूं दस्तावेज स्टाम्प १०० ) + १००)÷७५)+७५)+५०)+५०)+१५)+३।।) कुल ४६८III) और २ वाटर मार्क पर है ।
( ह०) जुगलकिशोर मुख्तार (हिंदी अंग्रेजी में) बवजह एजाज़ निशान से बरी किया
(द० सबरजिस्ट्रार ) (द० सबरजिस्ट्रार )
मुहर दफ्तर सबरजिस्ट्रार
नकुड जिला सहारनपुर
२-५-५१ २-५-५१
[ अन्तिम पृष्ठ की पुश्त पर ]
बही नं. १ जिल्द ५०३ के सफे हुई में दस असिल ३९९ व मुसन्ना नं. ४००, ४०१, ४०२ पर आज ५ मई सन १९५१ ई. रजिस्ट्री की गयी ।
( यह मुहर, जो हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजीमें है, दस्तावेजके प्रत्येक पृष्ठकी पुश्त पर अंकित है )
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साहित्य - परिचय और समालोचन
१. बट्ण्डागम (धवला टीका और उसके अनुवाद सहित ) मूलकर्ता, आचार्य भूतबलि । टीकाकार, आचार्य वीरसेन । सम्पादक, डा० हीरालाल जैन एम. ए., सहसम्पादक, पं० फूलचन्द जैन सिद्धान्तशास्त्री और पं० बालचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री । प्रकाशक, श्रीमन्त सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द जी जैन साहित्योद्धारक फंड, अमरावती पृष्ठसंख्या, सब निलाकर ४८६ । मूल्य सजिल्द प्रतिका १०) और शास्त्राकारका १२ ) ।
प्रस्तुत ग्रन्थ षट्खण्डागमके चतुर्थ खण्ड 'वेदना' के कृति आदि २४ अनुयोग द्वारोंमें से यह कृति नामका पहला अनुयोग द्वार है, जिसमें प्रथम ही 'णमो जिणाणं' आदि ४४ मंगल सूत्रोंके बाद ४६ वें सूत्रमें कृति के ७ भेद बतलाए गए है--नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति गणनकृति,, ग्रन्थकृति, करणकुति और भावकृति । ग्रंथ में इन सबके भेद-प्रभेदोंका विवेचन किया गया है। ग्रंथको देखने और अध्ययन करने से ग्रंथगत उनके सब रहस्य समझमें आ जाते हैं । आचार्य वीरसेनने ४४ मंगल सूत्रोंका विवेचन करते हुए ६४ ऋद्धियोंका जो विवेचन किया है वह सब मनन की वस्तु है । उनकी अगाध - प्रज्ञाके दर्शन इस ग्रंथके अध्ययनसे पद पद पर होते हैं । यद्यपि सम्पादक महोदयने इसके सम्पादन- प्रकाशनमे काफी सावधानी वत है और पर्याप्त श्रम भी किया है फिर भी ग्रंथ में दिये हुए शुद्धिपत्रके अतिरिक्त कुछ और भी खटकने योग्य अशुद्धियां रह गई है जिनका प्रदर्शन बा. नेमिचन्द जी वकील और बा. रतनचन्द जी मुख्तार सहारनपुर ने 'जैन सन्देश' में किया है और जिनका सुधार वांछनीय है । ग्रन्थके अन्तमें ५ परिशिष्ट दिये हुए हैं जिनसे उसकी उपयोगिता बढ़ गई है । छपाई, सफाई उत्तम है, ग्रन्थ पठनीय और संग्रहनीय है ।
२. तिलोयपण्णत्ती (भाग २) -मूलकर्ता, आचार्यं यतिवृषभ । सम्पादक डा० हीरालाल जैन एम. ए. डी. लिट्. नागपुर, डा० ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट्, कोल्हापुर
और पं० बालचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री, अमरावती । प्रकाशक, जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ, शोलापुर । पृष्ठसंख्या, सब मिलाकर ६१२, बड़ा साइज | मूल्य, सजिल्द प्रति का १६ ) ।
प्रस्तुत ग्रन्थका नाम उसके विषयसे स्पष्ट है । इस ग्रन्थमें ९ अधिकार है जिनमें लोकका सामान्य रूप, नरक लोक, भवनवासी लोक, मनुष्यलोक, तिर्यग्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक, और सिद्धलोकका वर्णन है । ग्रन्थमें आचार्य यतिवृषभने सर्वत्र प्राचीन आगम परम्पराका अनुसरण किया है और उसे लोकविभाग, लोक विनिश्चय, लोकाइनि, परिकर्म और दृष्टिवाद आदि ग्रन्थोंके समुद्धरणोंएवं पाठान्तरोसे पुष्ट किया गया है । ये सभी ग्रन्थ आज दुर्भाग्यसे अप्राप्त है। इनके अन्वेषण होनेकी आवश्यकता है।
ग्रन्थके अन्तमें डा० ए एन उपाध्ये एम. ए. की अंग्रेजीमें भूमिका ( Introduction) है जिसमें तिलोयपण्यत्ती और उसके कर्ता यतिवृषभके समय - सम्बन्ध में पर्याप्त विचार किया गया है। इसके बाद डा० हीरालालजी एम. ए. डी. लिट् की महत्वकी हिन्दी प्रस्तावना है जिसमें ग्रन्थ- परिचय के साथ ग्रन्थकी कुछ विशेषताएं निर्दिष्ट करते हुए कुछ तुलनात्मक विचार दिये है और ग्रन्थकार यतिवृषभके सम्बन्धमें विचार करते हुए उसके रचनाकाल पर भी प्रकाश डालने का यत्न किया गया है । ग्रन्थके विषयका परिचय कराते हुए तिलोयपण्णत्तीकी अन्य ग्रन्थोंसे तुलना भी दी गई है। डाक्टर साहबने हमारा 'आधुनिक विश्व' में जिस विषयकी चर्चाका उपक्रम किया है उस सम्बन्धमें और भी पर्याप्त प्रकाश डाले जाने की आवश्यकता
है। अच्छा होता यदि डा० साहब कुछ विशेष विवेचनके साथ उस पर अपना भी मत व्यक्त करते । सम्पादक महानुभावोंने ग्रन्थको सुगम और पठनीय बनानेके लिये पर्याप्त श्रम किया है। अनुबाद भी मूलानुगामी है, परिष्टिादिसे उसे अलंकृत किया गया है। इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं।
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किरण
साहित्य-परिचय और समालोचन
अन्धका प्रकाशन दि जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ शोलापुर- धिगमके ९वें अध्यायके ५वें सूत्रके भाष्यको निम्न पंक्तियोंका की ओरसे हुआ है। यह संघ ब. जीवराजजीके त्यागकी ऋणी जान पड़ता है। और उस परसे दोनोंकी एक भावनाका प्रतीक है । आशा है भविष्यमें इससे और भी कर्तृकता भी संभव हो सकती है। प्राचीन अर्वाचीन साहित्यका प्रकाशन होता रहेगा। इस 'पिण्डः शम्या वस्त्रेषणादि पावणादि यच्चान्यत् प्रकारके ग्रन्थरत्नके प्रकाशनके उपलक्षमें संघ धन्यवादाह
-प्रशमरति है। ग्रन्थ संग्रहनीय तथा पठनीय है। प्रत्येक मन्दिरोंमें
"अन्नपानरजोहरणपात्रजीवरादीनां धर्मसापनानामाइसे मंगा लेना चाहिये।
श्रयस्य चोद्गमोत्पादनषणावोषवर्जनमेवणासमितिः।" ३. वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ-सम्पादक प्रो. खुशालचन्द
-भाष्यम् । जैन एम. ए. साहित्याचार्य, बनारस। प्रकाशक, वर्णो हीरक
उक्त कथन तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता द्वारा निर्दिष्ट, नाग्न्यजयन्ती महोत्सव समिति, सागर । पृष्ठ संख्या ६४०, मूल्य
परीषहका विरोधी है। दूसरे मूलसूत्रोंमें इस प्रकारकी सजिल्द प्रतिका १५) रुपया ।
सम्प्रदाय-सम्बन्धिमान्यताओंका कोई उल्लेख भी नहीं है। पूज्य वर्णो जी बुंदेलखण्ड प्रान्तके ही नहीं किन्तु समस्त
अन्यमें कोई तुलनात्मक एवं विषय विवेचनात्मक भारतके अहिंसक योगी है। उन्होंने अपनी साधना द्वारा
खोजपूर्ण प्रस्तावना नहीं है जिसमें उसके कर्ता और ग्रन्थलोकका बड़ा कल्याण किया है। वे आज भी ७९ वर्षकी
के सम्बन्ध विचार किया जा सकता। प्रकाशक संस्थाका वृद्ध अवस्था पैदल यात्रा द्वारा लोककी सजीव सेवा कर
कर्तव्य है कि वह ग्रन्थको प्रस्तावनासे अलंकृत करे। प्रस्तारहे है। प्रस्तुत ग्रन्थ इन्ही पूज्य वर्णीजी की पुनीत सेवाओं
वनासे ग्रन्थको उपयोगिता अधिक बढ़ जाती है। अनुवाद का प्रतिफल है। इसमें जैन धर्म, जैन साहित्य, इतिहास,
मूलानुगामी है। हां, तुलनात्मक स्थलों की टिप्पणियोंको भी विज्ञान, जैन तीर्थ,जैन समाज और पूज्य वर्णीजी के संस्मरों
साथमे दे दिया जाता तो अच्छा होता । ग्रन्थ संग्रहनीय है। के साथ उक्त विषयोंका संकलन किया गया है । प्रायः सभी लेख जैन संस्कृतिके प्रभाव एवं महत्वको स्थापित करने ५. न्यायावतार-मूल लेखक, आचार्य सिद्धसेन वाले है, जिसके अध्ययनसे जैन संस्कृतिका वह विशद रूप दिवाकर। अनुवादक, पं० विजयमूर्ति जैन एम. ए. । प्रायः सामने आ जाता है जो जैनधर्मकी आत्मा है। ग्रन्थ- प्रकाशक, परमश्रुतप्रभावकमंडल जौहरी बाजार, बम्बई । का सम्पादन और विषयोंका चयन अच्छा हुआ है। साथमें पृष्ठ सख्या, १४४ । मूल्य, सजिल्द प्रति का ५) रुपये। बुंदेलखंडादिके चित्रोंसे उसकी उपयोगिता अधिक बढ़ गई प्रस्तुत ग्रन्थ दर्शनशास्त्र का है, जिसके कर्ता श्वेताम्बराहै। ग्रन्थकी छपाई सफाई सुन्दर है। इसके लिये प्रोफेसर चार्य सिद्धसेन दिवाकर नामसे ख्यात है जो बौद्ध विद्वान् साहब धन्यवादके पात्र है।
धर्मकीर्ति और धर्मोतरके उत्तरकालीन जान पड़ते हैं; ४. प्रशमरति प्रकरण-मुलकर्ता, उमास्वाति, क्योकि न्यायावतारमें उनके पद वाक्योंका स्पष्ट प्रभाव, सम्पादक, प्रो. राजकुमार जी साहित्याचार्य, बड़ौत । जान पड़ता है। पात्रकेशरीका भी प्रभाव स्पष्ट है और प्रकाशक, परमश्रुतप्रभावकमंडल जौहरी बाजार, बम्बई। विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दीके विद्वान् आचार्य समन्तपृष्ठ संख्या, २३२ । मूल्य, सजिल्द प्रति का ६) रुपये। भद्रके रत्नकरण्ड नावाचारका छठा पद्य तो उद्धृत किया
प्रस्तुत ग्रन्यके कर्ता उमास्वाति, तत्वार्थसूत्रके कर्ता ही गया है। इससे सिखसेन दिवाकर धर्मकीर्ति और धर्मोत्तरउमास्वाति या गृवापिच्छाचार्यसे भिन्न है या अभिन्न यह के बादके विद्वान् मालूम होते हैं। अर्थात् विक्रमकी ८वीं एक विवादापत्र विषय है, संभव है जिन्होंने तत्स्वार्थाधिगम शताब्दीके अन्तिम भागके विद्वान ज्ञात होते है। न्यायावतार सूत्र पर भाष्य रचा वे ही इसके कर्ता हों। क्योंकि मूल को सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति बतलाना ठीक नहीं है। तत्त्वार्थसूत्रके अभिप्रायोंसे भिन्न इसम मुनिके लिए क्योंकि समाजके प्रसिद्ध ऐतिहासिक वयोवृद्ध विद्वान् पं. 'वस्त्र-पाचादिका विधान भी पाया जाता है जो तत्वार्या- जगलकिशोर जी मस्ता.ने अनेक समर्थ प्रमाणों के आधार
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अनेकान्त
वर्ष ११
सफल नही हो सका है। क्योंकि लेखक स्वय कितने ही रहस्योंसे अपरिचित जान पड़ता है इसीसे उनका समावेश ग्रन्थमें नहीं हो सका है, उसमें जो कुछ विषय दर्शाया गया है वह सब प्रायः श्वेताम्बर है । कुछ ऐतिहासिक आचार्योंके नाम भी दिये गये है, जिनमें वाग्भट्टालंकारके कर्ता वाग्भट्टको ही ने मिनिर्वाणकाव्य, और काव्यानुशासन सटीकका कर्ता भी बतला दिया है। जबकि तीनों कृतियां तीन विभिन्न वाग्भटों द्वारा विभिन्न समयों में लिखी गई है। वाग्भट्टालंकारके कर्ता वाग्भट सोमश्रेष्ठीके पुत्र थे, उनका सम्प्रदाय श्वेताम्बर था । इन्होंने वाग्भट्टालंकार की टीकामें नेमिर्वाणकाव्यके कितने पद्य उद्धृत किये है। इनका समय विक्रम की १२ वीं शताब्दीका उत्तरार्ष है ।
७६
से अनेकान्तके 'सन्मति - सिद्धसेनांक' में सप्रमाण विवेचन द्वारा न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन दिवाकरसे सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनको पूर्ववर्ती एवं दिगम्बराचार्य बतलाया है, जिस पर विद्वानोंने पर्याप्त विचार किया है; परन्तु उसके विषय में अब तक कोई ऐसा प्रबल प्रमाण सामने नही लाया जा सका जो ऐतिहासिक तथ्यको बदलनेमें समर्थ हो । इतना ही नहीं किन्तु कुछ द्वात्रिंशकाओंको भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी बतलाई गई हैं जो आचार्य समन्तभद्रके स्तोत्रग्रन्थोंकी प्रेरणास्वरूप रची गई हैं। न्यायावतार पर आचार्य सिद्धर्षिकी एक टीका है उसीका अनुवाद ग्रन्थमें दिया हुआ है, अनुवाद अच्छा है पर भाषामें प्रौढ़ता कम नजर आती है ।
६. जीवन - जौहरी — लेखक श्री ऋषभदास रांका सम्पादक, जमनालाल जी साहित्यरत्न, वर्षा । प्रकाशक मूलचन्द बड़जात्या, सहायक मंत्री भारत जैन महा मंडल, वर्षा । पृष्ठ संख्या, १६८ । मूल्य सवा रुपया ।
प्रस्तुत पुस्तकमें वर्षाके यशस्वी व्यापारकुशल सेठ जमनालाल जी बजाजका संक्षिप्त जीवन-परिचय दिया हुआ है । वे राष्ट्र के कितने भक्त, दयालु, दानी, कर्तव्यपरायण, आत्मनिर्भर और स्पष्टवादी थे, इस बातको वे सभी भली भांति जानते है जो सेठ जमनालाल जी बजाजके साक्षात्सम्पर्क में कभी आये है। बापूके भी वे दाहिना हाथ थे । इन सब बातों पर यह प्रकाश डालती है । सुरुचिपूर्वक लिखी गई है और पठनीय तथा संग्रहणीय है ।
७. जैन-जगती-लेखक, कुंवर दौलतसिंह लोढा 'अरविन्द' धामनिया (मेवाड़) । प्रकाशक, श्री यतीन्द्र साहित्य सदन, धामनिया । पृष्ठ संख्या ४५६ । मूल्य, ५) रुपये ।
पुस्तकका यह द्वितीय संस्करण है । पुस्तकमें तीन प्रकरण हे अतीतखण्ड, वर्तमानखण्ड, और भविष्यत्खण्ड । इन्हीं तीन खण्डोंमें लेखकने जैन समाजके भविष्य, अतीत और वर्तमान जीवनकी झांकी खींचनेका प्रयत्न पद्यों द्वारा किया है जो साम्प्रदायिक दायरेमें सीमित होनेके कारण
नेमिनिर्वाणकाव्यके कर्ता कवि वाग्भट प्राग्वाट या पोरबाड़वंशके भूषण थे और छाहड़के पुत्र थे । यह दिगम्बर विद्वान् थे । और वाग्भट्टालंकारके कर्ता वाग्भटसे पूर्ववर्ती है; क्योंकि उक्त वाग्भटने इनके इस ग्रन्थके पद्योंको अपने अलंकार ग्रन्थकी टीकामें उद्धृत किया है । अत:यह वाग्भट विक्रम की ११वी और १२वीं शताब्दीके पूवार्धके विद्वान् जान पड़ते है ।
काव्यानुशासनके कर्ता महाकवि वाग्भट नेमिकुमारके पुत्र थे जो व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक और चम्पूसाहित्यके मर्मज्ञ थे और कालिदास, दण्डी और वामन आदि जैनेतर कवियोके काव्य-ग्रन्थोंसे खूब परिचित थे, और उस समयके विद्वानोंमें चूड़ामणि थे। इन्होंने अपने ग्रन्थकी स्वोपज्ञटीकामें अपनी अनेक कृतियोका समुल्लेख किया है । इनका समय विक्रमकी १४वी शताब्दी है । इस तरहसे ये वाग्भट जुदे जुदे तीन विद्वान् हैं, जिन्हें एक ही बतला दिया गया है। इस तरहकी ग्रन्थमें अनेक त्रुटियां पाई जाती है फिर भी लेखकका प्रयत्न सराहनीय है। आशा है कि लेखक महानुभाव और भी साहित्यका आलोडनकर अपनी कृतिको सुधारने तथा संबर्द्धन परिवर्तन करनेका प्रयत्न करेंगे, जिससे उक्त कृति विशेष आदरणीय हो सके। - परमानन्द जैन शास्त्री
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लोकका द्वितीय गुरु अनेकान्तवाद
( पं० दरबारीलाल जैन कोठिया, न्यायाचार्य )
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ । तस्स भुवणेक्क - गुरुणो णमो अगंतवायस्स ॥
'जिसके बिना लोकका व्यवहार भी किसी तरह नही चल सकता उस लोकके अद्वितीय गुरु 'अनेकान्तवाद' को नमस्कार है ।'
यह उन सन्तोंकी उदघोषणा एवं अमृत वाणी है जिन्होंने अपना साधनामय समूचा जीवन परमार्थ- चिन्तन और लोककल्याणमे लगाया है। उनकी यह उद्घोषणा काल्पनिक नही है, उनकी अपनी सम्यक् अनुभूति और केवलज्ञानसे पूत एवं प्रकाशित होनेसे यथार्थ है । वास्तवमें परमार्थ- विचार और लोक व्यवहार दोनोकी आधार शिला अनेकान्तवाद है । बिना अनेकान्तवादके न कोई विचार प्रकट किया जा सकता है और न कोई व्यवहार ही प्रवृत्त हो सकता है। समस्त विचार और समस्त व्यवहार इस अनेकान्तवादके द्वारा ही प्राणप्रतिष्ठाको पाये हुए है। यदि उसकी उपेक्षा कर जाय तो वक्तव्य वस्तुके स्वरूपको न तो ठीक तरह कह सकते हैं, न ठीक तरह समझ सकते है और न उसका ठीक तरह व्यवहार ही कर सकते हैं । प्रत्युत, विरोध, उलझनें झगड़े फिसाद, रस्साकशी, वाद-विवाद आदि दृष्टिगोचर होते हैं, जिनकी वजहसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप निर्णीत नही हो सकता । अतएव प्रस्तुत लेखमें इस अनेकान्तवाद और उसकी उपयोगिता पर कुछ प्रकाश डाला जाता है ।
।
वस्तुका अनेकान्तस्वरूप विश्वकी तमाम चीजें अनेकान्तमय है । अनेकान्तका अर्थ है नानाधर्म | अनेक यानी नाना और अन्त यानी धर्म और इसलिये नानाधर्मको अनेकान्त कहते है । अतः प्रत्येक वस्तुमें नानाधर्म पाये जानेके कारण उसे अनेकान्तमय अथवा अनेकान्तस्वरूप कहा गया है । यह अनेकान्तस्वरूपता वस्तुमें स्वयं है
-- आचार्य सिद्धसेन
आरोपित या काल्पनिक नही है । एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वथा एकान्तस्वरूप (एकधर्मात्मक) हो । उदाहरणार्थ यह लोक, जो हमारे व आपके प्रत्यक्षगोचर है, चर और अचर अथवा जीव और अजीव इन दो द्रव्योंसे युक्त है। वह लोकसामान्यकी अपेक्षा एक होता हुआ भी इन दो द्रव्योंकी अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह अनेकान्तमय सिद्ध है। अब उसके एक जीव द्रव्यको ले । जीवद्रव्य जीवद्रव्यसामान्यकी दृष्टिसे एक होकर भी चेतना, सुख, वीर्य आदि गुणों तथा मनुष्य, तिथंच नारकी, देव आदि पर्यायोंकी समष्टि रूप होने की अपेक्षा अनेक है और इस प्रकार जीवद्रव्य भी अनेकान्तस्वरूप प्रसिद्ध है । इसी तरह लोकके दूसरे अवयव अजीवद्रव्यकी ओर ध्यान दे । जो शरीर सामान्यकी अपेक्षासे एक है वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणो तथा बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि क्रमवर्ती पर्यायोंका आधार होनेसे अनेक भी हैं और इस तरह शरीरादि अजीवद्रव्य भी अनेकान्तात्मक सुविदित है । इस प्रकार जगत्का प्रत्येक सत् अनकधर्मात्मक ( गुणपर्यायात्मक, एकानेकात्मक, नित्यानित्यात्मक आदि) स्पष्टतया ज्ञात होता है ।
और भी देखिए । जो जल प्यासको शान्त करने, खेतीको पैदा करने आदिमें सहायक होनेसे प्राणियोंका प्राण है-जीवन है वही बाढ़ लाने, डूब कर मरने आदिमें कारण होनेसे उनका घातक भी है । कौन नही जानता कि अग्नि कितनी संहारक है पर वही अग्नि हमारे भोजन बनाने आदिमें परम सहायक भी है । भूनेको भोजन प्राणदायक है पर वही भोजन अजीर्ण
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७८
अनेकान्त
वर्ष ११
वाले अथवा टाइफाइडवाले बीमार आदमीके लिये विष मम्ता धर्मा. सामन्य-विशेष-गुग-पर्वाया यस्य सोऽनेकान्तः" है । मकान, किताब, कपड़ा, सभा, संघ देश आदि ये सब यों कहा गया है। दूसरी दृष्टियां वस्तुके एक-एक अंशका अनेकान्त ही तो हैं । अकेली ईटो या चूने-गारेका नाम मकान दर्शन अवश्य करा सकती है पर उस दर्शनसे दर्शकको नहीं है। उनके मिलापका नाम ही मकान है। एक-एक पन्ना यह भ्रम एवं एकान्त आग्रह हो जाता है कि वस्तु इतनी किताब नहीं है नाना पन्नोंके समूहका नाम किताब है। मात्र ही है और नहीं है। इसका फल यह होता है कि शेष एक-एक सूत कपड़ा नही कहलाता । ताने-बाने रूप अनेक धर्मो या अंशोंका तिरस्कार हो जानेके कारण वस्तुका पूर्ण सूतोंके संयोग को कपड़ा कहते है। एक व्यक्तिकः कोई सभा या एवं सत्य दर्शन नहीं हो पाता। स्याद्वाद-तीर्थके प्रभावक संघ नहीं कहता। उनके समुदायको ही समिति, सभा, संघ या आचार्य समन्तभद्र स्वामी अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें इसी बातको दल आदि कहा जाता है । एक-एक व्यक्ति मिलकर जाति, निम्न प्रकार प्रकट करते हैं:और अनेक जातियां मिलकर देश बनते है। जो एक व्यक्ति य एव नित्य-णिकावयो नया मियोऽनपेक्षा स्वपर-प्रणाशिनः । है वह भी अनेक बना हुआ है। वह किसीका मित्र है, किसी- तएव तत्वं विमलस्य ते मने. परस्परेता स्वपरोपकारिण।। का पुत्र है, किसीका पिता है, किसीका पति या स्त्री है, 'यदि नित्यत्व, अनित्य व आदि परस्पर निरपेक्ष किसीका मामा या भांजा है, किसीका ताऊ या भतीजा है एक-एक ही धर्म वस्तुमें हों तो वे न स्वयं अपने अस्तित्त्वको आदि अनेक सम्बन्धोसे बंधा हुआ है। उसमें ये सम्बन्ध
रख सकते है और न अन्यके । यदि वे ही परस्पर सापेक्ष होंकाल्पनिक नही है, यथार्थ है । हाथ, पैर, आंखें, कान य सब अन्यका तिरस्कार न करें तो हे विमल जिन! वे अपना शरीरके अवयव ही तो है और उनका आधारभूत अवयवी भी अस्तित्त्व रखते है और अन्य धर्मोका भी । तात्पर्य यह शरीर है। इन अवयव-अवयवी स्वरूप वस्तुको ही हम सभी कि एकान्तदृष्टि तो स्वपरघातक है और अनेकान्तशरीरादि कहते व देखते है। कहनेका तात्पर्य यह है कि दृष्टि स्वपरोपकारक है।' यह सारा ही जगत् अनेकान्तस्वरूप है। इस अनेकान्त इसी आशयसे उन्होंने स्पष्टतया यह भी बतलाया है स्वरूपको कहना या मानना अनेकान्तवाद है।
कि वस्तुमें एकान्ततः नित्य.व और अनित्यत्व अपने अस्तिअनेकान्तस्व इपको शिका अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद- त्वको क्यों नही रख सकते है ? वे कहते है कि 'सर्वथा नित्य
भगवान् महावीर और उनके पूर्ववर्ती अपमादि पदार्थ न तो उत्पन्न हो सकता है और न नाश हो सकता है, तीर्थकरोंने वस्तुको अनेकान्तस्वरूप साक्षात्कार करके क्योंकि उसमें किया और कारकको योजना सम्भव नही है। उसका उपदेश दिया और परस्पर विरोधी-अविरोधी अनन्त- इसी तरह सर्वथा अनित्य पदार्थ भी, जो अन्वयरहित होनेधर्मात्मक वस्तुको ठीक तरह समझने-समझानेके लिये वह से प्रायः असत्ररूप ही है, न उत्पन्न हो सकता है और न नष्ट दृष्टि भी प्रदान की जो विरोधादिके दूर करने में हो सकता है, क्योकि उसमें भी क्रिया और कारककी योजना एकदम सक्षम है। वह दृष्टि है स्याद्वाद, जिसे असम्भव है। इसी प्रकार सर्वथा असत्का उत्पाद और सत्का कथंचितवाद अथवा अपेक्षावाद भी कहते है। इस स्याद्वाद- नाश भी सम्भव नहीं है, क्योंकि असत्तो अन्वय-शून्य है और दृष्टिसे ही हम उस अनन्तधर्मा वस्तुको ठीक तरह जान सकते सत् व्यतिरेकशून्य है और इन दोनोके बिना कार्यकारणभाव है। कौन धर्म किस अपेक्षासे वस्तुमें निहित है इसे हम, जब बनता नही । 'अन्वयम्यतिरेक-समधिगम्यो हि कार्यकारणतक वस्तुको स्याद्वाद दृष्टिसे नही देखेंगे, नही जान सकते भाव.' यों सर्वसम्मत सिद्धान्त है। अतः वस्तुतत्त्व 'यह वही है। इसके सिवा और कोई दृष्टि वस्तुके अनेकान्तस्वरूपका है' इस प्रकारको प्रत्यभिज्ञा-प्रतीति होनेसे नित्य है और निर्दोष दर्शन नही करा सकती है। वस्तु जैसी है उसका वैसा 'यह बह नहीं है-अन्य है' इस प्रकारका ज्ञान होनेसे ही दर्शन करानेवाली दृष्टि अनेकान्तदृष्टि अथवा स्याद्वाद- अनित्य है और ये दोनों नित्यत्व तथा अनित्यत्व वस्तुमें दृष्टि ही हो सकती है। क्योंकि वस्तु स्वयं अनेकान्तस्वरूप विरुद्ध नहीं है, क्योंकि वह द्रव्यरूप अन्तरंग कारणकी है। इसीसे वस्तुके स्वरूप-विषयमें "अर्थोऽनेकात. । मने अपेक्षासे नित्य है और कालादि बहिरंग कारण तथा पर्यायरूप
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किरण
लोकका अद्वितीय गुरु बनेकान्तवाद
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नैमित्तिक कार्यकी अपेक्षासे अनित्य है । यथा
यही कहते हैं:न सपा नित्यमुदत्यपति नकियाकारकमत्र युक्तम् । एकान्त-धर्माभिनिवेश-मूला रागावयोऽहं कृतिजाजनानाम् । नेवाऽसतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तम पुद्गलभावतोऽस्ति एकान्त-हानाच स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥२४॥
॥५॥ नित्यं तदेवमिति प्रतीतेनं नित्यमन्यत् प्रतिपत्ति सिडः। 'एकान्तके आग्रहसे एकान्तीको अहंकार हो जाता है न तल्विं बहिन्तरङ्गानिमित-नैमित्तिक-योगतस्ते ॥४॥ और उस अहंकारसे उसे राग, द्वेष, पक्ष आदि हो जाते हैं,
आगे इसी ग्रन्थमें उन्होंने अरजिनके स्तवनमें और जिनसे वह वस्तुका ठीक दर्शन नही कर पाता। पर भी स्पष्टताके साथ अनेकान्त दृष्टिको सम्यक् और एकान्त- अनेकान्तीको एकान्तका आग्रह न होनेसे उसे न अहंकार दृष्टिको स्व-घातक कहा है:
पैदा होता है और न उस अहकारसे रागादिकको उत्पन्न अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शम्यो विपर्ययः । होनेका अवसर मिलता है और उस हालतमें उसे उस ततः सर्व मुषोक्तं स्यात्तपयुक्त स्वघाततः ॥९८॥
अनन्त धर्मावस्तुका सम्यग्दर्शन होता है, क्योकि एकान्तका 'हे अर जिन ! आपकी अनेकान्तदृष्टि समीचीन है-
आग्रह न करना-दूसरे धर्मोको भी उसमें स्वीकार करना
आग्रह न करना दूसर धमाकामा निर्दोष है, किन्तु जो एकान्तदृष्टि है वह सदोष है। अतः सम्यग्दृष्टि आत्माका स्वभाव है और इस स्वभावके कारण एकान्तदृष्टिसे किया गया समस्त कथन मिय्या है, क्योंकि
ही अनेकान्तीके मनमें पक्ष या क्षोभ पैदा नही होता-वह एकान्तदृष्टि बिना अनेकान्तदृष्टिके प्रतिष्ठित नहीं होती समताको धारण किये रहता है। और इसलिये वह अपनी ही घातक है।
अनेकान्तदृष्टिको जो सबसे बड़ी विशेषता है वह है तात्पर्य यह कि जिस प्रकार समुद्रके सदभावमें ही सब एकान्तदृष्टियोंको अपनाना-उनका तिरस्कार उसकी अनन्त न्दुिओंकी सत्ता बनती है और उसके अभावमें नहीं करना-और इस तरह उनके अस्तित्वको स्थिर उन बिन्दुओंकी सत्ता नही बनकी उसी प्रकार अनेकान्तरूप रखना। आचार्य सिद्धसेनके शब्दोंमें हम इसे इस प्रकार कह वस्तुके सद्भावमें ही सर्व एकान्त दृष्टियां सिद्ध होती हैं सकते है.-- और उसके अभावमें एक भी दृष्टि अपने अस्तित्वको नहीं भई मिच्छासग-समूह-मइयास अमयसारस। रख पाती । आचार्य सिद्धसेन अपनी चौथी द्वात्रिशिकामें जिणवय गस्स भगाओ संविग्गनुहाहिगम्मस ॥ इसी बातको बहुत ही सुन्दर ढंगसे प्रतिपादन करते हैं:- 'ये अनेकान्तमय जिनवचन मिय्यादर्शनों (एकान्तों) उदयाविव सर्वसिन्धयः समुबीर्णास्वयि सर्वदृष्टयः। के समूह रूप है-इसमें समस्त मिय्यादृष्टियां (एकान्तमच तासु भवानुवीम्यते प्रा.भक्तासु सरित्स्विवोषिः॥ दृष्टिया) अपनी-अपनी अपेक्षासे विराजमान हैं, और अमत
-(४-१५) सार या अमृतस्वादु है। वे संविग्न-रागद्वेषरहित तटस्थ "जिस प्रकार समस्त नदियां समुद्र में सम्मिलित हैं वृत्तिवाले जीवोंको सुखदायक एवं ज्ञानोत्पादक है। वे जगतके उसी तरह समस्त दृष्टियां अनेकान्त-समुद्र में मिली हैं। लिये भद्र हों-उनका कल्याण करें।' परन्तु उन एक-एकमें अनेकान्तका दर्शन नही होता । जैसे बन्ध, मोक्ष, आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पुण्यपृथक्-पृषक् नदियों में समुद्र नही दिखता।'
पाप आदिकी सम्यक् व्यवस्था अनेकान्त मान्यतामें ही बनती अतः हम अपने स्वल्प ज्ञानसे अनन्तधर्मा वस्तुके एक- है-एकान्त मान्यतामें नहीं । इसीसे समन्तभद्र स्वामीको एक अंशको छूकर ही उसमें पूर्णताका अहंकार-'ऐसी ही देवागममें कहना पड़ा है कि:है' न करें, उसमें अन्य धर्मोके सद्भावको भी स्वीकार करें। कुशला कुशलं कर्म परलोकश्च न वित् । : यदि हम इस तरह पक्षाग्रह छोड़कर वस्तुका दर्शन करें तो एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्वपरवरिषु ॥ निश्चय ही हमें उसके अनेकान्तात्मक विराट् रूपका दर्शन 'नित्यत्वादि किसी भी एकान्तमें पुण्य-पाप, परलोक हो सकता है। समन्तभद्र स्वामी अपने युक्तम्यनुशासनमें आदि नहीं बनते है, क्योंकि एकान्तका अस्तित्त्व अनेकान्तके
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अनेकान्त
सद्भावमें ही बनता है और अनेकान्तके न माननेपर या अनित्यत्व आदिका ही प्रतिपादन करनेसे समस्त धर्मोंउनका वह एकान्त भी स्थिर नहीं रहता और इस तरह वे उस एक-एक धर्मके अविनाभावी शेष धर्मोसे शून्य हैं और अपने तथा दूसरेके अकल्याणकर्ता है।'
उनके अभावमें उनके अविनाभावी उस एक-एक धर्मसे इन्हीं सब बातोंसे आचार्य समन्तभद्रने भगवान् वीरके भी रहित है। अत: आपका ही यह अनेकान्तशासन-रूप शासनको, जो अनेकान्तसिद्धान्तकी भव्य एवं विशाल आधार- तीर्थ सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है, किसी अन्यके द्वारा शिलापर निर्मित हुआ है और जिसकी बुनियादें अत्यन्त अन्त (नाश) न होने वाला है और सबका कल्याणकर्ता है।' मजबूत है, 'सर्वादयतीष-सबका कल्याण करने वाला अन्तमें हम अपने इस लेखको समाप्त करते हुए आचार्य तीर्थ' कहा है:
'अमृतचन्द्रके शब्दोंमें इस 'अनेकान्त' को, जिसे 'सर्वोदयसर्वान्तवत्तवगण-मुख्य-कल्प सन्ति-शून्यं च मियोऽनपेक्षम्। तीर्थ' कहकर उसका अचिन्त्य महात्म्य प्रकट किया गया सर्वाऽऽपदामन्तकर निरन्तं सवोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६॥ नमक करते है और मंगलकामना करते हैं कि
-युक्त्यनुशासन इसकी प्रकाशपूर्ण एवं आल्हादजनक शीतल छायामें आकर है वीर जिन ! आपका तीर्थ-शासन समस्त धर्मो
सुख-शान्ति एवं सद्वृष्टि प्राप्त करे। सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक, नित्यत्व-अनित्यत्व आदिसे युक्त है और गौण तथा मुख्यकी
परमागमस्य बीजं निषि-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । विवक्षाको लिये हुए है-एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म
सकल-नय-विलसितानां विरोधमयन नमाम्यनेन्तम् ॥ गौण है। किन्तु अन्य तीर्थ-शासन निरपेक्ष एक-एक नित्यत्व श्रीसमन्तभद्रविद्यालय, दिल्ली, ता० ३-३-५२
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बीरशमन्दिर सरसावा का पूर्वद्वार
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अनेकान्त खडगरि
चित्र नं० १
मार्ग
उदयगिरि
खंडगिरि उदयगिरि की गुफाओं का नक्शा
खंडगिरि और उदयगिरि गुफाय उड़िसा
समविभक्त परिमाण
खंडगिरि
1 तत्त्रगुफा न०२
2 तत्वगुकान० १
3 एक खुली गुफा
4 तंतुलि गुफा
5 खडगिरि गुफा
6 *यानघर या शख गुफा
7 नत्रमुनि गुफा
8 बाग्भुजी गुफा
9 त्रिशूल गुफा
10 खाडत गुफा [[ ललाटन्दुकेशरी गुफा
12 आकाश गंगा
13 अनन्त गुफा
14 जंन मन्दिर 15 निषिद्यायें
उदयगिरि
1 रानी गुफा
2-3 बाजाघर
4 छोटा हाथी गुफा
5 अलकापुरी
6 जयविजय
7 ठकुरानी
8 पनम
13 हाथी गुफा 14 सर्प
"
IS बाघ 16 जम्बेश्वर," 17 हरिदास
18 जगन्नाथ"
19 रसोई
9) पातालपुरी 10 मचपुरी-स्वर्गपुरी गुफा
11 गणेश गुफा
12 धान घर
"
""
"
33
13
""
"
"3
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खण्डगिरि-उदयगिरि-परिचय
(श्री बाबू छोटेलाल जैन)
वर्तमानमें प्रचलित 'उड़ीसा' शब्द 'ओड्रदेश' से उत्पन्न जैन अग्रवाल) दिल्लीवाले और श्री भट्टाचार्यजी चित्र हुआ है। कलिंग, उत्कल, ओड़ या ओड्ड नाम का विस्तृत कलाकार । पूर्व-व्यवस्थाके अनुसार वहा श्री टी. एन. राज्य इसमें समाविष्ट है। एक समय दक्षिण कोशल रामचन्द्रन् (अध्यक्ष बंगाल, आसाम, और उड़ीसा पुरातत्त्वनामका समस्त राज्य इसके अन्तर्गत था । विभाग) भी मिल गये । यों तो इस क्षेत्र पर मै बीसो बार कलिंग देश भारतवर्षके प्राचीनतम राज्य-विभागोंसे हो आया ह और काफी अनुसन्धान भी कर चुका हूं, पर इस एक है जो अपने ही नृपतियोके शासनाधिकारमें रहा है। यात्रामें विद्वानोके साथ होनेसे कई बातें विशेषतासे ज्ञात वास्तवमें इस राज्यका वृत्त उत्तर-भारतके इतिहासका हुई और श्री रामचन्द्रन और मैने जो कुछ देखकर और ही अश है । अशोकके १३वें शिलालेखसे ज्ञात होता है कि मनन कर नोट लिखे थे उनके साथ अपने पुराने नोटोंको ई. पू. तृतीय शताब्दीमें यह देश स्वतन्त्र और शक्तिमान था मिलाकर यह "खंडगिरि-उदयगिरि-परिचय" अभी १५ नवऔर उसने अशोक जैसे प्रबल सम्राट्का साहस-पूर्वक म्बर १९५१ को अंग्रेजीमें एक छोटी पुस्तिकाके रूपमें प्रतिरोध किया था।
राष्ट्रपति श्री राजेन्द्रप्रसादजीके लिये, जब वे खंडगिरि प्रारम्भसे ही उड़ीसा जैनधर्मका केन्द्र रहा है। बौद्ध- पधारे थे, तैयार किया था। धर्मके प्रचारार्थ जिन देशोंमें अशोकने धर्म-प्रचारकोंको खंडगिरि-उदयगिरिका प्राचीन नाम 'कुमारीगिरि भेजा था उन देशोंकी तालिकामें कलिंगका नाम नही है। और 'कुमारगिरि है। यहांकी गुफाओंमें बनवासी जैन इससे प्रमाणित होता है कि कलिंगकी प्रजाका विश्वास मुनि तपस्या करते थे। यहा अकृत्रिम और कृत्रिम दोनों
प्रकारकी गुफाए है। मन्दिरोंकी गुफाओंको छोड़कर सब जैनधर्ममें दृढ़ था। हुयेनस्यांग नामक बौद्ध-चीनी परिव्राजक
गुफाओका फर्श ढाल बनाया गया है ताकि उन पर शयन ने, जिसने सन् ६३९-६४५ में भारत-भ्रमण किया था, करनेवालोंको तकियेकी आवश्यकता न रहे। यहां अनेक लिखा है कि 'कलिंगमें जैनधर्मकी प्रधानता है। खडगिरि तपस्वियोका परम्परागत वास यह सिद्ध करता है कि यह पर उद्योतकेशरी-वाले ११वी शताब्दीके शिलालेखसे यह
स्थान प्राचीन तीर्थभूमि है। श्रीहरिषेणाचार्यके बृहत
कथाकोश (दशवीं शताब्दी) में यममुनिकी कथासे इसकी ज्ञात होता है कि वहां जैनों का अस्तित्व एवं प्रभाव उस वक्त पुष्टि भले प्रकार हो जाती है। इस कथाकोशमें पर्वतका भी काफी था।
नाम 'कुमारगिरि' लिखा है और इसके निकट धर्मपुर नामका उड़ीसासे जैनधर्म कब विलीन हुआ और उसका क्या एक प्रसिद्ध नगर बतलाया है :कारण था यह एक गहरे अनुसन्धानका विषय है, जिस पर अथोड्-विषये चापि पुरं धर्मपुरं....। फिर कुछ लिखा जायेगा ।
धर्मादिनगरासन्ने कुमारगिरि-मस्तके ॥ उड़ीसाके पुरी जिलेमें भुवनेश्वरसे उत्तर-पश्चिम इस यममुनिकी कथाका उल्लेख प्रायः दो हजार वर्षसे भी ५ मील पर खंडगिरि और उदयगिरि दो छोटे-छोटे पर्वत अधिक प्राचीन 'भगवती आराधना' ग्रन्थमें भी हुबा है। हैं । सन् १९५० के दिसम्बरमें पूज्य पंडित जुगलकिशोरजी अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरस्वामीके फूफा कलिंगामुख्तारके साथ में खंडगिरि गया था, अन्य साथियोंमें थे- धिपति महाराज जितशत्रु या जितारिका निर्वाण मेरे अनुमान प्रोफेसर डा० ए० एन० उपाध्याय कोल्हापुर निवासी, से खंडगिरिमें ही हुआ था। और उन्हींके सम्बन्धसे यह श्रीमोतीराम जैन फोटोग्राफर (सुपुत्र बाबू पन्नालालजी सिद्धक्षेत्र हो जानेके कारण सहस्रों निम्रन्य मुनियोंने इस
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८२
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अनेकान्त
[वर्ष ११ स्थानको तपोभूमि बनाया था। ई.पू. द्वितीय शताब्दी में वह शायद इन्ही महामेघवाहन उपाधि वाले खारवेलवंशियोंहोने वाले कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवेलने भी अपना का कथन है। शिलालेखमें चेदिवंशको 'राजषिकुलविनिःसृत' अन्तिम-साधु-जीवन यहां ही व्यतीत किया था। आर्यसंघ, कहा है। रामपुर जिलेके आरंग स्थानमें एक प्राचीन वंशग्रहकुल, देशीगणके आचार्य कुलचन्द्रके शिष्य भट्टारक के राज्य का पता चलता है जिसे 'राजर्षिकुल' कहते थे। यदि शुभचन्द्रने भी यहां ११वीं शताब्दी में तपस्या की थी (देखो, इसका सम्बन्ध खारवेलसे रहा हो तो समझना चाहिये खंडगिरिकी नवमुनिगुफाके दो लेख और ललाटेन्दु गुफा- कि खारबेलका वंश सैकड़ों वर्ष चला। अतः मध्यका एक लेख)
प्रदेशमें विशेष अनुसन्धानकी आश्यकता है।
सारे भारतवर्षमे उत्तरापथसे लेकर पांडय देश तक पुरातत्वकी दृष्टिसे यह स्थान केवल जैनोके लिये
महाराज खारवेलकी विजय-वैजयन्ती उड़ चुकी है । ही नहीं किन्तु समस्त भारतवासियोंके लिये बहुत ही महत्व
खारवेल सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्यसे कम नहीं थे तो भी हमारे पूर्ण है । क्योकि ऐतिहासिक घटनाओं और जीवनचरित
साहित्यमें उनका नाम निशान नही मिलता है। यह कुछ को अंकित करनेवाला यहां सबसे पहला शिलालेख है, जो
कम आश्चर्य अथवा रहस्यकी बात नही है। अनुसन्धानहाथीगुफा-शिलालेखके नामसे प्रसिद्ध है । कलिंग-चक्रवर्ती
प्रिय विद्वानोको इस ओर सविशेष रूपसे ध्यान देनेकी महाराज खारवेलने ई पू. द्वितीय शताब्दीमें अपने शासनकाल
जरूरत है। की १३ वर्षकी घटनाओंको इसमें लिपिबद्ध किया था।
अब उदयगिरिके क्रमसे दोनों पहाड़ियों, और उनके हाथीगुफा जैसी अकृत्रिम और भद्दी गुफामें ऐसे महत्वपूर्ण
अन्तर्गत गुफाओं आदिका परिचय नीचे दिया जाता है। इतने बड़े और अर्थ-प्रतिपादक शिलालेखको स्थान देना विशेष अभिप्रायकी सूचना करता है। मेरे अनुमानसे
उदयगिरि उपर्युक्त श्री जितारिमुनिने इसी हाथी गुफामें तपश्चरण
चेदि-वंशको राजधानी शिशुपालगढ़से लगभग ६ मील करते हुए निर्वाण-प्राप्त किया था और उसे तीर्थ बनाया था, और भुवनेश्वर से ५ मील उत्तर-पश्चिममें स्थित खंडगिरिजिससे वहां हजारों यात्री वन्दनाके लिये और हजारों मुनि उदयगिरि नामकी पहाड़ियां है, जो जैनोंके लिये अति पवित्र तपश्चरणके लिये सैकड़ों वर्षोंसे आते रहे हैं। अतः विशेष है। इन पहाड़ियोमें जैनश्रमणोंके तपश्चरणके लिये ६५ या प्रचारकी दृष्टिसे और शिलालेखकी अपनी वैशिष्टताके इससे भी अधिक गुफाएं है । उदयगिरि पर, जिसका प्राचीन कारण उसे इस महत्वपूर्ण स्थानमें अंकित किया गया है। नाम कुमारीगिरि था, कुछ. गुफाएं गिरिगह्वर तथा शैलअन्यथा महाराज खारवेलने अपनी अग्रमहिषीके लिये उसी शरणालय ई. पू. (B.C. ) द्वितीय और प्रथम शताब्दीके गुफाके निकट जो अति सुन्दर समाश्रयरूप गुफा बनवाई है, और अन्य पीछेके है। थी उसीमें इस शिलालेखको भी स्थान दे देते। दो एक बड़ी गुफायें तो भगवान महावीर स्वामीके हाथीगुफा लेखकी १४वीं पंक्तिमें 'अहंतनिषिद्या' शब्दों- समयसे ही अरहंतोके संर्सगसे अतिपावन हो चुकी थी। का उल्लेख मेरी उपरोक्त बातोंको पुष्ट करता है। हाथी इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण हाथी गुफा है, जिसमें ई.पू. गुफा तीर्थ-स्थानके कारण ही अधिक मान्य और प्रतिष्ठित द्वितीय शताब्दीके चेदि-बंशज महाराज खारवेलका शिलालेख हो गई थी और महाराज खारवेलने उसका अकृत्रिम भहा है, तथा राणी गुफा (ई.पू. दूसरी शताब्दी), गणेश गुफा रूप अक्षुण्ण रखते हुए भी उसे इतना महत्व दिया था। (ई.पू. पहली शताब्दी), स्वर्गपुरी और मचपुरी नामकी
गुफायें (ई. पू. दूसरी-पहली शताब्दी) भी महत्वपूर्ण है। महाराज खारवेल चेदिवंशके थे। चेदिवंशका उल्लेख राणी और गणेश गुफाओंमें जैन आख्यानों पौराणिक वेद में भी है । ये लोग बरार (विदर्भ) में रहते थे। वहींसे कथाओं, मूत्तिलेखनको स्पष्ट एवं व्यक्त करनेवाले अनेक छत्तीसगढ़ महाकोशल होते हुए कलिंग पहुंच गये थे। पुराणों- उत्कीर्ण चित्र पाये जाते हैं, यहां तक कि कलिंगनपतियोंके में जहां कोषलके 'मेष' उपाधिधारी राजाबोंका वर्णन है असली शिलाचित्र भी मिलते हैं।
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किरण १
खण्डगिरि-उदयगिरि-परिचय
हाथीगुफा
यद्यपि उक्त अभिलेख उनके शासनके तेहरवें वर्ष
तककी घटनाओंका उल्लेख करके ही समाप्त हो जाता है हाथीगुफा एक अकृत्रिम वृहद् गुफा है, जिसमें चेदिवंशीय महाराज खारवेलका प्रसिद्ध शिलालेख है । इस
__ तो भी स्वर्गपुरी वाले लेखसे मालूम होता है कि महाराज लेखमें महाराजके राज-जीवन-सम्बन्धी वर्ष प्रतिवर्षकी
खारवेल १०, २० वर्ष पीछे तक जीवित रहे हैं, क्योंकि इस मुख्य-मुख्य घटनायें उल्लिखित है। इसका आरम्भ
लेखमें उनकी रानीने अपनेको शासनारूढ महाराज खारअरहंतों और सिद्धोंको जनपद्धतिके अनुरूप नमस्कार करते
वेलकी अग्रमहिषी लिखा है। हाथी-गुफा-वाले शिलालेख
में खारवेलको 'अधिपति' कहा गया है, जबकि स्वर्गपुरी हुए होता है। इस शिलालेखका प्रसंगोचित अंश नीचे नोट किया जाता है:
वाले लेखमें उनको 'चक्रवर्ती लिखा गया है। १. शासनकालके प्रथम वर्षमें खारवेलने तूफानसे इससे यह प्रगट होता है कि ईसासे दो या तीन शताब्दी क्षतिग्रस्त राजधानीके द्वारो, प्राकारों, जलाशयों और पूर्व खंडगिरि-उदयगिरिकी गुफाओं तथा उनके निकटवर्ती राजकीय अट्टालिकाओकी मरम्मत करवाई।
प्रदेशोंमें जीवन स्पंदित हो रहा था। खारवेलका यह लेख, २. शासनके पांचवे वर्ष में उन्होंने तनसुलिय-बाट जो कि धौलीसे कुछ ही मील दूरी पर है, सम्राट अशोकके (सड़क) से प्राचीन नहरको राजधानी तक बढ़ाया।
धौलीवाले लेखके प्रभावको मिटानेके अभिप्रायसे वहां ३. नवमें वर्षमें ३८ लाख चांदीको मुद्रा व्यय करके।
उत्कीर्ण किया गया था। धौली शिलालेख जिसको कलिंग 'महाविजय' नामक प्रासाद बनवाया । उसी वर्ष उन्होंने
विजेता अशोकने लिखवाया था, कलिंगवासियोंको पुन:याचकोंको 'किमिच्छक' दान देकर 'कल्पद्रुम' पूजा की। पुनः उन
पुनः उनकी उस पराजयका स्मरण कराता था जिसमें, यह पूजा जैनशास्त्रोंके अनुसार केवल चक्रवर्ती सम्राट
अशोकके अनुसार, १००,००० कलिंग-वीर निहत हुए, ही कर सकता है ।
१०५००० वीर बन्दी बनाय गये, और इससे भी अधिक ४. बारहवें वर्षमें मगधको विजय करके वे "कलिंग
मनुष्य विध्वंसक युद्ध-जनित रोग, निराहार तथा लूटपाट
से विनष्ट हुए थे। अशोकके पश्चाद्वर्ती १०० वर्षके भीतरजिन" प्रतिमाको प्राप्त कर लाये, जिसे मगधके नन्द-वंश
का ही खारवेलका यह शिलालेख कलिंग पर मागधी प्रभुत्वका कोई राजा पाटलीपुत्र ले गया था।
की समाप्तिका स्पष्ट द्योतक है। यदि अशोकके शासनोंकी ५. राज्यके तेरहवें वर्ष में राज्य-विस्तारसे संतुष्ट
संख्या शासनके बाद शासन (राजाज्ञा) के रूपसे हुई है, होकर उन्होंने अपना खास ध्यान धर्मकी ओर लगाया,
तो खारवेलके लेखमें संख्या अपने राज्यकालके वर्षके बाद श्रावकोचित व्रत धारण किये और जीव तथा अजीवके
वर्षके रूपमें हुई है । इस लेखमें खारवेलकी उस दिग्विजयभेद-विज्ञानका अनुभव करने लगे।
की घोषणा है जिसमें उन्होंने उस "कलिंग-जिन"की प्रतिमा६. ७५ लाख रुपये व्यय करके अपनी राणीके लिये
को जिसे पहले एक नन्द राजा मगध ले गया था, पुनः प्राप्त कुमारी पर्वतपर आश्रयस्थान निर्माण करवाया, जिसके
किया था। हाथी-गुफाका लेख और अशोकका धौलीवाला लिये पत्थर बहुत दूरसे लाये गये थे।
लेख दोनों ई. पू. ३०० और ई. पू. १०० वर्षके मध्यवर्ती ७. महाराजके विरुदों (titles) में क्षेमराज, भारत-इतिहासके एक विलुप्त पदकी पुनः प्राप्तिमें हमारे वृद्धिराज, भिक्षुराज, धर्मराज, राजर्षि-वंश-कुल-विनिःसृत, सहायक होते है । संक्षेपमें वह पुननिर्मित इतिहास यह होगा महाराज आदि पद व्यवहृत हुए हैं। महाराज खारवेल केवल । एक विस्तृत साम्राज्यके ही निर्माता नहीं थे, बल्कि राजप्रासादों, तथा दुर्गा आदिके भी निर्माता थे, और थे वास्तव
१. मगध और कलिंग दो प्रतिद्वन्दी राज्य थे। में राजा शब्दको सार्थक करनेवाले अर्थात् अपनी प्रजाको २. अशोककी विजयसे पूर्व कलिंगमें जैनमत राजअनुरंजित रखनेवाले ।
धर्म था।
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अनेकान्त
[वर्ष ११ ३कलिंगने मगधके बढ़ते हुए साम्राज्यके प्रति एक चित्र जो यद्यपि नष्ट-प्राय हो गया है तो भी उसके विद्रोह किया, और नन्दोंने कलिंगपर विजय प्राप्त की, अवशिष्टांशमें "जिन" भगवानकी पूजा-अर्चना करता और उनमेंसे कोई "कलिंग-जिन" प्रतिमाको पाटलीपुत्र हुआ एक राजपरिवार, एक हाथी और ज्योतिष्कादि देव ले गया
दृष्टिगत होते है । इस दृश्यका सम्बन्ध सब सम्भावनाओंके ४. कलिंग पीछे इतना स्वतंत्र हो गया कि महाराज साथ उस घटनासे है जब महाराज खारवेलने मगध-विजय अशोकको अत्यधिक धन-व्यय तथा नर-संहार करके कलिंग करके "कलिंग-जिन" नामक सुप्रसिद्ध जिन-प्रतिमाको को पुनः जय करनेके लिये बाध्य होना पड़ा।
लाकर कलिंगनगरमें प्रतिष्ठापित किया था। चित्रके ५. खारवेल ने मगधके साथ प्रतिशोध-स्वरूप सफल मध्यभागमें सिंहासनपर कलिंगजिनकी मूत्ति थी, और युद्ध किया और "कलिंग-जिन" प्रतिमाको पुनः प्राप्त किया हाथ जोड़े हुए राजोचित वेष-भूषा-युक्त जो राजपरिवार और जैनधर्मकी राजधर्मके रूपमें पुनः प्रतिष्ठा की। खड़ा है उनमें दो पुरुषोंमें या तो महाराज खारवेल और
शिशुपाल गढ़में हालमें ही (१९४८ से १९५१ तक) उनके उत्तराधिकारी युवराज कुदेपथी है या महाराज खुदाईका काम हुआ है । श्री टी. एन. रामचन्द्रन के अनुसार कुदेपश्री और कुमार बडुख है । दो स्त्रियोंमें खारवेलकी यह शिशुपालगढ़ संभवतः खारवेलके शिलालेखमें अग्रमहिषी और पुत्र-वधू है । आकाश मार्गसे उड़ता हुआ उल्लिखित कलिंगनगर ही है।
एक विद्याधर या देव है । उत्सुक हाथी तिर्यचोका प्रतिनि
धित्व करता है । कमल-पुष्प ज्योतिष्क-देवोंका सूचक है, ___ मंचपुरी
और आकाशमें ढोल बजाते हुए गंधर्व-जातिके देव हैं। मंचपूरी गुफा (ई. पू. दूसरी-पहली शताब्दी) एक वामभागका चित्र विनष्ट हो गया है। उसमें सम्भवतः अन्य शैल-शरणालय अथवा समश्राय है जिसमें तीन कमरे हैं, देव जैसे लौकान्तिक, व्यन्तर आदि प्रदर्शित थे । साराश यह जिनकी भूमि (फर्श) को इस प्रकार ढालू अथवा क्रमश · कि इस चित्रमें जिन-भगवान्की पूजा करते हुए देव, मनुष्य, उभारको लिए हुए बनाया गया है जिससे शयन करते समय और तिर्यच प्रदर्शित किये गये है और दूसरी विशेषता इस बिना तकियाके सिर ऊचा रह सके; क्योकि जैन साधु चित्र में यह है कि राज-परिवारकी प्रतिमूत्ति तदाकार अर्थात तकिया, बिस्तर वस्त्रादि किसी भी प्रकारका परिग्रह नही असली (Postraid) है। (चित्र नं० २,३) रखते है । इस गुफाके द्वारपालकों और स्तंभ-सोडियोंसे,
मंचुपुरी गुफामें दो शिला लेख निम्न प्रकार है:जिनमें सुसज्जित घोड़ोंपर वस्त्र-शस्त्र-भूषित सवार है, पारसीक और सीदियन प्रभाव प्रदर्शित होता है। इस गुफाकी
(१) ऐरस महाराजस कलिंगाधिपतिनो महा... अन्य विशेषताओंमें बुद्ध गयाकी तरहकी वेदिका (Railing) - वाह....कुदेपसिरिनो लेणम् (चित्र मं०४) और शाला-आदर्शके प्रस्तर है, जिनके बीच-बीचमे तोरण (२) कुमार वडुखस लेणम् (चित्र नं ५) हैं, जैसे कि लोमस-ऋषि गुफामें (बराबर पहाड़ी, गया) हैं। गुफाओंके प्रवेश-द्वारोंपर त्रिरत्नका आलेखन (design)
स्वर्गपुरी है। पारसीक शैलीके स्तंभोंपर शाला प्रस्तर है। टोडियोंकी स्वर्गपुरी (ई. पू. दूसरी-पहलीशताब्दी)-इस गुफामें मूत्तियोंमें भारी केश-बन्ध और मालाओं सहित स्त्रियां एक छोटा तथा एक बड़ा दो कमरे है। इन कमरोंके फर्श भी पूर्णघट लिये हुए हैं।
भी पीछेसे कुछ ऊचे हैं। कमरोंके बीचमें निम्न लिखित इनमेंसे दो कमरे कुदेपश्री और बडुखने बनवाये तथा लेख है, (चित्र नं. ६), जो कि इस गुहाका निर्माण कराने तीसरा सम्भवतः महाराज खारवेलने बनवाया था। यहां वाली खारवेलकी राणीका है:ध्यान देने योग्य यह है कि गुहामुखके मध्य भागमें उत्कीर्ण (प्रथम पंक्ति) अरहत पसादान (म्) कालिंगा (न) १ शिशुपालगढ़ J.A.H.R.S.Vol.xixpp.140-153. म् समणानम् लेणं कारितं राजिनो ल ()लाक (स)
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अनेकान्त
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RAYS 24 चित्र नं.३-ज्योतिष्क देवों का सूचक कमल (मंचपुरी गुफा) उसका विशेष रेखा चित्र
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अनेकान्त
ब्राह्मी लिपि में शिला लेब
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चित्र नं.---मंचपुरी गुफा में कुद्रेपश्री का शिला लेख ख. पृ० द्वितीय प्रथम शताब्दी
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चित्र नं०५-मंचपुरी गुफा में कुमार बडुख का शिला लेख-ख. पृ० द्वितीय-प्रथम शताब्दी
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-स्वर्गपुरी गुफा में महारानी का लेग्य - स्व. पु. द्वितीय-प्रथम शताब्दी १ अरहन पसादान ( म् ) कालिंगा ( न ) म् ममणानम् लेणं कारितं
राजिनी ल (1) लाक (स ) २ हथिम हम-पपोतस धु ना कलिंग-च...... वेलम ३ अगमहापी या का लेणं
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किरण १]
खण्डगिरि-उदयगिरि-परिचय
(द्वितीय पंक्ति) हथिस हंस-पपोतस धु-.1ना कलिंगा पाई है ?" (७) राजकीय मृगया। राजा अपने घोड़ेसे उतर व...................रवेलस ।
चुके है, साईस घोड़ेको पकड़े हुए है, राजा आगे बढ़कर लम्बे (तृतीय पंक्ति) अगमहीसी या का लेणम्
सीगवाले एक पक्षयुक्त (परोंवाले) मृगपर तीर चलारहा गुफाके सम्मुख भागमें पारसीक ढंगके स्तम्भ है और
है। मृग तेजीसे भाग रहा है । उसके पीझछे दो मृग और है। पार तोरण है, जिनमें एक मकर आलेखन और शाला ढंगके
इस चित्रमें मृग आहत होता नहीं दिखाया गया है। परवर्ती एक दीर्घप्रस्तर-स्तम्भको ऊर्ध्व भागमें लिये हुए है।
चित्रमें वह मृग अपनी स्वामिनीकी ओर रक्षाके लिये यह गुफा हाथीगुफाके लेखके समयसे किंचित पीछे की
भाग रहा है जो एक वृक्षकी शाखापर बैठी देख रही है। तथा मंचपुरी गुफाके समकालीन है ।
शिकारका पीछा करता हुआ राजा वृक्षोपविष्टा युवतीके
पास पहुंचता है, पर अब उसका धनुष उतरा हुआ है । राणी गुफा
विशेषज्ञोंका अभिमत है कि यह चित्र दुश्यन्त और शकुंतलाराणी गुफा (ई. पू. दूसरी शताब्दी) यह गुफा
का कण्वाश्रममें भेंटका द्योतक है। (८) एक प्रौढ़ स्त्री ज खाखेलने के बाद अपनी अनुचारिकाओके बीचमे बैठी हुई नृत्य देख रही है। यह गुफा दो मजिली है । दोनोंमें ही विशाल तक्षण-कार्य
यह स्त्री खारवेलकी महिषी जान पड़ती है। तीन स्त्रियां नाच है, जिसका शिल्प भार तसे भी बढ़ा-चढ़ा है, जब कि
रही है, और अन्य ३ बैठी हुई है । एक उपबीणा दूसरी झल्लरी
रहा। उसका रचना-विस्तार और मूर्तियोकी सजीवता एवं
बजा रही है और तीसरी हाथोंमे ताल दे रही है । बांई ओर तेजस्विता एक ऐसी विकसित अवस्थाको सूचित करती
अन्तमें एक पुरुष है (संभवत. राजा), वह भी नृत्य देख रहा है जैसी कि सांचीके द्वारोंमें दृष्टिगत होती है।
है । उसके सम्मुख करण्ड जैसी मंजूषा है । उस प्रौढ़ाके पास
थालमें मालाएं लिये एक अनुचारिका खड़ी है (चित्र नं०७)। ऊपरको मंजिलके दृश्य
अगले तीनो चित्रोमेसे प्रत्येकमें एक राजा और एक राणी हैं।
पहले दो चित्रोंमें प्रेमभावसे स्त्री राजाके अंकमें बैठी है, (१) कुछ स्त्रियो सहित एक राजा हाथियोंके दलमें प.
जो संसारी जीवनका द्योतक है। तीसरे चित्रमें स्त्री एक हाथी से लड़ रहा है। (२) वन्य दृश्य, जैसे गुहामें सिंह, । बन्दर, सर्प, पक्षी, और व्याघ। (३) गुफाके सम्मुख एक
गोदमे उतरी हुई है। पुरुष के हृदयमें विरक्ति का भाव है,
और स्त्री उसको संसारमें फंसाये रखनेके लिये रोकनेकी पुरुष तथा एक स्त्री। पुरुष संसारसे विरक्त हो कर मुनि
कोशिश कर रही है। बरामदेके सब अवलम्बन चित्र (Caryव्रत ग्रहण करना चाहता है तथा स्त्री उसको रोकनेकी चेष्टा
atid figures) साँचीके पश्चिमी द्वारके चित्रोसे मिलतेकर रही है (४) वही दम्पति । पुरुष गुफाकी ओर बढ़ रहा ।
जुलते है । द्वारके निकटका fiहारोही पटनेके मौर्य-कालीन है और स्त्री उसे रोक रही है। (५)शस्त्र-सुसज्जित स्त्री और
यक्षकी मूतिके सदृश है। कचुकसहित द्वारपालोंकी मूर्तियाँ पुरुषका द्वंद्व-युद्ध । उन दोनोंके मध्यमें एक लोमडी दिखाई
प्राचीन साहित्यमें उल्लिखित कंचुकियोंका स्मरण कराती पड़ती है। (यह उस कथाके सदृश है जिसमें रुधिर-लोलुप
है और एक बूट-सहित चित्र सीदियन प्रभावको प्रकट करता है। एक शुगाल मेष-युद्ध देख रहा था।) युद्धनिरत-स्त्रीकी पीठ पर अस्खलित बेणी लटकती है । (६) पुरुष जिसने
नीचेको मंजिलके दृश्य उस स्त्रीपर विजय प्राप्त किया है, उसे हाथोमें उठा कर ले जा रहा है, जब कि उस स्त्रीका भाव आत्म-गरिमा और द्वारपालोंसे सीदियन प्रभाव प्रकटित होता है। स्त्रियोचित विजयोल्लास प्रकट करता है, जिसे उसका दक्षिण गुफाओंके बाहर आंगनमें दोनों ओर दो छोटे छोटे प्रहरी कर सूचित रहा है, उसके बाम-हाथमें अभी भी ढाल है, मानो आश्रय-भूत-आच्छादन है, जिनके बाहरकी दीवारोंपर उसका बाम हाथ अब भी पुरुषको यह चुनौती दे रहा है कि वनका एक दृश्य अंकित किया गया है, जिसमें जलाशयमें "तुमने द्वंद्व युद्ध में मुझे जीता है, पर क्या मेरे मन पर विजय केलिरत हाथी, वृक्षोंपर उपविष्ट फलभक्षण करते हुए
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[वर्ष ११ मर्कट-युगल, आम्रफलोंसे युक्त वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। सूक्ष्मरूप यहां प्रदर्शित किया गया है। प्रथम एक नारीका मृग, पक्षी, सेही आदि जन्तुओंसे वनश्री सोल्लास हो रही अपहरण, फिर एक पुरुष और स्त्री का युद्ध । तत्पश्चात् वह
स्त्री उस पुरुषको संभवतः एक गुफा-आश्रयमें ले जा रही नीचेकी मंजिलमें ४ गुफाएं हैं। बरामदेके सब चित्र है, और अन्तिम दृश्यमें गुफाके सामने वह पुरुष लेटा हुआ नष्ट होगये हैं, किंतु बाई ओरके किंचित् अवशिष्टांशोंसे है, और वह स्त्री उसके पासमें बैठी हुई है। गुफाके बरामदेमें ज्ञात होता है विजयी राजाका प्रत्यागमन और स्वागत- बांई ओरसे दाहिनी ओर तक निम्न दृश्य अंकित किये गये समारोह । एक अनुचर राजापर छत्र लिये हुए है, राजाका हैं:-कई किरात सैनिक हाथी पर बैठे हुए एक पुरुष (राजा) पोड़ा उनके सामने है, फिर राजाके पीछे योद्धा खड़े हुए की तथा उसके अनचाकाबही मरगमिता है। स्त्रियां पूर्ण-कुंभोंसे और आरती द्वारा उनका स्वागत कर
पीछा कर रहे है। स्त्रीके हायमें अंकुश है; राजा, जिसका वेष रही है। इस दृश्यका सम्बन्ध संभवतः महाराज खारवेलसे है
भी किरातों जैसा है, उन पीछा करने वाले किरातों पर तीर जब वे दिग्विजयसे राजधानीमें लौटे हैं, और उनका स्वागत
चला रहा है ; और अनुचर, जिसके हाथमें रुपयोंकी थैली पूर्णकुंभों और एक अलंकृत अश्वको भेंट-स्वरूप अर्पण करते हुए किया गया था।
है, सिक्के गिरा रहा है ताकि किरात सैनिक प्रलोभित उत्तरकी ओर दूसरी गुफामें एक लम्बे कदका सीदि
होकर पीछा करना छोड़ दें। दूसरे दृश्यमें वह पुरुष (राजा) यन योता है, जिसके हाथमें बर्खा है। इस गुफामें स्तम्भों
वह स्त्री और अनुचर हाथीसे उतर रहे है। धनुष लिये हुए के ऊपरी भागमें पीठसे पीठ सटाकर बैठे हए पश है: जैसे वह राजा, उसके बाद फलोंका एक गुच्छा लिये वह स्त्री बैल सिंह हाथी और घोडे । पार्श्व प्रदेशमें टांड बने हुए हैं. और उसके पीछे रुपयों की थेली लिये अनुचर चल रहा है। जिन पर संभवतः मुनिगण शास्त्र और कमण्डल रखते थे। अंतिम दृश्यमें वह स्त्री भूमि पर बैठी विलाप करती है, इस गुफाके तक्षण-कार्य युक्त सम्मुख भाग पर जो दृश्य वह पुरुष उस स्त्रीकी ओर झुक कर उसे सांत्वना दे रहा है, अंकित है वे है पूजार्थ मन्दिरकी ओर गमन करती हुई एक और वह अनुचर एक हाथमें राजाका धनुष और दूसरेमें स्त्री, अपनी दो रानियों के मध्यमें उपविष्ट राजा, पट-मंडप- थैली लिये खड़ा है। के नीचे एक गायक और वाद्यकर-मंडली है जिसमें एक नृत्य
इस बरामदेके दृश्य एक अनतिपूर्व-कालीन वेदिकाके करती हुई महिला और उसके साथ दूसरी स्त्री मृदंग
नमूने पर और स्तम्भके ऊर्ध्व भागके पास कुटागार-सदृश बजाती हुई, तीसरी स्त्री ढप बजाती हुई और हाथोंसे ताल
आलेखन पर अंकित किये गये हैं। स्तम्भका उर्ध्व भाग, देती हुई, चौथी उपवीणा-वादिनी और पांचवी वेणुगान प्रदान करती हुई है। यह पटमंडप भारत जैसा है। स्त्रियोंके
भार-वाहक मूर्तियों पर अवस्थित है । तोरण द्वारों पर मकर है, कुंडल जैसे अमरावतीमे है उस सदृश है । बेणु (वंसी)
जिनके मुखसे लता बहिर्गत हो रही है । प्रत्येक तोरण का कोना सिंहकी आंशिक प्रतिमूर्तिकी आकृतिका है। पारसीक विषिके स्तम्भों पर है। टोडियों पर (जिनके पूजार्थ मन्दिरकी ओर जाता हुआ राजा और पुष्प थाल लिये मध्य भागमें गर्त है) नर नारी और एक राजाकी अनुगामिनी एक महिला चित्रित है । राजाके ऊपर छत्र है। मतियां बनी हुई है। गुफाके भीतर अपरिपक्व और आधुनिक बरामदेके तीनों तोरणों पर त्रिरत्न है। ये सब मूर्तियां ।
कालीन मूर्ति एक मुनिकी और एक गणेश की है, और एक विकसित वेदिका (रेलिंग) पर स्थित है।
शान्तिकर देवनुप-कालीन एक शिलालेख भीमटका है। गणेश गुफा
शान्तिकरका शासनकाल आठवीं शताब्दीका पूर्वार्ष है। यह ई.पू. दूसरी शताब्दी की है। इसमें दो कमरे है। जो वही भीमटका लेख धोली में भी है। द्वारपाल पर पार्श्वशायी कथा-दृश्य राणी गुफामें देखने में आता है उसीका बलका चित्र है।
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किरण १
छोटा हाथी गुफा ( ई० पू० द्वितीय शताब्दी)
खण्डगिरि-उदयगिरि-परिचय
इस गुफा के बाहर सम्मुख भाग पर जंगलका एक दृश्य है, जिसमें वृक्ष, और पुष्प डाल लिये हुए हाथी दोनों तरफ प्रदर्शित किये गये है। हाथी केवल सजीव और तेजस्वी ही नही बनाये गये है बल्कि दृश्य-कलात्मक भी है। द्वारके तोरणकी कछोटेदार डाट पर एक विनष्ट शिला लेख एक पंक्ति का है : - अगिख ( ? ) .......स लेणम् अर्थात् की गुफा ................
अलकापुरी गुफा ( ई० पू० दूसरी शताब्दी)
इसमे द्वितीय गुफा प्रवेश-द्वारके पास ही एक नारी शुक पक्षीको लिये खड़ी है (अमरावती में भी इसी प्रकार है) । उसके ऊपर एक शाल भंजिका है जो लतासे लिपटी हुई है । सांचीमें भी ऐसी ही मूर्ति है । उदयगिरिकी अन्य दर्शनीय गुफायें
१. सर्प-गुफा ( प्रथम शताब्दी ) - इस गुफाका सामनेका भाग सर्पके मुख-जैसा है, इससे इस गुफाका नाम सर्प - गुफा पड़ गया है। इसका फर्श बड़ा चिकना है । इसमें दो शिलालेख निम्न प्रकार है:“लकमस कोठा जेया च"
अर्थात् - चूलकमका अनुपम कोठा । "कम्मत हलविण्य च पसादो" अर्थात् - कम्म तथा हलक्षिणका प्रासाद । २. पवनारी गुफा -- यह प्रायः आधे दर्जन गुफाओ का समूह है, जिनका निर्माण काल अनिश्चित है ।
३. वाघ गुफा ( प्रथम शताब्दी) इसका मुख व्याघ्रजैसा है । यह एक छोटी गुफा ७ फुट लम्बी तथा ६ फुट ४ इंच चौड़ी है। इस के सम्मुख भाग पर एक शिला लेख है :"नगर अलवंस सभूतिणो लेणम्”
अर्थात् —-नगर- विचार - पति सभूति ( सुभूति) की गुफा ४. जम्बेश्वर गुफा ( ई. पू. प्रथम शताब्दी ) - जम्बेश्वर अर्थात् भालुओं के प्रभुकी गुफा । इस गुफामें दो द्वार तथा स्तम्भ है । स्तम्भ - मध्य में अष्टकोण युक्त और शेषांशमें चौरस है । इसके सम्मुख भाग पर यह शिला लेख ह:"महामदास बारियाय माकियस लेणम् ।"
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अर्थात् — महामदकी भार्या नाकियाकी गुफा । ५. हरिवास- गुफा ( ई. पू. प्रथम शताब्दी ) यह गुफा गणेश गुफाके सदृश है, इसके चौरस खंभे हैं, जिनमें वृहद् छिद्रयुक्त टोडियां बनी हुई है । इसके बरामदे पर निम्न शिला लेख है
चूलकम्मत पसावो कोया जोय (1) च
अर्थात् - चूल कर्मका प्रासाद तथा अनुपम गुफा । ६. जगन्नाथ गुफा - ( अनुमानत: ई. प्रथम शताब्दी) । उदयगिरीकी यह सबसे लम्बी गुफा है, २७॥ फुट लम्बी और सात फुट चौडी । इसमे किन्नरो, गणों, विद्याधरों, मिश्रजातिजीवों, मृग, हस, पक्षी और मछलीके चित्र अंकित है। यहां एक स्तम्भकी टोडीपर एक चित्र अंकित है, जिसमें एक सारस पक्षीने अपनी कंठ-नालीसे कांटा निकलवानेके लिये 'गण' की तरफ अपना मुख खोल रखा है। इसकी कथा प्रसिद्ध है ।
खण्डगिरि
खंडगिरि पर जितनी गुफाएँ है उनमे तत्व ( तोता ) गुफा और अनन्तगुफा सबसे अधिक महत्व की है ।
१ तेली गुफा (द्वितीय तृतीय शताब्दी) इस गुफा - के सामने तेतुल ( इमली) का एक पेड़ है इससे इसका नाम तेतुली गुफा पड़ गया है। यह गुफा अपूर्ण मालूम पड़ती है और इसपर परवर्ती कालके कई कारुकार्य उपलब्ध है । इसके स्तम्भोंका मध्य भाग अष्टकोणीय और बाकी चौकोर है। इसके स्तम्भ भी विकसित है। स्तम्भोंके टोड़ोंपर पीठ-से-पीठ सटाकर बैठे हुए हाथी और व्याघ्र और एक खड़ी नारीके प्रत्येक हाथमे कमल ध्यान देने योग्य है।
२. सत्व गुफा न. २ ( ई. पू. प्रथमसे पहली शताब्दी) - इस गुफामें तीन द्वार, दीर्घ प्रस्तरासन, पार्श्वस्थछिद्र (खिड़की) और चौकोर स्तम्भ है। मध्यमें कटी हुई टोडियोंपर पल्लव, नर्त्तकी और वीणापाणिनर, पुष्पमाल सहित अलंकृतनारी, स्तम्भके ऊर्ध्व भागके श्रृंगोंके दाहिनी ओर सिंह और बाईं ओर हाथी है, पल्लव-युक्त तोरणोपर त्रिरत्न चिह्न है । एक तोरणपर मृग-युगल, दूसरेपर कपोत-युगल और तीसरे तोरणपर शुक-युगल अवधान-योग्य है । मध्य
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अनेकान्त
वर्ष ११
का तोरण नाग-फणोंको प्रदर्शित करता है। सभी तोरण तथा दंड दोनों पावंचर-सहित। एक तरफ चन्द्रमाका पारसीक ढंगके स्तम्भोंपर है। इन स्तम्भोंके ऊपरका भाग सूचक अर्द्धचक्र और दूसरी ओर समस्त ज्योतिष्कलोकका गोल है। स्तम्भ बटी हुई रस्सीको आकृतिके हैं, जिनपर सूचक कमल है । जैसाकि मंचपुरी गुफामें है। पीठ-से-पीठ सटाकर बैठे हुए पशु अंकित किये गये है। (ग) गजलक्ष्मी-हाथोंमें कमल-सहित, घड़ोंसे इस गुफाकी अलंकारिक कला अपनी विशेषता लिये हुए है। अभिषेक करते हुए दो हाथियोंके मध्य खड़ी हुई, कमलफलों
३. तत्व गुफा नं.१ (ई.पू. प्रथमसे पहली शताब्दी)- पर उपविष्ट शुकयुगल । . इसके दो द्वार है। प्रचलित तोरण, रानी गुफाके जैसे स्तम्भ, (घ) चतुर्थ तोरणके नीचे वेदिकाके मध्यमें चैत्यवृक्ष टोड़ियोंके आधारसहित स्तम्भोंके ऊर्ध्व भागपर तोरणों- और पूष्पमालाओंसे पूजा करते हुए राजा और रानी उत्कीर्ण पर शुकपक्षी और मकर जिनके मुखसे कुटिलगामिनी लता किये गये है। बरामदेके अन्तिम भागमें पुष्प लिये निर्गत हो रही है-जैसी मथुराके पुरातत्त्वमें प्राप्त है। हए उड़ते हुए विद्याधर है। और बरामदेके अन्तिम यहां विशेष उल्लेखनीय बरामदेमें एक शिलालेख है, दाहिने भागमें एक उडता हा विद्याधर एक थालमेंजिसमें लिखा है--पादमूलिक निवासी कुसुमाकी गुफा से माला ले रहा है, थाल एक भूतके हाथमें है, (पादमूलिकस कुसुमास लेणम्)।
जिसके कान पत्राकार है और मुख-दन्त विकसित है। स्तम्भ. ४. अनन्त गुफा-(ई. पू. प्रथमसे पहली शताब्दी) जो मध्यमें अष्टभुजाकार हैं, उनके दोनों तरफ (भीतर इसके तोरणोंके ऊपर दोनों तरफ नाग (अनन्तनाग) है। और बाहर) चित्ताकर्षक टोड़े है । भीतरवाले टोड़ोंमेसे इससे इसको अनन्त गुफा कहते है। इस गुफाके बरामदेमे प्रथममें एक पुरुष तथा एक स्त्रीको ले जाने वाले हाथीके निम्नलिखित वस्तुएं दृष्टव्य है:
अवलम्बनस्वरूप एक भूत है। दूसरे और चौथे टोड़ोंमें (१) साधारण वेदिका विसूची युक्त ।
पल्लवबन्ध पार्श्वस्थ पूजा करती हुई दो नारिया है, जिनका
अंग कमनीयतासे मुड़ा हुआ है। तीसरेमे, हाथोमें कमल (२) स्तम्भोपर शाला प्रस्तर और स्तम्भोंके बीचमें
लिये स्त्रियां है, जिनमें एक स्त्री अनेक कंकण पहिने हुए उड़ते हुए विद्याधर ।
धातुमय रत्नकोष-सी जान पड़ती है। पांचवीं टोड़ीमें . (३) मणिकंठधारी त्रिफणायुक्त नाग ।
कमलपर स्थापित हाथी है। बाहरको टोड़ियोंमें पहली और -(४) सोरणोंमें माला, तिमिजातीयमत्स्य, सिह, पांचवीमें अश्वारोही सैनिक और दूसरी, तीसरी, तथा मकर, व्याघ्र, चंचुओंमें मुक्ताफल लिये हुए हंस है। और चौथीमें भूत है। तोरणोंके ऊपर त्रिरत्न चिह्न है।
गुफाके पृष्ठ-देशकी भीतपर एक पंक्तिमें निम्न(५) चतुष्कोणविशिष्ट पासिक ढंगके स्तम्भ।
लिखित चिह्न उभरे हुए हैं:-स्वस्तिक, नन्दीपद, त्रिरत्न, (६) तोरणोंका तलभाग जिनके बरोगे (raftars) पंचपरमेष्ठि चिह्न । नन्दीपद, और स्वस्तिक, इन चिह्नोंके दिखाई नहीं पड़ते ।
नीचे अधूरी एक मूर्ति आदिनाथकी चमरेन्द्रों पुष्पवृष्टि (७) तोरणोंके नोचे निम्नलिखित दृश्य उल्लेख- और इंदभिवाले देवों-सहित उत्कोणं है । मालूम होता है नीय है :
शिलावटने मूर्ति बनाना प्रारम्भ करके कठिनताके कारण (क) अपनी दो हपनियों सहित हाथी जिसका अग्र
अधूरी छोड़ दी है। भाग चपटा है।
गुफाके बरामदेके बाई ओरकी कड़ीपर निम्नलिखित (ख) सूर्य, दो हाथों सहित, दो पहियोंके रथपर,
शिलालेख अंकित है:जिसमें चार घोड़े जुते हुए है (मथुराके जैसा), उषा और
बोहद समनानम् लेणम् । प्रत्युषा नामक अपनी दोनों पत्नियों सहित और पिंगल अर्थात्--दोहदके श्रमणोंकी गुफा ।
• नाग ।
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अनेकान
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चित्र नं०७-रानो गफा-उदयगिरि, मंडप में नृत्य, गीत, वादिन ममारोह। ६. पू.द्वि. शताब्दो
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अनेकान्त
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चित्र न०८- आदिनाथ मन्दिर-बार । राजा मजु चौधरी ( पवार ) द्वारा निर्मित
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चित्र नं.-आदिनाथ और अम्बिका को उत्कोण मुत्तिया-खटगिरि ८ वी ९ वी शताब्द!
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किरण ११
खण्डगिरि-उदयगिरि-परिचय
८९
(ङ) त्रिशूल गुफा - इस गुफाके बरामदेमें एक त्रिशूल उत्कीर्ण है, इससे इसका वही नाम प्रसिद्ध हो गया है । यह भी मध्यकालकी है। इसकी दीवालोंपर २४ तीर्थंकरोंकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इसके सामने एक मन्दिर है ।
खण्डगिरिको अन्य गुफाएं
खंडगिरि पर्वतपर, परकालीन गुफाओंमें निम्नलिखित उल्लेखनीय है :
(क) खंडगिरि (खंडित पर्वत) गुफा -- जिसका समय अनिश्चित है, दो खंडकी है और पर्वतपर चढ़ते हुए सबसे पहिले यही मिलती है ।
(ख) ध्यानधर- इस गुफाका दूसरा नाम शंखगुफा है। संभवतः यह गुफा मध्यकालीन है। मूलतः यह गुफा एक गह्वर-जैसी थी पर इसके अग्र भागकी दीवाल और बरामदेके स्तम्भोके गिर जानेसे यह एक बड़े खुले कमरेके रूपमें परिणत हो गयी है। इसकी बाई दीवालपर सात अक्षर शंख-लिपिके उत्कीर्ण है ।
(ग) नवमुनि गुफा – यह गुफा भी संभवतः मध्यकाल की है। इसकी दीवालपर नौ तीर्थंकरोंकी पद्मासन मूर्तियां उत्कीर्ण है । और उनके नीचे यक्षणी देवियां हैं। मूर्तियोंके साथ तीन छत्र और दो चमरेन्द्र है। मूर्तियोंके नाम आदिनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दन नाथ, वासुपूज्य, पार्श्वनाथ, और नेमिनाथ है। इनके अतिरिक्त पार्श्वनाथ और आदिनाथकी दो और मूर्तियां है। यहां चार शिलालेख भी हैं, जिनमें एक दसवी शताब्दीका उद्योतकेशरीके शासनकालके अठारवें वर्षका है। दूसरा श्रीधर नामक एक विद्यार्थीका है । तीसरा विजो (विद्या) विद्यार्थीका, जो आचार्य खल्ल शुभचन्द्रका शिष्य था । शुभचन्द्रको आचार्य कुलचन्द्रका शिष्य लिखा है और चौथा अस्पष्ट है ।
(घ) बारह मुखी गुफा —— यह भी मध्यकालकी है । इस गुफा में तेईस पद्मासन और एक खड्गासन तीर्थंकरोकी मूर्तियां यक्षिणी देवियोंकी मूर्तियों सहित है । गुफाके बाहर बरामदे में बाईं और दाहिनी तरफ बड़ी २ दो बारहभुजी मूर्तियां देवियोंकी है। जिनके मस्तकपर आदिनाथ और महावीरकी मूर्ति है। इनमें एक चक्रेश्वरीकी मूर्ति है और दूसरी सिद्धायिनीकी। यहां एक छोटी-सी मूर्ति खड़े हुए दिगम्बर मुनिकी है, जिनके हाथमें पिच्छि है, और कमंडल सामने रखा है । इस गुफाके सामने एक आधुनिक छोटा चैत्यालय है ।
नोट – इस लेख से सम्बन्ध रखनेवाले जो ९ फोटो चित्र साथ में पू० ' एसा उल्लेख है वहां वह लेखमें उल्लिखित 'ई० पू०' का वाचक है।
(च) ललाटेन्दुकेशरी गुफा ( मध्यकालीन ) – मूलतः यह गुफा दो मंजिलकी थी किंतु उनका अग्र भाग और दीवालोंका कुछ भाग गिर गया है। दीवालोंपर तीर्थंकरोंकी मूर्तिया उत्कीर्ण हैं, जिनमें आदिनाथ और पार्श्वनाथकी सविशेष रूपसे प्रदर्शित की गयी हैं । गुफाके पीछे की दीवालपर तलभाग से ३०-४० फीटकी ऊंचाईपर कई दिगम्बर मूर्तियोंके ऊपरके भागमें एक ग्यारहवीं शताब्दीका खंडित शिलालेख अशुद्ध संस्कृत भाषामें पांच पक्तियोंमें उत्कीर्ण है, जिसमें लिखा है कि, उद्योतकेशरीके शासनके पांचवें वर्षमें श्री कुमारपवंतपर जीर्ण जलाशय और मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करा कर २४ तीर्थंकरोंकी मूर्तिया स्थापित कराई। श्रीपार्श्वनाथके मन्दिर 'जसनन्दी ......' इस शिला लेखमें पर्वतका नाम कुमारगिरि लिखा है किन्तु खारवेल के शिलालेखमें कुमारीगिरि लिखा गया है ।
(छ) ललाटेंदुकेशरी गुफाके निकट पहाड़की दीवालपर, जिसका बहुत-सा भाग गिर गया है, १०-१२ फुट ऊपरमें दो मूर्तियां आदिनाथकी और एक अम्बिकाकी तीनों मूर्तियां खड्गासनमें उत्कीर्ण है (चित्र ९) । इनका समय आठवींनवमी शताब्दी है । जैनमूर्ति-कलामें अम्बिका (नेमीनाथhi यक्षिणी) को बहुत महत्व प्राप्त है और इसकी मूर्ति प्रायः सर्वत्र पाई जाती है । खंडगिरिके ऊपर राजा मंजू चौधरी ( परवार) के मन्दिरमें (चित्र नं० ८) अम्बिकाकी प्राचीन दो मूर्तिया बड़ी सुन्दर और कालापूर्ण हैं । इसी प्रकार खंडगिरिके निकटवर्ती कई ग्रामोंमें भी मने अम्बिकाकी
मूर्तियो के दर्शन किये हैं। इस देवींके साथ दो बालक और आम्रफलयुक्त शाखा या वृक्ष रहते हैं । यह देवी सिंह-वाहिनी है ।
कलकता, ता० २५-२-१९५२
लगे है उनमें चित्र विषय की सूचनाके साथ जहाँ ''०
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सम्पादकीय
१. अनेकान्तका नया वर्ष
जा रहा है । निजी सम्पत्तिकी समाप्तिपर पत्र बन्द हो इस सर्वोदयतीर्थाकूके साथ अनेकान्तका नया वर्ष ।
जायगा तो कोई बात नहीं। परन्तु इच्छा रहने पर भी मैं (११वी) प्रारम्भ हो रहा है। इस विशेषाङ्कको लेकर
: कुछ परिस्थितियोंके वश मजबूर था और इन सब प्रेरणाओं
3 बनेकान्त अपने पाठकोंकी सेवामें करीब १॥ वर्षके बाद
पर विशेष ध्यान नहीं दे सका। उपस्थित हो रहा है। दसवें वर्षमें अनेकान्तको लगभग दैवयोगसे गत अक्तूबर मासमें मेग बा. छोटेलालजीसे ढाई हजारका घाटा रहा था, जिससे पत्रको आगे चाल मिलनेके लिये कलकत्ता जाना हुआ, जहां उस समय बेलरखनेके लिये एक विकट समस्या खड़ी हो गई थी। चुनांचे गाछयाम इन्द्रध्वज-विधान हो रहा था। अनेकान्तकी चर्चा
पारेका विमान प्रकट करने का यह मानना चली और एक सज्जन श्री बी. आर. सी. जैनने यह प्रस्ताव की गई थी कि “जब तक इस वर्षके घाटे की पूर्ति नहीं हो रक्खा कि अनकान्तका स्थायित्व प्रदान करन एव सुचारुरूपसे जाती तबतक आगेके लिये (पत्रको निकालनेका) कोई चलानेके लिये संरक्षकों और सहायकोंका एक आयोजन विचार ही नहीं किया जा सकता । अतः अनेकान्तके प्रेमी किया जाय। जो सज्जन २५१) या इससे अधिककी सहायता
लिये रब जब कोई व्यवस्था प्रदान करें वे 'संरक्षक' और जो १०१) या ऊपर की सहाठीक हो जावेगी तब उन्हें सूचित किया जायगा।" साथ ही यता प्रदान करें वे 'सहायक' करार दिये जायं, दोंनोंको पत्र प्रेमी पाठकोंको यह प्रेरणा भी की गई थी कि "अनेकान्तकी सदा भेंटस्वरूप भेजा जाय और संरक्षकों तथा सहायकोंइस घाटापूतिमें यदि वे स्वयं कुछ सहयोग देना तथा दूसरों- की शुभनामावली बराबर अनेकान्तमें प्रकाशित की जाय । से दिलाना उचित समझें तो उसके लिये जरूर प्रयत्न करें।" यह आयोजन सबको पसन्द आया। बाबू नन्दलालजी सरावपरन्तु प्रायः किसीका भी ध्यान उस ओर गया मालम नहीं गीकी १५००) रु. की सहायताने इस आयोजनको विशेष होता और इसलिये सालभरके करीबकासमयतो यों ही निकल प्रोत्साहन दिया । और उनकी तथा दूसरे भी कुछ सज्जनोंगया। इस बीचमें कितने ही प्रेमी पाटकोंके पत्र ऐसे जरूर की साधरणसी प्रेरणाको पाकर उसी समयके लगभग कलकभाते रहे हैं कि 'अनेकान्त क्यों नही आ रहा है? उसे शीघ्र तामें १३ संरक्षक और ९ सहायक और बन गये जिन सबके भेजिये, वी.पी. से भेजिये, ग्राहकश्रेणीमें हमारा नाम लिख नाम तथा बादको बने हुए संरक्षकादिके नाम भी अन्यत्र लीजिये, उसका बन्द रहना उचित नही, वही तो समाजमें एक प्रकाशित है और जो सब धन्यवादके पात्र हैं। पत्र है जिसे पढ़कर ज्ञानमें वृद्धि तथा कुछ नई प्राप्ति होती इस आयोजनके अनुसार अनेकान्तके प्रस्तुत विशेषांकहै और जिसे गौरवके साथ दूसरे विद्वानोंके हाथोंमें दिया को गत जनवरी मासके शुरूमें ही निकालनेका विचार जा सकता है, इत्यादि।' एक मित्रने तो यहां तक भी प्रेरणा किया गया था; परन्तु कलकत्तासे आते ही मेरे बीमार पड़ करनेकी कृपा की कि अनेकान्त-जैसे उच्च आदर्शका पत्र जाने, निमोनियाके चक्करमें फंस जाने और भारी कमजोरी घाटेके कारण बन्द न होना चाहिये, घाटेकी पूर्तिका उपाय हो जानेके कारण वह विचार कार्यमें परिणत न हो सका। किया जाय, यदि समाजका ध्यान उसकी पूर्तिकी ओर न कुछ शक्तिके संचित होते ही अनेक मित्रोंके मना करनेपर जाय तो अपनी उस सम्पत्तिको बराबर अनेकान्तके घाटों भी मुझे अपनी जिम्मेदरीको समझते हुए कार्यमें जुट जाना की प्रतिमें ही लगा दिया जाये जिसे वीरसेवामन्दिको दिया पड़ा और उसीके फलस्वरूप अनेकान्तका यह विशेषार
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सम्पादकीय
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पाठकोंकी सेवामें प्रस्तुत है । यद्यपि अपनी अस्वस्थताके वीरजिनालय नजर आरहा है, उसके सामने एक योगिराज कारण मै इसके कितने ही अंगों की पूर्ति नहीं कर सका हूं, प्रवचन कर रहे हैं, जिसे सभी वर्ग-जातियोंके लोग बड़ी फिर भी जो कुछ कर सका हूं उसका प्रधान श्रेय उन विद्वान् तन्मयताके साथ सुन रहे है और ऐसा मालूम होता है कि लेखकोंको है, जिन्होंने रोग-शय्यापरसे भेजे तथा भिजवाये योगिराज तीर्थका सम्यक् परिज्ञान कराते हुए लोकहृदयमें हुए मेरे पत्रोंका आदर कर अपने लेखोंको भेजनेकी कृपा उसके प्रभावको अंकित कर रहे है । जिनालय और प्रवचनकी है । इस कृपाके लिये मै उन सबका बहुत आभारी हूं। सभाके मध्यमें चूहा-बिल्ली, मोर-सर्प जैसे जाति-विरोधी भाशा है वे तथा दूसरे विद्वान् भी ,जो किसी कारणवश इस जीव अपना वैर-विरोष भुलाकर प्रसन्नमुद्रामें एक साथ बैठे विशेषाङ्कमें अपने लेख नही भेज सके है, भविष्यमें बराबर हुए है, जिससे योगिराजके योगमाहात्म्य अथवा जिनशासनके अनेकान्तको अपने महत्वपूर्ण लेखोसे भूषित करते रहेगे महात्म्यका कितना ही पता चलता है। सबके ऊपर शिलाऔर ऐसा करना अपना एक पवित्र कर्तव्य ही बनानेकी कृपा लेखादिके रूपमें एक श्लोक अकित है जिसमें वीरके इस करेंगे, जिससे अनेकान्त विश्वमें जैनसमाजका एक आदर्श- तीर्थ को ही 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया गया है । यह श्लोक पत्र बननेकी क्षमताको प्राप्त कर सके। इसके लिये धनिकों- स्वामी समन्तभद्रका वाक्य है, जिन्होंने अपने समयमें इस को भी संरक्षाकादिके रूपमें अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करना तीर्थकी हजार गुणी वृद्धि की है, जिसका उल्लेख एक पुरातन होगा और दानके सभी शुभ अवसरोंपर इसे याद रखना शिलालेखमें पाया जाता है और जिन्हे ७वीं शताब्दीके होगा।
अकलंकदेवजसे मर्दिक आचार्यने 'कलिकालमें इस तीर्थ यहांपर मै खास तौरपर बा० छोटेलाल जी जैन को प्रभावित करने वाले' कहकर नमस्कार किया है। उनका कलकत्ताका आभार व्यक्त किये बिना नही रह सकता, वह नमस्कार तीर्थजलके तलमें स्थित श्लोकके प्रथम तीन जिन्होंने स्वयं रोग-शय्यापर आसीन होते हुए भी मेरी प्रार्थना- चरणोंमें अंकित है, जिनमें इस तीर्थको सर्व-पदार्थ-तत्त्वोंको को मान देकर खण्डगिरि-उदयगिरिके सम्बन्धमेंअपना महत्त्व- अपना विषय करनेवाला स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवादरूप का खोजपूर्ण लेख चित्रोसहित भेजनेकी कृपाकी है और पुण्योदधि प्रकट किया है। और इस तीर्थकी प्रभावनाका हर एक किरणके लिये चित्रोंके आयोजनका आश्वासन उद्देश्य 'भव्य-जीवोंके आन्तरिक मलको दूर करना' लिखा देकर मुझे प्रोत्साहित किया है । साथही, आपके लघुभ्राता है। चौथे चरणमें इस तीर्थके अधिनायक और समन्तभद्रके बाबू नन्दलालजीको विशेष धन्यवाद अर्पण किये बिना भी अधिनायक श्रीवीरजिनेन्द्रको नमस्कार समर्पित किया भी नहीं रह सकता जिनकी १५००) रु. की पहली सहायताने गया है। और इससे प्रवचनकर्ता योगिराज वे ही तीर्थके और प्रेरणाओने अनेकान्तके इस नये आयोजनमें अमृत- महाप्रभावक आचार्य स्वामी समन्तभद्र जान पड़ते हैं। सिंचन का काम किया है और जो अनेकान्तसे गाढ़ प्रेम रखते वीर-जिनालयसे कुछ दूरीपर एक स्तम्भ खड़ा है जो मानस्तम्भहै। आशा है कुछ ऐसे उदार महानुभाव भी शीघ्र ही आगे का प्रतिनिधित्व करता हुआ मालम होता है। नीचे तीर्थजलमें आएंगे जो अनेकान्तके ग्राहकोंको उपहारमे किसी-न-किसी यात्रीजन स्नान-अवगाहन कर रहे है और उनमें अनेक उत्तम ग्रन्थका आयोजन करके उनके ज्ञानमें वृद्धिका कारण जातियोंके स्त्री-पुरुष शामिल है। एक तरफ शेर और बकरी बनेंगे और उन्हे अनेकान्तकी ओर आकर्षित करनेमें सविशेष एक ही घाटर पर इकट्ठे पानी पी रहे है और तीर्थके रूपसे सहायक होगे। मै ऐसे सभी संरक्षकों, सहायकों और महात्म्यको व्यक्त कर रहे है। दूसरी तरफ 'रनत्रय" नाम उपहारदाताओंका अभिनन्दन करनेके लिये प्रस्तुत हूं। का पोर (जहाज) खड़ा है जो आश्रितोंको संसार-समुद्रसे २. चित्र-परिचय
पार करनेके लिये उद्यमी है । इस तीर्थकी पैडियोंमें जो पत्थर इस विशेषाङके मुख-पृष्ठपर जो दुरंगा चित्र है लगे है वे अपनी खास विशेषता रखते हैं। अनेकान्त-तटके वह अधिकांशमें अपना परिचय आप दे रहा है। नीचेवाली दोनों पैडियों की दीवार में सत्-असत् आदि और उसपर दृष्टि पड़ते ही बृहद्वारके भीतर एक तरफ हित-अहित आदि तात्त्विक युगलों (जोड़ों) को लिये हुए
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अनेकान्त
वर्ष ११
जो पत्थर लगे है वे सब इस बात को सूचित करते है कि इस दृष्टिसे उन्हें अपनाये हुए है और इसलिये कभी विरोध तथा तीर्थमें स्नान-अवगाहन करनेसे ये सब तात्त्विक समस्यायें मिथ्यादर्शनके रूपमें परिणत नहीं होता । और अहिंसापद सहजमें ही हल हो जाती है। और इधर-उधरके द्वीन्द्रियादि समनस्क पर्यन्त पांच प्रकारके त्रसजीवों और अहिंसा तटोंके नीचे की पैडियोंमें जो दया-प्रतादि तथा पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु-वनस्पति-काय के रूपमें पंच प्रकारके मैत्री-समतादि रूप पत्थर लगे है वे सब इस बात को सूचित स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवोंको अहिंस्य मानकर उन्हे अभय करते है कि इस तीर्थ में स्नान-अवगाहन करना ही अपने को प्रदान किये हुए है । मूलमें इन्हीं दो चरणोपर शासनका इन दया-प्रतादिरूपमें परिणत करना है, जो सब शान्ति-सुख- सारा शरीर खड़ा है। जिनेन्द्रके जिन दो चरणोंको पापोंका का मूल है। तीर्थके ऊपर आकाशमें जो दो देवविमान नाश करनेवाला मानकर उन्हें प्रणाम किया जाता है वे वस्तुतः दिखाई पड़ रहे है वे तीर्थ की गरिमाको अलगसे ही प्रकट अनेकान्त और अहिंसाके रूपमें ही है। अनेकान्तके द्वारा कर रहे है।
विचारदोष और अहिंसाके द्वारा आचार-दोष मिटकर दूसरा एकरंगा भीतरी चित्र 'शास्ता वीरजिन अथवा वीर- मनुष्यक विकासका सारा भूमिका तय्यार हो ज जिन-शासन'का एक बड़ा ही सुन्दर, सजीव एवं मनोमोहक भार अन्तम दाना उपक्षाक रूपम परिणत हाकर उस सिडि रूप है । शास्ता अपने शासनको अपने ही अगोंमें अंकित ।
को प्राप्त करनेमे समर्थ होते है जिसे 'स्वात्मोपलब्धि' तथा किये हुए कितना दिव्य जान पड़ता है। उसके मुखपर सद्
'ब्रह्मपदप्राप्ति के रूपमें उलेखित किया गया है। इसी आत्मदृष्टिके साथ प्रज्ञा, प्रसन्नता, अनासक्ति और एकाग्रता
विकास और उसके साधनो आदिका सूत्ररूपमें निदर्शक यह खिलखिला रही है। यह चित्र अपना खुद का परिचय और
चित्र है, जिसे सामने रखकर आत्मविकास और उसके साधनों भी अधिकताके साथ स्वय दे रहा है और इसलिये इसके
की कितनी ही शिक्षा प्राप्त की जा सकती है और महीनों विषयमें अधिक लिखनेकी कोई जरूरत मालूम नहीं होती।
तक वीरशासनका विवेचन करते हुए उसके अभ्यासको यहां पर सिर्फ इतना ही व्यक्त किया जाता है कि वीरजिन
बढाया एवं ध्यानादिके द्वारा उसे अपने जीवनमें उतारा
जा सकता है। यह चित्र प्रत्येक घरमें किसी योग्य अथवा उनके शासनके दो पद है-दाहिना पद 'अनेकान्त'
स्थानपर कांचादिमें जड़ाकर लगानेके योग्य है, इसीसे और बाया पद आहसा । अनकान्त पद अपनम एकान्त, इसकी कुछ कापिया अलग भी छपाई गई है। दूसरे दुरंगेविपरीत. संशय, विनय और अज्ञान नामके पंचविध मिथ्या चित्रकी कापिया भी प्रेमियोंको अलगसे मिल सकेंगी। प्रत्येक दर्शनों (मिथ्यात्वो) के समूहका समन्वय किये हुए है-सापेक्ष चित्रका मूल्य दो आने है।
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वीरसेवामन्दिरको बिल्डिग का एक भीतरी दृश्य
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वीरसेवामन्दिरके चौदह रत्न पुरातन-जनवाक्य-सूची--प्राकृतकं प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्थोकी पद्यानुक्रमणी. जिसके साथ 6८ टीकादिग्रन्याम उद्धत दूसरे प्राकृत पद्योकी भी अनत्रमणी लगी हई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योकी मूची। मयोजक ओर मम्पादक मुख्तार श्रीज गलकिशोरजीकी गवेषणापूर्ण महत्त्वकी १५० पृष्ठकी प्रस्तावनाग अलकृत, डा० कालीदास नाग एमप, डी लिट के प्राक्कथन ( Foreword) और डा० ए एन उपाध्याय एम ए.डी लिट की भमिका ( Introduction) मे विभूपिन है, गोध-बोजके विद्वानोक लियं अतीव उपयोगी. बटा माटज मजिल्द (प्रस्तावनादिका अलगम मल्य ५ ) ) आप्तपरीक्षा--श्रीविद्यानन्दाचार्यकी म्वापज्ञमटीक अपूर्वकृति, आप्ताकी परीक्षा-द्वारा ईश्वर-विषयके मुन्दर मग्म और मजीव विवेचनको लिा हुए. न्यायाचार्य प. दरबारीलालके हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिम युक्न मजिल्द ) न्यायदीपिका--न्याय-विद्याकी मुन्दर पाथी. न्यायाचायं प० दरबारीलालजीक मस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनवाद, विस्तन प्रस्तावना और अनक उपयोगी पर्गिशष्ठोसे अलकृत. जिल्द ) स्वयम्भूस्तोत्र--समन्तभद्रभागतीका अपूर्व ग्रन्थ मुन्नार श्रीजगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्दपरिचय समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हई महत्वकी गवेषणापुणं प्रम्नावनामे मृगोभित । ) स्तुतिविद्या--म्वामी ममन्तभद्रकी अनोखी कृति. पापांक जीतनकी कला, मटीक, मानबाद ओर थीजुगलकिशोर मम्नारकी महत्वकी प्रस्तावनामे अलकृत. मुन्दर जिन्द-महित ।
..
) ) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि गजमल्लककी मुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-महिन आर मम्तार धीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाम पित।
. ) ) यक्त्यनशासन-तत्वज्ञान परिपुर्ण ममन्नभद्रकी अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनवाद नही हुआ था । मन्नार श्रीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिम अलकृत, जिल्द । ) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र---आचार्य विद्यानन्दचिन, महत्त्वकी स्तुनि, हिन्दी अनुवादादि महिन। .. ॥)
शासनचतुस्त्रिशिका--(तीर्थ-परिचय)--मनि मदनकीनिकी १३वी शताब्दीकी मृन्दर रचना, हिन्दी अनवादादि-पहित। .) सत्साध-स्मरग-मंगलपाठ--श्रीवीर बद्धमान आर उनक वादक -१ महान् आचायकि १३७ पुण्य म्मरणों का महत्त्वपूर्ण सग्रह, मुम्नाग्धीकं हिन्दी अनवादादि-महिन। .) विवाह-समद्देश्य--मम्ताग्दीका लिखा हुआ विवाहका मप्रमाण मार्मिक ओर तात्विक विवेचन .. ) :) अनेकान्त-रस-लहरी--अनकान्न जैग गृह गभीर विषयको अतीव मलता में समझने-समझाने की कजी,
मुम्नार श्रीजगलकिशोर-लिखित। १) अनित्यभावना-श्रीपद्मनन्दी आचार्यकी महत्वकी रचना, मुन्नारश्रीकं हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ
गहित। १४) तन्वार्थसूत्र (प्रभाचन्द्रीय )--मम्नाग्थीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्याग युक्त नोट-- मब ग्रन्थ एममाथ लेनेवालो को ३॥) की जगह ३०) म मिलेंगे ।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला'
सरसावा, जि. सहारनपुर ।
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Regd. No. D-211
dansaidiJEEEEEEEEEEEEEEEEEE अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
र अनेकान्त पत्रको स्थायित्व प्रदान करने और सुचारू रूपसे चलाने के लिये कलकत्ता M में गत इन्द्रध्वज-विधान के अवसर पर (अक्तूबरमें) संरक्षकों और सहायकोंका एक नया TV आयोजन हुआ है। उसके अनुसार २५१) या अधिकको सहायता प्रदान करने वाले सज्जन - 'संरक्षक' और १०१) या इससे ऊपरको सहायता प्रदान करने वाले 'सहायक' होते है। M अब तक 'अनेकान्त' के जो 'संरक्षक' और 'सहायक' बने है-उनके शुभ नाम निम्न प्रकार से ा है। आशा है अनेकान्तसे प्रेम रखने वाले दूसरे सज्जन भी शीघ्र ही, स्वयं 'संरक्षक' अथवा - 'सहायक' बनकर तथा दूसरोंको बनाकर, एकमात्र सेवाभावसे संचालित एवं समाजको ठोस • सेवा करने वाले इस पत्रके संचालन और संवर्धनमें अपना पूर्ण प्रोत्साहन प्रदान करेंगे :-- *. १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी कलकना २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी देहली २५१) बा० छोटेलालजी जैन "
२५१) ला० गजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन . २६१) बा० सोहनलाल जो जैन
दरियागज, देहली २५१) ला० गल जारीमल ऋषभदाम जी " २५१) बा० मनोहरलाल नन्हमल जी, देहली
२५१) बा० ऋषभचन्द्रजी (V.R.C.) जैन" २५१) ला० त्रिलोकचन्द्र जी (कलकत्तावाले) * २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
सहारनपुर २५१) बा० रतनलालजी झांझरी
१०१) बा. धनश्यामदास बनारसीदासजी कलकत्ता 2. २५१) सेट बल्देवदासजी जैन
१०१) बा० लालचन्द्रजी जैन सरावगी " २५१) मेठ गजगनजी गगवाल
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी " * २५१) सेट सुाललालजी जैन
१०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी २५१) बा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) बा० काशीनाथ जी, कलकत्ता २५१) सेट मांगीलालजी
१०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) सेट शान्तिप्रसाद जी, जैन
१०१) बा० धनजयकुमारजी २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) बा० जीतमलजी जैन जिला मानभूम
१०१) बा. चिरंजीलाल जी मगवगी " M२५१) ला० कपूरचन्द्र धूपचन्द्रजी, जैन कानपुर १०१) बा० रतनलाल चांदमल जी जैन, गची
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर'
मरमावा, जि. सहारनपुर
जा
प्रकाशक-परमानन्द जैन शास्त्री c/धुमीमल धरमदास, चावड़ी बाजार, देहली। मुद्रक--नेशनल प्रिटिंग वर्क्स, देहली।
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श्री वीर-जिन का
Iसवीदय तीर्थ
सर्वाऽन्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्प सर्वाऽन्त-शून्यं च मियोऽनपेक्षम् सर्वा पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
श्रीवार जिनालय
ARIN
Sunar
RUMAI
नित्य
पुण्य
स्वभाव बल्य/सामान्य असन् अनेक अनित्य अजीव मोक्ष | पाप पिरलोका विभाबा पोय/ विगोष R aareyumanAMANATAakashanMAMRAARAAna
HTRARANORMAT.. हित सिमासूम्यहानिया सापेक्ष देवनय युक्ति अहिाआत्मा अहित अहिंसा मिथ्याविण निरपेक्ष पुरुषाधाममाण अगम अपुम्स/परमात्मा
पा मैत्री प्रमोद का
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NYANAME/Lite/EE/28
ता निर्भयता निमूहला लोकस
VAJIAN
तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधे
व्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्रामावि काले कले -येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्ततं =
कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिन्नपतिवीरं प्रणोमि स्फुटम
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विषय-सूची
१. रामगिरि-पावनाय स्तोत्र - सम्पादक
२. भगवान महावीर -- सम्पादक
३. महावीर -स्तवन ( कविता ) -- पं० नाथूराम प्रेमी १०२
४. समन्तभद्र - वचनामृत - - युगवीर ५. श्रुतकीर्ति और उनकी धर्मपरीक्षा डा हीरालाल जैन ६ मीनसंवाद - जाल में मीन (सचित्र कविता ) - युगवीर
१३. कविता कुंज--युगवीर १४. मेरी भावना अपने इतिहास और अनुवादोंके साथ
९३
९५
ܘ
१०३
१०५
७. क्या यही विश्वधर्म है ?
-- बा. अनन्तप्रसाद बी. एस. सी. ८. भगवानसे धर्म-स्थिति-निवेदन ( कविता ) -- पं. नाथूराम प्रेमी ११२
९ मोहनजोदड़ो - कालीन और आधुनिक जैन
सस्कृति -- बा. जयभगवान बी ए एडवोकेट ११३ १०. सन्त श्री वर्णी गणेशप्रसादजीका पत्र १२४ ११ संगीत का जीवनमे स्थान --- बा. छोटेलाल जैन १२५ १२. नागौरके भट्टारकीय भंडारका अवलोकन
--श्री अगर चन्द नाहटा १२८ १३३
१०८
मोट -- दस ग्राहक बनानेवाले सहायकों को
'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेटस्वरूप भेजा जायगा ।
११०
अनेकान्तको प्राप्त सहायता
गत १० वे वर्षकी १२ वी किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद' अनेकान्त' पत्रको संरक्षकों एवं सहायकोंसे प्राप्त सहायताके अलावा जो सहायता प्राप्त हुई है वह क्रमश निम्नप्रकार है और उसके लिये दाार महानुभाव धन्यवादके पात्र है:बाबू बसन्तीलालजी जैन जयपुर ।
बाबू शान्तिनाथजी सुपुत्र बाबू नन्दलालजी,
कलकत्ता ।
५)
१००)
१००)
११)
बाबू निर्मलकुमारजी सुपुत्र बाबू नन्दलालजी, कलकत्ता ।
शिवराज जगराज जी लुक जलगांव और इंद्रभान हरकचन्द जी मंडले चायेवला ( पुत्र-पुत्रीके विवाहोपलक्ष मे ) ।
५) रा० ब० बा० बसन्तलालजी मुरादाबाद और सेठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या मथुरा (पुत्र-पुत्री के विवाहोपलक्ष में ) ।
७) बाबू सुरेन्द्रनाथजी नरेन्द्रनाथजी जैन कलकत्ता (चि० सन्तोषकुमारके विवाहोपलक्ष मे ) मार्फत बाबू नन्दलालजी, कलकत्ता ।
५) लाला हजारीलालजी बज जयपुर और श्री जी मूजी अजमेर जयपुरसे ( पुत्री तथा पुत्रके विवाहोपलक्ष में) । मार्फत कोषाध्यक्ष मस्ती जैनग्रन्थमाला देहली के ।
१३४ २३३)
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग
(१) अनेकान्तके 'संरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना । ( २ ) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरों बना ।
(३) विवाह - शादी आदि दानके अवसरोंपर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना |
(४) अपनी ओरसे दूसरोंको अनेकान्त भेंट स्वरूप अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्यासंस्थाओं, लायब्रेरियों, सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको ।
(५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २५), ५० ) आदिको सहायता भेजना । २५ ) की सहायतामें १० को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा । (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा दिलाना ।
( ७ ) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि
सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना ।
| वीरखेवामवि मेनेजर बनेका सहारनपुर।
सहायतादि भजने तथा पत्रव्यवहारका पता. - 'अनेकान्त'
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ॐ अहम्
ततत्त्व-सघातक
विश्वतत्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ५)
इस किरणका मूल्य )
नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक। परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त,
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वर्ष ११ वीरसेवामन्दिर सरसावा जि० सहारनपुर
अप्रैल किरण २ चैत्र शुक्ल, वीर-संवत् २४७८, विक्रम-संवत् २००६
१६५२ रामगिरि पार्श्वनाथ स्तोत्र [यह स्तोत्र रामगिरि पर्वतपर स्थित पार्श्वजिनालयके अधिनायक श्रीपार्श्वनाथकी स्तुतिमें लिखा गया है, और इसलिए 'रामगिरि-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' यह इसका सार्थक नाम है । परन्तु आमतौरपर यह 'लक्ष्मीस्तोत्र' कहलाता और लिखा जाता है, जिसका कारण 'लक्ष्मी' शब्दसे इसका प्रारम्भ होना है, अन्यथा किसी लक्ष्मी देवीकी स्तुतिमे यह लिखा गया नही है । इसके रचयिता पद्मप्रभदेव है, जो तर्क व्याकरण काव्य और नाटकोकी कुशलताके विषयमें पृथ्वीपर पद्मनन्दिमुनीशके रूपमे प्रसिद्ध थे और तत्त्वविषयका खज़ाना समझे जाते थे; जैसा कि स्तोत्रके अन्तिम (९ वे) पद्यसे जाना जाता है, जोकि एक प्रशस्त्यात्मक पद्य है। मूलस्तोत्र यमकाऽलंकारको लिये हुए आठ पद्योमे ही निर्मित हुआ है, इसीसे प्रशस्तिपद्यमें उसे 'यमकाष्टक' रूपसे उल्लेखित किया है और 'गम्भीर' विशेषणके द्वारा अर्थकी गम्भीरताको लिए हुए प्रकट किया है । साथ ही इस स्तोत्रको तत्वकोष प्रकट करते हुए 'जगतके लिए मंगलरूप' बतलाया है । यह स्तोत्र यमकाऽरंकारकी अच्छी छटाको लिए हुए है और पढनेमे बड़ा ही रसीला एवं आनन्दप्रद जान पडता है। आठो पद्योका चौथा चरण है 'पार्श्व पणे रामगिरी गिरौ गिरौ" जिसका अर्थ है-रामगिरि पर्वतपर स्थित पार्श्वनाथकी मै वाणीसे स्तुति करता है । अन्य चरणोमें प्रायः पार्श्वनाथके विशेषणोका उल्लेख है।
आजसे कोई २९ वर्ष पहले यह स्तोत्र माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमालाके 'सिद्धान्तसारादिसग्रह' मै एक सस्कृतटीकाके साथ प्रकाशित हुआ था, परन्तु मूल तथा टीका दोनो ही परम्परासे अशुद्ध हो जानेके कारण उक्त सग्रहमें अशुद्ध ही मुद्रित हुए थे। हालमे सागरके श्रीमान् पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने मूलपाठको शुद्ध करके और उसके साथ पदच्छेद सस्कृत-व्याख्या तथा हिन्दी अनुवाद लगाकर उसे 'अनेकान्त' में प्रकाशनार्थ मेरे पास भेजा है। इस समय मै उनके द्वारा संशोधित मूलस्तोत्रको ही अनेकान्त-पाठकोकी जानकारीके लिए यहां दे रहा हूं।
-सम्पादक
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
(उपजातिः) लक्ष्मीर्महस्तुल्यसती सती सती प्रवृद्धकालो विरतो रतोऽरतो । जरा-रुजापन्महता हताहता पार्श्व पणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥१॥ अर्चेयमाद्यं सुमना मनामनान्य. सर्वदेशो भुवि नाऽविना विना । समस्तविज्ञानमयो मयोमयो पार्श्व पणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥२॥ व्यनेष्ट जन्तोः शरणं रणं रणं क्षमादितो य. कमळं मठं मठम् ।। नरामरारामक्रम क्रमं क्रमं पार्श्व पणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥३॥ अज्ञान-सत्कामलतालतालता यदीय-सद्भावनता नतानता. । निर्वाण-सौख्यं सुगता गतागताः पार्श्व पणे रामगिरौ गिरौ गिरौ॥४॥ विवादिमाशेषविधिविधिविधिर्बभूव सविहरी हरीहरी : । त्रिज्ञानसज्ञानहरोहरोहरः पार्श्व पणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥५॥ यद्विश्वलोकैकगुरुं गुरुं गुरुं विराजता येन वरं वरं वरम् । तमालनीलाङ्गभरं भरं भरं पार्श्व पणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥६॥ संरक्षिता दिग्भुवनं वनं वनं विराजिता येषु दिवैदिवैदिवः । पादद्वये नूतसुराऽसुराः सुराः पार्श्व पणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥७॥ रराज नित्यं सकला कला कला ममारतृष्णोऽवृजिनो जिनो जिनो।। संहारपूज्यं वृषभा सभासभा पाश्व पणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥८॥
(शार्दूलविक्रीडितम्) तर्के व्याकरणे च नाटकचये काव्याकुले कौशले, विख्यातो भुवि पद्मनन्दिमुनिपस्तत्त्वस्य कोषं निधिः । गम्भीरं यमकाष्टकं पठति यः संस्तूय सा (?) लभ्यते श्रीपद्मप्रभदेव-निर्मितमिदं स्तोत्रं जगन्मंगलम् ॥९॥
AA
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भगवान महावीर
[ सम्पादकीय ]
संक्षिप्त परिचय-
जैनियोके अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर विदेह (बिहार- देशम्ब) कुण्डपुर के राजा 'सिद्धार्थ' के पुत्र थे और माता 'प्रियकारिणी' के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, जिसका दूसरा नाम 'त्रिशला' भी था और जो वैशालीके राजा 'चेटक की मुपुत्री थी। आपके शुभ जन्म से चैत्र शुक्ला त्रयोदशीकी तिथि पवित्र हुई और उसे महान् उत्सवोके लिए पर्वका सा गौरव प्राप्त हुआ। इस तिथिको जन्मसमय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था, जिसे कही कही 'हस्तोत्तरा' (हस्त नक्षत्र है उत्तरमे - अनन्तर - जिसके ) इस नामसे भी उल्लेखित किया गया है, और सौम्य ग्रह अपने उच्चस्थान पर स्थित थे, जैसाकि श्रीपूज्यपादाचार्य के निम्न वाक्यसे प्रकट है --
चैत्र - सितपक्ष फाल्गुनि शशांकयोगे दिने त्रयोदश्याम् । जसे स्वोवस्थेषु ग्रहेषु सौम्येषु शमसने ॥५॥ निर्वानमक्ति
तेज. पुज भगवान्के गर्भमे आते ही सिद्धार्थ राजा तथा अन्य कुटुम्बीजनांकी श्रीवृद्धि हुई उनका यश, तेज, पराक्रम और वैभव वढा माताकी प्रतिभा चमक उठी, वह सहज ही में अनेक गूढ प्रश्नोका उत्तर देने लगी, और प्रजाजन भी उत्तरोत्तर सुख-शान्तिका अधिक अनुभव करने लगे। इस जन्मकालमे आपका सार्थक नाम 'श्रीवर्द्धमान' या 'वर्द्धमान' रक्खा गया। साथ ही, वीर, महावीर और सन्मति जैसे
१ श्वेताम्बर सम्प्रदायके कुछ प्रयोमे 'क्षत्रियकुण्ड' ऐसा नामोल्लेख भी मिलता है जो सम्भवत कुण्डपुर का एक महल्ला जान पडता है। अन्यथा, उसी सम्प्रदायके दूसरे ग्रन्थोमे कुण्डग्रामादि-रूपसे कुण्डपुरका साफ उल्लेब पाया जाता है । यथा-
" हत्थुत्तराहि जाओ कुडग्गामे महावीरो।" आव० नि० यह कुण्डपुर ही आजकल कुण्डलपुर कहा जाता है; परन्तु उसका वर्तमान स्थान विवादापन है ओर ठीक स्थान वैशाली केही अन्तर्गत माना जाता है।
२ कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थो में 'बहन' लिखा है।
नामोकी भी क्रमश. सृष्टि हुई, जो सब आपके उस समय प्रस्फुटित तथा उच्छलित होनेवाले गुणों पर ही एक आधार रखते हैं । ३
महावीरके पिता 'जात' यशके क्षत्रिय थे। 'जात' यह प्राकृत भाषा का शब्द हैं और 'नात' ऐसा दन्त्य नकारसे भी लिखा जाता है। संस्कृतमे इसका पर्यायरूप होता है' ज्ञात' । इसी मे' चारिवभक्ति' में श्री पूज्यपादाचार्यने “श्रीमज्जातकुलेन्दुना" पदके द्वारा महावीर भगवान्को 'ज्ञात' वशका चन्द्रमा लिखा है, और इसीने महावीर 'णातपुत' अथवा 'ज्ञातपुत्र' भी कहलाते थे, जिसका बौद्धादि ग्रन्थोंमें भी उल्लेख पाया जाता है। इस प्रकार वशके ऊपर नामोका उस समय चलन था -- बुद्धदेव भी अपने वश परसे 'शाक्यपुत्र' कहे जाते थे । अस्तु; इस 'नात' का ही बिगड़ कर अथवा लेखको या पाठकोकी नासमझी की वजहसे बादको 'नाथ' रूप हुआ जान पड़ता है। और इसीमे कुछ ग्रन्थोमे महावीरको नाथवंशी लिखा हुआ मिलता है, जो ठीक नही है ।
महावीरके बाल्यकालको घटनाओमे दो पटनाये खास तौरमे उल्लेखयोग्य है-एक यह कि, सजय और विजय नामके दो चारण मनियोको तत्वार्थविषयक कोई भारी सन्देह उत्पन्न हो गया था, जन्मके कुछ दिन बाद ही जब उन्होने आपको देखा तो आपके दर्शनमात्रसे उनका वह सब मदेह तत्काल दूर हो गया और इसलिए उन्होने बडी भक्तिमे आपका नाम 'सन्मति' रक्खा । * दूसरी यह कि एक दिन आप बहुतसे राजकुमारोके साथ वनमे वृक्षक्रीडा कर रहे थे, इतने में वहा पर एक महाभबकर और विशालकाय सर्प आ निकला और उस बृक्षको ही
३ देखो, गुणभद्राचार्यकृत महापुराण का ७४ वां पर्व । ४. संजयस्यार्थसंदेहे संजाते विजयस्य च । जन्मानन्तरमेवंनमभ्येत्या लोकमात्रत] ॥
तत्सदेहगते ताभ्यां चारणाभ्यां स्वभक्तितः । अस्त्वेव सम्मतिवयो भावीति समुदाहृतः ॥
- महापुराण, पर्ब ७८ वां
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अनेकान्त
[वर्ष ११
मूलसे लेकर स्कंध पर्यन्त बेढकर स्थित हो गया जिसपर आप रहते थे, सिंहकी तरह निर्भय होकर जंगल-पहाड़ोमें विचरते थे चढे हुए थे। उसके विकराल रूपको देखकर दूसरे राजकुमार और दिन-रात तपश्चरण ही तपश्चरण किया करते थे। भयविह्वल हो गये और उसी दशामें वृक्षों परसे गिरकर विशेष सिद्धि और विशेष लोकसेवाके लिये विशेष ही अथवा कूदकर अपने-अपने घरको भाग गये । परन्तु आपके तपश्चरणकी जरूरत होती है-तपश्चरण ही रोम-रोममे रमे हृदयमें जरा भी भयका संचार नही हुआ–आप बिल्कुल हुए आन्तरिक मलको छाँटकर आत्माको शुद्ध,साफ,समर्थ और निर्भयचित्त होकर उस काले नागसे ही क्रीडा करने लगे और कार्यक्षम बनाता है। इसीलिये महावीरको बारह वर्ष तक घोर आपने उसपर सवार होकर अपने बल तथा पराक्रमसे उसे खूब तपश्चरण करना पड़ा-खूब कडा योग साधना पडा-तब कही ही घुमाया, फिराया तथा निर्मद कर दिया। उसी वक्तसे आप जाकर आपकी शक्तियोका पूर्ण विकास हुआ । इस दुर्द्धर लोकमें 'महावीर' नामसे प्रसिद्ध हुए। इन दोनो 'घटनाओसे तपश्चरणकी कुछ घटनाओको मालूम करके रोंगटे खड़े हो यह स्पष्ट जाना जाता है कि महावीरमें बाल्यकालसे ही बुद्धि जाते है । पर साथ ही आपके असाधारण धैर्य, अटल निश्चय, और शक्तिका असाधारण विकास हो रहा था और इस प्रकार- सुदृढ आत्मविश्वास,अनुपम साहस और लोकोत्तर क्षमाशीलकी घटनाएं उनके भावी असाधारण व्यक्तित्वको सूचित करती ताको देखकर हृदय भक्तिसे भर आता है और खुद-बखुद थी। सो ठीक ही है
(स्वयमेव) स्तुति करनेमे प्रवृत्त हो जाता है । अस्तु; मन'"होनहार बिरवानके होत चीकने पात।"
पर्ययज्ञानकी प्राप्ति तो आपको दीक्षा लेनेके बाद ही होगई थी प्रायः तीस वर्षको अवस्था हो जाने पर महावीर संसार
परन्तु केवल ज्ञान-ज्योतिका उदय बारह वर्षके उग्र तपश्चरणदेहभोगोंसे पूर्णतया विरक्त हो गये, उन्हे अपने आत्मोत्कर्षको के बाद वैशाख मदि १०मीको तीर साधने और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त करनेकी ही नहीं किन्तु हआ जबकि आप ज़म्भका ग्रामके निकट ऋजुकूला नदीके संसारके जीवोंको सन्मार्गमे लगाने अथवा उनकी सच्ची सेवा किनारे, शालवृक्षके नीचे एक शिलापर, षष्ठोपवाससे युक्त बजानेकी एक विशेष लगन लगी-दीन-दुखियोकी पुकार हए, क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ थे--आपने शुक्लध्यान लगा रक्खा उनके हृदयमें घर कर गई-और इसलिए उन्होने, अब और था और चन्द्रमा हस्तोनरनक्षत्रके मध्यमे स्थित था। जैमा अधिक समय तक गृहवासको उचित न समझकर, जगलका कि श्रीपूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्योमे प्रकट है - रास्ता लिया, संपूर्ण राज्यवैभवको ठुकरा दिया और इन्द्रिय
ग्राम-पुर-खेट-कर्वट-मटम्ब-पोषाकराप्रविजहार । सुखोसे मुख मोड़कर मंगसिरवदि १० मीको 'ज्ञातखंड'
उग्रस्तगोविधान विशवर्षाप्यमरपूज्य. ॥१०॥ नामक वनमे जिनदीक्षा धारण करली । दीक्षाके समय आपने
ऋजुकूलायास्तोरे शालनुमसंश्रिते शिलापट्टे। संपूर्ण परिग्रहका त्याग करके आकिंचन्य (अपरिग्रह) व्रत
अपराह्न षष्ठेनास्थितस्य खलु जम्मकामामे ॥११॥ ग्रहण किया, अपने शरीरपरसे वस्त्राभूषणोको उतार कर
वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चंद्र फेंक दिया और केशोको क्लेशसमान समझते हुए उनका भी
क्षपकश्रेण्यारूढस्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥१२॥ लौच कर डाला । अब आप देहसे भी निर्ममत्व होकर नग्न
--निर्वाणभक्ति ५. इनमेसे पहली घटनाका उल्लेख प्रायः दिगम्बर ७. केवलज्ञानोत्पत्तिके समय और क्षेत्रादिका प्रायः ग्रन्थोमें और दूसरीका दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों __ यह सब वर्णन 'धवल' और 'जयववल' नामके दोनों ही सम्प्रदायोके ग्रन्थोमें बहुलतासे पाया जाता है। सिद्धान्तग्रन्थोमें उद्धृत तीन प्राचीन गाथाओमें भी
६. कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थोमें इतना विशेष कथन पाया पाया जाता है, जो इस प्रकार है :-- जाता है और वह सम्भवतः साम्प्रदायिक जान पड़ता है कि, • गमइय छदुमत्थत्तं वारसवासाणि पचमासे य । वस्त्राभूषगोको उतार डालनेके बाद इन्द्रने 'देवदूष्य' नामका पग्णारसाणि दिगाणि य तिरयणसुद्धो महावीरो॥१॥ एक बहुमूल्य वस्त्र भगवान्के कन्धे पर डाल दिया था, जो उजुकल गदीतीरे जभियगामे वहिं सिलावट्टे । १३ महीने तक पड़ा रहा । बादको महावीरने उसे भी त्याग छुटणादावेतों अवरण्हे पायछायाए ॥ २॥ दिया और वे पूर्णरूपसे नग्नदिगम्बर अथवा जिकल्पी वइसाहजोण्हपक्खे दसमीए खवगसेढि मारुतो। ही रहे।
हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो॥ ३ ॥
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किरण २ ]
भगवान महावीर
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इस तरह घोर तपश्चरण तथा ध्यानाग्नि-द्वारा, ज्ञाना- करता था, गौ और सिंही मिलकर एक ही नांदमें जल पीती थी वरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय नामके और मृग-शावक खुशीसे सिंह-शावकके साथ खेलता था। यह घातिकर्म-मलको दग्ध करके, महावीर भगवानने जब अपने सब महावीरके योग-बलका माहात्म्य था। उनके आत्मामे आत्मामें ज्ञान, दर्शन, मुख और वीर्य नामके स्वाभाविक गुणों- अहिसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिए उनके सनिकट का पूरा विकास अथवा उनका पूर्ण रूपसे आविर्भाव कर लिया अथवा उनकी उपस्थितिमें किमीका वैर स्थिर नहीं रह सकता और आप अनुपम शुद्धि, शक्ति तथा शान्तिको पराकाष्ठाको था। पतजलि ऋषिने भी, अपने योगदर्शनमें, योगके इस पहुँच गये, अथवा यो कहिये कि, आपको स्वात्मोपलब्धिरूपी महात्म्यको स्वीकार किया है। जैसा कि उसके निम्न सूत्रसे 'सिद्धि' की प्राप्ति हो गई, तब आपने सब प्रकारसे समर्थ होकर प्रकट है :ब्रह्मपथका नेतृत्व ग्रहण किया और ससारी जीवोको सन्मार्गका अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सनिधी वैरत्यागः ॥३५॥ उपदेश देनेके लिए--उन्हे उनकी भूमें सुझाने, बन्धनमुक्त जैनशास्त्रोमें महावीरके विहार-समयादिककी कितनी . करने, ऊपर उठाने और उनके दुख मिटाने के लिए अपना ही विभूतियोंका--अतिशयोका-वर्णन किया गया है विहार प्रारम्भ किया। अथवा यों कहिये कि लोकहित-साधनका परन्तु उन्हे यहाँ पर छोड़ा जाता है। क्योकि स्वामी जो असाधारण विचार आपका वर्षोसे चल रहा था समन्तभरने लिखा है :और जिसका गहग सस्कार जन्मजन्मातरोसे आपके आत्मामें देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतय । पडा हुआ था वह अब सम्पूर्ण रुकावटोके दूर हो जाने पर स्वत मायाविष्वपि वृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ कार्यमे परिणत हो गया।
--आप्तमीमांसा विहार करते हुए आप जिस स्थान पर पहुँचते और वहाँ अर्थात्-देवोका आगमन, आकाशमै गमन और चामआपके उपदेशके लिए जो महतीसभा जुडती थी और जिसे जन- रादिक (दिव्य चमर, छत्र, सिंहासन, भामडलादिक) साहित्यमें 'समवसरण' नाममे उल्लेग्वित किया गया है उसकी विभूतियोका अस्तित्व तो मायावियोमे-इन्द्रजालियोमेखास विशेषता यह होती थी कि उसका द्वार सबके लिए मुक्त भी पाया जाता है, इनके कारण हम आपको महान् नही मानते रहता था, कोई किसीके प्रवेशमे बाधक नही होता था-पशु- और न इनकी वजहमे आपको कोई खास महत्ता या बडाई पक्षी तक भी आकृष्ट होकर वहां पहुंच जाते थे, जाति-पाति ही है। छूताछूत और ऊंचनीचका उममे कोई भेद नही था, सब मनुष्य भगवान् महावीरकी महत्ता और बडाई तो उनके मोहएक ही मनुष्यजानिमें परिगणित होते थे, और उक्त प्रकारके नीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक कर्मोका भेदभावको भुलाकर आपममे प्रेमके माथ रल-मिलकर बैटते नाश करके परम शान्तिको लिये हुए शुद्धि तथा शक्तिकी पराऔर धर्मश्रवण करते थे-मानो सब एक ही पिताको सतान काष्ठाको पहुचने और ब्रह्मपथका--हिसात्मक मोक्षमार्गहो। इस आदर्शसे समवसरणमे भगवान महावीरकी समता का नेतृत्व ग्रहण करनेमे है -अथवा यो कहिये कि आत्मोऔर उदारता मूतिमती नजर आती थी और वे लोग तो उसमें द्वारके साथ-साथ लोककी सच्ची सेवा बजानेमे है। जैसा कि प्रवेश पाकर बेहद संतुष्ट होते थे जो समाजके अत्याचारोसे स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है - पीड़ित थे, जिन्हे कभी धर्मश्रवणका, शास्त्रोके अध्ययनका, त्वं शुद्धिशक्त्योरुपयस्य काष्ठां अपने विकासका और उच्चसस्कृतिको प्राप्त करनेका अवसर तुलाव्यतीता जिन शांतिरूपाम् । ही नहीं मिलता था अथवा जो उसके अधिकारी ही नहीं अवापिय ब्रह्मपथस्य नेता ममझे जाते थे। इसके सिवाय, समवसरणकी भूमिमें महानितीयत् प्रतिवक्तुमीशा ॥४॥ प्रवेश करते ही भगवान महावीरके सामीप्यसे जीवोका
-यक्त्यनुशासन वैरभाव दूर हो जाता था, कर जन्तु भी सौम्य बन ८ ज्ञानावरण-दर्शनावरणके अभावसे निर्मल ज्ञानजाते थे और उनका जाति-विरोध तक मिट जाता था। दर्शनको आविर्भूनिका नाम 'शुद्धि' अन्तराय कमंके नाशसे इसीसे सर्पको नकुल या मयूरके पास बैठने में कोई भय वीर्यलब्धिका होना 'शक्ति' और मोहनीय कमके निर्मल नही होता था, चूहा बिना किसी मंकोचके बिल्लीका आलिंगन होनेसे अनन्त सुखकी प्राप्तिका नाम परम शालि है।
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९८
अनेकान्त
वर्ष ११
महावीर भगवानने प्रायः तीस वर्ष तक लगातार अनेक है।''राजगृहीमें उस वक्त राजा श्रेणिक राज्य करता था, देशदेशान्तरोंमें विहार करके सन्मार्गका उपदेश दिया, असख्य जिसे बिम्बसार भी कहते है । उसने भगवान्की परिषदोंमेंप्राणियोके अज्ञानान्धकारको दूर करके उन्हें यथार्थ वस्तु- ममवसरण-सभाओमे-प्रधान भाग लिया है और उसके स्थितिका बोध कराया, तत्त्वार्थको समझाया, भूले दूर की, प्रश्नो पर बहुतसे रहस्योका उद्घाटन हुआ है । श्रेणिककी भ्रम मिटाए, कमजोरियाँ हटाई, भय भगाया, आत्मविश्वास रानी चेलना भी राजा चेटककी पुत्री थी और इसलिए वह जगाया, कदाग्रह दूर किया, पाखण्डबल घटाया, मिथ्यात्व रिश्तेमे महावीरकी मातृस्वसा (मावसी)१२ होती थी। इसछुडाया, पतितोको उठाया, अन्याय-अत्याचारको रोका, तरह महावीरका अनेक राज्योके माथमे शारीरिक सम्बन्ध हिंसाका विरोध किया, साम्यवादको फैलाया और लोगोंको भी था। उनमे आपके धर्मका बहुत प्रचार हुआ और उसे स्वावलम्बन तथा सयमकी शिक्षा दे कर उन्हे आत्मोत्कर्षके अच्छा राजाश्रय मिला है। • मार्ग पर लगाया । इस तरह आपने लोकका अनन्त उपकार विहारके समय महावीरके साथ कितने ही मुनि-आयिकिया है और आपका यह विहार बडा ही उदार, प्रतापी एव काओं तथा थावक-श्राविकाओका सघ रहता था । आपने यशस्वी हआ है। इसीसे स्वामी समन्तभद्र ने स्वयभस्तोत्रमें चतुर्विध सघकी अच्छी योजना और बडो ही मुन्दर व्यवस्था 'गिरिभित्यवदानवत' इत्यादि पद्यके द्वाग इस विहारका की थी। इस मघके गणवगेको सम्या ग्यारह तक पहुच गई थी यत्किचित उल्लेख करते हए, उसे "जित गत" लिखा है। और उनमे सबसे प्रधान गौतम स्वामी थे, जो 'इन्द्रभति' नाममे
भगवानका यह विहार-काल ही उनका तीर्थ-प्रवर्तनकाल भी प्रसिद्ध है और समवसरण मख्य गणधरका कार्य करते थे। है, और इस तीर्थ-प्रवर्तनकी वजहमे ही वे 'तोर्यकर' कहलाने
ये गोतम-गोत्री ओर मकल वेद-वेदागके पारगामी एक बहुत है। आपके विहारका पहला स्टेशन राजगृहीके विपुलाचल तथा
बडे ब्राह्मण विद्वान थे. जो महावीरको केवलज्ञानकी सप्राप्ति वैभार-पर्वतादि पच पहाडियोका प्रदेश जान पडता है। जिसे
होने के पश्चात् उनके पास अपने जीवाऽजीव-विषयक संदेहके धवल और जयधवल नामके सिद्धान्त ग्रन्योम क्षेत्ररूपमे महा
निवारणार्थ गये थे. मदेहकी निवृत्ति पर उनके शिष्य बन गये वीरका अर्थकर्तृत्व प्ररूपण करते हुए, 'पचशैलपुर' नाममे
थे और जिन्होने अपने बहतमे शिष्योके साथ भगवानमे जिनउल्लेलिखत किया है। यही पर आपका प्रयम उपदेश हआ दीक्षा ले ली थी। अस्तु। है-केवल ज्ञानोत्पनिके पश्चात् आपकी दिव्य वाणी ग्विरी
तीस ३ वर्षके लम्बे विहारको समाप्त करते और कृतकृत्य है-और उस उपदेशके समयमे ही आपके तीर्थको उत्पत्नि हई होते हुए, भगवान महावीर जब पावा पुग्वे एक सुन्दर उद्यानमं
पहुँचे, जो अनेक पद्मसगेवरो तथा नाना प्रकारके वृक्षसमूहोमे ९. आप जम्भका ग्रामके ऋजुकूला-नटमे चलकर पहले । इसी प्रदेशमे आए हैं। इसीसे श्रीपूज्यपादाचार्यने आपकी
११ यह तीर्थोत्पत्ति श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाको पूर्वाहकेवलज्ञानोत्पत्तिके उस कथनके अनन्तर जो ऊपर दिया ।
(सूर्योदय) के ममय अभिजित नक्षत्रमें हुई है, जैसा कि गया है आपके वैभार पर्वत पर आनेकी बात कही है और
धवल सिद्वान्तके निम्न वाक्यसे प्रकट हैतभीमे आपके तीस वर्षके विहारकी गणना की है -
वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहले।
पाडिवदपुग्वदिवसे तित्थप्पत्ती दु अभिजिम्हि ॥ २ ॥ "अथ भगवान्सम्ञापहिव्यं वैभारपर्वत रम्यं ।
१२. कुछ श्वे० ग्रन्थानुसार 'मातुलजा'(मामूजाद बहन) चातुर्वण्य-सुसघात्तत्राभूदगौतमप्रभृति ॥ १३ ॥ १३. धवल सिद्धान्तमे-और जय धवलमे भी कुछ "वविधमनगासमामेकावशघोत्तरं तथा धर्म। आचार्योके मतानुसार एक प्राचीन गाथाके आधार पर देशयमानो व्यहरत् त्रिशद्वर्षाण्यथ जिनेन्द्र ॥ १५ ॥ विहारकालकी सख्या २९ वर्ष ५ महीने २० दिन भी
-निर्वाणभक्ति दी है, जो केवलोत्पत्ति और निर्वाणकी तिथियोको देखते
हुए ठीक जान पड़ती है । और इसलिए ३० वर्षकी यह संख्या १०. पंचसेलधुरे रम्मे बिउले पम्वत्तमे।
स्थूल रूपसे समझनी चाहिये । वह गाथा यह है-- णाणादुमसमाइण्णे देवदाणवविवे।।
वातागृणतीसं पंच 4 मासे य वीस दिवसे य । महावीरेणत्यो कहिलो भवियलोअस्म ।
चाउविहअणगारेहिं बारहहिं गणेहिं विहरतो॥१॥
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किरग २]
भगवान महावीर
मंडित था, तब आप वहा कायोत्सर्गसे स्थित हो गये और आपने आप सदाके लिए अजर अमर तथा अक्षय-सौख्यको प्राप्त हो परम शुक्लध्यानके द्वारा योग-निरोध करके दग्धरज्जु-समान गये१५ । इसीका नाम विदेहमुक्ति, आत्यन्तिक-स्वात्मस्थिति, अवशिष्ट रहे कर्मरजको-अघातिचतुष्टयको-भी अपने परिपूर्ण-सिद्धावस्था अथवा निष्कल-परमात्मपदको प्राप्ति है। आत्मामे पृथक् कर डाला, और इस तरह कार्तिक वदि अमा- भगवान महावीर प्रायः ७२ वर्षकी अवस्था मे अपने इस वस्याके दिन' स्वाति नक्षत्रके समय,निर्वाण-पदकोप्राप्त करके अन्तिम ध्येयको प्राप्त करके लोकापवासी हुए। और आज
उन्हीका नीर्थ प्रवर्त रहा है। १४ धवल सिद्धान्तमै, "परछा पावाणयरे कत्तियमासे
इम प्रकार भगवान् महावीरका यह सक्षेपमें सामान्य य किण्हचोद्दसिए । सादीएरत्तीए सेसरयं छत्तु णिचाओ।"
परिचय है. जिममे प्राय किमीको भी कोई खाम विवाद नही इस प्राचीन गाथाको प्रमाणमे उद्धृत करते हुए, कात्तिक वदि चतुर्दशीकी रात्रिको (पच्छिम भाग-पिछले पहरमे) निर्वाणका होना लिखा है। साथ ही, केवलोत्पत्तिमे निर्वाण तकके
देश-कालकी परिस्थिति-- समय २९ वर्ष ५ महीने २० दिनकी सगति ठीक बिठलाते
देश-कालकी जिस परिस्थितिने महावीर भगवान्को हुए, यह भी प्रतिपादन किया है कि अमावस्याके दिन देवेद्रो
उत्पन्न किया उसके मम्बन्धमे भी दो शब्द कह देना यहा के द्वारा परिनिर्वाणपूजा की गई है वह दिन भी इम कालम
पर उचित जान पडना है। महावीर भगवानके अवतारमे शामिल करने पर कात्तिकके १५ दिन होते है । यथा ----
पहले देशका वातावरण बहुत ही क्षब्ध, पीडित तथा मत्रस्त "अमावसोए परिणिध्वागपूजा सयलदेरिदेहि कया नि
हो रहा था, दीन-दुर्वर खूब सताए जाते थे, ऊँच-नीचकी
भावनाये जोगेपर थी, शूद्रोमे पशओजैसा व्यवहार होता था, तंपि दिवसमेत्येव परिक्तिते पण्णारस दिवसा होति ।"
उन्हें कोई सम्मान या अधिकार प्राप्त नही था, वे शिक्षा-दीक्षा इससे यह मालुम होता है कि निर्वाण अमावस्याको दिनके समय तथा दिनके बाद गत्रिको नही हुआ, बल्कि
१५ जैसाकि श्रीपूज्यपादके निर्वाणभक्तिगत निम्न चतुर्दगीकी रात्रिके अन्तिम भागमे हआ है जबकि अमा
वाक्यसे भी प्रकट है - वस्या आ गई थी और उमका साग वृत्य--निकोणपूजा
"पद्मवन-दीर्घिकाकुल-विविविध मखण्डमण्डिते रन्ये । और देहसस्कारादि--अमावस्याको ही प्रात काल आदिके पावानगरोद्याने व्युत्सर्गण स्थितः स मुनि. ॥१६॥ समय भुगता है। इसमे कार्तिककी अमावस्या आमतौर पर कार्तिकरुणस्याले स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरज । निर्वाणकी तिथि कहलाती है। और चूकि वह गति अवशेष सप्रापद् व्यजरामरममय सौख्यम् ॥१७॥" चतुर्दशीकी थी इससे चतुर्दशीको निर्वाण कहना भी कुछ १६ धवल और जयधव र नामके सिद्धान्तग्रथोमे असंगत मालूम नहीं होता। महापुरा मे गुणभद्राचार्यने भी महवीरको आयु, कुछ आचार्यो के मतानुमार, ७१ वर्ष ३ "का.तकणपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये' इस वाक्यके महीने २५ दिनकी भी बतलाई है और उमका लेखा इस द्वारा कृष्। चतुर्दशीकी रात्रिको उस समय निर्वा का होना प्रकार दिया है -- बतलाया है जब कि रात्रि ममाप्तिके करीब थी। उसी गर्भकाल=". मास ८ दिन, कुमारकाल =२८ वर्ष रात्रिके अपरेमे, जिसे जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणम माम १२ दिन, छमस्य-(तपश्चरग-) काल -१२ वर्ष "कृष्णभूतनभातसध्यासमये' पदके द्वारा उन्लेखित किया ५ माम १५ दिन; केवल-(विहार-) काल=२९ वर्ष ५ है, देवेन्द्रो द्वारा दीपावली प्रज्वलित करके निर्वागपुजा माम २० दिन । किये जानेका उल्लेख है और वह पूजा धवलके उक्त इस लेखेके कुमारकालमै एक वर्षकी कमी जान पडती वाक्यानुसार अनावस्थाको की गई है। इससे चतुर्दगीकी है, क्योकि वह आमतौर पर प्रायः ३० वर्षका माना जाता राषिके अन्तिम भागमै अमावस्या आ गई थी यह स्पष्ट है। दूसरे, इम आय मेसे यदि गर्भकालको किाल दिया जाना जाता है । और इलिये अमावस्थाको निर्वाग जाय, जिसका लोक-व्यवहार ने ग्रहग नहीं होता, तो वह ७० बतलाना बहुत युक्ति-युक्त है, उसीका श्रीपूज्यपादाचार्यने वर्ष कुछ महीने की ही रह जाती है और इतनी आयुके लिये "कार्तिक कृष्णस्यान्ते" पदके द्वारा उल्लेख किया है। ७२ वर्षका व्यवहार नही बनता।
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अनेकान्त
[वर्ष ११
और उच्च संस्कृतिके अधिकारी ही नही माने जाते थे और था और सर्वत्र असन्तोष ही असन्तोष फैला हुआ था। उनके विषयमें बहुत ही निर्दय तथा घातक नियम प्रचलित थे। यह सब देखकर सज्जनोंका हृदय तलमला उठा था, स्त्रियां भी काफी तौर पर सताई जाती थी, उच्च शिक्षासे धार्मिकोंको रातदिन चैन नही पड़ता था और पीडित वंचित रक्खी जाती थी, उनके विषयमें "न स्त्री स्वातंत्र्य- व्यक्ति अत्याचारोसे ऊब कर त्राहि-त्राहि कर रहे थे। महति" (स्त्री स्वतंत्रताकी अधिकारिणी नही) जैती कठोर सबोंकी हृदय-तंत्रियोंसे 'हो कोई अवतार नया' की एक आज्ञाएँ जारी थी और उन्हे यथेष्ट मानवी अधिकार प्राप्त नही ही ध्वनि निकल रही थी और सबोंकी दृष्टि एक ऐसे थे-बहुतोंकी दृष्टिमें तो वे केवल भोगकी वस्तु, विलासकी असावारण महात्माकी ओर लगी हुई थी जो उन्हे चीज, पुरुषकी सम्पत्ति अथवा बच्चा जननेकी मशीनमात्र रह हस्तावलम्बन देकर इस घोर विपत्तिसे निकाले। ठीक गई थी। ब्राह्मणोने धर्मानुष्ठान आदि के सब ऊंचे-ऊचे अधि- उसी समय--आजसे कोई ढाई हजार वर्षसे भी अधिक कार अपने लिए रिजर्व (सुरक्षित) रख छोड़े थे-दूसरे लोगो (२५४९ वर्ष) पहले--प्राची दिशामे भगवान् महावीर को वे उनका पात्र ही नहीं समझते थे-सर्वत्र उन्हीकी तूती भास्करका उदय हुआ, दिशाएँ प्रसन्न हो उठी, स्वास्थ्यकर बोलती थी, शासन-विभागमे भी उन्होंने अपने लिए खास मद मुगर पवन बहने लगा, सज्जन धर्मात्माओं तथा रिआयते प्राप्त कर रक्खी थी। घोर-से-घोर पाप और बड़े-से- पीरितोके मुखमडल पर आशाको रेखा दीख पड़ी, उनके बड़ा अपराध कर लेने पर भी उन्हे प्राणदण्ड नही दिया जाता हृदयकमल खिल गये ओर उनकी नस-नाड़ियोमे ऋतुराज था, जबकि दूसगेको एक साधारणमे अपराध पर भी फासी (वसत) के आगमनकाल-जैसा नवरमका संचार होने लगा। पर चहा दिया जाता था । ब्राह्मणोके बिगड़े हुए जाति-भेद
महावीरका उद्धारकार्य-- की दुर्गधसे देशका प्राण घुट रहा था और उसका विकास रुक रहा था, खुद उनके अभिमान तथा जाति-मदने उन्हे
महावीरने लोक-स्थितिका अनुभव किया, लोगोकी पतित कर दिया था और उनमें लोभ-लालच, दम, अज्ञानता, स्वार्थपरता, उनके वहम, उनका अन्धविश्वास. अज्ञानता, अकर्मण्यता, क्रूरता तथा धर्ततादि दुर्गणोंका और उनके कुत्मित विचार एवं दुर्व्यवहारको देखकर निवास हो गया था, वे रिश्वतें अथवा दक्षिगाएँ लेकर उन्हे भारी दुख तथा खेद हुआ। साथ ही, पीडितांकी परलोकके लिए सर्टिफिकेट और पनि तक देने लगे थे, करुण पुकारको सुनकर उनके हृदयसे दयाका असंत धर्मकी असली भावनाएँ प्रायः लुप्त हो गई थी और स्रोत बह निकला। उन्होंने लोकोद्वारका संकल्प किया. उनका स्थान अर्थ-हीन क्रियाकाण्डो तथा थोथे विधिविधानाने
लोकोद्धारका सपूर्ण भार उठानेके लिये अपनी शक्ति-सामले लिया था; बहुतसे देवी-देवताओकी कल्पना प्रबल हो थ्यंको तोला और उसमे जो त्रुटि थी उसे बारह वर्षके उस उठी थी, उनके संतुष्ट करने मे ही सारा समय चला घोर तपश्चरणके द्वारा पूरा किया जिसका ऊपर उल्लेख जाता था और उन्हे पशुओकी बलियां तक चढ़ाई जाती किया जा चुका है। थी; धर्मके नाम पर सत्र यज-यागादिक कर्म होते थे इसके बाद सब प्रकारमे शक्तिसम्पन्न होकर महाबीरने और उनमे असख्य पशुओको होमा जाता था-जीवित लोकोद्वारका सिंहनाद किया-लोकम प्रचलित सभी अन्यायप्राणी धधकती हुई आगमे डाल दिये जाते थे और अत्याचारों, कुविचारों तथा दुगचारोंके विरुद्ध आवाज़ उनका स्वर्ग जाना बतलाकर अथवा 'वैदिको हिंसा उठाई-और अपना प्रभाव सबसे पहले ब्राह्मण विद्वानों हिंसा न भवति' कहकर लोगोको भुलावेमे डाला जाता पर डाला, जो उस वक्त देशके 'सर्वे सर्वा.' बने हुए था और उन्हे ऐसे क्रूर कर्मोके लिये उत्तेजित किया जाता थे और जिनके सुधरनेपर देशका सुवरना बहुत कुछ था। साथ ही, बलि तथा यज्ञके बहाने लोग मांस सुखसाध्य हो सकता था। आपके इस पटु सिंहनादको खाते थे। इस तरह देशमे चहुँ ओर अन्याय-अत्याचारका सुनकर, जो एकान्तका निरसन करनेवाले स्याद्वादको साम्राज्य था--बडा ही बीभत्स तया करुण दृश्य विचार-पद्धतिको लिये हुए था, लोगोंका तत्त्वज्ञानविषयक उपस्थित था--सत्य कुचला जाता था, धर्म अपमानित भ्रम दूर हुआ, उन्हे अपनी भू मानूम पड़ी, धर्म-अधर्मके हो रहा था, पीड़ितोंकी आहोंके धुएँसे आकाश व्याप्त यथार्थ स्वरूपका परिचय मिला, आत्मा-अनात्माका भेद
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किरग २]
भगवान महावीर
स्पष्ट हुआ बोर बंब-मोक्षका सारा रहस्य जान पड़ा। relate, this teaching rapidly overtopped साथ ही, झूठे देवी-देवताओं तथा हिंसक यज्ञादिकों परसे the barriers of the races' abiding instinct उनकी श्रद्धा हटी और उन्हे यह बात साफ़ जंच गई and conquered the whole country. For कि हमारा उत्थान और पतन हमारे ही हायमें है, उसके a long period now the influence of लिये किसी गुत शक्तिकी कल्पना करके उसीके भरोसे Kshatriya teachers completely suppressबैठ रहना अथवा उसको दोष देना अनुचित और मिथ्या ed the Brahmin power. है। इसके सिवाय, जातिभेदकी कटट्रता मिटी, उदारता अर्थात्-महावीरने डंकेकी चोट भारतमें मुक्तिका ऐसा प्रकटी, लोगों के हृदयमे साम्यवादको भावनाएँ दृढ़ हुई संदेश घोषित किया कि -धर्म यह कोई महज सामाजिक और उन्हे अपने आत्मोत्कर्षका मार्ग सूझ पड़ा। इतना रूढि नही बल्कि वास्तविक सत्य है-वस्तुस्वभाव है-और ही नहीं, ब्राह्मण गुरुओंका आसन डोल गया, उनमेंसे मुक्ति उस धर्ममें आश्रय लेनेसे ही मिल सकती है, न कि समाजइन्द्रभूति-गौतम जैसे कितने ही दिग्गज विद्वानोने भगवान के बाह्य आचारोका-विधिविधानो अथवा क्रियाकाडोंका के प्रभावसे प्रभावित होकर उनकी समीचीन धर्मदेशनाको -पालन करनेसे,और यह कि धर्मकी दृष्टिमें मनुष्य मनुष्यके स्वीकार किया और वे सब प्रकारसे उनके पूरे अनुपायी बीच कोई भेद स्थायी नही रह सकता। कहते आश्चर्य होता बन गये। भगवानने उन्हे 'गगवर' के पदपर नियुक्त है कि इस शिक्षणने बद्धमूल हुई जातिकी हद बन्दियोको किया और अपने संघका भार सौपा। उसके साथ उनका शीघ्र ही तोड़ डाला और संपूर्ण देश पर विजय प्राप्त किया। बहुत बड़ा शिष्यसमुदाय तथा दूसरे ब्राह्मण और अन्य इस वक्त क्षत्रिय गुरुओके प्रभावने बहुत समयके लिए धर्भानुयायी भी जैनधर्ममे दीजित होगये। इस भारी विजयसे ब्राह्मणोंकी सत्ताको पूरी तौरसे दबा दिया था। क्षत्रिय गुरुओं और जैन धर्म की प्रभाव-वृद्धिके साथ-साथ इसी तरह लोकमान्य तिलक आदिदेशके दूसरे भी कितने तत्कालीन (क्रियाकाण्डी) ब्रामगधर्मको प्रभा क्षीण हुई, ही प्रसिद्ध हिन्दू विद्वानोने, अहिसादिकके विषयमें, महावीर ब्राह्मणोंकी शक्ति घटी, उनके अत्याचारोमें रोक हुई, भगवान अथवा उनके धर्मकी ब्राह्मण धर्म पर गहरी छापका यज्ञ-यागादिक कर्म मंद पड़ गये-उनमें पशुओं के प्रति- होना स्वीकार किया है, जिनके वाक्योंको यहां पर उद्धृत निधियोंकी भी कल्पना होने लगी--और ब्राह्मणों के लौकिक करनेकी जरूरत नहीं है। स्वार्थ तथा जाति-पांतिके भेदको बहुत बड़ा धक्का पहुँचा। भगवान महावीरने जिस धर्मतीर्थका प्रणायन अथवा परन्तु निरकुशताके कारण उनका पतन जिस तेजीसे हो प्रवर्तन किया है वह सबके उदय-उत्कर्षका एवं आत्माके रहा था वह रुक गया और उन्हे सोचने-विचारनेका अथवा पूर्ण विकासका साधक "सर्वोदयतीर्थ' है, जिसका गतकिरण अपने धर्म तथा परिणतिमें फेरफार करनेका अवसर मिला। ('सर्वोदयतीर्थाङ्क) मे भले प्रकार स्पष्टिकरण किया जा
महावीरकी इस धर्मदेशना और विजयके सम्बन्धमें चुका है। यहां पर मै सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि कविसम्राट डा. रवीन्द्रनाथ टागौरने जो दो शब्द कहे है वे यह तीर्थ-शासन अनेकान्त और अहिंसा इन दो मुख्य आधारों इस प्रकार है :
पर स्थित है-ये ही दोनो इसके जान-प्राण है। इनमें अनेकान्त Mahavira proclaimed in India the विचार-दोषको मिटानेवाला और अहिसा आचार-दोषको message of Salvation that religion is a दूर करनेवाली है। इन दोनो दोषोके कारण ही सारा विश्व reality and nota mere social convention, संघर्षमय अशान्त चल रहा है और उसे जरा भी चैन नही। that salvation comes from taking refuge महावीरके इन दोनों सिद्धान्तोको अपनानेसे ही विश्वमें सुखin that true religion and not from शान्तिकी लहर व्याप्त हो सकती है। इस शासनमें 'अहिसाobserving the external ceremonies of को 'परमब्रह्म' बतलाया गया है; जैसाकि स्वामी the community, that religion cannot समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है :regard any barrier between man and "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परम।" man as an eternal verity. Wondrous to और इसलिए जो परम ब्रह्मकी आराधना करना चाहता
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अनेकान्त
[वर्ष ११
है उसे अहिंसाकी उपासना करनी चाहिये-राग-द्वेषकी नही-सम्यक्त्व नही वहां आत्मोद्वारका नाम नहीं। अथवा निवृत्ति, परिगृह-त्याग, दया, परोपकार अथवा लोकसेवाके यो कहिए कि भयमें संकोच होता है और संकोच विकासको कामोंमें लगना चाहिए। मनुष्यमे जब तक हिंसकवृत्ति रोकनेवाला है । इसलिए आत्मोद्वार अथवा आत्मविकासके बनी रहती है तब तक आत्मगुणोंका घात होनेके साथ-साथ लिए अहिंसाकी बहुत बडी जरूरत है और वह वीरता का चिन्ह "पापाः सर्वत्र शंकिताः" की नीतिके अनुसार उसमें भयका या है-कायरताका नही । कायरताका आधार प्रायः भय होता प्रतिहिंसाको आशंकाका सद्भाव बना रहता है। जहां भयका है, इसलिए कायर मनुष्य अहिमाधर्मका पात्र नहीं-उसमें सद्भाव वहां वीरत्व नही-सम्यक्त्व नहीं' " और जहा वीरत्व अहिसा ठहर नही सकती। वह वीरोके ही योग्य है और इसी
१७. इसीसे सम्यग्दृष्टिको सप्त प्रकारके भयोसे रहित लिए महावीरके धर्ममे उसको प्रधान स्थान प्राप्त है। जो लोग बतलाया है और भयको मिथ्यात्वका चिह्न तथा स्वानुभव- अहिमापर कायरताका कलक लगाते है उन्होने वास्तवमे की क्षतिका परिणाम मूचित किया है । यथाः
अहिंसाके रहस्यको समझा ही नही । वे अपनी निर्बलता और "नापि स्पष्टो सुदृष्टिर्य. स सप्तभिर्भयमनाक ॥" आत्म-विस्मृतिके कारण कषायोसे अभिभूत हुए कायरताको "ततो भीत्याऽनुमेयोऽस्ति मिथ्याभावो जिनागमात । वीरता और आत्माके क्रोधादिक-रूप पतनको ही उसका सा च भीतिरव स्याडेतोः स्वानुभवक्षतेः।" उत्थान समझ बैठे हैं। ऐसे लोगोंकी स्थिति, निःसन्देह बड़ी ही
-पंचाध्यायी करुणाजनक है।
महावीर स्तवन [श्री पं० नाथूराम 'प्रेमी']
धन्य तुम महार भगवान ! लिया पुण्य अवतार जगतका करनेको कल्याण धन्य० ॥
बिलबिलाट करते पश-कुलको देख, बया-मय-प्राण! परम अहि सामय मुधर्मको डाली नीव महान ।धन्य०॥
ऊँच-नीचके भेव-भावका बड़ा देख परिमाण । सिखलाया सबको स्वाभाविक समता-श्व प्रधान ।।धन्य०॥
★mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
मिला समवसृतमें सुर-नर-पशु सबको सम सम्मान । समता औं' उदारताका यह कंसा सुभग विधान ॥धन्य०॥
अग्बी श्रद्धाका ही जगर्म देख राज्य बलवान । कहा-"न मानो बिना यक्तिके कोई वचन प्रमाण"।धन्य०॥
जव समर्थ, स्वयं करता है, स्वतः भाग्य-निर्माण । यों कह, स्वावलम्ब-स्वाश्रयका दिया सुफलप्रवज्ञान अन्य
इन ही बावोंके सम्मुख रहनेसे सुखखान । भारतवासी एक समय घे भाग्यवान गुणवान ॥धन्य० ॥
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समन्तभद्र-वचनामृत
धर्ममें सम्यग्दर्शनको प्रधानपद क्यों ?
सम्प्रदर्शनशुद्वातारक तिरंजनम-स्त्रीवानि । धर्मके अंगो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्
दुरुकुल-मिताऽल्पापुर्वरिप्रतांच वजन्ति नाऽप्यतिका ॥ चरित्रमें सम्यग्दर्शनको प्रथम स्थान एव प्रधानपद क्यों ?
'जो (अब द्वायुष्क) सम्यग्दर्शनले शुद्ध है-जिनका इसका स्पष्टीकरण करते हुए स्वामी समन्तभद्र अपने समीचीन ।
आत्मा (आयुकर्मका बन्ध होने के पूर्व) निर्मल सम्यग्दर्शनका धर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) मे लिखते है.
धारक है-वे अवती होते हुए भी-अहिसादि-व्रतोंमेसे विद्या-वृत्तस्य संभूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदया ।
किसी भी व्रतका पालन न करते हुए भी-नरक-तिर्यन्व न सन्त्यसति सभ्यत्वे बीजाऽभावे तरोरिव ॥३२॥
गतिको तया (मनुष्यगतिमें) नसक और स्त्रीको पर्यायको 'जिस प्रकार बीजके अभावमें-बीजके बिना- प्राप्त नहीं होते और न (भवान्तरमें) निंग कुलको, वृक्षको उत्पत्ति, वृद्धि और फ्लसम्पत्ति नहीं बन सकती उसी अगोंको विकलताको, अल्पायुको तथा दरियताको-सम्पत्तिप्रकार सम्यक्त्वके अभावमें-सम्यग्दर्शनके बिना- हीनता या निर्धनताको-ही प्राप्त होते हैं। अर्थात् निर्मल सन्य'ज्ञ न और सम्यरचारित्रको उत्पत्ति, स्थिति- सम्यग्दर्शनको प्राप्तिके अनन्तर और उसकी स्थिति रहते हुए स्वरूपमें अवस्थान-वृद्धि-उत्तरोत्तर उत्कर्षलाभ--और उनसे ऐसे कोई कर्म नही बनते जो नरक-तिर्यच आदि पर्यायोंके यथार्थ-फलसम्पत्ति--मोक्षफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती।' बन्धके कारण हों और जिनके फलस्वरूप उन्हे नियमतः
ध्यारया-यहां 'सम्यक्त्व' शब्दके द्वारा गृहीत जो उक्त पर्यायो अथवा उनमेमे किसीको प्राप्त करना पड़े।' सम्यग्दर्शन वह मूलकारण अथवा उपादानकारणके रूपमें प्रतिपादित है। उसके होनेपर ही ज्ञान-चारित्र सम्यग्ज्ञान- ध्याश्या-यह कथन उन सम्यग्दृष्टियोकी अपेक्षासम्यक् चारित्रके रूपमे परिणत होते हैं, यही उनको सम्यग्ज्ञान- से है जो सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके पूर्व अबद्धायुष्क रहे होंसम्यक् चरित्ररूपसे संभूति है। सम्यग्दर्शनको सत्ता जबतक __नरक-तिर्यच-जैसी आयका बन्ध न कर चुके हों; क्योंकि बनी रहती है तबतक ही वे अपने स्वरूपमें स्थिर रहते किसी भी प्रकारका आयु-कर्मका बन्धन एक बार होकर है, अपने विषयमें उन्नति करते है और यथार्थ फलके दाता फिर छूटता नही और न उसमें परस्थान-संक्रमण ही होता होते है। सम्यग्दर्शनकी सत्ता न रहनेपर उत्पन्न हुए सम्यग्ज्ञान- है। ऐसी हालतमे जो लोग सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके पूर्व सम्यक्चारित्र भी अपनी धुरी पर स्थिर नही रहते-डोल अथवा उसकी सत्ता न रहने पर नरकायु या नियंचायुका जाते है-उनमे विकार आ जाता है, जिसमे उनकी वृद्धि बन्ध कर चुके हों उनकी दशा दूमरी है-उनमे इस कथनका तथा यथार्थ-फलदायिनी शक्ति रुक जाती है और वे मिथ्या- सम्बन्ध नही है-वे मरकर नरक या नियंचगतिको जरूर ज्ञान-मिथ्याचारित्रमें परिणत होकर तद्रूप ही कहे जाते है प्राप्त करेंगे। हा, बद्धायुष्क होने के बाद उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शनतथा यथार्थ फल जो आत्मोत्कर्ष-साधन है उसको प्रदान के प्रभावसे उनकी स्थिनिमें कुछ सुधार ज़रूर हो जायगा, करनेमे समर्थ नही रहते। अतः ज्ञान और चारित्रको अपेक्षा जैमे सप्तमादि नरकोको आयु बाधनेवाले प्रथम नरकमे ही सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्टता स्पष्ट सिद्ध है-वह उन दोनोकी जायेंगे-उससे आगे नही-और स्थावर, विकलत्रयादि उत्पत्ति आदिके लिये बीजरूपमें स्थित है।
रूप नियंचायुका बन्ध करनेवाले स्थावर तथा विकलत्रयसम्यग्दर्शनके माहात्म्यका वर्णन करते हए स्वामी समन्त- पर्यायको न धारणकर तिर्यचोमे सनी पंचेन्द्रिय पुल्लगभद्रने जो रहस्यकी बाते अपने समीचीन धर्मशास्त्रमे पर्यायको ही धारण करने वाले होगे। इसी तरह पूर्ववद्ध कही है उनमेसे कुछ इस प्रकार है:
देवाय तथा मनुष्यायुकी बन्धपर्यायोमे भी स्वस्थान-संक्रमण
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अनेकान्त
१०४ ]
की दृष्टिसे विशेषता आ जायेगी और वे संभावित प्रशस्तताका रूप धारण करेंगी। यहां पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि यह सब कथन सम्यग्दर्शनका कोरा माहात्म्यवर्णन नही है बल्कि जैनागमकी सैद्धान्तिक दृष्टिके साथ इसका गाढ (गहरा ) सम्बन्ध है ।
समयकुचारित्रका पात्रकौन और उद्देश्य क्या ?
सम्यक्चारित्रका पात्र कौन और किस दृष्टि अथवा उद्देश्यको लेकर वह चारित्रका अनुष्ठान एवं पालन करता है अथवा उसके लिये वह विधेय है । इन दोनो विषयोंको स्पष्ट करते हुए स्वामीजीने जिस अमृतवचनका प्रणयन किया है वह उनके समीचीन धर्मशास्त्रमें निम्न प्रकारसे उपलब्ध होता है :
मोह-ति मरापहरणे दर्शनलाभावना'त संज्ञानः । राग-द्वेष-निवृत्यं वर प्रतिपद्यते साधु ॥४७॥
मोह तरिका अरहरण होने पर - दर्शनमोह ( मिथ्यादर्शन) रूपी अन्धकारका यथासभव उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम होने पर अथवा दर्शनमोह और चारित्रमोह - रूप मोहका तथा ज्ञानावरणादिरूप तिमिरका यथासंभव क्षयोपशमादिरूप अपहरण होने पर - सम्यग्दर्शन के लाभपूर्वक सम्यज्ञानको प्राप्त हुआ जो साधु पुरुष - आत्मसाधनामें तत्पर जो गृहस्थ अथवा मुनि - है वह रागद्वेष की निवृत के लिए चरणको -- हिसादि-निवृत्ति-लक्षणरूप सम्यक्चारित्रको -- अकार करता है ।'
व्याख्या - यहा 'दर्शन' और 'चरण' शब्द बिना किसी विशेषणके साथमे प्रयुक्त होनेपर भी पूर्व प्रसंग अथवा ग्रन्थाधिकारके वश 'सम्यक्' पदसे उपलक्षित है, और इसलिये उन्हे क्रमशः सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्रके वाचक समझना चाहिये । सम्यक्चारित्रको किसलिये अंगीकार किया जाता है— उसकी स्वीकृति अथवा तद्रूप प्रवृत्तिका क्या कुछ ध्येय तथा उद्देश्य है — और उसको अगीकार करनेका कौन पात्र है, यही सब इस कारिकामें बतलाया गया है, जिसे दूसरे शब्दोंद्वारा आत्मामें सम्यक्चारित्रकी प्रादूर्भूतिका क्रम-निर्देश भी कह सकते हैं । इस निर्देशमें उस सत्प्रा गीको सम्यक्चारित्रका पात्र ठहराया है जो सम्यग्ज्ञानी हो, और इसलिये अज्ञानी अथवा मिथ्याज्ञानी उसका पात्र ही नही । सम्यग्ज्ञानी वह होता है जो सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेता है— सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति उसके सम्यग्ज्ञानी होनेमे कारणीभूत है । और
[ वर्ष ११
सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति तब होती है जब मोहतिमिरका अपहरण हो जाता है । जबतक दर्शनमोहरूप तिमिर ( अन्धकार) बना रहता है तबतक सम्यग्दर्शन नही हो पाता । अथवा जितने अंशो में वह बना रहता है उतने अंशोंमें यह नही हो पाता । अतः पहले सम्यग्दर्शनमें बाधक बने हुए मोहतिमिरको सप्रयत्न दूर करके दृष्टिसम्पत्तिको -- सम्यदृष्टिको प्राप्त करना चाहिये और सम्यग्दृष्टिकी प्राप्तिद्वारा सम्यग्ज्ञानी बनकर राग-द्वेषकी निवृत्तिको अपना ध्येय बनाना चाहिये, तभी सम्यक्चारित्रकी आराधना बन सकेगी । जितने जितने अंशोमे यह मोह - तिमिर दूर होता रहेगा, उतने- उतने अशोमे दर्शन-ज्ञानकी प्रादूर्भूति होकर आत्मामे सम्यक्चरित्र के अनष्ठानकी पात्रता आती रहेगी । और इसलिये मोह- तिमिरको दूर करनेका प्रयत्न सर्वोपरि मुख्य है - वही भव्यात्मामे सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप धर्मकी उत्पत्ति ( प्रादूर्भूति) के लिये भूमि तैयार करता है । इसीसे ग्रन्थको आदिमें मोह- तिमिरके अपहरणस्वरूप सम्यग्दर्शनका अध्ययन सबसे पहले कुछ विस्तारके साथ रक्खा गया है और उसमें सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिपर सबसे अधिक जोर देते हुए उसे ३२ वी कारिकामे ज्ञान और चरित्रके लिये बीजभूत बतलाया हैं । सम्यक्चारित्रके ध्येयका स्पष्टीकरण-
राग-द्वेष-निवृत्तिहिं.स. वि-निजतंना 'ता भवति । अनक्षितार्थवृत्तिः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥४८॥ 'राग-द्वेषको निवृत्ति हिंसादिकको निवर्तनाचारित्ररूपमे कथ्यमान अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचयं और अपरिग्रहादि व्रनोको उपासनासे को गई होती है । ( इसी से बुवजन हिसादिनिवृत्तिलक्षण चारित्रको अगीकार करते है -- उसकी उपासना-आराधनामे प्रवृत्त होते हैं । सो ठीक ही है); क्योंकि अर्थवृत्तिको अथवा अर्थ (प्रयोजनविशेष ) ओर वृत्ति (आजीविका ) को अपेक्षा न रखता हुआ ऐसा कौन पुरुष है जो राजाओं की सेवा करता है ? कोई भी नही ।'
व्याख्या -- जिस प्रकार राजाओका सेवन बिना प्रयोजनके नही होता उसी प्रकार अहिसादि व्रतोंका सेवन भी बिना प्रयोजनके नहीं होता, उनके अनुष्ठान-आराधनरूप सेवनका प्रयोजन है राग और द्वेषको निवृत्ति । जिस व्रतीका लक्ष्य राग-द्वेषको निवृत्तिकी तरफ नही है उसे 'लक्ष्य-भ्रष्ट' और उसके व्रतानुष्ठानको 'व्यर्थका कोरा आडम्बर' समझना चाहिये ।
- युगवीर
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श्रुतकीर्ति और उनकी धर्मपरीक्षा
(डा. हीरालाल जैन, प्रोफेसर. नागपुर महाविद्यालय ) धर्मपरीक्षा नामक ग्रथके सम्बन्धमें अभीतक जो कुछ ज्ञात उसके ऊपरकी तुकबन्दीका अन्तिम शब्द 'लोयपियारउ' ही हो सका है-प्रकाशित व अप्रकाशित--उस सबका उल्लेख दूसरे पत्रपर आनेके कारण मिल सके है । प्रथम कडवकके इस डा० आदिनाथ नेमिनाथजी उपाध्यायने अपने 'हरिषेण-कृत उपलभ्य अशपरसे केवल इतना ही अनुमान किया जा सकता है अपभ्रंश धर्मपरीक्षा' (Harishena's Dharma- कि उस कडवकमे धर्मकी प्रशसा और उसकी अवहेलना करने. pariksha in Apabhrams'a) शीर्षक लेखमें कर वालोंकी निन्दा की गई होगी। कविने आगे चलकर कहा है कि दिया है, और उनका यह लेख भंडारकर ओरियंटल रिसर्च पहले भरतक्षेत्रमें धर्मका उपदेश जिनेन्द्र भगवान ऋषभदेवने इंस्टीटयूटको त्रैमासिक पत्रिकाके रजत जयन्ती अंक (Silver दिया था, और उसीका उपदेश इस कालमें वीरनाथ भगवानने Jubilee Number of the Annals of the किया। तत्पश्चात् धर्मके द्वारा प्राप्य सुखका वर्णन है। Bhandarkar Oriental Research Institute फिर लोकके अनन्त जीवों और उनके दुखोका वर्णन किया Poona, VolXXIII 1942) में प्रकाशित हो चुका है। गया है। इन दुखोसे जिस धर्मके द्वारा उद्धार हो सकता है किन्तु इस लेखमे में जिस धर्मपरीक्षा शीर्षक काव्यका परिचय उसकी आचार्य-परम्परा बतलाई गई है। इसी धर्मको एक दे रहा हूं वह उपाध्यायजीके उक्त लेखमे सूचित नहीं है, खेचर (विद्याधर) ने मुना और उसने अपने मित्रके कल्याणके क्योकि अभीतक की किन्ही ग्रंथ-सूचियोंमें उसका उल्लेख नही लिए उसे सुनाया। इस प्रकार काव्यको मुख्य कथा प्रथम पाया जाता। मैं स्वयं भी इस ग्रंथका नाम किन्हीं अप्रकाशित सन्धिके पांचवें कडवकके मध्यमें प्रारम्भ होती है। और मूखोंग्रंथोंकी भंडारसूचियोमें नही देख पाया, और न किसी अन्य के दश प्रकारोमेसे चारके वर्णनके साथ प्रथम सन्धि समाप्त लेखकने अभी तक इसका, जहां तक मुझे ज्ञात है, कोई उल्लेख होती है। द्वितीय सन्धि मूर्खके पाचवे प्रकारसे प्रारम्भ होकर किया । अत. यह अथ एक सर्वथा नई खोज कहा जा छाया और अग्निको कथाके साथ समाप्त होती है और उसीके सकता है।
साथ दूसरी सभा भी समाप्त हो जाती है। तीसरी सन्धिके धर्मपरीक्षाको प्रस्तुत हस्तलिखित प्राचीन प्रति अपभ्रंश साथ तृतीय सभा प्रारम्भ होती है। कमण्डलकी कथा और ग्रंथोके खोजके समय मेरी दृष्टिमे आई और इस समय मेरे पास उसका पुराणोंके आख्यानो-द्वारा समर्थन इस सन्धिके है। इस प्रतिमे ९८(अंठान्नवे) पत्र है। प्रथम पत्र तथा अन्तके
सोलहवे कडवक तक चलता है। वहामे फिर जैनशास्त्रानुकुछ पत्र अप्राप्त है। ९८ वे पत्रके अन्त तक सातवी सधिका
सार लोकका वर्णन प्रारम्भ होकर चौथी सन्धिके अन्त तक सातवा कडवक चला है जो पूरा नही हो पाया। उस पत्रपरके
चला जाता है। चौथी सन्धिका नाम भी 'लोकसरूववण्णणो' अन्तिम शब्द है .
दिया गया है। कथाका म पाचवी सन्धिमे फिर उठाया गया
है जबकि मनोवेग तापसके वेष उपस्थित हुआ और चौथी 'घत्ता ।। णियकट्ठ . .. .. '
सभा प्रारम्भ हुई। यह सभा सधिके चौदहवे कडवक पर प्रथम पत्रके न मिलनेसे अथके प्रारम्भका प्रथम कड
समाप्त होती है। शेष सन्धिमें पांचवी सभाका वर्णन किया वक अलभ्य हो गया है केवल उसकी अन्तिम तुकबन्दी और
गया है, और इस सन्धिका नाम, 'पचमसालाजयवण्णणो' - - - -
दिया गया है। छठी सन्धिमे अन्तिम सभाका वर्णन है। सातवी * इस विषयका निबन्ध अंग्रेजी म अखिल भारतीय सन्धिके प्रारम्भमें पवनवेगने यह प्रश्न उठाया कि वेदोंके प्राच्य सम्मेलनके १५हवे अधिवेशनके समय प्राकृत रचयिता कौन है ' प्रस्तुत प्रनिमे इम मातवी मन्धिके केवल
और जैन धर्म विभागके सम्मुक बम्बईमें सन् १९४१ प्रथम सात ही कडवक सुरक्षित है, जिनमें ब्राह्मणोंके भ्रष्टनवम्बरमे पढ़ा गया था।
चारित्र हो जानेपर उनके द्वारा एक दलदलमे फसे भैसेके
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१०६
ऊपर चढ़कर उसके मार डाले जाने का उल्लेख है। मरकर वह भैंसा एक असुर हुआ ।
यह कथानक हरिषेण कृत धर्मपरीक्षामें दशवी सन्धिके छठे कडवक तक पाया जाता है । तत्पश्चात् उसी सन्धिमें ग्यारह कडवक और है, और फिर ग्यारहवीं सन्धिमें सत्ताइस कडवोंकी रचना है, जिनमें श्रावकधर्मका उपदेश दिया गया है। यह भाग श्रुतकीर्तिकी धर्मपरीक्षाकी प्रस्तुत प्रतिसे विच्छिन्न हो गया है। संभवतः वह सातवी सन्धिमे ही पूरा हो गया होगा ।
इस प्रतिमें सन्धि अनुसार कडवकोंकी संख्या निम्न प्रकार है
मां र.
---
A
कडत्रक २५
2018+...? = १७९+.....
थकी प्रत्येक संधिके अन्तमे कविने अपना नाम श्रुतकीर्ति और अपने गुरुका नाम त्रिभुवनकीर्ति अकित किया है। किन्तु कविका और कोई परिचय इस ग्रंथमे उपलभ्य नही हैं । पंडित नाथूरामजी प्रेमी कृत 'दिगम्बर जैनग्रथकर्ता और उनके ग्रथ' नामक सूची में मुझे श्रुतकीर्तिके आगे उनकी तीन रचनाओके नाम मिले --हरिवंशपुराण, ( प्रा० ) गोम्मटसार- टीका और गोम्मटसार- टिप्पण । श्रुतकीर्ति-कृत हरिवशपुराणकी एक प्रति जैनसिद्धान्तभवन, आरामें सुरक्षित हैं । यह ग्रंथ भी अपभ्रंश भाषामे हैं और उसके अन्तमें कविका परिचय निम्न प्रकार पाया जाता है पंचमकाल- चल ग पडमिल्लई ।
३३
तह उवण्ण आयरिय महलई ॥१॥ कुंकुंदगणा अगुकम्मई । जाय मुणिगण विविह सहम्मई ॥२॥ गणबला बागेसरिगच्छ ।
अनेकान्त
दिसंघ मणहर महच्छ ॥३॥ पहाचंद गणिणा सुदपु णई । पोमसिह पट्ट उवष्णई ॥४॥ पुगु सुभचंददेव कमजावई । गणि जिणचंद तह य विक्लायहं ॥ ५ ॥ बिजाणदि कमेग उवष्णहं ।
सीलवत बहुगुग सुबदु०ई ॥ ६ ॥ पोम गवि सिकमिग ति जायइ । जे मंडलारिय विक्लाय ॥७॥
मालववेसे धम्म-सुपारण । मुगिववकति पिउभासण ॥८॥ तह सि अभियवाणि गुगधारउ । तिgaणकति पवोह गसार ॥ ९ ॥ तह सिसु सुद्दकित्ति गुरुभत्तउ । जेहि हरिवंसरपुणु प उत्तउ ॥१०॥ मच्छरउचित बुद्धिविहोणउ । पुण्मायरिहि वयग-पयलोणउ ॥११॥ अव्यबुद्धि बहुदो एलिवउ ।
जं असुद्ध तं सुद्ध करिज्वउ ॥ १२ ॥ एहु सयलगथ सुपमा गहु । रसद्ध महसई बुह जाग संवतु विक्कम तेण णरेसहं ।
॥१३॥
सहसु पंचसय बावण सेसहं ॥ १४ ॥ मंडवगडवर मालवदे सई । साहि गयासु पयान असेसई ॥ १५ ॥ यर- जेरहद जिगहरु चंगउ । मिगाह जिर्णा अभंग ॥ १६ ॥
[ वर्ष ११
सउण्णु तत्य इहु जायउ । चविह संसुणि सुणि अणुरायउ ॥ १७॥ माधकिण्ह पंचमि ससिवार
।
हत्य णखा समत्त गुणाल ॥ १८ ॥ गं सउष्णु जाउ सुपवित्तर | कम्मलयगिमितजउराउ ।।१९।।
( प्रशस्ति-संग्रह पं० के० भुजबलि शास्त्री पृ० १५२ ) इस प्रशस्तिसे हमें निम्न बाते ज्ञात होती है । :
(१) नन्दिसंघ - कुन्दकुन्दाम्नायमे श्रुतकीर्ति हुए जिनकी गुरुशिष्य परम्परा इस प्रकार थी -- प्रभाचन्द्रगणि, पद्मनन्दि (प्र०), शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, विद्यानन्दि, पद्मनन्दि ( द्वि० ), देवेन्द्रकीर्ति, त्रिभुवनकीर्ति, श्रुतकीर्ति ।
(२) श्रुतकीर्तिने अपभ्रशमें हरिवंशपुराणकी रचना माघ - कृष्ण-पंचमी, सोमवार, विक्रसंवत् १५५२ में हस्तनक्षत्र के समय समाप्त की ।
(३) श्रुतकीर्तिने हरिवशपुराणकी पूर्ति मालवदेशके 'जेरहद' नगरके नेमिनाथ जैनमन्दिरमें बैठकर की और उस समय मालवाकी राजधानी मांडवगढ़ थी और वहा शाह ग्यासुद्दीन राज्य करता था ।
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किरण २]
श्रुतकीति और उनकी धर्मशिक्षा
इतिहाससे हमे भली भांति ज्ञात है कि सन् १४०६ में 'परमिट्ठिपयाससार' (परमेष्ठिप्रकाशसार) । यह ग्रन्थमालवाके सूबेदार दिलावरखांको उसके पुत्र अलफखाने प्रति आमेरके शास्त्रभंडारमें मौजूद है, जिसमें प्रारंभके विष देकर मार डाला और मालवाको स्वतन्त्र घोषित करके दो पत्र और अन्तिमसे पूर्वका २८७वा पत्र नही है । इसमे वह स्वयं राजसिंहासन पर बैठा । उसने हुशंगशाहको उपाधि सात परिच्छेद है और इसकी रचना विक्रम संवत् १५५३ की धारण की और मांडवगढ़को खूब मजबूत बनाकर उसे ही श्रावण गुरुपंचमीके दिन माडवगढ़ दुर्ग के जेरहट नगरके नेमीअपनी राजधानी बनाई । उसीके वंशमें शाह ग्यासुद्दीन श्वर-जिनालयमें पूर्ण हुई है,जबकि ग्यासुद्दीनका राज्य थाऔर हुए, जिन्होने माडवगढ़से मालवाका राज्य विक्रमसंवत् उसका पुत्र नसीरुद्दीन राजधर्ममें बहुत अनुराग रखता था। इसमे १५२६ से १५५७ (सन् १४६९ से १५०० ईस्वी) तक किया। हरिवंशपुराण और धर्मपरीक्षा दोनोंका इससे पूर्व रचे जाने (Cambridge Shorter History of India का उल्लेख है और इसलिये ये तीनों कृतिया एक ही श्रुतकीतिपृ० ३०६) अतएव इसमें कोई सन्देह नही रहता कि की रचनाएँ है, इस विषयमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं श्रुतकीर्तिकी पूर्वोक्त प्रशस्तिमे मालवेके इन्ही शाह रहता और एकता-विषयक वह समर्थन पूर्णत. हो जाता है ग्यासुद्दीनका उल्लेख है।
जिसकी डा० साहबने अपने लेख में आशा व्यक्त की है। हरिवंशपुराणके कर्ता श्रुतकीति ही प्रस्तुत धर्म-परीक्षा- यहा पर इस ग्रन्थकी प्रशस्तिके रचनाकालादि-सम्बन्धी के भी कर्ता है इसमे भी कोई सन्देहका कारण दिखाई नही दो-तीन वाक्योको ही उद्धृत किया जाता है :देता। दोनोके कर्ताका नाम एक है, गुरुका नाम भी दोनो
"वहपणसय तेवण गयवासइ ग्रंथोंमें वही त्रिभुवनकीर्ति पाया जाता है, और दोनो रचनाए
पुण विक्कमणिवसवच्छरहे। अपभ्रंश पद्योंमे है । इन रचनाओके परस्पर मिलान करने
तह सावणमासहं गुरुपंचनिसह पर तथा धर्मपरीक्षाकी अन्य हस्तलिखित प्रतिया मिलने पर,
गयु पुष्णु तयरहसतहै ।" मुझे आशा है, इनके एककर्तृत्वको और भी पूरा समर्थन
मालवेर-दुग्गमडवचल । वह साहि गयासु महाबल। प्राप्त हो जायगा।
साहि गसीरु णाम तह णवगु । रायधन्मअगुरायउ बहुगुणु । जिस स्थानमे हरिवंशपुराणकी रचना की गई थी
तह जेम्हरणय[२] सुपसिद्ध उ । जिगवेइहर मुगिसुपबुद्ध । उसका नाम उक्त प्रशस्तिमे 'जेरहद' कहा गया है। मालवा
णोम.सरजिणहरगिवसतइं। विरयउ एह गं हरिसंतई। प्रान्तमे यह स्थान कहा है इसका ठीक-ठीक निश्चय करनेका
तेहिं लिहाइहिं जाणागंथई । इय हरिवस पमहसुपसरथई। फिर कभी प्रयत्न किया जायगा। वर्तमानमे इतना ही जान विरदय पढमतमहिमित्यारिय। धम्मपरिक्ख पमुहमणहारिय। लेना पर्याप्त है कि श्रुतकीर्तिने अपने हरिवंशपुराणकी
इस परनिटुिपयाससारे अरुंहादिगुहिं वगणारचना मालवादेशके 'जेरहद' नामक नगरमै सवत् १५५२ में
लकारे अप्पसुदसुवकिनि जह सशिमहाकवुकी थी। सभवत. उन्होने अपभ्रशमे ही धर्मपरीक्षाकी रचना
विरयतो णाम सप्तमोपरिच्छेउ संमत्तो । भी इसी प्रदेशमे सवत् १५५२ के कुछ पूर्व या पश्चात् की
इति परमेष्ठिप्रकाशसार पंथ समाप्नः ।" होगी।
इस ग्रन्थप्रशस्तिसे यह भी जाना जाता है कि सबसे सम्पादकीय नोट
पहले धर्मपरीक्षाकी रचना हुई है। हो सकता है कि वह श्रुतकीर्तिकी एक तीसरी कृति और भी उपलब्ध है, १५५१ या उससे भी पूर्वको हो । उसके बाद हरिवशपुराण जिसको प्रशस्ति सम्वासा-वीरसेवामन्दिरके अपभ्रंश-विषयक रचा गया है और हरिवंशपुराणके बाद इस परमेष्ठिप्रकाशअप्रकाशित प्रशस्तिसंग्रहमे संग्रहीत है । उसका नाम है सारका नम्बर है, जिसको श्लोक-संख्या तीन हज़ार है।
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मीन-संवाद (जालमें मीन)
वीर का घर नहीं रहा है।
।
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-HIMa
ENTERTHANA
क्यों मीन ! क्या सोच रहा पड़ा तू?
देखे नहीं मृत्यु समीप आई। बोला तभी दुःख प्रकाशता वो
"सोचूं यही, क्या अपराध मेरा !
संतुष्ट था स्वल्प-विभूतिमें ही,
ईर्षा-घृणा थी नहिं पास मेरे । नहीं दिखाता भय था किसीको,
नहीं जमाता अधिकार कोई॥
म मानवोंको कुछ कष्ट देता,
नहीं चुराता धन्य-धान्य कोई। असत्य बोला नहिं में कभी भी,
कभी तकी ना बनिता पराई॥
विरोधकारी नहिं था किसीका,
निःशस्त्र था, दीन-अनाथ था मैं । स्वच्छन्द पा केलि करूं नवीमें,
रोका मुझे जाल लगा वृथा हो ।
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किरण २]
मीन-संवाद
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(५) खीचा, घसीटा, पटका यहां यों
'मानो न मै चेतन प्राणिकोई ! होता नहीं कुःख मुझे जरा भी।
हूं काष्ठ-पाषाण-समान ऐसा !!"
कैसे भला वे स्व-अधीन होंगे?
स्वराज्य लेंगे जगमें कभी भी? करें पराधीन, सता रहे जो,
हिंसावती होकर दूसरों को !!
(११) भला न होगा जगमें उन्होंका
बुरा विचारा जिनने किसीका! न बुष्कृतोंसे कुछ भीत है जो,
सवा करें निर्वय कर्म ऐसे !!
सुना कर था नर-धर्म ऐसा
'होनाऽपराधी नहिं बंड पाते । न युद्ध होता अविरोधियोंसे,
न योग्य है वे वध कहाते ॥
रवा कर वीर सुदुर्बलों की,
निःशस्त्र शस्त्र नहीं उठाते'। बातें सभी मूठ लगें मुझे वो,
विरुद्ध दे दृश्य यहां दिखाई ॥
(१२) मैं क्या कहूं और, कहा न जाता !
है कंठमें प्राण, न बोल आता !! छुरी चलेगी कुछ देर में हो!
स्वार्यो जनोंको कब ससं आता !!"
(4) या तो विडाल-बत ज्यों कया है,
या यों कहो धर्म नहीं रहा है। पृथ्वी हुई वीर-विहीन सारो,
स्वार्यान्धता फैल रही यहां वा ॥
(१३) यों दिव्य-भाषा सुन मीनको मै,
धिक्कारने खूब लगा स्वलता । हुआ सशोकाकुल और चाहा,
देऊ छुड़ा बंव किसी प्रकार ।।
बेगारको निध प्रया कहें जो,
वे भी करें कार्य जघन्य ऐसे ! आश्चर्य होता यह देख भारी,
'अन्याय-शोकी अनिआयकारी !!
4 मीनने अन्तिम श्वास खींचा!
मैं देखता हाय ! रहा खड़ा ही !! गूंजी ध्वनी अम्बर-लोकमें यों--
'हा! बोरका धर्म नहीं रहा है !!'
--युगवीर
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क्या यही विश्वधर्म है ?
(बा० अनन्तप्रसाद जैन B. Sc. Eng. 'लोकपाल') जैनधर्मके हिमायती हम जैनी गला फाड-फाड कर तरीकोसे उनके सामने रखा जाये । पर यह करे कौन ? यह चिल्लाते है कि हमाग धर्म 'विश्वधर्म' है और इसे सभी ममला जरा टेढा पडता है । कग्नेके लिये यदि कोई आगे भी ग्रहण कर सकते है । पर कथनी और करनीमे बडा भारी आता है तो प्रतिक्रियावादी लोग उसे प्रगतिशीलता कहअन्तर है। एक पूर्वको जाता है तो दूमग पश्चिमको। माधा- कहके इतना कडा विरोध उठाते है कि जो लोग सहायता एवं रण जैन तो जानते ही नहीं कि धर्म क्या है-अमली धर्म क्या महयोग देना भी चाहते है वे भी डर जाते है । समाज आज है और जैन धर्म क्या है ? वे तो केवल पानी छानकर पीना, धनी मेठोके हाथमे है, जो अधिकतर केवल खुशामदमे ही रातमे न खाना, और किसी तरह मदिर घूम आना या किसी खुश होते और नामके लिये ही रुपये देते है। मच्चे धर्मकी मुनिका दर्शन, भोजन और केशलोच देव लेना इसे ही धर्म- लगन और श्रद्धा तो थोडोमे ही मिलेगी। का अन्त मान बैठे है। हमारे अधिकार पडित कहे जान अब युग बदल गया है। जमाना बड़ी तेजीमे बदल रहा वालोकी दशा तो और भी बुरी है। इन पडितोने छूआछूनका है। जो व्यक्नि ममयके अनुकूल अपना आचरण नही बनाभेद इतना बढ़ा रखा है कि जिमने जैन धर्मको विश्वधर्म क्या वेगा उसकेलिये आनेवाले ममार या निकट भविष्यकालमें देशधर्म भी होनेके दावेमे च्युत कर रग्वा है । उमपर भी कोई स्थान नही मिल सकेगा। वही बात जैन-ममाजके साथ धर्मान्धता इतनी प्रबल है कि बजाय लज्जित होनेके ये ज्ञानके भी पूर्ण रूपमे लाग है । यदि ममाजमे उपयुक्न चेतना नही अभिमान और पाडित्यके गर्वमे 'अनेकान्ल' का गला मगेड आई, समाजके धनियोने अपना पुराना रवैया छोडकर आधुउसकी ठठरीपर इस तरह अकड़कर गान बघाग्ने है कि जैसे निक विकासके मामने आखे नही खोली तो फिर "जैन" साग पुरुषार्थ और धर्म-लाभ इन्हीके हिम्मे पड़ा है-बाकी गब्दके लिये ही खतग उपस्थित हो जायेगा। धनियोको गय किसीको धर्मके बारेमे कुछ कहनेका कोई हक नही । यदि कोई देनेवाले हमारे पडित है और हमारे पडितोका पालनपोषण टीकाटिप्पणी करनेकी हिम्मत करता है तो ये पडिन नाम- सरक्षण करनेवाले ये ममाजकी बागडोर अपने हाथोमे मजधारी लोग उसके पीछे हाथ धोकर पड जाते है। बतीमे पकड़े रहनवाल धनी लोग है । कमूर किमका है, कहना ___ एक जमाना था जब धार्मिक पुस्तकोको छपाकर प्रकाशन कठिन है । पर अज्ञान या कुज्ञान और दूसरोकी देखादेखी करनेका इन लोगो अथवा इनके पुरुषाओने तीव्र विरोध किया या होडा-होडीमे धर्म नामकी वस्तु के बारेमे कोई आलोचना था, पर आज ये ही उसमे लाभ उठाकर मैकडो-हजागेकी या युग-धर्म अथवा ममयकी मागोके अनुसार उमे नये ढगमे मख्यामे जल्दी-जल्दी पडित होरहे हैं । विदेशयात्रा भी अब मगठित करना यह इन्हे एकदम ही अप्रिय है । अनेकानका पापके बजाय पुण्य कार्य समझा जाने लगा है। पर हमारे अपनेको एकाधिकारी मानने वाले उसमे कोसो दूर रहते है। कुछ पंडित अब भी अजैनोमे जैन धर्म-प्रचारका इस कट्ट- यही कारण है जहा तर्क असफल होकर हठधर्मोको जगह रतासे विरोध करते है कि यदि भगवान तीर्थकर सिद्धिशिला दे देता है। पर नही रहते, दूसरे देवोकी तरह कही स्वर्गमें रहते होते हर मानव स्वभावमे ही अपनी रुचि और भावनाके तो वे भी शर्मा जाने। भारतमे तो जनधर्मका प्रचार अजैनो- अनुसार गुरु या पंडित पसंद करता है। एक गाजा-भांग में होना जरा कठिन बान है पर विदेशोमें जहा ज्ञानकी पिपासा पीनेवाला वैमे ही गुरुकी अभ्यर्थना और बडाई करेगा, एक इतनी बढ़ गई है कि वे कुछ भी पाकर उसपर टूट पडनेको छूआछूतको माननेवाला ऐसे ही मुनि-पडितकी प्रशसाके तयारहै वहां जैनधर्म जैसे वैज्ञानिक,अनेकान्तिक एव तर्क-बुद्धि- पुल बांध देगा जो सबसे अधिक छूतछातका भेदभाव स्वय युक्त सिद्धांतों और फिलोसफीसे ओतप्रोत धर्मको तो वे बड़ी रखता हो और दूसरोको रखनेके लिये प्रेरित करता हो। प्रसन्नतासे ग्रहण कर सकते है, यदि इसे उचित रूपसे नये तौर- एक लालची व्यक्ति उसी गुरुको पसंद करेगा जिसके कारण
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किरण २]
उसके साथ रहते हुए किसी प्रकार उसे कुछ अर्थ लाभ हो जाये इत्यादि । हमारे धर्ममे भी यही बात घुस गई है। घुम गई क्या, बड़ी जोरदार हो गई है। जब में सुनता हूं कि एक "समदर्शी" कहलाने वाला मुनि किसीको ऊंच किसीको नीच कहकर समाजको या जन-साधारणको धर्मके नामपर अधर्मकी वृद्धि कराता है तो मुझे अत्यन्त दुख होता है और हमारे अपने धार्मिक पतन पर क्षोभ होता है। साथ ही ऐसा मानने मा करनेवालोकी हठधर्मी या हिंसात्मक प्रवृति देखकर निराशा भी होती है ।
क्या यही 'ममतामय' जैनधर्म है जो 'विश्वधर्म होनेका दावा करता है? जो पतितोको और जबरदस्ती पतित बनानेका फतवा दे ? वह धर्म तो नही हो सकता --हा, धर्मके विपरीत जो कुछ कहा जाये वह अलवना हो सकता है । भगवान तीर्थंकरने जन्ममे किसीको नीच या ऊच नही माना है, न किसीसे घृणा करने को ही मिखलाया है। फिर ऐसा करना तो सीधा-सादा तीर्थंकरका और उनकी पवित्र वाणीका अपमान करना है । अर्थका अनर्थ लगानेवाले तो बहुत मिलेंगे। और इसी कारण आज भारतमे मत-मतान्तरोकी कमी नही । पर जहां दूसरे धर्मावलम्बी आपसके विभेदोंको दूर कर अब एकता लानेकी चेष्टा कररहे है वहा हमारे समाजमें एकताकी जगह 'अनेकता' ही बढती दीखती है ।
जब हम समझते हैं और मानते है कि जैनधर्म ही ऐसा मच्या तर्कगगन और बुद्धिपूर्ण धर्म है कि जिनसे हर प्राणीका कल्याण हो सकता है तो हमारा सबसे पहला कर्त्तव्य होना चाहिये था कि हम इसका प्रकाश उन लोगो तक भी पहुँचावे जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत है । पर हमारी मारी चेष्टायें ठीक इसके विपरीत होती है। क्या ही दयनीय हालत है।
नया यही विश्वधर्म है
एक 'विश्व जैन मिशन' नामकी मस्थाने कुछ कार्य करना आरंभ किया है । और कुछ ठीक रास्तेकी तरफ कदम बढ़ाया है। Voice of Ahinsa नामकी पत्रिका निकालकर उसने एक बहुत बड़ी कमीकी पूर्ति भी की है। पर उसकी रिपोर्टसि यही पता चलता है कि अभी तक उसे समाजके अग्रणी पंडितों एवं प्रमुख धनियोंसे सहायता या सहयोग प्राप्त नही हुआ है। यह एक ही बात समाजके वर्तमान रुखकी दिशाका अच्छा बोध कराती है । लोग शायद अब भी यही समझते हैं कि धर्मको अंग्रेजों, यूरोपियनों और अमेरिकनो वगैरहमें प्रचार करनेसे वह अपवित्र हो जायेगा। कुछ भी हो,
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ऐसे उत्तम एव परमावश्यक कार्यमे उत्साहका न दिखलाई देना बडा ही हानिकारक है ।
आज, जब मारा मसार मारकाट, रक्तपात, युद्ध और बमोकी भयकरतामे घबडा गया है और शांति चाहता है, जैनधर्म और उसके सिद्धातोका व्यापक प्रचार अत्यावश्यक था। अपनी रक्षा, धर्म या समाजकी रक्षा भी मसारकी रक्षा द्वारा ही हो सकती है। हम ससारके भीतर ही है बाहर नही । ससार दुखपूर्ण रहेगा. आकुलित-अव्यवस्थित या अशांत रहेगा तो हमारा जीवन भी वैसा ही बनेगा- भले ही इसे हम जान सकें या न जान सके। वर्तमान युग प्रचारका युग है। जैन तन्वोमे इतनी वैज्ञानिकता कूट-कूट कर भरी है कि यदि उनका आधुनिक रूपये स्वतंत्र प्रतिपादन हो तो विश्व पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ सकता है। पश्चिमवाले किसी बातको तर्कपूर्ण होनेपर सुनना, समझना और जानना चाहते है । हमारे जैमी हठधर्मो यद्यपि वहा भी हैं पर अनुपानमें बहुत कम है। विद्या वहा कई गुनी है जहा विद्या हो, विद्याका अनुराग हो, मध्ये ज्ञानकी भूख ही नही तो जैनमिद्धानोका उपदेश, प्रचार या व्याख्यान काम कर सकता है और वही होना चाहिये। पश्चिममे प्रचारके लिये अग्रेजी भाषा एक सबसे ज़बरदस्त साधन है, इसका व्यवहार करना ही होगाऔर अधिकसे अधिक जितना संभव हो सके। में तो इतना कहना चाहता ह कि यदि वर्तमान कालमे तीर्थंकर हो तो वे भी बगैर पश्चिमी भाषा ( International Language) मानकर अग्रेजी जाने बिना और आधुनिक विज्ञानोकी जानकारीके बिना पूर्ण ज्ञान और नीर्थंकरत्व नही प्राप्त कर मकते स्वर्गीय पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी, पूज्य चम्पतराय जी एव पूज्य जे एल जैनीनं अपने समय में अपनी शक्ति भर जोर लगाया, पर समाजन उन्हें सफल नही होने दिया। वे तो चले ही गये, उनके ट्रस्ट भी जो है उनके ट्रस्टी लोग भी उनको हार्दिक आकाओको पूर्ण करनं प्रयत्नशील नही दीखते । वे लोग अगरेजी के द्वारा जैनधर्मका व्यापक विस्तार करना या कमसे कम इसकी जानकारी और सर्वप्रियता विदेशांमे बढ़ाना चाहते थे । अब तो हमारे लिये स्वर्ण सुयोग उपस्थित है । मदिगे और मूर्तियोकी संख्या हमारे यहां इस समय जरूरत से ज्यादा हो गई है। अब तो धनका सदुपयोग एवं धर्मवृद्धिका आयोजन इसी व्यवस्था और मार्ग द्वारा हो सकता है जिसे विश्व जैन मिशनने अप
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भगवानसे धर्मस्थिति-निवेदन
[ वर्ष ११
नाया है। हां, एक जैन विश्वविद्यालय भी स्थापित करनेकी सुशानको विकसित करें और कुज्ञानको दूर करें। यह बहुत सख्त जरूरत थी यदि संभव हो तो । असंभव कुछ भी सब बात जैनसिद्धातोके व्यापक प्रचार-द्वारा ही सभव है। नही । जैनियोंके पास इतनी दानकी शक्ति है कि यदि उन्हे जैनधर्म "समता" और "अहिसा" का प्रवर्तक है। इसीसे ठीक मार्ग सुझाया जाये तो काफी रकम इन कार्योंके लिये युद्धोकी तरतमता एव आपसी मनोमालिन्यका सिलसिला इकट्ठी हो सकती है। केवल अमेरिका जैमे धनाढ्य देशमे हटकर सार्वभौम प्रेम एव सदिच्छाकी उत्तरोत्तर सवृद्धि ही यदि ठीक प्रचार किया जाये तो वहीके लोग अपने ही धनसे होगी और सारे संमारमे सच्चे सुख और स्थायी शांतिका फिर इन कार्योंको आगे-आगे बढ़ावेगे-पर आरंभमे हमे सच्चा मार्ग लोगोंको ज्ञात होगा । जबतक यह सच्चा ज्ञान दस-पांच लाख रुपये प्रचारमे लगाना जरूरी है। विश्वविद्या- या सम्यग्ज्ञान ससार नही बढेगा इस “एटमबम" के लयके लिये तो करोडोकी जरूरत होगी। पर हम चाहे तो भयानक, भीषण, और स्थायी भयसे छुटकारा पानेकी कोई सबकुछ हो सकता है। केवल भावना और सुदृढ इच्छाशक्ति सभावना नही । हम भी इसी ससारके प्राणी है । हमारा चाहिये।
__ दुख-सुख भी इसीके साथ बँधा हुआ है । हमे अपने लिये भी केवल धर्म-धर्म चिल्लानेसे कुछ होने-जानेका नही। अपने वैज्ञानिक धर्मका प्रकाश फैलाना परमआवश्यक है। 'अनेकान्त' का प्रचार अनेकान्तरूपमे करनी ही होगा। मा न करके हम अपने कर्तव्यमे तो च्युत होग ही-अपने अज्ञान ही संसारमं सारे अनर्थों की जड है। अज्ञानको दूर विनामा मामी वास्तवमे स्वय पक्षास्त कांग । अन्यथा करनेके लिये सूज्ञान (Right Knowledge) को जरूरत वैसा करके ही हम धर्मवद्धि, धर्मपालन ओर कर्तव्यपालन है। यह सुज्ञान स्याद्वाद-द्वारा प्ररूपित एव प्रस्थापित
कर सकेंगे; माथ ही साथ जैनधर्मको सचमुच "विश्वधर्म" और तीर्थकर-प्रणीत तत्त्वोका सच्चा रूप, धर्म और
बनानेमे समर्थ भी हो सकेगे । व्यवस्था सब जाननेसे ही हो सकते है । हमारा कर्तव्य है कि हम समारमे ज्ञानकी वृद्धि करें, पटना, ता० २०-१२-५१
Pापत एव प्रस्थाऔर
बनानेमें समर्थ ।
भगवानसे धर्म-स्थिति निवेदन
( श्री प० नाथूराम 'प्रेमी' ) कहां बह जैनधर्म भगवान !
जाने जगको सत्य सुझायो, टालि अटल अज्ञान । सती-दाह, गिरिपात, जीवबली, मांसाशन मद-पान । बस्तु-तत्व कियो प्रतिष्ठित, अनुपम निज विज्ञान कहां०॥ देवमूढ़ता आदि मेटि सब, कियो जगत कल्याण ॥कहां०॥
साम्यवादको प्रकृत प्रचारक, परम अहिंसावान । कट्टर बैरीहप जाकी क्षमा, दयामय बान । नीच-ऊंच-निर्षनी-धनीप, जाकी दृष्टि समान ॥ कहां०॥ हठ तजि, कियो अनेक मतनको सामंजस्य-विधान।कहां०॥
देवतुल्य चाहाल बतायो, जो ह समकितवान । अब तो रूप भयो कछु औरहि, सहि न हम पहिचान । शून, म्लेच्छ, पाहुने पायो, समवसरणमें स्थान ॥ कहां०॥ समता-सत्य-प्रेमने इक संग, यातें कियो पयान कहां।
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मोहनजोदड़ो-कालीन और आधुनिक
जैन-संस्कृति
(श्री बाबू जयभगवान बी. ए, एडवोकेट ) ऋग्वैदिककालमें पंजाब और सिन्ध देश श्रमण संस्कृति
[गत किरणसे आगे] ऋग्वेदके 'इन्द्र' सम्बन्धी सूक्तोंमे विदित है कि ऋग्वैदिक कालमै जब वैदिक आर्यजन उत्तर पश्चिमकी ओरसे भारतमें आये सप्तसिन्धु देश पणि, फणी अथवा नाग लोगोंसे वसा हुआ था, इनका गज्यशासक 'वृत्र' कहलाता था, उसे अहि (सांप), दास और दस्य संज्ञाओसे भी पुकारा जाता था, यह लोग बड़े मुदृढ और बलिष्ठ थे, भिन्न सभ्यतावाले थे, यह नही चाहते थे कि वैदिक आर्यगण इनके देशमे आवे और बसे, इसलिये वैदिक आर्यगणोको अपने फैलाव और ठहरावके लिए स्थल-स्थलपर इन लोगोसे मुकाबला करना पड़ा है।
"वृत्र जघन्वा असृजद्विसन्धून" ऋ6-१९-८ अर्थात् वृत्रको मारकर इन्द्रने सप्तसिन्धुओ वाले देशको मुक्त किया था। "यो हत्वाहिमरणात सप्तसिन्धून" ऋ२ १२ ३-अर्थात् अहिको मारकर इन्द्रने सप्तसिन्धुओको मुक्त किया था। "विश्वा अपो अजयदासपली.... ." ऋ ५ ३० ५--अर्थात् इन्द्रने वृत्र-द्वारा पालित सकल उदक (सप्तसिन्धुवाले देशको) बशीभूत किया था। "दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आप ..... वृत्र जघन्वा अप तद्धवार" ऋ १३२. ११ १२अर्थात् आप (सप्तसिन्धुओवाला देश) दासो द्वारा पालित और दासो द्वारा सुरक्षित सब ओरमे ढका हुआ था, इन्द्रने खुत्रको मारकर उस सप्तमिन्धु देशका मार्ग आर्यजनके लिये खोला था।
बस्यून्छिम्यूंश्च पुरुहत एवं ईत्वा पृथिव्या पूर्वानि वहींत ।
सनत क्षेत्रं सखिभि श्विल्य में सनत् सूर्य सनदपः सुव्रजः।-ऋ. १ १०० १८ अर्थात्-इन्द्रन अनंक आर्यगण द्वारा आहून होकर पृथ्वीनिवामी दस्युओ और सिम्युओको मार डाला और श्वेत वर्ण मित्रो वा मरुतोके साथ क्षेत्रोका भाग कर लिया, इम तरह मुन्दर वज्रयुक्त इन्द्र सूर्य एव नदी ममूह (सप्तसिन्धु देश) को प्राप्त हुए । ऋग्वेद ८ ३०. ३१ मे कहा गया है, कि इन्द्रने तीस हजार दासोको मृत्युकी नीद सुलाया था।
ऋग्वेद २. १३ ९. में उल्लेख है कि इन्द्रने दमितिके लिये १००० दस्यू और सयुन पकड़कर बन्दी बनाये थे।
उपर्युक्त मूक्तोमे जो शिम्य और सयुन शब्द प्रयुक्त हुए है, वे वैदिक भाषा शब्द न होकर प्राकृत भाषाके मौलिक शब्द है, जिनका संस्कृत रूप 'श्रमण' है ।
ऋग्वेद ३ ३४ ९ में कथन है कि दस्युओको मारकर इन्द्रने आर्यवर्णकी रक्षा की और दस्युओको लूटकर आर्यलोगोमे उपभोगके योग्य गोधन, सूवर्णधनका दान किया ।
इसी तरह ऋग्वेद १०. ४८. ४ मे कहा है कि इन्द्रने दस्युओकं गौ, अश्व, हिरण्य और दूधवाले पशुओंको आयुध-बलद्वारा जीत लिया ।।
अथर्व-पृथ्वी सूक्त* १२.१ ३७ मे कहा है. कि पहले यह पृथ्वी दस्यु लोगोमे बसी हुई थी ये दस्यु लोग देव-द्रोही थे--उन्हे त्यागकर पीछेसे इसने वृत्रके स्थानमें इन्द्रको अपना लिया।
* पापं सर्प विजमाना विमृग्वरी यस्यामासन्तान्ययो ये आप्लवन्तः परावस्यून दवती देव पीयनिन्छ वृणाना पृथिवी न वचम् शकाय बघा वृषभाय वृष्णे ॥३७॥
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बनेकान्त
[वर्ष ११
चूंकि ये दस्यु लोग देव-द्रोही थे इसीलिये ऋग्वेद सूक्तोंमें जगह-जगह इन्द्रसे दस्यु जातिके सर्वनाशके लिये प्रार्थना की गई है। इन प्रार्थनाओमे यहा तक भी कहा है कि इन्हें इच्छानुसार मार दिया जावे',या इन्हें गुलाम बना लिया जावे।
इन्द्रके लिये वैदिक ऋषियोने जगह-जगह जो विशेषण प्रयुक्त किये है, उनसे भी उपर्युक्त मतकी पुष्टि होती है । वे विशेषण निम्न प्रकार है :
१. वृत्रहा-(अर्थात् वृत्रको मारने वाला) ऋ. ४. ३०. १. २. दस्यवे वृक-(अर्थात् दस्युओंको मारने के लिये वृकके समान)।
देखें, ऋग्वेदके आठवें मण्डलसे आगे दिये हुए वाल-खिल्य सूक्त ३. २.७; ८ १, ८ २० ३ दस्युहन-(अर्थात् दस्युओंको मारनेवाला) ऋ. १ १०० १२
४. पुरन्दर अर्थात् (दासोके) नगरोको विध्वस करनेवाला । इन्द्रने एक ऋचानुसार शम्बर दासके ९९ नगर नष्ट किये थे-"नवति च नवेन्द्रः पुरो व्यरच्छम्बरस्य" ऋ २ १९ ६. दूसरी ऋचाके अनुसार उसने शम्बरके १०० नगर नष्ट किये थे-“यः शत शम्बरस्य पुरो विभेदाश्मनेव पूर्वी." ऋ २. १४. ६. ।
उपर्यक्त वृत्तान्तमे स्पष्ट है कि ऋग्वैदिक कालमे सप्तमिन्धु देश नाग लोगोका देश था और उसपर वृत्र. अहि, दास, दस्यु, आदि उपाधियोमे अलकृत उनके गजशासकोका आधिपत्य था । दास, दस्युका वास्तविक अर्थ--
यद्यपि वैदिक संहिताओ और ब्राह्मण ग्रन्थोमे दस्यु लोगोकी बहुत निन्दा की गयी है, उनके प्रति घृणा प्रगट की गयी है, उनके सर्वदमन और सर्वसहारके लिये प्रार्थनाये भी की गयी है और यद्यपि पुरानी वैदिक उक्तियोके प्रभावके कारण आज भी भारतके साधारण जन दास व दस्युका अर्थ एक नीच, कमीन, गुलाम, असभ्य,क्रूर जगली व्यक्ति समझते है परन्तु वास्तवमे दास-दस्य शब्दका यह असली अर्थ नहीं है, यदि ऐसा होता तो दिवोदास, मुदास, त्रसदस्य प्रभृति सप्तसिन्धु देशके आर्य राज्यशासक अपने नामोके साथ उक्त विशेषण क्यो लगाते।
पारसियोके माननीय ग्रन्थ जेन्दावस्था (Zend Avesta) को देखने से पता लगता है कि दस्यु शब्द सन्मान सूचक है, दस्युका अर्थ दीप्यमान, प्रकाशमान है । यह शब्द दस-चमकना धातु से बना है' इसलिये जेन्दावस्थामे जरथुश्त्रको दस्यु (दल्युमा) और कही-कही 'दख्युनाम सुरो' अर्थात् दस्युओमे विद्वान् कहा गया है।
वास्तवमे यह सब सास्कृतिक विद्वेषका ही फल है, कि दस्यु शब्दका असली अर्थ बिगडकर आज इतना विकृत होगया है कि इसके असली स्वरूपका पता लगाना भी कठिन होगया है। इसी प्रकारके अन्य उदाहरण भी हमारे इतिहासमें मौजूद है। 'पाखण्डी' शब्दको लीजिये इसका वास्तविक अर्थ है पापोको खण्डन करने वाला अर्थात् यति, मुनि, साधु, तपस्वी। परन्तु मध्यकालीन युगमे हम देखते है कि सास्कृतिक विद्वेषके कारण इसका अर्थ बदलकर बिल्कुल विपरीत होगया। इसी तरह हमारे अपने जमाने में भक्त और हजरत शब्द इतने विकृत होगये है कि इन्हें हंसी-मजाकके तौर पर मायाचारी, चालाक मनुष्योंके लिये प्रयुक्त किया जाता है। दास वा दस्यु लोगोंकी सभ्यता--
दास व दस्यु लोग नये आगन्तुक वैदिक आर्योसे भिन्न वर्ण,भिन्न जाति,भिन्न भाषा और भिन्न सभ्यता वाले थे। वे कृष्ण वर्ण व कृष्णत्वच् थे (ऋ१.१३०.८; ९.४१.१, )जब कि आर्यजन हिरण्य-भूरे (ऋ १. ३५.१०)शिवनय-सफेद (ऋ १.१००,
१. ऋग्वेद १०, २२, ऋ १०, २३: ऋग् ६, २५, २ ; ऋ६, ६०, ६ । २. ऋ १०, १००, ३२, ऋ ६, ४५, २४ ।
३. ऋ७, ८६, ७; ऋ ८, ५६, ३, ऋग् १०, ६२, १०। ४. गंगा-जनवरी १९३२ के वेदाङ्क पृ. १८९, १९०.. ५. Dr. Banerjee-Asura India-pp 15, 16.
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किरण २]
मोहनजोदड़ो-कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति
१८; ३.-३४.९) वर्णके थे। उनकी नाकें छोटी और बैठी हुई थी। इसलिये उन्हें ऋ५. २९. १० में अनास् अर्थात् बिना नाकों वाला कहा है। उनकी भाषा भी आर्यजनकी भाषासे भिन्न थी, इसलिये उन्हे ऋ५. २९.१० मे मृधवाच: अर्थात् समझमें न आनेवाली भाषावाले कहा है। उनकी संस्कृति भी वैदिक सस्कृतिसे भिन्न थी। वे वेदविहित कार्योको न करते थे, इसलिये ऋ१०.२२.८ में उन्हें 'अकर्मण' कहा गया है वे अग्नि, मरुत, और इन्द्र देवोको न मानते थे, न उनके लिये कोई यज्ञ-हवन करते थे, इसलिये ऋग्० ८.७०. ११ में उन्हे 'अदेवस्' 'अयज्वन्' कहा गया है, वे लिंगोंके उपासक थे इसलिये उन्हें ऋ७. २१. ५ ऋग् १० ९९. ३ मे 'शिशिन देवा.' कहा गया है ।
चकि दस्यु जन भिन्न जाति और भिन्न सभ्यता वाले थे, देवद्रोही थे, इसलिये वैदिक आर्यजनके लिये यह स्वाभाविक ही था कि उन्हें सास्कृतिक विद्वेषके कारण अकर्मा (विधि विधान रहित), अमत्र (अशिक्षित), अव्रत (नियमरहित), अन्यव्रत (भिन्न धर्म मानने वाले) अमानुष (नीच मनुष्य) आदि सज्ञाओमे पुकारे।' ___अथर्व वेदके पृथ्वी गूक्त १२.१.४५ से भी विदित है कि सुदूर अतीत कालम भी भारतवासी भिन्न-भिन्न धर्मोके माननेवाले और भिन्न-भिन्न भाषाय बोलने वाले थे। इसी विद्वपके कारण भास्कराचार्यने निरुक्त उ० षटक १.२३ मे दस्यु शब्दकी व्युत्पत्ति' दस-विनाश करना धातुसे बतलायी है अर्थात् वह जो वेद-विहित धर्मका नाश करने वाला है।
वास्तवमें दस्यु लोग असभ्य और नीच मनुष्य न थे, वे बड़े गिल्पकार थे, वास्तुकलामें वे बड़े माहिर थे, वे जमीन खोदकर बड़े सुन्दर तालाब, वावडी और भवन बनाना जानते थे। उन्होंने बहुतमे पाषाणके नगर और दुर्ग बनाये हुए थे। लोहे के दुर्ग भी उनके पास मौजूद थे। ऋग्४.३०.२० में कथन है कि इन्द्रने शम्बरके पाषाण वाले १०० नगर* आधीन कर हव्यवाता यजमान दिवोदासको दे दिये । इनके पास शरद् ऋतुमें रहने के लिये शारदी दुर्ग अलग बने हुए थे। वे बड़े व्यापारी थे जहाजरानी अच्छी तरह जानते थे-जहाजोमे बैठकर समुद्रके रास्ते एशियाके दूर मध्यवर्ती देशोमे व्यापार करते थे और उनमे आर्थिक वसास्कृतिक सम्बन्ध जोड़े हुए थे। वे बड़े बलिष्ठ, शूरवीर और युद्ध-कुशल थे। इनकी स्त्रियां तक सैनिक बन कर शत्रुसे लडनेके लिये तैय्यार रहती थीं। ऋग् ५ ३०.९ में उल्लेख है कि-"स्त्रियो हि दाम-आयुधानि चक्रे किमाकरनबला अस्य मेन"-अर्थात्-नमुचिदासने स्त्रियों तकको युद्ध में खड़ा कर दिया परन्तु ऐसी दुर्बल सेना क्या कर सकती थी, फलत. नमुचि उम युद्धमे माग गया। शम्बर दास के सम्बन्धमे ऋग् २. १२.११ में उल्लेख है कि वह अपनं १०० नगरोके विध्वंस होनेपर भी इन्द्रके वशमे न आया। वह मैदानमे पराजित होकर भी पर्वतोंका आश्रय ले ४० वर्ष तक इन्द्रके साथ लड़ता रहा । ऐसे शूग्वीर वृत्रको माग्नेके कारण ही इन्द्र महाराजा, महेन्द्र , विश्वकर्मा आदि नामोसे विख्यात हुआ था।"
शूरवीर होने के साथ ही दस्युगण बड़े धर्मनिष्ठ थे, अहिसा धर्मके मानने वाले थे, त्यागी, तपस्वी श्रमणोके उपासक थे। उनकी हारका कारण दुराचार और असभ्यता न था बल्कि उनकी हारके कारण तीन थे-घरकी फूट, घुडसवार सेनाकी कमी और युद्ध समय कवच आदि संरक्षक अस्त्रोंका अभाव । ये कितने ही विशी अर्थात् कबीलोंमें बंटे हुए थे, जो आपसमें निरन्तर एक दूसरेसे लड़ते रहते थे।
१. अकर्मा वस्युरभि नो अमन्त्ररन्यवतो अमानुषः स्वं तस्यामित्रहन् वषर्वास य दम्भय १०.२२.८ २. ऋग्वेद १. १०३.३; २. २०८; ३. १२.६; ४. १२.१०। ३. Vedic Indian-Vol Ip. 356
रस्युयिते सयार्थादुपस्यन्तपरि मनसा उपदापति कर्माणि ।-निरुक्त उत्तर षटक १.२३ ५. “इन्दोवा वा एष पुरा वृत्रस्य वधावय वृत्रम् हत्या
महाराजो विनियान एवं महेन्द्रोऽभवत् "-शतपथ ब्राह्मण १. ६. ४. २१, ४ ३. ३. १७; इन्नोव वनं हत्वा विश्वकर्मा ऽभवत्
-एतरेय ब्राह्मण ४-२२ ६ ऋग० २ ११. ४, ४. २८ ४, ६. २५. २,
महाभारत मीमांसा पृष्ठ १५१-१५३ ७ ऋग् ५. ३०. २०.
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अनेकान्त
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ऋग्वेद-मन्त्रोंके प्रारम्भिक कालमें भी हम सुदासको पुरुष्णी नदी (रावी) के किनारे दश राजाओंके साथ युद्ध करते हुए देखते हैं । उनकी धर्मनिष्ठाकी जानकारीके लिये महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २८१ विशेष उल्लेखनीय है । जब भीष्म 'वृत्र' की बड़ी प्रशंसा कर चुके तो उसे सुनकर धर्मराजके मुखमे यह शब्द निकल पड़े-
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अहो धर्मिष्ठता तात बुत्रस्यामिततेजसः । यस्य विज्ञानमतुलं विगो भक्तिश्च तादृशी ॥
- शान्तिपर्व २८१ १
अर्थ- हे पितामह! अमित तेज वृत्र की धार्मिकताका क्या वर्णन किया जाय ! उसका यह अतुल विज्ञान और विष्णु पर उसकी वह भक्ति !
१
इसके बाद विस्मय- सहित युधिष्ठिर भीष्मसे पूछते है कि, ऐसे धर्मनिष्ठ बुद्धिमान वृत्रको मारनेमे इन्द्र कैसे सफल हुआ ' इसपर भीष्म बतलाते है कि जब महादेवने ज्वर बनकर वृत्रके शरीर में प्रवेश किया और स्वयं विष्णु इन्द्रके में प्रविष्ट हुए, तब वृत्रका वध करनेमें इन्द्र सफल हुआ। इसका ऐतिहासिक तथ्य यही है कि वृत्रके परास्त होनेका मूल कारण इन्द्र न था बल्कि घरको फूट थी । यदि महादेव-उपासक यक्षगण वृत्रके साथ विश्वासघात न करते और विष्णु अर्थात् सूर्यउपासक भग्तगण इन्द्रकी सेनाके साथ जाकर न मिलते तो वृत्र कभी भी परास्त न होता ।
इसमे अगले अध्याय २८२ मे महाभारतमे कथन है कि वृत्रका वध होनेपर उसके शरीरमे ब्रह्महत्या निकली और उसने इन्द्रका पीछा किया। इस ब्रह्महत्या के कारण इन्द्रका तेज बिल्कुल विनष्ट होगया। इस ब्रह्महत्याके हटानेके लिये इन्द्र बहुत प्रयत्न किया किन्तु वह किसी भी तरह उसे दूर न कर सका, तब वह पितामह ब्रह्माजीके पास जाकर उनके चरणोमे जा पड़ा, तब ब्रह्माजीने इंद्रको ब्रह्महत्या के दोषसे मुक्त करनेके लिये उसे चार नियम दिलाये १ - अग्निमें पशुओकी आहुति न देकर जौ और औषधियोकी आहुति देना । २-पर्वके दिनोमे वृक्ष, वनस्पति और घासको न काटना। ३- रजस्वला स्त्रीके साथ मैथुन न करना और 6- जल अर्थात् नदियोका सन्मान करना । जो कोई इन नियमोका उल्लघन करेगा, वह ब्रह्महत्याका दोषी होगा। इस कथा ऐतिहासिक तथ्य यही मालूम होता है कि यद्यपि वृषका वध होनेमे इन्द्र अनुवायी आर्यजन कुछ समयके लिये सिन्धु देशके विजेता बन गये परन्तु वे इस देशकी आत्माको विजय न कर सके, बल्कि दासों और प्रात्योकी हत्याके कारण अथवा देवयज्ञोके लिये पशु हिंसाके कारण इन्द्र उपासक आर्यजन सप्तमिन्धु देशमे घृणाकी दृष्टिसे देखे जाने लगे और यहाके मूलवासी नाग व दस्यु लोग इनके विरोध उठ खड़े हुए उसमे उनकी हिमामयी याज्ञिक आधिदैविक संस्कृतिको बहुत धक्का पहुंचा और वह प्रायः निस्तेज हो गयी, क्योकि यह विरोध उस समय तक शान्त न हुआ जब तक कि वैदिक ऋषियोने अहिसा धर्मको अपनाकर अग्निमें जो का होम करना, पर्वके दिनोंमें वृक्ष और वनस्पतिकी रक्षा करना, पत्नीके रजस्वला होनेपर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना और भारतकी नदियोका सन्मान करना न मीख लिया ।
उपर्युक्त कथनकी पुष्टि एवरेय ब्राह्मणके ३५वे अध्यायका दूसरा लण्ड भी उद्धृत किया जाना जरूरी है। इसम उल्लेख है कि देवताओंने इन्द्रपर विश्वरूपका वध करने, वृत्रका वध करने, यतियोको कुत्तों द्वारा मरवाने, अरुमंत्रोकी हत्या करने और वृहस्पतिपर प्रहार करनेके पांच अभियोग लगाये थे ।
उपर्युक्त प्रकारके आधार पर ही श्री रामप्रसाद चन्दा ने यह सिद्ध किया है, कि प्रचीन कालमं गंगा और जमुनाके मध्यवर्ती क्षेत्र, आर्यखण्डको छोड़कर इसके चारो ओर फैले हुये भारतके शेष खण्डोंमें जिनमें पूर्वके अग, वग, कलिंग, मगच विदेहदेश, पश्चिमके सुराष्ट्र, आनदं, सिन्धु, सौवीर, उत्तरके आरट्ट ( पंजाब ), मद्र ( रावी और चनाब नदियोका मध्यवर्ती भाग), वश (कश्मीरका दक्षिणी भाग), गान्धार (पेशावर) हिमालय प्रदेश, और दक्षिणके आन्ध्र कर्णाटक आदि शामिल थे, पा व्रात्य लोगोकी वस्तियां थी । ये लोग अपनी धार्मिक सस्कृति भाषा भूषा और सामाजिक व्यवस्थाके कारण वैदिक आर्यजनोसे भिन्न जाति वाले थे, इसीलिये इस युगका ब्राह्मणिक साहित्य व्रात्योंके प्रति वैमनस्यसे भरा है। "
1. R. B. Ram Prashad CHANDA The Indr Aryan Races A 1916 PP 37-78
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किरण २ ]
साहित्यिक प्रमाणऋग्वेदमें पूर्व और पश्चिम सागरवर्ती देशोंके तपस्वी
श्रमणोंका उल्लेख
यो तो वैदिक ऋषियोंकी दृष्टि मुख्यत. आधिदैविक रही है और वैदिक सूक्त अधिकतर देवता-स्तुति परक हैं, उनमें श्रमण लोगोकी गुणगाथा अपना उनकी आध्यात्मिक संस्कृतिका उल्लेख पाना आशासे बाहिरकी चीज है, तो भी जिस प्रकार भारतके क्षत्रियजन वैदिक ऋषियोंकी शब्दविद्या, काव्यकुशलता, नीतिनिपुणता, व्यवस्थाकार दक्षता और लौकिक अभ्युदयके याशिक अनुष्ठानोसे प्रभावित हुए बिना न रहे और उन्होने बहुधा ब्राह्मण ऋषियों और उनके बजोको अपने राज्योमें पुरोहित अध्यापक और मन्त्रियोके सन्मानित स्थानोपर नियुक्त कर दिया, उसी तरह वैदिक आर्यजन भी भारतीय श्रमणोंके महान् आध्यात्मिक आदर्श उनकी विश्वव्यापिनी दृष्टि, उनके शुद्ध संयमी जीवन, उनकी योगसाधना और उनकी ऋद्धि-सिद्धि वाली अलौकिक शक्तियों प्रभावित हुए बिना न रहे। वे दूरसे खिच-विंचकर अध्यात्मविद्या सीखनेके लिये उनके सम्पर्कमे आने लगे; इसलिये प्रारम्भिक देवासुर संग्रामों अथवा ब्राह्मण-क्षत्रियसंघर्षोंसे निपट कर ज्यों-ज्यों भारतीय जनता सन्मेल और एकताकी ओर बढ़ी त्यो त्यो ब्राह्मण ऋषियोने अपनी काव्यरचनाओमे इन व्रात्य लोगोके त्यागी तपस्वी, योगियो और उनकी आध्यात्मिक संस्कृति परक तत्त्वोकी सराहना करनी शुरू कर दी। यही कारण है कि जहा ऋग्वेदके पहले नौ मण्डल, दस्युजनो व व्रात्यजनोके प्रति वैमनस्यसे भरे हुए दिखते है, वहा ऋग्वेदका दशमा मण्डल, प्राय. सम्पूर्ण अथर्ववेद तथा आरण्यक उपनिषद् आदि ब्राह्मणोका उत्तरवतों साहित्य भारतीय क्षत्रियोकी महत्ता, व्रात्योकी पवित्रता और श्रमणोकी दिव्यतासे भरा हुआ है।
इस प्रसगमे ऋग्वेद सहिता मण्डल १० का १३६वा सूक्त जो केशी सूक्तके नामसे प्रसिद्ध है, विशेष तौर पर देखने योग्य है, यह सूक्त ऐतिहासिक दृष्टिसे कमसे कम ईम्बी मन्ये २००० वर्ष पूर्वका जरूर है। इसमें जहा भारतके पुराने श्रमण-योगियोth वास्तविक जीवनका एक जीता जागता चित्र खीचा गया है वहा पर ही स्पष्ट रूपमे बतलाया गया है कि ये योगिजन भारतके पूर्व और पश्चिम गागरीके तटवर्ती देशोमे रहते हैं। चूकि इस मूक्नके उपर्युक्त तथ्यकी ओर विद्वानोकी दृष्टि बहुत कम गयी है. इसलिये मममने मुक्तको यहा उद्धृत किया जाता है
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नवी दिवं देवी विमति रोस । केशी विश्व स्वपूंगे केशीवं ज्योतिषच्यते ॥ १॥ मुनयो वातरशनाः पिशङ्का बसते मला । वानस्यानुप्राणिं यन्नि पहुंचासो अविक्षत ॥२॥ उन्मविता मौने येन वाना आ नस्थिमा वयम् । शरोरखस्माक यूप मर्तासो अभिवश्यय ॥३॥ अन्तरिक्षे पति जित्वा रूपावच करत् । मुनिर्देवदेव पौवाय मला हित ॥४" वायो नायो वेवेशितो मुनि सवाशेनिसा ॥५॥ अप्सरसा गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन् । कशी केतयविद्वान् सखा स्वादुर्मवित्तमः ॥६॥ - ऋग्वेद म० १० सूक्त १३६. पृथ्वीको धारण करने बाल है। वही
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मोहनजोदड़ो - कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति
भावार्थ - केशी केशवाला' अर्थात् जटाधारी योगी अग्निलोक, जललोक और सारे विश्वको अपने ज्ञान द्वारा प्रकाशित करते हैं. यह ज्योतिस्वरूप कहे जाते है ।। १ ।
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ये जटाधारी मुनि वायुका भोजन करने वाले है, अर्थात् लम्बे-लम्बे अनशन व्रत करके वायुपर ही रहनेवाले हैं। इन उपवास के कारण इनके अग पीले पड़ गये है, (स्नान न करनेके कारण ) ये मलीन रहते है, ये देवत्वको प्राप्त करके वायुकी गतिके अनुगामी होगये है अर्थात् वायु समान निप विचरते हैं ॥२॥
(यह कहते है) कि हम समस्त लौकिक व्यवहारोके बिसर्जनसे उन्मत्त (आनन्दरसलीन) हो गये है। हम वायुपर चढ़ गये हैं, तुम लोग केवल हमारा शरीर देखते हो, हमारी आत्मा वायु तुल्य निर्लेप है ॥ ३ ॥
ये मुनि लोग आकाश में उड़ सकते है, ये सारे पदार्थोंको देख सकते है । इन मुनियोकी सब ही देवांके प्रति मैत्री है, इनका जीवन सभी के कल्याणके लिये है ||४||
१ प्राचीन भारतमें योगीजन भगवान ऋषभके समान जटाधारी हुआ करते थे, भगवान ऋषभकी जितनी प्राचीन मूर्तिया मथुराके ककाली टीले से मिली है वे सब जटाधारी हैं ।
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
ये मुनिजन स्वतन्त्र वायुमें विचरने वाले अश्वोंके समान है। ये वायुके सहचर है, देव लोग भी अर्थात् ब्राह्मण ऋषि भी इनको पानेकी इच्छा करते है. ये मुनि लोग पूर्व और पश्चिमके दोनों सागरोके तटवर्ती देशोमे रहते है ॥५॥
ये केशी (जटाधारी योगी) अप्सराओं, गन्धवों और जंगली पशुओमे विचरते है । अर्थात् ये योगी पर्वतों और जंगलोंमें रहते है। ये सारे विश्वको जानते हैं अर्थात सर्वज्ञ है, ये सबके आनन्ददायक मित्र है॥६॥
उक्त वर्णनसे पता चलता है कि आर्य ऋषियोंकी जिन प्रभावक योगियोसे भेंट हुई है, वे अधिकतर भारतके पूर्व और पश्चिम सागरोके निकटवत्त देशोमें रहते थे। वे दिगम्बर थे, निष्परिग्रही थे और वायु समान निर्लेप थे, अनशन आदि दुर्धर तपस्या करनेवाले थे, इन दीर्घ तपस्याओके कारण उनके शरीर पीले और मैले पड़ गये थे। वे ग्राम नगरोमे न रहकर अप्सराओ, यक्ष गन्धर्वो और पशुओके बीच पर्वतों और जगलोमें रहनेवाले थे। इसलिये वे पशुपति व यक्षपति कहलाते थे, वे सभी देवोंके प्रति समबुद्धि रखने वाले थे, वे प्राणिमात्रके मित्र थे, विश्वभरके कल्याणकर्ता थे । वे सर्वदर्शी, सर्वज्ञ और ज्योतिस्वरूप थे, देवलोग अर्थात् ब्राह्मण लोग भी उन जैसा बननेकी भावना रखते थे। बौद्ध-पिटक-साहित्य
भारतके प्राचीन योगियोका यह वर्णन कितना सुन्दर और स्वाभाविक है, कितना विशद और वास्तविक है और निर्ग्रन्थ जैन साधुओकी चर्यासे कितना मिलता-जुलता है, इसका पता लगानेके लिये आओ 'मज्झिमनिकाय के १४वे सुत्तमें स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा दिये हुए उन जैन यतियोके वर्णनको देखे, जो आजसे ढाई हजार वर्ष पहले मगध देशको राजधानी राजगृहीके निकट गृद्धकूट पर्वतपर तपस्या करते हुए भगवान् बुद्धको मिले थे।
"एक समय महानाम ! मै राजगृहीमे गृद्धकूट पर्वतपर विहार कर रहा था। उस समय बहुतसे निगंठ (जैन साधु) ऋषिगिरिको कालशिलापर खड़े रहनेका व्रत ले, आसन छोड़ उपक्रम करते, दुःख, कटुतीव्र वेदना झेल रहे थे, तब मै महानाम ! सायंकाल ध्यानसे उठकर जहापर कि वह निगंउ थे, वहा गया, जाकर उन निगंठोसे बोला--'आवसो! निगशे! तुम खड़े क्यों हो? आसन छोड़े तीव्र वेदना क्यों झेल रहे हो? ऐसा कहनेपर उन निगडोने कहा 'आवुस ! निगंठ नात पुत्त (जैन तीर्थङ्कर महावीर) सर्वज्ञ, सर्वदर्शी है ; उनमे चलते, खडे, सोते, जागते, सदा निरन्तर दर्शन, ज्ञान बना रहता है-वे ऐसा कहते हैनिगंठों जो तुम्हारा पहलेका किया हुआ कर्म है, उसे इस कडवी दुष्कर क्रिया-तपस्या द्वारा नाश करो और जो इस वक्त यहां काय-वचन-मनसे सवृत (तीनो योगोके निरोध करनेसे गुप्त व दण्डित) हो यह भविष्यके लिये पापका न करना हुआ, इस प्रकार पुराने कोका तपस्यासे अन्त होनेसे और नये कर्मोके न करनेसे भविष्यमें चित्त अनास्रव होगा, भविष्यमें आम्रव न होनसे कर्मका क्षय होगा, कर्मक्षयसे दुखका क्षय, दुख क्षयसे वेदनाक्षय, वेदनाक्षयसे सभी दुख नष्ट होगे, हमें यह रुचता है, इससे हम सन्तुष्ट है।" -मज्झिमनिकाय-(राहुल साकृत्यायन द्वारा हिन्दी अनुवादित) १९३३ पृ० ५९
इस वर्णनसे सिद्ध है कि बुद्धकालीन भारतमे जैन मुनि निग्रन्थ अथवा निष्परिग्रही दिगम्बर थे, वे प्रायः आसन छोड़ खडे होकर कार्योत्सर्ग मुद्रासे ध्यान लगाते थे, वे बडी क्लिष्ट तपस्याओके करनेवाले थे, मन, वचन, काय-तीनो योगोका निरोधकर त्रिगुप्ति व त्रिदण्डको धारण करनेवाले थे। वे अपने गुरु भगवान महावीरकी तरह तपस्या और त्रिगुप्ति द्वारा समस्त दुख और दु.खके कारणोको नष्ट कर सर्वदर्शी, सर्वज्ञ, आनन्दस्वरूप, बनना चाहते थे। श्रमणसंस्कृतिका वैदिकऋषियोंपर प्रभाव
ऋग्वेदके उपर्यक्त केशी सूक्तके अलावा अथर्ववेदमे भी कई सूक्त ऐसे मौजूद है जिनसे विदित है कि वैदिक ऋषि इन व्रात्य योगियोंके ऊँचे जीवन और शुद्धाचारसे इतने प्रभावित हो उठे थे कि उन्होने अपने प्रभावित राजाओं और गृहस्थीजनोंके लिये ये नियम बना दिये कि जब कभी वात्य जन मधुकरके समान घूमते-फिरते आहार लेनेके लिये उनके घर आवें तो उनके साथ अत्यन्त विनयका व्यवहार किया जावे । इसके लिये अथर्ववेदका व्रात्य सूक्त विशेष दर्शनीय है।
"जिस राजाके घरपर इस प्रकारका विद्वान व्रात्य अतिथि होकर आता है वह राजा इसको अपने लिये अत्यन्त कल्याणकारी मानकर उसका स्वागत करे,ऐसा करनेसे वह राजा क्षात्रबल तथा राष्ट्रका अपराध नही करता"-अथर्ववेद काण्ड १५ सूक्त (१०)
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किरण २ ]
मोहनजोदड़ो कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति
जिस गृहस्थीके घरपर विद्वान् व्रात्य अतिथिकी तरह आवे उस गृहस्थीका कर्तव्य है कि वह अपने-आप उठकर उसके सामने आये और कहे- 'हे व्रात्य ! आप कहां रहते है ? हे व्रात्य आपके लिये जल है, हे व्रात्य आप प्रसन्न हूजिये, हे व्रात्य जैसा आपको प्रिय हो वैसा ही हो, हे व्रात्य ! जिस प्रकार आपकी अभिलाषा हो वैसा ही हो, हे व्रात्य जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही हो, जो गृहस्थी व्रात्य अतिथिकी इस प्रकार विनय करता है यह देवयान मार्गको अपने वशमे कर लेता है व जसको अपने वश में कर लेता है, वह अपने प्राणोंको दीर्घ कर लेता है, वह समस्त पदार्थोंको अपने वश कर लेता है, वह स्वयं वशी हो जाता है, वह समस्त काम्य पदार्थोंको प्राप्त कर लेता है" - अथर्ववेद काण्ड १५, सूक्त १ ( ११ )
यहां यह बता देना आवश्यक है कि उपर्युक्त सुक्तमें अतिथि व्रात्योंको पटगाहनका जो भक्तिपूर्ण विधान है -विधि बतलायी गयी है उस समान ही अतिथि रूपमे आने वाले साबुओको पढगानेकी विधि आज भी जैन लोगोंमें बराबर प्रचलित है।
जिस गृहस्थी के घर पर विद्वान अतिथि अग्नियोके उद्धृत होनेपर ( अर्थात् गार्हस्थपत्य अग्निसे उठाकर आह्वनीय अग्निआधान किये जाने पर) और अग्निहोत्रके प्रारम्भ हो जाने पर आवे तब गृहपति स्वयं उसके लिये आदरपूर्वक उठकर और उसके समीप जाकर कहे कि हे व्रात्य । यदि आज्ञा हो तो अग्नि होत्र करूं वह यदि आज्ञा दे तो गृहपति अग्निहोत्र करे, यदि वह आज्ञा न दे तो अग्निहोत्र न करे। जो इस प्रकार व्रात्यसे आज्ञा लेकर हवन करता है, वह पितृयान और देवयान मार्गों को जान लेता है, जो इस प्रकार आज्ञा लेकर होम करता है वह देवताओके प्रति कोई अपराध नही करता। उसकी प्रतिष्ठा इस लोकमे बनी रहती है । जो इस प्रकारके व्रात्यसे बिना आज्ञा लिये होम करता है न उसको पितृयान मार्ग और न देवयान मार्गका बोध होता है । वह देवताओके प्रति अपराध करता है और उसकी लोकमे प्रतिष्ठा भी नही रहती ।
-- अथर्ववेद काण्ड १५ सूक्त १ ( १२ ) नोट- इस सूक्तसे विदित होता है कि इन सूक्तोंके रचनाकालमे इन व्रात्यो ( श्रमणों) का प्रभाव भारतके आर्य-अनार्य खण्डोंमें कितना बढा चढा था कि कोई भी उनका आदर सन्मान किये बिना लोकप्रिय न हो सकता था, जिनके घरपर विद्वान व्रात्य एक रात्रिके लिये अतिथि होकर रहता है उससे वह गृहपति पृथ्वी परके पुण्यलोकोको प्राप्त कर लेता है। जिसके घरपर दो रात्रि रह जाता है उसे अन्तरिक्षके पुण्यलोक प्राप्त हो जाते है जिसके घरपर तीन रात्रि रह जाता है उसे दिव्यलोकके पुण्यलोक प्राप्त होते हैं । जिसके घर पर चार रात्रि रह जाता है उसे दिव्यलोकके पुण्य लोकोमे भी उत्तम पुण्य लोक प्राप्त होते हैं । जिसके घरपर अपरिमित रात्रियोंके लिये रह जाता है वह अपरिमित पुण्यलोकोको पा लेता है। जिसके घर पर व्रात्य न होते हुए भी कोई अपने को व्रात्य कह कर अतिथिके तौर पर ठहरे तो उसका भी अनादर नही करना चाहिये उसको भी पानी स्वीकार करने की प्रार्थना करनी चाहिये उसको भी अपने घरमे वास देना चाहिये, उसे मां भोजन अथर्ववेद १५वा काण्ड सूक्त १ (१३)
परोसना चाहिये।
वायुपुराणसे भी उक्त मतकी पुष्टि होती हैं। वायुपुराणमे पाशुपत योग विषयक दश अध्यायोमें योगियोंके प्रति गृहस्थोके कर्तव्य बतलाते हुए कहा गया है कि- 'अनेक वेषधारी योगी लोग देशमे सर्वत्र विचरते रहते है, जब कभी वे किसी गृहस्थ यहा आ, गृहस्थका यह धर्म हैं कि वह उनका हृदयसे स्वागत करे और अपनी कल्याण वृद्धिके लिये उनकी यथायोग्य सेवा पूजा करे ।' दूसरी बात यह कही गयी है, जो पहली बातसे भी महत्वपूर्ण है, कि श्राद्ध पक्षमे भी गृहस्थ जहां तक हो सके इन्ही योगियोको हूडकर लावे और भोजन करावे; ऐसा करनेसे पितृगण बहुत सन्तुष्ट होते है। श्राद्धके दिन एक योगीको भोजन कराना हजार ब्राह्मणो अथवा ब्रह्मचारियोंके भोजन कराने के समान है।
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पीछे यद्यपि ब्राह्मण स्मृतिकारोने पितृक श्राद्धके समय यतियो तथा ब्रह्मचारियोको आहार करानेका निषेध कर दिया और कौटिल्य अर्थशास्त्र के' लेखकले तो उन वैश्यो पर जो देव विषयक अथवा पितृक विषयक कार्योंमें वैरानियों, शाक्यों तथा आजीविकोंको बुलाकर भोजन कराये, १०० पण दड लगाये जानेका भी विधान कर दिया, परन्तु इस प्रकारके निषेध और विमान का कारण वह साम्प्रदायिक वैमनस्य है जो ईस्वी पूर्वकी दूसरी सदीसे मगध में शुग वश नाम के ब्राह्मण राज्यकी स्थापना होनेके बाद ब्राह्मणोंमें पुनः जाग उठा था। प्राचीन भारतमं तो पितृक श्राद्धके समय इन यतियोको आहार देना ही महा कल्याणकारी
१. कौटिल्य अर्थशास्त्र - अधिकरण ३, प्रकरण ७५ वा
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
माना जाता था; क्योकि भारतीय लोकोके पूर्वज व पितृगण वास्तवमें यतियोके ही उपासक थे। इसी मान्यताकी पुष्टि करते श्री वी. आर. रामचन्द्र दीक्षितकार एम. ए. वायुपुराणके उक्त विवरणके आधार पर वायुपुराणको एक प्राचीन पुराण होना सिद्ध करते है और कहते है कि “यह पुराण उस प्राचीन कालका लक्ष्य कराता है जब भारतीय लोगोंमे श्राद्धके दिन योगियोंको भोजन कराना महान लाभ समझा जाता था।"* वैविक ऋषियोंमें श्रमणमार्गका अनुचरण
उक्त श्रमणसंस्कृतिका प्रभाव उस दूरवर्ती कालमें समस्त देशके भीतर कितना बढ़ा-चढ़ा था इसका दिग्दर्शन उन उदाहरणोंसे भी किया जा सकता है जो अथर्ववेदके ११वें काण्डके ५वे सूक्त' मे अथवा उमके भाष्य रूप गोपथ ब्राह्मण (पूर्व)२ में संकेत किये गये है। गोपथ ब्राह्मण (पूर्व) २८ का आशय निम्न प्रकार है :--
महर्षि वशिष्ठका पुत्र शाख (पर्वत)की तलहटीम श्वासोश्वास पर जीवन निर्वाह करता हुआ यह शब्द बोला कि यहा (शख पर्वतपर) शीत और उष्ण दो पानीके झरने हो जायें, सो (वह दो झरने पैदा हो गये), वह झरने सदा चलते रहते है, विषाण (पर्वत) के ऊपर एक वशिष्ठ शिला नामकी एक शिखा है उसके ऊपर दूसरी शिखा कृष्ण शिलाके नामसे प्रसिद्ध है उस शिलापर वशिष्ठ ऋषिने तप किया था, विश्वामित्र और जमदग्निने जामदग्न (पर्वत) पर तप किया था, गौतम और भारद्वाज दोनो ने सिहप्रभव (पर्वत) पर तप किया था, गगु ऋषिने गगु पर्वत पर और ऋषि मुनिने ऋषि द्रोण (पर्वत) पर, अगस्त्य मुनिने अगस्त्य तीर्थ पर तप किया। अत्रि ऋषि दिवि लोकमे तप तपता है, स्वयम्भू कश्यपने कश्यप पहाड़ पर तप किया, कश्यपने यह तप भेडिया, गैछ, लक्कडबघड, कुत्ता, सुअर, नेवला, सर्प, आदि (क्रूर और हिमक पशुओ) के मध्यमें रहते हुए किया है। इस कश्यप तुगके दर्शन मात्रसे अथवा इसकी प्रदक्षिणा करनेमे सिद्धि मिलती है। १००० ब्रह्म वर्षों तक शिवजी ऋषि वनके अन्दर ब्रह्मचर्यपूर्वक एक पावमे खड़े रहे और दूसरे एक हजार ब्रह्मवर्ष तक वे शिरके ऊपर अमृतकी धारा-गंगा-को धारण करते रहे और ४८ हजार ब्रह्म वर्ष तक सलिल पृष्ठ पर शिवजी तप करते रहे।'
उक्त विवरणमें वैदिक वाङ्मयके प्रसिद्ध, ऋषिवर वशिष्ठ विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, भारद्वाज, गगु, अगस्त्य, अत्रि अथवा उनके वंशजों द्वारा विविध पर्वतों पर तपस्या करने और ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करनेका उल्लेख है।
इन प्राचीन वैदिक ऋषियोंके सम्बन्धमे महाभारतमे भी लिखा है कि, 'महर्षि च्यवन, जमदग्नि, वशिष्ठ, गौतम और भृगु जैसे धमाशील महात्माओने उपवासके ही प्रभावसे स्वर्गलोक प्राप्त किया है।'
इन उदाहरणोंकी पुष्टि जैन साहित्यसे भी होती है । इसमें वेषधारी मुनियोके स्वरूपका उल्लेख करते हुए इस प्रकारके ब्राह्मण ऋषियोमेंसे वशिष्ठ मुनि, मधुपिंगल, बाहु और द्वैपायनका वर्णन आया है और बतलाया गया है कि यद्यपि इन्होंने घरबार छोड़कर धन-धान्य त्यागकर घोर तपश्चरण किया था परन्तु ये ऋद्धिसिद्धकी कामनाओमे फस जानके कारण शिवपदकी प्राप्ति करनेमे असफल रहे।
इससे सिद्ध है कि बुद्ध और महावीरसे भी दूर पूर्ववर्ती कालमें वैदिक ऋषि इन श्रमणोके आध्यात्मिक प्रभावसे प्रभावित हो उठे थे और उन्होंने अपने याज्ञिक मार्गको छोड़कर अध्यात्म उत्कर्षके लिये सन्यासमार्ग और तपमार्गका आश्रय लिया था। इतना ही नही बल्कि उन्होंने अपने साहित्यमे भी महाश्रमण तीर्थङ्करोंका मगल गान करना शुरू कर दिया था। वैदिक साहित्यमें भगवान वृषभदेवका कथन____ गोपथ ब्राह्मणके उक्त कथनमें जगली जन्तुओके बीचमे रहते हुए जिस स्वयम्भू काश्यपकी दुर्धर तपस्याका वर्णन है उसका संकेत जैनियोंके माननीय उस आदि तीर्थङ्करकी ओर मालूम होता है, जो जन मान्यता अनुसार इस युगके आदि धर्म* 'कल्याण' का योगाङ्क, अगस्त १९३५ पाशुपत योगका आरम्भिक इतिहास पृष्ठ २३७
१. अथर्ववेद-११वां काण्ड-सूक्त ५ मन्त्र २४-२६ . २. गोपथ ब्राह्मण-पूर्व २.८.
३. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १०६ श्लोक ६०-७० ! ४. भावप्राभूत, ४४-६८-कुन्दकुन्दाचार्य (ईसाकी प्रथम सदी)
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किरम २]
मोहनजोदड़ो - कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति
प्रवर्तक थे, जैनसाहित्यमे यह महापुरुष वृषभ नामधारी होनेसे ऋषभ, काश्यप गोत्री होनेसे कश्यप, इक्ष्वाकु कुलका होनेसे इक्ष्वाकु, आदि धर्मप्रवर्तक होनेसे आदि ब्रह्मा, ज्येष्ट ब्रह्मा, आदीश्वर, आदिजिन, आदिनाथ व स्वयम्भू, विधाता, विश्वकम्म आदि नामोसे प्रसिद्ध है ।
इस ऋषभ भगवानके सम्बन्धमें जैनागममें कहा गया है कि "जैसे नक्षत्रोमें चन्द्रमा श्रेष्ठ है वैसे ही धर्मप्रवर्तकों में कश्यप श्रेष्ठ है"* यजुर्वेद में भी तत्सम्बन्धी ऐसा ही बखान किया गया है "जैसे नक्षत्रोंमें चन्द्रमा इन्द्र है ( श्रेष्ठ है) वैसे ही धर्मप्रवर्तकोंमे वृषभ श्रेष्ठ है, अमृतदेव ( सिद्ध पुरुष) शुद्ध और हर्षित मनसे उसका आह्वान करते हुए उसका अभिनन्दन करते है" । इसके अतिरिक्त वैदिक वाङ्मयके अन्य ग्रन्थोमे भी इस वृषभ भगवानका उपर्युक्त नामोंमे विविध प्रकार गुण-गान किया गया है। मुण्डक उपनिषद में कहा है-ब्रह्मा देवानी प्रथम सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता । स ब्रह्मविद्यां सर्वविध प्रतिष्ठामचंय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥
- मु० उप० १. १.
अर्थ- सब देवोमे ब्रह्मा सबसे पहले पैदा हुआ, इसलिये वही विश्वका कर्त्ता है, वही विश्वकां रक्षक है, उसने समस्त विद्याओं में प्रधान विद्या ब्रह्मविद्याको अपने पुत्र ज्येष्ठ अथर्वको बतलाई थी ।
जैन वाइमयसे पता लगता है कि इस आदि ब्रह्माने अपने पुत्र वृषभसेनको ही सबसे पहले ब्रह्मविद्याका उपदेश किया था और उसीको अपने श्रमणसंघका ज्येष्ठ गणधर ( chief apostle ) बनाया था। मालूम होता है कि उपर्युक्त विवरणमें मण्डल उपनिषद्कारने हसी ज्येष्ठ गणधरको अपनी वैदिक परिभाषा अनुसार ज्येष्ठ अथर्वाके नामसे पुकारा है, क्योंकि वैदिक अनुश्रुति अनुसार अथर्वा ऋषिने सबसे पहले अग्निको मालूम किया था और वही याज्ञिक क्रिया व लोक कल्याणकारी मन्त्र, जन्त्र विद्याका सर्वप्रथम प्रकाशक था। और उसीके नाम पर चौथे वेदका नाम अथर्ववेद रक्खा गया था ' ।
१. ( अ ) समन्तभद्र - बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र ।। ३५ ।। ईसाकी दूसरी तीसरी सदी
( आ ) जिनसेनाचाय्यंकृत आदि पुराण ।। १६.२६४-२६७ २५१००-२१७
(इ) जिनसेनाचार्य्यं कृत हरिवंश पुराण ॥ ८२१०
(ई) नेमिचन्द्र आचार्यकृन त्रिलोकसार ॥८०२ ईसाकी दसवी सदी
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ईसा की आठवी सदी
२ उत्तराध्ययन सूत्र ।। २५१६ ।।
३ स्लोकानामिन्दु प्रति शूर इन्द्रो वृषभायमाणो वृषभस्तुराषाट् भूतभूषा मनसा मोदमानाः स्वाहा देवा अमृता मादयन्ताम् ॥ - यजुर्वेद २० - ४६
४. ( अ ) श्वेताश्वर उप० ।। ६१८ ।।
(आ) डा० राधाकृष्णन का मत है कि जैनधर्म निस्सन्देह भारतमें वर्धमान और पार्श्वनाथ के पहलेसे प्रचलित
हैं, क्योंकि यजुर्वेद में ऋषभ अजितनाथ और अरिष्ट नेमि तीन प्राचीन तीर्थंकरोंका उल्लेख मिलता है ।
देखें Indian Philosophy Vol 1
Indian Ediction, 1940, p. 289
(इ) आचार्य विरूपाक्ष वडिया M A वेदतीर्थंका मत है कि ऋग्वेद १०- १६६,१ जैन तीर्थंकर ऋषभसे सम्बन्धित है।
५. तिलोत४-९-६४
६ ( अ ) सत्यव्रत सामश्रमी निरुक्तालोचन वि० स. १९५३ पृ. १५५
(B) A. C. Das-Rig Vedic culture pp. 113-115.
() Dr. Winternitz-History of Ind. list. Vol. 1 1927 p. 120.
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
वैदिक साहित्यमें अरिष्टनेमिका कथन
___ जैन अनुश्रुति' अनुसार भारतके प्रसिद्ध यदुवंश अथवा हरिवंशकी अन्धकवृष्णि शाखामें उत्पन्न अरिष्टनेमि भगवान कृष्णके चचेरे भाई थे, इनके पिता मथुराके पास शौर्यपुरके राजा थे, ये वर्णमे श्याम, स्वभावमें सौम्य, शरीरसे बलिष्ठ और संकल्पमें दृढ शक्तिवाले थे । उनका विवाह सम्बन्ध सुराष्ट्र देशस्थ जूनागढके भोजक वशकी राजकुमारी राजमतीसे होना निश्चित हुआ था। जब विविध राजाओंके साथ घोड़ों वाले रथमें सवार हो यह जूनागढके निकट पहुचे तो एक स्थान पर बहुतसे भूख-प्याससे पीडित पशुओको देखकर यह पूछने लगे कि 'इन्हे क्यो बन्दी किया गया है ?' जब उन्हें बताया गया कि यह बारात में आये हुए मांसाहारी राजाओके भोजनार्थ जमा किये गये है तो यह दया द्रवित हो गये, वैराग्यसे छा गये, संसारको दुःखका कारण समझ , पशुओंको मुक्त करा, रथ छोड़, रैवतक पर्वत पर जा चढे, वहा निर्ग्रन्थ मुद्राधार तपस्या करने लगे और संसारके कारणीभूत समस्त कर्मशत्रुसेनाको जीतये 'जिन' अथवा 'अरिहन्त' बन गये और फिर शिक्षा-दीक्षा द्वारा अनेक भव्य जीवोंको कल्याणमार्ग पर लगाने, उन्हें संसार सागरसे पार उतारने के कारण यह 'तीर्थड्र' संज्ञासे विभूषित हुए।
जैन अनुश्रुति अनुसार यही भगवान कृष्ण, बलराम, पंच पाण्डव, नारद, प्रभृति महाभारत कालीन प्रमुख पुरुषोंके आध्यात्मिक गुरु थे। इनके द्वारा दीक्षित होकर ही पाच पाण्डवोंने सन्यास धारण किया था। इन्हीकी तपस्या-भूमि होनेके कारण 'रैवतक' अर्थात् गिरनार पर्वत उस समयसे लेकर आज तक तीर्थभूमि बना हुआ है।
अरिष्टनेमि अपने समयके कैसे प्रभावक और युगप्रवर्तक महापुरुष थे -इसी बातसे प्रमाणित है कि वैदिक साहित्यमे जगह-जगह मंगल भावनामे प्रेरित हो वैदिक ऋषियोने अमरकी तरह गुण गान कर इनका आह्वान किया है
(अ) ओम् भां कर्णेभिः श्रगयाम देवा, भवं पश्येमाक्षिनिर्यजत्राः स्थिर रङ्ग स्तुष्टुवास्तभिः, म्यशेम देवहितं यदायु ॥ स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवा. । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्तिनस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो वृहस्पति दधातु ओं शतिः शान्तिः शान्तिः ।
-प्र.न. उप. (आ) त्यपूर्ण वाजिनं देवजू सहारात तक्ता रथानाम्
अरिष्टनेमि पुतनाबमाशु स्वस्तये ताक्ष्य महा हुम ॥१। -ऋग्वेद १०, १७८ १२॥ अर्थ-बलवान देवोसे पूजनीय, प्राणियोको पार उतारने वाले, (अर्थात् तीर्थङ्कर) सेनाओंके विजेता (कर्म रूपी शत्रुसेनाओके विजेता जिन), ताय पुत्र (सूर्य पुत्र) अरिष्ट नेमिको हम आत्म-कल्याणके लिये आह्वान करते है।
(1) तब रथं वरमा हुन स्तोमरश्विना सुवित्ताय नस्यम् ।
अरिष्टोम धामियानि विद्या मेषं वजनं जीरदानुम् ॥ --ऋ. १. १८०. १० अर्थ जिसमें बडे-बड़े घोड़े जुड़े है ऐसे रयमें बैठे हुए सूर्यके समान आकाशमै चलनेवाले विद्या रूपी रथमें बैठे हुए अरिष्टनेमिका हम आह्वान करते है।
(ई) हिन्दुओके पौराणिक साहित्य, विशेषतया स्कन्धपुराण, प्रभास खण्डमे नेमिनाथ भगवानका बड़ा गुणगान किया गया है उसके कुछ अंश यहां उद्धृत किए जाते है--
भाग्य पश्चिमें भागे वामनेन तप: : 'तम् । तेनैव तपसाकृrzः शिवः प्रत्यक्षतां गतः। पासनसमानीनः श्यामति-दिगम्बरः । नेमिनाथ शिवेत्येवं नाम चक्रेऽन्य वामन: । कलिकाले महाघोरे सर्वप-प्रणाशकः । वर्शनात्स्पर्शनादेवकोटियज्ञफलप्रवः ।
-स्कन्धपुराण-प्रभास काण्ड १. (अ) हरिवंश पुराण-आचार्य जिनसेन कृत-ईसाकी ८वी सदी
(आ) उत्तरा-ययनमूत्र-२२वां अध्याय (1) Indian Antiquary vol IX P 551 Mazumdar
„ P 163 Jacobi २. तस्तारं रथानान् -तार पितारम् रथानायं रहित गाम् भूतानां -दुर्गाचार्यनिरुक्त टीका पृ ७४७ ३. अरिष्ट नेमिनाम ताक्ष्यं पुत्र : ताय देवता
-वेदार्थ दीपिका दशम मण्डल १७८
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किरण २]
मोहनजोदड़ो-कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति
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अर्य-आयुके अन्तिम भाग--वृद्धावस्थामें वामनने तप किया, उसी तपके प्रभावसे उसे शिवके दर्शन हुए-वह शिव (कल्याण प्रदाता) पद्मासनसे स्थित, श्याम मूत्ति, दिगम्बर (नग्न मूत्ति) नेमिनाथ-महान भयकर कलिकालमें सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करने वाले और दर्शन एव स्पर्शनसे ही करोडो यज्ञोसे उत्पन्न फलको देने वाले थे इसलिये वामनने उनका नाम शिव-कल्याणदाता-रख दिया ।
रवत्तानो जनो नेमिःयुगादिमिलावरे । ऋषीमा प्रमादेव मुक्तिमार्गस्थ कारगम् ॥
अर्य--जिन भगवान नेमिनाथने युग के आदिसे (१) पवित्र रैवतक पर्वतपर तपस्या की अतम्ब ऋषियोका आश्रय होनेके कारण ही वह (रैवतक पर्वत) मुक्तिका कारण बन गया।
यहां मिको 'जिन' सज्ञा दी गयी है और उनके तपस्या-निर्वाग स्थान को मुक्तिका कारण कहा गया है।
(3) वेगलोन सम्राट नेत्रु चन्द नेजर (Nabuchand Nezar) का दानपत्र भी इस सम्बन्धने उल्लेखनीय है। यह दान-पत्र Illustrated Weekly of India १४ अप्रैल १९३३ के पृष्ठ ३१ पर डा० प्रागाथ-पो.न्दूि विश्व विद्यालय बनारस द्वारा अर्थ सहित प्रकाशित हुआ है। उनके अध्ययनके अनुमार इस दानपत्र का अर्थ निम्न प्रकार है--
"रीवापुरि (जूनागढ़) मे राज्य देवता-सूसाका प्रधान देवता नेवुचन्द नेजर आया, उसने यदुराजके स्थानम गठ (मन्दिर) बनवाया, हमारे ईश्वर (रात) नागेन्द्रो आनेवालो नावोको आयको दान के तौर पर (भेटमे) दिया रैवतक (पर्वत) के ओन् (भगवान्) सूर्यदेवता मिके लिये।" ।
इस दान-पत्रमे भठो भाति सिद्ध है कि न केवल भारतीय जनता बल्कि दूर पश्चिमी एरियाई देशो के लोग भी भगवान् नेमिनाथके उपासक थे।
जैसे नालन्दा निवासी इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण भगवान महावीरके प्रसिद्ध गणधर (Apostle) थे। उसी प्रकार जैन अनुश्रुति अनुसार अरिष्टनेमिके मुख्य गणधरका नाम सुप्रभ (सोमक) था' । हो सकता है कि उनके गोत्रका नाम अङ्किरस हो और उनका पूरा नाम सुप्रभ या सोमक हो क्योकि छान्दोग्य उपनिषद ३.१७ के अनुसार अङ्किरस ऋषि कृष्णका गुरु था
और उसने जो आध्यात्मिक शिक्षा कृष्णको दो यो जिससे वह (कृष्ण) तृप्त ही हो गया था। वही तत्कालीन जैन तीर्थकुरोकी वास्तविक शिक्षा थी।
जैन ग्रन्योंने कहा है कि भरत क्षेत्रमें आदि और अन्तिम तीर्थङ्करोको छोड़कर शेष २२ तीर्थङ्कर सामायिक संयमका ही उपदेश देते है अर्यात ऐसे धर्मका जिससे आत्मामें समता, शमता, और निराकुलताको स्थापना हो अर्थात् वे जिस धर्मका उपदेश करते है उसमें निम्न तत्व शामिल होते है-इन्द्रिय सयम, प्राणसयम, परिग्रह सयम अथवा इन्द्रिय विषय वासनाओंका त्याग सब प्रकारके असत्यभाषणका त्याग, सब प्रकारके अदत्तादान ( चोरी ) का त्याग, सब प्रकारके परिग्रहोका त्याग । इनके अलावा वे ऐसे धर्मका भी उपदेश करते हैं जिससे जोवनमे बल, गौरव, महिमा और स्फूतिका संचार हो जैसे-तू अजर अमर है, त ज्ञान घन है, तू आनन्दमय है।' श्रमणसंस्कृतिका व्यापकरूप
__ अतीत कालके धुन्धले आकाशमे जहातक नजर (निगाह) जाती है भारत सदा श्रमणमस्कृतिका केन्द्र बना रहा है। यह उन्ही विचरते हए त्यागी और तपस्वी श्रमणोके पदचिन्होका प्रताप है कि भारतका चप्पा-चप्पा आज तीर्थभूमि और पुण्यभमि बना हुआ है । यहाके सभी जनगण चाहे वे किसी भी धार्मिक सम्प्रदायके क्यो न हो, इन योगियोके जीवनको एक आदर्श जीवन मानते रहे है। इन ही के आचरण अनुसार वे दया, दान और इन्द्रिय दमनको धर्म और हिंसा, झूठ, चौरी, मैथन और परिग्रहको पाप समझते रहे हैं।
इन्ही योगियोके समान भारतके सभी जन अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी, अमावस्या आदि पर्वके दिनोमे अथवा फागुन, १. तिलोयपणत्ति गाथा ९६६ ।
२. बट्टकेर आचार्य--मूलाचार ७.३२-३४; ७,१२५-१२९ पूज्यपाद चरित्रभक्ति ॥७॥ आशाधरअनगार धर्मामृत ९-८७ ॥ व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥२०॥८॥, उत्तराध्ययन २३-२३-२७ स्थानाङ्ग-सूत्र क्रमाङ्क २६६ ॥
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J
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अनेकान्त
[११
आषाढ़ और कार्तिक महीनोकी अष्टाहिकाओंमें अन्नका त्याग, अग्निपके भोजनका त्याग, चक्कीसे पिसे भोजनका त्याग, रसोंका त्याग तथा विशेष व्रत उपवास करते रहते हैं। इन्हीकी अहिंसात्मक चयकेि अनुसार ये वर्षा ऋतुके चतुर्मासमे विवाह आदि मांगलिक कार्योंको सम्पादन नहीं करते और इनके ही प्राचीन उपदेश अनुसार सदा अतिथि रूप साधु सन्तोंकी सेवा, दुःखी और भूखोंको दान, कूप, बावड़ी तालाब, धर्मशाला बिहार उपाश्रय धर्मशाला, चिकित्सालय आदि लोक-कल्याणकारी earth लिये धनका व्यय और विश्वके सभी प्राणियोके प्रति दयाका व्यवहार करते रहते है ।
इन्हीं योगियोंके समान ये नित्य प्रति संध्या समय सामायिक करना, प्रोढ अवस्थामे घरबार छोड़ आरम्भ व परिग्रहका त्यागकर सन्यासी होना और मरते समय सांथरा लेकर ममता रहित शरीरको छोडना -- पुण्य बन्ध और उच्च गतिका कारण समझते रहे है।
यद्यपि जीवनच
संविधाता ब्राह्मण ऋषियोकी सरकार व्यवस्थामे सन्यासको कोई स्थान प्राप्त नही है किन्तु योगियो कल्याणकारी विशुद्ध जीवनसे प्रभावित होकर जीवनकी आश्रम व्यवस्थामे सन्यासको एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है ।
इन्हीं योगियोंके समान यहां के सभी जन सदा ( २ ) पुनर्जन्म वाद, (२) कर्मवाद अर्थात् अपने किए अनुसार ही उच्च और नीच जीवनकी प्राप्ति
और पुण्यपाप वाद-कर्मफल स्वरूप स्वर्ग-नरक आदि सुख - दुखस्थानों की प्राप्ति तथा समस्त दुखोका अन्त करने वाले मोक्ष आदि तत्त्वोमे विश्वास रखते रहे है, यं सदा संसारको अनित्य और इसके सुखोको दुखमय मानकर नित्य शिवपदके लिये लालायित और जिज्ञासु बने रहे हे । ये सदा मनुष्य भवको मोक्षद्वार मानकर देवपर्याय पर तरजीह देते रहे है, ये सदा वृषभ, अजित, अरिष्टनेमि, राम, कृष्ण, बुद्ध, पाश्वं महावीर आदि क्षत्रिय कुलोत्पन्न सिद्ध पुरुषोको साक्षात दिव्य अवतार मानते रहे हैं और इन्द्र, अग्नि, वरुण, सोम, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, नाग, यक्ष, कुबेर, वैश्रमण ही, श्री, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, पार्वती आदि सभी देवताओको इन अवतारोके भक्त, सेवक और अनुचर होनेके कारण मान्य ठहराते रहे है।
इन्ही योगियो मौलिक सिद्धान्तोके प्रतीक रूप ॐ स्वस्तिका, त्रिशूल, धर्मपत्र आदि चिन्होको भारतीय जन आज तक जन मंगल कामना के अर्थ उपयोगमे लाते रहे हैं।
उपरोक्त वर्णनसे सिद्ध है कि मोहनजोदड़ो कालसे लेकर आज तकका भारतीय जीवन भ्रमणसस्कृतिको मान्यतामो प्रथाओंसे उसके आदर्श और व्यवहारसे ओतप्रोत रहा है। इस तरह मोहनजोदडो कालीन और आधुनिक भारतीय सभ्यतामें एक श्रंखलाबद्ध सम्बन्ध है ।
सन्तधी वहीं गणेशप्रसादजीका पत्र
अनेकान्तके 'सर्वोदयतीर्थाङ्क' को पढकर सन्तश्री वर्णी गणेश प्रसादर्जी ने अपने हृदयोद्गारोको व्यक्त करता हुआ जो पत्र सागर से भेजा है वह इस प्रकार है
"श्रीयुत महनीय पं० जुगलकिशोरजी योग्य इच्छाकार सर्वोदय अंक आया । पत्रकी प्रशंसा नया करूं पत्रको पढ़कर जो आनन्द आया -- इस समय यदि मेरे स्थान पर कोई सद्गृहस्थ होता तब पत्रको अजर अमर कर देता। मै तो मिथुक है—यही मेरा आशीर्वाद है जो आप अजर अमर हो जायें- आप मनुष्य नहीं आपका आत्मा श्री समन्तभद्र महाराजके हृदयाम्बुजका भ्रमर है, विशेष क्या लिवू ।"
- गणेश वर्णी
चैत्र सुदि २ सं० २००९
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संगीतका जीवनमें स्थान
और उसकी अति प्राचीनता
( श्री बाब छोटेलाल जैन ) "मनुष्यकी विभिन्न स्वाभाविक प्रवृत्तियोंमें गाना भी संगीत-द्वारा मनुष्य प्रणय करता है, संगीत हमें सुलाता एक सहज व्यापार है । उमड़ती भावनाओके आवेगके वशी- है और संगीतसे ही हमें शत्रुओंपर आक्रमणकी प्रेरणा भूत हो वह उन्हें अभिव्यक्त करनेके लिये आतुर हो उठता मिलती है । संगीत महान कार्य करनेके लिये जागरित है। भावोंके उद्वेगके अनुसार ही उसके स्वरोमें उतार-चढ़ाव करता है । अकेलेपनके समय संगीत साथी बनता है । आपकी आ जाता है। और तब वह उन्ही स्वर-लहरियोके सहारे आनन्द-वेलामें संगीत आल्हादित करता है । दुःखके समय अपनी भावनाओको अभिव्यक्त कर व्याकुल हृदयको शान्त साथ देता है। परखके समय सान्त्वना देता है । और पूजाकरनेका प्रयास करता है। यही संगीतका जन्म होता है। प्रार्थनाके समय कुछ क्षणोके लिये इस संसारके बन्धनोंवाणीका वरदान उसे प्राप्त है। शब्दों-द्वारा वह भावोंको से ही मुक्त कर देता है। प्रकट करता है। और स्वरोंके उतार-चढावसे भावोंकी संगीत, जिसमें नृत्य-गीत-वादित्र शामिल है, भारतकी गहराईकी ओर संकेत करता है। मानव-जन्मके साथ ही अति प्राचीन संस्कृति है और प्राग् ऐतिहासिककालसे अब यह प्रवृत्ति भी उसके साथ जुडी हुई आई है। जंगलोंमें रहने तक इसकी परम्परा-द्वारा ईश-कीर्तन, मांगलिक गीत,विनती, वाला मानव भी संगीतसे अपरिचित न था, न है। चाहे कोई पूजा और विभिन्न ऋतुओं तथा पर्व-महोत्सेवोंमें संगीत-द्वारा काव्यकार हो अथवा न हो, संसारके प्रायः प्रतिभाशाली हम आनन्द-विभोर होकर अपने हृदयोद्गार प्रकट करते हैं। व्यक्तियोंका संगीतके प्रति अनुराग रहा ही है । तभी मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक इससे आकर्षित हो जाते हैं। तो संस्कृतने “साहित्य-संगीत-कला-विहीनः साक्षात् पशुः पक्षियोंमें कई जातिके पक्षी है जो स्वयं मधुर संगीत सुनाते पुच्छ-विषाणहीमः" तक कह दिया है। वर्तमान युगके सर्वश्रेष्ठ हैं; जैसे कोयल । सन् १९४० में इंदिरा नामकी हथिनीके वैज्ञानिक आइन्स्टाइन वायलिन (Violin) बजानेमें बदलेमें जापानने तीन गायक-पक्षी भारतको भेंटमें दिये थे। बड़े पट है । महात्मा गांधी जीको भी संगीतसे अति अनुराग मग और सांप भी बड़े संगीत-प्रिय जीव है। कौशाम्बीके था । जार्ज वरनार्डशा लोक-प्रसिद्ध नाटक-लेखककी नरेश उदयन तो वीणा बजा कर हाथी पकड़ने में प्रसिद्ध थे। माता बड़ी निपुण संगीतज्ञ थी, और वरनार्डशा भी पहले मोर मेघ-ध्वनि सुनकर कितनी सुन्दरतासे नाचता है, यह संगीतके समालोचक थे और संगीत-समालोचनाओंसे तो विदित ही है। ही उन्होंने पहिले प्रसिद्धि प्राप्त की थी। भजनके लिये संगीत अवसपिणी कालचक्रके आदिके तीन का लोंमेंबज अपरिहार्य है। भजनमें स्वरावलीका आधार पाकर भाव मनुष्य किसी प्रकारका कर्म या उद्यम नही करता था, केन्द्रीभूत हो उठते है । अस्थिरमन स्थिरता प्राप्त करता है। उसे अपनी जीवनोपयोगी सब बस्तुएं दस प्रकारके कल्पसंगीत संतुलन ( Harmony ) उत्पन्न करने में अपूर्व वृक्षोंसे प्राप्त हो जाती थी। इन दस प्रकारके कल्प वृक्षोंमें है । इससे चित्तमें शान्ति मिलती है । भजनोंको गाकर, तूर्याग जातिके कल्पवृक्षोंके प्रभावसे मनोहर वादित्रोंमानव इसी प्रकारकी शान्ति पाता है।"
की प्राप्ति होती थी। उस समय भोगभूमिके जीवोंके * गेयपदगीतिमे मीराकी देन--मीरा-स्मृतिग्रन्थ, कान सदा गीतोंके सुन्दर शब्दोंके सुनने में आसक्त रहते थे। कलकत्ता, वि. सं. २००६
..... स्वर्गाके देव भी बड़े संगीत-प्रिय होते हैं । वहां
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अनेकान्त
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किल्विषक जातिके देव गायक होते हैं—उनका काम गाना बजाना होता है । किनतर देवोके आठ भेद हैं, जिनमें एक गंधर्व है। गंधर्व देव दस प्रकारके होते है- हाहा, इहू, नारद, तुम्बुरु, कदम्ब, वासव, महास्वर, गीतरति गीतयश और देवन । इन सब प्रकारोंसे केवल संगीतके विभिन्न अंगोंका ही बोध होता है । देवोंके चार प्रकारके निकाय (समूह) है और प्रत्येक समूह में जितने जितने भेद है उनमें एक एक भेद अनीक भी है अर्थात् सात प्रकार की सेना । इस सेनामें गंधर्व और नर्तकी ऐसे दो प्रकार होते है ।
भगवान् तीर्थंकरका जन्म होते ही अपने आप भवनवासी देवों के मन्दिरोंमें शंख-ध्वनि, व्यन्तरोके मन्दिरों में नगाड़ोका बजना, ज्योतिषियोंके मन्दिरोमें सिंहनाद और स्वर्गवासी देवोके मन्दिरोंमें घंटाजका गम्भीर नाद होने लगता है । गंधर्व नर्तकी आदि सात प्रकारकी देवसेना तीर्थंकरोंके जन्माभिषेक के समय आती है । समस्त लोक नगाड़ों, शंखों आदिके मनोहर शब्दोसे शब्दायमान् हो जाता और नृत्य तथा गीत - सहित देवोंका आगमन बड़ा आश्चर्यकारी जान पड़ता है । हाहा, इहू. तुम्बुरु, नारद, विश्ववासु आदि किन्नर जातिके देव अपनी स्त्रियोंके साथ कर्णोको अतिप्रिय भाति-भांतिका गाना गाने लगते है। देवांगनाएं हावभावोसे अतिमनोहर शृंगार आदि रसोंसे व्याप्त नाच नाचती है । जन्माभिषेकके बाद इंद्र तांडव नृत्य करता है । भगवान् ऋषभदेवके समक्ष नीलांजसा नृत्यकी, कथा तो अति प्रसिद्ध है।
प्राचीन जैनसाहित्यमें अनेक राजकुमार और राजकुमारियोंकी कथाएं है जिनसे ज्ञान होता है कि वे संगीतकलामें बड़े निपुण थे । यदुकुलके कुमार वसुदेव मृदंगके समान शब्द करने वाला जलवादित्र बजानेमें निपुण थे । चंपापुरीके कुबेर सेठ चारुदत्तकी पुत्री गधवंदता को जो गांधर्व विद्यामे बड़ी निपुण थी, वासुदेवने सप्तदश तन्त्रियोंकी धारक सुघोषा वीणा बजाकर और गाना गाकर परास्त किया था। हरिवंशपुराणके १९ में सर्गमें गांधर्वविद्याका विस्तृत वर्णन है, उसमें लिखा है कि बाजोंके चार भेद हैं—तत (तार के वीणा आदि), अनबद्ध ( मृदंगादि चर्म से मढ़े हुए बाजे) घन (कासेके बाजे) और सुषिर (वंशी आदि बांसके बाजे) । तत् वादित्रको गांधर्व विद्याका शरीर माना है। गांधर्वकी उत्पत्तिमें बीणा, वंश और गान वे तीन कारण है और वह स्वरगत, तानगत, पदगत, इस प्रकार
[ वर्ष ११
त्रिविधस्वरूप है ।
महाकवि पुष्पदन्तके महापुराण ( सन् ९६५ ) में नृत्यके विविध अंगोंका कथन है जैसे—३२ प्रकारके पदप्रचार, ३२ प्रकारके अंगहार, १०८ प्रकारके करण, ७ प्रकारके भ्रूतांडवानि, ९ प्रकारकी ग्रीवा, ३६ प्रकारकी दृष्टि इत्यादि ।
1
मानवीय स्वात्मज्ञानके विकासके साथ साथ मनुष्य अपने लिये और अपनी प्रिय वस्तुओके लिये अमरत्व-प्राप्तिके साधनोका अनुसंधान सदा करता रहा है। मनुष्य अपनी रक्षा करनेमें तो असमर्थ रहा है किंतु अपनी प्रिय वस्तुओं को — जैसे अपने विचारोको और अपनी जीवन - कथाको लेखो तथा छापे-द्वारा अपने मित्रोके रूप और अपने प्रिय बृश्योंको चित्रकला द्वारा अपने प्रियजनोंकी आकृतिको भास्करविद्या ( मूर्तिकला ) द्वारा -- चिरजीव बनानेमे सफल हुआ है। वह अपने स्नेही परिजनोके शव ( Mummy) की मसालों द्वारा रक्षा करता है और स्तूप, निषिद्या और छतरियो द्वारा उनकी स्मृतिको रक्षा करता है। विशाल अट्टालिकाओं और प्रासादों का निर्माण करता है, जिससे भावी सन्तति उसके नाम को भूल न जाय । इसीसे काष्ठ, मिट्टी, पट, कागज, धातु, पत्थर पर मनुष्यकी कहानिया अकित पाई जाती
है।
प्राचीनतम भारतीय पुरातत्वके निदर्शनों ( ई पू. द्वितीय शताब्दी) में नृत्य, गीत और वादिनके तथा समवेत संगीतके दृश्य उपलब्ध है । उस समय किस किस प्रकारके वाद्ययंत्र यहां प्रचलित थे उनका ज्ञान इनसे भले प्रकार हो जाता है खर्डागिरि, । खगिरि, उदयगिरि, भारहूत साची और मथुरा में वीणा, वेणु और मृदंग वाद्यकारोकी मंडलीके कई शिलाचित्र मिले है जो सब से प्राचीन है। किंतु इनमें धन जाति (कास्य) के वादित्र देखने में नही आते है। उस समय और कास्यतालके आविर्भावके बाद भी हाथोंसे ताल देनेका प्रचलन था और अब भी है । तत जातीय अर्थात् तार के प्राचीनतम वादिनोमे दो प्रकारकी वीणा देखी जाती है। एक तो धनुषाकारकी विलायती हार्प ( Harp ) जैसी जो सारे प्राचीन जगत में प्रचलित थी और भारतमें प्राचीन ९वीं शताब्दी तक जिसका अस्तित्व था। इसमें पहिले ७ तार होते थे और पीछे जिसमें सप्तदश तंत्री तक का उल्लेख मिलता है (जैन हरिबंशपुराण) । इसको अंगुली से न बजाकर कोण द्वारा बजाया जाता था। दूसरी बीणा गुरुवार (gui
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चित्र नं० १-संगीतरत दम्पति, तत्वगुफा खंडगिरि, ई पू प्रथम शताब्दी
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चित्र नं. ३-मांगलिक संगीत, मथुरा, प्रथम शताब्दी
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चित्र नं० २-संगीत समारोह, रानीगुफा, उदयगिरि ई पू. द्वितीय शताब्दी
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प्रदर्शित किया गया है। यह शिला-चित्र प्रथम शताब्दी या उससे भी पूर्व कालका है। (चित्र नं. ३) ।
tar) जैसी थी अर्थात् जिसका पेट नाख (लंबी नासपाती) के आकारका और ग्रीवा लम्बी होती थी । सुषिर जातिके यंत्रो वेणु ( वशी ) थी। यह वांसकी होती थी और इसमें ७ छिद्र रहते थे और कभी-कभी एक सिरे पर धातुके मकरद्वारा अलंकृत होती थी। आनद्ध जातिके वादित्रोंमें ढोल, मृदंग, मुरज है । ढक्का और भेरी ये वृहदाकार नगारे होते थे जिनका उपयोग प्राय युद्धमें होता था। पटह एक प्रकारका ढोल था जो प्रायः घोषणाके लिये अथवा ध्यान आकर्षित करने के लिये व्यवहार किया जाता था ।
अब पाठकोके समक्ष कुछ भित्ति चित्रोके उदाहरण रखे जाते है । मद्राससे प्रायः २४० मील और त्रिचनापल्ली से लगभग ३३ मील दक्षिणमें पुदुकोट्टा राज्य है । इसकी राजधानी (पुदुकोटा) से ९ मील उत्तर-पश्चिम में एक पहाड़ीके नीचे सित्तन्नवासल नामका गाव है । सित्तन्नवासल का संस्कृत' सिद्धनां वास: ' और प्राकृत रूपसिद्धण्णवासो होगाअर्थात् सिद्धोका मुनियोका बासस्थान पहाड़ीने जैनमुनियोंक
माज पाठकोको हम इसी सम्बन्धके पुरातत्वके कई निवासके लिये गुफाएँ बनी हुई है जो कृत्रिम और अकृत्रिम जैन निदर्शन दिखाना चाहते है। दो प्रकारकी है। इनमे एक गुफा मन्दिरमें तीन तीर्थंकरोंकी और उसके बरांडामें दो तीर्थंकरोंकी कुल पांच मूर्तियां पद्मासन है और कई सुन्दर भित्ति चित्र है। ये पल्लव नरेश महाराज महेद्रवर्मन् प्रथमके द्वारा लगभग सातवीं शताब्दी में निर्मित हुई है। चित्र बड़े ही सुन्दर और अजन्ता गुफाके चित्रोसे मिलते-जुलते है ।
गुफा मन्दिरके अर्ध मंडपके सामने दो वृहत् चौकोर स्तम्भ है जिन पर नर्तकियोके दो रंगीन चित्र बने हुए है । दाहिने स्तम्भकी नर्तकीका वाम हस्त दंडहस्तमुद्रामें है । उत्तरी स्तम्भकी नर्तकीका वाम हस्त गजहस्त मुद्रामें है । दोनों नर्तकियोके स्थूल नितम्ब, पतली कमर, रत्नविजड़ित आभूषण और पुष्प प्रसाधित केश तथा अपूर्व लावण्य और ताल एव लययुक्त कोमल मुग्धकर और दृढ़ गति द्वारा चित्रकारने उन्हे अमर रूप प्रदान कर दिया है । (चित्र नं. ४ )
भित्तिचित्रोंके अन्य निदर्शन | दक्षिणका कांचीपुरम् ( कांजीवरम्) अति प्राचीन कालसे प्रसिद्ध है। यहां जहां जैनोंका वास था उस प्रदेशको जिनकांची कहते थे । कांजीवरम्से दो मील पर वेगवती के दक्षिण तट पर अब जो तिरुपट्टिकुन्नम नाम का गांव है वही जिनकांची है। और जो काजीवरमका ही भाग है। जैनों के प्रसिद्ध विद्या स्थानोंमें जिनकांची भी एक था। सन् ६४० में येन स्यांग नाम का चीनी यात्री यहां आया था। उसने लिखा है कि यहां जैन बहुत बड़ी संख्यायें है ।
जिनकांचीमें दो जैन मन्दिर है जो इस जिले के सबसे प्राचीन है। इनमें पल्लवनका चन्द्रप्रभ-मन्दिर अधिक प्राचीन है, पर छोटा है। दूसरा पूर्वयोगका शैलोक्यनाथ ( वर्द्धमान) मन्दिर है जो कांजीवरम् तालुकका सबसे
संगीतका जीवनमें स्थान
प्रस्तर-शिल्पके उदाहरणोमें खंडगिरि - उदयगिरि, (उड़ीसा) के निम्न तीन चित्र है
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खंडगिरी तत्व गुफा नं. २ की एक टोडी पर एक देव-दम्पति मदार वृक्ष के सान्निध्यमे प्रदर्शित किये गये है । युवक सप्ततन्त्री वीणा बजा रहा है और युवती स्वरलयानुसार नाच रही है। युवककी मौलिमणि युक्त पगडी और सुन्दरीके कर्ण, ग्रीवा और पोहचीके आभूषण तथा कटिमेखला ई.० पू० प्रथम शताब्दीके प्राचीन भास्कर-कलादर्शको प्रकट करते है । अंग-भंगसे कठरेचि तक और कटिरेचि तक सूचित होता है जो बड़ी सुन्दरतासे चित्रित हुआ है । (चित्र नं० १) ।
उदयगिरिकी रानी गुफाके ऊपरकी मंजिल के दृश्योमे ८ वे शिलाचित्र में एक स्त्री बैठी हुई महिला संगीत मंडली का समारोह देख रही है। उस के चारो ओर प्रसाधिकाएं खड़ी है। तीन नर्तकियां विभिन्न हावभावोको प्रदर्शित करती हुई नाच रही है। वादित्रों में वीणा तथा अंक्य और ऊध्वंक मृदंग और करताल (हाथोंसे ताल देना ) प्रदर्शित किये गये है । (चित्र नं० २ ) ।
उदयगिरिकी रानी गुफाफी नीचेकी मंजिल में महिलाओंका एक नृत्य-दृश्य अकित किया गया है । नाट्यमंडपमे एक नर्तकी नृत्य कर रही है। संगीतकर्म ऊर्ध्वक और अंक्यमृदग, वीणा और मकर-मुख- वेणु ( वशी) हैं। यह चित्र अनेकांतकी गत प्रथम किरण ( सर्वोदयतीर्याक) में नं. ७ के रूपमें प्रकाशित हो चुका है।
मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त एक प्रस्तर-फलकमें भगवान् महावीरके गर्भकल्याणकके उपलक्षमें स्वर्गकी देवियों द्वारा मांगलिक नृत्य, गीत, बादित्र- समारोह
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बड़ा मन्दिर है। इसकी छत पर अनेक रंगीन भित्तिचित्र है, उपर्युक्त सब प्रस्तर-चित्र और भित्तिचित्र पवित्र जिनमें आदिनाथ नेमिनाथ और वर्द्धमानके जीवन चित्रित स्थानोंमें उपलब्ध हैं, इससे इनका सम्बन्ध पूजा प्रार्थना किये गये है। इनमेंसे ८४ चित्र श्री टी. एन. रामचन्द्रन् आदिसे है ।। ने अपनी (Tiruparuttikunram and Its अहंन्तोंकी मूर्तियोंमें अष्ट प्रातिहार्योके अन्तर्गत Temples) नाम की २५० पृष्ठोंकी वृहत् पुस्तकमें देवदुंदुभि रहती है जो एक गंभीर नाद करनेवाली बड़ी सन् १९३४ में प्रकाशित किये थे। यह पुस्तक जैन भेरी होती है। शिल्प-कलाका महाकोश है । इन चित्रोंमें संगीत अन्तमें हम हाथी गुफा (उदयगिरि) के शिलालेख(नृत्य, गीत, वादित्र) को प्रदर्शित करनेवाले चित्र की पांचवी पक्तिको यहां दिये देते है जिसमें कलिंगके नं. २,२०,४२,४५,५३,५४,५७,५८,६१ और ७४ है। महाराज खारवेलके शासनके तृतीय वर्षके सम्बन्धमें इनमें से यहां नं. ४२ और ५८ के चित्र दिये जाते है। लिखा है
नं. ४२-इसमें तीन देवियां नृत्य कर रही है और "गंषव-वेद-बुधो बंप-मत-गीत-वादित संबंसनाहि तीन देव झल्लरी, मृदंग और मसकबीणा बजा रहे हैं। उसव-समाज कारापनाहिचकोडापयति नार।" हाथी पर एक देव मुरज बजा रहा है और एक अश्वारोही अर्थात्---गाधर्ववेदमे सुनिपुण महाराज खारवेलने देव तुरी बजा रहा है । (चित्र नं. ५)
नृत्य-गीत-वादित्रके सदर्शनोसे उत्सव, समाज (नाटक, नं. ५८-इसमें स्वर्ग की देवियां नृत्य कर रही दंगल आदि) कराते हुए नगरीको आमोदित किया । है। (चित्र नं. ६)
कलकत्ता, ता० २८-३-१९५२
नागौरके भट्टारकीय भंडारका अवलोकन
( श्री अगरचन्द नाहटा ) राजस्थानमें नागौर एक प्राचीन स्थान है। दशवी नाथजीके ज्ञानभंडारमें अवलोकनमें आई है जो नागौरमें शताब्दीसे जैन समाजका नागौरसे अच्छा सम्बन्ध निरतर लिखी गई है और इसके प्रथम और अंतके पत्रमें अपभ्रंश रहा है । मेरे अवलोकन में जैन साहित्यमें नागौरका प्राचीन शैलीके चित्र है जो राजस्थान एवं गुजरातादि चित्रशैलीकी उल्लेख सं० ९१५मे रचित जयसिंहसूरिकी 'धर्मोपदेशमाला में एकताका परिचय देते है। मिलता है । ११ वी शतीमें तो यहां पर जैन समाजका विशेष नागौर में कई श्वेतांबर मदिर है जिनमें पीतलकी १० वी प्रभाव रहा है। श्री जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि आदि यहां शताब्दीकी भी कुछ प्रतिमायें है, संभव है वे बाहरसे आईं हों। पधारे थे और वादिदेवसूरि भी यहां रहते थे। इसीसे इनकी यहां पर जो प्राचीन जैनमंदिर थे, वे बीचकी कई शताब्दियोंमें परम्पराका नाम नागपुरीय पागच्छ पड़ा है, जिसका पीछे राज्यपरिवर्तन होते रहने के कारण मुसलमानशासकोके समय पावचन्द्रसूरिसे 'पारर्वचंद्र' गच्छ नाम प्रचलित हुआ । १६वी नष्ट हो गये प्रतीत होते है। फलतः नागौरचत्य परिपाटी जो शतीमें लोंकागच्छका भी यहां अन्वय बढ़ा और यहांके जैनसत्यप्रकाशमें मैने प्रकाशित की है उसमें उल्लिखित मदिर रूपजी आदि लोंकागच्छमें दीक्षित हुए। उनकी परंपरा भी अब नही रहे। संभव है कुछ मंदिरोंकी मूलानायक प्रतिमाएं 'नागौरी लोकागच्छ' के नामसे प्रसिद्ध है। धर्मघोषगच्छके खंडित हो जानेसे बदल दी गई हों अथवा यवनोंद्वारा उन आचार्योका भी यहां अच्छा प्रभाव रहा है। ओसवाल वंशका मंदिरोंको भी नष्ट कर दिया गया हो। ११०० वर्षों से श्वेतासुराणागोत्र इसी धर्मघोषगच्छके आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठोदित म्बर संप्रदायका वहाँ प्रभाव तो स्पष्ट ही है। अकबरके है। आज भी इस गच्छके गोपजी गुरांसा वहां रहते हैं। १५वीं समय राजा भारमल श्रीमाल (जिनका गुणगान दिगंबर कविशताब्दिकी लिखित पांडवचरित्रकी प्रति, जोधपुर केशरिया- राजमल्लने अपने पिंगलग्रंथमें किया है) मूलत: यहीं के
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अनेकान्त
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चित्र नं ४-नतंकी, सितनवासल, सप्तम शताब्दी
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अनेकान्त
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चित्र नं० ५-शोभायात्रामें संगीत, तिरुपट्टिकुत्रम
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चित्र नं. ६-नृत्य, तिरुपरटिकुन्नम
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फिरम २]
निवासी थे। इसी प्रकार भारतीय इतिहासमें प्रसिद्ध जगत सेठ के पूर्वज यहीसे बंगाल गये थे।
दिगंबर संप्रदायका नागौर से सम्बन्ध कितना प्राचीन है? यह ठीक ज्ञात नही, पर १६ वी शताब्दीसे, भट्टारकजीकी नही यहां स्थापित होनेसे, तो निश्चित ही है। भट्टारकजीके भंडारके भलीभांति अवलोकनसे इस सम्बन्धमें विशेष जानकारी प्रकाशमें आपगी, ऐसा संभव है।
कई वर्षोंसे यहांके भट्टारकजीका सरस्वती महार बहुत महत्वपूर्ण होने की बात सुनता आया हू । बीचमें एक बार नागौर जानेपर उसके अवलोकनका प्रयत्न भी किया था और दिगम्बरसमाजके मूलियोसे भी मिला था पर वहा उस समय भट्टारकजीके न होने और भंडार सील-मोहरबन्द होनेसे सफलता नही मिल सकी थी। उसके पश्चात् पंडित परमानंद जी भी वहां पधारे थे पर फिरभी भंडारका यथावत् अवलोकन अबतक किसीके द्वारा नहीं हो सका ।
नागौरके मट्टारकीय भंडारका अबलोकन
युगपरिवर्तनकी लहरने लोगोंकी मनोवृत्तियोमे थोड़े ही वर्षोंमें बड़ी क्राति उत्पन्न कर दी है। जो व्यक्ति प्राचीन ज्ञानभडारोको प्रकाशमें लाना आवश्यक नही समझते थे, आज उनकी भावनायें ऐसा परिवर्तन आया है कि उन्हें भंडारोंको प्रकाशमें लाना बहुत आवश्यक प्रतीत होने लगा है। श्वेतांबर संप्रदाय इस सम्बन्धमे काफी वर्षोंसे सजग है। इसीलिए ५० वर्ष पहले मी श्वेतावर ग्रंथोंकी सूची अच्छी प्रकाशित हो सकी ओर पाश्चात्य विद्वानो द्वारा श्वेताबर साहित्यका अच्छा अध्ययन खोज रिपोर्ट व प्रकाशन संभव हो सका । पर दिगम्बरसमाजमे अभीभी दिगम्बर साहित्यको सूची प्रकाशित करनेका भी प्रयत्न नही नजर आया। कई वर्ष पूर्व प्रो० हीरालालजीके प्रयत्नसे डा० हीरालालजी रामबहादुर द्वारा संपादित होकर कारजा आदि सी. पी के दो तीन सग्रहालयोका लाग प्रकाशित हुआ था एवं जैनसिद्धान्तभवन आराकी सूची और प्रशस्तिसंग्रह एवं ऐलक पन्नालालसरस्वती भवन बम्बई की सूची और प्रशस्तिएँ प्रकाशित हुई है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा दो वर्ष हुए कन्नड़ प्रान्तीय दिगंबर भंडारोंकी सूची' प्रकाशित हुई है । 'अनेकान्त' में देहली आदिके कुछ सरस्वती भंडारोंकी सूचियाँ छपी थी, पर जैसाकि आवश्यक था निरंतर प्रयत्न नही हुआ। करीब २५ वर्ष पूर्व पं० नाथूरामजी प्रेमीने दि० जैन ग्रन्थ और धन्यकर्ता नामक सूची प्रकाशित की थी। उसके बाद दि० साहित्यकी समय सूची नहीं छपी।
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जयपुरकी महावीरतीर्थक्षेत्र कमेटीका इस ओर प्रयत्न
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विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। तीनचार वर्षोंसे श्री कस्तूरचन्दजी कासलीवाल निरंतर यही काम कर रहे है। उन्होंने आमेरके मट्टारकजीके भंडार और महावीरतीय क्षेत्रके भंडारकी सूची तैयार कर प्रकाशित की और इसके बाद प्रशस्ति संग्रहको भी प्रकाशित कर दिया, जो एक महत्वपूर्ण कार्य है। अभी भी वे जयपुरके अन्य संग्रहालयों की सूचियोंके बनाने में संलग्न है। दो महीने हुए नागौर आकर भट्टारकजीके भंडारको भी ऊपर २ से देखकर वे एक लेख द्वारा इसके महत्व सम्बन्धमें प्रकाश डाल चुके है। इससे इस संग्रहालयको शीघ्र देखनेकी मेरी भी उत्सुकता बड़ी और मुनि पुम्यविजयजीके नागौर पधारनेके प्रसंगसे वहां मैं भी जा पहुंचा। गत पौष शु० १५ को मुनिश्री गोगोलाबसे नागौर पहुंचने वाले थे, अतः शु १४ की रात्रि को ही में यहां पहुंच गया और मुनिधीके सामने जानेपर उपाध्याय विनवसागरजीने सर्वप्रथम यही कहा कि हम रास्तेमें सोच ही रहे थे कि नाहटाजी आजायें तो भट्टारकजी का संग्रह देखा जा सके। आप आ ही गए—अच्छा हुआ । भट्टारकजीके भंडारके अवलोकनका प्रबन्ध होसके तो ठीक हो भोजनके अनंतर तत्काल स्थानीय पारसमलजी खजानचीको लेकर में दिगम्बरसमाजके मुखिया श्री रामदेवजीसे मिला तो उन्होने भट्टारकजीसे मिलकर भडारके अवलोकनका समय निश्चित करलेनेके लिए कहा। बहाते हम सीधे भट्टारकजी के यहां पहुंचे और उनसे मिलने पर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मेरे वहां भंडारके लिए अवलोकन करने के आनेकी ही सूचना उन्हें सेठ वृद्धिचंदजी द्वारा जयपुरमे मिल चुकी थी अतः उन्होंने बड़े प्रेमसे भडार दिखानेकी तत्काल स्वीकृति दे दी। इतना ही नहीं, उन्होने कई विशिष्ट हस्तलिखित ग्रंथ जो बाहिर रखे हुए थे, मंगवाकर मुझे दिखाये जिनमें पहली सं० २०३४ को लिखी गोमट्टसारकी सचित्र प्रति थी। दूसरी प्रति स्वर्णाक्षरी सचित्र कालिकाचार्य कपाके मध्यपत्र थे। तीसरी प्रति गीता सचिन थी। और भी कई प्रतिये दिखाने लगे तब मैंने निवेदन किया कि आपके भडारका अवलोकन मुनि पुण्यविजयजी एवं उपा० विनयसागरजी आदि मुनिमंडल भी करना चाहते है इसलिए में आधे घंटे में उन्हें लेकर आता हूँ, तब सभी मिलकर स्थिरतासे भडार देखेंगे । उस समय आपके पास जयपुरसे पं० सतीशचन्द्रजी जो कि भंडारकी सूची बनानेके लिए भट्टारकजी के साथ आये थे, बैठे हुए थे । भट्टारकजीने कहा--पंडितजीको सूची बनाने के लिये लाया हूँ । कार्य शीघ्र ही प्रारम्भ होगा । जाप सूची बनानेके बाद आते तो ज्यादा अच्छा होता। मैंने कहा
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अनेकान्त
[वर्ष ११
अभी आ ही गया हूं तो दर्शनतो कर जाऊं, फिर मौका मिला जिनालयके पाटणी पर्वत आदिके बननेका सूचक है। कुछ तो विशेष लाभ उठाऊंगा। मुनिश्रीको लेकर मैं अभी शीघ समय पूर्व इसे कुछ कामका न समझ यों ही इधरउधर डाल आ रहा हूं।
दिया गया था पर भट्टारकजीका इस ओर ध्यान जानेपर ___घंटाभरबाद मैं मुनियोंको लेकर पहुंचा तो भट्टारकजी- उन्होंने योग्य स्थान-मन्दिरमें प्रवेश करते-सामनेकी ने भंडारकोतुरंत खोलकर दिखानेकी आज्ञा दे दी। हम आपके दीवारमें लगवा दिया है, जिससे आगन्तुक हर व्यक्तिका इस उदार व सौजन्य व्यवहारसे बड़े प्रभावित हुए। भंडारके इस ओर ध्यान आकर्षित हो। शिलालेखके कुछ अक्षर थोड़े पुराने ढंगके तालेपर वस्त्र सिलाई कर ऊपर चूनेसे बन्द किया घिस गए है इससे प्रथम दिन पूरा स्पष्ट नहीं हो पाया जिसे हुआ था। चूनेको फोड़फाड़कर हटाया गया व वस्त्रकोभी फाड़ मुनिश्रीने दूसरे दिन पूरा पढा । लेखश्लोकबद्ध है । प्रवेश कर ताला खोला गया। भंडारमें प्रवेश करके देखा तो उसमें करते सामनेके मंदिरकी मूर्तियोंके कुछ लेख भी देखे तो पाषाण दो बड़ी बड़ी व५उससे छोटी टीन की सन्दूकें प्रतियोंके गट्ठड़ों मूर्तियोंमें अधिकांश सं १५४८ में जीवराज पापड़ीवाल द्वारा से भरी हुई मिली। हमने सामने वाली बड़ी सन्दूकके गट्ठड प्रतिष्ठापित मिलीं। पापड़ीवालजीकी जिनभक्ति देखकर उनके लाकर देखने प्रारम्भ किये। गठ्ठडोके ऊपर लेबल स्वरूप एक प्रति बड़ा ही आदरभाव उत्पन्न होता है। उन्होंने सैकड़ों ही सफेद कपड़ेका टुकड़ा सिलाई किया था जिसपर पहले भंडार नहीं, सहस्रों जिनबिम्बोंकी एक साथ प्रतिष्ठा करवाके उन्हें खुला तबका विवरण लिखा हुआ था व गटठड़ व बस्तोंके श्वेतांबर एवं दिगम्बर मन्दिरोंमें बिना भेदभाव पूर्जनार्थ नम्बर आदि लगे हुए थे। इससे स्पष्ट है कि पहले भी बाकायदा भेजी, प्रतीत होता है । बीकानेर जयसलमेर आदिके श्वेतासूचीपत्र बनाया गया था पर वह मिला नहीं । दूसरे दिन एक म्बर मन्दिरोमें इनकी इसीसमय प्रतिष्ठापित पचासो मूर्तियां गुटकोंके गट्ठड़से उस समयसे भी पुरानी सूची प्राप्त हुई जो हमारे अवलोकनमें आई है। पीतल प्रतिमाओके लेख देख नहीं पंडितजीको देके आया हूँ। वर्तमान सूची बनजाने पर प्राचीन पाये। दो पाषाण पादुकायें भट्टारक-परम्परासे सम्बन्धित सूचीसे मिलाकर देखा जाना चाहिए जिससे कौन २ से ग्रन्थ होनेके कारण उल्लेखनीय है । पहली मंडलाचार्य ज्ञानउसमें लिखित अब नही मिल रहे है व कौनसे पीछेसे सम्मिलित भूषणकी पादुका है जो मण्डलाचार्य आनन्दकीत्तिने संवत् हुए है इसका ठीक पता चल सके ।
१७८७ श्रावण सुदी ३ में प्रतिष्ठित की थी। दूसरी भट्टारकगठ्ठड़ बड़े-बड़े है व मजबूतीमे वस्त्रोसे वेष्ठित व बंधे हुए सकलभूषणजीकी है जो सम्वत् १८६३ के आश्विन शुक्ला है, ऊपरका वस्त्र हटानेपर भीतर पुराने बनाये हुए मजबूत ६ शुक्रवारको प्रतिष्ठित है। भट्टारकजीसे जो थोड़ीसी बातझोलोंको देखकर हमें बड़ा विस्मय हुआ। इससे ग्रंथोंको सुर- चीत हुई उससे पता चला कि उनके पास कई राजाओं व क्षित रखनेके लिए कितनी सतर्कतासे काम लिया गया है,शात बादशाहोंके पट्टे परवाने भी है, कोई गांव या जमीन भी है और होता है हमने ऐसे मजबूत व बड़े झोले यही सर्वप्रथम देखे। किशनगढ़ आदिमे दूकानोके भाड़े की आमदनी है। आपके प्रतियोका देखना हमने प्रारंभ किया इसी बीच अधिकारमें अन्य भी कई स्थानोंमें हस्तलिखित ग्रन्थभंडारहै। भट्टारकजी महाराज भी वहां पधारे और कहा आपके कथनानुसार वर्तमानमें भट्टारकोंकी २१ गादिये है,उन देखिए, लोगोंने झूठा ही भ्रम फैला रक्खा है कि सबके भंडारोंका भी प्रकाशमे आना आवश्यक है। इससे सैकड़ो भंडारके ग्रंथ उदेई आदि कीड़े खा रहे है। कुछ वर्ष जैन साहित्यके अज्ञात ग्रन्थोंका पता चलेगा। कुछ विद्वानोंको पूर्व आने पर मैने भी ऐसा ही सुना था पर अभी भंडार जिनवाणी उद्धारके इस पवित्र कार्यमें शीघ्र ही लग जाना खोलनेपर वह बात सर्वथा निर्मूल सिद्ध हुई । भंडार बहुत ही चाहिए एवं श्रीमानोंको भी जी खोलकर प्राचीन साहित्यकी सुरक्षित है । तत्कालीन साधनोंसे सुरक्षित रखने में बड़ी सत- सुव्यवस्था व महत्वपूर्ण ग्रन्थोंकें प्रकाशनमें खर्च करनेको तैयार कतासे काम लिया गया है और व्यवस्थापक सराहनाके पात्र रहना चाहिए । लोग चाहते तो हैं पर करनेको कम ही तैयार
होंगे। नागौरका ही मेरा अनुभव है कि भट्टारकजी कार्यवश कुछ समय बाद भट्टारकजीने मन्दिरजीमें जो शिलालेख बाहर पधारनेवाले थे अतः पीछेसे सुव्यवस्था करनेके लिए लगा हुआ है उसको पढ़ने के लिए मुनिश्रीसे कहा तो वे दोनों श्रावकोंको बुलवा भेजा। समय पर उपस्थित होनातो हम लोग विद्वान मुनि उसके पढ़ने में लग गये। यह शिलालेख चन्द्रप्रभ सीखे ही नही है पर अन्ततक भी ५-६ व्यक्ति ही उपस्थित हुए
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किरण २]
नागौरके भट्टारकीय भंडारका अवलोकन
अतः निश्चय नहीं हो सका। रात्रिको फिर इकट्ठे होनेकी बात भट्टारकों एवं आर्याओंसे सम्बन्धित ऐतिहासिक गीत भी थी। सेठ रामदेवजी व चौवरी जी आदिकी भावना प्रशस्त है। मिले है, जो अभी तक मेरी दृष्टिमें दिगम्बर साहित्यमें भट्टारकजीने कहा यहां तीन भंडारहै। हमारे अवलोकनार्थ तो अज्ञातसे है । मैने कुछ गीतोके नोट्स लिये पर अभी एक खोला गया है। एक तो अभी सीलबन्द है। भंडारों- समयाभावसे वे पूरे नही लिए जा सके । उनका तो के सूचीपत्र बनानेके रजिस्टर छपे हुए जयपुरसे लाये वे दिखाए एक छोटासा संग्रहग्रन्थ ही निकल जाना चाहिए। तो इनमें ३-४ बातोका विवरण और होना चाहिए था वह श्वेताम्बर साहित्यमें ऐसे हजारों गीत मिलते है पर दिगम्बर यथास्थान लिखते समय सम्मिलित कर लेनेके लिए पण्डितजी साहित्यके लिए यह नवीन चीज ही होगी। यह गीत समसे कह आया हूं। सूची बनानेका काम शीघ्र ही प्रारम्भ हो कालीन होनेसे ऐतिहासिक दृष्टिसे महत्वपूर्ण होते. है। जाय तो ठीक है क्योंकि बनते-बनते भी कई महीने लग जावेंगे शिलालेखो एवं प्रशस्तियोके समान ही इनकी प्रामाणिकता सूची बनने पर समय मिला तो फिर एक बार आकर में सूची व उपयोगिता है। अभी ३-४ गुटकोमे ही ये करीब २०-२५ संशोधन करा आऊंगा।
ही मिले है। खोजने पर सम्भव है और भी मिलें। ___ अभी तो १॥ दिन में मैने एव मुनिमण्डलने ३-४ दिनो में इस भंडारमें आमेरभंडारकी भाति अपभ्रंश ग्रन्थोंको जो कुछ देखा उसीके नोट्सके आधारसे नवीन ज्ञातव्य व प्रचुरता विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। बहुतसे ग्रन्थ जो अपने अनुभव प्रस्तुत लेख द्वारा प्रकाशमें ला रहा हूं। पहली आमेर भंडार में है उनको कई प्रतियां यहा मिली है, जो बड़ी पेटीके निरीक्षण तक ही मै वहां था और मेरा काम प्राचीनता व पाठ-भेदोंकी दृष्टिसे महत्त्वकी है। भंडारमे मुख्यतःगुटकोके निरीक्षण करनेका रहा। पत्राकार प्रतिया मुनि प्राकृत एव संस्कृत साहित्य भी अच्छा है । श्वेताम्बर महाराज देख रहे थे, मैने तो थोडीसी देखी है । गुटकोंमें विविध एवं जैनेतरग्रन्थ भी कई अच्छे हैं । यहा कतिपय फुटकर सामग्री रहती है अत देखनेमे समय अधिक लगता अपभ्रंश आदिके अद्यावधि अज्ञात ग्रन्थोकी सूची देकर ही है फिर भी मैने २००-२५० गुटकोंको देख लिया है। उससे लेख समाप्त करूंगा और शीघ्र ही सूची तैयार करनेका पुन. अनुभव हुआ कि १७ वीसे १९ वी शतीके वे लिखे हुए है। अनुरोध करूंगा। कई प्रसिद्ध अपभ्रश ग्रन्थोके संस्कृतमें पूजापाठ, व्रतकथा, राम व गीत आदि, फुटकर रचनाओंका लिखित टिप्पण भी मिले है जो विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। इनमें अच्छा संग्रह है। भट्टारक-परम्पराकी ३५ श्लोकों मूल ग्रन्थोंके साथ उन्हे प्रकाशित करनेपर ग्रन्थोंको समवाली पट्टावलीका बड़ा प्रचार रहा प्रतीत होता है, वह लगभग झनेमें बड़ी सुगमता उपस्थित होगी। टिप्पण वाले कुछ ग्रन्थ १५ गुटकोंमे लिखी हुई मेरे अवलोकनमें आई। दो गुटकोमे ये है-(१) सुदसनचरिउ (२) पउमचरिउ आदि। उससे भिन्न २० एव ३३ श्लोकोंकी पट्टावली भी लिखी थी।
अज्ञात ग्रन्थ' मै वर्षोंसे दि० साहित्यमे ऐतिहासिक सामग्रीकी कमीका
(१) नेमिरास, पद्य १३९, कवि भाऊ, सम्वत् १६८१ अनुभव कर रहा था । श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वानोने
लिखित। ऐतिहासिक साहित्य-निर्माणकी ओर बड़ा ही ध्यान रखा
(२) चेतन पुदगल धमात, पद्य १३४ हैं। है वैसा साहित्य तीर्थमालाएँ, पट्टावलियाँ, ऐतिहासिक
(३) जगरूपविलास, जगरूप, राजस्थानी (४) बारह प्रबन्ध व काव्यादि ऐमे ग्रन्थ तो दिगम्बर साहित्यमें
खड़ी शास्त्र, पं. महीराज कृत, भाषा (५) कृपणपचीसी, निर्माण ही नही हुए-वे इस ओर उदासीन रहे।
(कल्ह), (६) सरस्वतीलक्ष्मीसंवाद, मंडलाचार्य श्रीभूषण, पर इस भंडारके देखनेसे मेरी धारणामे कुछ परिवर्तन
भाषा, (७) मंडलाचार्य श्रीभूषणबावनी (धर्मचन्द्र); (८) अवश्य हुआ।यहां ग्रंथोंकी लेखन-प्रशस्तियां बहुत महत्वकी है।
नेमिश्वरचरित्र,जिनदेवपुत्र दामोदर,अपभ्रश , (९) चन्द्रप्रभु. कई प्रशस्तिया फुटकर पत्रोमें लिखीहुई ग्रन्थोंके साथ जुड़ी हुई है वे पूरे पृष्ठ या २-१ पत्र तक ही है। बहुतसी ग्रन्थसे संलग्न १. इनमें नेमिरास, चन्द्रप्रभचरित (दामोदर), है, उनमें भी कई २-२॥ पत्रोंतक की बड़ी है । भट्टारक- सम्पक्त्वकौमुदी, तत्वार्थसुखबोधटीका, सभवनाथचरित और परम्पराके आचार्योंके समय, श्रावकोके इतिवृत्त, धर्मप्रेमकी पाण्डवपुराण आदि कितने ही ग्रन्थ ऐसे हैं जो अन्यत्र भी
-सम्पादक परिचायक होनेसे ये प्रशस्तियाँ बड़े महत्वकी है। कुछ गुटकोमें पाये जाते हैं।
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चरित्र ( दामोदर) (१०) ज्ञानरत्नोपाख्यान मलयसुन्दरी चरित्र, ( कवि हरिराज ) प्राकृत ( ११ ) वसुधीरचरिय, (श्रीभूषण) अपभ्रंश (१२) गोमट्ट- भक्तामर ( भक्तामर पादमूर्ति श्लोक ५० ) भुवनकीर्तिशिष्य, (१३) सम्यक्त्वकौमुदी, हरिसिंह साधु, अपभ्रंश; (१४) तत्वार्थ सुखबोधटीका (योगदेव कुंभनगर निवासी); (१५) माणिक्यमाला प्रश्नोत्तर, श्रीभूषण; (१६) संभवनाथ चरित्र ( तेजपाल ) अपभ्रंश (अपूर्ण); (१७) वारांगचरित्र ( तेजपाल ) अपभ्रंश (४ संधि), (१८) पांडवपुराण, श्रीभूषण, (१९) बाहुबल पाथड़ौ, अपभ्रंश ( २० ) छन्द शतक मू. रत्नशेखरसूरि, टीकाकार हर्षकीर्ति (छन्द कोष) ; (२१) पुण्यचन्द्रोदय मुनिसुव्रतपुराण, केशबसेन । जैनेतर ग्रन्थ
अनेकान्त
(१) रघुवंश टीका हरिदास, (२) श्री निगमप्रवचन नामसारोद्धार अपर नाम (विज्ञान गुणार्णव); (३) विदग्धमुखमंडनटीका, (दुगर्क ) अपूर्ण; (४) विदग्धमुखमंडन वृत्ति (प्रश्नोत्तर कौमुदी नामा) भट्टकनाथ; (५) विदग्ध - मुखमंडन वृत्ति ( श्रीश्रवणभूषणी नामटीका ) नरहरि ( अल्लाल नन्दन); (६) सारस्वतटीका बालबोधिनी, माथुर मिश्र सावन (७) बालबोधकारक खंडन, भीष्म, (८) रूपसुन्दर पिंगल - विवरण, गंगाधर, ( वत्सराजनंदन ) अपूर्ण (९) वृत्तरत्नाकर टीका ( भावप्रदीपिका) १ कृष्ण शर्मा, २ महासम्म (१०) चन्द्रोन्मीलन - टीका, तपा
[ वर्ष ११
रूपचन्द ।
भट्टारक समयादिक-
१ प्रभाचन्द्र १५७१, चित्तौड़, वैद जाति । २ धर्मचन्द्र १५९१, गंगवाल । ३ ललितकीर्ति १६०३, गोषा । ४ देवेन्द्रकीति १६२२, सेठी । ५ नरेंद्रकीर्ति १६९१ सोगाणी । ६ सुरेंद्रकीति १७२२ काला । ७ जगत्कीर्ति १७३३ स. हुंबड़ । ८ देवेन्द्र कीर्ति १७७४ ठोल्या । ९ महेन्द्रकी र्ति १७ -- दिल्ली, पापडीवाल । १० खेमेन्द्रकीर्ति १८१४ । ११ सुरेन्द्रकीर्ति १८/१२ सुर्खेत १८१२ ।
आंबेरके गच्छ पाटि हुवा संवत् १७७२ गच्छ फाटचो नागौर आंबेर ।
ऐतिहासिक गीत
१ नेमिचन्द्र २ जसकोर्ति, ३ विशाल कोर्ति, ४ धर्मकीर्ति, ५ सहस्रकीर्ति, ६ गुणचन्द्र, ७ श्रीभूषण गीत । ८ श्वे० श्री आरक्षित, ९ भावसागर गीत। १० अचलगुरु नामावल ११ आर्यिका अनन्तश्री, १२ बाई खेतगीत, १३ वाई शान्तिगीत, १४ बाई ज्ञानश्री गीत ।
एक गुटके में भट्टारक मंडलाचार्य श्रीभूषण की पट्टावली एव अन्य एक पट्टावली की प्रति पं. सतीशचन्द्रजीसे अलग रखाके आया हूं ।
इनके अतिरिक्त लगभग २०० - २५० ग्रंथोंके नोट्स हमने लिये है, लेखके विस्तारभयसे उनकी सूची नही दी जा रही है ।
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कविता कुंज
पठन क्योंकर हो? प्रथम तो 'पठनं कठिन' प्रभो । सुलभ पाठक-पुस्तक जो न हो। हृदय चिन्तित, देह सरोग हो, पठन क्योकर हो तुम ही कहो ?
-- युगवीर
वह क्यों न निराश हो ? प्रबल धैर्य नहीं जिस पास हो, हृदय में न विवेक-निवास हो । न श्रम हो नहि शक्ति-विकाश हो, जगतमें वह क्यों न निराश हो ?
-युगवीर
सुखका उपाय ? जगके पदार्थ मारे, वर्त इच्छानुकूल जो तेरी-- तो तुझको सुख होवे, पर ऐमा हो नही मक्ता ॥१॥ क्योकि परिणमन उनका शाश्वत उनके अधीन ही रहता। जो निज-अधीन चाहै वह व्याकुल व्यर्थ होता है ॥२॥ इससे उपाय सुखका सच्चा 'स्वाधीन-वृति है अपनी-- राग-द्वेप-विहीना', क्षणमें मब दुख हरती जो ।।३।।
- युगवीर
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विधि क्या कर सकता है?
विधिका विधान किनके अर्थ ? जीवनकी औ' धनकी आशा जिनके सदा लगी रहती। विधिका विधान सारा उनहीके अर्थ होता है ।
विधि क्या कर सकता है ? उनका, जिनकी निगशता आशा । भय - काम - वश न होकर, जगमे स्वाधीन रहते जो ॥
-- युगबीर
-- युगवीर
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मेरी भावना
अपने इतिहास और अनुवादोंके साथ मुख्तारश्री जुगलकिशोरजी 'युगवीर' की सुप्रमिद्ध मब सस्करणोंमे वीरसेवा-मन्दिरको शीघ्र ही परिचित रचना 'मेरी भावना' अबतक संकडो सस्करणो-द्वारा लाखो कगाएँ जिन्हे उन्होंने प्रकाशित किया-कराया हो अथवा जो की तादादमे छप चुकी है। वह इतनी लोकप्रिय हुई है कि उनके परिचय में आए हो। किसी भी सस्करणकी सूचना अंग्रेजी, उर्दू, गुजगती, मराठी, कनडी, बगला और सम्कृत भेजते ममय उसके माथ (१) सस्करणकी प्रति-सख्या, आदि अनेक भाषाओमें उसके अनुवाद होचुके है। अनेक (२) प्रकाशकका नाम-पता, (३) प्रकाशित कराने वालेका लिपियोमे वह छप चुकी है। मुख्तार साहबकी ओरमे नाम-पता. (6) प्रकाशनका मन-मवन और (५) मूल्य, (यदि उसके छपानेके लिये कोई खास प्रतिबन्ध न होनके कारण कुछ हो) इन सब बातोकी सूचना रहनी चाहिये और बह चाहे जिमके द्वारा छोटी पुस्तिका, ट्रैक्ट, चार्ट, कार्ड, सबसे अच्छी बात तो यह होगी कि उस-उस सस्करणकी कैलेण्डर आदि अनेक रूपोमे छपाई गई है। मन्दिर-मकानो एक-एक प्रति ही वीरसेवा मन्दिर सरमावाको भेज दी अथवा की दीवारो, खिडकियोके काँचो तथा पर्दो आदिपर भी भिजवा दी जाये। जिन पुस्तको, पत्रो अथवा ग्रन्थ-मग्रही अंकित की गई है, और अगणित सग्रह-ग्रन्थो तथा पत्रोमे मे 'मेरी भावना'को पूर्णरूपमे उद्धृत अथवा सग्रहीत किया उसे अपनाया गया है। फोनोग्राफके रिकामे भी वह गया है उनके तथा प्रकाशकोके नामादिक भी प्रकाशनभरी गई है। रेडियो-द्वारा भी अनेकबार उच्चरित हुई है। वर्ष, प्रति-मस्या और मूल्यके माथ आने चाहिये। इस लाखोकी संख्याम देशी-विदेशी जनता उसका नित्य पाट भावनाके प्रचार और उपयोग-विषयकी अन्य कोई खास करती है। अनेक स्कूलो, विद्यालयो, पाठशालाओं और सूचना यदि वे दे मके तो उसे भी देना चाहिये, जिससे यह सभा-सोसाइटियोमे वह प्रारम्भिक प्रार्थनादिके रूपमे मालम हो सके कि कहाँपर किस प्रकाग्मे वह उपयोग बोली जाती है। कुछ मिलो के मजदूर भी उमे काम प्रारम्भ लाई गई अथवा लाई जाती है। करनेसे पहले मिलकर बोलते हैं। इससे उक्त भावनाकी जो मज्जन 'मेरी भावना के पृथक् मम्करणो , मग्रहलोकप्रियता एव महनाको बनलानकी जरूरत नहीं रहती। ग्रन्थों और अनुवादोकी एकनाक प्रति वीग्मेवामन्दिरको
ऐसी लोकोपकारिणी भावनाका उत्तम कागजपर एक गीत निम्न पते पर भिजवाएँगे तथा उक्त परिचयादिक भेजविशिष्ट संस्करण निकालनेके लिये हालमे वीग्मेवा- नेमे अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगे उनके शुभ नाम प्रकाशको मन्दिर सरसावाने अपना विचार स्थिर किया है। हम आदि के नामोके माथ पुस्तकके इम विशिष्ट संस्करणमे दिये सस्करणमे 'मेरी भावना के निर्माणका और उसके प्रचार तथा जावंगे और उन्ह इस संस्करण की एक-एक प्रति भी भेट प्रसारका पूरा इतिहास रहेगा। साथ ही, वे सब अनुवाद की जायगी। भी रहेगे जो अनेक भाषाओम अबतक मुद्रित या प्रस्तुतहोचुके
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रंथमाला' है। अत 'मेरी भावना के प्रेमियो, अनुवादको, प्रकाशको और प्रचारकोमे सादर निवेदन है कि वे कृपया इस भावनाके उन
मरमावा, जि. सहारनपुर
संशोधन गत किरणके ८१वें पृष्ठ कालम द्वितीय की : ०वी पक्तिमे जो 'जितशत्र या जितारि छपा है उसमें 'या जितारि' के स्थान पर पाठक (जितारिपुत्र) ऐसा ब्रेकटके भीतर पाठ बनालेने की कृपा करं
-प्रकाशक
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वीरसेवा मन्दिरके चौदह रत्न
(१) पुरातन जैनवाक्य-सूची— प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल ग्रन्थोंकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोमें उद्धृत दूसरे प्राकृत पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई हैं । सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्योंकी सूची । मयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी गवेषणापूर्ण महत्त्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलकृत, डा० कालीदास नाग एम.ए डी. लिट के प्राक्कथन ( Foreword ) और डा० ए. एन उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका ( Introduction ) मे विभूषित है, शोध-खोजके विद्वानांके लिये अतीव उपयोगी, बडा साइज, सजिल्द
१५)
( प्रस्तावनादिका अलगमे मूल्य ५रु )
(२) आप्तपरीक्षा -- श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञसटीक अपूर्वकृति, आप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर सम्म और सजीव विवेचनको लिए हुए न्यायाचार्य प० दरबारीलालके हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिमे युक्त, सजिल्द
८)
५)
(३) न्यायदीपिका - न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य प० दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्ठो अलकृन, मजिन्द (४) स्वयम्भू तोत्र - समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी के विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्दपरिचय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्त्वकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावनामे सुशोभित ।
(५) स्तुतिविद्या -- स्वामी समन्तभद्रकी अनोम्बी कृति, पापोंके जीतनंकी कला, मटीक, सानवाद और श्रीजुगलकिशोर तारक महत्त्वकी प्रस्तावनामै अलकृत, सुन्दर जिल्द- सहित ।
(11)
(६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड - पचाध्यायीकार कवि राज मल्लककी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद- महिन और मुनार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनामै भूषित ।
{11)
(७) युक्त्यनुशासन तत्वज्ञानमे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था। मुख्तार श्रीकं विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिमे अलकृत सजिन्द ।
(८) श्री. पुरपानाथस्तोत्र - - आचार्य विद्यानन्दरचित, महत्त्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महिन । (९) शासनचतुस्त्रिशिका - ( तीर्थ-परिचय ) -- मुनि मदनकोनिकी १३ वी शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि- महित।
..
(१०) सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ -- श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बादके महत्त्वपूर्ण संग्रह, मुन्नारथीके हिन्दी अनुवादादि-महित । (११) विवाह-समृद्देश्य – मुम्तारथीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक आर तात्विक विवेचन (१२) अनेकान्त-रस-लहरी -- अनंकान्त जैसे गूढ गभीर विषयको अतीव सरलता से समझने-समझाने की कुजी, मुन्नार श्री जुगलकिशोर-लिखित |
..
(१३) अनित्यभावना -- श्रीनन्द आचार्यकी महत्त्वकी रचना. मुख्तारश्रीकं हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थं महिन । (१४) तत्त्वार्थ सूत्र ( प्रभावन्द्रीय ) -- मुन्नारथीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याम्यामे युक्त
नोट -- ये सब ग्रन्थ एमसाथ लेनेवालो को ३३||) की जगह ३० ) में मिलेंगे ।
..
..
२)
१ महान् आचार्यकि १३७ पुण्य स्मरणां का
..
१०)
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III )
11 )
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व्यवस्थापक 'वीर सेवामन्दिर - ग्रन्थमाला' सरमावा, जि० सहारनपुर ।
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अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
अनेकान्त पत्रको स्थायित्व प्रदान करने और सुचारू रूपसे चलानेके लिये कलकत्तामें गत इन्द्रध्वज-विधान के अवसर पर ( अक्तूबर में) संरक्षकों और सहायकोंका एक नया आयोजन हुआ है । उसके अनुसार २५१ ) या अधिककी सहायता प्रदान करने वाले सज्जन 'संरक्षक' और १०१) या इससे ऊपरकी सहायता प्रदान करने वाले 'सहायक' होते हैं । अब तक 'अनेकान्त' के जो 'संरक्षक' और 'सहायक' बने है--उनके शुभ नाम निम्न प्रकार हैं ।
१५००) बा० नन्दलालजी सरावगी २५१) बा० छोटेलालजी जैन २५१) बा० सोहनलाल जी जैन २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदास जी २५१) बा० ऋषभचन्द्रजी (V. R. C. ) जैन " २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी २५१) बा० रतनलालजो झांझरी
11
२५१) सेठ बल्देवदासजी जैन २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल २५१) सेठ सुआलालजी जैन
कलकत्ता
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11
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31
33
२५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी २५१) सेठ मांगीलालजी २५१) सेठ शान्तिप्रसाद जी, जैन २५१) ब'० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया २५१) ला० कपूरचन्द्र धूरचन्द्रजी, जैन कानपुर २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी देहली २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेमल जी, देहली २५१) ला० त्रिलोकचन्द्र जी सहारनपुर २५१) मेठ छदामीलाल जी जैन, फीरोजाबाद २५१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
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Regd. No. D-211
33
२५१) ला० रघुवीरसिहजी जैनावाचकम्पनी,
देहली
ला० परसादीलालजी पाटनी, महामंत्री, दि० जैन महासभा, देहली
२५१
१०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी कलकत्ता
१०१) बा० लालचन्द्रजी जैन सरावगी
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी कलकत्ता
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१०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी
१०१) बा० काशीनाथ जी, कलकत्ता
१०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी
१०१) बा० धनजयकुमारजी
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22
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21
१०१) बा० जीतमलजी जैन
१०१) बा० चिरंजीलाल जी सरावगी १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राची १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकदार, देहली १०१ ) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली १०१ ) श्री फतेहपुर स्थित जैनसमाज, कलकत्ता
13
अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर'
सरसावा, जि० सहारनपुर
১৯১১১99SSSSSSSSSSSSSSSSS प्रकाशक—परमानन्द जैन शास्त्री C/o धूमीमल धरमदास, चावड़ी बाजर, देहली। मुद्रक - नेशनल प्रिंटिंग वर्क्स, देहली।
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SAARIA
श्री वीर-जिनका
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सर्वोदयती
सर्वाऽन्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं सर्वाऽन्त-शून्यच मिथोऽनपेक्षम् सर्वा पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
श्रीवीर जिनालय :
।
NRELU
है
जीव
पुण्य
लोक बन्ध
व्रक्ष्य/सामान्य
स्वभाचा नित्य
क सत
पिरलोक/विभाव
पाय / विगोष असत् अनेक अनित्य अजीव मोक्ष पाप
मक्किाहि सुम्याहानिया सापेक्ष
नय अनिपानिरपेक्षापुरुषाथ
प्रमाण अगम अखि/परमात्मा/
|आत्मा
हित
मिध्या
दम/त्याग/समाधि
नेत्री प्रमोद कारुण्य
पत/अप्ति/समिति माराधना
ममता निर्भयता निम्हता लोकसे
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-तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधे
व्यानामकलङ्क--भाव-कृतये प्राभावि काले कली। -येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्ततं --कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपति वीरं प्रणोमि स्फुटम्॥
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विषय-सूची
अनेकान्तको प्राप्त सहायता १. चतुर्विशतिजिनस्तोत्र--परमानन्द जैन २३५ २. समन्तभद्र वचनामृत--युगवीर
गत दूसरी किरण में प्रकाशित सहायताके बाद जो ३. गरीबका धर्म--बा० अनन्तप्रसादजी
२३९
सहायता प्राप्त हुई है वह क्रमश निम्न प्रकार है और उसके ४. अहिंसा (कविता)--पं० विजयकुमारजी २४२
लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र है:५. अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद और ऊर्जगुगामिकी --बा० दुलीचन्द जैन MSc. २४३
२५) ला० मुन्शीलालजी कागजी चावडी बाजार, देहली ६. कविवर प० दौलतरामजी--परमानन्द जैन २५२
ने अपने माहित ५ ग्राहको को एक वर्ष तक अनेकान्त ७. जैन साधुजनोंके निष्क्रिय एकाकी साधनाकी
फ्री भिजवाने के लिये। छेडछाड-बा० दौलतरामजी 'मित्र' २५७ ८. महागज खाग्वेल एक महान निर्माता
) पं० नाथरामजी प्रेमी मालिक हिन्दी प्रथरत्नाकर -बा० छोटेलाल जैन २५९ कार्यालय, होगबाग पो० गिरगाव, बम्बई। ९. आकस्मिक दुर्घटना-परमानन्द जैन २६२ १० आमेर भण्डार का प्रशस्तिसग्रह
५) चि० सुरेशचन्द्रजी व स्नेहलता के विवाहोपलक्षमें
-परमानन्द जैन २६३ प्राप्त मैनपुरीमे ११. अनेकान्तके सर्वोदयतीर्थाङ्क पर लोकमत २६७ १२. सन्त श्री वर्णी गणेशप्रसादजीका पत्र २६८ ५५)
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग (१) अनेकान्तके 'संरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना। (२) स्वयं अनेकान्नके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना । (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसरोपर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना
तथा भिजवाना । (४) अपनी ओरसे दूसरोंको अनेकान्त भेंट-म्वरूप अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या
मंस्थाओं, लायब्रेरियों, सभा-मोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको। (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २५),५०)आदिकी सहायता
भेजना । २५) की सहायतामें १०को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिवकर भेजना तथा चित्रादिसामग्रीको प्रकाशनार्थ जटाना ।
महायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोको
मैनेजर 'अनेकान्त' 'अनेकान्त' एक वर्ष नक भेंटस्वरूप भेजा जायगा।
वीरसेवामंदिर, सरसावा जि. सहारनपूर ।
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वार्षिक मूल्य ५ )
वर्ष ११
किरण ३
तत्त्व-प्रकाशक
ॐ अन्
न का
नीतिविरोधी लोकव्यवहारवर्तकः सम्पर्क परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्पनेकान्त
सम्पादक - जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
वीरसेवामन्दिर सरसावा जि० सहारनपुर ज्येष्ठ कृष्णा, वीर-संवत् २४७८, विक्रम संवत् २००६
शिति जिनस्तोत्र
इस किरणका मूल्य 111 )
मई
१६५२
यह स्तोत्र जैनियोके चौबीस तीर्थकरोके स्तवन- स्वरूप रवा गया है। रचना सुन्दर एवं सरल और यमकालंकारको लिये हुए है । इस स्तोत्रकी एक सटिप्पण प्रति मुझे पंचायती दि० जैन मन्दिर खजूर मम्जिद देहलीसे प्राप्त हुई है । इसके रचयिता भट्टारक जिनचन्द्र है यद्यपि भ० जिनचन्द्र ने इस स्तोत्रमें अपने गुरुका कोई नामोल्लेख नही किया, किन्तु अन्यसूत्रोसे उनके गुरु पद्मानन्दी ज्ञात होते हूं । जो मूलसंघस्थित नन्दीसंघ, बलात्कारगण और सरस्वति गच्छ विद्वान भट्टारक पद्मनन्दिके प्रशिष्य और भट्टारक शुभचन्द्रके शिष्य जान पडते है । यह संभवतः हिसारकी गद्दीके भट्टारक थे; क्योकि हिसारकी पट्टपरम्परामें इनका नाम अकित है । इनके अनेक विद्वान शिष्य थे, उनमें पं० मेधावी प्रधान थे जिन्होंने 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार' की रचनाको हिसार में प्रारंभ करके नागौर में संवत् १५४१ में कुतुबखानके राज्यकालमें बनाकर समाप्त किया है। इनके दो शिष्य और भी थे, ब्रह्मनरसिंह और ब्रह्म तिहुणा । ब्रह्म तिहुणाने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और पंचसग्रह नामके ग्रंथोंको उक्त पंडित मेधावीके उपदेशोंसे संवत् १५१८ में लिखकर उक्त पडितजीके लिये अपने ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ प्रदान किया था। जिनचन्द्र नामके कई विद्वान हो गए हैं। परन्तु यह उन सबसे भिन्न प्रतीत होते हैं । इनका समय विक्रमकी १५वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और १६वी शताब्दीका पूवार्ध है । इन्होंने अन्य किन-किन ग्रंथोंकी रचना की है, यह कुछ ज्ञात नही हो सका। पर यह अपने समय के सुयोग्य विद्वान भट्टारक थे। - परमानन्द शास्त्री
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भनेकान्त
श्री नाभिराज तनुजः सबया' बिहारो, देवोऽजितो जयतु कौ' सपना' बिहारः। श्री शंभयो हतभबोषित' सारसारः, श्री शोभिनंबन जिनोवित सारसार॥१ विष्टांत' कोपि सुमति. कृत गोविचारः पमप्रभोऽस्तुच मुद्दे कृत-गोविचारः। श्रीमान्सुपापर्व बहरो' मुदिता सुराजिश्चंद्रप्रभो गतमवा' ऽमुविता सुराजिः ॥ समानभास्करनुताऽमर पुष्पवंत'', श्रीशीतलेशधुत-बामर-पुष्पवंत । श्रेयन्जयेश वर वृत्त'' मही कृतांत, श्री वासुपूज्य जिन'' वृत्त मही कृतात' देवाधिदेव विमलां परतीर्थ तीर्थ, स्वामिन्ननंत विधुता परतीर्थ तीर्ष । श्रीमम्जयप्रकटितामलधर्म धर्म, शांत जयेश धुत शामलधर्म धर्म ॥४ कुंपो जयेश पुत'५ -भू-सुख-गाज-वाज, नाधार भूतनिषिभूसुल-गाज-बाज । महले कुमारमुनिसूरविराम' राम, श्री सुव्रतेश नुत-मार'"-विराम-राम ॥५ स्वामिनमीन जय भाजित'मार-मार, नेमेयतादि वियुताजित मार' मार। श्री पावनंद जगतो. भगवईमान, सिद्धार्थनवन सना" भगवर्द्धमान ॥ मानो प्रहेति कृत संभव-पाशनाशा-बैदग्ध बग्धरतलोभव-पाशनाशाः । माऽमरेन पटली जिनचंद्रपूण्याः कुर्वन्तु मंगलमिमे जिनचन्द्र पूज्याः ॥७ उक्त-मोहरस संगततारकाराः वृषभवत्यऽनंत भगतागततारकाराः । सौख्याधि-भंग-विवलज्जिनचन्द्रपादा' कुर्वन्तु मंगलमिमे जिनचन्नपादाः ॥८ पडपानतो भवति ना रतिहा सभा निर्मूलिसाऽखिलवधूरतिहासबंभा. । प्रही भवन्मनुजराजिनचन्द्रदेवाः कुर्वन्तु मंगलमिमे जिनचन्द्रदेवाः ।।९ विख्यातक विदितबंपरसावतारं, संसारवासविरलं हतकांउभूतं । बंदे नवं ववनकंजऽवताऽकसाधू मित्रं जिनं भिवजिरं भवहारभाव ॥१.
इति श्री भट्टारक जिनचन्द्रदेव कृत स्तोत्रम्
१. दयया कृपया सह विहारो विहरणं गमनं यम्यासौ-- २. पृथिव्यां--३ सत् समीचीनं अहोभाग्यं सदयः वि विशिष्टो हारः आभरण विशेषः बिहारः न विद्यते विहारो यस्यासौ अविहारः--४. दित खंडितं सा लक्ष्मीः रसः भोग: तयोंः आरं चक्रं समूहं येनासौ । ५. अदित भक्षित सारस्य बलस्य वीर्यस्य सारं रहस्यं येनासौ वीर्यात् तपश्चरणं कृतवान् इत्यर्थः । ६. दिष्टो प्रेरित अतको यमो येन । पक्षे दिष्टं भाग्य पुण्य पाप रूपं तयोः अंतक. नाशकः इति सुमतिः ७. इ: कामः तं सरतीति इ हर. कामनाशकः । ८. मुदिता हर्षनीता असूनां प्राणिना राजि. पंक्तिः येनासौ। ९. गता गती मवाऽमुदी हर्ष विषादौ यस्मात् सा अथवा गता हर्षविषादयो . आशु शीष राजिते. . . . . 'यस्मात् । १०. पुष्याकरी दंता यस्य तस्य संबोधः धुतानि वीजितानि चामराणि पुष्पदताभ्या चन्द्र सूर्याभ्या यस्या सौ तस्य सम्बोधनं । ११. भो उत्तम चारित्र । १२. वृतः प्रवर्तितो मां पृथ्वीतले कृतातः मिद्धातो येनासो तस्य सम्बोधनं । १३. मह्या कृतः अंतो निश्चयो येना सो तस्य सम्बोधनं । १४. धुत स्फेटित शामल धर्म मिथ्या धर्मो येना सौ तस्य सम्बोधनं । १५. धुतं स्फेटितं भू सुखासुखयोः भूमिआकाशयोः गच्छतीति भूसुखगाः तेषां अजा अजस्य कामस्य वाजो वेगो येनासौ तस्य सम्बोधनं । १६. भो विरामराम रामायाः अंगनायाः विरामो यस्या सौ तस्य सम्बोधनं । १७. मारः कामः विरामः विगतरामः गणधर देवादिः रामः बलभद्रः मारश्च विरामश्च रामश्च मारविरामरामाः नुताः नम्रीभूताः मारविरामरामः यस्य तस्य सम्बोधनं । १८. भया दीप्तयाजित कार लक्ष्मी 'र' मगलं येन तस्य सम्बोधनं । १९. मारस्य कामस्य मारा वाणाः मारमाराः अजतानि च तानि मार माराणि च अजितमारमाराणि धुतानि स्फेटितानि अजितमारमाराणि येनासौ तस्य सम्बोषनं-२०. जगत्यां भगेन भागेन वर्तमानः जगती भगवर्द्धमानः तस्य सम्बोधनं। २१. सना नित्यं भगेन ज्ञानेन पर्वमानः तस्य सम्बोधनं ।
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समन्तभद्र-वचनामृत
स्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन धर्मशास्त्रमै धर्मके इन सब मूढताओंसे रहित होनेके कारण सम्मग्दष्टि अंगभूत सम्यग्दर्शनका लक्षण प्रतिपादन करते हुए उसे 'अमूढ दृष्टि' कहलाता है। सम्यग्दर्शनके आठ अगोंमें भी 'त्रिमूढा पोढ' विशेषणके द्वाग तीन मूढो अथवा मूढताओसे 'अमूढ दृष्टि' एक अग है । उसका स्वरूप प्रतिपादन करते रहित बतलाया है। वे तीन मूर या मूढताएँ कौन है और हुए स्वामीजी कहते है :उनका स्वरूप क्या है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए कापणे पथि दुखानां कापयस्येऽप्यसम्मति । स्वामीजी स्वय लिखते है :--
असम्पत्तिरनुत्कोतिरमूढावृष्टिरुज्यते ॥१४॥ आपगा-सागर-स्नानमुच्चय : सिकता मनाम् ।
दुखोके मार्गम्बम्प कुमार्गमे-भव-भ्रमणके हेतुभूत गिरिपातोऽग्निपातश्चलोकमूढं निगद्यते ॥२२॥
मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान-मिथ्याचरित्रमें-तथा कुमार्गस्थित(लौकिक जनोके मूढतापूर्ण दृष्टिकोणका गतानुगतिक
मे-मिथ्यादर्शनादिधारक तथा प्ररूपककुदेवादिकोंमें जो रूपसे अनुसरण करते हुए, श्रेय माधनके अभिप्रायम
अमम्मनि है-मनमे उन्हे कल्याणका माधन न मानना अथवा धर्मबुद्धिम)जो नदी-सागरका स्नान है, बालू रेत तथा
है-असमृक्ति-कामकी किमी चेष्टासे उनकी श्रेय पत्थरोंका स्तूपाकार ऊँचा ढेर लगाना है, पर्वतपरसे
साधना जैमी प्रशमा न करना है और अनुत्कीति हैगिरना है, अग्निमे पड़ना अथवा प्रवेश करना है, और इमी
वचनमे उनकी तद्विषयक स्तुति न करना है--उसे अमूढाप्रकारका और भी जो कोई काम है वह मर्व 'लोक मू' कहा
दृष्टि कहते है। जाता है।'
भावार्थ-दुःखोंकी प्राप्तिके उपाय स्वरूप मिथ्याबरोपलिप्सयाऽऽशावान् राग-नेवमलीमसाः ।
दर्शनादिककी और मिथ्यादर्शनादिके धारकों-पोषकोंकी जो देवता यदुपासीत देवताभूतमुच्यते ॥ २३ ॥
मन-वचन-कायमे आन्मकल्याण-साधनरूपमे प्रशसादिक न 'आशा-तृष्णाके वशीभूत होकर वरकी इच्छामे–वाछित
करना है उमे मम्यग्दर्शनका 'अमूटदृष्टि अग' कहते है। फल प्राप्तिकी अभिलाषासे-रागद्वेषसे मलिन-काम-क्रोध
इन मब बातोको लक्ष्यमें रखते हुए स्वामीजी मम्यरमद-मोह तथा भयादि दोषोसे दूषित-देवताओकी-परमार्थत
दृष्टिके विशेष कर्तव्यका निर्देश करते हुए लिखते है - देवताभासोकी--जो (देवबुद्धिमे) उपामना करना है उमे. 'देवतामूढ' कहते हैं।'
भयाना-स्नेह-लोभाच्च कुबेवाऽऽगम-लिङ्गिनाम् । सग्रन्याऽऽरम्भ-हिंसानां संसाराऽऽवर्त-वतिनाम् । प्रणाम विनयं चैव न कुर्य. शुद्धदृष्टय ॥३०॥
पावण्डिनां पुरस्कारो शेयं पापण्डि-मोहनम् ॥२४॥ शुद्ध सम्यग्दृष्टियोको चाहिये कि वे (श्रद्धा अथवा 'जो सग्रन्थ है--धन धान्यादि परिग्रहसे युक्त है-- मूढदृप्टिसे ही नही किन्तु) भयसे-लौकिक अनिष्टकी आरम्भ सहित है--कृषि वाणिज्यादि सावद्य कर्म करते सम्भावनाको लेकर उमसे बचने के लिये-आगासे-भविष्यहै-हिमाम रत है, ससारके आवोंमें प्रवन हो रहे है- की किमी इच्छापूर्तिको ध्यानमे रखकर-स्नेहसे-लौकिक भवभ्रमणमें कारणीभूत विवाहादि कर्मों द्वारा दुनियाके चक्कर प्रेमके वश होकर-तथा लोभसे--धनादिकका कोई लौकिक अथवा गोरखधन्धेमें फंसे हुए है-ऐसे पाखण्डियोका- लाभ स्पष्ट सधना हुआ देखकर-भी कुदेव-कुआगमवस्तुतः पापके खण्डनमे प्रवृत्ति न होनेवाले लिंगी साधुओं कुलिंगयोको-उन्हें कुदेव-कुआगम-कुलगी मानते हुए भीका-जो (पापण्डि साधुके रूपमें अथवा सुगुरू बुद्धिमे) प्रणाम (शिगेननि) तथा विनयबादि-अभ्युत्थान हस्तांजलि आदर-सत्कार है उसे 'पाषण्डिमूढ' समझना चाहिये।' आदिके रूपमें आदर-सत्कार न करें।
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
व्याख्या कुदेवादिकोंको प्रणामादिक करनेसे अपने विनयादिकका निषेष किया गया है जो कुछ धर्मका झंडा निर्मल सम्यग्दर्शनमें मलिनता पाती है और दूसरों के सम्मर- उठाए हुए है उनके उपासक जनसाधारणका-जैसे मातादर्शनमें मीठेस पहुंचती है तथा जो धर्मसे चलायमान हों उनका पिता,राजादिकका-जोकि न देव हैं और न लिंगी, यहां स्थितिकरण भी नही हो पाता। ऐसा करनेवालोंका अमूढ- ग्रहण नहीं है । और इसलिए लौकिक व लोक व्यवहारकी दृष्टि तथा निर्मल होना उनकी ऐसी प्रवृत्तिको समुचित दृष्टिसे उनको प्रणाम-विनयादिक करने में दर्शनको म्लानतासिब करनेके लिये कोई गारण्टी (प्रमाणपत्र ) नही हो का कोई सम्बन्ध नहीं है । इसी प्रकार भयादिककी दृष्टिन सकता। इन्हीं सब बातोंको लक्ष्यमें रखकर तथा सम्या- रखकर लोकानुवतिविनय अथवा शिष्टाचारपालनके अनुदर्शनमें लगे हुए चल-मल और अगाढ़ दोषोंको दूर करनेकी रूप जो विनयादिक क्रिया की जाती है उससे भी उसका दृष्टिसे यहाँ उन देवों, आगमों तथा साधुओंके प्रणाम कोई सबन्ध नहीं है।
'युगवीर'
गरीबका धर्म
(बा० अनन्त प्रसाद B. Sc. Eng. 'लोकपाल') हमारे इस संसारमें गरीब भी है अमीर भी है। शील दुनियाँमें जहाँ हर जगह हर बातमें होड़ाहोड़ी लगी अधिक संख्या गरीबोंकी ही है। देशोंमें भी धनी देश हुई है हमें पग-पगपरकठिनाइयाँ वाषा उपस्थित कर आगे और गरीब देश है और व्यक्तियोंमें तो है ही। भारत- बढ़ने नहीं देती । सबसे बड़ी कठिनाई हमारी पार्मिक की गिनती भी और दूसरे एशियाई एवं अफ्रीकी देशोंके सकुचितता और वर्ण-व्यवस्थामे उत्पन्न जाति-पांतिके समान ही एक गरीब देशमें की जाती है । गरीब वह कहा भेद-भावों एवं कटुताओंके कारण ही पैदा होती रहती है। जाता है जिसे भरपेट पूरा भोजन समयानुकूल न मिल धर्मका शुद्ध स्वरूप क्या है, धर्म किसे कहते हैं और सके, पहननेको साफ-सुथरे जरूरतमुताविक कपड़े न हो, कर्तव्यमे और धर्ममे क्या भेद है हमने भुला दिया है । वस्तुरहने के लिए एक स्वस्थ मकानका अभाव हो और ज्ञानो- का स्वभाव ही धर्म है । जबतक कोई वस्तु या व्यक्ति पार्जनकी सुविधा न हो। भारतमे तो गरीब लोग है अपने स्वभाव एवं निर्माणकी मर्यादाके अंदर आचरण या ही, अमेरिका और इंगलैंडमें भी गरीब है। हां, भारतकी व्यवहार करता है तो वह धर्ममय कहा जा सकता है बाकी गरीबीका मापदण्ड इनसे भिन्न है। भारतमें तो जिस कुटुम्ब- अधार्मिक । अब प्रश्न यह उठता है कि किसका स्वभाव के पास दोनों समय भर पेट भोजनकी सुविधा सामान हो, क्या है एवं निर्माणात्मक मर्यादा क्या है ? यही नही जानने पहननेके लिए या तन ढकनेलायक इतने कपड़े वह खरीदकर ही से वे सारी गलतियाँ होती है जिन्हें हम जान-बूझकर बनवा सके जो बराबर साफ रखे जा सकें एवं एक छप्पर- करते है-अनजानमें जो होती है वह तो है ही। पर वार साधारण मकान हो तो ऐसा कुटुम्ब मध्यम वर्गीय जानकारी सभीको तो होती नहीं। बेजान वस्तुएं भी कहा जाता है। पर अमेरिकामें जिस फैमिलीमें कम-से-कम ससारमें है ,जानदार पशु पक्षी भी है और मनुष्य भी। इनमें एक मोटरकार न हो उसे गरीब कहते है । हमारे यहाँ तो हम पाते हैं कि बेजान वस्तुएं और अधिकतर पशु पक्षी एवं अच्छे-अच्छे धनी भी कंजूसीके मारे मोटरकार नहीं रखते कृमि कीट सभी सर्वदा स्वभावानुकूल ही आचरण करते हैं। तो अमीरोंके लिए तो असंभव है ही।
केवल एक मनुष्य ही ऐसा है जिसके लिए कोई सीमा नही ___ उन पश्चिमीय देशोंकी तुलनामें जो आज उन्नति- दीखती। ऐसा क्यों? केवल इसीलिए कि मानवमें मनशील कहे जाते है भारत पिछड़ा देश समझा जाता है। युक्त विकसित बुद्धिका आवास है ? पर यह तो ठीक शानमें, विज्ञानमें, सरोसामानमें सभीमें पिछड़ा । हमारे उलटी बात है । यही विडम्बना है इसीलिए न जाने किस जीवन-स्तरका औसत इतना नीचा है कि आजकी प्रगति- प्राचीन कालसे शानी महापुरुष तरह-तरहकी व्यवस्थाएं
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गरीवका धर्म
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बनाते आये और उपदेश देते आए--पर आज भी हालत कुछ में फैलाते हैं। भारतीय रेडियो तो अब भी वही मध्यसुधरी नहीं दीखती-बल्कि ज्यों-ज्यों "उन्नति" होती कालीन कथा-कहानियां बाराबार प्रसारित कर लोगोंकी जाती है मानव अधिकाधिक निरंकुश या विनाशवादी होता अंधश्रद्धा एवं धर्मावताकी वृद्धि ही करता है। यह एक जाता है। और सीमाओंसे बाहर चलता जाता है। हानि स्वतंत्र देशके लिए बड़ी भारी विडम्बना है जो प्रगतिमी उठाता है। पर इसकी उसे पर्वा नहीं। वह तो मोहित- शीलताका दावा करते हुए इस तरह अपने देशके प्रचारसा हो रहा है।
यन्त्र द्वारा ही बराबर अंधकारकी तरफ ही देशको देशो और व्यक्तियोंकी गरीबीके बावजूद भी ज्ञानका ढकेलता है। विकास तो होता ही जाता है-फिर भी आजका मानव यों भी धर्म या धार्मिक उपदेश उसीपर अधिकतर अबतक यह नही स्थिर कर पाया कि मानवोचित क्या असर करते हैं जो हर तरह संतुष्ट और निश्चिन्त हैं। कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य । भिन्न-भिन्न धर्मों और धर्म- त्याग भी उसीके लिए है जिसके पास कुछ त्याग करनेको गुरुओंने अपनी-अपनी खिचड़ी, अलग पकाकर लोगोंको हो । गरीब भूखा तो सर्वदा भूखसे पीड़ित, अभावसे संत्रस्त और अधिक भ्रममें डाल रखा है। कोई मानव-हिंसाको और संसारकी प्रगतियोंसे बेहोश या अनजानसा ही हैबजित करार देकर पशु-हिंसामें कोई बुराई नही मानता उसे पहले भोजन चाहिए, फिर दूसरा कुछ। हम उपदेश तो दूसरा दोनोंको पाप कहते एवं मानते हुए और समझते देते हैं-अहिंसाका आचरण कगे, सत्य बोलो, दूसरोंकी हुए भी हरतरहकी हिंसामें लगा हुआ है। यही हालत भलाई करो। भला एक गरीब, पतित, अजानपर इनका जन-जीवनके सभी विभागो, संस्थाओ, पहलुओं, क्या प्रभाव पड़ सकता है ? इतना ही नहीं अधिकतर उच्च मंगठनों, स्थानो और संस्थानोमें हो रही है । उपदेशक वर्गीय कहलानेवाले व्यक्ति या पंडितगण अपने उच्चताके लोग अबभी अपनी-अपनी ढापली बजाए ही जाते है । ऐसी अभिमानमें ऐसोंको नीच ही नही गिनते बल्कि कड़ी घृणा अव्यवस्था और अवहेलना क्यो ? उपदेशोंका असर लोगो करते है और हर तरहके जोरदार नर्को (अतर्क, कुतर्क पर क्यो नही होता ? धनी पर भी नही और गरीबपर और भ्रमात्मक तर्क) द्वारा ऐसे लोगोंको शुद्ध, उच्च और भी नहीं।
पवित्र नहीं होने देना चाहते न उन्हे अच्छा उत्तम नागरिक प्राचीनकालम एक-एक छोटे-छोटे गाव, नगर या वननेके अधिकार ही देना पसन्द करते है। कहते है मंदिर राजतंत्र स्वावलंबी होते थे और अपनी अधिकतर आवश्य- गन्दे हो जायेंगे, मूर्तिया अपवित्र हो जायेंगी। भला यह भी कताए स्वय पूरी कर लेते थे । गरीबी नब भी थी अब भी कोई दलील है ? कोरा चमड और घृणाका नंगा स्वरूप है। पर उस समय यातायातका साधन विकमित नही मात्र उन्हे पवित्र-अपवित्र और शुब-अशुद्धका सच्चा होनेसे ऐसे गांवो. नगरी या मडलोकी अपनी-अपनी भान ही नही, भले उन्होने बडी सी विद्या पढ ली हो पर दुनियां ही अलग-अलग खास मीमाओसे सीमित हुई सी उससे क्या, वह फिर भी दूषित ही कही जायगी। यदि बन गई थी। कोई उपदेशक या धर्मगुरु शिष्योंकी जमात मानव "सम नता" और "समता" के भाव उनमें नहीं हुए लिए कही पहुंचकर मशहूर हा जाता था और फिर उसके या नही रहे तो मंदिर, मन्त्र और मूर्तियां बनी ही उपदेशोंका बडा प्रभाव पड़ता था। इतना ही नहीं, राजाओ इसलिए है कि अशुद्ध और अपवित्र शुद्ध और पवित्र हो या प्रमुख विद्वानो और पडितोंको अपने प्रभावम लाना जाय । यदि उलटे मत्र और मूर्ति ही उनके स्पर्श या दर्शनउस समय अधिक सहल था। एक दफा कोई राजा या मात्रसे अशुद्ध और अपवित्र हो जाये तो ऐसे मंत्रों और किमी नगरका प्रमुख व्यक्ति एव पंडित बा विद्वान जब मूर्तियोंको क्या करना चाहिए। कोई समझदार स्वयं सोच किसी ऐमे उपदेशकके प्रभावमे आजाता था तो उसकी कर कह सकता है। क्या यह पाषंड या ढोग नही है ? शिक्षाओको जन-साधारणमें फैलने में देर नहीं लगती यह मंत्रों और मूर्तियोंका अपमान है। पर असलमें मूलतः, थी। अब आधुनिक कालमें वह बात नहीं रही। आज- मारा दोष उस पूंजीवादी व्यवस्थाका है जहां ऊंच-नीच, छूतकल तो प्रचारका प्रमुख माधन रेडियो भी सरकारोंके अछूत, धनी-गरीब, इत्यादि भेद-भाव बनाए रखना इसलिए ही हाथमे है--वे जैमा जो कुछ चाहते है देश या संमार- आवश्यक है कि कुछ लोग बाकियोंके ऊपर अपना प्रभुत्व .
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.२४०
अनेकान्त
अक्षुण्ण रख सकें, धनी बने रहें और दूसरा गरीब रहकर, कालसे चली आती है उसका वह एकदम ही अभाव हैबछूत रहकर उनकी गुलामी करता रहे, उनके अत्याचार वहां लोग सन्चे ज्ञानको खोजमें जोरोंमें लगे हुए है और सहता रहे।
सच्चे ज्ञान वाले सिद्धान्तों और तत्त्वोंके प्रचारकी वहा __ आज हम क्या पाते है ? तीर्थंकरों, मुनियों, धर्माचार्यों मत जरूरत है, आधुनिकतम तरीकोंमे उन्हीके देशकी और लाखों उपदेशको और सन्नीने न जाने किस प्राचीन- भाषामें जोरोमे प्रचार करनेसे उन्हें जैन सिद्धान्तोंकी कालसे अबतक लोगोंको उपदेश दिया--स्वय आचरण वैज्ञानिकताके कारण इसमे दिलचस्पी एव इधर झुकाव करके, कष्ट सहकर, अपनी बलि देकर उदाहरण उपस्थित अवश्य होगा। हमारे धनिकवर्ग चाहे तो बहुत-कुछ कर सकते किया पर कितने व्यक्तियोने अपनी सम्पत्ति छोड़ी और है। अभी तो जब भी "ममता" या "समानता" का शब्द लोगोंमें बांट दी? और कितने समयतक उनका प्रभाव उनके सामने आता है वे उसे रूसी साम्यवादका "हौवा" रहा? आज हर तरफ लूट और शठताका बाजार गर्म । समझकर इतना डर जाते है कि फिर मारी सदाशाएं और है। पुराने उपदेश तो है ही नए-नए हर क्षण निकलते ही मद्विचार क्षणमात्रमें हवा हो जाते है । वहा पूजीवादी प्रधान रहते हैं-सन्तोंकी कमी अब भी नही । पर क्या धनियोने मताका मचालन करनेवालोने इतना भयकर प्रचार कर अपना धन त्यागकर अपने पड़ोसियोंकी बराबरी कभी रखा है कि लोगोके मस्तिष्कको दूसरी तरफ बदलना पारण की? या केवल अपने कुटुम्ब परिवारके समुचित __आसान नही । इगलैण्डकी हालत तो और भी अधिक चिन्ताभरण-पोषणलायक रखकर बाकीको "सर्वोदय" के लिए जनक है। सच पूछिए तो वर्तमान युगकी सारी ऊंच-नीच लगा दिया हो? ऐसे उदाहरण भी कही-कही मिलते है पर कई व्यवस्थाका आधुनिकतम रूप इगलैण्डकी ही देन श्रापकही करोड-दस-करोड़ व्यक्तियोंमें एकाघ ही-उससे क्या रूपमे संसारके ऊपर हावी है। मनुष्यको धर्म और आत्मा, होगा--महासागरको भरनेके लिए एक अंजुली बाल! सत्य और अहिसा इत्यादिको बाते उसी समय सामूहिक जबतक संसारमें धन ही प्रभुता, सुख, शक्ति इत्यादिका रूपमे हर्षित करेंगी और स्वीकृत होंगी जब उसे जीवनमापदंड या दाता रहेगा, लोग हर उपायोंसे संचय करना यापन, कुटुम्ब-परिपालन और वृद्धावस्थाके निर्वाहके प्रश्नोनही छोड़ेंगे फिर त्यागका सवाल ही कहां उठता है? का समुचित समाधान निश्चितता या बीमा (Assurance संसारसे दुःख, दरिद्रता और गरीबी मिटानेके लिए उपदेश or Guarantee) एवं निशंकता हो जायगी । ऐसी
और दानसे काम नही चलनेका । यह तो कोई काम हालतमें ही वह “सर्वोन्नति" की ओर सच्चा ध्यान देगा, सामूहिक रूपसे, सरकारोंकी ओरसे और दबावयुक्त होनेसे अपनी भी उन्नति करेगा और समाज एव मानवताका भी ही देशों, समाजों और व्यक्तियों में अधिकाधिक "समानता" उत्कर्ष करनेमे पूर्ण सहायक होगा। या "समता" लाई जा सकती है। जितनी अधिकाधिक मेरे कहनेका मतलब यह नही कि जबतक ऐसी "समता" और "समानता" का व्यापक प्रसार होगा। परिस्थिति या स्थिति न हो जाय लोग चुपचाप बैठे रहें। संसारसे असत्य, हिंसा, युद्ध और दुःख दारिद्रय उतना ही श्री विनोबाभावे "भुमिदान-यज्ञ" कर रहे है । काफी अधिकाधिक दूर होते जायेगे। लोगोंका ध्यान भी जीवन- सफलता भी उन्हें मिल रही है। यही काम यदि आजसे दम यापन की चिन्ताओंसे मुक्त होकर धर्म, परोपकार, सत्य, वर्ष पहले आरम्भ किया जाता तो उसका कुछ भी फल अहिंसा इत्यादिकी तरफ अपने-आप जायगा।
नहीं निकलता-अब परिस्थितिया बदल गई है एवं तेजीप्रश्न हो सकता है कि भारत तो गरीब देश है, यहां से बदल रही है। फिर भी जिस ध्येयको लेकर यह काम गरीबोंकी सख्या अधिक होनेसे अच्छे उपदेश कारगर नही हो रहा है उसके लिए तो वर्तमान व्यवस्था बदलनेसे ही होते पर अमेरिका, इगलैण्ड इत्यादि देश तो बड़े ही समृद्धि- कुछ स्थाई कार्य हो सकता है । यो तो जो लोग अपनी शाली है, वहां तो लोग निश्चित है उपदेशोका असर पडना भूमि दे रहे है वे भी अधिकतर यही देखकर दे रहे है कि चाहिए था। हां, होना तो ऐसा ही चाहिए था पर वहां आगे उसे रखना सभव नही-आज नहीं तो दो-एक वर्ष मभी लोग संचयात्मक विचार वाले ही है और भारतमे बाद सही उन्हें मजबूरन जमीन छोडनी ही पडेगी। इसके जो त्यागमय शिक्षाओंकी श्रृंखला या तारतम्यता प्राचीन अतिरिक्त भी दान देकर दानी तो अपनेका उपकारी एव
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किरण ३]
गरीबका धर्म
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सर्वसाधारणसे ऊंचा समझने लगता है। दानको राति हो और अधिक संचय यही हमारा एकमात्र जीवनोद्देश्य बन तो पूजीवादी व्यवस्थाका प्राण है और ऊंच-नीच, धनी- गया है। हम गरीबों पर दया एवं करुणा करते हैं। पतितों गरीब, दाना-याचककी भावनाओको बनाए रखनेका प्रमुख पर घृणा करते हैं--कभी-कभी अनुग्रह भी करते हैं पर हम आवार या यत्न है। फिर भी एकदम कुछ नहीसे इस तरह- कभी न उन्हे उठाना चाहते हैं न उठने देना चाहते है। हम की भूमिदान वर्तमान परिस्थितियोंमें कुछ बुरा नहीं है। भले ही अपने धर्मको “सार्वभौम" घोषित करें और थोड़ाकम-से-कम एक लाभ तो है कि लोग अब यह समजते या बहुत दानवान करके, मंदिर, धर्मशाला इत्यादि बनाकर या महसूस करते जारहे है कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था कुछ पडित कहे जानेवाले व्यक्तियोंको धनमानसे संतोषितकर एवं रूडिया अब अधिक नही चलेंगी ओर उन्हें बदलना हो अपना "सिकका" समाज एव मसारमे बनाए रखें पर यह होगा एवं गरीब-अमीरमें अब अधिक भेद या दूरी बनाए नोन धर्म है न सच्ची मानवता ही। रग्वना देश और संसार दोनोके लिए हानिकारक है।
धनी धनमें व्यस्त है और गरीब अपनी गरीबी और चीन देशने हमारे सामने एक बडा ही ज्वलत उदाहरण अभावको दूर करनेमें लगा हुआ है। किसे धर्म और उपदेश रख दिया है। जहां दुख दैन्य लूट, बेईमानी, भ्रष्टाचारका सुननेकी फुरसत है हमारे उपदेशकगण तो मूलको पकड़नेबोलबाला था वहां अव अधिक-से-अधिक लोग स्वावलबी और की बजाय एकाध "पत्ते डौगी" तोडताड़ कर ही दुखरूपी सत्यशील होते जारहे है । माना कि वहा "आत्मा" और और अशान्ति रूपी विष वृक्षका नाश करनेकी बात करते ईश्वरमें विश्वास अभी घट गया है-पर यहतो केवल एक है-भला यह सैकड़ों, हजारों, लाखों वर्षों में भी होने का है? प्रतिक्रिया (reaction) मात्र है जो अधिक सुख-संतोष उल्टे और बढ़ता ही जायगा जैसा अबतक होता आया है। बढनेपर स्वयं धीरे-धीरे दूर हो जायगा। अभीतो वहां भी सत्य, अहिंसा, धर्म, सर्वोदय इत्यादि साघु भावनाओंको लोगोंका केवल मात्र एक यही ध्येय है कि कैसे सबका पेट फैलाने, कार्यरूपमें व्यापक और प्रभावकारी रूपमें परिणत भरे और हजारो वर्षों के सतापके बाद थाडे आरामको प्राप्ति करनेके लिए सर्वप्रथम जरूरी है सामाजिक एवं राजनैतिक हो । अभी तो वे उत्पादन और सगठनमे अपनी सारी शक्ति सुधार समुचित रूपसे लाकर गरीबी दूर करना और "समता" लगानेमे एकदम व्यस्त है उन्हे दूसरी तरफ देखनेकी फुर्सत एव "समानता' की सस्थापना और संवृद्धि करना। यदि भी नहीं। ऊपरमे युद्ध और आसन्न आक्रमणका भय शान्ति मसारके सारे उपदेशक, दार्शनिक (Philosophers) और चैनकी सास नहा लेने देता फिर तो आत्मा परमात्मा- भ्रम छोड़कर लोगोंको अपनी गलत बातोंके प्रचार द्वारा को कौन पूछता है। भारतमे भी तो "आत्मा परमात्मा" की गलत मार्गपर चलनेसे बचाना चाहे तो उन्हे अपने विचारोंमें आते केवल खोखली और भुलावा मात्र रह गई है । जैनियोमे सम्यक मुधार करना होगा। मानव-मानवको जन्मसे समान ही कितने करोड़पति पडे हुए है क्या कभी उन्होने अपरिग्रह और बराबर मानना एवं बनानेको चेष्टा करनी होगी तभी पर क्रियात्मक विश्वास किया? फिर उनके लिए जनवर्म ससारमें स्थाई शान्ति भी हो सकेगी और सचमुच सभी सुखी और सिद्धान्तोंका प्रतिपादन दिखावा और “छलना" नही तो हो सकेंगे। सच्चे अर्थोंमें "सर्वोदय" होगा और लोग निस्पृह क्या है ? सच्चा जन तो हम उसे कहे जो "अपरिग्रहो" एव एब सत्यवादी और अहिंसक होंगे। तभी जैनधर्मकी भी "समदर्शी" होनेके मार्गमे अवस्थित हो और आगे बढ़ रहा और संसारके दूसरे सच्चे धर्मोकी भी सार्थकता कही जायगी। हो। हम तो ठीक उलटी तरफ चल रहे है। मंचय, मचय
पटना, ता० २७-३-५२
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
* अहिंसा * ( पं० विजयकुमार जैन साहित्यरत्न )
जियो और जीने दो का जो भाव हमें बतलाती । मानवमें मानवताका जो दर्शन दिव्य कराती ।। जिसकी सुख-शीतल छायामें बैठ अनेकों प्राणी । वैर-विरोध मूल पा जाते शान्ति सुधा कल्याणी ॥
समर श्रान्त सम्राट नृपतिवर थे अशोक से योद्धा । जिनके तेजपराक्रमसे थे भीत शत्रु संयोद्धा ।। बैठ अ-शोक बने इसकी सुख शीतल-सी छायामें। माधक इसके रहे अनेकों भूल न जग मायामें ।
अभय और विश्वास सदा जो जन-जीवनमें भरती। घृणा और प्रतिहिंसाकी ज्वालाको जो नित शमती ॥ जिसका नव संगीत सुमधुरिमा-राग हृदयमें भरता। पावन-प्रेम-प्रवाह सुधा निर्झर-मा झर्भर बहता ॥
इसी अहिंसाकी पावन गंगामें कितने प्राणी निज कल्मष धो चुके जिन्होंने जीवन ज्योति पिछानी इसका तीर्थ बनाने वाले हुए अनेकों ज्ञानी जिनने स्वात्म-विभूति मात्रको सतत सुख प्रदा मानी॥
जो बनकर आलोक जगतका घन-तम हरती रहती। मानसकी अन्तर्गङ्गासी पावन कल्मष हरती ॥ स्नेह भरी नव-ज्योति जगमगाकर सत्पथ बतलाती। विश्वप्रेमकी मूर्ति भावमें पावनता भर लाती ॥
वही समन्तभद्रसे मुनिवर कुन्दकुन्द गुरु ज्ञानी । विद्यानन्द प्रवीण उमास्वामीसे हुए अमानी ।। जिनने इसके परम अमृतको बाटा जग जीवनमे । पीकर कितने अमर हो चुके पा स्वशक्ति निज मनमें।।
जो वीरोका धर्म और धीरोंकी प्रबल निशानी । स्वानुभूतिमय आत्म-रमणको अन्तर्वृत्ति पिछानी ।। राग-नेषमय भव-बन्धनका पाश खोलने वाली । आत्म-आत्म पर-परका अन्तर्बोध जगाने वाली॥
यही अहिंसा जिसके बल पर हुआ सत्य-उद्घाटन । सर्वोदयी विचारोंका जिसमें नित नव प्रोद्घाटन ।। अनेकान्त स्याद्वाद समन्वय मार्ग इसीका निश्चय । नय-प्रमाणका बोध लिए चलना है नहीं अनिश्चय ।
दानव-मानवमें बस जिसही का अन्तर रहता है। दानवमें जो नही मनुजसे जिसकी मधु ममता है। मानवका अधिकार जिसीके बलपर सदा टिका है। और मुक्तिका द्वार उसीके बलपर सदा खुला है ।
मंत्री हो जीवोंसे नित लख गुणी मोद उमगाये । दुखी विपन्न जनोंपर मन करुणा सम्भार बहाये। जो विपक्षजन उनके प्रति हो शुभा सशना मेरी। देती शुभ आशीस अहिंसा हो सुबुद्धि यह तेरी ॥
यही अहिंसा है जिसने खोले स्वराष्ट्रके बन्धन । बापूको देवत्व दिया बढ़ चला विजयका स्पन्दन ।। महावीरकी परम साधनाका प्रतीक यह निश्चय । पुखदेवको रही इष्ट इसमें भी नही अनिश्चय ।।
यह अमोघ है अस्त्र न जिसका व्यर्थ कभी फल होता। वीरोका वीरत्त्व सदा इस ही से जगता होता । समताकी प्रतिमूर्ति सिंह मृग मिलते सुहृदयतासे पा जाते सब अभय इसी जग जननीकी ममतासे॥
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अनेकांतवाद, सापेक्षवाद और ऊर्जाणुगामिकी
(ले० श्री दुलीचन्द जैन M. Sc.)
[प्रस्तुत लेखमें जैन सिद्धांतके अनेकान्तवाद और आधुनिक विज्ञानके सापेक्षवाद (Relativity ) एवं ऊर्जाणु गामिकी (Quantum Mechanics) के सिद्धांतकी तुलनाका प्रयास किया गया है। साथ ही इस ओर संकेत किया है कि यदि जैन मिद्धांतोंका आधुनिक विज्ञानके प्रकाशमें अध्ययन एवं मनन कर उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे प्रस्तुत किया जाय तो संमारकी आंखें जैन मिद्धांत एवं जैन धर्मकी ओर आकृष्ट हो मकनी है। इसके लिए हमें जैन धर्मके मूक्ष्म एव गूढ सिद्धांतोंकी चालू एवं स्थूल व्याख्यामें भी किचित् परिवर्तन करना होगा। इस दिशामें मुझे श्री. प्रो० जी० आर. जैन की Cosmology old and new ( कॉस्मॉलांजी ओल्ट एन्ट न्यू ) में बहुत प्रोत्साहन एवं विचार मिले हैं जिसके लिए मै उनका अत्यन्त कृतज्ञ एवं अनुग्रहीत हूं।
-लेखक ] सत्यके अनुसंधानकी ओर मनुष्यकी स्वाभाविकी प्रवृत्ति आचार्य आइन्स्टाइन (Finstein) दार्शनिककी भांति कह रही है। जैन शास्त्रोंके मतानसार जब मानवने वसुन्धरा उठता है-- पर चतुर्य कालके अन्तमें उपाकी लाली, सूर्य एवं चन्द्रकी “We can know only the relative किरणो और समुद्रकी लहरियोंके प्रथम दर्शन किये तबसे truth-the real truth is known to the ही उसके हृदयमें इनका आतङ्कमय रहस्य समझनेकी इच्छा universal observer." हुई और उसकी इस उत्कण्ठाका समाधान विशिट ज्ञानी, तात्पर्य यह कि हम केवल सापेक्ष सत्यको ही जान सकते लोकनायक ऋषभदेवने किया। आधुनिक विद्वानोंके मता- है। वस्तु-सत्यको-निश्चय सत्यको (absolute truth) नुसार आदिम युगमे जब मनुष्य असभ्य अवस्थामें था तबमे केवल विश्व दृष्टा (सर्वज्ञ देव) ही जान सकते हैं। ही उसके मनमें सृष्टिके कार्यकलापको देखकर आतङ्क वस्तुमें अनेक गुण होते है और इन गुणोंको जानने के लिए आश्चर्य और रहस्यकी भावना प्रस्फुटित हुई और प्रकृतिकी हमे भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणोंका आश्रय लेना पड़ता है। वस्तुशक्तियोंके रहस्यका उद्घाटनकर उस ज्ञानको व्यावहारिक के विषयमें वास्तविक सत्यको जाननेके लिए हमें सापेक्ष जीवनमें प्रयुक्त करनेकी ओर वह उन्मुख हुआ । आधुनिक (Relative) दृष्टिकोणोंका आश्रय लेना आवश्यक है। विज्ञान मनुष्यकी इसी प्रवृत्तिका प्रतिफल है । तबसे अब स्यावाद या अनेकान्तवाद इस प्रणाली द्वारा वस्तु-सत्यकी ओर तक मानवसमाजकी ज्ञानधारा समयकी अनेक पर्वतश्रेणियों पहुंचनेकी भूमिका है जो दार्शनिक और वैज्ञानिक है । किसी
और समतल मैदानोंमें प्रवाहित होती हुई चली आ रही है। भी दर्शनका अर्थ होता है, जीवनका अध्ययन उमकी व्याख्या समाजकी जागृति एवं उसके स्वास्थ्यके लिए यह अनिवार्य और माथ ही साथ विश्व और आत्मासंबंधी तत्वोंकाहै। मनुष्यके मस्तिष्क की अतृप्ति इससे दूर होती है। यह इनके रहस्य और सत्यका अनुशीलन और उद्घाटन । इम ज्ञानकी विकासधारा दार्शनिकताकी ओर उन्मुख होती है और उद्देश्यमें सफल होनेके लिए आवश्यक है कि हमारी विचारअन्तमें धर्मके-वस्तु-सत्य अन्वेषण और अपने विशिष्ट शैली सम्यक हो, निर्मल हो। हम हठयाही (dogmatic) स्वरूपमें तल्लीनताके अगम सागरमें मिल जाती है। इसी न ही आधुनिक विज्ञान भी किसी सिद्धांतके विषयमें यह लिए हम देखते है कि मानवने जितने भी साहित्यका निर्माण नहीं कहता कि यही सत्य है। उमका मदासे यह कथन रहा किया है उसमें मानवकी इस मानसिक व आध्यात्मिक भूख है कि अब तकके प्रयोगों (experiments) की दृष्टिसे की संतुष्टीका तत्व भी सम्मिलित है, और आजका विज्ञान यह सिद्धांत ठीक है । भविष्यमें होनेवाले अनुसंधान और भी जब सापेक्ष सत्य (Relative truth) को जानकर प्रयोगोंके फलस्वरूप यह सिद्धांत दूसरे रूपोंमें भी प्रस्तुत यह अनुभव करता है कि हम वस्तु-सत्य, निश्चय-सत्यसे बहुत किये जा सकते हैं। स्याद्वादका भी यही दृष्टिकोण है। दूर है तो आजका सबसे महान् वैज्ञानिक, सापेक्षवादका स्यावाद कहता है कि इन दृष्टिकोणोंसे वस्तुका यह स्वरूप
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है, और दूसरी दृष्टियोंमे वस्तु इम रूप नही---उमका म्वरूग उमुख हआ जा मकता है। किमी वस्तु के विषयमें पदि दूसरा है। इस शैलीसे अनेकान्तमें सात प्रकारके वाक्य स्थिर यह कहा जाय कि यह कटस्थ नित्य है--प्रत्येक दृष्टिकोणकी होते है जिन्हें सात भंग (seven aspects) कहा जाता अपेक्षा अक्षय है तो यह कथन ठीक नहीं। क्योंकि द्रव्य
की दृष्टिमे--अपन विशिष्ट गुणोंकी दृष्टिमे--वस्तु नित्य (१) स्यात् अस्ति--स्व (अपने) द्रव्यक्षेत्रकालभाव- है और परिवर्तनशील पर्यायों (various forms) की की अपेक्षा वस्तुका एक स्वरूप है।
दृष्टिम वस्तु अनित्य है-परिवर्तनशील है। विज्ञानके क्षेत्र(२) स्यात् नास्ति-पर (दूसरे) द्रव्यक्षेत्रकालभाव- में भी प्रकृति (Matter) (जिमे जैनधर्ममें पुद्गल कहा की अपेक्षा वही स्वरूप नही है जो स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावकी जाता है) कई पर्यायों-कई पी forms) में परिवर्तित अपेक्षा लक्षित होता है। जैसे यदि एक स्थल उदाहरण ले हो सकती है । पुद्गलका एक कण प्रकृति (Matter) तो पेंसिल अपने आकार-प्रकार आदिकी अपेक्षा गमिल है. से ऊर्जा : Energy) के रुपमं भी बदल मकना है लेकिन लेकिन फाउन्टेनपेनकी अपेक्षा नहीं है।
उसका अस्तित्व मदैव रहता है, वह निश्चय दृष्टिसे (३) स्यात् अस्ति नास्ति-किसी एक तीसरे दृष्टि- (absolutely) विनष्ट नहीं हो सकता। विज्ञानकी कोणकी अपेक्षा वस्तु है भी और नहीं भी है। यह उपरोक्त दृष्टिमें इस मात्राकी स्थिरताके सिद्धांत (Law of दोनों भंगोंका समन्वय है। जैसे उपरोक्त उदाहरणमे Conservation of Mass and Energy) की लिखनेकी उपेक्षा पेंसिल लेखिनी है और फाउन्टेनपेन भी अपेक्षामे वस्तु निन्य है-अक्षय (Indestructible) लेखनी है किन्तू दोनों एक तो नहीं है।
है, किन्तु अन्य दृष्टियोसे---उसमें क्रिया, प्रतिक्रिया और (४) स्यात् अवक्तव्य-वस्तुके विषयमें सम्पूर्ण रूपसे परिवर्तन होनेकी दष्टिमे--वस्तु अनित्य है, परिवर्तननिश्चित नहीं कहा जासकता-उसका निश्चय (absolute) शील है। स्वरूप लक्षित नहीं किया जा सकता। विश्वदृष्टाके संपूर्ण मापेक्षवाद और अनेकान्तवादकी तुलना करनेके पूर्व जानकी सीमामें ही वस्तुका पूर्ण स्वरूप लक्षित होता है। नयवादपर भी एक दृष्टि डाल लेना वाछनीय है, क्योंकि इस दृष्टिसे वस्तु अवक्तव्य-अकथनीय है।
म्यावाद ओर नय प्रणालीम कोई मैद्धान्तिक भंद नही(५) स्यात् अस्ति अवक्तव्य-किसी दृष्टिम वस्तु यह प्रणालियों एक-दूमरेकी पूरक है । म्यावाद जिम विषय'अस्ति' रूप है लेकिन अबक्तव्य भी है।
का एक विस्तृत मामान्य दृष्टिकोण (general view) (६) स्यात् नास्ति अवक्तव्य-किमी दृष्टिमे वस्तु समक्ष रखता है, नयवाद उमका एक विशिष्ट विश्लेषणात्मक 'मास्ति' रूप है और अवक्तव्य भी है।
म्वम्प उपस्थित करना है। इस प्रकार नयवाद म्याद्वादका (७) स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य-किसी दृष्टिमे ही विशिष्ट रूप है। ग्याद्वादके दाग हम बातुके मौलिक बस्तु 'अस्ति' गप भी है 'नास्ति' रूप भी है और अवक्तव्य गुणोके आधाग्मे विचार करते हैं जैसे कि द्रव्य (any
rcal cntity of universe) का लक्षण सत् है-- इस तर्क शैलीमे हम देखते है कि एक ही वस्तुम भिन्न- 'अस्तित्वमय' होना ही द्रव्यकी परिभाषा है । जिमम भिन्न गुण विभिन्न दृष्दिकोणोंसे लक्षित होते है। विश्व, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होते रहते है वही सत है-- प्रकृति, आत्मा इत्यादिके विषयमें इस शैलीमे ही पूर्ण अस्तिन्वमय है। इस प्रकार उत्पाद और व्यय (change विचार किया जा सकता है।
in forms) अथवा परिवर्तनशीलनाकी दृष्टिमे वस्तु जिस प्रकार सापेक्षवादके सिद्धात (Theory of अनित्य है और ध्रौव्य (Indestructibility) की अपेक्षा Relativity) के आगमनपर कई बड़े-बड़े वैज्ञानिकोंने वस्तु नित्य है। यह स्याद्वादकी शैलीसे वस्तुका सामान्य भी सापेक्षवादको आइन्स्टाइनके मस्तिष्ककी भूल कहा था, निरूपण हुआ। इसी प्रकारकी भ्रामक बातोंका आविर्भाव स्यावादको न नयवाद वस्तुके एक-एक अंगको ग्रहणकर उसका समझनेके कारण हुना है किन्तु यह प्रवाद उचित नहीं है निरूपण करता है । सामान्यतः नयके दो भेद हैं। एक बोर न इससे वस्तुके वास्तविक स्वरूपके ज्ञानकी ओर ही निश्चन-नय और दूसरा व्यवहार-नय। निश्चय नयका अर्थ
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अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद और ऊर्जाणुगामिकी
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है कि बस्तुके निश्चय (absolute) रूपका कथन नही (definition) से बिल्कुल मिलती है। किया जा सकता । निश्चयका अर्ष नकारात्मक कहा जा सात नयोंकी विस्तृत और सामान्यसे संकुचित और सकता है--अर्थात्, वस्तुके स्वरूपकी पूर्णता तक नहीं पहुंचा विशिष्टकी ओर उन्मुख होनेकी प्रणाली इस प्रकार है:जा सकता, यही निश्त्रय-नयका तात्पर्य है। सापेक्ष रूपसे- नैगम नय पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती पर्यायोका सामान्य दिग्दर्शन व्यावहारिक दृष्टियोंसे हम वस्तुके विषयमं आशिक ज्ञान है--मग्रहनय केवल वर्तमानकालीन पर्यायोंका दिग्दर्शन प्राप्त कर सकते है। यही नकारात्मक आधुनिक दार्शनिकोने है। मंग्रह सम्पूर्ण वर्तमानवी पर्यायोंको विषय करता है मी स्वीकार की है । 'यही कूटस्थ सत्य है ऐसा कोई भी और व्यवहार उसके एक-गक अंगका पृथक्-पृथक् विश्लेषण आधुनिक दार्शनिक नही कहता। अतः हमारा जान सत्य करता है । जुमूत्र केवल वर्तमानवी किसी एक मुख्य कहा जा सकता है-यह व्यवहारनय है । व्यवहारनय सात अवस्थाको ही विषय करता है। शब्दनय समयके अनुसार है-गम, संग्रह, व्यवहार, शब्द, समभिरूड और एवभूत। बस्तुके निर्देशको विषय करता है। समभिरुदनय एकार्थवाची इन सात नयांमे उत्तरवर्ती नयका विषय-क्षेत्र पूर्ववर्ती नामोका विश्लेषण करता है। एवंभूतनयका विषयनयकी अपेक्षा मूक्ष्मतर है-कम विस्तृत है । दूसरा नय क्षेत्र और भी संकुचित है; वह वस्तुका वर्तमानवर्ती क्रियाप्रथम नयकी अपेक्षा सामान्यसे विशिष्टकी और एक सीढ़ी की दृष्टिसे केवल एकागी निरूपण करता है। इस नय आगे है-उतरोत्तर इन नयोका क्षेत्र अधिकाधिक सूक्ष्म प्रणालीसे स्पष्ट है कि वस्तुके सर्वांगीण अध्ययनके लिए है। वर्तमान तर्कशास्त्र (Modern logic)को विश्लेषण- विभिन्न दृष्टिकोणोंका आश्रय लेना अनिवार्य है। प्रणाली भी इस नय-प्रणालीसे मिलती-जुलती है । प्रो० व्यावहारिक जीवन में भी स्यावादको षटित किया जा हरिसत्य भट्टाचार्यने अपनी पुस्तक A Comparative माना है। यदि 'अ' 'ब' 'स' तीन वस्तुएँ एक पंक्तिम Study of the Indian Science of Thought रखी हो, तो यदि ‘स की दृष्टिमे 'ब' दाई ओर है तो from Jain Stand-point.
'अ' की दृष्टि से बाई ओर। यदि हम एक ही दृष्टिसे 'ब' "The study of the nature of thc की स्थिति करना चाहे तो यह ठीक नहीं क्योंकि 'अ' और Nayas gives the principle of modern स' दोनाको अपेक्षासे उसकी स्थिति एक-सी नही है । इस European logic that the intension ofa प्रकार सभी कथन मापेक्ष होने है--विभिन्न दृष्टिकोणोसे term increasing, its extension decreases सत्य होते है। एक ही व्यक्ति विभिन्न सबंधियोंकी दृष्टिसे and vice tersa. The Naigama Naya gives भिन्न-भिन्न है । भानजेकी अपेक्षा मामा, मामाकी अपेक्षा what is called Definition in European भानजा, पत्लीकी अपेक्षा पति और पुत्रकी अपेक्षा पिता logic,it supplies the genetic definition of है, इसलिए किमी मनुष्यको सकेत करनेके लिए हम कहते consciousness and is exactly the definition है कि उसका पुत्र है, उसका पिता है, उस गाँवका निवासी per genus at deferention".
है, इत्यादि इत्यादि । यह एक साधारण-सी बात है कि एक साराश यह कि नयोका अध्ययन अर्वाचीन यूरोपीय ही वस्तु औषधि भी होती है और विप भी । इस प्रकार तर्कशास्त्रके सिद्धातका निरूपण करता है । परागीय सर्क- उसमें दो विपरीत गुण सापेक्ष रुपसे सिद्ध होते हैं। एक शास्त्रका सिद्धांत है कि जैसे-जैसे वस्तुका विश्लेषण किया गेगीकी अपेक्षा और मेवनविधिकी अपेक्षा वह औषधि है जाता है उसका स्वरूप संकुचित होता जाता है-वह और दूमरी अपेक्षाओसे विष । सामान्य (general) से विशिष्ट (particular) विज्ञानके क्षेत्रमे भी हमें इस प्रकारके उदाहरण मिलतं होती जाती है। हमारा विषयक्षेत्र विस्तृत और सामान्यसे है। यदि हम रेलगाड़ीमें चले जा रहे है तो किनारेके वृक्ष संकुचित और विशिष्ट होता जाता है। यही जनधर्मकी नय हम विपरीत दिशामें चलते दिखाई देते है यद्यपि भूमिकी सम्बन्धी विश्लेषण प्रणाली है। जैनधर्ममे कथित नंगमनय दृष्टिस वे स्थिर है । यदि दो रेलगाड़िया एक ही प्रवेगमे जो वस्तु के सामान्य संकम्प मात्रको विषय करता है उसकी समानान्तर दिशामें जा रही हो तो उनके यात्री एक-दूसरे यह परिभाषा वर्तमान तर्कशास्त्र ( logic) की को स्पिर दिखाई दंगे यद्यपि दोनोंके यात्री भूमिकी अपेक्षा
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अनेकान्त
गतिशील है। इन्ही बातोंका वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे सूक्ष्म हैं। उदाहरणार्थ यदि किसी संघनक (एक यन्त्र Conअध्ययन कर आइन्सटाइनने अपना सापेक्षवाद सिद्धात denser) पर कोई विद्युत्भार (बिजली Electri(Theory of Relativity)प्रस्तुत किया है। वैज्ञानिक cal charge) हो तो वह संघनक (condenser) लोम पहिले प्रकाश-ऊर्जा (Lightenergy) को अणुरूप एवं विद्युत्प्रभार पृथ्वीकी अपेक्षासे तो स्थिर हैं लेकिन मानते थे किन्तु बादमें कुछ प्रयोगोंके फलस्वरूप दे इस दरिमा (आकाश Space) की अपेक्षा गतिशील है क्योंकि निष्कर्षपर पहुंचे कि प्रकाश तरंग-रूप (Wave-form) पृथ्वीकी गतिके कारण पृथ्वीपर स्थित सभी वस्तुएं परिमा है। बाधुनिकतम प्रयोगोंकी दृष्टिसे अब यह माना जाता (आकाश Space) की अपेक्षा गतिशील है। विज्ञानका है कि किन्हीं प्रयोगों और घटनाओं (Phenomena) सिद्धांत है कि यदि कोई विद्युत्प्रभार स्थिर होता है तो की दृष्टिसे प्रकाश तरंग रूप है और किन्ही घटनाओं व उमके चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic field) प्रयोगोंकी दृष्टिसे अणुओंको धाराके रूप है । सापेक्ष- उत्पन्न नहीं होता लेकिन यदि वह विद्युत्भार गतिशील वादियोंका विचार है कि यदि दो संहतियाँ 'अ' और 'ब' होता है तो उसके चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो (Two systems A and B) एक-दूसरेकी अपेक्षा जाता है। उपर्युक्त विद्युत्प्रभारयुक्त संघनक (electriगतिशील हों तो हम यह नहीं जान सकते कि कौन संहति cally charged condenser) पृथ्वीकी दृष्टिसे स्थिर (System) स्थिर है और कौन गतिशील । इसीलिए है इसलिए इस अपेक्षासे वह चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न नहीं सापेक्षवादके सिद्धांतके आविष्कारके पश्चात् वैज्ञानिक कर रहा लेकिन वही संघनक वरिमा (Space) की लोग पृथ्वी और सूर्यकी गतिसम्बन्धी सिद्धांतको भी दृष्टिमे गतिशील है और इस अपेक्षासे वह अपने चारों ओर सापेक्ष मानने लगे है । आइन्स्टाइनने एक स्थलपर इस चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न कर रहा है। इस प्रकार एक ही समय आशयके विचार प्रकट किये हैं कि सूर्यके चारों ओर में एकही संघनक (condenser) चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न पृथ्वीको गति अथवा पृथ्वीके चारों ओर सूर्य की गति यह भी कर रहा है और चुम्बकीय क्षेत्र नही भी उत्पन्न कर रहा दोनों सापेक्ष सत्य है । केवल गणितकी सरलताके दृष्टिकोण- है। इसीको अनेकातवादकी भाषामें कहा जा सकता है से हम पृथ्वीको सूर्यके चारों ओर घूमता हुआ मानते है। कि स्वद्राव्यक्षेत्रकालभावकी अपेक्षा वस्तुके विषयमें
आधुनिक विज्ञानके क्षेत्र में सापेक्ष सत्यका एक बहुत 'स्यात् अस्ति' लक्षित होता है और परद्रव्यक्षेत्रकालसुन्दर उदाहरण जो अनेकांतवादके स्यातृ अस्ति और भावकी अपेक्षा वस्तुके विषयमें 'स्यात् नास्ति' लक्षित स्यात्नास्तिको स्पष्ट करता है श्री प्रो. जी. आर. जैनने होता है। अपनी पुस्तक CosmologyOld and New में दिया विज्ञानके क्षेत्रम सापेक्षवाद सिद्धात (Theory of है। कल्पना कीजिए कि दो संहतिया 'अ' और 'ब' Relativity) का आविर्भाव इसी प्रकारकी विचित्र (Two systems A and B) है। जिस प्रकार पूर्व- प्रतीत होनेवाली घटनाओं (Phenomena) से हुआ। लिलित रेलगाड़ीके उदाहरणमें एक संहति (System) मानलीजिए कि एक लम्बी रेलगाड़ी है जिसके एक दूसरे रेलगाड़ी (और उसके यात्री इत्यादि) है जो दूसरी संहति इम्बोंके बीच ऐसे दरवाजे हं कि वलती गाड़ीमें भी हम (System) भूमिवृक्ष आदिकी अपेक्षा गतिशील है। दोनों एक दूसरे डब्बेमे जाकने है। यदि रेलगाड़ी ३० मील संहतियों (Systems) में आपेक्षिक गति (Relative प्रति घंटाकी गतिसे जा रही है और रेलगाड़ीके सबसे Motion) है । यह हम ठीक प्रकारसे निश्चय नही पिछले डब्बेसे एक मनुष्य अगले डब्बेकी ओर २ मील प्रति कर सकते कि कौनसो संहति (System) स्थिर है घंटाकी गतिसे चल रहा है तो उस मनुष्यकी गति रेलकी
और कौन गतिशील । इतना नहीं जानते हुए भी हम पटरीपर किनारेके वृक्षों इत्यादिकी अपेक्षा ३०+२= देखते है कि दोनों संहतियों (Systems) की आपेक्षिक ३२ मील प्रति घंटा होगी क्योंकि ३० मील प्रति घंटासे गति (Relative Motion) के कारण एक संहति- रेल आगे बढ़ रही है और २ मील प्रति घंटासे रेलमें की प्टिसे निर्धारित किये हुए हमारे निर्णय व उपधारणाएं चलनेवाला वह मनुष्य आगे बढ़ रहा है और इस प्रकार (Postulates) दूसरी संहतिको दृष्टिसे गलत सिद्ध होती दोनोंकी गति जोड़नेपर हमे किनारेके वृक्षोंकी अपेक्षा
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अनेकान्तवाद, सापेक्षवाय और ऊर्जाणुगामिकी
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मनुष्यकी मति मिलती है । यह पूर्व स्थित प्रवैगिकी विज्ञानके क्षेत्रमें तीन मौलिक माप्य राशियां (Classical Dynamics ) का सिद्धांत है। अब (Fundamental measurable quantities) वैज्ञानिकोंने विचार किया कि प्रकाशकी गतिपर भी इसी मानी जाती है-आयाम (length), मात्रा (mass) प्रकार पृथ्वीकी गतिका प्रभाव पड़ना चाहिए। जिस दिशा- और समय (time) इन्हींके आधारसे सभी प्रयोग में पृथ्वी चल रही है उसी दिशामें यदि एक प्रकाशकी और सिद्धांत चलते हैं। सापेक्षवाद सिद्धांतके अनुसार किरण भी चले तो उस प्रकाश-किरण (Light-ray) की यह तीनों राशियां (quantities) सापेक्ष (Relative) गति साधारणतः प्रकाशकी गतिकी अपेक्षा अधिक होना मानी जाने लगी हैं। आधुनिक विज्ञानके प्रयोगोंसे स्पष्ट चाहिए। (साधारणतः प्रकाशको गति एक लाख छियासी सिद्ध होता है कि आयाम (length) सापेक्ष है। जैसे एक हजार मील प्रति सेकंड है।) प्रकाशकी गतिपर पृथ्वी- वस्तुकी लम्बाई ५ फुट मापी गई, यह ५ कुट लम्बाई की गतिके इस प्रभावको लक्षित (detect) करनेके सापेक्ष है क्योंकि यदि मापनी (Scale) और वस्तुमें लिए माइकेल्सन और मॉर्ले महोदयने अपना प्रसिद्ध प्रयोग सापेक्ष गति हो तो वस्तुकी लम्बाई ५ फुट न होकर कम (Michelson and Morley Experiment) या अधिक होगी। सापेक्षवादके अनुसार दो बिन्दुनोंकिया। अत्यन्त सावधानीपूर्वक कई बार प्रयोग दुहरानपर की दूरी (वस्तुकी लम्बाई) गतिकी दिशामें कम हो भी वे इस निष्कर्षपर पहुँचे कि प्रकाशकी गतिका पृथ्वी- जाती है। बात स्थूल दृष्टिसे देखनेपर स्पष्ट नहीं होती की गतिपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता यद्यपि पूर्व और म चालू सरल भाषांमें ठीक-ठीक कही जा सकती स्थित प्रवैगिकी (Classical Dynamics) के उपरोक्त है-केवल गणितकी भाषामें ही इसे हम व्यक्त कर सिद्धातके अनुसार पृथ्वीको गतिकी दिशामें प्रकाश- सकते हैं। लेकिन, "आयाम (length) सापेक्ष है" इस की गति अधिक होना चाहिए। इस प्रयोगके 'प्रकाशकी आधार पर यदि हम किन्ही सूक्ष्म प्रायोगिक परिणामो गतिपर पथ्वीकी गतिका कोई प्रभाव नहीं पड़ता' इस (Experimental results) को समझान (Interनिष्कर्षको समझानेके लिए आइन्स्टाइनने अपना सापक्ष- pret) का प्रयास करते है तो हम सही निष्कर्षापर वादसिद्धांत (Theory of Relativity) प्रस्तुत किया। पहुँचते है अन्यथा नहीं। इस सापेक्षवाद सिद्धान्तको मूल उपधारणा (Postulate) इसी प्रकार विद्वानके सापेक्षवादको दृष्टिमें समय यह है कि यदि हम दो सापेक्ष गतिशील (अर्थात् एक दूसरे (Time) भी सापेक्ष (Relative) है। मानलीजिए कि की अपेक्षासे गतिशील) संहतियों (Systems) में अलग आज दो मनुष्य मिलते है। इस समय दोनोंकी अवस्था अलग कोई प्रयोग एवं गवेषणा करें तो उन संहतियों की ठीक ६० वर्ष की है। एक वर्षका समय व्यतीत होनेपर सापेक्षगतिशीलताके फलस्वरूप दोनों संहतियों (Systems) वे फिर मिलते हैं। सामान्य दृष्टिसे उनके मिलनेके में लिए गये हमारे अवलोकन (Observations) और समयमे केवल एक वर्षका ही अन्तर है किन्तु अन्य दृष्टियोंपरिणाम (Results) एकसमान (Identical) नहीं से यह अन्तर भिन्न-भिन्न है-दोनों मनुष्योंके विषयमें होगे। जैसाकि विद्युत्प्रभार युक्त संघटक (Electri- एक वर्ष नहीं। सापेक्षवाद कहता है कि जो मनुष्य अधिक cally charged condenser) के उदाहरणमे पृथ्वी. चलता-फिरता रहा है और कार्य-व्यस्त रहा है उसकी को अपेक्षासे संघटक चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic field) अवस्था गतिसे तिजीसे) बढ़ी है और जो बहुत कम बलाउत्पन्न नहीं करता और वरिमा (आकाश Space) की फिरा है उसकी अवस्था कम गतिसे बढ़ी है और इस दृष्टिअपेक्षा वह संघटक चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करता है। से पहिले और दूसरे मनुष्यकी अवस्थाएँ एक वर्ष बाद सापेक्षवाद-सिद्धांतके उपर्युक्त निष्कर्ष सामान्य दृष्टिसे बराबर नहीं। इस सापेक्षवाद सिद्धांतके अनुसार एक ६१ विचित्र और स्थूलतः समझमें न आनेवाले प्रतीत होते वर्षसे अधिक अवस्थाका है और दूसरा ६१ वर्षसे कम हैं लेकिन विज्ञानके क्षेत्र में हम देखते हैं कि आधुनिकतम अवस्थाका । इसी प्रकार दो सापेक्ष गतिशील संहतियों प्रयोगोंको ठीक-ठीक समझनके लिए सापेक्षवाद-सिद्धांत (Systems) में समयकी माप (measure) एकसमान भनिवार्य है।
(identical) नहीं होगी। सापेक्षगतिशीलताके कारण
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एक संहतिमें समयका १ मिनिट परिमाण दूमरी मंहति- मेरे विचारसे अनेकांतवादके प्रथम नीन भंगों-प्यान् में १ मिनिटसे कम या अधिक होगा।
अस्ति, स्यात् नास्नि और स्यात् अस्ति नास्ति, की तुलना विज्ञानकी दृष्टिसे मात्रा और भार (mass and सापेक्षवाद सिद्धांतके निरूपणो (ideas) से इस प्रकार की weight) भी सापेक्ष है । एक वस्तुको यदि स्कन्द तुला जासकती है। मान लीजिए कि दो संहतियाँ (systems) (spring balance) पर बम्बईमें तोला आय और 'अ' और 'ब' है जो एक-दूसरेकी अपेक्षा गनिशील हैउसी वस्तुको उत्तरीध्रुव पर तोला जाये तो दोनों स्थानों- दोनों में सापेक्षगति (Relative motion) है। सापेक्षपर मापे गये उसके भार (weight) मे अन्नर होगा। वादके अनुसार इन दो सापेक्षगतिवाली मंहतियों भार (weight) की माप (measure) कंवल स्थान (systems) की अपनी-अपनी आयाम, मात्रा और समय की अपेक्षासे ही न्यूनाधिक नहीं होती अपितु और दूसरे (length, mass and time)की माप (standard) प्रतिकारक (factors निमित) भी भार (weight) होती है । एक सहतिको आयाम, मात्रा और ममयकी मापकी न्यूनाधिकतामें कारण होते है। जिम वस्तुम प्रवेग में दूसरी सहतिकी आयाम. मात्रा और ममयकी माप (velocity) कम या अधिक होता है उसका वजन असमान होती है । यदि उनमेसे एक संहति अ न्यूनाधिक हो जाता है। अधिक प्रवेगसे चलती हुई वस्तुका (System 'A') में कोई घटना होती है तो उस घटनाभार अधिक होता है। अणु विज्ञानके क्षेत्र में यह बात का तीन दृष्टिकोणोसे अवलोकन (observation) प्रयोगोंसे सिद्ध हो गई है कि यदि कोई अणु (atom) किया जा सकता है। एक तो वह घटना अपनी 'अ' स्थिर है तो उसकी मात्रा (बज़न mass) कम होगी, संहनिपर ही अवलोकिन (observed) की जा सकती यदि उसी अणमे प्रवेग (Velocity) हो तो उसकी मात्रा है। दूसरे वह 'अ' संहतिकी अपेक्षा गतिशील 'ब' सहति (mass) अधिक हो जायगी । यह बात भी स्थूल रूपसे (B system) परसे अवलोकित (observed) की बुद्धिगम्य नहीं प्रतीत होती लेकिन इसी सिद्धांतके आधार- आ सकती है। इस प्रकारके यह दो अवलोकन (obserपर आइन्स्टाइनने मिद किया कि प्रकृति (Matter) vations) ममान (identical) मही होंगे साकि ऊर्जा (Energy) के रूपमें परिवर्तित हो सकती है और सापेक्षवादके आधारपर आधुनिक विज्ञानने प्रयोगों द्वारा प्रकृति और ऊर्मा मूलत. एक ही द्रव्य है।
सिद्ध कर दिखाया है। उसी घटनाके विषयमें दोनों पूर्व ऊर्जा (Energy)=मात्रा(mass)x (प्रकाशकी गति) दृष्टिकोणोंका सन्तुलन करनेवाले एक तीसरे दृष्टिकोणसे E - mco
भी अवलोकन (observation) किया जा सकता है। बोर, मात्रा (mass) और ऊर्जा (energy) को अपनी ही संहति 'अ' किये गये अवलोकनसे उस वस्तुका संबंधित करनेवाले इसी समीकरण (E-mC) के स्वव्यक्षेत्रकालभावकी अपेक्षा अवलोकित 'अस्ति' रूप आधारपर अणुशक्ति (Atomic energy) और अणु- लक्षित होगा। दूसरी सापेक्षगतिशील 'ब' संहतिमें किये बम (Atom Bomb) का आविष्कार हुआ है। गये अवलोकनसे उस वस्तुका परद्रव्यक्षेत्रकालभावकी
विज्ञानके प्रयोगोंको समझने और सिखांनोका निरूपण अपेक्षा स्थिर किया गया 'नास्ति' रूप लक्षित होगा और करने में भी वैज्ञानिक लोग अचल और चल संहतियो सोसरे दोनो अवलोकनी (observations) का संतुलन (Fixed and moving systems) के आधारपर करनेवाले दृष्टिकोणसे उस वस्तुका 'अस्ति नास्ति' रूप चलते है। एक संहति प्रयोगशाला संहति (Laboratory लक्षित होगा। system) कहलाती है जो दर्शक (observer) की यदि बारम्भमें प्रस्तुत किये गये उदाहरणको लिया मपेक्षा स्थिर रहती है और दूसरी संहति मात्रा-केन्द्र जाय तो उसमें ३० मील प्रति घंटाकी गतिसे चलनेवाली संहति (Centre of mass system) कहलाती है रेलगाडीके डब्बे में २ मील प्रति घंटाकी गतिसे चलनेवाले जो दशककी अपेक्षा गतिशील रहती है । इन्हीं विचारोंके मनुष्यको सीन दृष्टिकोणोंसे अवलोकित किया जासकता बापारपर वैज्ञानिक लोग प्रयोगोंको समझाकर सिद्धान है। एक तो उसी डब्बे में बैठा हुआ कोई अन्य मनुष्य देखता प्रस्थापित करनेका प्रयास करते।
है जिसकी प्टिसे यह मनुष्य लगभग २ मील प्रति बराकी
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अनेकान्तबार, सापेक्षवार और ऊर्जाणुगामिकी
गतिसे चल रहा है। यह उस मनुष्यकी अपनी संहति 'अ' आविर्भावके साथ ही वैज्ञानिकोंको बहुत सूक्ष्मराशिया में किये गये (स्वदम्यक्षेत्रकाल भावकी अपेक्षा किये गये) (quantities) मापना (measure) पड़ी और भवलोकन (observation) का निष्कर्ष है (म्यान् इसलिए पूर्वस्थित रीतियां (Classical Methods) अस्ति भंग)। उमी मनुष्यको किनारेके किमी वृक्षपर अपूर्ण और अपर्याप्त (insufficient) प्रतीत हुई और बैठा हुआ एक मनुष्य देखता है और अपने अवलोकनके वैज्ञानिकोंको और दूसरे दृष्टिकोणोंका माश्रय लेनेकी फलस्वरूप वह कहना है कि रेलमें चलता हुआ मनुष्य आवश्यकता प्रतीत हुई। एक छोटेसे पुद्गलकण (Partiलगभग ३०+२=३२ मील प्रति घंटाकी गतिमे चल cle of matter) में असंख्य अणु (atoms) होते है रहा है। यह परद्रव्यक्षेत्रकालभावको अपेक्षा किये गये और इमलिए अणविज्ञानमें एक कणके असंख्य अणुओंकी अर्थात् 'अ' मंतिकी अपेक्षा गतिशील महति 'ब' में किये क्रिया (behaviour) को समझनके लिए सांख्यिकीय गये अवलोकनका निष्कर्ष है (म्यान नाम्नि भग)। इन दो रीनियां (Statistical methods) का प्रयोग करना दृष्टिकोणांका ममन्वय करके एक नीसरे दृष्टिकोणसे जो आवश्यक है। अबलोकन (observation) किया जायगा वह इन मानलीजिए कि हम एक अठन्नी उछाल रहे है तो नीचे दोनोंसे भित्र निष्का देगा । यह अनेकांनका म्यान अम्ति आनंपर वह चिन पड़ेगी या पट इस विषयक संभावनापर नाम्नि भंग कहा जासकता है।।
यदि हम विचार करेंनो स्पष्ट है कि चिन या पट गिरनेकी एक ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस प्रकार बराबर संभावना है । लेकिन, वास्तविक घटनामें यदि देखाअनेकान्तवादमें "अस्ति", "नास्ति" आदि भंगोंकी परिभाषा- गया कि वह पट गिरी तो चित गिरनेकी हमारी संभावना में स्व-पर (अपने और दूसरे) द्रव्यक्षेत्र कालभावकी (probability) गलत हो जाती है। इसी प्रकार यदि अपेक्षाका निर्देश है उसी प्रकार मापेक्षवादमें अपनी व हम ५० बार अठन्नी उछालं तो साधारणत. संभावना यह दूसरी संहतियों (Fixed and moving systems) है कि वह २५ बार चित गिरेगी और २५ बार पट गिरेगी के आयाम या क्षेत्र (length), मात्रा या द्रव्य (mass) लेकिन ऐमा भी हो सकता है कि वास्तवमै ५० बार अठन्नी व समय या काल (time) का निर्देश किया जाता है उछालनेपर ३० बार या ८० बार भी वह चित आवे और
और इन्ही अपेक्षायोसे विचार किया जाता है। अनेकांत- केवल २० बार या १० बार पट आवे, इसलिए यह वादके 'भाव' शब्दका पर्यायवाची अवश्य सापेक्षवादम नहीं जानते हुए भी कि चित या पट आनेकी बराबर सम्भावना मिलता। (मंभव है कि उत्तरवर्ती अनुसन्धानमें भावके है हमें निश्चय नहीं होमकता कि इनने बार ही वह पट पर्यायवाचीकी भी आवश्यकताका वैज्ञानिकोंको अनुभव हो।) गिरेगी। जानकी इमी अनिश्चितताके कारण असंख्य अणुओं स्वद्रव्यक्षेत्र और काल उस संहतिसे सम्बद्ध मात्रा, आयाम की क्रियाके अनमंधानमें मांग्यकीय रोनियां (Statistical व समय (mass, length and time) है जिसमें वस्तु methods) अपनानी पड़ती है। स्थिर (fixed) है जो वस्तुकी अपनी महनि है और इसी प्रकार ज्ञानकी अनिश्चितताके मितिका आश्रय परद्रव्यक्षेत्र और काल उम मंहतिम मम्बद्ध मात्रा, आयाम हमे आधुनिक अणुविज्ञानकी मूक्ष्म घटनाओके सम्बन्धमे व ममय (mass, length and time) है जो पहिली लेना पड़ना है क्योकि अमस्य अणुओकी क्रियाका अध्ययन महनिकी अपेक्षा गतिशील है।
विश्लेषण करने ममय उनके विषयमें हम उपसादित विज्ञानकी दृष्टिमे अनेकांतवादक म्यान अवक्तव्य आदि (approximate) लगभग ज्ञान ही प्राप्त कर सकते है । भगोंको ममअनेके लिए विज्ञानकी एक और आधुनिकनम उनकं विषयमें निश्चय (absolute) ज्ञान प्राप्त करना गणित प्रणाली ऊर्जाणुगामिकी (Quantum Mecha- असंभव है--यही निश्चयनयका दृष्टिकोण बोर महोदय nics) के आधारभूत सिद्धांतोंपर दृष्टिपात करनेकी (Bohr) के सपूरकत्व सिद्धांत (Complementary आवश्यकता है । इम शतान्दिके आरंभनक स्थलमापो Principle) में दिग्दर्शिन है। मंपूरकत्व मिद्धात यह है (measurements) के सम्बन्धर्म विज्ञानके मिद्धांतोके कि अणुविज्ञानके क्षेत्रम होनेवाली पटनाभोके विषयमें हम आधारपरमे ही निष्कर्ष मिलने रहे लेकिन अणुविज्ञानके निश्चिन सत्यको नहीं जान सकते । केवल इतना कहा
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२५०
- जनेशान्त
जासकता है कि अमुक दृष्टकोणको ध्यानमें रखने हुए यह संभाव्य (probable) निष्कर्ष है और निश्चय सत्य (absolute truth) जाननेके लिए हमें इस प्रकारके विभिन्न दृष्टिकोणोंके संभाव्य निष्कर्षोका समन्वय करना होगा ।
वैज्ञानिकोंको अणुविज्ञान सम्बन्धी सिद्धान्तोंमें ऊर्जागामिकी ( एक विशेष प्रकारका सूक्ष्म गणित जिसे Quantum Mechanics कहते है) के प्रयोगकी अनिवार्यताका निम्न खोजीके कारण अनुभव हुआ । जैमा कि पहिले संकेत किया गया है कि प्रकाश सम्बन्धी कुछ प्रयोगोंको समझने के लिए तरंगवाद ( Wave Theory of light) का आश्रय लेना पड़ता है और किन्ही प्रयोगों की दृष्टि से प्रकाशके विषय में अणुवाद (Corpuscular Theory of Light) सिद्ध होता है; * उसी प्रकार प्रकृति (Matter) या पुदगलके सम्बन्ध में एक विशेष प्रकारके प्रयोग (Experiments) विद्युत - व्याभंगप्रयोगों (Electron Diffraction Experiments) के द्वारा यह सिद्ध होता है कि किन्ही परिस्थितियों में सूक्ष्म पुद्गल कण तरंगों जैसी क्रिया करते हैं। इन प्रयोगों को समझाने के लिए आवश्यक है कि हम पुदगल कणोंसे मंचलित ( associated) किन्ही तरंगों (Waves) को मानकर चले और तभी उन प्रयोगोंके परिणाम ( Experimental Results) को समझाने ( interprot) में हम सफल हो सकते है । यद्यपि, वस्तुतः पुद्गल कणोंके साथ कोई तरंगें संवलित नही है और केवल प्रयोगोंमे मही निष्कर्ष निकालनेकी क्रियामें ही हम यह मानकर चलते हैं कि उनके साथ कोई तरंगें संवलित है । इम प्रकारकी विचार प्रणाली और सूक्ष्म गणित जिमे ऊर्जाणुगामिकी या तरंग गामिकी (Quantum Mechanics) या (Wave Mechanics) कहते है, अनेकान्तबादके अवक्तव्य, अस्ति अवक्तव्य इत्यादि सूक्ष्म और गूढ़ भंगोंकी कोटिमे आ सकते है ।
और भी, यदि हम ऊर्जाणुगामिकी (Quantum Mechanics) के मूल आधारोंमेंसे एक अनिर्धारिण
* प्रकाश तरंगवादके अनुसार यह मानते है कि प्रकाश तरंगोंके रूपमें चलता है और अणुवादके अनुसार प्रकाश ऊर्जाओं (प्रकाशके अणुओं) की धारा है ऐसा मानते हैं ।
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सिद्धान्त ( Indeterminacy Principle या Uncertainty Principle) की और दृष्टिपात करें तो हमें आधुनिक विज्ञानके क्षेत्रमें अवक्तव्यका सुन्दर भाष्य मिल जाता है। मान लीजिए कि हम एक ऐसा अपूर्व और आदर्श (Ideal) प्रयोग (Experiment) करते हैं जिसमें कि हम एक अणु (atom) की ऊर्जा ( energy) और समय (time) को निश्चयतः ठीक-ठीक ( most precisely) मापनेका प्रयास करते है । अब अणु बहुत छोटा होता है और हमारे मापनेके यन्त्र व साधन उमपर प्रभाव डालते है जिसमे कि उसकी ऊर्जा ( energy) न्यूनाधिक हो जाती है और इसका यह फल होता है कि हम जिस राशि (Quantity) को माप रहे थे, हमारे प्रयोगके फलस्वरूप वही न्यूनाधिक हो जाती है और हमारी ऊर्जा ( energy) और समय (time) को निश्चयतः ठीक (precisely ) मापनेका प्रयोग अंशतः असफल हो जाता है । इस असफलताका कारण हमारे यन्त्रों एवं साधनोंकी अपरिपक्वता नही अपितु जिस पर हम प्रयोग (Experiment) कर रहे थे उस संहति (system) की सूक्ष्मता है । वह इतना सूक्ष्म है-उम संहति में कोई ऐसी आन्तरिक विशेषता ( something inherent ) है कि हम उसके विषय में निश्चिन, पूर्ण एव सही (Precise) ज्ञान प्राप्त नही कर सकते। यही हाइसेनबर्ग महोदय का अनिर्धारण सिद्धान्त (Heisenberg's Uncertainty Principle है जो कहता हैं कि वस्तुके विषयमें हम केवल अपूर्ण, एकांगी और उपसादित (approximate) ज्ञान प्राप्त कर सकते हे बिल्कुल ठीक ज्ञान (Precise Knowledge) प्राप्त नही कर सकते । उदाहरणार्थ यदि हम यह जानना चाहे कि एक सुनिश्चित समयमें एक अणुकी ऊर्जा ( energy) कितनी होगी तो केवल हम संभाव्य व उपसादित (approximate) रूपसे ही ऊर्जाकी मात्रा जान सकते है, निश्चित नही कह सकते। यही अनेकान्तवादका स्यात अवक्तव्य नामक भंग है जो कहता है कि वस्तु स्वरूपकी गहनता एवं सूक्ष्मताके कारण उसके विषयमें निश्चय सत्यका कथन सम्भव नही ।
एक अन्य दृष्टिकोणसे भी अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद एवं ऊर्जाशुगामिकी (Quantum Mechanics) की तुलना सम्भव है । सामान्यतः सापेक्षवादका प्रयोग
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किरण अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद और ऊर्जाणुगामिकी
२५१ Cकिये बिना ही केवल ऊर्जाणुगामिकी (Quantum vity and Quantum Mechanics) और
Mechanics) का प्रयोग किया जाता है, लेकिन किन्हीं अनेकान्तवादके तुलनात्मक अध्ययनसे यह भी संभावना है कि अणुविज्ञान सम्बन्धी समस्याओंको सुलझाने-समझनेके विज्ञानके क्षेत्रमें सापेक्षवाद (Relativity) और ऊर्जाणुलिए सापेक्षवादी ऊर्जागुगामिकी (Relativistic गामिकी (Quantum Mechanics) को जो अलग Quantum Mechanics) का प्रयोग किया जाता अलग मूलसिद्धांतों एवं उपधारणाओं (Fundamental है। इस तथ्यके प्रकाशमें यदि अनेकान्तवादके सात principles and postulates) के आधारपर प्रस्तुत भंगोंका गहन अनुशीलन एवं मनन किया जाय तो सम्भव हुई हैं, उन्हें एक ही सिद्धांतकी समान भूमिकापर स्थापित है कि हम साधारण ऊर्जा गुगामिकी (Quantum किया जासके जिस प्रकार कि स्याद्वादके सातों भंग एक ही
Mechanics) को स्यात् अवक्तव्यका पर्यायवाची सिद्धांतकी पृष्ठभूमिका पर अंकित हैं। सिद्ध कर सकें और साथ ही जिस प्रकार पिछले पृष्ठोंमे सापेक्षवाद एवं ऊर्जाणुगामिकी (Quantum स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति एवं स्यात् अस्ति नास्तिका Mechanics) की उत्पत्ति (पुद्गल Matter and सापेक्षवादी दृष्टिकोण (Relativistic point of energy) के सूक्ष्म अध्ययनसे हुई है और अनेकान्तवाद view) से दिग्दर्शन करानेका प्रयास किया गया है. उसी आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे उत्पन्न ज्ञानपिपासाका प्रतिफल है; प्रकार स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य और लेकिन, मूलतः दोनोका दार्शनिक आधार एक ही प्रतीत स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्यको सापेक्षवादी ऊर्जाणु- होता है । स्याद्वाद आध्यात्मिक पृष्ठभूमिकामें वस्तुका विश्लेगामिकी (Relativistic Quantum Mecha- षण करता है और मापेक्षवाद वैज्ञानिक दृष्टिकोगोंसे केवल nics) की दृष्टिसे दिग्दर्शित किया जा सके।
पुद्गल (Matter and energy) के विषयमें वस्तु-सत्य___ अनेकान्तके स्यात् अस्ति अवक्तव्य आदि भंगोंको की सापेक्षता प्रदर्शित करता है । स्याद्वादका क्षेत्र प्रमुख सापेक्षवादी ऊर्जाणुगामिकी(Relativistic Quantum रूपसे आध्यात्म दर्शन है वह केवल उदाहरण देनेके लिए Mechanics) की भाषामें व्यक्त कर सकनेको संभावनाकी व्यवहारका आश्रय लेता है किन्तु सापेक्षवाद व्यवहारके ओर इस दृष्टिसे भी संकेत मिलता है कि सापेक्षवादी ऊर्जाणु- उदाहरणोंसे चलकर आगे वैज्ञानिकसत्य(Relative truth) गामिकोमें किन्हीं प्रयोग सिद्व घटनाओं (Experimental के घरातलपर दार्शनिकतासे वस्तु सत्य (absolute Phenomena) को समझाने (interpret) के लिए truth) की ओर बढ़नेका प्रयास करता है । स्यावाद इस यह उपधारणा (postulate) मानकर चलते है कि संपूर्ण प्रकार उच्च दार्शनिक पृष्ठभूमिकासे व्यवहारके धरातलको वरिमा (आकाश space) मे ऋणऊर्जायुक्त विद्युदगु देखता है और साक्षवाद व्यवहारकी नीवपर वैज्ञानिक सापेक्ष (negative energyelectrons) पूरी तरह भरे हुए सत्यकी आधारशिलासे वस्तु-सत्यके दर्शनकी ओर उन्मुख है और जैन धर्म भी मानता है कि लोक (space) का एक-एक है। इस प्रकार हम देखते है कि दोनों दो विभिन दष्टिप्रदेश (iota) पुद्गल परमाणुओसे भरा है। यद्यपि, लोक विन्दुओंसे चलकर एक ही दार्शनिक भूमिकापर मिलते है। किस प्रकारके पुद्गल परमागुओंसे भरा है ऐसा कोई नोट:-पारिभाषिक शब्दोंके लिए डा. रघुवीरके संकेत नही किया गया है जैसा कि सापेक्ष ऊर्जाणुगामिकी आङ्गल भारतीय कोषका उपयोग किया है । जैनधर्मके (Relativistic Quantum Mechanics) में मानते पुद्गल शब्दमें प्रकृति (Matter) और ऊर्जा (Energy) है कि वरिमा (आकाश space)में ऋण ऊर्जायुक्त विद्युदणु दोनों ही गभित मानकर चला गया है क्योंकि आधुनिक (Negative energyelectrons) भरे हुए है। विज्ञान (Matter) और (Energy) को एक ही द्रव्यकी
इस प्रकारके सापेक्षवाद व ऊर्जागुगामिकी (Relati- दो पर्यायें मानता है ।
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कविवर पं० दौलतरामजी
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री ) कविवर पं० दौलतरामजीका जन्म संवत् १८५० या तत्त्वचिंतन, सामायिक और सिद्धान्तशास्त्रोंके स्वाध्याय १८५५ के मध्यवर्ती समयमें सासनी जि. हाथरसमें हुआ जैसे प्रशस्त कार्यों में व्यतीत करने लगे। था। आपके पिताका नाम 'टोडरमल्ल' था । आपकी जाति आपका सैद्धान्तिक ज्ञान बढा चढ़ा था और आपको पल्लीवाल या पालीवाल थी और गोत्र था गंगीरीवाल; तत्त्वचर्चा करनेमें खूब रस आता था, वस्तुत्वका विवेचन परन्तु आप 'फतहपुरिया' नाम से उल्लेखित किये जाते थे। करते हुए उनका हृदय प्रमोदभावनासे परिपूर्ण हो जाता आपका विवाह सेठ चिन्तामणिजी अलीगढ़की सुपुत्रीके था। बीचमें श्रोताओके प्रश्न होनेपर उनका उत्तर बड़ी साथ हुआ था, उससे आपके दो पुत्र भी हुए थे। जिनका ही प्रसन्नताके साथ देते थे, श्रोताजन उनके सन्तोषजनक जन्म संवत् १८८२ और १८८६ में हुआ था। उनमें बड़े पुत्र- उत्तरोको सुनकर हर्षित होते थे और उनकी मधुरवानीका का नाम टीकाराम था और जो कुछ समय पहले लश्कर पान बड़ी भक्ति और श्रद्धाके साथ करते थे । आपने वस्तुमें रहते थे। और छोटा पुत्र असमय में ही अपनी स्त्री और तत्त्वका मंथन कर उसमे से जो नवनीत रूप सार अथवा एक पुत्रीको छोड़कर परलोकवासी हो गया था। थोड़े दिन पीयूष निकाला उसका अनुभव आपकी सं० १८९१ में बजाजीका कार्य हाथरसमें करनेके बाद कर्मोदयवश आप रची जानेवाली एक छोटी-सी कृति छहढाला से ही हो जाता अलीगढ़में रहने लगे थे। सं० १८८२ या ८३ में मथुराके है। इस ग्रंथका परिचय आगे दिया जायगा। सुप्रसिद्ध सेठ राजा लक्ष्मणदासजी सी. आई. के पिता सेठ आपने अपने जीवनको आध्यात्मिक सांचे में ढालनेमनीरामजी पं० चंपालालजीके साथ कारणवश हाथरस गये, का प्रयत्ल किया। आध्यात्मिक ग्रन्थोंके अध्ययन मनन एवं वहां उन्होंने मन्दिरजीमें कविवरको मोम्मटसारकी परिशीलनसे आपका जीवन ही बदल गया, उसमें नवचेतनास्वाध्याय करते हुए देखकर बहुत ही खुश हुए और उन्हे का जागरण हुआ और उसके धुंधले प्रकाशमें वे अपनी अपने साथ मथुरा ले आए और वहां उन्हें बहुत आदरके भूली हुई उस आत्मनिधिका दर्शन पानेके लिए उत्कंठित साथ रक्खा; परन्तु पडितजीको वह भोगोपभोग सम्पदा होने लगे। समता भावोंका चयन करनेके साथ वे शारीरिक भरुचिकर प्रतीत हुई, फलस्वरूप वे कुछ दिन बाद वहासे चेष्टाओंको केन्द्रित कर मन और वचनको भी जीतने एवं लश्कर और बादको सासनी अपनी जन्मभूमिमें आ गए। वशम करनेके सुदृढ़ प्रयत्नमें लग गए । आत्मनिन्दा और और सासनी से अलीगढ़ आकर छीटें छापनेका कार्य करने गहस्के साथ वे आत्मनिरीक्षण करनेका प्रयत्न करते थे लगे । छमाईका काम करते हुए भी आप अपने विद्याभ्यास और उससे ज्ञात दोषोकी तरफ दृष्टि डालते तथा उनके का अनुराग कम न कर सके, और चौकी पर जैनसिद्धान्त- शोधनके साथ-साथ भविष्यमें उनसे वचनेका बुद्धिपूर्वक के ग्रंथ रखकर छपाईका काम करते हुए भी ५० या ६० पूरा-प्रयत्न भी करते थे। कभी २ एकान्त स्थानमें बैठकर पद्य रोजाना कण्ठस्थ कर लेना आपका दैनिक कर्तव्य था। वस्तुस्थितिका विचार करते समय शरीरके स्वरूपपर आप संस्कृतके अच्छे विद्वान् थे और आपमें विवेक था तथा दृष्टि डालते और विचारते कि यह शरीर घिनावना हैजैनसिद्धान्तके परिज्ञानकी थी बलवती भावना उस समय मलसे पूरित है, जड़ है, माता पिताके रज और वीर्यसे आपके कुछ पूर्वकृत कर्मका अशुभोदय था जिसे आपने निष्पन्न होने वाली मल फुलवारी है । हाड़ मांस और नसाविवेक और धैर्यके साथ सहा। कुछ दिनोंके पश्चात् पंडितजी जालकी रक्तरंजित लाल क्यारी है, चर्मसे मढ़ी होनेके अलीगढ़से देहली आ गए और देहलीमें साधर्मीवात्सल्य कारण ऊपर से सुन्दर-सी प्रतीत होती हैं। परन्तु धन प्रेमी सज्जनोंकी गोष्ठीको पाकर अपना अधिकांश समय और धर्म चुराने वाली है, स्वेद ( पसीना) मेव
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फिरण]
(चरबी) और कफको और कफको बहुत दुःखदायी तथा मदरोग-रूपी सर्पको पिटारी है। जितनी जितनी चन्दनादि पावन वस्तुओंका इससे सम्पर्क एवं संयोग हुआ उन सबको इसने अपवित्र और विकृत बनाया है। जबतक इस अशुचिशरीरका संयोग रहता है तबतक यह बात्मा संसाररूपी रोगसे ग्रसित रहता है । और आशा पाशमें बन्धकर अपनेको कर्म बन्धन से बांधनेका प्रयत्न करता रहता है । और जिस तरह मकड़ी अपने ही मुंहसे निकले तन्तुजालसे बन्धकर अपने प्राणोंको भी खो बैठती है । किन्तु जब इस शरीरका सर्वथा वियोग हो जाता है--ध्यानादिके द्वारा जब आत्मा जन्म मरणादिरूप विषमदोषों को जला देता है, उनका आत्मासे ऐसा आत्यन्तिक विछोह कर देता है कि फिर वे भविष्य में उस ओर झांक भी न सकें-तब आत्मा अपने स्वरूपको पा लेता है। इसी कारण विद्वान लोग उससे ममता नही करते ; किन्तु वह मूढ पुरुषोंको प्यारी लगती है--वे रातदिन उसको ही पुष्ट करने और उसे साफ सुथरा बनाने के प्रयत्न में लगे रहते है वे अपने स्वरूप की ओर कभी दृष्टि पसार कर भी नही देखते। जिन जीवोंने इस शरीरको ही पुष्ट करनेका प्रयत्न किया है--उसीकी सेवामें अपना सर्वस्व अर्पण किया है वे ही दोषी हुए और उन्होंने ही भव-परम्पराके अनेक असह्य कष्ट भोगे और भोग रहे हैं। परन्तु जिन विवेकी पुरुषोंने इस जड़ शरीरके रहस्यको जान कर तपश्चर्या और आत्मध्यानके द्वारा उसका शोषण किया है उन्होने ही स्वात्मोपलब्धिरूप अमृतका पान किया है और कर रहे है इस तरह कविवर अपने शरीरकी स्थितिका विचार करते हुए और अपनेको सम्बोधित करते हुए कहते है कि हे दौलतराम यह शरीर इन्द्रधनुष, शरदऋतुके बादल, और पानीके बुलबुलेके समान शीघ्र ही विनष्ट होने वाला है तू इस शरीरसे अपनी चैतन्य आत्माको भिन्न जानकर समताका धारी बन—स्व-पर-वैरी राग-द्वेष रूप विभाव भावोंका परित्यागकर जो तेरी आत्मनिषिके घातक हैं।
कविवर पं० दौलतरामजी
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अन्य किसी दिन आत्मस्वरूप पर दृष्टि डालते हुए पंचेद्वियोंके विषय और उन विषयोंत होने वाली रतिसे हानिका विचार कर उनसे विरक्तिद्वारा आत्मरसके आस्वादन की महिमाका ध्यान करते हुए एवं अपनेको समझाते हुए मनमें कुछ गुनगुनाते हुए कविवर कहते है
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"अव अद्भुत पुण्य उपारो, कुलजात विमल तू पायो । बातें सुन सोख सयाने, विवयनिसा रति मत ठारे ॥ जाने कहा रति विश्वमें ये विश्म-विषधर समो यह देह मरत अनन्त इनको स्याग आतम-रस पत्र । या रस रसिक जन वसे शिव अब बरें पुनि बसि हैं सही ॥ 'दौल' स्वरचि पर विरचि सतगुरु शील उर मित पर यही ।। हे दौलतराम ने महापुष्यसे उत्तम कुल और उच्च जातिमें जन्म लिया है। कर्मोदयसे शरीरको सुख कर सातारूप सामग्रीका भी तुझे लाभ हुआ है, और पंचेन्द्रियों के विषयोंके योग्य भोग्य सामग्रीका संयोग भी मिला है । यद्यपि तू चतुर है परन्तु तो भी तू उनमें संलग्न होकर कदाचित् अपनेको न भूल जाय, अतः यह सीख सुनो, पंचेन्द्रियोंके विषयोंमें रति मत करो, क्योंकि ये विषय विषम विषधरके समान है-- विषधरके उसनेसे इस शरीरका एक बार नाश होता है किंतु इनके सेवनसे इस शरीरका अनन्त बार विनाश होता है । अतः तेरी भलाई इसीमें है कि तू इनका त्याग कर निजात्म-स्वरूपका वह अद्भुत रस चख । जिस स्वानुभवरूप रसके रसिक जन कर्म कलंक रूप 'अन्तर' बाह्य कालिमाको जलाते हैं-विनष्ट करते हैं और स्वरूपको प्राप्त करते हैं-मुक्तिके अधिकारी बनते हैं। बने हैं, और बनेंगे। अतएव त् पर रतिका त्यागकर स्वरूपानुभव मे रति कर -- निजात्माके ध्यान द्वारा स्व-परका स्वामी वन यही सत् गुरुकी सीख है जिसे तू सदा हृदयमे धारण कर । तू अपने दिलकी कपाटी खोल, और अपने शायक भावकी ओर देख तेरा स्वरूप कर्मको दलदलसे लिप्त है यह विकृत और अशान्त हो रहा है उससे निकलनेके लिये छटपटा रहा है। तू ज्ञानी होकर और बड़ी कठिनतासे इस मानव जन्मको जिनधर्मको पावन गंगामें अवगाहन किये बिना ही विषयोंकी लालसामें खो रहा है जिस तरह मणिके अमूल्य मूल्यको न समझ कर कोई मूर्ख उसे समुद्रमें डाल कर पीछेसे पश्चात्ताप करता है रोता और विलाप करता है; परन्तु वह मणि पुनः हाथमें नही माता उसी तरह यदि ने भी यह नर भव यों ही खो दिया, सम्यग्दर्शन रूप मणिको प्राप्त नहीं किया, तो तुझे भी केवल पश्चात्तापको बाहमें जलना और कष्ट उठाना होगा। फिर पछतानेसे क्या लाभ हो सकता है !
अन्य किसी दिन ध्यान मुद्रायें अवस्थित कविवर आत्मस्वरूपका चिन्तन करते हुए ज्ञानानन्दमय परमात्म
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अमेकात
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स्वकपका और उनके अनन्त गुणोंके विचारमें निमग्न हुए इधर-उधर घूम रहा हूं अब मेरा क्या कर्तव्य है । इन गुणानुरागके बावेगको न रोक सके, और भक्ति-उद्रेकमें चक्षुरादि इंद्रियोंसे में जो कुछ भी देखता जानता हूं वह कह उठे।
मेरा रूप नहीं, जो कुछ मुझे दीख रहा है वह सब पुद्गलका तुमबह पतित सुपावन कीने, क्यों न हरो भव संकट मेरे। परिकर है, परिणाम है और जड़ है, मै भूलसे उसे ही प्रम उराषिहरशम-समाधि, कर बोल भये तुमरे मवचेरे॥ आत्मा समझता था, मै चैतन्य द्रव्य हूं, और मेरा
हे जिनेंद्र ! आपने कर्म समूहका नाश कर उस स्वभाव ज्ञाता-दृष्टा है। उनमें राग विरोध करना वीतराग निजानन्द निराकुल आनन्दको प्राप्त किया है। मेरा कार्य नही और न वह कभी मेरा स्वरूप हो ही सकता है। और अनन्त जीवोंको उस मार्गका पथिक बनाकर-आत्मा- मेरी आत्माके अहित करने वाले विषय और कषाय है। के वास्तविक चिदानन्द स्वरूपका भान कराकर भव दुःख- मै इनमें प्रवृत्ति करके ही दुःखका पात्र बना हूं। जब एक से उन्मुक्त किया है। जिन्होंने आपकी शरण ग्रहण की है, एक इन्द्रियके विषय प्राण घातक है तब पांचो इंद्रियोंके विषय उन्होंने जन्म जरा-मरण रूप भयंकर रोगोंका नाश कर किन-किन अनिष्टोंके जनक और दुख दाई न होंगे यह कल्पना अज-अजर और अमरता प्राप्त की है। और जिन्होने भी अमित दुखका कारण है' इसी तरह आत्माकी कल्मषआपकी शरण छोड़ दी है वे चतुर्गति रूप संसारमे भ्रमण करते परिणति संसार-व्याधिको बढा रही है। हुए महान् विपदाओंके पात्र बने है । आप ही ससारी जीवोके यह सकषाय परिणति ही कर्मबंधको सुदृढ़ और सरस हितैषी एवं अकारण बन्धु है दयालु है, अहिसा रूप परम- बनाती है जिससे मेरा आत्मा कर्मबंधनसे नही छूट बाकी पूर्ण प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए है मुझे चिरकालमे विधि पाता। सासारिक विषय और यह कषायभाव ही बन्धकराल-काल रूपी काल घेरे हुए है, अतः आप मेरे दुखोंको परम्पराके जनक और अत्यन्त दुःखदायी है। मेरी ज्ञानरूपशीघ्र टालनेका प्रयत्न कीजिये । संशय विभ्रम और मोह रूप निधिके घातक है। अतः मै बुद्धिपूर्वक इनमें प्रवृत्त न होऊ त्रिदोषोंने मुझे संसार वनमे भटकाया है, दुखी किया है, इसी मे मेरा हित है। यदि कदाचित् बिना किसी प्रयत्नके
और मै उन दोषोंकी कुसंगतिसे अपने स्वरूपको भूल गया हू ये विभाव भाव उदित भी हो जायें तो भी मै उनमें रागपर मै आत्माकी कल्पना करने लगा, राग-द्वेष रूप उपाधि- विरोध रूप प्रवृत्तिको जमनेका अवसर न दूं यही मेरा पुरुभावोंको अपना स्वरूप -समझ और मोहमदका पान कर पार्थ है। हे जिनेन्द्र यही मेरी बह वेदना है जो मुझे बेचैन किये पंचेंद्रियोंके विषयों में चिरकालसे मान रहा, और दुःखका पात्र देती है । अतःआप वह मुबुद्धि दीजिये अथवा आपके सानिध्यबनता रहा । आज मैं भाग्योदयसे आपका दर्शन पाकर से मेरी आत्मामे वह अत्मबल जाग्रत हो जिससे मै कर्मचिरकालके उस भारी सतापको भूल गया-मुझे भूली बन्धनसे उसी तरह अपनेको जुदा करनेमे समर्थ हो सकू हुई उस निज निधिका दर्शन हुआ, जिसे मैं असेंसे पानेका जिस तरह म्यानसे तलवार अलगकी जाती है। हे वीतराग इच्छुक था, मुझे अब यह निश्चय हो गया कि आप ही मेरे विज्ञानधन! भव दुःखसे उन्मुक्त करने में आप ही मेरे भवदुख मेटने में समर्थ है-जन्म-जरा-मरण रूपवेदनासे निमित्त कारण है आपकी वह प्रशान्त मुद्रा मुझे स्व-पर उन्मुक्त कर सकते है, अतः मुझे वह उपाय बतलाइये जिससे स्वरूपके पिछान करने में निमित्त हुई है । अब मेरी आत्मा में कर्मको उस महासेनाका दमन करने में समर्थ हो सकू। में शिवराहके लाभको आकांक्षा हुई है-मैं सम्यग्दर्शन, मुझे संसारके अन्य किसी वैभव और भव-सुखोकी बाछा नही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप आत्मनिधिके प्राप्त है, और न उस वाछाको आप पूरा ही कर सकते है । क्योंकि करनेका अभिलाषी हुआ हू-हिंसा और रागद्वेषादि रूप आप अकिंचन और वीतारागी है, कर्मजयी और समताके असयम भावोमें मेरा उत्साह क्षीण होता जा रहा है। सांसाआकार है मैने उनका अनन्त पर्यायोंमें उपभोग किया है, परन्तु रिक भोग भुजंगके समान दुःखद प्रतीत होते है। उनकी उनसे तृप्ति नहीं हुई। उल्टी मेरी तृष्णा बढ़ती ही गयी और अभिलाषा दूर करनेके लिए तो तीन लोककी संपदा भी मैं चाह-दाहकी भीषण ज्वालामें जलता रहा हू । अब मुझे थोड़ी है। जिन्होने उससे ममता तोड़ी, ही सुखी हुए हैं तुझे अपनी चिर भूलका पता चला है मैं कौन हूं क्या मेरा रूप भी सुखी होना है तो तू भी वही प्रयत्न कर । ध्यान और है, और मेरा स्थिर बास कहां है ! मै किस कारणसे समाधिके द्वारा कर्ममलको जलाने या नाश करनेका प्रयत्न
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पिरल-1]
कविवर पं०ौलतरामजी
कर । ज्ञान और वैराग्य ही हितकारी हैं अब मुझे अपनी उस गहन तत्त्वोंका सरल एवं संक्षेपमें जो नवनीतामृतरूप सार आत्मनिधिका भान हो चुका है। इसीकारण मैने आपकी निकाला गया है वह हृदयस्पर्शी, और गम्भीर है तथा अन्तशरण ग्रहण की है आप जैसा संसारमें पतिततार नही सुना। स्तलको निर्मल ही नहीं बनाता, किन्तु वह समता और अतएव मेरी यही अरदास है कि मेरा फिर भववास न हो। आत्मकर्तव्यकी ओर भी आकृष्ट करता है। हे दौलतराम ! तू पुण्य पापके फलमें हर्ष-विषाद क्यो करता कविवर दौलतरामजीने तीसरी ढालके १५ वें छन्दमें है-क्षणमे रोता और क्षणमें हंसता है-निज कर्तव्यको अन्तरात्मा अविरतसम्यग्दृष्टिकी आत्म-परिणतिका उल्लेख क्यो नही संभालता और संयमरूपी जल लेकर अपने करते हुए लिखा है:-- कलिमलको क्यों नही धोता? इस तरह कविवर स्वरूप- दोष रहित गुण सहित सुषी जे, सम्यकदर्श सर्व है। चिंतन करते हुए अपनी आत्माको बार-बार सम्बोधित कर चरित मोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जज हैं। स्वपरमें रहनेके लिए सावधान करते देखे जाते हैं। उनकी गेही पं गृहमें न र ज्यों जलमें भित्र कमल है। आध्यात्मिक पदावली उनकी निर्मल आत्मपरिणतिको नगरनारिको प्यार यथा का-ये में हेम अमल है ॥१५॥ अभिव्यंजक है। उन्होंने जो अपनी आत्मभावना व्यक्त की जो बुद्धिमान् पुरुष पच्चीस दोषोसे रहित और सम्यहै उसका निर्दशन निम्न पदसे होता है :--
कत्वके निःशंकत्वादि आठ गुण सहित सम्यग्दर्शनसे शोभायमेरे कब है है वा दिन को सु-घरी॥
मान है । यद्यपि चरित्र मोहनीय कर्मके उदयसे वह लेशमात्र तन विन बसन असन विन बनमें, निवसों नासादृष्टि परी भी सयम धारण नहीं करता-उसके संयम धारण करनेकी पुण्यपाप परसों कब विरचों, परचों निजनिषि चिर-विसरी। हृदयमें उत्कट भावनायें उदित होती रहती है परन्तु तो भी तज उपाधि सजि-सहज-समाधी, सहों धाम-हिममेघशरो।२ चरित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियोंके उदयसे उसको आत्मकब थिर जोग घरों ऐसो मोहि, उपलजान मुग खाजहरी। परिणति मकानके ऊपर स्थित ध्वजाके समान चचल रहती ध्याम-कमान-तान अनुभव-शर, कादिन छेदों मोह अरो ॥३ है इसी कारण वह अपनी भावनाको मूर्तरूप देने में असमर्थ कब तण कंचन एक गिनों अरु, मणिजड़तालय लबरी । रहता है तो भी वह अपनी निर्दोष आत्मदृष्टिके कारण 'दौलत' सतगुरु चरन सेव जो, पुरवं आश मह हमरी ॥४ देवेन्द्रोंसे पूजित होता है। वह घरमे रहता हुआ भी जलमें
इस तरह कविका आध्यात्मिक पद संग्रह उनकी आन्त- कमलके समान अलग रहता है. उसमे उसका राग नही रिक- निर्मलता और आत्मानुभवको सरस भावनाका होता । घरमै उसका प्रेम नगरनारी (वेश्या). के समान प्रतीक है। आध्यात्मिकताका वह मधुररस उनके पद-पदमें होता है जिस तरह वेश्याका प्रेम पैसे पर होता है पुरुष समाया हुआ है। साथ मे देह-भोगोकी नि सारताको व्यक्त पर नही, इसी तरह सम्यग्दृष्टिका प्रेम अपनं आत्मलक्ष्यपर करते हुए निर्वेदभावनाका जनक है। उसे पढते ही आत्मा एक रहता है, गृहादि पर वस्तुओसे नही। अथवा कीचडमे पडा प्रकारके आनन्दमें लीन हो जाता है जो अनिर्वचनीय है। हुआ सोना जिस तरह निर्मल रहता है फिर उसमें कालिमा
आपकी दूसरी कृति छहढाला है जिसे पढ़कर पाठक का प्रवेश नही हो पाता, उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी घरमें निजानन्दरसमे मग्न हो जाता है, उसका हृदय आनन्द-विभोर बसता हुआ भी उदासीन ही रहता है। हो उठता है और वह कुछ समयके लिए अपनेको सर्वथा चतुर्थ ढालमे कविने सम्यग्ज्ञानके महत्वको प्रकट करते भूल जाता है तथा अपने चिदानन्द स्वरूपका स्मरण आते हुए तत्त्व अभ्यासकी प्रेरणाके साथ ज्ञानके दोषोके त्यागका ही उसे जानने और प्राप्त करनेके प्रयत्नमें लग जाता है। सकेत करते हुए मनुष्य पर्याय उत्तम कुल और जिनवाणीकविवर दौलतरामजीने इस कृतिमें-छहढालो, चालो के श्रवनको 'सुमणि' ज्यो उदधि समानी' के समान दुर्लभ अथवा छन्दोंमें जीवकी चाह, चतुर्गतिके दुःख, उनका बतलाया है । साय ही कर्मोदयसे प्राप्त वैभव और राज्यादि कारण, सुखका स्वरूप और सुखप्राप्तिके कारणोंके साथ सामग्री आत्माके किसी काम नहीं आती किन्तु ज्ञान जब दुःखोसे छुटकारा पानेके उपाय-स्वरूप-सम्यग्दर्शन, सम्यर- अपने आत्मस्वरूपको पाकर निश्चल हो जाता है। अपने जान और सम्यक् चारित्ररूप श्रावक और मुनिधर्मका बड़ा ज्ञानस्वरूपमें ही रम जाता है । उस आत्मज्ञानका कारण ही सुन्दर एवं मार्मिक विवेचन किया है। जैनसिद्धान्तके स्व-परका विवेक है । उस विवेकज्ञान (भेदज्ञान) को करोड़
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उपाय बनाकर भी हृदयमें अवधारण करनेकी प्रेरणाकी और साहस कर यह सीख मानो कि जबतक तेरा जरारूपीहै क्योंकि जिन जीवोंने आत्मस्वतन्त्रता प्राप्त की है और रोग न आवे तबतक शीघ्र ही निजहित करो। यह जीव करेंगे वह सब भेदज्ञानसे ही प्राप्त हुई हैं। संसारके प्राणी रागरूपी आगमें सदा जल रहा है अतएव समतारूपी अमतविषयोंकी चाह रूपी आगमें जल रहे है उस चाह-दाहके का सेवन करना चाहिए, और चिरकालसे सेवन किये बुझानेका एकमात्र उपाय ज्ञान धन-धान' के सिवाय अन्य हुए विषय-कषायोंको छोड़कर अपने चिदानन्द टंकोनही है। यह अज्ञानी जीव पुण्य-पापके फलमें हर्ष-विषाद कीर्ण एक ज्ञायकभावका अनुभव कर । पर पदमें क्यों राग करता है । सो यह पुण्य-पाप पुद्गलकमको अवस्थाएं हैं वे कर रहा है, यह तेरा पद नहीं है तू किस लिए दुःख सहता है। कभी उत्पन्न होती और नष्ट हो जाती है-स्थिर नही रहतीं। हे दौलतराम ! अब तू सुखी हो और स्वपदमें रच-स्वस्वहे दौलतराम ! लाख बातकी यह बात है कि तुम संसारके रूपमें मग्न हो-यह दाव अथवा अवसर मत चक । सम्पूर्ण दंद-फंद (विकल्पजाल) को छोड़कर निरन्तर कविवरने सं० १९१० में माधवदी चतुर्दशीके दिन अपनी आत्माका ध्यान करो। इस तरह यह सारा ही ग्रन्थ गिरिराज सम्मेदशिखरजीको यात्रा कर अपने जीवनको जैनसिद्धान्तके गंभीर रहस्यका उद्भावक और हिन्दीकी सफल बनाया था, और उसकी स्मृतिमें एक पद भी बनाया भावपूर्ण कविताको लिए हुए है।।
था। भगवान पार्श्वनाथकी वंदना कर हृदयमें विचार किया अब कविवर अपनी आत्माको सम्बोधित करते हुए कि हे भगवान् । कब वह अवसर पाऊं जिस दिन मैं स्वस्वकहते हैं:
रूपका अनुभव कर पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करूं। " 'बोल' समक्ष सुन चेत सयाने, काल व्या मत खोवे,
इस तरह कविवरने देहलीमें उसके बाद १०-१२ वर्ष यह नर भव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहि होवे" ॥ और जीवनयापन किया। उनका जीवन बड़ा ही सीधा-सादा "मुख्योपचार दुभेव यों बड़भागि रत्नत्रय पर, और आडम्बरहीन था। दुनियाके भोगभाव उन्हें असुन्दर अब परंगे ते शिव लह तिन सुपश जल जगमल हरे ॥ प्रतीत होते थे। और प्रकृतिके प्रतिकूल पदार्थोके समागम इमिमानि मालसहानि साहसठानि यह सिख आदरो ।। होने पर भी उनमें उनकी अरुचि तो रहती ही थी। पर उसकी जबलोंमरोग जरा गहै, तबलों सटिति निज हित करी॥ चर्चा करना भी उन्हें इष्ट नहीं था। यह राग आग बह सदा तातें समामृत सेहये ।
कहते है कि कविवरको एक सप्ताह पहले अपनी मृत्युके चिर भजे विषय कवाय अब तो त्याग निजपद बेहये।
समयका परिज्ञान हो गया था, उसी समयसे उन्होंने अपना कहा रख्या पर पदमें न तेरो पर यह क्यों दुख सह ।
समय और भी धर्मसाधनमें बितानेका प्रयत्न किया और अब 'दौल' होऊ सुखी स्वपद रचि, दाव मत चूको यह ॥"
कुटुम्बियोंके प्रति रहा सहा मोह भी छोड़नेका प्रयास किया। हे दौलतराम ! तू चेत और अपने अमूल्य समयको
सं० १९२३ या २४ में ठीक मध्यान्हके पश्चात् इस नश्वरव्यर्थ मत खो, यदि इस जीवनमें सम्यकत्वको प्राप्ति नही हुई
शरीरका परित्याग कर देवलोकको प्राप्त किया। उसी दिन तो इस मानव पर्यायका मिलना कठिन है । जो पुण्यात्मा
गोम्मटसारका स्वाध्याय पूरा हुआ था। उन्होंने अपने जीव निश्चय-व्यवहार रूप रत्नत्रयको धारण करते है और
शरीरका त्याग महामत्रका जाप करते करते किया था। करेंगे वे मोक्ष पाते है और पावेंगे । उनका यशरूपी जल संसारमलको दूर करेगा, ऐसा जानकर आलसको छोड़कर
देहली, ता. ५-५-५२
सूचना-साहित्य परिचय और समालोचन अगली किरण में जावेगा-प्रकाशक
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जैन साधुजनोंके निष्क्रिय एकाकी
साधनाकी छेड़छाड़
(श्री दौलतराम 'मित्र') आजकल लोगोने एक रिवाज-सा बना लिया है कि "योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। अपनेसे भिन्न प्रकारकी सेवा (भले ही वह अधिक उत्तम एकाकी यत् चित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥" हो) करनेवालोंको कुछ तो भी भलाबुरा कहना।
( गीता ॥१०) अर्थात् इन्दौर मे ता०६-४-५२ को "अखिल विश्व
अर्थ-चित्त स्थिर करके वासना और संग्रहका त्याग जैन मिशन" के प्रथम अधिवेशनके अध्यक्ष श्री रिषभदासजी करके अकेला एकान्तमें रहकर योगी निरन्तर आत्माको रांका वर्षावालेने भी उक्त रिवाजका आश्रय लेकर जन परमात्माके साथ जोड़े। साधुजनोंके निष्क्रिय एकाकी साधनाकी छेड़-छाड़ की है।
"विविक्तवेश सेविस्वमरतिजनसंसदि ॥" उनका कहना हुआ कि--
(गीता १३३१०) "जिस प्रकार ईसाई साधु प्रत्यक्ष सेवाका काम करते
"एतवानमिति प्रोक्तमज्ञानं यवतोऽज्यया ।" है वैसे ही हमारे साधुओंको भी करना चाहिए।" “साधुओ
(गीता १३।११)
___ अर्थ-एकान्त स्थानका सेवन, जनसमूहमें सम्मिलित का वैराग्य इतना एकाको हो गया है कि वे अब अनुपयोगी माने जाने लगे है।" "साधु इतने त्यागी होते है कि समाजसे
होनेकी अरुचि ।" "यह ध्यान कहलाता है, इससे उलटा जो कोई वास्ता नही रखते. ....वैराग्यका अर्थ निष्क्रियता नही,
है वह अध्यान है।" अनासक्ति है।"
म. गांधीने कहा है
"ईश्वरने मुझ जैसे अपूर्ण मनुष्यको इतने बड़े प्रयोगबेसमझ आदमीकी बातपर आन्दोलन करनेकी हल
के लिए क्यो चुना ? मै अहंकारसे नहीं कहता लेकिन मुझे जरूरत नही होती। किन्तु समझदार आदमी यदि बेतुकी वाकि परमात्माको गरीबोमें कळ काम लेना बात करदे तो जरूरत हो जाती है।
इसलिए उसने मुझे चुन लिया। मुझसे अधिक पूर्ण पुरुष श्री रांकाजीकी बात सिर्फ उनकी अपनी निगाहमें होता तो वह शायद इतना काम न कर सकता। पूर्ण मनुष्यजनसाधुओंकी एकाकी निष्क्रिय साधनाका महत्त्व नही को हिन्दुस्थान पहिचान भी नहीं सकता । वह बेचारा जंचने पुरती होती तो एतराज योग्य नहीं थी किन्तु वह तो विरक्त होकर गुफामें चला जाता। इसलिए ईश्वरने मुझलोकनिगाहमें उक्त साधुसाधनाका हलकापन जचनेका जैसे अशक्त और अपूर्ण मनुष्यको ही इस देशके लायक समझा। प्रतिनिधित्व भी करती है। अतएव वह एतराज योग्य अब मेरे बाद जो आवेगा वह पूर्ण पुरुष होगा।" है । देखिए वह कहां तक ठीक है
(गांधी सेवा संघ सभा ता० २२-६-४०) नीचे लोकमान्य पुरुषोंके प्रवचनोंमेसे कुछ संगत अंश इस प्रकार अलौकिकी वृति धारक (पु. सि. १६) अंकित किये जाते है जो बतलाते है कि समाजसे वास्ता न महात्माओं (साधुजनों) को दूषित ठहराना क्या है ? रखकर एकाकी निष्क्रिय साधना (अप्रत्यक्ष सेवा) करने- जैसाकि श्री कालिदासने कहा है-वह है और क्या है! वाला व्यक्ति ही पूर्ण पुरुष है। न कि समाजसे, वास्ता कहा हैरखकर सक्रिय सापना (प्रत्यक्ष सेवा) करनेवाला "मलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकम् ।।
विति मंचरितं महात्मनाम् ॥"
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अनेकान्त
सच तो यह है कि -लौकिक ज्ञानदान, अभयदान, "आत्मेतर्रागिणामम रक्षणं मम्मत स्मृतौ । आहार दान, गुणसुश्रुषादान, इन चार प्रकारके दान द्वारा तस्परं स्वात्मरक्षायां कृतं नातः परत्रयत् ॥" प्रत्यक्ष जन-सेवा करना यह सावधकर्तव्य है। जो कि प्रवृत्ति
(पंचाध्यायी २/७५६) प्रधान, अधिकांश प्रशस्त रागी द्वेषी, शत्रु मित्रप्रति असमान 'यस्मात् सकरायः सन् हन्त्यात्मा प्रथम मात्मनात्मानम् । दृष्टि रखनेवाले, सामाजिक जिम्मेदारी सहित, अहिंसाधर्म- पश्चाम्जायेत न वा हिंसा प्राण्यंतराणांतु॥" के उपासक (अणु साधक) गृहस्थोचित (श्रावको चित)
(पु सि. ७) कर्तव्य है । न कि-निवृत्ति प्रधान, अल्पांश प्रशस्त रागी
अब बतलाइए इस निवृत्तिमें स्वहितके अलावा परहित देषी, शत्रु-मित्र प्रति समान दृष्टि रखनेवाले, सामाजिक
(परसेवा)समाया हुआ है या नहीं ? कहना होगा अवश्य है। जिम्मेदारी रहित, अहिंसाधर्मके महा साधक, वनस्थ मुनियों (साधुओं) के उचित कर्तव्य है।
ऐसा भी कहा जा सकता है कि जब कि नि० परायण मनुष्य
दो लड़ते हुए प्राणियोको छुड़ाकर अभयदान तो दे सकता कुछ लोग ऐसा ख्याल करते है कि प्रवृत्तिपरायण
है. परन्तु वह यह दान देनेको भी कोशिश नहीं करता मनुष्य निवृत्तिपरायण मनुष्यसे परम-श्रेष्ठ-धर्मात्मा है।
फिर भी इन्हें श्रेष्ठ धर्मात्मा कैसे करें ? क्योंकि नि० परायण मनुष्य तो निजहित (इष्ट-उपकारसुखदकार्य) ही करता है किन्तु प्र. परायण मनुष्य तो
नि० परायण मनुष्य (साघु) अभयदान देने की भीपरहित भी करता है।
कोशिश नही करता यह कहना भी ठीक नही है। कोशिश परन्तु यह खयाल ठीक नहीं है । देखिए दो बातों पर वह अवश्य करता है परन्तु उसका रंग निराला है। ऊपर कह ध्यान दीजिए
आये है कि साधुमें प्रशस्त राग-द्वेषका अधिकांश नहीं है। १. एक तो यह कि परजीवोंको दुःख पहुंचाने वाली
प्र. सार ३/५४ परजीवोंको सुख-साधनोंकी लूट करनेवाली प्रवृत्तिके शत्रुमित्रके प्रति समान दृष्टि है, (आत्म प्रवाह, ११२) नियंत्रणका नाम है निवृत्ति-चित्तशुद्धि, चरित्र, धर्म, अतएव साधु प्रवृत्तिपरायण (श्रावक गृहस्थ) जैसी, याने मनासक्ति अथवा अहिंसा महाव्रत
एकका अहित (अनिष्ट, अपकार, दुःखदकारी) करके भी (पंचाध्यायी २/७५५-५७ । ७६४-६५) दूसरेका हित करने जैसी, सावद्य कोशिश नहीं करेगा। किन्तु जैसा कि कहा है
साधु तो हिसक (लडाकू) प्राणियोको--यदि वे समझ "कुल-बोणि-बीव-मग्पण डाणासु जाण उण जीवर्ग। सकने लायक होंगे तो-अहिंसातत्त्व समझानेकी-उनका तस्सारम्भणियसम परिणामो होई पढ़म व ॥" हृदय-परिवर्तन करनेको-कोशिश करेगा। यदि सफलता नहीं
(नियमसार ५६) मिली तो गरम न होगा--राग-द्वेष न करेगा--उन अर्थ-कुलस्थान, योनिस्थान, जीवसमासस्थान, लड़ाकू लोगोंको हाथापाई करके नहीं छुड़ायगा । अन्यथामार्गणास्थान, इत्यादि जीवोंके ठिकानोंको जान करके परिणा- यह होगा कि माधुको भी तीसरा लड़ाकू हो जाना उनमें आरम्भ करनेसे हटनेका जो परिणाम है वही प्रथम पड़ेगा । और तब तो यह अहिंसाको साधना नहीं होगी, अहिंसावत है।
किन्तु विराधना होगी । तो फिर-आखिर साधु करेगा २. दूसरी यह कि पर-रक्षाको जो परोपकार (सेवा) क्या ? -वह यही करेगा कि दिमागको ठण्डा रखकर कहा जाता है, असलमें यह परोपकार नहीं किन्तु निजोपकार वस्तुस्वरूपपर-लड़ाकू प्राणियोंके मिय्यात्व पर-विचार है। क्योंकि बिना राग (कषाय) भावके परका अपकार करता हुआ वहांसे हट जावेगा-वनको राह लेगा। (पात) होता नही, और राग भाव जो है सो प्रथम निज स्पष्ट हो गया है कि अलौकिको वृत्तिधारक (पु. सि. आत्मा का अपकारक(पातक)है अतएव अपनी रक्षाके लिए १६) साधु-निवृत्ति परायण मनुष्य-परम (श्रेष्ठ) पर-रक्षा आवश्यक है-कर्तव्य है न कि एहसान, परोपकार धर्मात्मा है और उनका निवृत्यात्मक कर्तव्य-निस्क्रिय या सेवा । जैसा कि कहा गया है
एकाकी साधना-महत्वकी वस्तु है।
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अनेकान्त
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क
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चित्र नं ।। रानी गुफा, उदयगिरि, ई पू द्वितीय शताब्दी
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अनेकान्त
चित्र नं० २। वेदिका ( Railings ) के भग्नावशंप, उदयगिरि, ई पू. द्वितीय शताब्दी
चित्र नं० ३। वेदिका, ई. प दिनीय शताब्दी
(3)
1. उष्णीष।
2. ऊर्ध्वपट्ट।
3. मूची।
4
अधिष्ठान ।
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महाराज खारवेल एक महान निर्माता
(श्री बाबू छोटेलाल जैन) (१) मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त और अशोक, कलिग प्राकरो (शहर पनाह), अट्टालिकाओं, उद्यानोंका जीणोंडार चक्रवर्ती महाराज खारवेल आदि शासकोने अपने जीवनको करवाया जो एक भयंकर तूफानसे क्षतिग्रस्त हो गये थे। प्रारम्भसे ही धर्माचरणमें लगाते हुए अन्तिम जीवनको जलाशयोके तथा प्रसिद्ध ऋषितालके बांध बंधवाये और तपश्चरण करते हुए व्यतीत किया था। अपनी सम्पत्तिको इन कार्यों में पैतीस लाख मुद्रा व्ययकर प्रजाका रंजन किया। भी वे प्रजाहित और धार्मिक कार्योंमें लगाते थे। यही कारण (२) ।। तथा चवथे वसे विजाधराहै कि कलाके प्राचीन उच्चतम निदर्शन धर्मायतनामें उपलब्ध धिवासं अहत-पूर्व कलिगपूवराज (निवेसितं)
(२) प्राचीनकालम कला धर्मकी सहचरी रही है। . चतुथ (गज्य ) वर्षमें विद्याधराषिवासको जिसे उस समयके शिल्पियोंने यह अनुभव किया था कि उनकी
न लिगके पूर्व राजाओंने बनवाया था। और जो पहिले कलाका आदर केवल तभी होगा जब वह मानवकी धार्मिक
कभी क्षतिग्रस्त नहीं हुआ था (शिलालेखके अक्षर नष्ट या नैतिक रक्षामें सहायक हों। इसी कारण वे अपने प्रयासमें हा गय ह इसस यह नहा ज्ञात होता है कि खारवेलने उसका सफल हुए थे।
क्या सुधार किया) सम्भवतः उसको उन्नत बनाया गया। महाराज खारवेल एक महान सम्राट और कलिगके
(३) पंचमे च दानी वसे नन्दराज-तिशासक रूपसे तो अति प्रसिद्ध है, किन्तु उनकी अन्य सुकृतियोंमे वस-सत-ओघाटितं तन-सुलिय-वाटा पणाडि बहुत लोग अपरिचित है । उन्होंने प्रजाहितके अनेक कार्य नगरं पवेस [य] ति। किये थे। तथा प्रजाजनोंको सवा सुखी और सन्तुष्ट रखते पांचवे (राज्य) वर्षमें खारवेल नंदराजके १०३ वर्ष थे। पुरानी इमारतोंका जीर्णोद्धार करवाकर उनकी रक्षा (संवत्*) में खोदी गई एक नहरको तनसुलियबाट करना और नई तथा कलापूर्ण इमारतोंका निर्माण करना, (सड़क) से बढ़ा कर राजधानीमें लाये। . और शिल्पियोंको पुरस्कारादिसे प्रोत्साहन देना- यह उनकी
(४) राज--संनिवासं महाविजयं एक विशेषता थी। यह बात उनके शिलालेख और उपलब्ध पासादं कारयति अठतिसाय सतसहसेहि पुरातत्त्वसे स्पष्ट होजाती है।
नवमें (राज्य) वर्षमें खारवेलने महाविजय नामक एक अब हम पाठकोंके समक्ष शिलालेखके वे अंश उद्धृत
नया राजप्रासाद बनवाया जिसमें अड़तीस लाख पण करते है जिनमें उनके निर्माण कार्योंका उल्लेख हुआ है:
(रुपये) खर्च हुए। मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्तका सुगगि प्रासाद (१) अभिसितमतो च पधमे वसे ।
ई०पू० चतुर्थ शताब्दीमें अपनी भव्यता, विशालता, सौन्दर्य वात-विहत-गोपुर-पाकार-निवेसनं पटि- और समृद्धिके कारण लोकप्रसिद्ध था । अतः सम्राट् खारवेल संखारयति [ 1 ] कलिंगनगरि-[f] खबीर- भी चन्द्रगुप्तसे किसीभी प्रकार कम नहीं थे फिर वे क्यों न इसि-ताल-तड़ाग-पाडियो च बंधापयति [1] "महाविजय" प्रासाद बनवाते । सवुयाम-पटिसंठपनंच कारयति [॥ ] पनती .
(५)......क.तु[ . जठर लिखिलसाहि सत सहसेहि पकतियो च रंजयति [1] .
बरानि सिहरानि-नीवेसयति सत-वेसिकनं महाराज्य पदमें अभिषिक्त होते ही प्रथम महान कार्य . सारखेलमे यह किया कि राजधानीके उम गोपुर (पारों) * अर्थात् ६० पू. ३५५ वर्ष
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अनेकान्त
की।
यद्यपि लेखकी १३वी पंक्ति प्रारम्भमें खंडित हो गई पश्चात् भी जीवित थे। यह उनकी महारानीके शिलालेखसे है तो भी अवशिष्टांससे ज्ञात होता है कि बारहवें (राज्य) मिद्ध होता है। वर्ष में खारवेलने भीतरसे लिखे (खुदे) हुए सुन्दर शिखर इससे मालूम होता है कि रानीगुफा उनके राज्यके बनवाये और सौ स्थपतियो (कारीगगे) को जागीरें प्रदान १४वे वर्गके बाद निर्मित हुई है, इसीमे शिलालेखमें इसका
उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। या उल्लेख था तो वह अंश लेग्वमें (६) अरहत-निसीदिया समीपे पभारे खडित हो गया है। . वराकार-समुथपिताहि अनेक-योजनाहिताहि
रानीगुफाका भास्कर कार्य भारतके प्राचीनतम
निदर्शनामेंमें एक है। यह गुफा यहाकी सबसे बड़ी और प सि. ओ......सिलाहि सिंहपथ-रानी केवल दो मज़िलकी ही नहीं है पर बहुत विस्तृत है और सिंधुलाय निसयानि......पटाल को चतरे अनेक उत्तम कलापूर्ण और मूल्यवान शिलाचित्रोसे विभूषित च वेडरियगभे थंभे पतिठापयति, पान-तरोय है (चित्र न. १) सत सहसे हि ।
रानीगुफा अपने सम्मुखवर्ती उपयोगी विपाणक (पाव
स्थ गृह), अनेक आगार और विशाल प्रकोष्ठकके लिए लेखकी पद्रहवी पक्ति भी कई जगह खडित हो गई
प्रसिद्ध है। प्रकोष्ठकके तीन तरफ दो खड (मजिल) युक्त है अत. सुरक्षित लेखांसका अर्थ है कि तेरहवें (राज्य) वर्षमै खारवेलने अहंतकी निषीदीके समीप, पर्वतपर, श्रेष्ठ प्रस्तर
इमारत है और चतुर्थ या दक्षिण-पूर्वकी ओर खुला स्थान है। खानासे निकाले हुए और अनेक योजनोसे ले आये गये
ऊपरकी मज़िलका मुख्य बरांडा ६२ फीट लम्बा है और
नीचेकी मंज़िलका बरांडा ४४ फीट लम्बा है। नीचेका पत्थरोसे सिहप्रस्थ वाली गनी सिधुलाके लिए नि.श्रय बनवाये । लेखकी १६वी पक्तिका पूर्वाश खडित है अतः
दाहिनी पक्षका बरांडा १९ फीट लम्बा, ६॥ फीट चौड़ा
और ७ फीट ऊंचा है और इसके भीतर २०४७४७ बादके लेखका अर्थ है कि खारवेलने वडूर्य जड़ित चार स्तम्भ
फोटका एक कमरा है। बाई तरफका बरांडा २३४९।। स्थापित किये, पचहत्तरलाख पण (रुपये) व्यय करके ।
फीट है और उसके भीतर ३ कमरे है। उत्तरपक्षका बराडा डाक्टर वेणीमाधव वरुवाने इन पंक्तियोंको अन्य रूपमे
४४ फीट लम्बा है और उसमें भी ३ कमरे है । नीचेकी मंजिलपढ़ा है। उनका अभिमत है कि खारवेलने अपने राज्यके
की गुफाओकी ऊंचाई ३४ फीट और ऊपरकी मजिलकी १४वे वर्षमे पंचहत्तर लाख रुपये व्यय करके जो इमारत
गुफाकी ऊचाई ७ फीट है। पहिली मजिलके प्रधान या मध्य बनवाई थी वह धार्मिक अट्टालिका थी और उसमें एक
के पक्ष (Wing) में चार कमरे है और वाहिनी और बाम वैडूर्यके स्तम्भोका महा था जिसकी पत्थरकी दिवाली
प्रत्येक पक्षमें एक-एक कमरा है । बराडोके भारवाहक स्तम्भ पर ६८ खाने (Pancis) थे जिनमे प्रत्येकमे मुन्दर भास्कर
सबके सब गिर गये हैं और आबहवाने यहाके सुन्दर खुदाईकार्य द्वारा विविध चित्र अंकित थे।
के कार्यको बहुत क्षति पहुंचाई है। इसलिए अब बरांडोकी (७) "सब-वेवायतन-संखारकारको।" इस अन्तिम
रक्षाके लिए नये स्तम्भ लगा दिये गये है। रानीगुफाके पंक्ति (१७वी) में खारवेलको सर्व देवायतन (मंदिरो) सामनेका खला चौक प्रायः ४९ फीट लम्बा और ४३ फीट के संस्कार (जीर्णोद्धार) कारक कहा गया है।
चौड़ा है जो पहाड़को काटकर बनाया गया है। (चित्र नं.२) (८) इन पर्वतोंपर कई प्राचीन उल्लेखयोग्य गुफायें
इन विवरणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि खारवेल कितने ऐसी हैं जिनमें कोई शिलालेख नहीं है । लेखवाली गुफाओंमें
महान् निर्माता थे। उनकी इस नीतिका प्रभाव उनके परिजनों कहीं भी खारवेलका नाम नहीं है इमसे मालूम होता है कि
और राजकर्मचारियों तथा प्रजापर भी पड़ा था। खारवेलबिना लेसवाली गुफायें वारवेल द्वारा निर्मित है । अस्तु
की प्रधान रानी, उनके उत्तराधिकारी और पौत्र तथा उदयगिरिकी रानी गुफा भी महाराज खारवेलने अपनी
न्यायाधीश और कई प्रजाजनों द्वारा निर्मित लेखसहित रानीके लिए बनवाई थी। हाथी गुफा शिलालेखमें खारवेलके ३८ वर्षके जीवनकाल तकका उल्लेख है और वे इसके अनेकान्त वर्ष ११ किरण १, शिला लेख चित्र नं. ६
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ive-1]
गुफायें कहां हैं सब गुफायें तथा अन्य इमारतें इस सिद्धक्षेत्र पर होनेके कारण यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि वे धर्मातन रूप है। इन गुफाओंकी बहुमूल्यता, विस्तृति और सौष्ठवके सम्बन्धमें तो कुछ लिखनेकी आवश्यकता ही नही है। इनमें उदयगिरीकी बड़ी गुफाओं में तिलकी तीन रानी गुफा, मंचपुरी और जयविजय तथा छोटीहाथी गुफा तो गृहाकार हैं ।
खंडगिरि - उदयगिरिपर वर्तमानमें उपलब्ध इमारतोमें एक भी ऐसी नहीं है जो पत्थरोंको जोड़कर या चिनकर बनाई हुई हो। जो है वे सभी पर्वतको खोदकर बनाई गई हैं । अब प्रश्न यह होता हैं कि जो इमारतें दूर देशमे लाये गये पत्थरोसे निर्माण की गई थी और जिनका उल्लेख हाथीगुफाके अभिलेखमें किया गया है और जिनके निर्माण में प्रचुर धनराशि व्यय की गई थी- कहां गई? वहां तो उनके भग्नावशेष भी देखने में नहीं आते हैं । इस प्रश्नका उत्तर यही है कि प्राचीनकालमें किसी समय टन पर्वनपर भयंकरना से बिजली गिरी है या भूकम्प आदि कोई अन्य प्राकृतिक दुर्घटना हुई थी जिससे वहाकी इमारते धराशायी हो गई और पर्वतभी अनेक स्थलोंपर खडित हो गया था। गिलालेख के अनुसार इस पर्वतका मौलिक नाम कुमारीगिरी था, जिसका परवर्त्ती नाम १०वी शताब्दीके जैन साहित्यमें कुमारगिरि उपलब्ध होता है | खंडगिरिकी ललाटेन्दु केशरीगुफामें जो ११ वी शताब्दीका लेख है उसमें भी पर्वतका नाम कुमारगिरि है। इससे मालूम होता है कि वह प्राकृतिक दुर्घटना ११वी शताब्दीके बाद हुई है और पर्वतके पडित हो जानेके कारण, खंडगिरि नाम प्रचलित हो गया। पर्वतकी दो पोटियां है इससे यह भी संभव है कि एक चोटी विशेष खडित हो जानेके कारण उसका नाम खडगिरि पड गया । फिर यह स्वाभाविक या कि दूसरी चोटीका भी कोई नाम रखा जाय। दूसरी चोटीसे सूर्योदय भली प्रकार दिखाई देता है इससे उसका नाम उदयगिरि रख दिया गया जान पड़ता है ।
महाराज [कारने एक महान निर्माता
वर्तमानमें खंडगिरि और उदयगिरिके ठीक मध्य में एक सड़क है जो बहुत दूर तक चली गई है। पाठक जानते हैं कि सरकार ठेकेदारोंसे सड़कें बनवानी है और सड़को निर्माण में पत्थरोकी रोड़ियां बहुत लगती है । पुरातत्त्वकी रिपोर्टोंसे जाना जाता है कि इन ठेकेदारोंने अनेक प्राचीन मन्दिर, मठ, स्तूप, प्रासाद और अन्य उजड़ी हुई या जीर्णशीर्ण और व्यक्त इमारतोंके पत्थर और ईंट आदि उपादानोका
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सड़कें बांध और पुल बनवानेके कार्यों में निर्ममतासे उपयोग कर, इतिहास, कला और संस्कृतिके विलोप साधन में बहुत बड़ा भाग लिया है और अन्याय किया है । अतः यही कारण है कि महाराज खारवेल द्वारा निर्मित यहांकी उन अट्टालिकाओके वे प्रस्तर जो उन्होंने बहुत दूरने मंगवाये थे आज अनुप स है। संभव है कुछ पत्थर पहाड़में राशि (मलमा) के नीचे दबे हुए हों। सन् १९५० में पुरातत्व विभागकी ओरसे उदयगिरिपर सीढ़ियां बनाई गई थी और कुछ जंगल भी साफ करवाया गया था और राविश उठाते समय प्रस्तर वेदिकाके कई खंड और एक नारी मूर्तिका धड़ (गलेके नीचेका भाग स्तनों तक ) मिला था । ये सब भग्नावशेष हाथीगुफामें रख दिये गये है (चित्र नं. ३ ) । इनकी कलामै ये ई. पू द्वितीय शताब्दीके मालूम होते है और यही समय सारवेला है। वेदिका (Railing) के एक टुकड़े के रेखा चित्र नं. ३ को देखनेने उनके कलापूर्ण प्रकरणका भान सहज ही में हो जाता है। इसके उर्ध्वपट्टके उत्फुल्ल कम और अधिष्ठान गतिशील पशु विशेष दृष्टव्य है। इन भग्नावशेपोका पत्थर भी स्थानीय नही है । यह पत्थर कहांका हो सकता है इसकी परीक्षा में भूतज्ञ विशेषज्ञोंस करवा रहा हूं। यदि पर्वतपर खुदाई की जाय तो अब भी पूर्ण आशा है कि कुछ प्राचीन भग्नावशेष उपलब्ध हो जांय ।
स्थापत्यको अपने पार्श्वस्थ वस्तुओंसे पृथक नही किया जा सकता है। किसी भी देश या जातिके वास्तु (Architecture ) के आदर्श निरूपण करनेमें जिन प्रधान प्रभावोंकी आशा की जा सकती है उनमें (१) प्रदेशउससे सम्बन्धित भौगोलिक, भूतत्वविषयक और जलवायु सम्बन्धी अवस्था, (२) धर्म, (३) मामाजिक और राजनैतिक प्रभाव और (४) ऐतिहासिक प्रभाव है । यों तो ये चारों ही प्रधान है तो भी धर्म नि मन्देह सर्वोपरि बलिष्ठ है । सभी देशोमें और खासकर भारतवर्ग में प्रधान अट्टालिकाये, जातिकी धार्मिक श्रद्धाका फल है । जातिके गुणांकों जितनी स्पष्टतामे धर्म व्यक्त कर मकता है उतना अन्य कोई नही । और उसके स्थापत्यपर धर्म अधिक आन्तरिक प्रभाव अन्य वस्तुका नहीं होता है। रानीगुफा तथा अन्य गुफागृहों में प्रचुरतासे तक्षण (Sculp tured खोटे हुए) किये हुए आश्चर्यकारी प्रस्तर चित्रों-को समझने के लिए पहिले जैनधर्मके कथा साहित्य के अध्ययन करनेकी आवश्यकता है । अतीतकालीन स्थापत्य और
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धर्मका अध्ययन करने में जो समय व्यय होगा वह सायंक जायेंगे जिससे इनकी व्याख्या करनेका सुअवसर उन्हें प्राप्त ही होगा क्योंकि प्राप्त भग्नावशेषोंके एक-एक टुकड़े उस हो; क्योंकि अभी तक इन चित्रोंका प्रामाणिक वर्णन कोई अतीतके इतिहास और अपने पूर्वजोंकी अवस्था और उनके भी नहीं कर सका है। हां एक-दो चित्रोंकी व्याख्या हुई है। गुणोंका ज्ञान आपको मंत्रमुग्ध ही न कर देगा पर आनन्द- अनेकान्तकी किरणोंमें रानीगुफा तथा अन्य गुफाओंके दायक और प्रेरक भी होगा।
सम्पूर्ण चित्र श्रीवीरशासनसंघ कलकत्ताके सौजन्यसे ___ अतः इस विषयको आकर्षक और सरस बनानेके लिए प्राप्तकर, पाठकोंके मनन तथा मनोरंजनके लिए प्रगट पाठकोंके समक्ष यहांके चित्र बहुलतामे उपस्थित किये किये जायेंगे। कलकत्ता, ता. २-५-१९५२
आकस्मिक दुर्घटना ता. १५ अप्रैल रविवारकी शामको ७॥ बजेके वे उठने-बैठने तथा थोड़ा चलने-फिरने भी लगे। ता. ७ करीब चावड़ीमें सड़क पार करते हुए पं. जुगलकिशोर मईको उनके भतीजे डा. श्रीचन्द जी 'संगल' उन्हें कार जी मुख्तारको तांगा दुर्घटनासे सख्त चोट आगई थी- में एटा ले गए है जहां पर उनकी चिकित्सा हो रही है एक्सरेसे मालूम हुआ कि उनकी तीन पसलियोंकी हड्डियां जिससे उनकी रही-सही कमजोरी और अवशिष्ट चोटका टूट गई थीं, चोट लगनेका कारण उनकी लाठी द्राम्बे की दर्द भी दूर हो जायगा और वे पूर्णतः स्वस्थ्य होकर लाइनमें आगई थी वे उसे निकाल रहे थे कि सहसा तांगा समाज-सेवामें अग्रसर हो सकेंगे। देहली जैन समाज आ गया और उससे उन्हें चोट लग गई, वे बेहोश होकर और डा० ए० सी० किशोर तथा बा. जिनेन्द्रकिशोर जी सड़कपर गिर पड़े। मालूम होते ही ला बुगलकिशोरजी ने मुख्तार साहबके प्रति जो सहानुभूति प्रदर्शित की है कागजी उन्हें इरविन अस्पताल ले गए और प्रयत्न द्वारा व अपने कर्तव्यका पालन किया है उसके लिये वे धन्यभर्ती कराकर इन्जेक्शन लगवाया और दवाई भी खानेको वादके पात्र हैं। साथ ही, ला० जुगलकिशोर जी और बा. दी गई जिससे उन्हें नीद आगई और वे ११॥ बजे बोले, पन्नालाल जी अप्रवाल धन्यवादके पात्र है, जो सदा ला. जुगलकिशोर जी कहां है। मैने कहा वे ९|| बजे उनके पास आते रहे हैं। वीरसेवामन्दिरके प्राण और चावड़ी चले गए हैं। जब चोट लगनेका समाचार देहली मुख्तार साहबके अनन्यभक्त बा. छोटेलाल जी कलकत्ता, के प्रतिष्ठित सज्जनो और उनके हितैषी मित्रोको मालूम बा० कपूरचन्द जी जैन रईश कानपुर, पं.कैलाशचन्द जी हुआ, तो वे सब मुख्तार सा० को देखने अस्पतालमें पहुंचे। गास्त्री, पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य, पं० फूलचन्दजी और उनके इस आकस्मिक दुःखमें सभीने सम्वेदना व्यक्त सिद्धान्त शास्त्री बनारस, तथा पूज्य श्री १०५ की, न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल जी पं. विजय कुमारजी क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी सागर, और श्री सेठ आदि विद्वान भी आए और सम्वेदना व्यक्त की। उनके हुकमचन्द जी साहब इन्दौर आदि अनेक धीमान, श्रीमानोंने भतीजे बा० प्रद्युम्नकुमार जी भी उनकी सेवामें रहे । अपने सम्वेदना-सूचक पत्रों द्वारा आरोग्य कामना की है डा. एस. सी. किशोरने मुख्तार सा० को अस्पतालसे उसीका फल है कि मुख्तार साहब इतनी जल्दी आरोग्य छुट्टी दिलाकर अपने आरोग्य सदनमें ले आए और उन्हे लाभ करने में समर्थ हो सके हैं। इसके लिये मै, और वीरबड़े प्रेमसे रक्खा और दवाई तथा सिकाई पलम्तर आदि- सेवामन्दिर उनका आभारी है। वीर प्रभु से प्रार्थना है कि के द्वारा उनकी चिकित्मा की, और डा. साहबके ज्येष्ठ मुख्तार साहब चिरजीवी हों और वे अपने आत्मकल्याणके भ्राता बा०जिनेन्द्रकिशोर जी जौहरी और उनकी धर्म- साथ-साथ दि० जैन संस्कृतिकी सेवा करने में अग्रसर हो। पत्नी श्रीमती जयमालादेवीने उनका पूर्ण आतिथ्य किया।
माथ ही जैन समाज व उनके इष्ट मित्रोंका कर्तव्य है कि
वे वीरमेवा मन्दिरको स्थायित्व प्रदान करते हुए ममतार स मुस्तार साहबका स्वास्थ्य सुघरा बार चाटका दद साहबके भारको कम करनका प्रयत्न करें। भी कम हुमा, टूटी हुई पसलियोंकी हड्डियां भी जुड़ गई और
निवेदक-परमानन्द जैन
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आमेर भण्डारका प्रशस्तिसंग्रह
(पं. परमानन्द जैन शास्त्री)
इस प्रशस्तिसंग्रहके सम्पादक हैं पं. कस्तूरचन्दजी भी तत्परता दिखायगी। पास्त्री, एम.ए. कापालीवाल, और प्रकाशक सेठ वधीचन्दजी सम्पादकजीने इन प्रशस्तियोके संकलन बाविमें गंगवाल, मंत्री, श्री महावीरजी अतिशय तीर्थक्षेत्र कमेटी काफी परिश्रम किया है, परन्तु जब प्रशस्तियोंका हम ऐतिजयपुर है। पृष्ठ संख्या ३३६ और मूल्य छ रुपया। हासिक दृष्टि से पर्यवेक्षण करते है तब उसमें जो स्थूल
प्रस्तुत ग्रन्थमें भट्टारक महेन्द्रकीर्ति आमेरके शास्त्र. त्रुटियां एवं भद्दी भूले पद-पदपर नज़र आती है, और उनसे भण्डारके कतिपय संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश और हिन्दी होनेवाले अनर्थकी ओर जब दृष्टि जाती है, तब चित्तमें बड़ा प्रन्योंकी १९६ प्रशस्तियां दी हुई है और साथमें उनकी ५० ही दुःख होता है। कहीं-कहीं पर तो उन मोटी-मोटी खटकने लेखक प्रशस्तियो भी अंकित है। उक्त प्रशस्तियां ग्रन्थमें योग्य स्थूल त्रुटियोके कारण पाठक भ्रममें पड़ जाता है और भाषाके क्रमसे तीन विभागोंमें विभाजित कर, दी हुई है। वस्तुस्थितिका कोई निर्णय नहीं कर पाता । वह कुछ समयके इससे अन्य तीन भागोमें बंट गया है।
लिए किंकर्तव्यविमूढ़सा हो जाता है और फिर अन्य साधन ___अन्वेषणके क्षेत्रमं प्रशस्तियां कितनी उपयोगी है और सामग्रीकेअभावमेंवस्तुतत्त्वकायचा निर्णय करना उसे अत्यन्त उनसे इतिवृत्तके निर्णय करनेमें क्या कुछ सहायता मिल कठिन हो जाता है। अतः उक्त प्रशस्तिसंग्रहमें जो स्थूल सकती है, इसे बतलानेकी आवश्यकता नही, अन्वेषक त्रुटियां रह गई है उनका परिमार्जन किये बिना कोई भी विद्वान ग्रन्थकार और लेखक प्रशस्तियोंकी महत्तासे अपरि- अन्वेषक विद्वान उससे यथेष्ट लाभ उठाने में समर्थ नही हो चित भी नही है। भारतीय जनवाङ्मयमें इतिवृत्तिकी सकता है। अतः उनका परिमार्जन एवं संशोधन होना अत्यन्त साधक बहुतसी सामग्री लुप्तप्राय हो गई है जो कुछ अव आवश्यक है। शिष्ट है उसमेसे कुछ खण्डहरो, और भूगर्भमें दबी पड़ी है। इस ग्रन्थको सम्पादकीय प्रस्तावना २२ पेजकी है फिर भी, बहुत कुछ सामग्री प्रशस्तियो, मूर्तियों, ताम्रपत्री, जिसमें भाषाओंका परिचय कराने हुए ९८ वे ग्रंथकार पाषाणग्दण्डो, चित्रों तथा मूर्तिलेखोम अकित उपलब्ध कवियोंका मक्षिप्त परिचय भी दिया हुआ है। यद्यपि उसमें होती है। यदि वह सब संकलित होकर प्रकाशमे लाई जा कितने ही कवियोंका परिचय नही दिया गया; पर जिनका सके तो उसमे जैन इतिवृत्तोंके सिलमिलेवार लिखने में बहुन परिचय दिया गया है उसमें भी पूरी सावधानी नहीं बर्ती कुछ सहायता मिल सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ इमी सद्उद्देश्यको गई, ऐमा जान पड़ता है। क्योंकि उस परिचयमें कुछ अन्यथा लेकर प्रकाशित किया गया है। महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी- ही नतीजा निकाला गया है जो उस ग्रन्थको प्रशस्तियोंपरमे ने इस दिशामें जो भी प्रयत्न प्रारम्भ किया है वह अवश्य उपलब्ध नहीं होता, जैसाकि निम्न उदाहरणोंसे स्पष्ट है:अभिनन्दनीय है। पर इतने से ही सन्तुष्टि मान लेना समुचित १. अपभ्रंश भाषाके कवि श्रीधरका परिचय देते हुए प्रतीत नही होता। राजपूतानेमें पुरातन अवशेषोकी कमी उन्हें कायस्थ जाति और माथुर कुलका बतलाया है और नही है। शास्त्रभंडार भी वहां अधिक मात्रामें पाये जाते उनके पिताका नाम नारायण और माताका नाम रूपिणी है। यदि कमेटी ४-५ योग्य विद्वानोंकी नियुक्ति कर उस दिया है तथा उसका सम्बन्ध सं० १९८९ में रचे जानेवाले कार्यमें प्रगति करना चाहे तो मूर्ति लेग्वों और शास्त्रभंडारा- पार्श्वनाथचरितके कर्ता विबुध श्रीधरके माथ जोड़ दिया की सूचीका कार्य आसानीसे थोड़े समयमे मम्पन्न किया है, जो देहलीके राजा अंगपाल तृतीयके शामनकालमें वहांजा सकता है। पर इस दिशामें बहुत ही मन्दगतिसे कार्य के राजश्रेष्ठी नट्टलसाहूकी प्रेरणासे रचा गया था। किया जा रहा है। आशा है कमेटी इम विषयमें अपनी और परन्तु सम्पादकजी यह भूल गए कि नट्टलसाहूने जिस
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अनेकान्त
[वर्ष १५
विषधीपरसे 'पार्श्वनाथचरित' की रचना कराई है, वे का रचनाकाल सं० ११७९ कार्तिक शुक्ला अष्टमी बतलाया उस समय देहलीमें रहते थे और अग्रवालकुलम समुत्पन्न है जो ठीक नहीं है, क्योंकि पांडव पुगणका रचनाकाल हुए थे। इनकी माताका नाम 'वील्हा देवी और पिताका उसकी प्रशस्तिमें वि. सं. १४९७ दिया है। इन्होने अपना नाम 'बुध गोल्ह' था। कविने इसमे अधिक अपना परिचय हरिवंश पुगण" सं. १५०० में पूर्ण किया है। नही दिया। हां, इस अन्य प्रशस्तिमें इम ग्रन्थमे पूर्व रची उक्त प्रस्तावनामे यह भूल तो और भी अधिक खटकती जानेवाली अपनी कृति 'चन्द्रप्रभचरित' का उल्लेख अवश्य है और वह यह कि पृष्ठ २१ पर रूपचन्दका परिचय देते किया है। ऐसी स्थितिमें कायस्थजातिके श्रीधरका जो हुए उन्हें पांडे रूपचन्दजीमे भिन्न बतलाया गया है और लिखा है उल्लेख किया गया है वह अभ्रान्त नहीं है और उसके साथ कि इन्हें कविवर बनारसीदासने गुरुके समान माना है। परन्तु इन अग्रवाल श्रीधरका सम्बन्ध कमे मुघटित हो सकता यह पांडे रूपचन्दजीमे भिन्न कोई दूसरे व्यक्ति नही है। है ? दूसरे कवि श्रीधरको माथुर कुल और कायस्थ जानिका इनके उपदेगमे ही बनारमीदास और उनके तीन साथियों बतलाना तथा उनके पिता नारायण और मानाका नाम का-चन्द्रभान, उदयकरण, और थानमल्लका--वह रूपिणी प्रकट करना बिल्कुल ही निराधार और गलन है, एकान्त मिथ्याभिमनिवेश दूर हो गया था, उन्हे मदृष्टि क्योंकि उम भविष्यदत्त पचमी कथाके कर्ता श्रीधरने प्रशस्ति- प्राप्त हुई थी। इमीमे बनाग्मीदामने उनका गुरुरूपये में अपना कोई परिचय नहीं दिया है किन्तु उस कथा ग्रन्थको परिचय दिया है और नाटक समयमारके अन्नम 'चतुरभाव रचनामे प्रेरक महानुभावका परिचय ग्रन्थकाग्ने दिया है जो थिरता भए रूपचद परगास' जैसे वाक्योके द्वाग उनका स्मरण माथुरकुलीन नारायणके पुत्र मुपुट्ट साहूकी प्रेग्णामे ग्चा किया है । बनारमीदामने उक्त सद्वृष्टि प्राप्त करनेके बाद गया था। उनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम वासुदेव था। उक्त ही म० १६९३ में नाटक समयमार बनाकर पूग किया है पार्श्वनाथचरित साहू नारायणकी धर्मपत्नी 'रूपिणी' के और स० १६९४ में पांडे रूपचन्दकी मृत्यु हो गई थी। नामांकित किया गया है अतएव कवि श्रीधरके सम्बन्धमे उन्हे जो आगरेका वासी बतलाया गया है, सो वे जो कल्पना की गई है वह बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है। आगराके वासी भी नही थे; किन्तु बनारसमे दरियापुर यहां एक बात और नोट करनेलायक है और वह यह कि होते हुए वे आगरामें आए थे और उम समय आगरामें सुकमालचरितके रचयिताभी इन्हीं श्रीधरको बतला दिया 'तिहुना' साहके घरपर उन्होने डेरा किया था। परमार्थ है जो अभी प्रमाण सिद्ध नहीं है।
दोहा शनक, पदसग्रह, पंचमंगलपाठ, समवसरणपाट, ___ इमी वरह मंस्कृत भाषाके कवि ब्रह्मनेमिदत्तको नमिनाथरामो, आदि कितनी ही रचनाएं इन्हीकी रची अग्रवाल और गोयल गोत्री बतला दिया गया है जो भट्टारक हुई है। इन्होंने अपना समवसरणपाठ स० १६९२ में आगगमल्लिभूषणके शिष्य थे। ब्रह्मनेमिदत्तके अग्रवाल होनेकी में आनेसे पूर्व पूरा किया था। इनका विशेष परिचय अनेकान्न कल्पना उनके 'श्रीपालचरित' नामक ग्रन्थकी प्रशस्तिके वर्ष १० कि० २ से जानना चाहिए। अस्तु, इस प्रकारका पद्य नं. ३ से की गई है । वह सब कथन ब्रह्मनेमिदनके लिए नतीजा पाठकको भ्रममे डाल देता है। इस कारण इम न होकर महेन्द्रदत्तयतिके लिए किया गया है।
मम्बन्धमें विशेष जानकारी रखनकी जरूरत है। अपभ्रश भाषाके महाकवि अमरकीर्तिकी षट्कर्मो- हिन्दी भाषाके कवियोंका परिचय देते हुए पं. दौलतपदेशरत्नमालाका रचनाकाल सं० १२७४ बतलाया गया गमजीको, जो आनन्दरामके पुत्र और बमवाके निवासी है जो उक्त ग्रन्थकी प्रशस्तिमें दिये हुए ग्चना समय थे, उन्हें स० १८०० के पूर्व ही अपनी रचनाओका मं० १२४७ से भिन्न है।
रचयिता बतलाना किसी भूलका परिणाम जान पड़ता है। भट्टारक यशःकीतिके 'पाण्डवपुराण' और चंद्रप्रभ-चरित्र प० दौलतरामजीने वि० सं० १७७७में पुण्याव टीका, इन दोनों ग्रन्थोंका कर्ता एक बतला दिया है, वह गलत है। १७९८ में अध्यात्मवारह खड़ी, सं० १७९५ मे क्रियाकोष, पाण्डव पुराणके कर्ता भट्टारक यशःकीर्ति भट्टारक गुणकीर्ति- स. १८०८ में वसुनन्दिश्रावकाचारकी टव्वा टीका, स. के शिष्य तथा लघुभ्राता थे। चन्द्रप्रभचरितके कर्ता इनसे भिन्न १८२३ मे पद्मपुराण टीका,मं० १८२४ में आदि पुराण टीका पूर्ववर्ती यशः कीति है । साथ ही, यशःकीति के पाण्डव पुराण- सं० १८२७ में पं० टोडरमलजीके पुरुषार्थसिवधुपायकी
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आमेर भण्डारका प्रशस्तिसंग्रह
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की अधूरी टीकाको पूर्ण किया था और फिर सं० १८२९ में विद्वान पं. आशाधरजी हैं। क्योंकि ब्रह्मश्रुतसागरने पुन्नाट संघी जिनसेनाचार्यके हरिवंशपुराणकी' टीका पं० आशाधरके सहस्रनामकी टीका लिली है। जिन लिखी थी। इस समुल्लेख परसे स्पष्ट है कि पं० दौलतराम- सेनाचार्य के सहस्रनामपर नहीं। इसी तरह पृष्ठ ९७वें पर जीकी रचनाएं सं० १८०० से पूर्वकी कैसे मानी जा सकती 'क्रियाकलाप स्तुति' का कर्ता आचार्य समन्तभद्रको बतलाया है?-वे तो १९वीं शताब्दीके २९ वर्ष तक रची जाती रही गया है। जबकि टीकाकार प्रभाचन्द्रने स्वयं उस क्रियाकलापहै । अतः यह निष्कर्ष भूलसे खाली नही है।
ग्रन्थकी टीकामें प्राकृत भक्तिपाठके कर्ता कुन्दकुन्द और उक्त प्रशस्तिसंग्रहमें संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश भाषाकी संस्कृत भक्तिपाठके कर्ता पूज्यपाद (देवनन्दी)को बतलाया है। किन्हीं प्रशस्तियों से कुछ प्रशस्तियोका तो आदि भाग भी उक्त संग्रहमें प्रूफरीडिंगमे प्रेस आदिकी असावधानीसे दिया हुआ है किन्तु अधिकांश प्रशस्तियोका वह ऐतिहासिक रह जानेवाली सैकड़ो अशुद्धियोंको छोड़कर ग्रन्थमें कुछ ऐसी महत्वका आदि भाग नहीं दिया गया, जिनमें ग्रन्थकर्ताकी अशुद्धियां भी रह गई है जो बहुत खटकने योग्य है। उनमेंगुरु परम्परा, वंशपरम्परा, ग्रन्थरचनाओके उल्लेख, पूर्ववर्ती से पाठकोंकी जानकारीके लिए एक-दो प्रशस्तियोका कवियोंका स्मरण, स्थान और ग्रन्थ-निर्माणमें प्रेरक महानु- दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है । उससे पाठक सहज ही में भावोंकी प्रेरणा आदिका उल्लेख सन्निविष्ट हैं। ऐसे महत्वपूर्ण उनकी अशुद्धियोंको ज्ञात कर सकेंगे। भट्टारक शुभचन्द्रके भाग छोड़ दिये गये है जिन्हें इस ग्रन्थमें अवश्य देना चाहिए 'करकण्डुचरित' नं. ५ को प्रशस्तिकी अशुद्धियोंको देखनेसे था। उनके न दिये जानेके कारण प्रशस्तियोंका वह अधूरापन पाठकका जी खेद खिन्न होने लगता है जैसा कि उसके खटकता है । अत: इस ग्रन्थमें प्रशस्तियोंके उस आदि भाग- रचनाकाल-सूचक निम्न एक पद्यसे स्पष्ट हैका संकलन आवश्यक था; क्योंकि प्रशस्तिसंग्रहका उपयोग ध्वण्टो विषमतः शातसमुदातवेकावसामषिका, अन्वेषक विद्वान रिफरेन्सबुकके रूपमें करते हैं। नीचे उन भाडे मासि समुद्रालयुगतियो संगेजवा पुरे । प्रशस्तियोंके नम्बर दिये जा रहे हैं जिनके ऐतिहासिक श्रीषल्छी वृषभेश्वरस्थ सवये को परिच विवं, आद्य-भाग संकलित होने चाहिए थे । सस्कृत प्रशस्तियोंमें रामः भी शुभवन सूरियतिपश्चंपाधिपत्याएवं ॥१॥ २१, ३९, ५२, ५७ और अपभ्रश प्रशस्तियों में १३, १४,
-प्रशस्तिसंग्रह १५, २०, ३०, ३४, ३८, ३९, ४१, ४३ ।
द्वयष्टे विक्रमतः शते सबइते चैकावशाम्बाधिके, इस प्रशस्तिसंग्रहके 'पृष्ठ १०८ पर पं० हरिषेणकी भाडे मासि समुन्वले समतियो सङ्ग पाडे पुरे। 'धर्म परीक्षा' की प्रशस्ति दी हुई है जिसमे उसका आद्यभाग श्रीमन्व यमेश्वरस्य' सबने चरित्र स्वि, भी दिया हुआ है उसमें छ: पंक्तियोके बाद निम्न दो पंक्तियां राज्ञः श्रीशुभवम्बसूरियतिपश्चंपाधिपस्याभूतं ॥५५ छुटी हुई है जिनका उसमें रहना अत्यन्त आवश्यक है और इसी तरह इस प्रशस्तिके पद्य नं. ४ में "प्रद्यनाथ' के वे इस प्रकार है:
स्थान पर 'पद्मनाभ', और 'चरितं सुचार' के स्थान पर जो सयंभू सो बेड पहाणउ, अहकम लोया-लोय-वियाणउ । 'महिमान मतंद्रो' तथा 'जीवस्य चरितं', के आगे एक चकार पुपफयंतणवि माणुस बुच्चाह, जो सरसइए कयाविण मुन्धा॥ और छूट गया है । पद्य नं ५ में 'बंदनामाः' के स्थानपर
इसके सिवाय निम्न प्रशस्तियोंमें जिनका रचनाकाल 'चंदनायाः', और 'वृत्तिः' की जगह 'वृत्ति' होना चाहिए। अंकित है, परन्तु वह परिचयमें नही दिया गया, जिसके देने- पद्य नं. ६ में 'वृद्धंच' के स्थानपर 'सबृद्ध' पाठ होना चाहिए। की वहां बड़ी आवश्यकता थी। उनके नम्बर इस प्रकार है- और 'मत्र चित्र के स्थान पर'मत्र शुद्ध पाठबना देना चाहिए। २१ पद्मपुराण सोमसेन, ३९ यशोधर चरित्र भ० शानकीर्ति पद्य नं. ७ में 'गुणोध के स्थान पर 'गुणोष', और 'सगर्वन' १, १७,१९,२१ (ए), २१ (बी), २२, २३, २९,४४। के स्थान पर 'समन', तथा 'श्री पार्श्वनाथव' पदके आगे ये नम्बर अपभ्रंश प्रशस्तियों के हैं।
एक रकार छूट गया है, उसे लगा देनेपर श्री पाश्र्वनामवर' प्रशस्तिसंग्रहके पृष्ठ १३ पर 'जिन सहस्रनाम सटीक- पाठ ठीक हो जाता है । पंजिगांच' की जगह 'पंजिकांच का मूलकर्ता आचार्य जिनसेन लिख दिया गया है । जबकि पाठ अच्छा है, 'सबकार' के स्थानपर 'सच्चकार और उस सहलनाम ग्रन्थके मूलका १३वी शताब्दीके प्रसिद्ध 'यतीचन्द्रः' के स्थानपर 'बतीनचन्द्र पाठ होना चाहिए।
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भनेकान्त
। वर्ष ११
पच नं. ८ में 'मापिष्टा' के स्थानपर 'मदीपिष्ट' "विषिश्च' और 'बरे' के स्थानपर 'वरेण्ये' पाठ बना लेना चाहिए। यह के स्थानपर 'विवेश्च' तथा 'जुस्त्रि' के स्थान पर 'चतुस्त्रि' संस्कृत प्रशस्तियोंका नमूना बतौर उदाहरणके बतलाया गया पाठ होना चाहिए। पच नं. ९ की प्रथम लाइनमें 'परं' के है। अपभ्रंश ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंमें भी बहुत अशुद्धियां रह गई आगे 'तक्क' वाक्य और होना चाहिए, जिसे पद्यके तीसरे है पर उन्हें लेख वृद्धिके भयसे यहा छोड़ा जाता है। चरणके साथ जोड़ दिया गया है। 'तत्त्वनिर्णय के आगे एक यहां हिन्दीकी एक प्रशस्तिका नमूना भी दिया जाता चकार और भी छूट गया है। १०वें पद्यमें 'वृत्तिर्सद्वार्था' के है जिससे पाठक हिन्दीकी प्रशस्तियोंकी अशुद्धियों को भी स्थान पर 'वृत्ति सर्वार्था'-पाठ होना आवश्यक है। ११ वें सहज ही जान सकेंगे। पचमें 'युग्मं पद अधिक जोड़ दिया है, वहां उसकी आव- इस प्रशस्तिसंग्रहके पु० २०५ पर 'आदित्यवार श्यकता नही है । तथा षट् पदाः के स्थानपर 'षट्वादा.' पाठ कथा' की प्रशस्ति दी हुई है जिसके कर्ता अज्ञात बतलाये होना जरूरी है । इस तरह यह सारी प्रशस्ति अशुद्धियोसे गये है । जबकि उस प्रशस्तिमें कर्ताका नाम 'भाऊकवि' भरी हुई है।
अंकित है। प्रशस्तिका अन्तिम पाठ भी अशुद्ध रूपमे छपा प्रशस्ति नं. ३४ में 'महावीर पुराण' लिखकर उसका है इसीसे उसपर सम्पादकजीने ध्यान नही दिया। कर्ता पं. आशापर बतलाया है। जबकि आशाधरजीका अग्रावाली ये कोयो बखान, कुवरि जननी तिहं मनोवान । इस नाम का कोई ग्रन्थ नहीं है। प्रशस्तिका मिलान करनेपर गरगाह गोत मलको पूत, भयो कविजन भगति सुंजत ।। ज्ञात हुआ कि यह विषष्ठिस्मृति पुराण है, जो माणिकचन्द्र
..प्रशस्ति संग्रह ग्रंथमालामें मुद्रित हो चुका है।
अगरवाल यह कियो बसाण, कुरिजननि तिवणगिरि ठानु। इसी तरह पेज नं. २१ की सोमसेनके पद्मपुराण प्रशस्ति- गर्गहिंगोत्र मनूको पूत, भाऊ कवि अणु भगति संबूत ॥ में भी अनेक खटकने योग्य अशुद्धियां रह गई हैं। उसके अपभ्रंश भाषाकी २३वों 'पार्श्वनाथ चरित' प्रशस्ति रचनाकाल सूचक पद्य को देखिए, उसमें क्या कुछ कम भूल को तो और भी विचित्र ढंगसे दिया गया है। उसके आदिहुई है। वह पर इस प्रकार है:
के ऐतिहासिक भागको तो दिया ही नही, किन्तु उसका के योग्श शत वर्षके
अन्तिम भाग भी पूरा नही दिया, किन्तु सिर्फ वे ही पंक्तिया पद पंचा तात्पुरते मासे श्रावणिकेतचा-प्रशस्ति संग्रह दी गई है जिनमें उस ग्रन्थका रचनाकाल अंकित है। उससे
विकमस्य गते शाके बोडशशतवर्षके ऊपरका भाग छोड़ दिया गया है। जिसमें अन्य रचनामें बद पंचाशसमायुस्ते माले भावणिके तथा प्रेरक नट्टलसाहूके कुटुम्बका परिचय निहित था और
दूसरे पद्यमें शुक्ल पक्षके स्थान पर 'शुकल पक्षे' यह जिसमें कविने नट्टलसाहूके लिए भगवान पार्श्वनाथसे सप्तमी का रूप होना चाहिए। और 'रामस्य' के स्थान पर निर्मल समाधिकी ही कामना की गई है। साथ ही इसकी रामचन्द्रस्य' पाठ होना आवश्यक है। ५वे पद्य में 'श्रुताः'के सन्धि वाक्यसूचक दो गाथाओको भी निग रूपमें दे दिया है स्थान पर 'स्तुताः' पाठ होना जरूरी है। इस प्रशस्तिमें पद्य जिससे उनके पद्यात्मक रूपकी हत्या हो गई है। इसी तरह संख्या सूचक निम्न पद्य भी छूटा हुआ है। जो इस प्रकार है:-- नयनन्दीके सकल विधि-विधान ग्रन्थकी संधि-सूचक दो
सह सप्तातं त्रीणि वर्तते भूवि विस्तरात्। गाथाएं भी रनिंगके रूपमें दे दी गई है जिसमे उनका वह सोमसेनमिदं बक्ये चिरंजीव चिर जीवितं ॥ पर रूप नष्ट हो गया है।
'जीवंधरचरित्र' की १२वीं प्रशस्तिके रचनाकाल भट्टारक श्रुतकीतिके 'हरिवंश पुराण' को ४ नं. की सषक पचका अर्थ भी ठीक नहीं लगाया, इसीसे उसके प्रशस्ति परिचयमें भी उसका रचनाकाल सं० १६०० रचनाकाल निश्चित करने में भूल हो गई है । सम्पादकजी- बतलाया गया है जबकि वह उस ग्रंयका रचनाकाल न होकर मे प्रन्यका रचनाकाल सं० १५९६ दिया है, जबकि सं० उस प्रतिको लिखवाकर दान देनेवाले सज्जनका वह लिपि १६०७ में से ४ घटानेपरसं०१६०३ उस ग्रन्थका रचनाकाल संवत् है। यहां सम्पादकने उस ग्रन्य प्रशस्तिका अन्तिम निश्चित होता है। १५९६ नहीं। इस पखमें 'शुभेतरे'के आगे भाग भी नहीं दिया जिसमें उसका रचनाकाल सं० १५५२ जोपी वह निरंपक है वहां नहीं देना चाहिए।
(शेष पुष्ठ २६८ पर)
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अनेकान्तके सर्वोदयतीर्थीक पर लोकमत
अनेकान्तके सर्वोदयती को देखकर जिन सज्जनोंने उसपर अपने विचार प्रकट किये है उनमें से कुछ के विचार इस प्रकार है
(१) प्रो० महेन्द्रकुमारजी जैन, न्यायाचार्य, बनारम- सर्वोदयतीर्थका परिचय कगनेवाला अतीव जानने व
"अनकान्त पार्श्वनाथ जैनाश्रममे देखनेको मिला, मग्रह करने योग्य है। मुखत्यार माहबके सर्वस्व दानका देवकर बहुत प्रसन्नता हुई। जैनसमाजमे मास्कृतिक दृष्टिगे ट्रस्ट डीड तो पढने योग्य व अनुकरणीय है । ऐमा सर्वांगसुन्दर संपादित पत्रोका अभाव खटकता रहा, उमकी पूर्ति, अने- विशेषाक प्रकट करनेके लिए मुग्गत्यार माहबका परिश्रम कान्त-मे होगी। लेख मामग्री बहुत ठोस और स्थायी है।" अतीव धन्यवादका पात्र है ।" २७-३-५२
२०-३-५२ (६) सम्पादक "जैन प्रचारक" देहली-- (0) १० चैनमुखदासजी, प्रिमिपल जैन मम्कन ___ "इममे विशिष्ट विद्वानोके महत्वके १९ (१) कालेज, जयपुर--
लेग्व और कविताए है। . . मुखपृष्ठ व अन्दरके दोनों 'यह अक बडा शानदार और आकर्षक है ! इम वृद्धा- चित्र आकर्षक तथा वस्तुतत्व-बोधक है । यह अक पूग वस्थामे भी आपमें जो उमंग और उत्साह है वह युवकोमे ही पटनीय है ।' भी दुर्लभ है । इस सर्वोदयतीर्थाकके लिए आपको जितना (७) प. नाथुगमजी 'प्रेमी', बम्बईधन्यवाद दिया जाय थोडा है।
"सर्वोदय अक मिला है। कुछ पढ़ा भी है। इस उम्रमेभी (३) माहित्याचार्य पं० पन्नालालजी सागर-- आप इतना कार्य कर लेने है, यह देखकर आश्चर्य होता है,
" अनेकान्त'का सर्वोदय अक देखा। प्रथम और श्रद्धा भी होती है। केवल वर्चके ग्बयालमे आपने इमे द्वितीय चित्र बहुत भावपूर्ण दिये गये है। लेखोका चयन इतने ममय बन्द ग्वा, इमका दु ग्व है । आशा है आगे आप भी उनम है । आप लोग इम कार्यके लिए धन्यवादाह है।" । इमे चालू रखेगे ओर आपके श्रमका फल लोगोको मिलना ना २५-३-५२
रहेगा । प्रेमकी चिन्ता आप नाहक करत है। दनेवालाकी (6) ५० अजितकुमारजी, सम्पादक जैन 'गजट', कमी नहीं है ओर नहीं तो आपका ट्रस्ट ता है ही। इस अक में दहली--
गष्ट्रीयताके पोषक कई लेख है । इमे उत्तरोत्तर राष्ट्रीय " 'अनेकान्ल' का यह अक अपने अनूठे सौन्दर्यके माथ भावनाओका प्रचारक बनाइए, माम्प्रदायिकताका कम ।" प्रकाशित हुआ है। दोनो (रंगीन) चित्रोकी कल्पना प्रगसनीय (८) ५० फूलचन्दजी शास्त्री, बनारम--- है।. . कविताए और लेग्व चुने हुए सुन्दर इम अकके “'अनकान्त'का 'मर्वोदय' अक देखा, उमकी सजावट अनुरूप है। खण्डगिरि, उदयगिरि-परिचय शीर्षक और मामग्री मबका मन मोह लेती है । 'अनेकान्न' का सचित्र लेग्वमे खण्डगिरि उदयगिरिका अच्छा ऐतिहासिक जीवित रहना सर्वोपयोगी है।" परिचय दिया है । यह लेख अलग पुस्तक रूपमे प्रकाशित होना (५) प० के. भुजबली शास्त्री, मूडबिद्रीचाहिए। यह अक १६ पृष्ठका पठनीय लेखोंमे पूर्ण है। 'मर्वोदयतीर्थाक' मिला, धन्यवाद । अक बहुत सुन्दर ...प्रत्येक पुस्तकालय तथा वाचनालयम 'अनेकान्त' अवष्य निकला है। आचार्य समन्तभद्र का 'पाटलिपुत्र', मोहनजोदडोआना चाहिए ऐसी हमारी प्रेरणा है।" ता० २०-३-५२ कालीन और आधुनिक जैन-सस्कृति, और ग्वगडगिरि, उदय(५) सम्पादक 'जनमित्र' सूरत--
गिरि, परिचय आदि इमके कई लेख विशेष महत्त्वपूर्ण है। "मुख्य पृष्ठका चित्र बड़ा आकर्षक व भावमय चित्र 'अनकान्त' के पुनरुदयमे बड़ी प्रसन्नता हुई। है। . .यह सर्वोदय तीर्थीक सर्वाङ्ग सुन्दर व भ० महावीरके (१०) प० नाथूलालजी शास्त्री इन्दौर
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२६८
अनेकान्त
[ वर्ष ११
'सर्वोदयतीयांक' पढ़ा। आप लोगोंने बीमारी आदि पाठकोको वास्तविक 'सर्वोदय तीर्थ' की सच्ची और अच्छी असुविधाओंके होते हुए भी यह सुन्दर अंक निकाला एत:दर्य सामग्री मिलती है। धन्यवाद है। वास्तवमें जैन समाजका एक ही यह पत्र है विद्वान सम्पादकने बडे-बडे पौराणिक और सैद्धांतिक जिससे कुछ जानकी सामग्री प्राप्त होती है। जैन साहित्य ग्रंथों तथा महर्षियोंके वचनोंका हवाला देते हुए ब्राह्मण,
और इतिहासकी इस पत्र द्वारा जो सेवा हुई है वह अमर क्षत्रिय और वैश्यके समान शूद्रको भी सब प्रकारके धर्म रहेगी। श्री मुख्तार साहबका इस वृद्धावस्थामें भी यह सेवनका अधिकारी प्रमाणित किया है। किसीके कुलमें महान् परिश्रम सराहनीय है। पत्रकी छपाई-सफाई आदि कोई भी दोष आ जाय धर्म सेवनसे उसकी तथा म्लेच्छो
तकके कुलकी शुद्धि होनेका प्रमाण दिया गया है। (११) नवभारत टाइम्स, देहली--
इस अंकमें विशेषता यह है कि किसी जाति, धर्म, इस विशेषांकमें लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यिको, खोजप्रेमी संप्रदाय या व्यक्ति विशेषकी ओर न झुककर वास्तविक दार्शनिक विद्वानों तथा विविध धर्मोके तुलनात्मक अध्ययन- सर्वोदयतीर्थको ही प्रधान लक्ष्य रखा गया है और इसके में संलग्न विद्वानोके सुन्दर लेखों, चित्ताकर्षक कविताओ निर्माणमे ही सम्पादकका सफल प्रयत्न हुआ है । हिन्दी और भावपूर्ण सुन्दर और अनूठे चित्रोंका संकलन जैन समाज- पत्रजगतके नाते शायद 'अनेकान्त' ने ही इस दिगामे अपना के पुराने और प्रख्यात साहित्यसेवी आचार्य जुगलकिशोर पहिला कदम उठाया है । अतः यह विशेषांक हिन्दी मासिक मुख्तारने किया है। इन लेखों और उनके नीचे दी गई पत्रिकाओके लिए एक आदर्श है। टिप्पणियों तथा विद्वान सम्पादकके सम्पादकीय लेखसे
व समझता हूं। मेरी लाला कपूरचन्दजीसे दर्शनविशुद्धिः वह
एक धार्मिक सद्गृहस्थ है--उनका जीवन सुखमय जाता मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोरजीके पत्रको है, विशेष क्या लिखू। पढ़कर आध्यात्मिक संत श्री पूज्य क्षुल्लक मेग दृढतम विश्वास है जो आपका मनोरथ नियमसे गणेशप्रसादजी वर्णीने सागरसे जो पत्र भेजा
सफल होगा, कालका विलम्ब हो यह अन्य बात है अपने
अस्तित्व काल में ही आप इसे प्रत्यक्ष करेंगे । है वह इस प्रकार है:
बैशाख वदी ५
आ० शु० चि. श्रीयुत महानुभावधर्ममर्मज्ञ प. जुगलकिशोरजी योग्य सं० २००९
गणेशवर्णी इच्छाकार पत्र आया समाचार जाने । आपकी प्रतिभाका सदुपयोग आपने किया, किन्तु खेद है वर्तमान जैन जनता
आमेर भण्डारका प्रशस्तिसंग्रह उसका महत्व नहीं समझी--अन्यथा अब आपको इनस्तत
(पृष्ठ २६६ का शेष) भ्रमण की आवश्यकता नहीं थी । एक स्थान पर रहकर दिया हुआ है। इसीसे यह भूल हुई जान पड़ती है। आपके द्वारा प्राचीन आचार्योंके अन्तस्तत्व द्वारा निर्गत इस तरह प्रायः सारा ही प्रशस्तिसंग्रह अशुद्धियोंसे भरा सिद्धांतका विकाश करती--आपने जो अकथ परिश्रम द्वारा हुआ है। परन्तु यहा उदाहरणस्वरूप प्रायः उन्ही प्रशस्तियोंको प्राचीन महर्षियों के सिद्धान्तका मनन किया है उसे लिपि दिया गया है जिनका संशोधन अत्यन्त वांछनीय है। इन बंद करनेका प्रयत्न करती-कोई विशेष द्रव्यकी आवश्यकता त्रुटियोंको यहां देनेका मेरा यही प्रयोजन है कि भविष्यमें नहीं। ५ लाखसे यह काम हो सकता है, १ मकान और ४ इनकी पुनरावृत्ति न हो। आशा है भाई कस्तुरचन्द्रजी आगेविद्वानका व्यय यही तो रामकहानी है-जो विद्वान नियत को और भी सावधानीसे कार्य करेंगे। साथ ही तीर्थक्षेत्र हों उन्हें २५०) मासिक और ५०) भोजन व्यय दिया कमेटीके मंत्रीसे भी मानुरोध निवेदन है कि वह इनका शुद्धिजावे। यद्यपि यह कुछ कठिन नहीं परन्तु इस ओर लक्ष्य हो पत्र बनवाकर प्रशस्तिसंग्रहमें लगानेका प्रयत्न करें। तब-मैं तो श्री १००८ भगवानसे भी भिक्षा मांगना अनुचित देहली
ता० ३१-३-५२
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वीरसेवामन्दिरके चौदह रत्न (१) पुरातन-जनवाक्य-सूची-प्राकृनके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्थोकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ८ टीकादि
ग्रन्थोमे उद्धृत दूसरे प्राकृत पद्योकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योकी सूची। सयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी गवेषणापूर्ण महत्त्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनामे अलकृत, डा० कालीदाम नाग एम ए, डी लिट के प्राक्कथन (Forcword) और डा० ए एन उपाध्याय एम.ए,डी लिट की भूमिका (Introduction) मे विभपित है, शोध-खोजके विद्वानोके लिये अतीव उपयोगी, बडा साइज, मजिन्द
(प्रस्तावनादिका अलगम मूल्य ५ ) (२) आप्तपरीक्षा--श्रीविद्यानन्दाचार्यकी म्बोपज्ञमटीक अपूर्वकृति, आप्नोकी परीक्षा-द्वारा ईश्वर-विषयक मुन्दर
मरम और मजीव विवेचनको लिा हए, न्यायाचार्य प० दरबारीलालके हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिम
युक्त. माजल्द (३) न्यायदीपिका--न्याय-विद्याकी मुन्दर पोथी, न्यायाचार्य प० दरबारीलालजीकं सस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी पर्गिशष्टोमे अलकृत, मजिल्द ... (6) स्वयम्भूस्तोत्र--ममन्तभद्रभागतीका अपूर्व ग्रन्थ, मम्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्द
परिचय, ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करनी हुई महत्त्वकी
गवेषणापूर्ण प्रस्तावनामे मुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-म्वामी ममन्तभद्रकी अनोग्वी कृति, पापोंके जीतनकी कला, मटीक, सानवाद और श्रीजगलकिशोर
मुख्तारकी महत्त्वकी प्रस्तावनामे अलकृत, मुन्दर जिल्द-महित। (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड--पचाध्यायीकार कवि गजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-महिन
और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाम भूपित । (७) युक्त्यनुशासन--तत्त्वज्ञानमे परिपूर्ण समन्तभद्रकी अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुआ था। मुख्तार थीकं विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिमे अलकृत, सजिल्द। .. (८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र--आचार्य विद्यानन्दरचित, महत्त्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि गहित। .. (९) शासनचतुस्त्रिशिका-(नीयं-परिचय)-मुनि मदनकीनिकी १३वी शताब्दीकी मुन्दर रचना, हिन्दी ___अनुवादादि-महिन। (१०) सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बादके २१ महान् आचार्योके १३७ पुण्य म्मरणो का
महत्त्वपूर्ण सग्रह मुख्तारश्रीकं हिन्दी अनुवादादि-महित। (११) विवाह-समुद्देश्य–मुख्तारथीका लिखा हुआ विवाहका मप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन .. ॥) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी--अनेकान्त जैसे गढ़ गभीर विषयको अतीव मरलनाम समझन-ममझाने की कुजी,
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिग्वित।। (१३) अनित्यभावना--श्रीपद्मनन्दी आचार्यकी महत्त्वकी रचना, मुख्तारश्रीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ
महित। (१४) तत्वार्थसूत्र (प्रभाचन्द्रीय)--मुम्लारश्रीक हिन्दी अनुवाद तथा व्यायाम युक्त नोट--ये मब ग्रन्थ एकमाथ लेनेवालो को ३७॥) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला'
सरसावा, जि. सहारनपुर ।
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e
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अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
अनेकान्त पत्रको स्थायित्व प्रदान करने और सुचारू रूपसे चलानेके लिये कलकत्ता2 में गत इन्द्रध्वज-विधानके अवसर पर (अक्तूबरमें) संरक्षकों और सहायकोंका एक नया 0 • आयोजन हुआ है। उसके अनुसार २५१) या अधिककी सहायता प्रदान करने वाले सज्जन SH 'संरक्षक' और १०१) या इससे ऊपरको सहायता प्रदान करने वाले 'सहायक होते है। अब
तक 'अनेकान्त' के जो 'संरक्षक' और 'सहायक' बने है--उनके शुभ नाम निम्न प्रकार है :
१५००) बा० नन्दलालजी सरावगी कलकत्ता २५१) ला० रघुवीरसिहजी, जैनावाचकम्पनी २५१) बा० छोटेलालजी जैन
देहली २५१) बा० सोहनलाल जी जैन
१०१) ला. परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदाम जी "
देहली २५१) बा० ऋषभचन्द्रजी (V.R.C.) जैन" १०१) बा. लाल चन्दजी बी० सेठी बिनोद मिल्स, २५१) बा. दीनानाथजी सरावगी
उज्जैन २५१) बा० रतनलालजी झाझरी
१०१) बा० घनश्यामदाम बनारसीदासजी कलकत्ता - २५१) सेठ बल्देवदासजी जैन
१०१) बा० लालचन्द्रजी जैन मगवगी " २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी कलकत्ता २५१) सेठ सुश्रालालजी जैन
१०१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) बा. काशीनाथ जी, कलकत्ता २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) बा. गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) सेठ शान्तिप्रसाद जी, जैन
१०१) बा० धनंजयकुमारजी २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) बा० जीतमलजी जैन २५१) ला० कपूरचन्द्र धूपचन्द्रजी, जैन कानपुर १०१) बा० चिरजीलाल जी मगवगी " २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी देहली १०१) बा० रतनलाल चॉदमलजी जैन, रॉची २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली। १०१) ला. महावीर प्रसाद जी ठेकेदार, देहली २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेमल जी, देहली
१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) ला० त्रिलोकचन्द्र जी सहारनपुर
१०१) श्री फतेहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता 18 २५१) सेठ छदामीलाल जी जैन, फीरोजाबाद
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' २५१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
सरसावा, जि० महारनपुर Namahabha
KAKSEKEE रमानन्द जैन शास्त्री c/o धूमीमल धरमदास, चावडी बाजार, देहली। मुद्रक नेशनल प्रिंटिग वर्क्स. १० दरियागज, देहली
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/ दया/ दम
ไกลคะ
I सर्वोदय तीर्थ T
सुप्ति/
अ.
सत् असत्
त्याग/समाधि/
/ समिति / आराधना
सर्वान्तवत्तद्गुण- मुख्य- कल्पं सर्वाऽन्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम् सर्वा पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
एक
नित्थ जीव बुन्ध अनेक अनित्य अजीब मोक्ष पाप
लोक पुण्य
सम्यक दिया सापेक्ष देव हिंसा मिया अविद्या निरपेक्ष पुरुषार्थ
श्री वीर जिनालय
स्वभाव द्रव्य सामान्य परलोक विभाव पर्याय विगोष
युक्ति शुद्धि आत्मा प्रमाण अंगम अशुद्धि परमाया
तीर्थ सर्व पदार्थ तत्त्व-विषय- स्याद्वाद- पुण्योदचे
-- भव्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्य- समन्तभद्र- यतिना तस्मै नमः सन्ततं
- कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिं वीरं प्रणोमि स्फुटम् ॥ -
समता
B
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विषय-सूची
१ ममन्तभद्रभारतीस्तोत्र-कवि नागराज १६९ ९ क्या मेवा साधनामे वाधक है । २. समन्तभद्र-वचनामृत-'यगवीर'
-श्री रिषभदास गका २०२ . ३ समन्तभद्र-प्रतिपादित कर्मयोग--जुगलकिशोर १० कविवर भगवतीदाम और उनकी रचनाएँमुख्तार १७५ .
प० परमानन्द शास्त्री २०५ ४ गाधोजीका अनासक्तिकर्मयोग
११ अश्रमण-प्रायोग्य-परिग्रह -क्षल्लक सिद्धसागर २०९ प्रो० देवेन्द्रकुमार एम ए १८३ १२ अपभ्रश भाषाका पामचारिउ और कविवर ५ गौतमस्वामिर्गचत मूत्रकी प्राचीनता--
देवचन्द-प० परमानन्द जैन शास्त्री २११ क्षुल्लक सिद्धसागर १८४ १३ ५००) रु० के पाँच पुरस्कार--जुगलकिशोर ६. भारतको अहिसा-मस्कृति--बाबू जयभगवान
मुख्तार २१३ एडवोकेट १८५ | १४ मम्पादकीय ७ कविवर द्याननराय-५० परमानद जैन शास्त्री १९३ | १५ दुनियाकी नजगंमे वीरमवान्दिग्के कुछ प्रकाशन १७ ८ क्या जैनमनानुसार अहिमाकी माधना अव्यव- । १६ सरक्षको और सहायको में प्राप्य महायता २२३
हार्य है ? -श्री दौलतगम 'मित्र' २०० | १७. माहित्य परिचय और ममालोचन--परमानन्द २२४
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग (१) अनेकान्तके 'संरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना। (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना । (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसरोंपर अनेकान्तको अच्छी महायता भेजना
तथा भिजवाना। (४) अपनी ओरमे दूसरोको अनेकान्त भेंट-स्वरूप अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या
संस्थाओ, लायब्रेरियों, सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको । (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २५),५०)आदिकी महायता
भेजना । २५) की सहायतामें १०को अनेकान्त अर्धमूल्यमे भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा दिलाना। (७) लोकहितकी साधनामें महायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादिसामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना ।
महायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पतामोट--दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोको
मैनेजर 'अनेकान्त' 'अनेकान्त' एक वर्ष नक भेटस्वरूप भेजा जायगा ।
| वीरसेवामंदिर, सरसावा जि. सहारनपुर ।
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वार्षिक मूल्य ५ )
विश्व तत्व-प्रकाशक
वर्ष ११
किरण ४-५
}
ॐ अर्हम्
नीतिविशेषध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्पन् । परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
सम्पादक - जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
वीरसेवामन्दिर सरसावा जि० सहारनपुर आषाढ़, श्रावण वीर-संवत् २४७८, विक्रम संवत् २००६
कविश्री नागराज -विरचित
समन्तभद्र- भारती स्तोत्र
सास्मरीमि तोष्टवीमि नंनमीमि भारती तंतनीमि पापठीमि बंभणीमि तेमिताम् । देवराज-नागराज-मराज-पूजितां श्रीसमन्तभद्र-वाब- भासुरात्मगोचराम् ॥ १ ॥
'श्रीसमन्तभद्रके वादसे ——— कथनोपकथनसे—जिमका आत्म-विषय देदीप्यमान है और जो देवेंद्रों, नागेन्द्रों तथा नरेन्द्रोंसे पूजित है, उस सरसा भारतीका - समन्तमद्रस्वामीकी सरस्वतीका में बड़े आदरके साथ बार बार स्मरण करता हूं, स्तवन करता हूं, वन्दन करता हूं, विस्तार करता हूं, पाठ करता हूं और व्याख्यान करता हूं ।'
इस संयुक्त किरणका मूल्य १ )
जून, जुलाई
१६५२
मातृ-मान-मेय-सिद्धि-वस्तुगोचरां स्तुवे सप्तभंग - सप्तनीति गम्यतस्वगोचराम् । मोक्षमार्ग- तद्विपक्ष-भूरिधर्मगोचरामाप्ततत्त्वगोचरां समन्तभद्रभारतीम् ॥ २ ॥
'प्रमाता ( ज्ञाता ) की सिद्धि, प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) की सिद्धि और प्रमेय (ज्ञेय) की सिद्धि ये वस्तुएं जिसकी विषय है, जो मतभंग और सप्तनयसे जानने योग्य तत्वोंको अपना विषय किये हुए है - जिसमें सप्तभंगों तथा सप्तनयोंके द्वारा जीवादि तत्वोंका परिज्ञान कराया गया है-जो मोक्षमार्ग और उसके विपरीत संसार-मार्ग-संबंधी प्रचुर धर्मोके विवेचन
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विषय-सची
१७०
अनेकान्त
[ वर्ष ११
को लिये हुए है और आप्ततत्त्वविवेचन-आप्तमीमांसा– लम्बियोंके गर्वरूपी पर्वतके लिए वज्रके समान है और क्षीरभी जिसका विषय है, उस समन्तभद्रभारतीफा में स्तोत्र सागरके समान उज्ज्वल तथा पवित्र है,उस समन्तभद्रभारतीका करता हूं।'
में कीर्तन करता हूं-उसकी प्रशंसामें खुला गान करता हूं।' सूरिसूक्ति-बन्वितामुपेयतस्व-आविनों
मान-नीति-वाक्यसिद्ध-वस्तुपर्म-गोचर वारकीति-भासुरामुपायतत्व-सापनीम् ।
मानित-प्रभाव-सिद्धसिद्धि-सिखसाबनीम् । पूर्वपक्ष-सण्डन-प्रचनावाग्विलासिनी
घोर-भूरि-दुःख-वाषि-तारण-समामिमा संस्तुवे जगदिता समन्तमभारतीम् ॥३॥
चार-चेतसा स्तुवे समन्तभत्रभारतीम् ॥ ६॥ 'जो आचार्योंकी सूक्तियों द्वारा वन्दित है-बड़े बड़े 'प्रमाण, नय तथा आगमके द्वारा सिद्ध हुए वस्तु-धर्म आचार्योंने अपनी प्रभावशालिनी वचनावलि द्वारा जिसकी जिसके विषय है जिसमें प्रमाण, नय तथा आगमके द्वारा पूजा-वन्दनाकी है जो उपेयतरवको बतलानेवाली है, वस्तुधर्मोको सिख किया गया है-,मानित (मान्य) प्रभावउपायतत्त्वकी साधनस्वरूपा है, पूर्वपक्षका खंडन करनेके वाली प्रसिद्ध सिद्धिके-स्वात्मोपलब्धिके-लिए जो सिद्धसाधनी लिये प्रचंड वाग्विलासको लिये हुए है-लीलामात्रमें प्रवा- है—अमोघ उपायस्वरूपा है और घोर तथा प्रचुर दुःखोंदियोंके असत्पक्षका खंडन कर देने में प्रवीण है-और के समुद्रसे पार तारनेके लिए समर्थ है, उस समन्तभद्रभारतीजगतके लिये हितरूप है, उस समन्तभद्रभारतीका में स्तवन की मै शुद्ध हृदयसे प्रशसा करता हूं।'
सान्त-साधनायनन्त-मध्ययुक्त-मध्यमा पात्रकेसरि-प्रभावसिद्धि-कारिणी स्तुचे
मून्य-भाव-सबंबेदितत्व-सिद्धि-सावनीम् । भाष्यकार-योषितामलंकृता मुनीश्वरः।
हेत्वहेतुबाव-सिद्ध-वाक्यजाल-भासुरां गुपपिच्छ-भाषित-प्रकृष्ट-मंगलापिका
मोक्ष-सिद्धये स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥७॥ सिडि-सौल्य-सापनी समन्तभाभारतीम् ॥४॥ 'सादि-सान्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त, और अनादि'पात्रकेसरीपर प्रभावकी सिद्धिमें जो कारणीभूत हुई- अनन्त-रूपसे द्रव्य-पर्यायोका कयन करनेमें जो मध्यस्था हैजिसके प्रभावसे पात्रकेसरी-जैसे महान् विद्वान् जैनधर्ममें इनका सर्वथा एकात स्वीकार नही करती--, शून्य (अभाव) दीक्षित होकर बड़े प्रभावशाली आचार्य बने-,जो भाष्यकार- तत्व, भावतत्त्व और सर्वज्ञतत्त्वकी सिद्धिमें जो साधनीभूत अकलंकदेव-द्वारा पुष्ट हुई, मुनीश्वरो-विद्यानन्द-जैसे है और हेतुवाद तथा अहेतुवाद (आगम) से मिद्ध हुए वाक्यमुनिराजों-द्वारा अलकृत की गई, गृपिच्छाचार्य (उमा- समूहसे प्रकाशमान है अर्थात् जो युक्ति और आगम-द्वारा स्वाति) के कहे हुए उत्कृष्ट मंगलके अर्थको लिये हुए है- सिद्ध हुए वाक्योसे देदीप्यमान है, उम समन्तभद्रभारतीकी उनके गंभीर आशयका प्रतिपादन करनेवाली है और मै, मोक्षकी सिद्धिके लिए, स्तुति करता ह।' सिद्धिके-स्वात्मोपलब्धिके-सौख्यको सिद्ध करनेवाली है,
व्यापकतयाप्तमार्ग-तत्त्वयुग्म-गोवर उस समन्तभद्र-भारतीको-समन्तभद्रकी आप्तमीमांसादि पापहारि-वाग्विलासि-भूषणांशुका स्तुवे । रूप-कृति-मालाको-मैं अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूं
श्रीकरीच धोकरी च सर्वसौल्य-बायिनी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूं।'
नागराज-पूजितां समन्तभद्रभारतीम् ॥ ८॥ इनभूति-भाषित-अमेयनाल-गोचर
'व्यापक-व्याप्यका-गुण-गुणीका-ठीक प्रतिपादन करने बढमानदेव-बोषयुद्ध-चिहिलासिनीम् ।
वाले आप्तमार्गके दो तत्व हेयतत्त्व, उपादेयतत्त्व अथवा योग-सौगतादि-गर्व-पर्वताशनि स्तुबे
उपेयतत्त्व और उपायतत्त्व-जिसके विषय है, जो पापहरणसीरवाषि-समिमा समन्तभाभारतीम् ॥५॥ रूप आभूषण और वाग्विलासरूप वस्त्रको धारण करनेवाली 'इन्द्रभूति (गौतम गणधर)का कहा हुआ प्रमेय-समूह है। साथ ही, श्री-साधिका, बुद्धि-वधिका और सर्वसुख-दायिका जिसका विषय है, जो श्रीवर्धमानदेवके बोषसे प्रबुट हुए है, उस नागराज-पूजित समन्तभद्रभारतीकी में स्तुति चैतन्यके विलासको लिये हुए है, योग तथा बौखादि-मताव- करता हूं।'
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समन्तभद्र-वचनामृत
( ४ )
'तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं' जैसे वाक्योंके द्वारा प्रतिपादन किया है, तब उनके उस कथन के साथ इस कथनकी संगति कैसे बैठेगी ?' यह शंका निर्मूल है, क्योकि अपने विषयकी विवक्षाको साथमे लेकर 'ही' शब्दका प्रयोग करनेसे सर्वथा एकान्तताका कोई प्रसंग नही आता। जैसे 'तीन इंची रेखा एक इंची रेखासे बडी ही है' इस वाक्य मे 'ही' शब्दका प्रयोग सुघटित है और उसने तीन इंची रेखा सर्वधा बडी नही हो जाती, क्योंकि यह अपने साथमें केवल एक इंसी रेलाकी अपेक्षाको लिये हुए है। इसी प्रकार जो भी तात्त्विक कथन अपनी विवक्षाको साथमें लिये हुए रहता है उसके साथ 'ही' शब्दका प्रयोग उसके सुनिश्चयादिकका द्योतक होता है। उसी दृष्टिने प्रत्यकार महोदयने यहा 'डद' तथा 'ई' दोके साथ 'ही' अर्थके वाचक 'एव' शब्दका प्रयोग किया है, जो उनके दूसरे कथनोके माथ किसी तरह भी असगत नही है। उन्होंने तो अपने युक्त्यनुशासन ग्रन्थमे 'अनुक्ततुल्यं यदनेवकार' जैसे वाक्योके द्वारा यहातक स्पष्ट घोषित किया है कि जिस पदके साथमे 'एव' (ही) नही वह अनुक्ततुल्य है— न कहे हुएके समान है। इस एवकारके प्रयोग अप्रयोगविषयक विशेष रहस्यको जाननेके लिये ग्रन्थको देखना चाहिये ।
पनुशासन'
स्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन धर्मशास्त्रमें धर्मके अगभूत-सम्यदर्शनका लक्षण प्रतिपादन करते हुए उसे 'अष्टांग' विशेषणके द्वारा आठ अंगोवाला बतलाया है। वे आठ अंग कौनसे है और उनका क्या स्वरूप है, इसका स्वय स्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजीने जिन अमृत वचनोंका प्रणयन किया है, वे क्रमश इम प्रकार है
-
इदमेवेशं चैव तत्त्वं नान्यन्न चाऽन्यथा । इत्यकम्पाऽऽयसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया दचिः ॥११॥ तर - यथावस्थित वस्तुस्वरूप - यही है और ऐसा ही हैं (जो और जैसाकि दृष्ट तथा इष्टके विरोध - रहित परमागममे प्रतिपादित हुआ है), अन्य नहीं और न अन्य प्रकार है, इस प्रकारकी सन्मार्ग में सम्यग्दर्शनादिरूप समीचीन धर्ममें जो लोहविनिर्मित गावकी आज ( चमक) के समान अकम्पा रुचि है—अडोल श्रद्धा है— उसे 'असशया' - नि.शक्ति अंग कहते है।'
व्याख्या—यहा 'तत्त्व' पद यद्यपि विना किसी विशेषणके सामान्यरूपसे प्रयुक्त हुआ है, परन्तु 'सन्मार्गे' पदके साथमे होनेसे उसका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकृचरित्ररूप उस सन्मार्ग-विषयक तत्व हैं जिनमे प्राय. सारा ही प्रयोजनभूत तत्वसमूह समाविष्ट हो जाता है, और इसलिये सम्यग्दर्शनादिकका सम्यग्दर्शनादिके विषयभूत आप्त-आगम- तपस्वियोका तथा जीव अजीवादि पदार्थोंका भी जो तत्त्व विवक्षित हो उस सबके विषय मे सदेहादिकसे रहिन अडोल बद्धाका होना ही यहा इस अंगका विषय है--- उसमे अनिश्चय जैसी कोई बात नही है। इसी 'तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नही और न अन्य प्रकार है' ऐसी सुनिश्चय और अटल पद्धाकी दोतक बात इस अगके स्वरूप-विषयमें यहा कही गई है।
इस पर किसीको यह आशका करनेकी जरूरत नही है कि 'इस तरहसे तो 'ही' (एव) शब्दके प्रयोग द्वारा 'भी' के आशयकी उपेक्षा करके जो कथन किया गया है उससे तत्त्वको सर्वधा एकान्तताकी प्राप्ति हो जावेगी और तस्व एकान्तात्मक न होकर अनेकान्तात्मक है, ऐसा स्वयं स्वामी समतभद्रने अपने दूसरे ग्रन्थोमें 'एकान्तदृष्टिप्रतिवेषि तस्वं
कर्म-परवसा दुरन्तरितोदये। पाप-बीने सुखेनारचा बढाउनाकांक्षा स्मृता ॥ १२ ॥ 'जो कर्मकी पराधीनताका लिये हुए है-मानावेद नीयादि कर्मोंक उपाधीन है- अन्न सहित है-नाशवान है जिसका उदय दुःखोसे अस्तरित है—अनेक प्रकारके शारीरिक तथा मानसिकादि दु.खोंकी बीच-बीच में प्रादुर्मूर्ति होते रहने से जिसके उदय उपभोगमें बाधा पड़ती रहती है तथा वह एकरसरूप भी रहने नही पाता और जो पापका बीज है- तृष्णाकी अभिवृद्धिद्वारा संक्मेश-परिणामका जनक होनेसे पापोत्पत्ति अथवा पापबन्धका कारण है
१. यह महत्वपूर्ण गम्भीर ग्रन्थ, जिसका हिन्दी में पहलेसे कोई अनुवाद नहीं हुआ था, हालमें वीरमेवामन्दिर सरसावासे हिन्दी अनुवादके साथ प्रकाशित हो गया है। मूल्य सजिल्द ग्रन्थका १।) है।
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१७२
बनेकान्त
[ वर्ष ११
ऐसे ( इन्द्रियादिविषयक सांसारिक ) सुखमें जो अनास्था- अंगका पात्र नहीं। इस अंगके धारकमें गुणप्रीतिके साथ अनासक्ति और अश्रद्धा अरुचि अथवा अनास्थारूप अग्लानिका होना स्वाभाविक है-वह किसी शारीरिक श्रद्धा-अरुचिपूर्वक उसका सेवन है उसे 'अनाकांक्षणा'- अपवित्रताको लेकर या जाति-वर्ग-विशेषके चक्करमें पड नि:काक्षित-अंग कहा गया है।'
कर किसी रत्नत्रयबारी अथवा सम्यग्दर्शनादि-गुणविशिष्ट प्यास्या-यहां सांसारिक विषय-सुखके जो कर्म- धर्मात्माकी अवज्ञामें कभी प्रवृत्त नही होता। परवशादि विशेषण दिये गये है वे उसकी निःसारताको व्यक्त कापये पघि दुःखाना कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । करने में भले प्रकार समर्थ है। उनपर दृष्टि रखते हुए जब उस असम्पक्तिरनत्कीतिरमूढावृष्टिरुच्यते ॥१४॥ मुखका अनुभव किया जाता है तो उसमें आस्था, आसक्ति, दुःखोंके मार्गस्वरूप कुमार्गमें-भवभ्रमणके हेतुइच्छा, रुचि, श्रद्धा तथा लालमादिके लिये कोई स्थान नही भूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रमें तथा रहता और सम्यग्दृष्टिका मब कार्य बिना किसी बाधा- कुमार्गस्थितमें-मिथ्यादर्शनादिके धारक तथा प्ररूपक आकुलताको स्थान दिये सुचारु रूपसे चला जाता है। जो कुदेवादिकोंमे-जो असम्मति है-मनसे उन्हे कल्याणका लोग विषय-मुखके वास्तविक स्वरूपको न समझकर उसमें साधन न मानना है-असम्मुक्ति है-कायकी किमी चेष्टाआसक्त हुए सदा तृष्णावान बने रहते है उन्हे दृष्टिविकारके से उनकी श्रेय.साधन जैसी प्रशमा न करना है-और अनुशिकार समझना चाहिये। वे इस अंगके अधिकारी अथवा स्कोति है-वचनसे उनकी आत्मकल्याण-साधनादिके रूपमें पात्र नही ।
स्तुति न करना है- उसे 'अमूढवृष्टि' अंग कहते है।' स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रय-पवित्रिते । ___व्याख्या-यहा दुखोके उपायभूत जिस कुमार्गका निर्जुगुप्सा गुण-प्रीतिमता निविचिकित्सिता ॥१३॥ उल्लेख है वह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र
'स्वभावसे अशुचि और रत्नत्रयसे—सम्यग्दर्शन- रूप है, जिसे ग्रन्थकी तीमरी कारिकामे 'भवन्ति भवपद्धति' सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूपधर्मसे-पवित्रित कायमे- वाक्यके द्वारा संमार-दु खोका हेतुभूत वह कुमार्ग सूचित किया धार्मिकके शरीरम-जो अग्लानि और गुणप्रीति है वह है जो सम्यग्दर्शनादिरूप सन्मार्गके विपरीत है । ऐसे कुमार्ग'निविचिकित्सिता' मानी गई है । अर्थात् देहके स्वाभाविक की मन-वचन-कायसे प्रशसादिक न करना एक बात तो यह अशुचित्वादि दोषके कारण जो रत्नत्रय गुण-विशिष्ट देही- अमूढदृष्टिके लिये आवश्यक है, दूसरी बात यह आवश्यक के प्रति निरादर भाव न होकर उसके गुणोमे प्रीतिका भाव है कि वह कुमार्गमे स्थितकी भी मन-वचन-कायमे कोई है उसे सम्यग्दर्शनका निविचिकित्मित' अंग कहते है। प्रशसादिक न करे और यह प्रशमादिक जिमका यहा निषेध
व्याख्या-यहा दो बाते खास तौरसे ध्यानमें देने योग्य किया गया है उसके कुमार्गमे स्थित होनेकी दृष्टिसे है, उल्लिखित हुई है, एक तो यह कि शरीर स्वभावसे ही अपवित्र अन्य दृष्टिसे उस व्यक्तिको प्रशंसादिका यहा निषेध नही है। है और इसलिये मानव-मानवके शरीरमें स्वाभाविक अपवि- उदाहरणके लिये एक मनुष्य धार्मिक दृष्टिसे किसी ऐसे त्रताकी दृष्टिसे परस्पर कोई भेद नही है-सबका शरीर मतका अनुयायी है, जिसे 'कुमार्ग' समझना चाहिये; परन्तु हाड़-चाम-रुधिर-मांस-मज्जादि धातु-उपधातुओका बना वह राज्यके रक्षामत्री आदि किसी ऊचे पद पर आसीन है हुआ और मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थोसे भरा हुआ है। और उसने उस पदका कार्य बडी योग्यता, तत्परता और दूसरी यह कि, स्वभावसे अपवित्र शरीर भी गुणोंके योगसे ईमानदारीके साथ सम्पन्न करके प्रजाजनोको अच्छी राहत पवित्र हो जाता है और वे गुण है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, (साता, शान्ति) पहुचाई है, इस दृष्टिसे यदि कोई सम्यग्दृष्टि सम्यक्चारित्ररूप तीन रत्न। जो शरीर इन गुणोसे पवित्र उसकी प्रशंसादिक करता या उसके प्रति आदर-सत्कारके रूप है-इन गुणोंका धारक आत्मा जिस शरीरमें वास करता मे प्रवृत्त होता है, तो उसमें सम्यग्दर्शनका यह अंग कोई बाधक है-उस शरीर तथा शरीरधारीको जो कोई शरीरकी नही है। बाधक तभी होता है जब कुमार्गस्थितिके रूपमें स्वाभाविक अपवित्रता अथवा किसी जाति-वर्गकी विशेषता- उसकी प्रशंसादिक की जाती है। क्योकि कुमार्गस्थितिके के कारण घृणाकी दृष्टिसे देखता है और गुणोमें प्रीतिको रूपमें प्रशंसा करना प्रकारान्तरसे कुमार्गकी ही प्रशसादिक भुला देता है वह दृष्टि-विकारसे युक्त है और इसलिये प्रकृत करना है, जिसे करते हुए एक सम्यग्दृष्टि अमूढदृष्टि नही
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किरण ४-५ ]
समन्तभद्र-वचनामृत
रह सकता ।
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य बालाऽशक्त-अनाऽऽभयाम् । वाच्यतां मत्प्रमामन्ति तदपहनम् ।।१५।। 'जो मार्ग - सम्यन्दर्शनादिरूपधर्म स्वयं शुद्ध हैस्वभावतः निर्दोष है-उसकी बालजनौके-हिताहितविवेकरहित अज्ञानी मूढजनो तथा अशक्तजनोंधर्मका ठीक तौरसे ( यथाविधि ) अनुष्ठान करनेकी सामर्थ्य न रखने वालोंके - - आश्रयको पाकर जो निन्दा होती होउम निर्दोष मार्गमें जो असद्दोषोद्भावन किया जाता हो — उस निन्दा या अमघोषोद्भावनका जो प्रमार्जनदूरीकरण - है उसे 'उपगूहन' अंग कहते है ।'
orrent --- इस अंगकी अगभूत दो बातें यहाँ खास तौरसे लक्षमे लेने योग्य है, एक तो यह कि जिस धर्ममार्गकी निन्दा होती हो वह स्वय शुद्ध होना चाहिये - अशुद्ध नही । जो मार्ग वस्तु अशुद्ध एव दोषपूर्ण है किसी अज्ञानभावादिके कारण कल्पित किया गया है—उसकी निन्दाके परिमार्जनका यहा कोई सम्बन्ध नही है—भले ही उस मार्गका प्रकल्पक किसी धर्मका कोई बडा सन्त साधु या विद्वान ही क्यो न हो । मागंकी शुद्धता-निर्दोषताको देवना पहली बात है। दूसरी । बात यह कि वह निन्दा किसी अज्ञानी अथवा अशक्तजनका आश्रय पाकर घटित हुई हो। जो शुद्धमार्गका अनुयायी नही ऐसे धूर्तजनके द्वारा जानबूझकर घटित की जानेवाली निन्दाके परिमार्जनादिका यहा कोई सम्बन्ध नही हूँ । ऐसे धूनकी कृतियोका यदि सन्मार्गकी निन्दा होनेके भयसे गोपन किया जाता है अथवा उनपर किसी तरह पर्दा डाला जाता है तो उसमे धूर्तनाको प्रोत्साहन मिलता है, बहुतोका अहित होता है और निन्दाकी परम्परा चलती है। अतः ऐसे धूर्तोकी धूर्तताका पर्दाफ़ाश करके उन्हे दण्डित कराना तथा सर्वसाधारणपर यह प्रकट कर देना कि 'ये उक्त सन्मार्ग के अनुयायी न होकर कपटवेपी है' सम्यग्दर्शनके इस अंगमें कोई बाधा उत्पन्न नही करता, प्रत्युत इसके पेशेवर धूतोंसे सन्मार्गकी रक्षा करता है ।
दर्शनाच्चरणाद्वाऽपि चलतां धर्मवत्सलः । प्रत्यवस्थापनं प्रातः स्थितीकरणमुच्यते ॥१६॥ 'सम्यग्दर्शनसे अथवा सम्यकुचारिणसे भी जो लोग चलायमान हो रहे हडिग रहे हों उन्हें उस विषय में दक्ष एवं धर्मसे प्रेम रखनेवाले स्त्री-पुरुषोके द्वारा जो फिरसे सम्यग्दर्शन या सम्यकचारित्रमें (जैसी स्थिति हो) अवस्थापन
"
१७३
करना है उनकी उस मरिमरता, चलचितता, स्वलना एवं डांवाडोल स्थितिको दूर करके उन्हें पहने जैसी अथवा उससे भी सुदृढ स्थितिमें लाना है-वह 'स्थितीकरण' अंग कहा जाताहै ।'
व्या- यहां जिनके प्रत्यवस्थापन अथवा स्थितीकरणकी बात कही गई है वे सम्यग्दर्शन या सम्यवचारित्रसे चलायमान होनेवाले है। धर्मके मुख्य तीन अंगोंमेंसे दो से चलायमान होनेवालोको तो यहा ग्रहण किया गया है किन्तु तीसरे अंग सम्यग्ज्ञानसे चलायमान होनेवालोंको ग्रहण नही किया गया, यह क्यो ? इस प्रश्नका समाधान, जहां तक मैं समझता हूं, इतना ही है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनोका ऐसा जोडा है जो युगपत् उत्पन्न होते हुए भी परस्पर में कारण कार्य भानको लिये रहते हैसम्यग्दर्शन कारण है तो सम्यग्ज्ञान कार्य है, और इसलिये जो सम्यग्दर्शनमे चलायमान है वह सम्यग्ज्ञानमे भी चलायमान है और ऐसी कोई व्यक्ति नहीं होगी जो मम्यग्दर्शनसे तो चलायमान न हो किन्तु सम्यग्ज्ञानमे चलायमान हो, इसीसे नम्यानमे चलायमान होनेवालोके च निर्देशकी यहा कोई रन नही समझी गई। अथवा 'अपि शब्द द्वारा गौण रूपसे उनका भी ग्रहण समझ लेना चाहिये ।
जरूरत
इसके सिवाय, जिनको इम अगका स्वामी बतलाया गया है उनके लिये दो विशेषणोका प्रयोग किया गया हैएक तो 'धर्मवत्न' और दूसरा 'प्रात' इन दोनो यदि कोई गुण न हो तो स्थितीकरणका कार्य नहीं बनना; क्योंकि धर्मवत्मलता के अभावमं तो किसी चलायमानके प्रत्यवस्थापनकी प्रेरणा ही नही होती और प्राज्ञता (दक्षता) - के अभाव में प्रेरणाके होने हुए भी प्रत्यवस्थापनके कार्य में सफल प्रवृत्ति नही बनती अथवा यो कहिये कि सफलता ही नही मिलती। सफलताकेलिये घर्मके उन अंगनें जिनसे कोई चलायमान हो रहा हो स्वयं दक्ष होनेकी और साथ ही यह जाननेकी जरूरत है कि उसके चलायमान होनेका कारण क्या है और उसे कैसे दूर किया जा सकता है ।
स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाचाऽपेत कंतवा । प्रतिपतिर्यायो बाल्यमभिलप्यते ॥ १७॥ 'स्वधर्मसमाजके सदस्यों सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यचारिणरूप आत्मीय धर्मके मानने तथा पालनेवाले साधर्मीजनो के प्रति सद्भावसहित — मंत्री, प्रमोदसेवा तथा परोपकारादिके उनम भावको लिये हुए और
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मनकान्त
वर्ष ११
कपटरहित बो यथायोग्य प्रतिपत्ति है-यथोचित आदर- शय ज्ञानका प्रकाश चाहिये और इससे यह फलित होता है सत्काररूप एवं प्रेममय प्रवृत्ति है-उसे 'बात्सल्य' अंग कि सातिशयज्ञानके प्रकाशद्वारा लोक-हृदयोंमें व्याप्त कहते है।
अज्ञान-अन्धकारको समुचितरूपसे दूर करके जिनशासनके व्याख्या--इस अंगकी सार्थकताके लिये साधर्मी जनोंके माहात्म्यको जो हृदयाकित करना है उसका नाम 'प्रभावना' साथ जो आदर-सत्कार रूप प्रवृत्ति की जाये उसमें तीन बातो- है। और इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कोरी धन-सम्पत्ति को खास तौरसे लक्षमें रखनेकी जरूरत है, एक तो यह कि अथवा बल-पराक्रमकी नुमाइशका नाम 'प्रभावना' नही है वह सद्भावपूर्वक हो-लौकिक लाभादिकी किसी दृष्टि- और न विभूतिके साथ लम्बे-लम्बे जलूसोके निकालनेका को साथमे लिये हुए न होकर सच्चे धर्मप्रेमसे प्रेरित हो। नाम ही प्रभावना है, जो वस्तुत. प्रभावनाके लक्ष्यको साथ दूसरी यह कि उसमें कपट-मायाचार अथवा नुमाइश, दिखावट में लिये हुए न हों। हां, अज्ञान अन्धकारको दूर करनेका पूरा जैसी चीजको कोई स्थान न हो। और तीसरी यह कि वह आयोजन यदि साथ मे हो तो वे उसमे सहायक हो सकते है। 'यथायोग्य' हो--जो जिन गुणोंका पात्र अथवा जिस पदके साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रभावनाका कार्य योग्य हो उसके अनुरूप ही वह आदर-सत्काररूप प्रवृत्ति किसी जोर-जबर्दस्ती अथवा अनुचित दबावसे सम्बन्ध नही होनी चाहिये, ऐसा न होना चाहिये कि धनादिककी किसी रखता-उसका आधार सुयुक्तिवाद और प्रेममय व्यवहारबाह्य दृष्टिके कारण कम पात्र व्यक्ति तो अधिक आदर- द्वारा गलतफहमीको दूर करना है। सत्कारको और अधिक पात्र व्यक्ति कम आदर-सत्कारको यदि सम्यग्दर्शन इन अगोसे हीन है तो वह कितना प्राप्त होवे।
नि.सार एवं अभीष्ट फलको प्राप्त करानेमे असमर्थ है उसे अज्ञान-तिमिर-व्याप्तिमपाकृत्य ययाययम् । व्यक्त करते हुए स्वामी जी लिखते है:जिनशासन-माहात्म्य-प्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥ नाङ्गहीनमलं छत्तुं वर्शनं जन्म-सन्ततिम् ।
'अज्ञान-अन्धकारके प्रसारको (सातिशय ज्ञानके प्रकाश न हि मन्त्रोऽभर-न्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥२१॥ द्वारा) समुचितरूपसे दूर करके जिनशासनके माहात्म्य- 'अगहीन सम्यग्दर्शन जन्म-संततिको-जन्म-मरणकी को-जैनमतके तत्वज्ञान और सदाचार एव तपोविधान- परम्परारूप भव (ससार)प्रबन्धको-छेदनेके लिये समर्थ के महत्वको-जो प्रकाशित करना है-लोक-हृदयोपर नही है; जैसे अक्षरन्यून-कमती अक्षरे वाला-मत्र उसके प्रभावका सिक्का अंकित करना है-उसका नाम विषकी वेदनाको नष्ट करनेमें समर्थ नही होता है।' 'प्रभावना' अग है।'
व्याख्या-जिस प्रकार सर्पसे डसे हुए मनुष्यके सर्वअगमें व्याख्या--जिनशासन जिनेन्द्र-प्रणीत आगमको कहते व्याप्त विषकी वेदनाको दूर करनेके लिये पूर्णाक्षर मत्रके है। उसका महात्म्य उसके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तमूलक प्रयोगकी जरूरत है न्यूनाक्षर मत्रसे काम नही चलता, तत्वज्ञान और अहिसामूलक सदाचार एव कर्मनिर्मूलक उसी प्रकार ससार-बन्धनसे छुटकारा पानेके लिये प्रयुक्त तपोविघानमें संनिहित है। जिनशासनके उस माहात्म्यको हुआ जो सम्यग्दर्शन वह अपने आठो अगोसे पूर्ण होना चाहियेप्रकटित करना-लोक-हृदयोंपर अकित करना ही यहा एक भी अगके कम होनेसे सम्यग्दर्शन विकलागी होगा और 'प्रभावना' कहा गया है। और वह प्रकटीकरण अज्ञानरूप उससे यथेष्ट काम नहीं चलेगा-वह भवबन्धनमे अथवा अन्धकारके प्रसार (फैलाव) को समुचितरूपसे दूर करने- सासारिक दुःखोसे मुक्ति की प्राप्तिका साधन नही हो सकेगा। पर ही सुघटित हो सकता है, जिसको दूर करनेकेलिये साति
--युगवीर
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समन्तभद्र-प्रतिपादित कर्मयोग ( स्वयम्भूस्तोत्रकी मुख्तारश्रीजुगलकिशोर-विरचित-प्रस्तावनासे। )
मन-वचन-काय-सम्बन्धी जिस क्रियाकी प्रवृनि अथवा से सम्बन्ध रखता है, और उन पर अमल करना तथा उन्हें निवृत्तिमे आत्म-विकास सधता है उसकेलिये तदनुरूप अपने जीवनमें उतारना यह कर्मयोगका विषय है। साथ जो भी पुरुषार्थ किया जाता है उसे 'कर्मयोग' कहते है। और ही, 'अपने दोषोंके मूलकारणको अपने ही समाधितेजसे इसलिये कर्मयोग दो प्रकारका है-एक क्रियाकी निवृत्तिरूप भस्म किया जाता है' यह जो विधिवाक्य दिया गया है पुरुषार्थको लिये हुए और दूसग क्रियाकी प्रवृत्तिरूप इसके मर्मको समझना, इसमें उल्लिखित दोषों, उनके पुरुषार्थको लिये हुए। निवृत्ति-प्रधान कर्मयोगमे मन-वचन- मूल कारणो, समाधितेज और उसकी प्रक्रियाको मालूम कार्यमेंसे किसीकी भी क्रिया-का, तीनोकी क्रियाका करके अनुभवमे लाना, यह सब ज्ञानयोगका विषय है अथवा अशुभ क्रियाका निरोध होता है। और प्रवृत्तिप्रधान और उन दोषो तथा उनके कारणोको उस प्रकारसे भस्म कर्मयोगमें शुभकर्मोंमे त्रियोग-क्रियाकी प्रवृत्ति होती है- करनेका जो प्रयत्न अमल अथवा अनुष्ठान है वह सब कर्मयोग अशुभमें नही, क्योकि अशुभकर्म विकाममे साधक न है। इसी तरह अन्य स्तवनोके ज्ञानयोगमेंसेभी कर्मयोग होकर बाधक होते है। राग-द्वेषादिमे हित शुद्धभावरूप सम्बन्धी बातोका विश्लेषण करके उन्हें अलगमे समझ प्रवृत्ति भी इसीके अन्तर्गत है। मच पूछिये तो प्रवृनि बिना लेना चाहिए, और यह बहुत कुछ मुख-माध्य है। निवृनिके और निवृत्ति बिना प्रवृत्तिके होती ही नही-- इमीमे उन्हें फिग्मे यहा देकर प्रस्तावनाको विस्तार देनेएकका दूसरेके माथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनो मुख्य-गौण- की जरूरत नही समझी गई। हा, म्नवन-क्रमको छोडकर, की व्यवस्थाको लिये हुए है। निवृत्तियोगी प्रवृत्तिकी और कर्मयोगका उसके आदि मध्य और अन्तकी दृष्टिसे एक प्रवृत्तियोगमे निवृत्ति की गौणता है। सर्वया प्रवृत्ति या सर्वया सक्षिप्त सार यहा दे देना उचित जान पडता है और वह निवृतिका एकान्न नहीं बनता। और इमलिये स्वयम्भू- पाठकोके लिए विशेष हितकर तथा रुचिकर होगा। अतः स्तोत्रके ज्ञानयोगमं जो बाते किमी न किमी रूपसे विधेय सारे ग्रथका दोहन एव मथन करके उमे देनेका आगे प्रयत्न ठहराई गई है उचित तथा आवश्यक बतलाई गई है अथवा किया जाता है। प्रथके स्थलोकी यथावश्यक सूचना जिनका किसी भी तीर्थकरकेद्वारा स्व-विकासके लिये बेकटके भीतर पद्याकोमे रहेगी। किया जाना विहिन हुआ है उन सबका विधान एव अनुष्ठान कर्मयोगकी आदि और उसका अन्तकर्मयोगमें गर्भित है। इसी तरह जिन बातोको दोषादिक- कर्मयोगका चरम लक्ष्य है आत्माका पूर्णत विकाम । के रूपमें हेय बतलाया गया है, अविधेय तथा अकरणीय आत्माके इम पूर्ण विकामको प्रथमेब्रह्मपद-प्राप्ति मूचित किया गया है अथवा किसी भी तीर्थकरके द्वाग (४) ब्रह्म-निष्ठावस्था, आत्मलक्ष्मीको लब्धि, जिनश्री जिनका छोड़ना-तजना या उनमे विरक्ति धारण करना आदि तथा आहंन्यलक्ष्मीकी प्राप्ति (१०,७८) आर्हन्त्य-पदावाप्ति कहा गया है उन सबका त्याग एव परिहार भी कर्मयोगमे (१३३) आत्यन्तिक स्वास्थ्य-स्वात्मस्थिति (३१), दाखिल (शामिल) है । और इसलिये कर्मयोग-सम्बन्धी उन आत्म-विशुद्धि (४८) कैवल्योपलब्धि (५५) मुक्नि, सब बातो को पूर्वोल्लिखित ज्ञान-योगसे ही जान लेना और विमुक्ति (२७) निवृति (५०,६८), मोक्ष (६०,७३,११७) समझ लेना चाहिए। उदाहरणके तौर पर प्रथम-जिन स्तवनके थायस (११६) श्रेयस् (५१,७५), नि.श्रेयस (५०) ज्ञानयोगमे ममत्वसे विरक्त होना, वधू-वित्तादि परिग्रहका निरजना शांति (१२) उच्चशिवताति (१५) शाश्वतशर्मात्याग करके जिन-दीक्षा लेना, उपसर्ग-परीषहोंका समभावमे वाप्ति (७१), भवक्लेश-भयोपशान्ति (८०) और भवोसहना और सद्वत-नियमोसे चलायमान न होना जमी जिन पशान्ति तथा अभव-सौख्य-संप्राप्ति (११५), जैसे पदबातोको पूर्णविकामके लिये आवश्यक बतलाया गया है वाक्यों अथवा नामोंके द्वारा उल्लिखित किया है । इनमेंमे उनका और उनकी इस आवश्यकताका परिज्ञान ज्ञानयोग- कुछ नाम तो शुद्धस्वरूपमें स्थितिपरक अथवा प्रवृत्तिपरक हैं
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अनेकान्त
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कुछ पररूपसे निवृत्तिके द्योतक हैं और कुछ उस कर्मयोगके विषय ही नहीं जिसका चरम लक्ष्य है आत्माका विकासावस्थामें होनेवाले परम शान्ति-सुखके सूचक है। पूर्णतः विकास । 'जिनश्री' पद उपमालंकारकी दृष्टिसे 'आत्मलक्ष्मी' का ही पूर्णतः आत्मविकासके अभिव्यंजक जो नाम ऊपर वाचक है; क्योकि घातिकर्ममलसे रहित शुद्धात्माको दिये है उनमें मुक्ति और मोक्ष ये दो नाम अधिक लोकप्रसिद्ध अथवा आत्मलक्ष्मीके सातिशय विकासको प्राप्त आत्मा- है और दोनों बन्धनसे छूटनेके एक ही आशयको लिये हुए को ही 'जिन' कहते है। जिनश्री'का ही दूसरा नाम 'निजश्री' है। मुक्ति अथवा मोक्षका जो इच्छुक है उसे 'मुमुक्षु' कहते है। है। 'जिन' और 'अर्हत' पद समानार्थक होनेसे 'आर्हन्त्य- मुमुक्षु होनेसे कर्मयोगका प्रारम्भ होता है-यही कर्मयोगलक्ष्मीपद' भी आत्मलक्ष्मीका ही वाचक है। इसी की आदि अथवा पहली सीढी है। मुमुक्षु बननेसे पहले उस स्वात्मोपलब्धिको पूज्यपाद आचार्यने, सिद्धभक्तिमें, मोक्षका जिसे प्राप्त करनेकी इच्छा हृदयमें जागृत हुई है, "सिद्धि के नामसे उल्लेखित किया है।
उस बन्धनका जिससे छूटनेका नाम मोक्ष है, उस वस्तु या __ अपने शुद्धस्वरूपमें स्थितिरूप यह आत्माका विकास वस्तुसमूहका जिससे बन्धन बना है, बन्धनके कारणोका ही मनुष्योंका स्वार्थ है-असली स्वप्रयोजन है-क्षणभगुर बन्धन जिसके साथ लगा है उस जीवात्माका, बन्धनसे छूटनेभोग-इन्द्रिय विषयोंका सेवन-उनका स्वार्थ नही है, जैसा के उपायोंका और बन्धनसे छूटने में जो लाभ है उसका कि ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रकट है
अर्थात् मोक्षफलका सामान्य ज्ञान होना अनिवार्य हैस्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा उस ज्ञानके बिना कोई मुमुक्षु बन ही नहीं सकता। यह ज्ञान तुषोऽनुषगान्न च तापशान्तिरितीवमात्यद्भगवान्सुपाश्वः जितना ययार्थ विस्तृत एव निर्मल होगा अथवा होता जायगा
॥३१॥ और उसके अनुसार बन्धनसे छूटनेके समीचीन उपायोको और इसलिये इन्द्रिय-विषयोको भोगनेके लिये- जितना अधिक तत्परता और सावधानीके साथ काममें उनसे तृप्ति प्राप्त करनेके लिये-जो भी पुरुषार्थ किया जाता लाया जायगा उतना ही अधिक कर्मयोग सफल होगा, इसमें है वह इस ग्रंथके कर्मयोगका विषय नही है। उक्त वाक्यमे विवादके लिये कोई स्थान नहीं है। बन्ध, मोक्ष तथा दोनोके ही इन भोगोको उत्तरोनर तृष्णाकी-भोगाकाक्षाकी वृद्धि- कारण, बद्ध, मुक्त और मुक्तिका फल इन सब बातोका के कारण बतलाया है, जिसमे शारीरिक तथा मानसिक ताप- कथन यद्यपि अनेक मतो मे पाया जाता है परन्तु इनकी समुचित की शाति होने नही पाती। अन्यत्र भी ग्रथमे इन्हें तृष्णाकी व्यवस्था स्याद्वादी अर्हन्तोके मनमे ही ठीक बैठनी है, जो अभिवृद्धि एव दुःख-सतापके कारण बतलाया है तथा यह भी अनेकान्तदृष्टिको लिये होता है । सर्वथा एकान्तदृष्टिबतलाया है कि इन विषयोमे आसक्ति होनेसे मनुष्योकी को लिये हुए नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्वादि सुखपूर्वक स्थिति नही बनती और न देह अथवा देही (आत्मा) एकान्तपक्षोके प्रतिपादक जो भी मत है उनमेसे किसीमें का कोई उपकार ही बनता है (१३, १८, २०, ३१, ८२)। भी इनकी समुचित व्यवस्था नहीं बनती । इसी बातको मनुष्य प्रायः विषय-सुखकी तृष्णाके वश हुए दिन भर श्रमसे ग्रंयकी निम्न कारिकामे व्यक्त किया गया हैपीड़ित रहते है और रातको सो जाते है-उन्हे आत्महितको बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्चहेतू बडश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तेः । कोई सुधि ही नही रहती (४८) । उनका मन विषय- स्यावादिनो नाप तवैव युक्तं नकान्तवृष्टत्वमतोऽसि शास्ता॥ सुखकी अभिलाषारूप अग्निके दाहले मूछित जैसा हो जाता और यह बात बिलकुल ठीक है । इसको विशेष रूप में है (४७) । इस तरह इन्द्रिय-विषयको हेय बतलाकर उनमें सुमतिजिन आदिके स्तवनामे पाये जानेवाले तत्वज्ञानसे, आसक्तिका निषेध किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उस जिसे ज्ञानयोगमे उद्धृत किया गया है, और स्वामी समन्तभद्र
के देवागम तया युक्त्यनुशासन-जैसे ग्रन्थोके अध्ययनसे और १. स्तुतिविद्याके पार्श्वजिन-स्तवनमें 'पुरुनिजश्रियं' दूसरे भी जैनागमोके स्वाध्यायसे भले प्रकार अनुभत किया पदके द्वारा इसी नामका उल्लेख किया गया है।
जा सकता है । अस्तु। २. "सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुणगणोच्छादि-दोषाप- प्रस्तुत ग्रन्थ में बन्वनको 'अचेतनकृन' (१७) बतलाया
है और उस अचेतनको जिससे चेतन (जीव) बचा है 'कर्म'
जा सकता
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समन्तभद-प्रतिपादित कर्मयोग
(७१, ८४) कहा है , 'कृतान्त' (७९) नाम भी दिया है सम्पन्न होनेसे इस योग, ध्यान अथवा समाधिको, जो कि और दुरित (१०५, ११०), दुरिताजंन (५७), दुरितमल, एक प्रकारका तप है, अग्नि (तेज) कहा गया है। इसी (११५), कल्मष (१२१) तथा 'दोषमूल' (४) जैसे नामोंसे अग्निमे उक्त पुरु ार्थ-द्वारा कर्ममलको जलाया जाता है, भी उल्लेखित किया है। वह कर्म अथवा दुरितमल आठ जैसाकि ग्रन्यके निम्न वाक्योंसे प्रकट हैप्रकारका (११५) है-आठ उसकी मूल प्रकृतियां है, "स्व-पोष-मूलं स्व-समाधि-तेजसा जिनके नाम हैं-१ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ मोहनीय निनाय यो निर्वयमस्मसात्कियाम् (४)। (मोह) ४ अन्तराय, ५ वेदनीय, ६ नाम, ७ गोत्र,८ आयु । "कर्म-कक्षमवत्तहपोऽग्निभिः (०१)। इनमेंसे प्रयम चार प्रकृतिया कटुक (८४) है-बडी ही "प्यानोन्मुले बसि कृतान्तबकम् (७९) । कड़वी है, आत्माके स्वरूपको घात करनेवाली है और इस- "यस्य व शुक्लं परमतपोऽग्निलिये उन्हे 'घातिया' कहा जाता है, शेष चार प्रकृतियां ध्यानमनन्तं दुरितमधामीत् (११०)। 'अघातिया' कहलाती है। इन आठो जड़ कर्ममलोंके अनादि "परमयोग-बहन-हुत-फल्मवेन्धनः (१२१) सम्बन्धसे यह जीवात्मा मलिन, अपवित्र, कलकित, विकृत यह योगाग्नि क्या वस्तु है ? इसका उत्तर प्रन्थके निम्न और स्वभावसे च्युत होकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा वाक्य-परसे ही यह फलित होना है कि 'योग वह सातिशय है; अज्ञान, अहकार, राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, अग्नि है जो रत्नत्रयकी एकाग्रताके योगमे सम्पन्न होती है लोभादिक अमस्य-अनन्त दोषोंका क्रीड़ास्थल बना हुआ है, और जिसमे सबसे पहले कोको कटुक प्रकृतियोंको आहुति जो तरह तरहके नाच नचा रहे है। और इन दोषोके नित्यके दी जाती है'ताण्डव एव उपद्रवसे सदा अशान्त, उद्विग्न अथवा बेचैन हत्वा स्व-कर्म-कुटक-प्रकृतीश्चततो बना रहता है और उसे कभी सच्ची सुख-शान्ति नहीं रत्नत्रयातिशय-तेजसि-जात-बीर्यः । (८४) मिल पाती । इन दोषोकी उत्पत्तिका प्रधान कारण उक्त
'रत्नत्रय' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचरित्रको कर्ममल है, और इसीसे उसे 'दोष-मूल' कहा गया है । वह कहते है, जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थसे पुद्रलद्रव्य होनेसे 'द्रव्यकर्म' भी कहा जाता है और उसके प्रकट है, जिसमे इनका गृहस्थोंकी दृष्टिसे कुछ विस्तारके निमित्तसे होनेवाले दोषोंको 'भावकर्म' कहते है । इन द्रव्य- साथ वर्णन है । इस ग्रन्थमे भी उसके तीनो अगोका उल्लेख भाव-रूप उभय प्रकारके कौका सम्बन्ध जब आत्मासे नही है और वह दृष्टि, सवित् एव पेक्षा-जैसे शब्दोंके द्वारा किया रहता-उसका पूर्णत विच्छेदं हो जाता है-तभी आत्माको गया है (९०), जिनका आशय सम्यग्दर्शनादिकसे असली सुख-शान्तिकी प्राप्ति होती है और उसके प्रायः १ कर्म-छेदनकी शक्तिसे भी सम्पन्न होनेके कारण इन सभी गुण विकसित हो उठते है । यह सुख-शान्ति आत्मामे योगाविकको कहीं कहीं खड्ग तथा बाकी भी उपमा दी बाहरसे नही आती और न गुणोंका कोई प्रवेश ही बाहरसे गई है। यया:होता है, आत्माकी यह सब निजी सम्पनि है जो कर्ममलके “समाषि-चक्रेण पुजिगाय महोदयो दुर्जयमोह-चक्रम् (७७)।" कारण आच्छादित और विलुप्तमी रहती है और उस कर्ममलके "स्व-योग-निस्विश-निशात-धारया दूर होते ही स्वत. अपने असली रूपमे विकासको प्राप्त हो निशात्य यो दुर्जय-मोह-विद्विषम् । (१३३)" जाती है। अतः इस कर्ममलको दूर करना अथवा जलाकर एक स्थानपर समाधिको कर्मरोग-निर्मूलनके लिए भम्म कर देना ही कर्मयोगका परम पुरुषार्थ है। वह परम- 'भैषज्य' (अमोघ-औषषि) की भी उपमा दी गई हैपुरुषार्थ योगबलका सातिशय प्रयोग है, जिसे 'निरुपमयोग- 'विशोषणं मन्मय-दुर्मवाऽमयं समाधि-भैषज्य-गुणमेलीनबल' लिखा है और जिसके उस प्रयोगसे समूचे कर्ममलको यत् (६७)' भम्म करके उस अभव-सौख्यको प्राप्त करनेको घोषणा की २. 'दृष्टि-संविबुपेलावस्त्वया धौर पराजितः' इस गई है जो मंसारमें नहीं पाया जाता (११५) । इस योगके वाक्य के द्वारा इन्हें 'मस्त्र' भी लिखा है, जो माग्नेयमस्व हो दूसरे सिद्ध नाम प्रशस्त (सातिशय) ध्यान (८३), शुक्ल- सकते है अपवा कर्मछेदन की शक्तिले सम्पम होनेके कारण ध्यान (११०) बऔर समाधि (४,७७) है । कर्म-दहन-गुण- बद्गादि जैसे आयुष भी हो सकते है।
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बनेकान्त
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ही है। इन तीनोंकी एकाग्रता जब आत्माकी ओर होती है- ब्रह्मपदादि नामोंसे उल्लेखित किया जाता है। आत्माका ही दर्शन, आत्माका ही ज्ञान, आत्मामे ही रमण ब्रह्मपद आत्माकी परम-विशुद्ध अवस्थाके सिवा दूसरी होने लगता है और परमें आसक्ति छूटकर उपेक्षाभाव कोई चीज नही है। स्वामी समन्तभद्रने प्रस्तुत ग्रन्थमें 'अहिंसा आजाता है तब यह अग्नि सातिशयरूपमें प्रज्वलित हो उठनी भूताना जगति विदितं ब्रह्म परम' (११९) इस वाक्यके द्वारा है और कर्म-प्रकृतियोंको सविशेषरूपसे भस्म करने लगती है। अहिंसाको परमब्रह्म' बतलाया है और यह ठीक ही है, क्योंकि यह भस्म-क्रिया इन त्रिरत्न-किरणोंकी एकाग्रतासे उसी अहिंसा आत्मामे राग-द्वेष-काम-क्रोधादि दोषोंकी निवृत्ति प्रकार सम्पन्न होती है जिस प्रकार कि सूर्यरश्मियोंको शीशे अथवा अप्रादुर्भूतिको कहते है' । जब आत्मामें रागादि-दोषोंया कांच-विशेष में एकाग्र कर शरीरके किसी अंग अथवा का समूलनाश होकर उसकी विभाव-परिणति मिट जाती है वस्त्रादिकपर डाला जाता है तो उनसे वह अगादिक जलने और अपने शुद्धस्वरूपमें चर्या होने लगती है तभी उसमें लगता है । सचमुच एकाग्रतामें बड़ी शक्ति है । इधर-उधर अहिंमाकी पूर्णप्रतिष्ठा कही जाती है, और इसीलिये शुद्धात्मबिखरी हुई तया भिन्नाप्रमुख-शक्तिया वह काम नही देती जो चर्यारूप अहिंसा ही परमब्रह्म है--किसी व्यक्तिविशेषका कि एकत्र और एकाग्र (एकमुख) होकर देती है। चिन्ताके नाम ब्रह्म तथा परमब्रह्म नही है । इसीसे जो ब्रह्मनिष्ठ होता एकाग्र-निरोधका नाम ही ध्यान तथा ममाधि है । आत्म- है वह आत्म-लक्ष्मीकी सम्प्राप्तिके साथ साथ 'सम-मित्रविषयमें यह चिन्ता जितनी एकाग्र होती जाती है मिद्धि शत्रु' होता तथा 'कषाय-दोषोसे रहित होता है। जैसा कि अथवा स्वात्मोपलब्धि भी उतनी ही समीप आती जाती है। ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रकट है - जिस समय इस एकाग्रतासे सम्पन्न एव प्रज्वलित योगानलमे सब्रह्मनिष्ठः सम-मित्र-शत्र-विद्या-विनिर्वान्त-कवायदोषः। कर्मोकी चारों मूल कटुक प्रकृतिया अपनी उत्तर और उनरो- लग्यात्मलक्मीरजितोऽजितात्मा जिनश्रियं मे भगवान्विषत्ताम् ॥ तर शाखा-प्रकृतियोंके साथ भस्म हो जाती है अथवा यो यहा ब्रह्मनिष्ठ अजित भगवानमे 'जिनश्री' की जो कहिये कि सारा घाति-कर्ममल जलकर आत्मासे अलग हो प्रार्थना की गई है उसमे स्पष्ट है कि 'ब्रह्म' और 'जिन' एक जाता है उस समय आत्मा जातवीर्य (परम-शक्तिसम्पन्न) ही है, और इसलिये जो 'जिनश्री' है वही 'ब्रह्मश्री' हैहोता है-उसकी अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और दोनोमे तात्त्विकदृष्टिसे कोई अन्तर नहीं है। यदि अन्तर अनन्तवीर्य नामकी चारों शक्तिया पूर्णत विकसित हो जातो होता तो ब्रह्मनिष्ठसे ब्रह्मश्रीकी प्रार्थना की जाती, न है और सबको देखने-जाननेके साथ माथ पूर्ण सुख-शान्तिका कि जिनश्रीकी । अन्यत्र भी, वृषभतीर्यकरके स्तवन (४) अनुभव होने लगता है। ये शक्तिया ही आत्माकी श्री है, में जहा 'ब्रह्मपद' का उल्लेख है वहां उसे 'जिनपद' के अभिलक्ष्मी है, शोभा है । और यह विकास उसी प्रकारका होता प्रायसे सर्वथा भिन्न न समझना चाहिये । वहा अगले ही पद्य है जिस प्रकारका कि सुवर्ण-पाषाणसे सुवर्णका होता है। (५) में उन्हें स्पष्टतया जिन' रूपसे उल्लेखित भी किया है। पाषाण-स्थित सुवर्ण जिस तरह अग्नि-प्रयोगादिके योग्य दोनों पदोंमे थोडासा दृष्टिभेद है-'जिन' पद कर्मके निषेधसाधनोंको पाकर किट्ट-कालिमादि पाषाणमलसे अलग की दृष्टिको लिये हुए है और 'ब्रह्म' पद स्वरूपमें अवस्थिति होता हुआ अपने शुद्ध सुवर्णरूपमें परिणत हो जाता है उसी अथवा प्रवृत्तिकी दृष्टिको प्रधान किये हुए है । कर्मके निषेधतरह यह संसारी जीव उक्त कर्ममलके भस्म होकर पृथक् विना स्वरूपमे प्रवृत्ति नहीं बनती और स्वरूपमें प्रवृत्तिके हो जानेपर अपने शुवात्मस्वरूपमें परिणत हो जाता है। विना कर्मका निषेध कोई अर्थ नही रखता। विधि और घाति-कर्ममलके अभावके साथ प्रादुर्भत होने वाले इस निषेध दोनोंमें परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है-एकके विकासकानाम ही 'आर्हन्त्यपद' है जो बडा ही अचिन्त्य है विना दूसरेका अस्तित्व ही नही बनता, यह बात प्रस्तुत ग्रन्थअद्भुत है और त्रिलोककी पूजाके अतिशय (परमप्रकर्ष) में खूब स्पष्ट करके समझाई गई है । अत संज्ञा अथवा शब्दका स्थान है (१३३) । इसीको जिनपद, कैवल्यपद तथा भेदके कारण सर्वथा भेदकी कल्पना करना न्याय-संगत नही १. सिडिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुण-गणगणोच्छादिदोषाप- १. मप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति ।
हारात् । योग्योपादान-युक्त्या वृषबह यथा हेमभावो- तेषामेवोत्पत्तिहिन्सेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥४॥ पलग्षिः ॥१॥ -पूज्यपाद-सिटमक्ति
-पुरुषार्थसिमपुपाये, अमृतचनः।
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किरण ४-५]
समन्तभाव-प्रतिपादित कर्मयोग
है । अस्तु।
कर्मयोगका मध्यजब घाति-कर्ममल जलकर अथवा शक्तिहीन होकर अब कर्मयोगके 'मध्य' पर विचार करना है, जिसके आत्मासे बिल्कुल अलग हो जाता है तब शेष रहे चारों आश्रय बिना कर्मयोगकी अन्तिम तथा अन्तसे पूर्वकी अवस्थाआघातियाकर्म, जो पहले ही आत्माके स्वरूपको घातनेमे को कोई अवसर ही नही मिल सकता और न आत्माका समर्थ नही थे, पुष्ठबलके न रहनेपर और भी अधिक आघातिया उक्त विकास ही सध सकता है। हो जाते एव निर्बल पड़ जाते है और विकसित आत्माके मोक्ष-प्राप्तिकी सदिच्छाको लेकर जब कोई सच्चा मुमुक्षु सुखोपभोग एवं ज्ञानादिककी प्रवृत्तिमे जरा भी अडचन नहीं बनता है तब उसमे बन्धके कारणोंके प्रति अरुचिका होना डालते। उनके द्वारा निर्मित, स्थित और संचालित शरीर स्वाभाविक हो जाता है। मोक्षप्राप्तिकी इच्छा जितनी तीव्र भी अपने बाह्यकरण-स्पर्शनादिक इन्द्रियों और अन्तःकरण होगी बन्ध तथा बन्ध-कारणोंके प्रति अरुचि भी उसकी उतनी मनके साथ उसमे कोई बाधा उपस्थित नहीं करता और ही बढ़ती जायगी और वह बन्धनोंको तोड़ने, कम करने, घटाने न अपने उभयकरणोके द्वारा कोई उपकार ही सम्पन्न करता एवं बन्धकारणोंको मिटाने के समुचित प्रयत्नमें लग जायगा, है'। उन आघानिया प्रकृतियोंका नाश उसी पर्यायमे अवश्य- यह भी स्वाभाविक है। सबसे बडा बन्धनं और दूसरे बन्धनोंभावी होता है-आयुकर्मकी स्थिति पूरी होते होते अथवा का प्रधान कारण मोह है । इस मोहका बहुत बड़ा परिवार पूरी होनेके साथ साथ ही वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मोकी है। दृष्टि-विकार (मिथ्यात्व) ममकार, अहंकार, राग, द्वेष, प्रकृतिया भी नष्ट हो जाती है अथवा योग-निगेधादिके काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय, और द्वारा महजमे ही नष्ट कर दी जाती है । और इसलिये जो घृणा (जुगुप्मा) ये सब उस परिवारके प्रमुख अंग है अथवा घातिया कर्मप्रकृतियोका नाश कर आत्मलक्ष्मीको प्राप्त मोहके परिणाम-विशेष है, जिनके उत्तरोत्तर भेद तथा प्रकार होता है उमका आत्मविकास प्रायः पूरा ही हो जाता है, वह असंख्य है। इन्हे अन्नरग तथा आभ्यन्तर परिग्रह भी कहते शरीर-सम्बन्धको छोडकर अन्य सब प्रकारसे मुक्त होता है है। इन्होने भीतरमे जीवात्माको पकड़ तथा जकड़ रक्खा
और इसीसे उसे 'जीवन्मुक्त' या 'मदेहमुक्त' कहते है- है। ये ग्रहकी तरह उसे चिपटे हुए है और अनन्त दोषों, विकारो 'सकलपरमात्मा' भी उसका नाम इसी शारीरिक दृष्टिको एवं आपदाओका कारण बने हुए है। इसीसे ग्रन्थमे मोहको लेकर है। उसके लिये उसी भवसे मोक्षप्राप्त करना,विदेहमुक्त अनन्त दोषोका घर बतलाते हुए उस ग्राहकी उपमा दी होना और निष्कल परमात्मा बनना अमन्दिग्ध नथा अनि- गई है जो चिरकालमे आत्माके साथ संलग्न है-चिपटा वार्य हो जाता है-उसकी इस सिद्धपद-प्राप्तिको फिर हुआ है। माथ ही उमे वह पापी शत्रु बतलाया है जिसके कोई रोक नहीं सकता। ऐसी स्थितिमे यह स्पष्ट है कि घाति- क्रोधादि कषाय सुभट है (६५) । इम मोहमे पिण्ड छुडानेके कर्ममलको आत्मासे सदाके लिये पृथक् कर देना ही सबसे लिये उमके अगोको जैसे तैसे भग करना,उन्हे निबेल-कमजोर बडा पुरुषार्थ है और इमलिये कर्मयोगर्म मबसे अधिक महत्व बनाना, उनकी आज्ञा न चलना अथवा उनके अनुकूल परिइसीको प्राप्त है। इसके बाद जिम अन्तिम समाधि अथवा णमन न करना जरूरी है। शुक्लध्यानके द्वारा अवशिष्ट अघातिया कर्मप्रकृनियोका सबसे पहले दृष्टिविकारको दूर करनेकी जरूरत है। मूलतः विनाश किया जाता है और सकलकर्ममे विमुक्तिरूप यह महाबन्धन है,सर्वोपरि बन्धन है और इसके नीचे दूसरे मोक्षपदको प्राप्त किया जाता है उसके साथ ही कर्मयोगकी __ बन्धन छिपे रहते है । दृष्टिविकारकी मौजूदगीम यथार्थ समाप्ति हो जाती है और इसलिये उक्त अन्तिम समाधि ही वस्तुनन्वका पग्जिान ही नहीं हो पाता-बन्धन बन्धनरूप कर्मयोगका अन्त है, जिसका प्रारम्भ 'मुमुक्षु' बननेके साथ- में नजर नहीं आता और न शत्रु शत्रुके रूपमे दिखाई देता है। साथ होता है।
नतीजा यह होता है कि हम बन्धनको बन्धन न समझ कर १. जैसा कि प्रन्यगत स्वामी समन्तभनके निम्न वाक्यसे उसे अपनाए रहते है, शत्रुको मित्र मानकर उसकी आज्ञामे प्रकट है
चलते रहते है और हानिकारकको हितकर समझनेकी भूल बहिरन्तरप्युभयया च करणमविघाति नायकृत् । करके निरन्तर दुखों तथा कष्टोके चक्करमे पड़े रहते हैनापी युगपदखिलं च सदास्वमिवंतलामलकवद्विवेविष।१२९॥ कभी निराकुल एव सच्चे शान्तिसुनके उपभोक्ता नहीं हो
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पायें इस दृष्टि-विकारको दूर करनेके लिये 'अनेकान्त' का आश्रय लेना परम आवश्यक है। अनेकान्त ही इस महारोगकी अमोष औषधि है । अनेकान्त ही इस दृष्टिविकारके जनक तिमिर - जालको छेड़नेकी पनी छैनी है। जब दृष्टिमें अनेकान्त समाता है— अनेकान्तमय अंजनाविक अपना काम करता हैं - तब सब कुछ ठीक ठीक नजर आने लगता है। दृष्टिमे अनेकान्तके संस्कारविना जो कुछ नजर आता है वह सब प्रायः मिथ्या भ्रमरूप तथा अवास्तविक होता है। इसीसे प्रस्तुत ग्रन्थ में दृष्टिविकारको मिटानेके लिये अनेकान्तकी लास तीरसे योजना की गई है उसके स्वरूपादिको स्पष्ट करके बतलाया गया है, जिससे उसके ग्रहण तथा उपयोगादिकमें सुविधा हो सके। साथ ही यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि जिस दृष्टिका आत्मा अनेकान्त है जो दृष्टि अनेकान्तसे संस्कारित अथवा युक्त है-वह सती सच्ची अथवा समीचीन दृष्टि है, उसीके द्वारा सत्यका दर्शन होता है, और जो दृष्टि अनेकान्तात्मक न होकर सर्वया एकान्तात्मक है वह असती झूठी अथवा मिध्यादृष्टि है और इसलिये उसके द्वारा सत्यका दर्शन न होकर असत्यका ही दर्शन होता है। वस्तुतवके अनेकान्तात्मक होनेसे अनेकान्तके बिना एकान्तकी स्वरूप प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती। 1 अत सबसे पहले दृष्टि विकारपर प्रहार कर उसका सुधार करना चाहिये और तदनन्तर मोहके दूसरे अगों पर, जिन्हे दृष्टि-विकारके कारण अभी तक अपना सगा समझकर अपना रक्खा था, प्रतिपक्ष भावनाओंके बलपर अधिकार करना चाहिये — उनसे शत्रुजैसा व्यवहार कर उन्हें अपने आत्मनगरसे निकाल बाहर करना चाहिये अथवा यों कहिये कि क्रोषादिरूप न परिणमनेका दृड सकल्प करके उसके बहिष्कार का प्रत्यस्न करना चाहिये। इसीको अन्तरंग परिग्रहका त्याग कहते हैं।
अन्तरंग परिग्रहको जिसके द्वारा पोषण मिलता है वह बाह्य परिग्रह है और उसमे संसारकी सभी कुछ सम्पत्ति और विभूति शामिल है। इस बाह्य सम्पत्ति एवं विभूतिके सम्पर्कमे अधिक रहनेसे रागादिकी उत्पत्ति होती है. ममत्व-परिणामको अवसर मिलता है, रक्षण वर्धन बीर विषनादि-सम्बन्धी अनेक प्रकारकी चिन्ताएँ तथा आकुलताएं घेरे रहती है, भय बना रहता है, जिन सबके प्रतिकार में काफी शक्ति लगानी पड़ती है तथा आरम्भ जैसे सावध १. अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः ।
ततः सर्व वोक्तं स्यान्तवमुक्तं स्वघाततः ॥९८॥
अनेकान्त
[११
कर्म करने पड़ते है और इस तरह उक्त सम्पत्ति एवं विभूतिका मोह बढ़ता रहता है । इसीसे इस सम्पत्ति एवं विभूतिको बाह्य परिग्रह कहा गया है। मोहके बढ़नेका निमित्त होनेसे इन बाह्य पदार्थों के साथ अधिक सम्पर्क नहीं बढ़ाना चाहिये, आवश्यकतासे अधिक इनका समय नहीं करना चाहिये। आवश्यकताओंको भी बराबर घटाते रहना चाहिये। आवश्यकताकी वृद्धि बन्धनोंकी ही वृद्धि है ऐसा समझना चाहिये और आवश्यकतानुसार जिन बाह्य चेतन-अचेतन पदार्थक साथ सम्पर्क रखना पड़े उनमें भी आसक्तिका भाव तथा ममत्व - परिणाम नही रखना चाहिये । यही सब बाह्य परिग्रहका एकदेश और सर्वदेश त्याग है । एकदेश त्याग गृहस्थियो के लिये और सर्वदेश रवान मुनियोंक लिये होता है।
इन दोनों प्रकार के परिग्रहोंके पूर्ण त्याग विना वह समाषि नही बनती जिसमे चारों पातिया कर्मप्रकृतियोंको भस्म किया जाता है और न उस महिलाकी सिद्धि ही होती है जिसे 'परम- बड़ा बतलाया गया है। अत समाधि और अहिंसा परमब्रह्म दोनोंकी सिद्धिके लिये —दोनो प्रकारके परिग्रहोंका, जिन्हें 'ग्रन्थ' नामसे उल्लेखित किया जाता है, त्याग करके नैर्ग्रन्थ्य-गुण अथवा अपरिग्रह व्रतको अपनाने की बड़ी जरूरत होती है। इसी भावको निम्न दो कारिकाओं में व्यक्त किया गया है
गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान्वयाबन्धं शांतिसलीमशिश्रियत् । समाधितंत्रस्तपोपपत्तये द्वयेन मैन्यगुणेन चात् ।। १६ ।। अहिंसा भूतानां जगत विदितं ब्रह्म परमं न सा तमारम्भोत्यनुरपि च यत्राश्रमविधी ।
१. इसी बात को लेकर त्रिप्रवंशाग्रणी श्रीपात्रकेशरी स्वामीने, जो स्वामी समन्तभद्रके 'वैवागम' को प्राप्त करके जैनधर्म में दीक्षित हुए थे, अपने स्तोत्रके निम्न पक्षमें परिग्रही बीबाँकी दशाका कुछ दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है कि ऐसे परिप्रक्वति कलुवात्माओं के परममुक्तरूप सयानता बनती कहाँ है ?'
परिग्रहवतां सतां भयमवश्यमापचते प्रकोप - परिहिंसने च परुषानृत-व्याहती । ममत्वमय चोरतः स्वमनसश्च विभ्रान्तता कुतो हि कलुषात्मनां परमशुक्लसध्यानता ॥ ४२ ॥ २. उभय-परिवर्तनमाचार्याः सूचयन्त्यहितेति । द्विविध-परिग्रह-बहन हिंसेति जिन-प्रवचनशाः ॥११८॥ -पुरुषार्थसिद्धभुषाये, अमृतचन्द्रि
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किरण ४-५]
समन्तभव-प्रतिपावित कर्मयोग
१८१
ततस्तसिवाय परमकरणो पन्यमुभवं ।
लक्ष्यभष्ट एवं व्रतच्युत हो गये थे। भवानेवाण्यातील विकृत-वोपपिरतः ॥११९॥ ऐसी हालतमें इस बाह्य-परिग्रहके त्यागसे पहले बीर बाद
यह परिग्रह-त्याग उन साधुओंसे नहीं बनता जोप्राकृतिक- को भी मन-सहित पांचों इन्द्रियों तथा कोष-लोभादि-कषायोंवेषके विरुद्ध विकृत वेष तथा उपाधिमें रत रहते हैं। और यह के दमनकी-उन्हें जीतने अथवा स्वात्माधीन रखने कीत्याग उस तृष्णा नदीको सुखानेके लिये ग्रीष्मकालीन सूर्यके बहुत बड़ी जरूरत है । इनपर अपना कंट्रोल (Control) समान है, जिसमें परिश्रमरूपी जल भरा रहता है और अनेक होनेसे उपसर्ग-परिषहादि कष्टके अवसरों पर मुमुक्ष अडोल प्रकारके भयोंकी लहरें उठा करती है।
रहता है, इतना ही नही बल्कि उसका त्याग भी भले प्रकार दृष्टिविकारके मिटनेपर जब बन्धनका ठीक भान हो जाता बनता है । और उस त्यागका निर्वाह भी भले प्रकार सघता है, शत्रु-मित्र एवं हितकर-अहितकरका भेद साफ़ नजर आने है। सच पूछिये तो इन्द्रियादिके दमनविना-उनपर अपना लगता है और बन्धनोके प्रति अरुचि बढ जाती है तथा मोक्ष- काबू किये बगैर-सच्चा त्याग बनता ही नहीं, और यदि प्राप्ति की इच्छा तीवसे तीव्रतर हो उठती है तब उस ममक्षके भावुकताके वश बन भी जाय तो उसका निर्वाह नहीं हो सामने चक्रवर्तीका सारा साम्राज्य भी जीर्ण तृणके समान हो
सकता । इसीसे ग्रन्थमें इस दमका महत्व ख्यापित करते जाता है, उसे उसमें कुछ भी रस अथवा सार मालम नहीं ए उसे 'तीर्थ' बतलाया है-संसारसे पार उतरनेका उपाय होता, और इसलिये वह उससे उपेक्षा धारण कर-वधू सुलाया
सुझाया है-और 'दम-तीर्थ-नायकः' तथा 'अनवच-विनयवित्तादि सभी सुखरूप समझी जाने वाली सामग्री एवं दमताथनायकः' जैसे पदो-द्वारा जैनतीर्थंकरोंको उस तीर्थविभूतिका परित्याग कर-जंगलका रास्ता लेता है और का नायक बतला कर यह घोषित किया है कि जैनतीर्थंकरोंका अपने ध्येयकी सिद्धिके लिये अपरिग्रहादि-प्रतस्वरूप 'दैगम्बरी शासन इन्द्रिय-कषाय-निग्रहपरक है (१०४,१२२) । साथ। जिनदीक्षाको अपनाता है-मोक्षकी साधनाके लिये निम्रन्थ ही, यह भा निदिष्ट किया है कि वह दम (वमन) मायाचार साधु बनता है। परममुमुक्षुके इसी भाव एवं कर्तव्यको रहित निष्कपट एवं निर्दोष होना चाहिये-दम्भके रूपमें नहीं श्री वृषभजिन और अरजिनकी स्तुतिके निम्न वो पधोंमें (१४१) । इस दमके साथी सहयोगी एवं सखा (मित्र) समाविष्ट किया गया है :
है यम-नियम, विनय, तप और दया । अहिंसादि व्रतानुष्ठान विहाय यः सागर-बारिवाससं वधूमिवेमा बसुषा-वधू सतीम् ।
का नाम 'यम' है । कोई व्रतानुष्ठान जब यावज्जीवके लिये मुमुलरिक्वाकुकुलादिरात्मवाप्रभुः प्रववाज सहिष्णुरव्युतः ३
न होकर परमितकालके लिये होता है तब वह 'नियम' कहलक्मी-विभव-सर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलांछनम् ।
लाता है' । यमको ग्रन्थमें 'सप्रयामदमाय.' (१४१) पदके साम्राज्यं सार्वभौम ते जरतृणमिवाऽभवत् ॥८॥
द्वारा 'याम' शब्दसे उल्लेखित किया है जो स्वार्षिक 'अण' समस्त बाह्य परिग्रह और गृहस्थ-जीवनकी सारी सुख
प्रत्ययके कारण यमका ही वाचक है और 'प्र' उपसर्गके साथ सुविधाओंको त्यागकर साधु-मुनि बनना यह मोक्षके मार्गमे म रहनस महायम (महावतानुष्ठान ) का सूचक हो जाता एक बहुत बड़ा कदम उठाना होता है । इस कदमको उठानेसे
है। इस यम अथवा महायमको ग्रन्थमें 'अधिगत मुनि-सुव्रतपहले मुमुक्षु कर्मयोगी अपनी शक्ति और विचारसम्पत्तिका
स्थिति.' (१११) पदके द्वारा 'सुव्रत' भी सूचित किया है खूब सन्तुलन करता है और जब यह देखता है कि वह सब
और वे सुव्रत अहिंसादिक महाव्रत ही है, जिन्हें कर्मयोगीको प्रकारके कष्टों तया उपसर्ग-परिषहोको समभावसे सह लेगा
भले प्रकार अधिगत और 'अधिकृत' करना होता है । विनयमें तभी उक्त कदम उठाता है और कदम उठानेके बाद बराबर
अहंकारका त्याग और दूसरा भी कितना ही सदाचार शामिल अपने लक्ष्यकी ओर सावधान रहता एवं बढ़ता जाता है।
है। तपमे सासारिक इच्छाओंके निरोधकी प्रमुखता है और ऐसा होनपर ही वह तृतीय-कारिकामें उल्लेखित उन 'सहिष्णु'
वह बाह्य तथा अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है । बाह्यतप तथा 'अच्युत' पदोंको प्राप्त होता है, जिन्हें ऋषभदेवने प्राप्त
__ अनशनादिक-रूप' है और वह अन्तरंग तपकी वृद्धिके लिये किया था, जब कि दूसरे राजा, जो अपनी शक्ति एवं विचार
१नियमः परिमितकालो यावन्नीवं यमो प्रियते । सम्पत्तिका कोई विचार न कर भावुकताके वश उनके साथ अनसनानोरातपरिसंस्थान-रसपरित्याग-विविक्त वीक्षित हो गये थे, कष्ट पग्विहोंके सहने में असमर्थ होकर शव्यासन-कायपलेशाबाई तपः। -तत्वावर-१९
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१८२
बनेकान्त
[वर्ष ११
ही किया जाता है (८३)-वही उसका लक्ष्य और ध्येय है, योगी सावुके सारे धर्म-समूहको दयाकी किरणोंवाला बतलाया मात्र शरीरको सुखाना,कृश करना अथवा कष्ट पहुंचाना उसका है (७८) और सच्चे मुनिको दयामूर्तिके रूपमें पापों की शांति उद्देश्य नही है । अन्तरंग तप प्रायश्चितादिरूप' है, जिसमे करने वाला (७६)और अखिल प्राणियों के प्रति अपनी दयाका ज्ञानाराधन और ध्यान-साधनकी प्रधानता है-प्रायश्त्तिादिक विस्तार करने वाला (८१) लिखा है। उसका रूप शरीरकी प्रायः उन्हीकी वृद्धि और सिद्धिको लक्ष्यमे लेकर किये जाते है। उक्त स्थितिके साथ विद्या, दम और दयाकी तत्परताको ध्यान आर्त, रौद्र, धम्यं और शुक्लके भेदसे चार प्रकारका लिये हुए होता है (९४)। दयाके बिना न दम बनता है, न यमहोता है, जिनमें पहले दो भेद अप्रशस्त (कलुषित) और नियमादिक और न परिग्रहका त्याग ही सुघटित होता है। दूसरे दो प्रशस्त (सातिशय) ध्यान कहलाते हैं। दोनों अप्रशस्त फिर समाधि और उसके द्वारा कर्मबन्धनोको काटने अथवा ध्यानोंको छोड़कर प्रशस्त ध्यानोंमें प्रवृत्ति करना ही इस भस्म करनेकी तो बात ही दूर है। इसी से समाधिकी कर्मयोगीके लिये विहित है (८३)। यह योगी तप साधनाकी सिद्धिके लिये जहा उभय प्रकारके परिग्रह-त्यागको आवश्यक प्रधानताके कारण 'तपस्वी' भी कहलाता है, परन्तु इसका बतलाया है, वहा क्षमा-सखीवाली दया-वधूको अपने आश्रयमें तप दूसरे कुछ तपस्वियोंकी तरह सन्ततिकी, धनसम्पत्तिकी रखनेकी बात भी कही गई है (१६) और अहिंसा-परमब्रह्म तथा परलोकमें इन्द्रासनादि-प्राप्तिकी आशा-तृष्णाको लेकर की सिद्धिके लिये जहा उस आश्रमविधिको अपनानेकी बात नहीं होता, बल्कि उसका शुद्धलक्ष्य स्वात्मोपलब्धि होता है- करते हुए जिसमें अणुमात्र भी आरम्भ न हो, द्विविध-परिग्रहके वह जन्म-जरा-मरणरूप ससार-परिभ्रमणसे छूटनेके लिये त्यागका विधान किया है वहा उस परिग्रह-त्यागीको 'परमअपने मन-वचन और कायकी प्रवृत्तियोको तपश्चरण-द्वारा करुणः' पदके द्वारा परमकरुणाभावसे-असाधारण-दयास्वाधीन करता है (४८), इन्द्रिय-विषय-सौख्यमे पराङ्मुख सम्पनिमे- सम्पन्न भी सूचित किया है। इस तरह दम, रहता है (८१) और इतना निस्पृह हो जाता है कि अपने देह- त्याग और समाधि (तथा उनसे सम्बन्धित यम-नियमादिक) से भी विरक्त रहता है (७३)-उसे धोना, माजना, तेल सबमे दयाकी प्रधानता है। इसीसे मुमुक्षुके लिये कर्मयोगके लगाना, कोमल शय्यापर सुलाना, पौष्टिक भोजन कराना, अगोम 'दया'को अलग ही रखा गया है और पहला स्थान दिया श्रृंगारित करना और सर्दी गर्मी आदिकी परिषहोंसे अना- गया है। वश्यकरूपमें बचाना जैसे कार्योंमे वह कोई रुचि नहीं रखता।
स्वामी समन्तभद्रने अपने दूसरे महान् ग्रन्थ 'युक्त्यनुउसका शरीर आभूषणों, वेषो, आयुधो और वस्त्र-प्रावरणादि
शासन' में कर्मयोगके इन चार अंगों दया, दम, त्याग और रूप व्यवधानोंसे रहित होता है और इन्द्रियोकी शान्तताको
समाधिका इमी क्रमसे उल्लेख किया है और साथ ही यह लिये रहता है (९४, १२०) । ऐसे तपस्वीका एक सुन्दर
निर्दिष्ट किया है कि वीरजिनेन्द्रका शासन (मत) नयसक्षिप्त लक्षण ग्रन्थकार-महोदयने अपने दूसरे ग्रन्थ 'समीचीन धर्मशास्त्र' (रलकरण्ड) में निम्न प्रकार दिया है
प्रमाणके द्वारा वस्तु-तत्त्व-को स्पष्ट करनेके साथ साथ इन
चारोकी तत्परताको लिये हुए है, ये सब उसकी खास विशेषविषयाशा-शातीतो निरारम्भोऽपरिप्रहः ।
ताए है और इन्हीके कारण वह अद्वितीय है तथा अखिल मान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥
प्रवादियोके द्वारा अधृष्य है-अजय्य है । जैसा कि उक्त ग्रन्थ'जो इन्द्रिय-विषयोकी आशातकके वशवर्ती नही है, आरम्भोंसे-कृषि-वाणिज्यादिरूप सावद्यकर्मोसे-रहित है,
की निम्न कारिकासे प्रकट है - बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे मुक्त है और पान-ध्यानकी प्रधा- - -- नताको लिये हुए नपम्यामें लीन रहता है वह तपस्वी प्रशं- २. श्री विद्यानन्दाचार्य इस क्रमकी सार्थकता बतलाते सनीय है।'
ए टीकामें लिखते है-निमित्तमित्तिक-भाव-निबन्धनः ____ अब रही दयाकी बात, वह तो सारे धर्मानुष्ठानका प्राण पूर्वोत्तर-वचन-क्रम । बया हि निमित्तम् बमस्य, तस्या सत्या ही है । इसीसे 'मुनी दया-दीषित-धर्मचक्रं' वाक्यके द्वारा तदुत्पत्तेः । बमञ्च त्यागस्य (निमित्त ) तस्मिन्सति १. प्रायश्चित्त-विनय-यावृत्य-स्वाध्यायव्यत्सर्ग-प्याना- तपटनात् । त्यागश्च समाघेस्तस्मिन्सत्येव विक्षेपाविनिवृत्ति
-सस्वासूत्र ९-२०॥ सिरेकापस्य समाधिविशेषस्योत्पत्तेः अन्यथा तनुपपत्ते."
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किरण ४-५ ]
दया-बम-माग- समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण प्रकृतासार्थम् । अवृष्यमन्यैरखिलं : प्रवादेजिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥
यह कारिका बड़े महत्वकी है। इसमें वीरजिनेन्द्रके शासनका बीज - पदोंमें सूत्ररूपसे सार सकलन करते हुए भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग तीनोंका सुन्दर समावेश किया गया है । इसका पहला चरण कर्मयोगकी, दूसरा चरण ज्ञानयोगकी और शेष तीनों चरण प्रायः भक्तियोगकी संसूचनाको लिये हुए है । और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि दया, दम, त्याग और समाधि इन चारोमे वीरशासनका सारा कर्मयोग समाविष्ट है। यम, नियम, सयम, व्रत, विनय, थील, तप, ध्यान, चारित्र, इन्द्रियजय, कषायजय, परीषहजय,
गांधीजीका अनासक्ति कर्मयोग
गांधीजी अनासक्त कर्मयोगी थे और यह योग उन्होंने गीतासे लिया था, पर उन्होंने इसका जो अर्थ किया है वह गीताके अर्थसे भिन्न है । गाधीजीने विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तोंका अपने राजनैतिक जीवनमें प्रयोग ही नहीं किया, उनका अपने दृष्टिकोण से नया अर्थ भी किया है । उनके इस मौलिक अर्थको न समझनेके कारण बड़े-बड़े मनीषी भ्रम में पड जाते है ।
१८३
मोहविजय, कर्मविजय, गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, त्रिदण्ड, हिंसादिविरति और क्षमादिकके रूपमे जो भी कर्मयोग अन्यत्र पाया जाता है वह सब इन चारो अन्तर्भूत है-- इन्हींकी व्याख्यामं उसे प्रस्तुत किया जा सकता है। चुनांचे प्रस्तुत ग्रन्थ मे भी इन चारोका अपने कुछ अभिन सगी-साथियोंके साथ इधर-उधर प्रसृत निर्देश है; जैसाकि ऊपरके सचयन और विवेचनमे स्पष्ट है ।
गांधीजीका अनासक्ति कर्मयोग
(प्रो० देवेन्द्रकुमार जैन, एम० ए० )
गाधीजी लोकपुरुष थे, वे शास्त्रोको पुरानी लकीर पीटने नही आये थे, उन्हें नये समाजका निर्माण करना था, उन्होंने जिन आधारभूत तत्त्वोको चुना, भले ही उनके नाम पुराने हों पर अर्थ नया था । अनासवनयोगको तरह उन्होंने अहमको भी अपनाया, पर जैनी अहसासे उनकी अहिसा कुछ अलग है । वह ईश्वरवादी थे, पर उनकी ईश्वर भावनाका अन्त टाल्टायके मानवता धर्मदर्शन में होता है, मध्य युगीन भक्तोकी ईश्वरीय लीलामें नही । पर इबर जो गांधी सम्प्रदाय है वह व्यक्ति, मामज और प्रवृति-निवृत्तिके विषय में बहुत ही भ्रम में है । यह सम्प्रदाय अनासक्तियोग के नामपर व्यक्तिमूलक भारतीय आध्यात्मिक विचारधाराकी अपेक्षा समाजमूलक ईसाई विचारधाराको अधिक अच्छा समझती है।
गीताके अनुसार अनासक्त-कर्मयोगका अर्थ है-"फलमें आसक्ति न रखकर कर्म करते रहना", क्योकि व्यक्ति
इस प्रकार यह ग्रन्थके सारे शरीर में व्याप्त कर्मयोगरसका निचोड है-सत है अथवा सार है, जो अपने कुछ उपयोग - प्रयोगको भी साथ मे लिये हुए हैं।
का अधिकार कर्ममें है फल उसके हाथमें नहीं है; फल अवश्य मिलता है, पर उसकी प्राप्ति दुनियाकी विषम परिस्थितिमें अनिश्चित है । अतः फलपर अधिक आकांक्षा रखने
व्यक्ति निराश हो जाता है। व्यक्तिका कर्म में अधिकार भी इसलिये है कि वह प्रकृतिजन्य है, अतः वह निष्क्रिय नहीं बैठ सकता, सत्व, रज और तम मे बनी प्रकृति उसे नाना कार्यमें लगाती है । कर्मका यहा अर्थ है-जन्मजात वर्णसे प्राप्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कर्म । मनुष्योको प्रकृतिके अनुमार वर्णानुकूल कर्म मिलता है, अतः फलका विचार न करके कर्ममे लगे रहना चाहिये । अनासक्तयोगसे कर्म करता हुआ व्यक्ति जब उन्हे भगवानको अर्पित कर देता है तो प्रभु उन्हें अपना लेते है; इस तरह गीताकारने वर्ण व्यवस्थाकी विषम सीमामें मबको प्रभुका द्वार खोल दिया है, यही उसका प्रवृत्तिमूलक सक्रिय धर्म है, जिसका प्रचार उसने निवृत्तिमूलक धर्मोके विरुद्ध किया था। गीता समाजदर्शन है, व्यक्तिदर्शन नहीं । अब थोड़ा निवृत्तिमूलक धर्मोको देखिये, उनके अनुसार मनुष्यकी प्रवृत्तिका मूल रागद्वेष है, और राग-द्वेषको निर्मूल करके ही व्यक्ति पूर्ण आत्मविकास कर सकता है, पर राग-द्वेषको कम करनेकी साधना लोकजीवनमें करनी चाहिये और अन्तमें लोककर्मोंमे मुक्त होकर आत्म-माघनामें लगना चाहिये, इस आत्म
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अनेकान्त
[ वर्ष ११ साधनामें वह लोकके अधीन नहीं रहता और इसी अनधीनता- ईसाई भक्तोंका कितना उबार हो रहा है ? अमेरिका और के कारण वह तटस्थ बुद्धिसे लोक कल्याणके अनुरूप स्वरूप और यूरोपके जिन पूजीपतियोंके दामसे ईसाई विचारोंका उद्देश्य करता है।
मिशन चल रहे हैं, क्या वह उनकी शुद्ध कमाई __ 'तिलकने अनासक्त कर्मयोगका अर्थ किया है-"अपनी है? एक ओर शोषण और दूसरी ओर सेवा, यही पूंजीवादी बुद्धिसे निर्णीत कर्ममें फलकी आकांक्षा न करते हुए लगे समाजका चित्र है। शोषकों और सेव्योंके बीच बढ़ते हुए रहना।" गांधीजीने भी इसी अर्थको ग्रहण किया है। उन्होंने अन्तरको कम करनेके लिये 'त्याग' पर जोर दिया गया, अपनी बुद्धिसे राष्ट्रोद्धारको ही श्रेष्ठ कर्म योग समझा; वस्तुतः इस विषमताका अन्त व्यक्तिगत त्यागसे नही हो क्योंकि उनका विश्वास था कि भगवान्ने इसके लिये उन्हें सकता, उसके लिये नवीन समाजदर्शन और समाजव्यवही चुना है। ईश्वरके प्रति इस अर्पणकी भावनासे व्यक्ति- स्थाकी आवश्यकता है। चाहे वैराग्यमूलक निवृत्तिपरायण का अहंभाव कम होता है। इससे स्पष्ट है कि राग-द्वेष जन्य श्रमण साधु हो और या प्रवृत्तिमूलक अनासक्तयोगी गांधीआसक्ति और इस आसक्तिमें अन्तर है। एकका अर्थ प्रमाद वादी रचनात्मक कार्यकर्ता । या वासना है और दूसरीका फलकी आकांक्षा । अनासक्त नवीन समाजव्यवस्थाकी दृष्टिसे ये अक्षम हैं; अपने कर्मयोगमें वस्तुत: आसक्ति है, पर वह फलमें न होकर आर्थिक साधनोको सुरक्षित रखते हुए बड़े-बड़े सिद्धान्तोंकी केवल कर्ममें है, कर्ममें यदि आसक्ति न हो तो फिर उसमें बातें करनेकी प्रथा उस देश में बहुत रही है। किसी भी प्रवृत्ति नही होगी। ईश्वरवादमें यह बात चाहे संगत हो पर सिद्धान्तकी कसौटी उसके अनुयायी होते है। वैराग्यमूलक अनीश्वरवादमें नही, अतएव वहां वासनाके चरमक्षयसे त्यागका अर्थ भले ही आज कुंठित हो, किसी समय बड़े-बड़े आत्माका विकास हो सकता है । इस प्रकारके विकासके प्रवृत्तिभीरु व्यक्ति उसमें दीक्षित हुए परन्तु अनालिये कई ईश्वरवादी विचारक भी वासनाके अत्यन्त क्षय- सक्ति कर्मयोगको अपने जीवन में गांधीवादी कहां तक उतार पर जोर देते हैं, इसलिये विरागपूर्ण त्याग और निष्क्रियता एक सके यह गाधीजीने स्वय देख लिया। स्वराज्य मिलने के बात नही है। बुद्ध महावीर जैसे विरागी साधक उन हजारों अनन्तर भी यदि कोई गांधीवादी अपनेको अनासक्तकर्मगांधीवादियोंमे अधिक सक्रिय थे, जो अपनी शरीरयात्राके योगी मानता हो तो उससे हमें कुछ नही कहना । आचार्य लिये सरकार और पूजीपतियों का मुह जोहते थे। विनोबा भावे जैसे दो-चार व्यक्ति अवश्य है । जिनके
श्रमणोको निवृत्तिका समाजव्यवस्थासे सम्बन्ध नही। व्यक्तित्वके प्रति पूर्ण श्रद्धा होते हुए भी कार्यशैली सामाजिक प्रवृत्ति भी निवृत्तिके लिये हो सकती और निवत्ति प्रवृत्ति- दृष्टिसे अधिक अच्छी नहीं और नवीन एवं वर्णहीन समाज के लिये । गांधी सम्प्रदायके कुछ विचारक ईसाई संतोंका व्यवस्थाके लिये अनासक्त योगकी अपेक्षा किसी और योगकी उदाहरण श्रमण साधुओंके सामने रखनेसे नहीं चूकते। आवश्यकता है, इसमें संदेह नही । बात बहुत अच्छी है, पर उनकी इस समाज-सेवासे स्वयं
अलमोड़ा ता० २६-५-१९५२
गौतमस्वामि-रचित सूत्रकी प्राचीनता
गौतम स्वामीने जो प्रतिक्रमणकी विधि अपने प्रतिक्रमण "एसो परिक्कमणविहि, पणतो जिणवरेहि सम्वेहि। सूत्र में बतलाई है वह केवल वर्धमानस्वामीके द्वारा ही संजमतवद्रियाणं, जिग्गंगाणं, महरितीणं ॥" निर्दिष्ट हुई ऐसा नहीं है, बल्कि सब तीर्थंकरोंके द्वारा निर्दिष्ट यह गाथा गौतम स्वामीकी ही रची हुई है, इससे इस हुई है । टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र इस बातका प्रतिपादन प्रतिक्रमण सूत्रकी प्रामाणिकता और प्राचीनतामें कोई संदेह करते हुए और इसकी पुष्टिमें एक गाथाको भी उद्धृत करते नही रहता । अन्यथा वे इस सूत्रको अपनी एक स्वतन्त्र रचना हुए लिखते है
कह सकते थे। यह सूत्र दिगम्बर शासनका सबसे अधिक
प्राचीन है और अनादि प्रवाहसे चला आ रहा है। रत्नकर"बघ विाषषा आप प्रातक्रमणावाषन कवल पषमान- ण्डमें बतलाया हुमा शास्त्रका लक्षण इसमें अच्छी तरह . स्वामिनयोक्तः अपितु सरपि तीकरवरक्तइत्याह- घटित होता है ।
-क्षुल्लक सिद्धसागर
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भारतकी अहिंसा-संस्कृति
(श्री बाबू जयभगवान एडवोकेट)
भारतका मौलिक धर्म अहिंसाधर्म है
प्राचीनकालसे लेकर आजतक भारतीय जनताका यदि कोई एक धर्म है, जिसने इसके आचार और विचारमें तरहतरहके भेद-प्रभेदोंके रहते हुए भी भारतकी सभ्यताको एक सूत्र मे बांधकर रक्खा है, तो वह अहिंसा धर्म है । यह बात उन सब ही पौराणिक आख्यानों तथा ऐतिहासिक वृत्तांतोंसे सिद्ध हैं, जो अनुश्रुतियो व साहित्य द्वारा हमतक पहुचे है । वृहदारण्यक उपनिषद् ५-२-३ मे किसी पुरानी अनुश्रुतिके आधारपर प्रजापतिकी एक कथा दी हुई है । इसमे बतलाया गया है कि प्राचीन जमाने मे सब आयंजन और असुरगण एक दूसरेके पडोस मे बसे हुए थे, तब देवांका नेता इन्द्र और असुरोका नेता विरोचन दोनो इकट्ठे ही धर्मं सुननेके लिये प्रजापति के पास गये। उन दोनोको प्रजापतिने जिस धर्मका उपदेश दिया था वह तीन अक्षरोमे समाया हुआ है -~द, द, द । ये तीन अक्षर दया, दान और दमन शब्दोका संकेत है । इस तरह इन तीन अक्षरो द्वारा प्रजापतिने आर्य और असुरगणको धर्मका सार बताते हुए यह सूचित किया था कि लोकशाति और मुग्वप्राप्ति के लिए मानवमात्रका सनातन और पुरातनव दया, दान और दमन है ।
पुरातत्व खोजी पडितोका मत है कि ईसामे लगभग ३००० वर्ष पूर्व वैदिक आयंजन सुमेर ( ईगकका दक्खिनी भाग) देशमें और असुरगण इसके पूरबमें पासवाले असूरिया देशमे बसे हुए थे । असूरिया देवकी राजधानी निनेवेह थी । आर्यभाषामे संस्कृत रूपातर होकर इसी नगरका नाम विदेह प्रसिद्ध हुआ । सुमेरसे पूरबकी ओर स्थित होनेके कारण जैन साहित्य में यह देश ही पूर्वी विदेहके नामसे उल्लिखित हुआ मालूम पड़ता है । तब इन देशोंकी सभ्यता बहुत बढ़ीची थी, और इन लोगोंमें उतने ही महान् प्रजापति (सन्त ) पैदा हो रहे थे। हो सकता है ऊारवाली कथा उसी युगकी एक वार्ता हो ।
प्रजापतिने संक्षेपमें जिस धर्ममार्गका दिग्दर्शन कराया था, उसीको समग्र भारतके सन्त सदासे धर्मके रूपमें व्याख्या करते चले आये है । इस तथ्यको जानकारीके लिये निम्न
उदाहरणोंका अध्ययन करना उपयोगी होगा :
(१) इस सम्बन्ध में अंगिराऋषिका उपदेश खास तौरपर अध्ययन करने योग्य है । यह अंगिरा ऋषि एक ऐतिहासिक महात्मा है, जो सभवतः ईसासे १५०० वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध कालके समय भारतभूमिको शोभा दे रहे थे । इनके सम्बन्ध में छादोग्य उपनिषद् ३ १७ मे बताया गया है कि यह देवकीपुत्र कृष्णके आध्यात्मिक गुरु थे । इन्होंने कृष्णको भौतिक यज्ञोंकी जगह उस आध्यात्मिक यज्ञको शिक्षा दी थी, जिसकी दीक्षा इन्द्रियसंयम वा इंद्रियोंका दमन है और जिसकी दक्षिणा तपश्चर्या, दान, आर्जव, ( सरलता), अहिंसा और सत्यवादिता है। इस यज्ञ के करने से मनुष्यका पुनर्जन्म छूट जाता है—उसका संसारपरिभ्रमण खत्म हो जाता है। मीतका सदाके लिये अंत हो जाना है। इसके अलावा इस ऋषिने कृष्णको यह भी उपदेश दिया था कि मरते समय मनुष्यको तीन धारणाए धारण करनी चाहिए- 'अक्षतमति, अच्युतमति', 'प्राणस शितमति', अर्थात् - हे आत्मन् तू अविनाशी है, तू सनातन है, तू अमरचेतन है । इम उपदेशको सुनकर कृष्णका हृदय गद्गद् हो
उठा था ।
इसी प्रकार महाभारतकारने अनुशासनपर्वमे अध्याय १०६, १०७ अंगिराऋषिकी दी हुई अहिंसा, दान, ब्रह्मचर्य व्रत, उपवास संबंधी जिन शिक्षाओं का उल्लेख किया है, वे ऊपर बतलाई हुई शिक्षाओं से बहुत मिलती जुलती है, इससे प्रमाणित होता है कि महाभारतके उद्धृत अंशमें कौरव-पांडव कालीन भारतीय संस्कृतिका काफी आलोक है । यह वही यग है जब कि रैवतक पर्वत (सौराष्ट्र देशका गिरनार पर्वत) के विख्यात सन्त अरिष्टनेमि, अपने तप, त्याग और विश्वव्यापी प्रेम द्वारा भारतकी अहिंसामयी संस्कृतिको देश- विदेशों में सब ओर फैला रहे थे ।
(२) स्त्रीपर्व अध्याय ७ में भी महाभारतकारनं कहा है
दमस्त्यागोऽप्रमादश्च ते त्रयो ब्रह्मणो हयाः । शीलरश्मिसमायुक्तः स्थितो यो मनसि रथे । त्यक्त्वा मृत्युभय राजन् ब्रह्मलोकं स गच्छति ॥ - महा. स्त्रीपर्व ७ २३-२५
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अनेकान्त
[वर्ष ११
अर्थात्-दम, दान और अप्रमाद ही ब्रह्माके तीन घोड़े इसी प्रकार महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २,३१, है। जो इन घोड़ोंसे युक्त मनरूपी रथ पर सवार होकर सदा- ३२,३३ में कहा है सतयुगमें यज्ञ करनेकी आवश्यकता न थी, चारकी बागडोर संभालता है, वह मौतके भरको छोड़कर त्रेतामें यज्ञ का विधान हुआ द्वापरमें उसका नाश होने लगा ब्रह्म गोकमें पहुंच जाता है ।
और कलियुगमें उसका नामनिशान भी न रहेगा। (३) इसी प्रकार आजसे कोई २५०० वर्ष पूर्व भारतके इसी प्रकार मुडक उपनिषद् में कहा गयाहै:अंतिम तीयंकर महावीरने कहा था
"तदेतत्सत्यं मंत्र कर्माणि कवयो यान्यपश्यंस्तानि धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो ।
प्रेताय बहुधा सन्ततानि ॥ देवा वित नमसति जस्स धम्मे सया मणो ॥
तान्याचरय नियतं सत्यकामा एष वः पन्थाः सुकृतास्य लोके। . -दशवकालिक सूत्र १-१
१.२१
प्लावा होते अबूढ़ा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म, अर्थात्-अहिंसा (दया) संयम (दमन) तप रूप
एतच्छ यो येऽभिनन्वन्ति मूढ़ा जरामृत्यं पुनरेवापयन्ति । धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है । जो इस धर्ममार्गपर चलते है,
१२७ देवलोग भी उन्हे नमस्कार करते है ।
अर्थात-वैदिकमंत्रोंमे जिन याज्ञिककर्मोंका विधान ईसाकी तीसरी सदीके महान् आचार्य समन्तभद्र है वे निःसन्देह त्रेतायुगमें ही बहुधा फलदायक होते है । भगवान् महावीरको दियवागीका सझेपमें यो व्याख्यान
__उन्हे करनेसे पुण्यलोककी प्राप्ति होती है। इनसे मोक्षकी करते है--
सिद्धि नही होती; क्योकि यह यज्ञरूपी नौकाये जिनमें दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठ नय-प्रमागप्रकृतांऽऽजसार्थम्
अठारह प्रकारके कर्म जुड़े हुए है, संसारसागरसे पार
-युक्त्यनुगासन ॥६॥ करनेके लिये असमर्थ है। जो नासमझ लोग इन याजिक अर्यात्-हे महावीर भगवान् आपका धर्ममार्ग दया, कर्मोको कल्याणकारी समझ कर इनकी प्रशंसा करते है दम, त्याग ( दान ) और समाधि (आत्म-ध्यान रूप- उन्हे पुन. पुनः जरा और मृत्युके चक्करमे पड़ना पड़ता है। तपश्चर्या) इन चार तत्वोंमें समाया आ है । और नयप्रमाण- महा० शान्तिपर्व अध्याय २४१ मे शुकदेवने वर्म और द्वारा वस्तुसारको दर्शानेवाला है।
ज्ञानका स्वरूप पूछते हुए व्यासजीसे प्रश्न किया हैहिंसामयी यज्ञप्रथाका त्रेतायुगमें प्रारंभ
"पिता जी! वेदमे ज्ञानवानके लिये कर्मोंका त्याग और कर्म
निष्ठके लिये कर्मोंका करना ये दो विधान है, किंतु कर्म और द्वापरमें अन्त
और ज्ञान ये दोनो एक दूसरेके प्रतिकूल है, अतएव में इस तरह भारतकी सभी पौराणिक अनुश्रुतियोंसे
जानना चाहता हूं कि कर्मकरनेसे मनुष्योंको क्या फल विदित, है कि आदिकालसे भारतका मौलिक धर्म अहिंसा
मिलता है। और ज्ञानके प्रभावसे कौन सी गति मिलती है। तप, त्याग, और संयम रहा है । होम हवन आदि याज्ञिक
व्यासजीने उक्त प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा हैतथा पशुबलि नरमेध, अश्वमेध आदि हिंसक विधान
"वेदमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दो प्रकारके धर्म बतलाये गये है। सब पीछेकी प्रथाएं है, जो त्रेतायुगमें बाहिरसे आकर
कर्मके प्रभावसे जीव ससारके बन्धनमें बधा रहता है भारतके जीवनमें दाखिल हुई है और द्वापरके आरम्भमें ।
और ज्ञानके प्रभावसे मुक्त हो जाता है, इसीसे पारदर्शी यहांकी अहिंसामयी अध्यात्मसस्कृतिके सम्पर्कसे सदाके लिये
संन्यासी लोग कर्म नही करते, कर्म करने से जीव फिर जन्म विलुप्त हो गयी। इस विषयमें मनुस्मृतिकारका मत है
लेता है, किंतु ज्ञानके प्रभावसे नित्य अव्यक्त अव्यय परतपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ।
मात्माको प्राप्त हो जाता है। मूढलोग कर्मकी प्रशसा करते बापरे यामेवाहुनमेकं कलौ युगे॥१-८६॥ है, इसीसे उन्हे बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है अर्थात भारतमें सतयुगका धर्म तप है, त्रेतायुगका जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर लेता है और जो कर्मको धर्म शान है, द्वापरका धर्म यज्ञ है और कलियुगमें अकेला भली भान्ति समझ लेता है, वह जैसे नदीके किनारे वाला दान ही धर्म है।
मनुष्य कुओका आदर नहीं करता, वैसेही ज्ञानीजन कर्म
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किरण ४-५ ]
भारतकी बहिंसा-संस्कृति
१८७
की प्रशंसा नही करते।
को नरहत्याका पाप लगता है। यहाँ पशुपति जगतका भारतकी अहिंसामयी संस्कृतिने सदा हिंसा कर्ता यशका भोक्ता महादेव बाया हुमा है क्या तुम लोग पर विजय पाई
उसे नहीं देख रहे हो?" दक्षने कहा महर्षि! जटाजूटपारी
शूलपाणि ११ रुद्र इस लोकमें है परन्तु उनमें महादेव कौनप्राचीन पौराणिक आख्यानोंसे यह भी स्पष्ट है कि जब कभी विदेशी आगन्तुकोंकी सभ्यताके कारण
सा है यह मुझे मालूम नहीं है । भारतके उत्तरीय सप्तसिंधुदेशमें अथवा कुरुक्षेत्र, शौरसेन, दधीचिने कहा-"तुम सबने षड्यंत्र करके महादेवव मध्यदेशमें देवपूजा, उदरपूर्ति व मनोविनोद आदिके को निमंत्रण नहीं दिया है किंतु मेरी समझमें महादेवके समान लिये पशुबलि-मांसाहार आदि हिसक-प्रवृत्तियोंने जोर दूसरा श्रेष्ठ देवता और नही है, इसलिये निस्संदेह तुम्हारा पकड़ा तभी भारतकी अन्तरात्माने उसका घोर विरोध यज्ञ नष्ट होगा।" इस पर दक्षने कहा कि "मंत्रों द्वारा पवित्र किया, और जब तक इन हिंसामयी व्यसनोंका उसने किया हुआ यह हवि रक्खा हुआ है मै इस यज्ञभागसे अपने सामाजिक जीवनमेंसे पूर्णतया बहिष्कार नही कर विष्णुको संतुष्ट करूंगा।" यह बात पार्वतीके मनको दिया, उसको शान्ति प्राप्त नहीं हई। इसीलिये भारतका ने भाई। तब महादेवने कहा-"सुन्दरी! मै सब यज्ञोंका मौलिकधर्म अहिसाधर्म कहा जाय तो इसमें तनिक भी ईश हूं, ध्यानहीन दुर्जन मुझे नही जानते ।" तब महादेवने अतिशयोक्ति नही है।
अपने मुखसे वीरभद्र नामक एक भयंकर पुरुष उत्पन्न इस ऐतिहासिक तथ्यकी जानकारीके लिये यहा चार किया, जिसने भद्रकाली और भूतगणके साथ मिलकर प्रसिद्ध आख्यान दिये जाते है:
दक्षके यज्ञका विध्वंस कर दिया। १. हिमाचलदेशसम्बन्धी दक्ष और महादेवकी कथा। जब प्रजापति दक्षने वीरभद्र से पूछा-"भगवन् ! २. कुरुक्षेत्रसम्बन्धी पणि और इद्रकी कथा।
आप कौन है ?"-वीरभद्रने उत्तर दिया-"ब्रह्मन ! न तो ३. पांचालदेशसम्बन्धी राजा वसु और पर्वतकी कथा।।
मै रुद्र हूं और न देवी पार्वती, मै वीरभद्र हैं और यह स्त्री ४. शौरसेनदेशसम्बन्धी कृष्ण और इद्रकी कथा। भद्रकाली है, रुद्रकी आज्ञासे यज्ञका नाश करने के लिये हम हिमाचल देश संबंधी दक्ष और महादेवकी कथा आये है तुम उन्ही उमापति महादेवकी शरणमें जाओ।
महाभारतके शान्तिपर्व अध्याय २८४ मे दी हई दक्ष- यह सुनकर दक्ष महादेवको प्रणाम कर उनकी स्तुति करने राजाकी कथामे बतलाया गया है कि एक समय प्रचेताके लगा। पुत्र दक्षने हिमालयके समीप गंगाद्वारमे अश्वमेध यज्ञ आरम्भ इस कथाका ऐतिहासिक तथ्य यही है कि सप्तसिंधुकिया, उस यज्ञमें देव, दानव, नाग, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, देशके मूल निवासियोकी भांति हिमाचल प्रदेशके भूत, यक्ष, ऋषि, सिद्धगण, सभी सम्मिलित हुए। इतने बड़े समागम- गन्धर्व लोग भी वैदिक आर्योंके देवतावाद और उनक हिंसाको देखकर महात्मा दधीचि बहुत कुपित हुए और कहने लगे मयी यज्ञोंके विरोधी थे। जब वैदिक आर्यजनकी एक शाखाकि जिस यज्ञमें महादेवकी पूजा नही की जाती वह न तो ने दक्षके नेतृत्वमें गंगाद्वारके रास्ते ईलावर्त अर्थात् मध्य हिमायज्ञ है और न धर्म ही है। हाय! कालकी गति कसी बिगड़ी चलदेशमें प्रवेश किया और इन यक्ष, गन्धर्वोके माननीय है कि तुम लोग इन पशुओंको बांधने और मारनेके लिये धर्म-तीर्थों-बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि स्थानोंमें अपनी उत्सव मना रहे हो ! मोहके कारण तुम नही समझते कि परम्पराके अनुसार हिंसामयी यज्ञोंका अनुष्ठान किया, इम यज्ञके कारण तुम्हारा घोर विनाश होगा। उसके बाद तो वहाके भूत, यक्ष, गन्धर्व लोग उनके विरोधपर उतारू महायोगी दधीचिने ध्यान-द्वारा नारदसहित महादेव, हो गये, और इस विरोधके कारण वे निरन्तर आर्यजनांके पार्वतीको देखा और बहुत संतुष्ट हुए, फिर यह सोचकर कि यज्ञ-यागोंको नाश करने लगे। यह सांस्कृतिक संघर्ष उस समय इन लोगोंने एक मत होकर महादेवको निमंत्रण नही दिया है, जाकर शान्त हुआ, जब वैदिक आर्योने इनके आराध्य देव वह यो कहते हुए यज्ञभूमिमे से चल दिये कि-"अपूज्य महायोगी शिवको और इनके तप,त्याग, ध्यान और अहिंसादेवोंकी पूजासे और पूज्यदेवोंकी पूजा न करनेसे मनुष्य मयी अध्यात्ममार्गको अपना लिया ।
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११
सप्तसिंधुदेश और कुरुक्षेत्रके आर्यजन उस जमानेमें सप्तसिंधुदेशका यह अन्तिम छोर स्वर्ग
इसी तरह बार्यगणकी दूसरी शाखा जो उत्तर पश्चिम- का अन्तिम भाग कहलाता था।' के द्वारोंसे सप्तसिंधु देशमें दाखिल हुई वह धीरे-धीरे सप्त- इस कुरुक्षेत्रमें आबाद होकर देवजन काफी समय तक सिंधु देशमसे होती हुई इस अन्तिम छोर कुरुक्षेत्र में जा पहुंची। अपनी सभ्यताका विकास करते रहे। यहां वे बहुतसे आदियह कुरुक्षेत्र उस समय सरस्वती और दृषद्वती नाम वाली वासी नाग जातिके विद्वानों व राजघरानोंके व्यक्तियोंदो चाल नदियोंके संगम पर स्थित था। आर्यगणकी भारतीय को भी अपनी सभ्यताके अनुयायी बनानेमें सफल हुए। यात्रामें कुरुक्षेत्र ही वह प्रमुख देश है जहां उन्हें विघ्नबाधा- इनमेंसे कईने तो मन्त्रोंकी रचनामें काव्य-कुशलताके रहित दीर्घकाल तक आरामसे रहकर अपनी संस्कृतिको कारण ब्राह्मणोंमें इतनी ख्याति प्राप्त की, कि विजातीय विकसित करने, बढ़ाने और संघटित करनेका सुअवसर प्राप्त होते हुए भी उन्हें ऋषि-श्रेणीमें सम्मिलित किया गया हुआ था, इसलिये स्वभावतः इस देशको आर्यसंस्कृतिका और उनकी रचनाओको वैदिक संहिताओंमें स्थान दिया गया। एक महान केन्द्र कहने का गौरव प्राप्त है। विशेषतया कुरु- ऋग्वेदके दशवें मंडलके ९४वें सूक्तके रचयिता कद्रुके वंशी परीक्षित और जनमेजयके शासनकालमें यह महत्ता पुत्र नागवंशी अर्बुद थे। ७६वें सूक्तके रचयिता नागजातीय और भी बढ़ गयी थी। यह श्रेय कुरुक्षेत्रको ही हासिल इरावतके पुत्र जरुत्कर्ण थे, और १८६३ सूक्तकी रचयित्री है कि आर्यजातिको अपनी प्रगतिकी लम्बी यात्राओमे सर्पराज्ञी थी। यह सब कुछ होते हुए भी अपने जातीय जिन घटनाओंसे वास्ता पड़ा है, और अपने सांस्कृतिक गर्व और अपने सफेद, सुन्दर वर्ण व रक्तकी शुद्धिको विकासमें उन्हें जिन उलझनोंको सुलझाना पड़ा है बनाये रखनेके ख्यालसे वे न तो यहांकी आम जनतामे उनकी अनुश्रुतियों और सस्मृतियों उनकी अपनी संस्कृतिको ही फैला सके और न रोटी-बेटीके सम्बन्ध भावनाओं और कल्पनाओंको, जो सूक्तों (गीतों) के रूपमें कायम करके उन्हें अपने में मिला सके। इसलिये जैसा कि सीना ब सीना चली आ रही थी, चार वैदिक महिताओके अथर्ववेदके पृथ्वी सूक्तसे जाहिर है, इतने लम्बे समय व्यवस्थित रूपमें यहां संकलन किया गया। इन सूक्तों और आर्यजनके बसे रहने के बाद भी इन देशोके लोग अन्य भाषाओं इनमें वर्णित देवताओंकी संतुष्टिके अर्थ किये जानेवाले और अन्य धर्मोको मानने वाले बने रहे। इतना ही नही, याशिक अनुष्ठानोंकी पौराणिक व्याख्यायें, जो ब्राह्मण- बल्कि यहांकी साधारण जनतासे अपनेको अलग और ग्रंथों में मिलती है, उनका संग्रह भी प्रायः इसी देशमें हुआ महान बनाये रखनेकी भावनाने इन्हे यहाकी मानव है, और यहां ही बड़े बड़े याज्ञिक-सूत्रोंका सम्पादन किया समाजको वर्ण व्यवस्थाके आधार पर चार भागोमे विभक्त गया है। इन तमाम विशेषताओंके कारण आर्यजातिके करने पर मजबूर किया। इस कल्पनाने धीरे-धीरे घर करते भारतीय इतिहासमें जो महत्ता कुरुक्षेत्रको प्रदान की गयी हुए ब्राह्मणोंको इस समाजरूपी विराटपुरुषका मुख, है वह भारतके किसी अन्य स्थानको-यहांके पुराने राजकर्मचारियोको इसके बाहु, सर्वसाधारण मध्यवर्गी प्रसिद्ध तीर्थ-धामोंमेंसे भी किसीको-नही मिली है। इस लोगोंको इसका पेट, और श्रमजीवी शूद्र लोगोको इसके सांस्कृतिक महत्वके कारण ही वैदिक विद्याका अपर नाम पाओं बना दिया। इनकी इस भावनाका आलोक ऋग्वेद सरस्वती प्रसिद्ध हुआ है। इसी महत्वके कारण यह के १०-९०वे पुरुष सूक्तसे साफ मिलता है। इस भावनास्थान वैदिकसाहित्यमें देवानां देवयजनं', प्रजापति- के कारण यद्यपि ये अपनी वर्णशुद्धि और अपनी याज्ञिक वेदी", ब्रह्मलोक', और धर्मक्षेत्र",आदि गौरवपूर्ण नामोंसे संस्कृतिको बहुत कुछ सुरक्षित रख सके; परन्तु इस भावनापुकारा गया है। चूकि आर्यजन अपनेको देव और अपने से यहांके लोगोंमें जो पृथक्करण और विद्वेषकी लहर रहनेकी भूमियोंको स्वर्गनामसे पुकारते थे । अतः -
१ऋग्वेद १०,१०८,५ । १ शतपय बाह्मम ॥१४,१,१,५॥
२ अथर्ववेद १२,१,४५ । २ तांग्च बाह्मण ॥२५,१३,३॥
३ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ३ एतरेय ब्राह्मण ॥७,१९॥
उह तबस्य यवैश्यः पद्भ्यां शूबोजायत ।।-ऋग्वेद ४ भगवद्गीता ॥१॥
१०.२०,१२।
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किरण ४-५ ]
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भारतकी अहिंसा सस्कृति
१८९
पैदा हुई है वह आर्यजन और देशके लिये आगे चलकर पानीपत तहसीलका आधुनिक बला नामका ग्राम है। बहुत ही हानिकारक सिद्ध हुई है।
उक्त सरमाने यद्यपि इन पणि लोगोको वृहस्पतिकी इस युगमे सप्तसिधुके आर्यजन सभी ओरसे विजातीय गाये लौटा देनेके लिये बहुत विष समझाया और उन्हें और विधर्मी लोगोसे घिरे हुए थे। उत्तरमें भूत, पिशाच, इद्रका अपार पराक्रम और उसके सैनिक बलका भी यक्ष, गन्धर्व लोगोसे, पूर्वमें वात्य लोगोसे, दक्षिणमें राक्षस डर दिखाया, परन्तु पणिलोगोने कुछ भी परवाह न की, लोगोंसे, और स्वयं सप्तसिंधु देशमें, पणि, शूनि, आदि और उसे यह कह कर चलता कर दिया, कि यदि इंद्रके पास नागलोगोको विभिन्न जातियोसे। चूकि यह सभी लोग सेना और आयुध है, तो हमारे पास भी काफी संरक्षक प्रायः श्रमणसंस्कृतिके अनुयायी थे, त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी, सेना और तीक्ष्ण आयुध है, बिना युद्ध किये ये वापिस नही साधु-संतोंके उपासक थे, अहिंसाधर्मको माननेवाले थे, हो सकती। इसलिये ये सदा देवगणके माननीय देवताओ और उनके आर्यजन और आर्यावर्त हिंसामयी याज्ञिक-अनुष्ठानोका विरोध करते रहते थे इस प्रकारके आये दिनके नागोंके आक्रमणोंसे परेशान और उनके पशुओको विद्वेष वश वध-बन्धनसे छुडाने के लिये होकर देवगण सप्तसिंधुदेशको छोड़कर जमनापार छीन कर व चुराकर ले जाया करते थे। इस सम्बन्धमें मध्यप्रदेशकी ओर बढ़ चले, जो आज उत्तर प्रदेशके नामसे कुरुक्षेत्रको तत्कालीन स्थिति जानने के लिये पणि और इन्द्र- प्रसिद्ध है। चकि पीछेसे यह देश ही आर्यजनकी स्थायी का प्रसिद्ध आख्यान जो ऋग्वेद १०,१० मे दिया हुआ है।
वसति बन कर रह गया, इसलिये भारतका यह मध्यमभाग विशेष अध्ययन करने योग्य है । यह आख्यान सप्तसिंधु देशके आर्यावर्तके नामसे प्रसिद्ध हआ। इस देशम यद्यपि देवगणतत्कालीन विजातीय सांस्कृतिक संघर्षको जाननेके लिये को रहनेका स्थान तो स्थायी मिल गया, परन्तु यहां उन्हें इतना ही जरूरी है जितना कि दक्षिणापथके वि ध्य- भारतकी अहिंसामयी सस्कृतिमे प्रभावित होकर धर्म गिरि देशमे विद्याधर राक्षसो द्वारा याज्ञिकी पशुहिसाके व आहार व्यवहारके लिये होनेवाली अपनी हिंसात्मक विरुद्ध किये गये सघर्षका पता लगानेके लिये रामायणकी
प्रवृत्तियोका सदाके लिये त्याग करना पड़ा। कथाका जानना जरूरी है।
राजावसु और पर्वतकी कथा पणि और इन्द्रका आख्यान
इस सम्बन्धमे पाचालदेशके राजा वसु, नारद और ऋग्वेदके उपर्युक्त आख्यानमें बतलाया गया है
पर्वतकी पौराणिक कथा जो मत्स्यपुराण' व महाभारत' कि पणि लोगोने इद्रके पुरोहित वृहस्पतिकी गायोको
ग्रथोमे दी हुई है, विशेष विचारणीय है। इस कथामें बतलाया चुरा कर सरस्वती, दृषद्वती नदियोंके पार ले जाकर
गया है, कि त्रेतायुगके आरम्भमें इंद्रने विश्वयुग नामका बलपुरकी अद्रिमे छुपा दिया, तब इद्रने वृहस्पतिकी ।
यज्ञ आरम्भ किया, बहुतसे महर्षि उसमे आये। उम यज्ञमें शिकायतपर इन गायोका पता लगाने और इन्हे लानेके
पशुबध होते देख कर महर्षियोने घोर विरोध किया। महर्षियोने लिये सरमा नामकी एक स्त्रीको अपनी दूती बनाकर
कहा-"नाय धर्मो धर्मोऽय, न हिंसा धर्म उच्यते, अर्थात् पणि लोगोके पास भेजा। यह सरमा शूनी जातिकी एक अनार्य स्त्री थी। ये पणि और शूनी जातिके लोग सरस्वती
यह धर्म नही है यह तो अधर्म है, हिसा कभी धर्म नही हो दृषद्धती नदियोके पार कुरुक्षेत्रसे दक्षिणकी ओर अपने
सकता। यज्ञ बीजोसे करना चाहिए, स्वयं मनुने पूर्वकालमें, जनपदोमे बसे हुए थे। पणि लोगोंका जनपद पणिपद
यज्ञमम्बन्धी ऐमा ही विधान बतलाया है. परन्तु इंद्र न माना, और शूनी जातिका जनपद शनीपद नामसे मशहर था। इस पर इंद्र और ऋपियोके बीच यज्ञविधिको लेकर विवाद इतना दीर्घसमय बीतनेपर भी इन जनपदोंके नगर आज भी
र
सडा
खडा हो गया, कि यज्ञ जगम प्राणियोंके साथ करना उचित अपने स्थानपर स्थित है और पानीपत और सोनीपतके हैं या अन्न और वनस्पतिके साथ। इस विवादका निपटारा नामोंसे प्रसिद्ध है । ये दोनों नगर एक दूसरेसे २५ मीलकी १ मत्स्यपुराण-मन्वन्तरानुकल्प वर्षिसम्बाबनामक दूरी पर कुरुक्षेत्र और देहलीके मध्यभागमें स्थित है। अध्याय १४६ । बलपुर जहा गायोको चुराकर रक्खा गया था, वह समवतः २ महाभारत अश्वमेषपर्व अध्याय ९१
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अनेकान्त
[वर्ष ११
करनेके लिये इंद्र और ऋषि आकाशचारी चेदिनरेश वसु- यज्ञार्थ-पशुहिंसाका प्रचार करने वाले पर्वत ऋषि के पास पहुंचे, वसुने बिना सोचे कह दिया, कि यज्ञ जंगम और उसके मतका समर्थन करनेवाले चेदिनरेश वसुका ठोक अथवा स्थावर दोनों प्रकारके प्राणियों के साथ हो सकता है, समय निर्णय करना तो कठिन है। परन्तु यह बात निर्विवाद क्योंकि "हिंसास्वभावोयज्ञस्येति" इस पर ऋषि लोगोने उसे रूपसे कही जा सकती है कि वे अवश्य ही महाभारत युद्धशाप दे दिया और वह आकाशसे गिर कर तुरन्त अवोगति- से काफी पहले लगभग २००० ईसा पूर्वके निकट हुए हैं। को प्राप्त हुआ और इससे लोगोकी श्रद्धा हिसासे उठ गयो। क्योकि ऋग्वेदके तीसरे मंडलके ५३ वे सूक्तमे इद्र और
पर्वत दोनोंको इकट्ठे ही देवतातुल्य हव्यग्रहण करनेके यही कथा कुछ हेर-फेरके साथ जैन पौराणिक साहित्य में यों बतलाई गई है कि-बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत भगवान्के
लिये आह्वान किया गया है। जैन अनुश्रुतिके अनुसारके कालमें "अजैर्यष्टव्यम्" के प्राचीन अर्थ 'जौ से देवयज्ञ
भी भगवान् मुनिसुव्रत त्रेतायुगकालीन रघुवंशी रामके करना चाहिए' को बदल कर जब पर्वत ऋषिने यह अर्थ
समकालीन है और महाभारत युद्धकालसे काफी पहिले हुए है। करना आरम्भ कर दिया कि बकरोको मारकर देवयज्ञ
चेदीका आधुनिक नाम चन्देरी है। यह मध्यप्रदेशके करना चाहिए तो इसके विरुद्ध नारदने घोर सवाद खड़ा
बुन्देलखंडमें ललितपुरसे २२ मीलकी दूरीपर स्थित है, कर दिया। इस सवादका निर्णय कराने के लिये रेटिना यह पीछेसे शिशुपालकी राजधानी भी रही है। राजा बसुको पंच नियुक्त किया गया । उस जमाने में
इस कयासे पता चलता है कि जब आर्य देवगण कुछ राजावसु अपनी सत्यता और न्यायशीलताके कारण बहुत
हिमाचलदेशसे और कुछ सप्तसिंधुदेशसे मध्यप्रदेशकी
ओर आगे बढ़े तो उनकी हिंसात्मक प्रथाओका विरोध ही लोकप्रिय था। उसका सिंहासन स्फटिक मणियोंसे खचित
उतने ही जोरसे हुआ जितना कि सप्तसिंधु और हिमाचलथा, जब वह उस सिंहासनपर बैठता तो ऐसा मालूम होता
मे हुआ था। कि वह बिना सहारे आकाशमें ही ठहरा हुआ है । राजावसुने यह जानते हुए भी कि पर्वतका पक्ष झूठा है, केवल इस शौरसेनदेश, कृष्ण और इन्द्रकी कथा कारण कि वह उसके गुरुका पुत्र है पर्वतका समर्थन कर इस मध्यदेशमे बसनेके बाद देवगणकी जो शाखा दिया। इसपर राजावसु तुरन्त मरकर अधोगतिको प्राप्त मथुरा, आगरा आदि शौरसेनदेशके इलाकेमे बढ़ी, उसे हुआ। जनतामें हाहाकार मच गया, और अहिंसा की पुन: भी यदुवंशी क्षत्रियोके विरोधके कारण हिंसामयी प्रवृत्तियोंस्थापना हो गयी।
को तिलाजलि देनी पड़ी। इस सम्बन्धमे भागवतपुराणके
- १० वे स्कन्धके २४ वे और २५ वे अध्यायोंमें जो भगवान् १ (अ) ईसाकी आठवीं सबीके आचार्य जिनसे-कृत
कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा दी हुई है, वह बड़े हरिवंशपुराण सर्ग १७ श्लोक ३८ से १६४
महत्वकी है। इस कथामें बतलाया गया है कि एक बार (आ) ईसाको सातवों सीके आचार्य रविषण-कृत
शौरसेनदेशमै नन्दादिक गोपालोने इद्रकी सतुष्टिके लिये पप्रचरित पर्व ११
यज्ञ करनेका विचार किया, परन्तु कृष्णको उनकी यह () ईसाकी नवीं सवीके आचार्य गुगभद्रकृत उत्तर
बात पसन्द न आई, उसने उन्हें यज्ञ करनेसे रोक दिया' पुराणपर्व ६७ श्लोक ५८ से ३६३ ।
और गायोंको लेकर गोवर्धन पर्वतकी ओर चल पड़ा । (६) ईसाकी बारहवीं सदीके आचार्य हेमचन्द्रकृत
कृष्णका यह कार्य इंद्रको अच्छा न लगा। उसने रुष्ट होकर त्रिवष्ठिशलाकापुरुषचरित्र पर्व ७, सर्ग २७
मूसलाधार वर्षा द्वारा गोकुलको नष्ट करनेका संकल्प कर (उ) ईसाको प्रथम सबोके आचार्य विमलसूरि-कृत
लिया, इस पर कृष्णने गोवर्धन पर्वत हाथमें उठा और उसके पउमचरिउ ११-७५, ८१
नीचे गोकुलको आश्रय दे, इद्रको असफल बना दिया। (क) ईसाकी प्रथम सबीके आचार्य कुन्दकुन्व-कृत भावप्राभूत ॥४५॥
१वापता वृहता रथेन वामिरिव आवहतं सुवीराः। (ए) साकी दशवीं सबीके आचार्य सोमदेव कृत बीतं हव्यान्मध्वरेषु देवा वर्षेषां गीर्भिरिराचा मुहन्ता ॥१॥ यशस्तिलक चम्पू आश्वास ७ पृ. ३५३ ॥
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भारतकी अहिंसा संस्कृति
ऋग्वेदकालीन उत्तरी भारतमे पाच क्षत्रिय जातिया इसलिये भारतीय जनता श्रमणयोगियोके समान प्रसिद्ध थी । यदु, अनु, दुस्यु, तुर्वसा, और पुरुस । ऋग्वेद ही अपने खान, पान, व्यवहार और व्यवसायोमें अहिंसा१०,६२,१० में यदु और तुर्वसा लोगोको दास सज्ञासे को अपनाती रही है। यहाके लोग सदा अनभोजी सम्बोधित किया है। इसका कारण यही मालूम होता है कि शाकभोजी स्वच्छव्यवहारी बने रहे है । ये सदा बनस्पति बे वैदिक देवताओ और उनके लिये किये जाने वाले याज्ञिक अथवा वृक्षोका सिंचन करना, कीड़े-मकोड़े आदि छोटे अनुष्ठानोको मानने वाले न थे, दूसरे यदु और तुर्वसा जन्तुओसे लेकर काग, चिड़िया, बन्दर, बैल, गाय, आदि लोग कृष्णवर्णके थे। अर्थात् अनार्य जातिके थे--इस पशुओ तक को आहार दान देना, सांपों तक को दूध पिलाना, लिये उनका याज्ञिक अनुष्ठानोसे विरोध करना स्वाभाविक एक पुण्य कार्य मानते रहे है । हो था। इसी आधार पर ए. बनर्जीने उपरोक्त क्षत्रियोकी आजके भारतीय जीवन, विशेषतया पंजाबी जीवनपाचो जातियोको आर्य मानकर असुरजातिया कहा है? को देखते हुए भले ही यह बात हमे आश्चर्यजनक प्रतीत हो, खैर कुछ भी हो, उपरोक्त व्याख्यासे यह बात स्पष्ट है परन्तु समस्त भारतीय साहित्य और विदेशी यात्रियोंके कि शौरसेनदेशके निवामी तुर्वसा लोग भी अहिसाधर्म- विवरणोपरसे उक्त बात पूर्णतया सिद्ध है। आजके भारके अनुयायी थे ।
तीय जीवनमे जितनी अधिक मासाहारकी प्रवृत्ति देखनेऊपरके आख्यानोसे यह भी साफ सिद्ध होता है, कि में आ रही है, वह सब मुस्लिम और विशेषकर पाश्चात्य भारतका मौलिकधर्म, अहिंसा तप, त्याग, और सयम रहा योरोपीय मभ्यताके दुष्प्रभावोका ही फल है। . है, हिसात्मक याज्ञिक क्रियाकाड, त्रेतायुगके आरम्भमे ईसवी सन्म ३०० वर्ष पूर्व भारतमें आने वाले देवगणकी आमदके साथ भारतमे दाखिल हुआ और द्वापर- यूनानी दूत मैगस्थनीजमे लेकर ई सन् ७०० के लगभग के आरम्भ तक यहाकी अध्यात्म-सस्कृतिके सम्पर्कके आनेवाले चीनी यात्री इत्सिग तक सभी यात्रियोने उक्त कारण अहिसामयी होम 'हवन' मे बदल गया । मतकी पुष्टि की है। भारत सदा शाकाहारी रहा है
___मैगस्थनीजनं बतलाया है कि भारतीयजन बड़े आनन्द__ जैसा कि पहिले बताया जा चुका है, भारतीय जीवनका पूर्वक जीवन व्यतीत करते है, क्योकि इनका चलन बहुत सीधा आदर्श सदा योगी जीवन रहा है। भारत लोग परमात्माकी और मादा है। ये मिवाय यज्ञ-यागके कभी मदिरापान नही कल्पना भी योगीके रूपमे ही करते रहे है, और परमात्म- कग्ने, असभ्य पहाडी लोगोक मिवाय जो शिकाग्मे प्राप्त किये रूप बननके लिये सदा योगी जीवनको अपने जीवनका हुप मामको खा लेते है, उनकी आहार सामग्री विविध प्रकार ध्येय मानते रहे है। इसी ध्येयको लेकर भारतके प्रसिद्ध के अन्न-मुख्यतः चावल है कि इनका स्थायी व्यवसाय राजयोगी भर्तृहरिने कहा है.
कृषि ही है।' एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
फाहियान चीनी यात्रीने जो चन्द्रगुप्त द्वितीयके समयकदा शम्भो भविष्यामि कर्म निर्मूलनक्षमः॥ मे (३९९-०२३ ई मन्) भारत आया था, लिखा है कि अर्थात हे शम्भो वह दिन कब आयगा जब अनादि "भारतवामी किमी मादक द्रव्यका मेवन नही करते, कर्मबन्धनोको निर्मुल करनेके लिये मै योगियोके समान भोजनके लिये वे पशुओको नहीं मारते, केवल चांडाल अकेला शान्तिभावसे बिना किसी वस्त्र उपकरण और जिन्हे पंग्यिा कहते है, मास, प्याज, और लहसुन खाते है, आडम्बरके अलिप्त और निष्कामभावमे विचरूगा । पग्यिा लोग नगरके बाहर रहते है। जब वे नगरमे आते
उतबासा परिविषे समष्टि गोपरीणासा, यस्तु- है तो लोगोको सूचना दनके लिये लकड़ीको दण्डेमे बजाते बंश्च भामहे । अग् १०-६२-१०
है, जिसे सुनकर लोग उनके म्पर्शसे दूर हो जाते है। भारत२. Dr. A.C. Das-Rigvedic Culture. वामी लोग सुअर, मुर्गा आदि जानवरोको भी नही पालते। P. 128.
!. Ancient India as described by 3. Dr. A. Banerjee-Asura India, Megasthenes and Arrian by J. W. pp. 17-19, 34-40.
Mecrindle 1877-pp. 69 and 222.
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अनेकान्त
[वर्ष ११
मवे पशुओंको बेचनेका व्यवसाय ही करते है, बाजारोमें अजीर्ण से बचे रहते है।' मांस और शराबकी दुकानें भी नही रखते।""
ऋषिकूल जीवन भी अहिंसामयी रहा।
महाभारत, रामायण, रघुवंश, शकुन्तला, कादम्बरी, इसीप्रकार चीनी यात्री हुएन्त्साग ने जो ईस्वी सन्
आदि साहित्यिक ग्रथोंमे बाल्मीकि, अगस्त्य, भृगु, कण्व, ६२९-६४५ में भारतमें आया था, लिखा है कि "भारतीय जावालि आदि माननीय ऋषि-मुनियोंके आश्रमोंका जो लोग स्वाभाविक रूपसे पवित्र रहते है, वे भोजनके पूर्व वर्णन दिया हुआ है, उससे भली भाति विदित है कि ब्राह्मण स्नान करते है । वे उच्छिष्ट भोजन न खुद खाते है और न ऋषियोके आश्रमोका वातावरण दया, सरलता और दूसरोको खिलाते है। भोजनके पात्र बिना साफ किये स्वच्छतासे कितना सुन्दर था, विनय, भक्ति और सेवासे दूसरों को नही दिये जाते । मिट्टी और लकडीके पात्र एक कैसा सजीव था, उनका लोक मानव-लोक तक ही सीमित बार ही प्रयोगमें आते है। सोने, चादी ताबे आदिके पात्र न था, वह पश-पक्षी लोक तथा वनस्पति लोक तक व्याप्त प्रयोगके बादमें शुद्ध किये जाते है। भारतीयोका भोजन
था। वह आकाशमे धरती तक और पूर्व क्षितिजसे पश्चिम साधारणतया गेह, चावल, ज्वार, बाजरा, दूध, घी, गुड क्षितिज तक फैला हुआ था। ऋतु-चक्रका नृत्य, उषाऔर शक्कर है।
की अरुण मुस्कान, सूर्यकी तेजस्वी चर्या, सध्याकी शान्त
निस्तब्धता, तारों भरे उत्तग गगनके गीत, उनके आमोदइसी प्रकार चीनी यात्री इत्सिग, जो हर्षवर्धनके कालमे
प्रमोदके साधन थे। सब ओर लतावेष्टित रूखोकी पक्ति, ईस्वी सन् ६९१-६९२के लगभग भारतमे आया था, लिखता फलोकी वाटिकाए, अलियोका गुजार, पक्षियोके नाद, है कि-"यहापर भारतमे सारा भोजन--क्या खाने के लिये __मोरोके नाच, मृगोकी अठखेलियाँ, कमलोंसे भरपूर जलाशय,
और क्या चबाने के लिये बड़ी उत्तमतासे नानाविधियोसे तैयार उनकी नाटकशालाके सजीव दृश्य थे; खानेके लिये प्राकृतिक किया जाता है; उत्तर भारतमे गेहू का आदर बहुत होता है; फल फूल, पीने के लिये स्वच्छ नदी जल, पहिननेके लिये पश्चिमी प्रदेशमे सबसे अधिक सेका हुआ आटा-अर्थात् बल्कल, रहने के लिये तृणकुटी, उनकी धनसम्पदा थी। चावल या जौका सत्तू वर्ता जाता है, मगधमे गेहूका आटा स्मति-ग्रन्थोंके विधान भी अहिंसामयी हैं बहुत कम परन्तु चावल बहुतायतसे होता है, दक्षिणी सीमान्त
स्मृति-प्रथोमे भी आहार और व्यवसाय-सम्बन्धी प्रदेश और पूर्वी उपान्त्य भूमिकी उपज वही है जो कि
अहिसापर बहुत जोर दिया गया है । मनुस्मृति ११-५४-९६
अद्विसापर बहत जोर दिया । मगधकी है। घी, तेल, दूध, और मलाई सब कही मिलती है। मे कहा गया है कि माम, मद्य, सुरा, और आसव मीठी रोटिया अर्थात् गुड़की भेलिया और फलोकी इतनी
ग्रहण न करना चाहिए। कीडे, मकोड़े पक्षियोंकी हत्या करना प्रचुरता है कि उनका यहा गिनना कठिन है। सामान्य
अथवा मधुमिश्रित भोजन, निन्दित अन्नका भोजन, लहसुन, लोग तक मद और मास बहुत कम खाते है । भारतके पाचो
प्याज आदि अभक्ष्य चीजोका सेवन करना भी पाप है। भागों मे अर्थात् उत्तरीय भारत मे लोग किसी प्रकारका
खानोपर अधिकार जमा, उनको खोदना, बडे भारी यत्रों
खानोपर अधिकार जमा. प्याज अथवा कच्ची तरकारिया नही ग्वाते है. अतएव वे
का चलाना, औषधियोका उखाडना, ईंधनके लिये हरे
वृक्षोका काटना भी पाप है। याज्ञवल्क्य-स्मृति १-१५६, १. Buddhism Records---Introducted बृहन्नारदीय पुराण २२,१२,१६ में पशुबलि और मासाहारpp. 37-38.
को लोकविरुद्ध होनेसे त्याज्य ठहराया है।
१. इत्सिंगकी भारतयात्रा, अनुवादक ला. सन्तराम २. बाटलं ओन युवन ज्वांग, जिल्ब १ पृ. १५२ बी. ए. १९२५ १० ६६,६७
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कविवर द्यानतराय
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
जीवन-परिचय-
कविवर द्यानतरायजी आगराके निवासी थे । यह अग्रवाल कुलमे उत्पन्न हुए थे और उनका गोत्र गोयल था । कविवर के पूर्वजोंने लालपुरसे आकर आगरामें निवास किया था । कविके पितामह ( दादा ) का नाम वीरदास था और पिताका नाम श्यामदास । सवत् १७३३ में कविवरका जन्म आगरामे हुआ था। इनका लालन-पालन बडे प्रेमसे किया गया और प्रारम्भिक शिक्षा भी इन्हें मिली। उन समय इनकी जैनधर्म मे कोई रुचि नही थी और न उसका परिज्ञान ही इन्हें था । उस समय केवल अपने पिता द्वारा मानित धर्मका आचरण मात्र करते थे ।
देवयोग कविवरके पिनाका सं० १७४२ में अचानक स्वर्गवास हो गया। उस समय उनकी अवस्था नौ वर्षकी थी । पिताके स्वर्गरथ हो जानेगे उन्हें जो शोक हुआ, उसका प्रभाव भी उनके जीवनपर पड़ा, घर गृहस्थीका सब कार्य उन्हे भार स्वरूप प्रतीत होने लगा, परन्तु फिर भी आत्मीयजनों और दूसरे धर्मात्मा सज्जनोंके सहयोगसे कुछ समय अपना कार्य करते हुए भी शिक्षाकी ओर अग्रसर होते रहे ।
भाग्योदयमे तेरह वर्षकी उम्रमे इनका परिचय प० विहारीलाल और शाह मार्नासहजी हो गया। ये दोनों ही जैनधर्मके अच्छे जानकार थे और शक्त्यनुसार उसपर अमल भी करते थे । उम ममय आगगमे यत्र तत्र जैनधर्मकी खूब चर्चा थी, वहा विद्वानोंका समागम और तत्वचर्चाका वह केन्द्र-सा बना हुआ था। इनमे पहले भी वहा अध्यात्मशैली अपना कार्य कर रही थी, उसके बाद इनकी शैली भी प्रसिद्धिको प्राप्त हो गई। फलत वहा उस समय यदि कोई हाकिम या मद् गृहस्थ पहुच जाता था तो वह उन विद्वानोंकी तत्वचर्चा और सत्संगति से यथेष्ट लाभ उठानेका जरूर प्रयत्न करता था । अध्यात्मरसकी चर्चा उस नवागन्तुक व्यक्तिपर अपना प्रभाव अछूता नही छोडती थी, और परिणामस्वरूप उसकी आस्थामें जो कुछ कचावट अथवा शैथिल्यका अर्थ होता वह दूर होकर उसमें दृढ़ता आ जाती थी । और वह जैनधर्मका सच्चा हामी ही नहीं बनता था बल्कि अपने मानवजीवनको ऊंचा उठाने जैसी भावनाको
भी हृदयंगम कर लेता था । इस प्रकारकी अध्यात्मशैलिया उस समय कितने ही स्थानोपर अपना कार्य करती थीं । अस्तु, धानतरायजी उन दोनों सज्जनोंकी शिक्षा उपदेश एवं प्रयत्नसे अपने मानवजीवनको सफलताके रहस्यको पा गए। और संस्कृत-प्राकृत भाषाके साथ हिन्दी भाषाके भी अच्छे विद्वान बन गए। साथ ही जैनधर्मका परिज्ञान कर अपनेको उसकी शरणमे ले आए। कविवर पं० विहारीदास और शाह मानसिंहके इस उपकारको वे कभी नहीं भूले, प्रत्युत जबतक जीवित रहे उनका उपकार बराबर मानते रहे। फलत: उन्होने अपनी रचनाओमें भी उनका आदर एवं सम्मानके माथ उल्लेख किया है ।
सवत १७४८ मे १५ वर्षकी अवस्थामे द्यानतरायजीका विवाह हो गया और वे गृहस्थ जीवनकी गुल जकड़ दिये गए, जिसमें रागी होकर अनेक जीव अपने कर्तव्यको भूल जाते है । उस समय यौवनकी उन्मादकता जीवको पागल बना देती है और वह उसके रागरंगमे अपना सब कुछ भूल जाता है। जहा उनकी परिणति रागी होती थी वहा सत्संगका असर भी उनपर अपना काफी प्रभाव रखता था । इस समय उनकी अवस्था १९ वर्षकी हो चुकी थी । उस अवस्थामे जहा कामकी वासना भीषण ज्वाला रूपमें आत्मगुणोंको जलानेका प्रयत्न करती है वहां सत्समागम और अध्यात्म-शैलीने उनके विवेकको सदा जगरूक रहने के लिये बाध्य किया । यही कारण है कि वे उम समय भी अच्छी कविता करने लगे थे । फलतः सवत् १७५२ में कार्तिकवदी त्रयोदशीके दिन आपने आमरामे 'सुबोध पचासिका' नामकी कविता पूर्ण की।" सुगुरु विहारीदामने उसका उन्हें हितमे अर्थं बतलाया था और उन्होने उमे पद्यबद्ध किया था। यह रचना कितनी सुन्दर और अर्थवान है ( इतनी छोटी अवस्थामें इस प्रकारकी रचना करना आसान काम नही, )
१. "हिती अर्थ बताइयो, गुगुर बिहारीदास । सहसौ बावन वदी तेरस कार्तिकमास ॥५० ज्ञानवान जैनी सबै बसें आगरे मांहि ।
अन्तर ज्ञानी बहु मिले, मूरख कोऊ नाहि ॥ ५१ नर्मविलास
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अनेकान्त
१९४
उससे कविकी प्रतिभाका सहज ही आभास हो जाता है । और उससे यह भी निश्चित हो जाता है कि उस समय जैनधर्म ग्रंथोंका अध्ययन कर कितना रस वे हृदयंगम कर लेते थे और बादको उसे वे कवितायें कैसे परिणत करते थे। संवत् १७५८में मंगसिर यदी के दिन आगरामें शाहमानसिंह और पं० बिहारीदासके शिष्य चानतने 'उपदेशशतक' की रचना समाप्त की है, जिसमें १२१ पद्म है । इस रचना के अन्तमें कविने अपनी यह भावना व्यक्त की है कि हमें उस तरहसे प्रवृत्ति करनी चाहिए जिस तरहसे निजात्माकी प्राप्ति हो और मात्मामें वीतराग धर्मकी अभिवृद्धि होकर भव-दुखोटा मिले।
।
कविवर अपने प्रारम्भिक गृहस्थ जीवनमे विषय भोगों में आसक्त थे। फलस्वरूप उनके सात पुत्र और तीन पुत्रिया थी । उनके लालन-पालनका भार भी उन्हें अपने कर्तव्यकी ओर अग्रसर होनेका बराबर सकेत करता रहता था। वे उससे छूटने का उपाय भी करते थे, परन्तु वे मोह वश उसे छोड़ नहीं सके। किन्तु जब विवेकने जोर पकड़ा तो उनका जीवन भी शनैः शनैः बदलता गया, और वे घरमे रहते हुए भी अपनेको कारागारमें पड़ा अनुभव करने लगे । वे अपनी आजीविकाके निर्वाहार्थ उद्योग भी करते थे, परन्तु अपनी सज्जन गोष्ठीके कार्यको कभी नही भूलते थे। जैनधर्मको प्राप्त कर वे जितना जितना उसके सैद्धातिक तत्त्वोंका मनन एवं पर्यालोचन करते जाते थे उतना ही उनका बुद्धि वैभव भी बढ़ता जाता था। हिन्दी भाषादिके साथ वे गुजराती और उर्दु भाषाके भी अच्छे जानकार थे; क्योंकि उस समय आगरामे अनेक देशोके व्यापारी जन आते जाते थे, उनसे सम्बन्ध रखनेके लिये उनकी भाषाका परिशान होना आवश्यक ही था । जिनेन्द्र भक्ति-
ज्यों-क्यों उनके तत्वज्ञानमें वृद्धि हुई त्यों-त्यों उनका
[ वर्ष ११
क्षयोपशम भी बढ़ता गया और उससे भावोमें निर्मलताकी अभिवृद्धि होती गई, अध्यात्मग्रन्थोंके अध्ययन और सत्समागमसे उनमें नव चेतनाका जागरण हो गया, जैनधर्ममें उनकी श्रद्धा अडोल थी । जिनेन्द्रभक्तिमें वे किसीसे पीछे नही थे। जिन वचनोको सुनकर ही उनका पाप मलदूर हुआ था। जिन गुणोंके चिन्तन और श्रद्धासे भक्तजन उन जैसे बन जाते हैं। एक दिन - 'हे द्यानत ! यदि तु कल्याण चाहता है, भव दुःखसे छूटने की तेरी अभिलाषा है, तो अन्तरंगमें देव, धर्म और गुरुरूप अमोलक रत्नोका श्रद्धानकर और ब्रह्मज्ञानका अनुभवकर भव-पाशसे छूट । जिनेन्द्र ही तरणतारन है यह उनका विरद लोकमें विश्रुत है । अतः वे मुझे भी शिव पद देवें, यही मेरी अन्त कमिना है। भावपूर्ण की गई निष्कामभक्ति आत्म-साधनामे साधक है, उससे ही स्व-परका भेद ज्ञान होता है और आत्मा मुक्तिकापात्र बनता है इस तरह कुछ गुन गुनाते हुए कविवर भक्तिभावमें लीन होकर कहते हैं
-- .
" तू जिनवर स्वामी मेरा मे सेवक प्रभु हो तेरा ॥ तुम सुमरन बिन में बहुकीना, नाना जोनि बसेरा । भाग्य उदय तुम दरसन पायो, पाप भज्यो तजि खेरा ॥ १ ॥ तुम देवाधिदेव परमेसुर, दीजै दान सबेरा । जो तुम मोल देत नहि हमको, कहां जायं किहि डेरा || २ || मात तात तू ही बड़ भ्राता तो सौं प्रेम घनेरा । द्यानत तार निकार जगत तं, फेर न वै भव फेरा ॥ ३ ॥ 'हे जिनेन्द्र ! तुम ही मेरे स्वामी हो, और में तुम्हारा सेवक हू । तुम्हारे गुण-स्मरण बिना मैने अनेक योनियोमे भ्रमण किया है। भाग्यउदयसे मैने आपका दर्शन प्राप्त किया है, और उससे मेरा भव-पापमल दूर हुआ है, आप मुझे मुक्ति प्रदान करे, आप ही मेरे मात, तात और अकारण ज्येष्ठ बन्धु हैं। आपसे ही मेरा घनिष्ठ प्रेम है, आप ही ससारसे तारनेवाले है । अतः आप मुझे ऐसा बल प्रदान करे जिससे फिर मेरा भव-वास न हो ।'
१. " सत्रेसौठावन मगसिर वदी छठि बढ़ी आगरेमें सैको सुखी निजमन घनसौं मानसिहसाह मौ बिहारीबास ताकी शिष्य, धानत विनती यह कहे सब जनसों ॥ जिहिविधि जानौं निज आतम प्रगट होय, बीतराग धर्म बढे सोई करी तमसाँ दुखित अनादिकाल चेतन सूचित करो, पार्व सिव-सुख सि- दुःख-बनसी ॥
१२०
एक बार जिनेन्द्रके सम्मुख विचार-मग्न हुए कविर कहते है-'वह भववास ही मेरे दुःखोंका प्रधान कारण है। अब मेरा पित्त उससे ऊब गया है, में इससे अब छूटना चाहता हूं, अतएव मेरा इससे कब और कैसे छुटकारा हो, यही मेरे सामने एक समस्या है जो मुझे बराबर बेचैन कर रही है। इस समस्याके हल करने में आप ही प्रमाण है । आपकी इस प्रशान्त मुद्राको देखकर ही मैने अपने स्वरूपको जानने
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कविवर धानतराय
या अनुभव करनेका प्रयत्न किया है। परन्तु मै अभी तक साघो! छाडो विषय विकारी, जाते तोहि महादुख भारी॥ उसमें पूर्ण सफलताको नही पा सका, जिसे प्राप्त करनेकी जो जैनधर्मको ध्यावं, सो आत्मीक-सुख पावै ॥१॥ मेरी उत्कट अभिलाषा है। परन्तु मेरा यह चैतन्यात्मा हाड, गज फरस विषे दुख पाया, रस मीन गंध अलि गाया। मांस और लोहूकी थैलीमें वास कर रहा है, वह तीन लोकका लखि दीप शलभ हितकीना, मृग नावि सुनत जिय दीना ।।२।। ठाकुर होकर भी भिखारी क्यों बन रहा है ? इसके भिखारी ये एक एक दुखदाई, तू पंच रमत है भाई। बननेका क्या कारण है और उसे मै कैसे दूर कर सकता हूँ? यह कौनें सीख बताई, तुमरे मन कैसे आई ॥३॥ इस शरीरको मै नित्य पुष्ट करता हू । और अनेक प्रयत्नोसे इन माहिं, लोभ अधिकाई, यह लोभ कुगतिको भाई। इसकी सार सम्हाल भी रखता है, तथा हर समय इसे साफ- सो कुगति माहि दुख भारी, तू त्याग विषय मतिभारी ॥४॥ सुथरा रखनेका भी यत्न करता है, परन्तु खेद है कि वह ये सेवत सुखसे लागे, फिर अन्त प्राणको त्यागे । मुरझाता एव सूखता चला जाता है, मै इसकी निरन्तर सेवा ताते ये विष-फल कहिये, तिनको कैसे कर गहिये ॥५॥ करता हुआ भी हार रहा है और वह जीत रहा है। इस कारण तबलौ विषया रस भाव, जबलो अनुभव नहि आवै । इस अवस्थामे मेरे में जो कुछ भी उस आत्मदेवकी मेवा जिन अमृत पान न कीना, तिन और रसन चित दीना ॥६॥ अथवा वीतगगी प्रभुका भजन हो सके वही मेग कर्तव्य अब बहुत कहा लो कहिए, कारज कहि चुप है रहिये । है। फिर भी कविवर कहते है -'कि हे द्यानन' जिन नाम- ये लाख बात की एक, मत गहो विषयकी टेक ॥७॥ का स्मरण करनेमे अनेक जीव समार समुद्रमे तर गए, जो तजै विषयकी आसा, द्यानत पावं शिववामा । जिनकी गणना करना शक्य नही, इस कारण मुझे भी दुख- यह सत गुरु सीख बताई, काहू विरले जिय आई ॥८॥ दायी विकयाओको छोडकर उसी नामको जपना चाहिए, “तूने इस विषय-सामग्रीके सचय करने में ही अपना जिन्होने उस कालको भी जीतकर स्थिर अवस्था प्राप्त अमूल्य समय लगाया है, और पर पदार्थोंको मेरा मेरा कहता की है। जब मसाग्मे तेरा कोई सहाग नहीं होता उस समय इस जन्मको व्यतीत किया है। पर पर्यायोमें रत होकर अपने जिन नाम ही, मुख, दुःख, जीवन और मरणादिसे तेरी स्वरूपकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु बार-बार उस रक्षा करता है।
ममता ठगनीसे ठगा गया, इन्द्रिय-सुखको देखकर अपने विषय-विरक्ति--
वास्तविक मुखको भूल गया, और कभी तूने उन पाचों ___ कविवरकी विषय-विरक्तिकी सूचक कुछ विचार- इन्द्रियोको वशमें करनेका प्रयत्न नहीं किया। किनु धन, धाराए इस प्रकार है.--'जब इस नरकायाकी प्राप्तिके रामा और धामकी संभालमें अपने नरभव रूप अमोलक हीरेलिये सुरपति (इन्द्र) भी तग्मता है और विचारता है कि को लगाता रहा। इस शरीरको पुष्ट करता हुआ भी अपने में इस नरभवको कब पाऊ ओर दीक्षा लेकर सयमका हितको क्यों नही देवता, झूठे सुखकी आशामें इधर-उधर आचरण करू। तब मै उसे पाकर भी विषयोकी लालसाम डोल रहा है ? दुःखको सुख समझकर मूढजनोकी सगति खो रहा है। ये विषय पिशाच मुझे उस आत्म-निधिका मे हर्ष मानता है, किन्तु सत्समागमसे डरता है, झूठ कमाता, भान नहीं होने देने, जिमे मै अनादिकालम भूला हुआ था । ये झूठ ही खाता और झूठी जाप जपता है, सच्चा साई तुम विषय मुझे बाह्यमे रमणीय-मे प्रतीत होते हैं, परन्तु ये नही सूझता, तू इस ससारसे क्योकर पार होगा, यह कुछ विषय कारे नागमे भी अत्यन्त भयकर और प्राण घानक है। समझमें नहीं आता। यममे डरता है, और पर पदार्थोंकी इनमे जो फसा वही अपनेको खो बैठता है, अपना सर्वस्व सम्प्राप्तिसे फूला फिरता है और उनमें मै, में की कल्पना गमा देता है। ये विषय महादु.ग्वकारी है , तू इनकी सगतिमे करता है । जब यह शरीर भी तेरा नही और न तेरे साथ ही अनेक दुःखोका पात्र बनता हुआ भी अपने हितको नही जाता है, जिसके सरक्षण और सवर्द्धनमे तू रानदिन लगा देखता । अब लाख बातकी एक बात है और वह यह कि तू रहता है, तब अपनेसे सर्वथा भिन्न स्त्री, पुत्र, मित्र और अब इन विषयोकी टेव छोड दे। जो इन विषयोकी आशा- धनादि सम्पदा तेरी कैसे हो सकती है ? तूने इन्हीके कारण को छोड़ देता है वही वास्तविक सुखका अधिकारी बनता है?' अनेक पाप उत्पन्न किये हैं तो भी तेरी तृष्णा पुरानी नही इस तरह मनमे कुछ गुनगुनाते हुए कविवर कहते है:- हुई। तेरी तृष्णारूपी इस भारी गड्डे में तीन लोककी सम्पदा
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अनेकान्ल
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नही होने देता। यह काल तुझे भी देख रहा है, अवसर पाते ही तुझ खा जावेगा, फिर तू ऐसा उपाय एव प्रयत्न क्यों नही करता, जिससे इस कालरूप सिहसे तुझे सदा के लिए छुटकारा मिल सके। भेदविज्ञान और आत्मानुभव-
भेदविज्ञान और आत्मानुभव - विषयक कविवरके कुछ विचार इस प्रकार है. - 'देहादिकपर द्रव्य न मेरे, मेरा चेतनवाना' कर्मोदयसे प्राप्त शरीरादिपर द्रव्य मेरे नही है, में चेतनद्रव्य हू और यह सब दीखनेवाले पदार्थ मेरे से सर्वथा भिन्न जड़स्वरूप है। वे मेरे कभी नहीं हो सकते, और नई में मोहवश इनमें रागी द्वेषी हुआ ससार परिभ्रमणके कारणभूत कर्मोका सचय करता रहा हू । अब भाग्यवश मुझे उस विवेक अथवा भेद विज्ञानकी प्राप्ति हुई है जिसके लिये मैं वर्षो से प्रयत्नशील हो रहा था और जिसे ससारके सभी प्राणी प्राप्त करना चाहते हैं । उस आत्मतत्वरूपी चिन्तामणिके प्राप्त होते ही मेरी वे सब इच्छाए शान्त हो गई है । वह चैतन्यज्योति समरस और अनाकुल है जिसके पावन प्रकाश में वे सब पद अपद प्रतीत होते है जिनकी चाहने इस मूढ प्राणीने अपना सर्वस्व खोया है । अब मेरी स्थिति ही बदल गई है जिस आत्मरसके बिना इन्द्रिय-भांग सुहावनेसे प्रतीत होते थे, वे ही उस सद्दृष्टिके प्राप्त होते ही सब अरुचिकारक और सन्ताप करनेवाले ज्ञात होते हैं । ससारके सभी विषय अब मुझे नीरम एव दुखदाई जान पड़ते है । आत्मानुभव ही चिन्तामणि है। इसके सुधारसमे वह मधुरता है जो अन्यत्र कही प्राप्त नहीं होती। इसके लिये अनेक तीर्थो मे गया, अनेक कठिनाइया ली, पाषाणांकी पूजा की, परन्तु वहा उसकी प्राप्ति नहीं हुई किन्तु जब मैने अपनी ओर दृष्टि पसारकर देखा तो उसे मैने अपने घट ही विराजमान पाया, जिस तरह तिलमे तेल और चकमक आग है उसी तरह इस शरीरमे आत्मदेव है । वह मेरे निकट और नजीक है सिर्फ अपने 'घेतनवाने' को देखनेकी आवश्यकता है । कविवर स्वयं निम्न पदमें अपनी उस स्थितिक व्यक्त करते है. -
मैं एक शुद्ध ज्ञाता, निरमल मुभावराता । दृग -ज्ञान-वरन-धारी, थिर चेतना हमारी ॥ तिहु काल परसो न्यारा, निरद्वद निरविकारा। आनन्दकन्द चन्दा, द्यानत जगत सदंदा । अब चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ।"
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अणुके समान है। फिर बता ये तेरा आशारूपी कांला कैसे मर सकता है ? इसे अनेकोंने भरनेका प्रयत्न किया, पर वे सब अन्तमें निराश हुए हैं । घन संख्यात है और अनन्तीतृष्णा है, वह कैसे पूरी हो सकती है, वृक्षको छाया और नरकी माया क्षण-क्षत्रमें घटती-बढ़ती रहती है। इसकी पूर्तिका एकमात्र उपाय सन्तोष है, जिन्होने उसका आचरण किया.
ही संसार में मुखी हुए है। इस ठगनी तृष्णाको साधुओने यो ही कोड दिया है जिन तरह नाकका मैल निकालकर फेंक दिया जाता है।"
'इनकी सति ने भव-भवने दुःख सहन किये हैं। और भव-भवकी अनन्त पर्यागोको छोटा है, ऐसा कौनसा स्थान है जहां तूने जन्म-मरण नही किया । तीन लोकके अनन्तपुत्रलोका तूने भक्षण किया है। यदि उन सबका हिसाब लगाया जाय तो वह तेरे अमित दुःखका कारण होगा। इन सब दुखोंको तूने बिना किसी समभावके सहन किया है । खेद है कि तू आज भी अज्ञानी बन रहा है । हे द्यानत! तू ज्ञानरूपी सुधारसका पान क्यो नही करता, जो अजर अमर पदका स्थान है। इस शरीरका मूल कारण ममता है, तू उस ममताका नाश कर ज्ञाता क्यो नही बनता ? ससारमें जितने शरीरधारी हुए उन सबको मृत्युने खाया है । जिनकी तिरछी भोहें देखते ही बड़े-बड़े क्षत्री राजा दर जाते है, इन्द्र और फणीन्द्र जिनके चरणोमे पहते थे उन्हे भी कालरूपी सिने अछूता नही छोडा । जिस महाबली रावणने इन्द्र जैसे सुभटको पराजित किया, उसी रावणको लक्ष्मनने मार भगाया। उस महा सुभट लक्ष्मणको भी कलने नही बकसा । जिस कृष्णने कस और जरासध जैसे शूरवीरोको प्राणरहित किया, उसी कृष्णको जरत्कुमारके बाणने मृत्युके मुखमें पहुचा दिया। जिस परशुरामने कई बार वीर क्षत्रियोको मारकर इस भूमिको क्षत्रि - विहीन करनेका प्रयत्न किया, उसी परशुरामको सुभूमिचकवतीने प्राणरहित किया, और वह सुभूमि भी काल कवलित हो गया । फिर तू अपनेको क्यो अमर समझता है ? और इस जब सम्पदाके अविनाशी होनेकी कल्पनामें मग्न हो रहा है। ये सब आत्मीय जन एवं परिजन तुझे ममताकी दृढ़ सालोंसे जकड़े हुए है। तू इनकी मोहममता अपनेको सर्वथा भूल रहा है। यह घर बंदीग्रह है, और परपदार्थोंकी प्राप्तिका लोभ यह चौकीदार है, जो तुझे आत्महितसे सदा रक्षित रखता है-उसमें प्रवृत
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किरण ४-५ ]
I
'इसी कारण अब मुझे पर पदार्थोंकी विपरीत परिणति पर खेद नही होता, और न अनिष्ट परिणति पर पहले जैसा दुख-शोक ही होता है, किन्तु उस अनुभव होनेपर मुझे जो आनन्द होता है, वह अवक्तव्य है-वचनोसे नही कहा जा सकता । वह निर्विकल्प ज्योति ही मेरा स्वरूप है । आत्मतत्त्व ही तीन जगतमें सार पदार्थ है. वह न श्रोषी है और न मानी है, वह तो अपने चिदानन्दम्बरूप में सदा अवस्थित है, और वही मेरे घटमें वर्तमान है, जो निगोदमे है वही मुझमे हैं और वही मुक्तिमे है उसमें रवमात्र भी भेद नही है, जो इस प्रकार उसे जानता अथवा अनुभव करता है नही बुद्धिमान है, सम्यग्दर्शन ज्ञान और चरित्र भूषित वह ज्ञायकभाव ही हमारा स्वरूप है । जो संसार मे सुखिया हुए और होगे वे सब इसी ज्ञा.क भावका अनुभव कर, अष्ट कर्ममलको धोकर उस अनन्त अविनाशी सुखके भोक्ता बने हैं, और बनेगे । कविवर कहते है कि मुझे भी उन्ही के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए 'मोह' पदमें निविष्ट दो अक्षरोका ध्यान एव चिन्तन करते हुए उम 'मोह' की भावनासे भी ऊचे उठकर राग-द्वेषरूप कालिमाको गलाकर संसार समुद्रसे तरना है, यही मेरा वह चरम लक्ष्य है जिसका साधन करना में अपना परम कर्तव्य समझता हू ।
कविवर केवल अध्यात्मशास्त्र के पडित ही न थे किन्तु वे अध्यात्म-ग्रन्थोके परिज्ञानके साथ मे आत्मचिन्तन द्वारा अपने अनुभवको निर्मल बनानेका सतत प्रयत्न करते थे । आपको आत्मध्यान अथवा सामायिक करनेका बडा शौक था । वे आत्मध्यानमे इतनं सलग्न हो जाते थे कि उन्हें बाह्य बातोका कुछ भी पता नही चलता था, वे ध्यान मे घंटों पत्थरकी नाई स्थिर रह सकते थे। उनका मन गृह विकल्पों और ससारके स्वायंपूर्ण व्यवहारो अथवा छलकपटरूप परिणमनोसे ऊब गया था -- घबरा गया था ।
वे चाहते थे कि में योगी बन जाऊ, परन्तु योगी बनने के लिए जब वे अपनी आत्म-शक्तिको तौलते और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके परिणमनका विचार करते, तब वे अपने को असमर्थ पाते थे । वे यह कभी नही चाहते थे कि योगी बनकर शास्त्र विरुद्ध किया कह अथवा लोगोंको अपने वेष-भूषो को दिखाकर यशस्वी बनू, घर- मठ अथवा मन्दिरमें निवास करू, और बाह्य अन्तर्जल्पोमे पड़कर अपने आत्मसयममे बाचक बनकर लोक-हास्यका पात्र बनूं। वे सोचते थे कि
कविवर खानतराय
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ऐसा करना मेरे लिए किसी तरह भी इष्ट नही हो सकता । उस पदको धारण कर तो आगमानुकूल निर्दोष प्रवृत्ति करना ही श्रेयस्कर है। इसी कारण वे घरमे रहते हुए भी अपनी उदासीन परिणतिसे अपना हित साधन करनेका प्रयत्न करते थे । घरके व्यापारादि कार्योका संचालन भी करते और पुत्रोंको उसकी सार सम्हाल रखनेका उपदेश भी देते थे, साथ ही अन्तरगमे वे अपनी परिणतिको उन विकल्पोसे सर्वदा दूर रखनेका बुद्धिपूर्वक पूरा प्रयास भी करते थे ।
पद्मावती देवीका आराधन---
जैनधर्मके सिद्धान्त उन्हें बड़े प्रिय लगते थे और उनसे उनकी आत्मामे निर्मलताकी जो झलक दृष्टिगोचर होती थी उसे वे जनधर्मका ही उपकार मानते थे । कभी-कभी वे समयमारदि ग्रन्थोंमें चर्चित आत्मपरिणतिका मनन करते हुए इतने आत्मविभोर हो उठते थे कि वे अपनी सुध-बुध भूल जाते थे। वे इस बात का सदा प्रयत्न करते रहते थे कि मेरे द्वारा किसीSat अपकार अथवा अहित न हो जाय । यदि कदाचित् ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता था तो वे उस समय मौनका अवलम्बन ले लेते थे, और जबतक वह विकल्प शान्त न हो जाता था तब तक आत्मनिन्दा और गढ़ द्वारा अपनी आलोचना करते रहते थे। उनके दिलमे यह टीम बार बार वेदना उत्पन्न करती थी और वह यह कि जैनधर्म जैसे पतित पावन, विश्वधर्मसे जनता विहीन है. यह विकस्य उनके जीवनमें अनेक बार उत्पन्न होता, कि तू ऐसा प्रयत्न कर जिसमे ममारके सभी मानव जैनधर्मकी शरणमं आकर अपना हित-साधन कर सके। इस विपयमे उन्होंने वर्तमानमें अपनी असमर्थताका अनुभव करते हुए यह विचार किया कि यदि पद्मावतीदेवीका आगमन किया जाय तो समय हैं कि वह मेरे मनोरथको पूर्ण करने में समर्थ हो सके। इसी सद्भावनाको लेकर उन्होंने पद्मावतीदेवीका आराधन किया। आराधनाके फलस्वरूप पद्मावतीदेवीनं प्रगट होकर कहा कि हे म तूने मुझे किसलिये याद किया है, तुझे जिस किमी वस्तुकी बाछा हो और जिसकी में पूर्ति कर सकती हू नि संकोच कहिये मे तेरे उस मनोरथको पूर्ण करूंगी।' कविवरने कहा, 'हे देवी! मुझे किसी इष्ट वस्तुकी चाह नही है, संसारका कोई भी वैभव अथवा राज्यादि पद मेरी अभिलाषाका विषय नही है। मेरी चिरतन अभिलाषाका
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अनेकान्त
। वर्ष ११
एकमात्र विषय सारे संसारको जैनी बनाना है । इसी रचनाएं-- कारण मैने आपको कष्ट दिया है कि संसारके ये अज्ञ प्राणी कविवर द्यानतरायजीकी सभी रचनाएं सरल और जैनधर्मके पावन तत्वोंसे अपरिचित है इसीसे वे अपना मुगम है। ऊपर दो रचनाओका (स. १७५२ और १७५८ का) अहित साधन कर रहे है, अतः आप उन्हे जैनधर्मकी महत्ता- रचनाकाल दिया जा चुका है । अधिकांश रचनाओंमें रचना का प्रभाव बतलाकर जैनी बनानेका प्रयत्न करे जिससे उनका समय अंकित नही है, इससे यह बतलाना प्रायः कठिन है कि संसारके दुःखोंसे छुटकारा हो सके। देवीने सुनकर कहा वे सब रचनाएं किस-किस समयमें रचकर समाप्त की गई कि 'इस कार्यको तो तीर्थकर भी नही कर सके, फिर है। पर यह सुनिश्चित है कि कविकी सभी कृतिया संवत् इतना गुरुतर कार्य मेरे जमे असमर्थ व्यक्तिसे कमे सम्पन्न १७५२ से १७८३ तकके मध्यवर्ती समयमें रची गई है। हो सकता है। मै तो उनके पुण्यकी दासी हूं। सारे संसारको इन सब रचनाओंमें पदोंको छोडकर ऐसी रचनाए बहुत जैनी बनानेका कार्य तो मेरी शक्तिसे बाहर है। इस कार्य- थोड़ी है जिनमें दूसरे ग्रन्थोसे सहारा नहीं लिया गया अथवा को छोड़कर आप अन्य किसी कार्यको करनेको कहे तो जो उनके अनुवादादि रूपमें प्रस्तुत नही की गई है। मै तुम्हारा मनोरथ पूर्ण कर सकती हूं । देवीके इन वचनों- सवत् १७५८ मे कार्तिक वदी त्रयोदशीके दिन छहढाला को सुनकर कविवरको अपनी भावनाको पूरा न होते देख नामका ग्रथ बनाकर समाप्त किया गया है। सबसे पहले किंचित्र खेद अवश्य हुआ; पर अलध्यशक्ति भवितव्यता- छहढाला नामक कृतिको जन्म देने का श्रेय उक्त कविको का ध्यान आते ही दूसरे क्षण वे सम्हल कर बोले-हे देवी! ही प्राप्त है। कविने सं० १७८० मे 'धर्मविलास' बनाकर मेरा अपराध क्षमा करो। देवीने कहा 'आप मुझे कोई काम समाप्त किया है जिसमें मगलचरण सहित ४५ रचनाए अवश्य बतलाइये। तब कविने कहा कि मैं 'चर्चाशतक' सकलित है। यह अथ छप चुका है। नामक ग्रंथ बना रहा हूं तुम मुझे इसकी रचनामे सहायता इस प्रथगत ४५ रचनाओके अतिरिक्त आपने ३२३ करना । देवी 'तथास्तु' कहकर अपने स्थान चली गई। हो आध्यात्मिक, औपदेशिक और भक्तिपूर्ण पदोंकी रचना सकता है कि इस घटनामें कुछ अतिशयोक्ति हो, पर इसमे की है जिनका एक 'पदसग्रह' अलगसे छप चुका है । आपकी तथ्य जरूर जान पड़ता है और उससे जैनधर्मके सम्बन्ध- रची हुई पूजाओकी सख्या संभवतः १२-१३ है जिनमे दश में कविको अन्तर्भावनाका यथेष्ट आभास मिल जाता है । लक्षण पूजा प्रायः बड़ी ही भावपूर्ण और अर्थ गौरवको लिये
कविवरका जीवन बहुत ही सादगीसे व्यतीत होता हुए है । ये पूजाए पूजा सग्रहमे छप चुकी है। था। वे कभी आगरामें रहते और कभी दिल्ली जाते, परन्तु द्रव्य सग्रहका पद्यानुवाद भी आपने किया है और वह दोनों ही स्थानो पर वहांकी अध्यात्म-शैलीके सत्समागम- भी छप चुका है। में अपना समय जरूर व्यतीत करते थे । कविवरने लिखा है 'चर्चाशतक' कविवरकी एक सुन्दर कृति है, जिसमें कि सवत् १७७५ मे मेरी माताने शील बुद्धि ठीक की, और करणानुयोगकी महत्वपूर्ण चर्चाओको पद्योमे अनूदित सवत् १७७७ में वे सम्मेदशिखरकी यात्रार्थ गईं और वही किया गया है । यह अथ भी छप चुका है। पर परलोकवासिनी होगई।
इन रचनाओके अतिरिक्त 'आगमशतक' अथवा ___ कविवर बड़े ही द्यानतदार अथवा ईमानदार थे। उनका 'आगमविलास' नामका एक ग्रंथ और भी है जिससे बहुत जीवन सीधा-सादा और वेष-भूषा भी साधारण था। उनका कम पाठक परिचित होगे । इस ग्रथमे जिन रचनाओका नैतिक और आध्यात्मिक जीवन उच्च भावनाओका प्रतीक संकलन किया गया है वे सब कविवरके अन्तिम जीवनकी था। वे जैनधर्मके रहस्य के ज्ञाता तो थे ही, साथ ही, उसका रचनाए है। इनका आगमविलासके रूपमें संकलन होनेसे सार वे संक्षिप्तमें बहुत ही सरल ढंगसे श्रोताओंके समक्ष पूर्व ही कविवरका संवत् १७८३ में कार्तिक शुक्ला चतुर्दशीके रखने में कुशल थे। वे कठिनसे कठिन विषयको सरल दिन देहोत्सर्ग हो गया था । कहा जाता है कि कविवर भाषामें समझा सकते थे । आपकी सारी कविताएं भी इसी आत्म-ध्यानमें लीन थे, रात्रिको उनकी बैठकमे जो चूहे बिल भावको लिए हुए है। यही कारण है कि वे उतनी गम्भीर बनाकर रहते थे, वे किवाड़ बंद होनेसे बाहर निकल नही और कठिन नही है किन्तु अत्यन्त सरल और भाव-पूर्ण है। सके । अतः कविवरके शरीर पर उछलते रहे, और उन्होंने
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किरण ४-५]
कविवर बानतराय
उनके शरीरको काटना शुरू कर दिया, जिससे विष चढ़कर 'चानत सुत था लालजी, चिठे ल्यायो तास । उनकी मृत्यु होगई । प्रातःकाल जब उनकी बैठक नही खुली, सो ले सासूको दिये, आलमगज सुवास ॥१३॥ तब पुत्रोने उसे प्रयत्न करके खुलवाया और पिताको मृत्युकी तासै पुन ते सकल ही, चिठे लिये मंगाय । गोदमे पाया; तब उनके निर्जीव शरीरका दाहसंस्कार मोतीकटले मेल है जगतराय सुख पाय ॥१४॥ किया गया। उनकी इस आकस्मिक मृत्युसे साधर्मीजन तथा 'तब मन मांहि विचार, पोथी कीनी एकठी। कुटुम्बीजन सभी शोकसागरमे डूब गए। इस घटनामें क्या जोरि पढ़ नरनारि, धर्मध्यानमें थिर रहे ।।१५' कुछ तथ्य हैं; इसका मुझे कोई प्रामाणिक उल्लेख तो अभी ___ 'सवत् सतरह से चौरासी,माघ सुदी चतुरदसी भाषी। तक प्राप्त नही हुआ, पर उनकी मृत्युके उस समय होनेमे तब यह लिखत समापत कीनी. मैनपुरीके माहि नवीनी॥' कोई सन्देह नही है । जैसा कि उक्त ग्रथके निम्न पद्यसे आगमविलासमें १५२ सर्वया है, जिनमें सैद्धान्तिक प्रकट है :
विषयोका वर्णन किया गया है। इसे शतक लिखा गया है शेष संवत विक्रम नृपतके, गुण वसु शैल सितंश ।।
५५ छोटी २ रचनाएं और है, जिनमें प्रतिमा बहतरी स० कातिक सुकल चतुरदशी, द्यानत सुर गतूश ॥
१७८१ में दिल्लीमें बनाकर समाप्तकी है। विद्युतचोरकथा
४० पद्योमे भवानीदासके लिए बनाई गई है और सनतकुमार आगमविलासके सकलित करने की भी एक रोचक कहानी चक्रवर्तीकी कथा कथाकोषके अनुसार ४७ पद्योमे दी हुई है । है। कविवरकी मृत्युके पश्चात् उनकी रचनाओका चिट्ठा, जो पचास दोहे भी सुन्दर है। इनके अतिरिक्त, ऊंकारादिक द्यानतविलाससे अतिरिक्त था इनके पुत्र लालजीने उन्हे लेकर ५२ और ६४ वर्ण, द्वादशाग, ज्ञान पच्चीसी, जिन पूजनाष्टक, आलमगंजवासी किसी झाझू न.मक व्यक्ति को दे दिया था। गणधर आरती, कालाष्टक, ४६ गुण जमाला, सघपच्चीसी, मालूम होने पर प० जगतरायनं उससे छीनकर मोतीकटले- सहजसिद्ध अष्टक, अकृत्रिम चैत्यालय जयमाला, अष्टोत्तरमें रखा । और इस बातका विचार कर कि फिर भविष्यमे सौ गुनमाला, देवशास्त्रगुरूकी आरती, आदि फुटकर ये रचनाएं नष्ट न हो जाय, इसलिए उनका एकत्र सग्रह- रचनाए दी हुई है। आगमविलासकी दो प्रतिया मेरे देखनेकर उसे सवत् १७८४ मे माघसुदी १४ को मैनपुरीमे मे आई है-एक जयपुरमे बाबा दुलीचदजीके भडारमें समाप्त किया है, जैसा कि उसके निम्न पद्योसे प्रकट है और दूसरी देहलीके शास्त्र भडारमं । इन दोनो ही प्रतियोके जिन्हे प जगतरायजीने उसमे दिया है । प जगतगयजी लेखकोंने लिपी करनेमें कुछ प्रमाद किया है, जिससे आगरामे रहते थे, वे भी अग्रवाल और अध्यात्म-शैलीके कितनी ही अशुद्धिया पाई जाती है। विद्वान् थे। और ताजगंजमें रायसे नागमे वे रहते थे:
वीरसेवा मन्दिर, सरमावा ता० ६-६-'५२
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क्या जैनमतानुसार अहिंसाकी साधना
अव्यवहार्य है ?
(श्री दौलतराम मित्र) क्या जैन मतानुसार अहिंसाकी साधना अव्यवहार्य है ? मिलाते है और निजपदस्थ तथा शक्तिके अनुरूप यह प्रश्न एक हकीकतपरसे उपस्थित हुआ है। वह यह है- (अनुसार) महासाधनाका अभ्यास भी करते रहते है। ___ "जैन-गृहस्थोमें बहुतसा मुनिधर्म प्रवेश पा गया है। ,
अहिंसाके अणुसाधक गृहस्थके तेरह चिन्ह इस प्रकार इनके इस आचार-विचारको देखकर दूसरे-जनेतर गृहस्थलोग जैनधर्मकी अहिंसाको अव्यवहार्य समझने लगे है।"
१. न्यायसे धन कमाने वाला हो। अर्थात् जुआरी न हो, (देवेन्द्रकुमार) श्रम (आरम्भ) जीवी हो।
२. सद्गुण अथवा गुरुजन (गुणीजन-सज्जन) सेवक हो। अतएव उक्त प्रश्नका स्पष्टीकरण आवश्यक हो गया है। दर्जन-सेवक न हो। जैनमतानुसार अहिंसाकी साधना इस प्रकार है -
३. हित-मित-प्रियभाषी हो। ___अहिंसाकी न्यूनसे न्यून ( कमसे कम ) साधनाको
४. धर्म (अहिसा) अर्थ (धन) काम (पंचेंद्रिय विषय) जैसे सकल्पपूर्वक (आक्रामक) सजीवहिसात्याग अथवा इन तीनोकी परस्पर विरोध-रहित सिद्धि-प्राप्ति-करनेकषायके अल्पाश-त्यागको 'अणुसाधना' और अहिसाकी वाला हो। अधिकसे अधिक तथा पूर्ण साधनाको जैसे त्रस-स्थावर- ५. नागरिक (सामाजिक नियम पालक) तथा दाम्पत्यजीवोंकी हिसाका त्याग अथवा कषाय' के अधिकाश तथा
३. "विषयेषु सुखभ्रांतिं कर्माभिमुखपाकजां । पूर्ण त्यागको 'महासाधना' कहते है।
छित्वा तदुपभोगेन त्याज्ययेत्तान् स्ववत्परम् ॥ गृहस्थ (पाक्षिक या व्रती श्रावक ) अणुसाधना करते हैं,
(सा घ ६-२-६२) और वनस्थ ( मुनि-तपस्वी ) महासाधना करते है ।
"प्रयतेत समिण्यामुत्पादयितुमात्मज । यद्यपि गृहस्थ करते तो है अणु-साधना, कितु वनस्थ व्युत्पादयितुमाचारे स्वबत्त्रातुमथापथात् ॥ होकर महासाधना करनेका आदर्श सामने रखते है।
(सा. ध २।३०) बल्कि आदर्शकी ओर गति करनेके लिये उचित कारण "विना स्वपुत्र कुत्र स्वं न्यस्य भार निराकुलः ।
गृही, सुशिष्यं गणिवत्प्रोत्महेत परे पदे ॥ १. क्रोध, मान, माया, लोभ, तथा हास्य, रति अरति,
(सा.ध. ३।३१) शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री-पुरुष, नपुन्सक लिंगोंमें रागये १३ कषाय कहलाते हैं।
४. "जिनपुगवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणं । २. "कब गृहवाससो उदास होय वन सेऊ, वेऊ निजरूप
सुनिरूप्य निजां पदवी शक्तिं च निषेव्यमेतदपि । रोकू गति मनकरीकी । रहिहो अडोल एक आसन अचल
-(पु. सि. २००) अंग, सहिहों परीषह शीत-घाम मेघ-झरीकी ॥ सारग-समाज
"सा. घ. ७५९-६०" खाज कबौं खुज है आनि, ध्यानदल जोर जीतू सेना ५. "न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजमोह-अरीकी। एकल विहारी जथाजात लिंगधारी, कब अन्योन्यानुगुणं तदहंगृहिणी स्थानालयो ह्रीमयः । होऊँ इच्छाचारी बलिहारी वा घरीकी ॥ (भूधर जैनशतक) युक्ताहारविहार आर्यसमिति : प्राश : कृतज्ञो वशी "सागारधर्मामृत ६, ४२, ४३ ।
शृण्वन् धर्मविधि दयालुरघभीःसागारधर्म चरेत् ।।
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किरण ४-५ ]
क्या जैनमतानुसार अहिंसाकी साधना अव्यवहार्य है ?
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जीवन वाला हो।'
रागीद्वेषी न हों। ६. लज्जालु हो, बेशरम न हो।
(ग) सबसे प्रिय बोलनेवाले हों। दुर्वचनी दुर्जनोंपर ७, योग्य आहार (मद्य मास रहित) तथा विहार करने भी क्षमा करनेवाले हो। सबके गुण-ग्रहण करनेवाले हों।' वाला हो।
इस प्रकार गृहस्थ और वनस्थ (मुनि-तपस्वी)की अहिंसा८, सत्संगति करने वाला हो।
साधनाके प्रकार तथा चिन्ह जो ऊपर बतलाये गये है, उनसे ९. विचारक हो ।
स्पष्ट हो जाता है कि जैन मतानुसार अहिंसाकी अणु१० कृतज्ञ हो।
साधना सर्वसाधारणजनोचित्त (गृहस्थोचित) है, व्यवहार्य ११ इंद्रियोको वशमें रखने वाला हो।
है। अव्यवहार्य नही है। १२. दयालु-दानी हो। जैसे अज्ञानी, भयभीत, भूखे, अब देखना यह है कि वे कौनसी बाते है जो मुनिजनोरोगी अपंग, इन चारों प्रकारके दुःखी जीवोका साधारणतया चित होकर गृहस्थोंने अपना ली है। वे ये होनी चाहिये :यथाशक्ति दुःख दूर करनेवाला हो। और विशेषत. ब्राह्मण १ त्रस-हिसा-घातपर जहा ध्यान ज्यादा देना चाहिए होतो ज्ञान दान देवे । क्षत्रिय होतो अभयदान देवे । वश्य हो वहा कम देना और स्थावरहिंसा-घातपर ध्यान ज्यादा देने तो अन्न, औषधि दान देवे । शूद्र हो तो सेवासुश्रुषा कर देवे। का ढोग करना।
१३. पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह,) २. सज्जन-अनुग्रह और दुर्जन-निग्रह पर ध्यान कम देना। से डरने वाला हो।
३. आरम्भ-जीवी (असि कृषि गोपालन वाणिज्य आदि
(सा. घ. १।११) श्रमजीवी) होनेमे जी चुगकर निरारम्भी होनेका ढोग अहिंसाके महासापक वनस्थो (मुनि तपस्वियो) के करना। चिन्ह इस प्रकार है.--
४. योग्य विषयो (पचेन्द्रियोके नियत्रित विषयो) से (क) विषयोकी आशाकी वशतासे रहित हो। आरम्भ भी मुह मोड़नेका ढोग करना; जैसे, अविवाहित रहना, और परिग्रहसे रहित हों। ज्ञान ध्यान तपमें लवलीन हों। नागरिकता-सामाजिकताका उल्लघन करना। अपुत्र रहना
(ख) स्व-पर-उपकारी हो। शत्रु-मित्रमें समभावी हो, (शुक्लध्यानका हेतु जो मानव कुल है उसमे आनेवाले जीवो १ "हिंसासत्यस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च बादग्भेदात् ।।
के लिये द्वार बन्द करना ) इत्यादि । द्यूतान्मासान्मद्याद्विरतिगृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणा ॥
निष्कर्ष यह है कि जैन गृहस्थोको चाहिए कि वे अन(आदिपुराण, जिनमेन)
धिकार चेष्टाओको नही अपनावे। ताकि दुनियाका समा२ "धर्मसततिमक्लिष्टा रति वृत्तकुलोन्नति ।
धान हो जाय कि जैन मतानुसार अहिसाकी साधना व्यवहार्य देवादिसत्कृति चेच्छन् सत्कन्या यत्नतो वहेत् ।।
है । अव्यवहार्य नहीं है।
(सा. ध १६०) ४. “साधारणा रिपो मित्र माधका. स्व-परायोः । ३. "विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः ।
साधुवादास्पदी भूना माकारे साधका. स्मृताः ॥ ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यने । (रक श्रा १०)
(आत्मप्रबोष ११२) "कुलजोणिजीवमग्गण-ठाणाइमु जाणउण जीवाण। ५ "मब्वत्थवि पियवयण दुव्ययणे दुज्जणेहि खमकरणं । तस्मारभणियत्तण-परिणामोहोई पढमवद (नियममार५६) मवेमि गुणगहण मदकषायाण दिळंता ।।"
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क्या सेवा साधनामें बाधक है ?
(श्री रिषभदास रांका )
इन्दौर मे अखिल विश्व जैनमिशनके मेरे भाषणके कुछ अंशको लेकर भी दोलतरामजी 'मित्र' का अनेकांत में एक लेख निकला। उनका आक्षेप है कि मैंने "जैन साधुजनोके निष्क्रिय एकाकी साधनाकी छेडछाड की है और वह भी इस रिवाजका आश्रय लेकर कि "अपनेमे भिन्न प्रकारकी सेवा (भले ही वह अधिक उत्तम हो) करनेवालोको कुछ तो भी भला बुरा कहना ।"
यो मेरी बिना सोचे-समझे कुछ कह देनेकी वृत्ति नहीं है और दूसरेको दोष देनेकी आदत भी नही है । फिर में जैनसाधु-सस्थाके प्रति आदर रखता हूं इसलिये उन्हे बुरा बताना तो मुझमे हो ही नही सकता। किन्तु श्री दौलतरामजीने मेरा ध्यान अपने शब्दोपर फिर से विचार करनेके लिये आकर्षित करनेकी कृपा की, इसलिये में उनका आभारी
हू ।
1
मं नही चाहता था कि इस बारेमे कुछ लिखकर वादविवादमे पडा जाय । वाद-विवाद और झगडे में पडनेकी मेरी वृत्ति नहीं है फिर भी मित्रोका आग्रह रहा कि इसपर मुझे स्पष्टीकरण करना ही चाहिए। इसमे समाजके सामने स्पष्ट रूपसे एक विषय आ जायगा । विषय व्यक्तिगत नही है। यह और ऐसी शकाये समाजके तरुणवर्गमे वासकर पाई जा रही है ।
श्री "मित्र" जी ने लिखा है कि "श्री" राकाजीकी बात सिर्फ उनकी अपनी निगाहमें जैन साधुओकी एकाकी निष्क्रिय साधनाका महत्व नही जचने पुरती होती तो ऐतराज योग्य नहीं थी। किन्तु वह लोक-निगाहमे उक्त माधु-साधनाका हल्कापन जबनेका प्रतिनिधित्व भी करती है। अतएव वह एतराजयोग्य है" इससे शायद वे यह कहना चाहते है कि मैने जैन साधुओंको या उनकी क्रियाओको हलकी निगाहसे देखा है और उनके प्रति अनादर या तिरस्कार भी बताया है, लेकिन बात यह नही है। मैंने जो कुछ कहा था वह इस प्रकार है :
"मिशन तो हमने खड़ा कर लिया, लेकिन मिशनरी कहा है ? ऊपरके उदाहरणोंके प्रकाशमें, हमारा खयाल है हमारे साधुओंसे बढ़कर और कोई इस कामको नहीं कर सकता ।
अगर हम चाहते है कि जैनतत्वोका प्रचार हो। लोग जैनधर्म और समाजकी ओर आकर्षित हो तो हमें उनके लिये उपयोगी बनना होगा। जिस प्रकार ईसाई साधु प्रत्यक्ष सेवाका काम करते हैं वैसेही हमारे साधुमोको भी करना चाहिए। इसके लिये अब वैराग्यकी व्याख्याको बदलनेकी जरूरत है । यह खुशीकी बात है कि हमारे साधु पिछडे और अछूत माने जानेवाले लोगोमे मास-मदिराके त्यागका उपदेश करते है और वे लोग उनकी ओर आकर्षित भी होते है. लेकिन साधु महाराजके बिहार करनेके बाद बात जहा की तहा रह जाती है।
"सामाजिक दृष्टिमे साधुओका वैराग्य इतना एकाकी हो गया है कि वे अब अनुपयोगी माने जाने लगे और गृहस्थ तो बेचारे मोहमें प्रत्यक्ष फसे रहते हैं । गृहस्थोंके पीछे पूरा ससार लगा रहता है । उनसे त्यागकी बात करना ठीक नही और साधु इतने त्यागी होते है कि समाजसे कोई वास्ता नही रखते। अगर हमारे साधु सेवाको वैराग्य माने और अनासक्त भावमे समाजकी सेवा करे तो उनसे समाजका बहुत भला हो सकता है । इस प्रत्यक्ष मेवासे वे आदरके पात्र बनेगे और विश्वका हित भी होगा। जो काम कानून और पुलिस नही कर सकती, वह साधु आसानीमे कर सकते है । समाज त्यागकी कद्र करना जानती हैं। पर ऐसे त्यागका तिरस्कार भी कर सकती हैं जो भाररूप हो जाय। हमें आशा करनी चाहिए कि समय साधुओको ऐसा सोचनेके लिये विवश अवश्य करेगा, और वे भी स्वेच्छासे, आनन्दपूर्वक प्रत्यक्ष सेवाको अपना धर्म मानने लगेगे । वैराग्यका अर्थ निष्क्रियता नही है अनासक्ति है।
रेखाकित शब्दोको ध्यानपूर्वक देखनेपर सोचा जा सकता है कि जैन साधुमोको हलका तो बताया ही नही गया है, बल्कि उनकी योग्यता, त्याग और आवश्यकताको स्वीकार ही किया गया है, मेरी समझमे नही आता कि किसी भले कामका सुझाव देना भी बुरा और हलका कैसे हो जाता है ? मेरे कहनेका मतलब यह तो नही निकलता कि जो आत्मचिंतन करते हैं और आत्मकल्याण करना ही जिनका एकमात्र ध्येय है वे अपना विकास
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किरण ४-५
क्या सेवा साधनामें बाधक है ?
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नही कर सकते। जिन्हे केवल आत्म-कल्याण ही साधना की उपेक्षा करके भी हम जैनसमाजकी उन्नति नही कर सकेंगे, है वे एकाकी और निष्क्रिय रह कर भी आत्म-साधना वे जो कुछ कहते है उसपर भी हमें सोचना ही पड़ेगा, चाहें तो कर सकते है, लेकिन समाजको कौन अधिक और आत्मविकासके साथ-साथ यदि जनसेवा भी हो सकती उपयोगी होगे, यही प्रश्न है, हा मैने सामाजिक दृष्टि- हो तो उसमें बुराई क्या है ? से यह अवश्य कहा कि अगर हम चाहते हो कि ससारमे जैन- साधना या चितनकी दृष्टिसे विचार करनेपर भी हमें धर्मका और तत्त्वोका प्रसार हो तो दूसरे साधुओकी तरह यही दिखाई देता है कि कोई साधक कितना भी प्रयत्न करके हमारे साधुओको भी प्रत्यक्ष सेवाके काम करने चाहिये, रात-दिन चौबीसो घटे आत्मचिंतन नही कर सकता, क्योंकि मेरे सारे भाषणको सामाजिक दृष्टिकोणसे पढ़ना चाहिये ध्यान भी अन्तर्मुहुर्त से अधिक देर तक नही हो सकता ऐसा और मैने जो कुछ लिखा है वह किसी खास परम्परासे या बताया गया है और साधक भी इस बातका अनुभव करते पद्धतिसे आबद्ध होकर नहीं, बल्कि तुलनात्मक और उप- है, इसलिये चित्तको सत् प्रवृत्तिमें लगाकर उसकी शुद्धि योगात्मक दृष्टिसे लिखा है, और ऐसे लोगोके लिये कहा है करना आसान है ऐसा भी साधकोंको अनभव आता है, इसजो अपनी साधनाके साथ-साथ जन-कल्याण भी करना लिये अपनी मर्यादामें रह कर कोई प्रत्यक्ष सेवाके ऐसे चाहते है, जिन्हें जैन तत्त्वोके प्रसारमें रुचि है।
पढाने आदिके काममे या धर्मप्रसारमे लगे तो साधनामें हम सब ससारी प्राणी है, कोई आदमी संसारमे अकेला सहायता ही मिलती है, हा, उसमें हम उलझ न जायें इसकी नही रह सकता, अनेक व्यक्तियोके उपकार, सहयोग, सेवा- सावधानी रखना जरूरी है, एकात साधना अच्छी चीज है, के बलपर व्यक्तिका जीवन बनता है, यह अभिमान मिथ्या मनको शुद्ध करनेका वह उत्तम उपाय है, लेकिन उसकी ह कि कोई अपना निर्माण और विकास अकेले कर सकता है, मर्यादा नही भूलना चाहिये । मेरी विनम्र रायमें निरन्तर परस्पर अनुग्रह और उपग्रह ही जीवका कार्य है, ऐसी हालत- शुद्धि और कल्याणका ध्यान रखना भी अशुद्धि और मे संसारमें रह कर केवल आत्मकल्याण करनेवाले, आत्म- अकल्याणका कारण होता है, शुद्धि और कल्याणकी आकांक्षाकल्याण कर तो सकते हैं, पर जनताके लिये किसी प्रकार को त्यागे बिना शुद्धि और कल्याण नही हो सकता, हमारे उपयोगी नही पड सकते, आत्म-कल्याण करनेवाले साधुको यहा यह प्रसिद्ध ही है कि मुक्तिकाध्यान भी मुक्तिके लिये भी समाजसे अन्न-जलकी जरूरत पड़ती है, उसके लिये बाधक होता है । समाजमे आना ही पड़ता है और कुछ नही तो आत्मसाधना- शास्त्रोके प्रमाण देनेका झझटमे मै नही पड़ा करता । के लिये शरीरके सहयोगकी तो उन्हे भी जरूरत रहती है, शास्त्रोमे मे हर व्यक्ति अपने अनुकूल सामग्री निकाल लेता जैनधर्मके अरिहत और सिद्ध दो महान आदर्श है, सिद्धका है और वह आसानीसे मिल भी जाती है, शास्त्रोकी रचना ससारसे कोई ताल्लुक नही रहता मुक्त हो जाते है, अरिहत देश, कालकी परिस्थितियोके अनुसार होती है। इसलिये 'सदेह' और जीवनमुक्त रहते है, अरिहंतको पहले इसीलिये सब शास्त्र सब समयके लिये एक मे उपयोगी नही हो पाते, नमन किया जाता है कि ये संसारी लोगोको उपदेश करते श्री दौलतरामजीने शास्त्रोके कुछ अवतरण देकर एकांतहै, उन्हे सद्-मार्गपर लगनेकी प्रेरणा करते है, जन-सेवा और साधनाको महत्व देना चाहा है, मै भी चाहता तो अनासक्ति जन-कल्याण करते है।
पूर्वक प्रत्यक्ष सेवाके अनुकूल अवतरण दे सकता था___ इस समय हमारे नवयुवकोके मनमे साधुओके प्रति ग्वामकर गीताके, जिन्होने गीताका गहग अभ्यास किया आदर कम होता जा रहा है। यह आदर कम क्यो हो रहा है वे जानते है कि गीताका मूलमंत्र अनासक्तियोग है। सत्कर्म है, यह जरा गंभीरतासे सोचने और समझनेकी बात है, कगे और आमक्तिमे दूर रहो यह उसका मूल सूत्र है, इसी नवयुवकोंको पश्चिमी सभ्यताके पुजारी और मिथ्यात्वी मिलमिलेमें कहीं-कही एकांत-साधनाका भी उल्लेख आगया कह देनेसे समस्या हल नही हो जाती, वस्तुस्थिति यह है कि है, पर वह तो प्रासंगिक है और उमका उतना ही महत्व जब वे ससारकी गति-विधिको विशाल दृष्टिसे देखते है तब है जितना दालमें नमक, अपनी अनासक्तिको जांचते रहनेके वे पाते है कि जैनसाधु ससारकी प्रगतिमें साथ नही दे रहे लिये एकात साधना भी करनी होती है। इससे यह साबित है, और जनसेवासे भी वे अपने को अलग रखते है, नवयुवकों- नही किया जा सकता कि अनासक्त कर्म नही, एकांत साधना
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
ही मुख्य है।
सकें, तो और भी अच्छा । गांधीजीके शब्दोंका अर्थ भले ही दौलतरामजी अपने आजकी परिस्थितियां बदल गई है। व्यक्तिगत धर्मअनुकूल लगायें, पर उसपर विचार करने पर यही मालूम की अपेक्षा अब सामूहिक धर्मके बारेमें सोचना आवश्यक देगा कि वे उनके प्रतिकूल पड़ते है, गांधीजीने कभी अपने- हो गया है। किसी संप्रदाय या धर्म विशेषके बारेमें भी अब को पूर्ण पुरुष बतानेकी कोशिश नहीं की, यह उनका अपने सोचना सकुचित मनोवृत्तिका परिचय देना है। इसलिये अब आपको नम्र बनानेका प्रयत्न है। देशमें अनेक आत्मचिंतकों हमें अपने धर्म और धर्मकी परिभाषाको भी विशाल दृष्टिया निष्क्रिय-साधकोके रहते हुए भी देशको आजाद बनाने से बदलने और उसमें सामूहिक हितकी दृष्टि लानेकी में या लोगोंकी भलाई में गांधीजी जैसे ही अधिक उपयोगी हुए, जनताको उन पूर्ण पुरुषोसे क्या लाभ जो उसके उप
सारा खेल परिणामोंका है। प्रवृत्ति हो या निवृत्ति, योगमें न आये, उनके साधनके प्रति भले ही आदर रखे
बुरी-भली कोई नहीं होती। व्यक्तिका हित-अहित परिणामोंपर प्रत्यक्ष हित करनेवालेकी ही समाजको जरूरत है।
पर निर्भर है। एकांत साधक भी विकारोंके वशीभूत होकर आत्म-कल्याणके लिये घरबारको छोड़कर जगलमें चले
नीचे गिर सकता है और जनकल्याणके कामोंमें उलझा जानेका यह अर्थ भी हो सकता है कि एकातमें जानेवाले
दीखनेवाला व्यक्ति भी शुद्ध परिणामोंके कारण ऊपर उठ को डर है कि वह अनासक्त या निर्लेप नही रह सकेगा, ब्रह्म
सकता है। फिर भी अपनी-अपनी वृत्ति, संस्कार, रुचिके चर्यकी रक्षाके लिए स्त्रीको छोडकर चले जानेवालेकी
अनुसार मार्ग अपनाया जाना चाहिये और उसीमें परिणामोंअपेक्षा स्त्रीके साथ रह कर भी ब्रह्मचर्य की रक्षा करनेवाला
को अविकारी रखना चाहिये। किसी भी एक मार्गका अधिक योग्य, साहसी और दृढ माना जावेगा, क्योकि वह
आग्रह रखना योग्य नही होगा, हर व्यक्ति अपने लिये जो कसौटी पर खरा उतरता है। यह सही है कि राग-द्वेषमे मुक्त
योग्य मार्ग जंचे वह स्वीकार करे । हुए बिना कोई आत्मकल्याण नही कर सकता। मैने कहा है। कि जो काम कानून नही कर सकता वह साधु कर सकते है मेरा यह दावा नही है कि मेरे विचार ही सत्य है और लोमोंका हृदय परिवर्तन तो साधु कर सकते है। आदमियत ससारका हर छद्मस्थ प्राणी ऐसा दावा नही कर सकता, जगा सकते है। एक दूसरेकी सेवाके लिये तैयार कर सकते किसी भी विषय पर अनेक पहलुओसे विचार होता आया है। सच बात यह है कि जबतक "स्व" से ऊपर नही उठा है, हो रहा है और होगा, भाई दौलतरामजीने इस चीजको जायेगा तबतक व्यापकता नही आयेगी, व्यष्टिसे समष्टि और समझनेके लिये प्रेरित किया, अत: उनका आभारी हूं, बड़ी है। केवल आत्मकल्याण भी तो एक प्रकारका स्वार्थ मैने अपना दृष्टिकोण अधिक स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है, है। फिर आत्मकल्याण करते-करते दूसरोंकी भलाई कर नही जानता कहा तक इसमें सफल हुआ है।
भूल सुधारत तीसरी किरण के पृष्ठों पर भूल से कुछ पृष्ठ संख्या २३५ से २६८ तक छप गई है उसके स्थान पर पाठक १३५ से १६८ तक पृष्ठ लेने की कृपा करें।
-प्रकाशक
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कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएँ
(पं० परमानन्द जैन शास्त्री) हिन्दी भाषाके अनेक प्रसिद्ध जैन कवि हो गए है। उनमें थे। कविने अपनी अधिकांश रचनाएं बादशाह जहांगीरके पंडित भगवतीदासका नाम भी खासतौरसे उल्लेखनीय है राज्यमें रची है । जहांगीरका राज्य सन् १६०५ (वि० सं० जो कुशल कविथे। आपकी प्रायः सभी रचनाए हिन्दी भाषामें १६६२) से सन् १६२८ (वि० स० १६८४) तक रहा है। हुई है। परन्तु सबसे अन्तिम रचना 'मृगांकलेखाचरिउ' और अवशिष्ट रचनाए शाहजहांके राज्यमें जो सन् १६२८ अपभ्रंशभाषामें हुई है। यद्यपि उसमें भी हिन्दी भाषाके और (वि० सं० १६८४) से सन् १६५८ (वि० सं० १७१५) तक देशी भाषाके शब्दोंकी प्रचुरता पाई जाती है। इनकी उपलब्ध रहा है, रची गई है। रचनाओंमें कितनी ही कृतियां आत्मसम्बोधनार्थ लिखी गई यद्यपि ये सब रचनाए जिनमें रास अथवा रासककी है। आपकी अबतक २३ रचनाओका मुझे पता चल सका है। सख्या अधिक है, छोटी-छोटी स्वतन्त्र कृतिया है। उनमें कितनी संभव है इनके अतिरिक्त और भी इनकी कृतियां शास्त्रभडारो ही रचनाए भावपूर्ण और ललित प्रतीत होती है और उनका में कही पर उपलब्ध हो।
एकमात्र लक्ष्य स्व-पर-बोध कराने का प्रतीत होता है । कविने
अपनी सभी रचनाएं निस्वार्थभावसे रची है, वे किसीकी कवि भगवतीदास अग्रवाल कुलमे उत्पन्न हुए थे। खास प्रेरणासे नही रची गई है । और उनकी रचना विभिन्न इनका गोत्र 'बंसल' था। यह बूढ़िया' जिला अम्बालाके स्थानोपर सहजादिपुर (देहली-शाहादरा), सकिसा, कपिनिवासी थे। इनके पिताका नाम किसनदास था। इन्होने स्थल (कैथिया) जिला फर्रुखावाद आगरा और हिसार चतुर्थवयमे मुनिव्रत धारण कर लिया था। यह बूढ़ियासे आदि रमणीय स्थानोपर रची गई है। यह उन रचनाओके जोगिनीपुर (देहली) चले गये थे। उस समय देहलीमे अकबर अन्तिम प्रशस्ति-सूचक पद्योसे सहज ही ज्ञात हो जाता है। बादशाहके पुत्र जहागीरका राज्य था। और उस समय कविने अपनी चार रचनाओमे उनका रचनाकाल दिया है, देहलीकी प्रसिद्ध भट्टारकीय गद्दीपर मुनि महेन्द्रसेन विराज- शेष रचनाओमें वह नही पाया जाता। उनमें 'चनड़ी' मान थे। मुनि महेन्द्रसेन भट्टारक सकलचन्द्रके पट्ट शिष्य थे नामक रचना कविने संवत् १६८० म बनाकर समाप्त और भट्टारक गुणचन्द्रके प्रशिष्य थे। उस समय देहलीमे २ सोरठा-देस कोस गजिबाज, जासुन महि नप क्षत्रपति। मोतीबाजारमे जिनमन्दिर था, जिसमें भगवान पार्श्वनाथकी जहागीरको राज, सीतासतु में भनि किया ।। ८० मूर्ति विराजमान थी, और वहा अनेक गुणी एवं सुजन श्रावक- गुरु गुणचन्द आनन्दसिन्धु बखानिये, जन जिनपूजा आदि षट्कर्मोका नितप्रति पालन करते थे। सकलचन्द तिस पट्ट जगत तिम जानिये। विनय तथा विवेकसे मुनियोको दान देते थे। गुणी पडितजनों
तासु पट्ट जमु नाम खमागुन मंडणों, का सन्मान करते थे और करुणावृत्तिसे निर्धनोको धनका पर हां-गुरु मुनि माहिदमेन मुणहु दुख खंडणो॥८१ दान भी देते थे। इसकारण जगतमें उनका निर्मल यश गरु मनि माहिदसन भगौती, तिस पद-पंकज रन भगौती। व्याप्त हो रहा था । वहा ही कवि भगवतीदास निवास करते किमनदास वणिउतनुज भगौती,तुरिये गहिउ व्रतमुनिजुभगौती
... ..... नगर बूढिये वसै भगौती, जन्मभूमि है आसि भगौती । १. बूढिया पहले एक छोटी-सी रियासत थी, जो धन- अग्रवाल कुल बंसल गोती, पंडितपद जन निरख भगौती। ८३ धान्यादिसे खब समद्ध नगरी थी। जगाधरीके बस जानेसे जोगनिपुर परि राजै, राय-रवीरि नित नीवत बाजे । बूढ़ियाकी अधिकांश आबादी वहांसे चली गई, आजकल
प्रतिमा पार्श्वनाथ धनवंता, नागर नर पवर मंतिवंता॥ ८४
मोतीहट जिनभवन विराज, प्रतिमा पाश्वनाथकी साजै । वहां खंडहर अधिक हो गये है, जो उसके गतवैभव की स्मृति
थावक सुगुन सुजान दयाल, पट जिय जाम कर प्रतिपाल॥८५ के सूचक है।
--वृहत्सीतासतु, सलावा प्रति
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की है । अन्य उन्नीस रचनाएं भी संभवतः सं० १६८० या उससे पूर्व बन चुकी थीं क्योंकि कविने स्वयं उन्हें संगत् ; १६८० में जहांगीरके राज्यमें सांचीमें लिखकर समाप्त की हैं। उनके नाम और संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
१ 'टंडाणारास ———यह सबसे छोटी रचना है । इसमें बतलाया है कि यह स्याना जीव अपने दर्शन ज्ञानचारित्रादि गुणोंको छोड़कर अज्ञानी बन गया और मोह मिथ्यात्वमें पड़कर निरंतर परवा हुआ चतुतिरूप संसारमें भ्रमण करता है। इसे छोड़कर तू धर्म शुक्ल रूप अनुपम ध्यान धर, और केवलज्ञानको प्राप्त कर शाश्वत निर्वाण सुखको प्राप्त कर। जैसाकि उसके अन्तिम पदसे प्रकट है :
अनेकान्त
[ वर्ष ११
आठवीं रचना 'मनकरहा रास' है। यह एक रूपक खंड रचना है, इसकी पद्य संख्या २५ हैं जिनमें जीवरूपी मनकरहाके चौरासी लाख योनियोंमें भ्रमण करने और जन्ममरणके असह्य दुःख उठानेका विवरण देते हुए कविने उससे छूटने का उपाय बतलाते हुए लिखा है कि जब यह जीव शिवपुरको पा लेता है तब फिर इसका जन्ममरण नही होता। यह वहां अनन्तचतुष्टय रूप निराकुल अविनाशी सुखमें मग्न रहता है। यह रास सहजादिपुरमे बनाकर समाप्त किया गया है । नोवी रचना 'रोहिणी व्रत रास' है, इसमें ४२ पद्य हैं। दशवीं रचना 'चतुर बनजारा' है जिसमें ३५ पद्म निहित है। प्यारहवी रचना 'द्वादश अनुप्रेक्षा' जिसमें १२ पद्यों द्वारा संसारदशाका चित्र प्रकट करते हुए उससे विरागी होने की शिक्षा दी गई है । बारहवी रचना 'सुगंधदशमी कथा' है। जिसमे ५१ पद्योंद्वारा सुगध दशमी व्रत पालनके फलका उल्लेख किया गया है तेरहवी रचना आदितवार कया है जिसे रविव्रत कथा भी कहते है। इसमें भी उक्त व्रतके अनुष्ठानकी चर्चा और फलकी महत्ता बतलाई गई है। चौदहवीं रचना 'अनथमी कया है जिसमें २६ पचों द्वारा रात्रि भोजनसे हानि और उसके त्याग लाभकी महत्ता बतलाई गई है। पन्द्रहवी रचना 'नही' अथवा 'मुकतिरमणिकी चुनड़ी' है। यह भी एक दिलचस्प रचना है। चूनड़ी एक उत्तरीय वस्त्र है जिसे स्त्रियां अपने शरीरपर ओखती थी। राजपूताना और मध्यप्रातमें इसका रिवाज अब भी कही कही देखा जाता है, अन्य प्रातोसे अब उसका रिवाज संभवतः नष्ट हो गया जान पड़ता है। चुनड़ी एक रंगीन वस्त्र है। कविने उसे 'मुक्ति रमणी' की चूनड़ीकी उपमा दी है और उसे भवतारिणी बतलाया है । साथ ही सम्यक्त्वरूप उस विसाहले वस्त्रको ज्ञानरूप सलिल (पानी) के साथ भिगोकर और साजि (सज्जी) लगाकर रंगनेका उपक्रम किया है। इस रचनाको कविने अपनी जन्मभूमि बूढिया नगरमें रचा है, जो पहले एक छोटी-सी रियासत थी और उस समय सुन्दर भवनोसे सुशोभित थी। आज इस नगरका अधिकाश भाग खण्डहरके रूपमे पड़ा हुआ है जो अपने गत गौरवपर आसु बहा रहा है। कविता अच्छी है। और वह सं० १९८० में जहांगीरके राज्यमे रची गई है। सोलहवी रचना 'वीर जिनिन्द गीत है इसमें भ० महावीर की स्तुति की गई है । सत्रहवी रचना 'राजमती नेमीसुरहमाल' है। इसमें राजमति और नेमिनाथ के जीवन परिचयको अंकित किया गया है। अठारहवी रचना 'सज्ञानी हमाल'
परि ध्यानु मनूयम, सहि निजु केवलनाणा । जंपति दासभगवती पावहु, सासउ-सुहु निव्वाणा वे ।।" २. दूसरी रचना 'आदित्यव्रत रास' है, इसमें २० पद्म दिये हुए हैं। तीसरी रचना 'पखवाडा रास' है जिसमें पन्द्रह तिथियों में क्या कुछ विचार करना चाहिए यह बतलाया गया है, इसमें २२ पद्य है, रचना साधारण है। चौथी रचना 'दशलक्षणरास' है, जिसमें उत्तम समादि दशधमका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। इसमें ३४ पद्य है। पांचवी रचना 'खिचडीरास' है, इसमें ४० पच है। रचना साधारण होते हुए मी भावपूर्ण है। छठी रचना 'समाधि रास' नही बल्कि कविने 'साबुसमाधि- रानू भणेस' वाक्य द्वारा उसे साधु-समाधिरास' बतलाया है | सातवी रचना 'जोगीरास' है । इसके पद्योंकी संख्या ३८ है, जिनमें बतलाया गया है कि यह जीव भ्रमके कारण भववनमे भटक रहा है इसने शिवपुरकी सुधको विसार दिया है और अतीन्द्रिय आत्म-सुखको छोड़कर पंचे न्द्रियो के विषयों में लुभा रहा है। कविने जीवकी इस महती और पुरातन भूलका दिग्दर्शन कराते हुए अपने आंतरिकघटमें बसे हुए उस चिदानन्द स्वरूप आत्माके देखनेकी प्रेरणा की है। साथ ही, मनको स्थिर कर, ध्यान द्वारा उस शिवनायकके
नेकी प्रेरणा भी की है जिससे जीवात्मा भव-समुद्रसे पार हो जाय, जैसा कि उसके निम्न पद्योंसे प्रकट है:"हो तुम पे भाई, जोगी जगमहि सोई । घट-पट अन्तरि बस चिदानंद नसलिए कोई भव-वन-भूल रही भ्रमिरावल, सिवपुर-सुध विसराई । परम अतींद्रिय शिव-सुख-तजिकरि, विषयनि रहिउ लुभाई । अनंतचतुष्टय-गुण-गण राजहिं तिन्हकी हजं बलिहारी । मनिषरि ध्यानु जयहु शिवनायक, जिउं उतरहु भवपारी ॥"
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किरण ४-५]
कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएँ
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है। उन्नीसवीं और बीसवी रचनाएं 'आदिनाथ और शांतिनाथ' नन्ही बूद शरत सरलावा, पावस नम आगमु दरसावा । के स्तवन है।
दामिनि दमकत निशि अंधियारी,विरहनि काम-वान उरिमारी। इन रचनाओं के अतिरिक्त निम्न तीन रचनाएं और भुगवर्हि भोगु मुनहिं सिख मोरी, जानत काहे भई मति भोरी। है, लघुसोतासतु, अनेकार्थनाममाला और मृगांकलेखा- मदन रसायनु हइ जगसारु, संजमु-नेमु कथन विवहारु । चरित । जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है- दोहा-जब लगु हस शरीरहि, तब लगु कीजइ भोगु । ___लवु-सोतासतु--इस ग्रन्यमें सीताके सतीत्वका अच्छा राज तहिं भिक्षा भहि, हउं भूला सबु लोगु । चित्रण किया गया है, और उसमे बारहमासोके मंदोदरी-सीता सोरठा-सुखविलसहि परवीन, दुखदेहि ते बावरे । प्रश्नोत्तरके रूपमें जो कुछ भी भाव सकलित किये गये है। मिउ जल छडे मीन, तडफि मर्राह थलि रेतकइ । उनसे रावण और उसकी पट्टरानी मदोदरीकी कलुषित चित्त- पुनिहां-यहु जग जीवन लाहु न मन तरसाइये। वृत्तिका सहज ही परिचय मिल जाता है। साथ ही, उससे तिय पिय संजोगि परमसुहु पाइये । सीताके दृढ़तम सतीत्व और पतिव्रतधर्म-सम्बन्धी मुदृढ़ जो हु समझण हारू तिसहि सिख दीजिये। भावनाका मूर्तिमान चित्रपट हृदय पटल पर अंकित हो जाता जाणत होइ अयाणु तिहि क्या कीजिये ॥१॥ है। कथानक बड़ा ही सुन्दर और मनोमोहक है। कविने पहले
(सीता) स० १६८४मे जहागीरके राज्यमे 'वृहत्सीतासतु' बनाया था, शुकनासिक मृग-दृग पिक-बइनी,जानुकि वचन लवइ सुखिरइनी परन्तु एकतो वह रचना बड़ी हो गई थी, एक ही दिनमे पूरी अपना पिय पइ अमृत जानी, अवर पुरुष रवि-दुग्ध समानी॥ नहीं पढ़ी जा सकती थी, दूसरे उसमें रोचकता भी उतनी पिय चितवनि चितु रहइ अनदा, पिय गुन सरत बढ़त जसकंदा। आकर्षक नही थी। इसीसे कविने उसे ही सक्षिप्त करके प्रीतम प्रेम रहइ मनपूरी, तिनि बालिमु संगु नाहिं दूरी! देशभाषामें चौपाई बद्ध किया था । और अन्य सब जिनि परपुरिष तिया रति मानी ... . . . . . . ....! छन्दोंको छोड़कर केवल बारह महीनोके संवाद-सूचक करत कुशील बढ़त बहु पापू, नरकि जाइ तिउं हइ सतापू । छन्द ही रक्खे थे। इस ग्रन्थकी रचना स० १६८७ चैत्र जिउ मधु विदुतनूमुख लहिये, शील विना दुरगति दुख सहिये। शुक्ला चतुर्थी चदवारके दिन भरणी नक्षत्रमें "सिहरदि कुशल न हुइ परपिय रसवेली, जिउ सिसुमरइ-उरगसिउ खेली नगर मे' (दिल्ली-शहादरा में) की गई थी' पाठकोकी जान- दोहरा-सुख चाहइ ते बावरी, परपति सग रतिमानि । कारीके लिये आषाढमासका प्रश्नोत्तर नीचे दिया जाता जिउ कपि शीत विया मरइ, तापत-गुजा आनि ।
सोरठा--तृष्णा तो न बुझाइ, जलु जब खारी पीजिये । तब बोलइ मदोदरी रानी, रुति अषाढ़ धनघट घहरानी। मिरगु मरइ धपि धाइ, जल धोखइ थलि रेतकइ । पीय गए ते फिर घर आवा, पामरनर नित मन्दिर छावा। पुनिहां-पर पिय संगु करिनेहु मुजनमु गमावना । लहि पपीहे दादुर मोरा, हियरा उमग धरत नहि मोरा। दीपगि जरइ पतगु मुपेखि सुहावना। बादर उमहि रहे चौपासा,तिय पिय विन लिहि उसन उसासा। पर ग्मणी रसरंग न कवणु नर मुहु लहइ ।
१ इन्द्रपुरी सम सिहरदि पुरी, मानवरूव अमरद्युति दुरी जब कब पूरी हानि सहति जिह अहि रहइ ।। २ ।। अग्रवाल श्रावक धनवन्त, जिनवर भक्ति कर्राह समकंत। अनेकार्थनाममाला-यह एक पद्यात्मक कोष है जिसमें तह कवि आइ भगोतीदासु, सीतासतु भनियो पुनि आसु । एक शब्दके अनेकानेक अर्थोका दोहोमे संग्रह किया गया है। बहु विस्तरू अरु छंद घनेरा, पढ़न प्रेम बाढई चित केरा। कविकी यह रचना भी पंचायती मन्दिर देहलीके शास्त्र भडारएक दिवस पूरन दे नाही, अति अभिलाष रइह मनमाही।। के एक गुटकेमे लिखी हुई है। गुटका प्राचीन है और वह कोई दोहा-तिहि कारण लघु सतु करयो, देस चौपई भास । ३०० वर्षमे भी अधिक पुराना लिया हुआ जान पड़ता है।
छंद जूम सबु छाडिकड, राख बारह मास । लिपि पुरानी साफ तथा सुन्दर है। परन्तु कही कही लिपिसोरठा-संवतु मुणहु सुजान सोलहसइस सतासियइ । सम्बन्धि अशुद्धियां जरूर खटकती है जिन्हें किसी दूसरी चैति सुकल तिथिदान, भरणी ससि दिन सो भयो। प्रतिपरसे मशोधित करनेकी आवश्यकता है। ग्रन्थमें कवि
-प्रशस्ति लघुसीतामतु ने अपना कोई परिचय नही दिया, किन्तु उसके रचना समयके
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बनेकान्त
[वर्ष ११
साथ अपनी उक्त गुरु परम्पराको ही दुहराया है। इस ग्रन्थ- दीपु कुपु कज्जल पवनु, मेघु सलिलु सब भुंग की रचना कविने सं० १६८७ में आषाढ़ कृष्णा तृतिया गुरुवार- कवि सुभगौती उच्चरइ, ए कहियत सारग के दिन श्रवण नक्षत्र में शाहजहांके राज्यकालमें 'सिहरदि' गोषर गो तरु गो दिशा, गो किरणा आकास । (देहली-शहादरा) नामके नगरमें बनाकर समाप्तकी है। गो इंद्री जल छन्द पुनि, गो वानि जन भास ॥५॥
इस ग्रन्थमें तीन अध्याय है और वे क्रमशः ६३,१२२ मृगांकलेखाचरित-इस ग्रन्थमें कविने चन्द्रलेखा और और ७१ दोहोंकी संख्याको लिये हुए हैं। यह कोष हिन्दी- सागरचन्द्रके चरितका वर्णन करते हुए चन्द्रलेखाके भाषा भाषी जनताके लिये बहुत ही उपयोगी है। शीलव्रतका महत्व ख्यापित किया है । चन्द्रलेखा अनेक विइसकी रचना कवि बनारसीदासजीकी नाममालासे १७ पत्तियोंको साहस तथा धैर्यके साथ सहते हुए अपने शीलव्रतवर्ष बाद हुई है। अनेकार्थ शब्दोंका हिन्दीमें ऐसा पद्यबद्ध से जरा भी विचलित नही हुई, प्रत्युत उसमें स्थिर रहकर सुन्दर कोष अबतक मेरे देखने में नही आया। कविवर भगवती- उसने सीताके समान अपने सतीत्वका अच्छा और दासकी यह भारतीय हिन्दी साहित्यको अनुपम देन है । ग्रन्थ- अनुपम आदर्श उपस्थित किया है। की रचना सुन्दर और सरल है। पाठकोंकी जानकारीके लिये कवि भगवतीदासने इस ग्रन्थको हिसार नगरके 'सारंग और 'गो' इन दो शब्दोंके वाचक अनेक अर्थोंवाले भगवान वर्धमान (महावीर) के मन्दिरमें विक्रम संवत् पद्य नीचे दिये जाते है, जिनसे प्रस्तुत कोषके महत्वका १७०० में अगहन शुक्लापंचमी सोमवारके दिन पूर्ण किया है। सहज ही पता चल जाता है :
उस समय वहां मन्दिरमे ब्रह्मचारी जोगीदास और प० करकटु कामु कुरगु कपि, कोकु कुंभु कोदंडु । गंगाराम उपस्थित थे। इस ग्रन्थकी भाषा अपभ्रश है, कंजर कमल कुठारु हलु, झोडु कोपु पविदंडु ॥५॥ ठेठ हिन्दी नही । इससे यह स्पष्ट हो जाता है करटु करमु केहरु कमठु, कर कोलाहल चोरु । कि अपभ्रशभाषाका साहित्य आज भी ईसाकी ७वी सदीकंचन काकु कपोतु अहि, कंबल कलसरु नीरु ॥६॥ से १७वी सदी तकका उपलब्ध हो रहा है । यद्यपि उसमे खगु नगु चातिगु खंग खलु, खरु खोदनउ कुदालु । हिन्दीका बहुत कुछ अंश गभित पाया जाता है, परन्तु उससे भूधरु भूरुह भुवनु भगु, भटु भेकजु अरु कालु ॥७॥
हिन्दीके क्रमिक विकासका इतिवृत्त सामने आ जाता है मेखु महिषु उत्तिम पुरुसु, वृषु पारस पाषानु ।
और उससे अपभ्रंशभाषाके एक हजार वर्ष तक साहित्यिक हिम जमु ससि सूरजु सलिलु, बारह अंग बखानु ॥८॥
भाषा बने रहनेका परिणाम भी प्रकट हो जाता है।
अपभ्रंशने ही हिन्दी, जूनी गुजराती और मराठी आदि प्रातिक १ सोलह सयरु सतासियइ, साढि तीज तम-पाखि । भाषाओंको जन्म दिया है। और स्वय वह हिन्दी भाषाके
गुरु दिनि श्रवण नक्षत्र भनि, प्रीति जोगु पुनिभाषि ॥६६॥ पावन रूपमें परिणत हो गई है। इस भाषाके क्रमिक विकाससाहिजहाके राजमहि सिहरदि नगर मझारि । का इतिवृत्त लिखे जानेकी अत्यन्त आवश्यकता है। साथ ही, अर्थ अनेक जुनामकी, माला भनिय विचारि ॥५७॥ उसके अप्रकाशित विशाल साहित्यको आधुनिक ढंगसे प्रकाशगुरु गुणचन्द अनिंद रिसि, पंच महाव्रतधार । मेलानेकी सख्त जरूरत है। सकलचन्द्र तिस पट्ट भनि, जो भवसागर तार ॥६॥ .. ___ वीर सेवा मन्दिर, ता० ६-७-५२ तासु पट्ट पुनि जानिये, रिसि मुनि माहिंदसेन । १ घत्ता-सगदह सवदतीह तहा, विक्कमराय महप्पए । भट्टारक भुवि प्रगट जसु, जिनि जितियो रणि मन ॥६॥ अगहणसिय पंचमि सोमदिणे, पुण्ण ठियउ अवियप्पए ।
दुबइ-चरिउ मयंकलेह चिरुणदउ जाम गयणि-रवि-ससिहरो तिह ज. . . . . . . .सिह, काव । सुभगाताबासु । मंगल मारुइ वइजणि मेइणि, धम्मापसंगा हिदकरो॥ तिनि लघुमति वोहा करे, बहुमति करहु न हासु ॥७॥ गाथा-रइओकोट हिसारे जिणहरि बरवीर बड्ढमाणस्स । लघु दीरष मात्राचरण, शबद-भेद अवलोइ।
तत्थ ठिओ वयधारी जोईदासो वि बंभयारी ओ॥ बुधिजन सबइ संवारियहु, हीनु अधिक जहें हो ॥१॥
भागवई महुरीया बत्तिगवर वित्ति साहणा विण्णि इति श्री अनेकार्थनाममाला पंडित भगोतीदास कृत
मइविबुध सुगंगारामो तत्थ ठियो जिणहरेसु मइवतो।
ससिलेहा सुय बंधु जे अहिउ कठिण जो आसि। बोहाबंध बालबोष देशभाषा समाप्त।
महुरी भासउ देसकरि भणिउ भगोतीदासि ।।
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श्रमण- प्रायोग्य परिग्रह
( क्षुल्लक सिद्धिसागर )
आजसे कोई ढाई हजार वर्ष पहिले श्रीगौतम स्वामीने जोकि भगवान् वर्द्धमानके - महावीर स्वामीके - मुख्य गणधर थे अपने स्वरचित प्राकृत प्रतिक्रमणसूत्रमें उस परिग्रहका जो सब प्रकारसे गृहस्थोके योग्य है, श्रमणोके योग्य नही 'असमण - पाउग्ग-परिम्गह के नामसे उल्लेख किया है । आचार्य प्रभाचन्द्र इसकी टीकामे लिखते है:
" न श्रमणा अश्रमणा गृहस्थास्तेषा प्रकर्षेण आ समंताद्योग्यं त न गृह्णीयात् ।"
अर्थात् जो श्रमण नही वे अभ्रमण गृहस्य है, उनकेलिये प्रकर्षरूपसे तथा सब ओरमे जो परिग्रहयोग्य हैजो गृहस्थोके ही वास्तवमे होता है-उसे महाव्रती श्रमण ग्रहण न करें ।
गौतम स्वामि-विरचित मूलसूत्र-पाठ में लिखा है" तत्थ बाहिर परिग्गहं से हिरण्ण वा सुवण्ण वा धणं वा खेत्तं वा खल वा वत्यु वा पवत्थु वा कोम वा कुठारं वा जाण वा जपाण वा जग वा गद्दियं वा रहं वा सदणं वा सिवियं वा दासी दासगो-महिस-गवेडय मणि - मोतिय-सख - सिप्पि-पवालय मणिभाजण वा सुवण्णभाजण वा रजतभाजण वा कंसभाजण वा लोहभाजण वा तंबभाजण वा अडज वा तसरिचीवर वोडजं ( कार्पासवस्त्र) रोमज वा वक्कज वा चम्मज वा अप्पं वा बहु वा अणु वा सचित्त वा अचितं वा अमुत्य वा बहित्य वा अविवालग्गकोडिमित्तं पि णेव सयं असमणपाउग्ग परिग्गह गिव्हिज्ज :.... ।"
उक्त परिग्रहोंमेंसे यदि किसी परिग्रहको कोई ग्रहण करता है तो वह श्रमण निर्ग्रथ या महाव्रती नही होता, क्योंकि उक्त परिग्रहको अश्रमणताका प्रतीक कहा गया है । वह वास्तवमें गृहस्थ है ।
इससे यह साबित होता है कि श्रमणोंके सिवाय श्रावक श्राविका क्षुल्लक ऐलक क्षुल्लिका आर्यिका ये सब सागार लिंग है, क्योंकि महाव्रत या सकल व्रतके विरुद्ध ये वस्त्रादिक संगसे युक्त है। स्वामी समंतभद्रके निम्न वाक्योंसे भी यही बात पुष्ट होती है
सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानां, अनगाराणं, विकलं सागाराणां ससगानाम् । अर्थात् जो सर्वसगसे अन्तरग परिग्रहके साथ वस्त्रादिक दस प्रकारके बाह्य परिग्रहोसे रहित है वही सकल व्रती हो सकता है, जब तक इन परिग्रहोका त्याग नही करता तबतक वह सगसहित है । जो ससग है वही सागार है-गृहस्थ है ।
समूचे प्रतिक्रमणसूत्रमें ऐलक और आर्यिकाका कोई उल्लेख नही है किन्तु गृहस्थ धर्मका उल्लेख किया है। उससे यह अच्छी तरहसे जाना जा सकता है कि उनका अन्तर्भाव क्षुल्लक (देशसयत ) और क्षुल्लिका ( देशसंयती) में हो जाता है। शेष देशव्रती या अव्रतियोंका अन्तर्भाव श्रावक और श्राविकाओमे हो जाता है । गौतमस्वामी प्रतिक्रमण सूत्रमें कहते है :
"इह खलु समणेण भयवदा महदि महावीरेण महाकरसवेण सव्वण्हणाणेण सव्वलोयदरसिणा सावयाणं सावियाण खुड्डयाणं खुड्डीयाण कारणेण पचाणुब्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि वारसविह गिहत्यधम्म सम्मं उबदेसियाणि । ”
"जो एदाइ वदाइ घरेइ सावया सावियाओ वा खुड्डय खड्डियाओ वा अट्ठदह् भवणवासियवाण-वितरजोइमिय-मोहम्मीमाण देवीओ वदिक्कमित्तउवरिम अण्णदरमहा देवेमु उववज्जंति । तं जहा - मोहम्ममाण मणक्कुमार म. हिदबभबंभूत्तर-लांतवका पिट्ठ मुक्क-महामुक्क मनार महस्मार आणत पाणतआरण- अच्चुन कप्पेमु उववज्जन्ति ।"
ऐलक और आर्यिकाका उत्पाद सोलहवें स्वर्ग तक ही होता है अतः इनका भी उन्ही श्रावक श्राविकाओंमें अन्तर्भाव हो जाता है जिनके उत्पादका कथन उक्त सूत्रमें किया गया है। क्योकि वे भी मागारधर्म या विकलचारित्रसे युक्त है।
'खड्डय' शब्दका अर्थ 'क्षुल्लक' होता है। क्षुल्लक शब्द नवीन नही है अपितु अत्यन्त प्राचीन है । । ढाई हजार वर्ष पहिले देशयति जो ग्यारह प्रतिमाओमे युक्त थे, क्षुल्लक
१. महाकाश्यप- महान् तेजके रक्षक हैं।
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अश्रमण-आयोग्य परिग्रह
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कहलाते थे। चाहे वह प्रथम आर्य शुल्लक हो चाहे द्वितीय ऐलक आर्य शुल्लक हो। 'आर्या' शब्दका प्रयोग जाये स्त्रीके लिये होता है। जो ग्यारह प्रतिमाओं से युक्त आर्या है वह । 'क्षुल्लिका 'कहलाती है। उसके दो भेद है प्रथम क्षुल्लिका नामकी आर्या और दूसरी क्षुल्लिका नामकी आर्थिका ।
ऊपर उद्धृत प्रतिक्रमणसूत्रके वाक्यमें जिन बाह्य अश्रमण- प्रायोग्य परिग्रहोका उल्लेख किया गया है वे उपलक्षणसे मी युक्त है, उनके सदृश्य अन्य जितने भी घड़ी चश्मे पीतल, जस्त रुपये पैसे आदि परिग्रह है वे सब भी महावती साधुओकेलिये अग्राह्य है जैसा कि पं० अजितकुमार शास्त्रीके जैन गजटमे प्रगट हुए लेखने जाहिर है। इस विषय में पं० कैलाशचन्द्रका "भगवान महावीरका अचेलक धर्म" पढ़ने योग्य है। गौतमस्वामीने भी इस प्रतिक्रमणसूत्र में 'अचेलक' शब्दकेद्वारा वस्त्रके त्यागका उल्लेख किया है।
जो सचेल है वह धमण नही है। सचलतासे उसके पहिनने ओढने आदि से ममत्व रूप कारणका सद्भाव सिद्ध होता है। वस्त्र रखनेसे असयम भी अवश्य ही होता है। वह वस्त्र के फ्रक और फिनसे रहित नहीं है अतः वास्तवमें श्रमण या फ़कीर नही है ।
यह अचेलक धर्म नवीन भी नही है, प्रवाहकी अपेक्षा यह अनादिसे चला आ रहा है, जैसे कि उत्पन्न होने वाला मारा जगत् नग्न उत्पन्न होता है। जो निर्विकार हो जाता है उसे वस्त्र धारण करनेसे क्या ? जब विकार उत्पन्न होता है उसे छुपाने के लिये वस्त्र धारण कर लेते है । लज्जा एक कषाय है उसको जो नही जीत सका है उसे वस्त्रकी आवश्यकता है किन्तु जिसने विकारके साथ लज्जा वायको छोड़ दिया है उसे वस्त्रसे क्या ? अन्तरंग परिग्रहका कार्य बाह्य परिग्रहका ग्रहण है, क्योकि वे बाह्य परिग्रह अन्तरंग परिग्रहके रहे बिना ग्रहण नहीं किये जा सकते है।
[ किरण ४-५
त्यागने पर ही निर्धन्य होकर मुक्त होता है। वस्त्र और पात्रका ग्रहण अशक्त लोगोंने श्रमणपदमें स्थिर नही रह सकनेके कारण किया है।
बाह्य परिग्रह अन्तरंगकी कक्षाओंको उत्पन्न नहीं करता है। बाह्य परिग्रह अन्तरंग परिग्रहके उत्पन्न करनेमें कारण नही है, बाह्य परिग्रहके न रहनेपर भी कोई कोई साधु क्रोधी देखा जाता है। अतः बाह्य परिग्रहका ग्रहण अन्तरंगकी कवायोंका कार्य है, कारण नहीं है। यदि है भी तो यह उपचारसे है अविनाभाव रूपसे नही है । जो बाह्य परिग्रहको ग्रहण करता है वह कषायादिकसे रहित नही है उसके
यदि बिना वस्त्र छं. हे मुक्ति होती तो दीक्षाके समय तीर्थकर नग्न क्यों होते ? यदि तीर्थकरके समान महान आत्माओं को भी जिनकल्पी और नग्न होने पर ही सिद्धि की प्राप्ति हुई तो अन्यको बिना निर्ग्रन्थ हुए मुक्ति कैसे हो सकती है। यदि बिना वृक्षपर चढे ही फल तोड़ सकते है तो वृक्ष पर चढ़ने से क्या लाभ? "हस्तसुलभ फले कि तरुः समारुह्यते ?"
जबतक जीव परिग्रहरूपी पिशाचमे रहित नही होता तबतक वह अवश्य ही ससारमे परिभ्रमण करता रहता है ।
जो बाह्य परिचको छोड़कर साथ हुए है उन लोगोंने बाह्य परिग्रहोमेने जिन जिन परियोका त्याग किया है वह क्यो किया है? यदि ममत्व घटानेके लिये किया है तब तो बाह्य वस्त्रादिकपरसे भी ममत्व घटानेके लिये उन्हें छोड़ देना चाहिए।
इस कालमें मोक्ष नही है तो भी इस कालमें उत्पन्न हुए जीव कर्मोकी निर्जरादिक करनेकेलिये या संसारको कम करनेकेलिये उद्यम करते हैं, वे सपको संबर और निर्जराके
लिये करते है-स्वर्गकी इच्छा नहीं।
देशव्रतीसे महाव्रतीके निर्जरा अधिक होती है। अतः महावती बननेका उद्यम करना चाहिये। यदि श्रमण नही बने हो तो भी श्रमण बननेकी भावनासे रहित मत रहो ।
अश्रमण- प्रायोग्य परिग्रहको छोड़े बिना किसीने भी मुक्ति प्राप्त नही की है अतः मुक्त होनेके लिये उसका परित्याग अवश्य करना ही पड़ेगा। 'मरकर तो छोड़ना ही पड़ेगा तो फिर छोड़ कर क्यो नहीं मरता हूं।'
एक परमाणुमात्रपर भी ममत्व रहने पर जब मोक्ष नही हो सकता तब वस्त्रादिक पर ममत्व रखकर कोई मुक्त कैसे हो सकता है ? जहां श्रद्धा निर्भय आत्मा बैठा हुआ है वहा उस बाह्य परिग्रहको आत्मसिद्धिका सापक बनाना कैसे उचित हो सकता है ? एक दिन निध होनेपर ही परमात्माके समान निग्रंथ होना पड़ेगा। बिना परिग्रह छोड़े सिद्ध परमात्मा के समान कोई कैसे हो सकता है ?
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अपभ्रंशभाषाका पासचरिउऔर कविवरदेवचंद
(परमानन्द जैन शास्त्री) भारतीय भाषाओमें अपभ्रंशभाषा भी अपना महत्व- अपभ्रशभाषामे रासा या रासकका इससे पुरातन उल्लेख पूर्ण स्थान रखती है। यह भाषा भी देशविशेषके कारण नागर अभीतक उपलब्ध नही हुआ। श्वेताम्बर जनसाहित्यमें उपनागर, बाचड आदि भेद-प्रभेदोमे बट गई है, फिर भी रासादि साहित्यविषयक अपभ्रंश भाषाकी जो स्फुट रचनाये इसमे जन्मजात माधुर्य है । दूसरे इसकी सबसे बड़ी विशेषता उपलब्ध होती है, वे सब रचनाए विक्रमकी १२वी, १३वी, यह है कि इस भाषामें पदलालित्यकी कमी नही है। रड्ढा, १४वी शताब्दीमे रची गई है। इससे स्पष्ट है कि 'कविदेवदत्त'ढक्का, चौपई, पद्धडिया, दोहा, सोरठा, घत्ता, दुवई, संसर्गिणी का 'अम्बादेवीरास' इन सबसे पूर्वकी रचना है। यह रचना भुजगप्रयात दोधक और गाहा आदि विविध छन्दोमे इसके अभी तक अनुपलब्ध है। अन्वेषक विद्वानोंको शास्त्रभडारोमें साहित्यकी सृष्टि देखी जाती है। इसके सिवाय इसमें सस्कृत इसके खोजनेका यत्न करना चाहिए। भाषाके समान दीर्घपद, समास, और अर्थकाठिन्यादि दोष जैनियोके तेवीसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति नही पाये जाते। इसका पाठ करते ही पाठक उसके रहस्य- हैं। भारतीय पुरातत्वमे पार्श्वनाथकी पुरातन मूर्तियां और का भाव सहज ही अवगत कर लेता है । इसकी सरमता, मन्दिर उपलब्ध होते है। और चौवीसवे तीर्थंकर महावीरके सुगमता और कोमलता पाठकके हृदय पट पर अकित हो वर्तमानतीर्थमे भी भगवान् पार्श्वनाथकी यत्र-तत्र विशेष जाती है। इन्ही सब विशेषताओके कारण अपभ्रश भाषाने पूजा प्रचलित है । आज भी पार्श्वनाथके अनेक विशाल गगनअपना स्थायी स्थान साहित्यिक भाषामे बना लिया है। इस चुम्बी मन्दिर देखे जाते है। मन्दिर और मूर्तियोकी तरह भाषामें जैनकवियोने विपुल साहित्यकी रचना की है। अनेक कवियों और विद्वानोने प्राकृत सस्कृत, अपभ्रश और रासक या रासा साहित्य भी इसीकी देन है, जो विविध हिन्दीभाषाके अनेक काव्यग्रन्थोमे पार्श्वनाथके जीवनछन्दोमे ताल व नृत्यके साथ गाया जाता रहा है। यद्यपि चरितको गुफित किया है। 'रासा' शब्दका उल्लेख भारतीय पुरातन साहित्यम उपलब्ध प्रस्तुत ग्रन्थ भी उन्ही पार्श्वनाथके जीवन-परिचयको होता है। परन्तु अपभ्रशभाषाके 'रासा' साहित्यका सबमे लिये हुए है, जो एक खण्डकाव्य होते हुए भी कविने उसे पुराना उल्लेख महाकवि 'वीर' के 'जबूसामिचरिउ' नामक 'महाकन्वे' जैसे वाक्यद्वारा महाकाव्य' सूचित किया है। काव्यग्रंथमें, जो विक्रम संवत् १०७६ की रचना है, पाया इस ग्रन्थ प्रतिमे तीन पत्र त्रुटित है, ७वां, ७९वां और अन्तिम जाता है। वीर कविके पिता देवदन महाकवि थे। इन्होंने ८१वा । इनमेसे सातवा और ७९वा ये दोनों पत्र अत्यन्त सवत् १०५० या ५५ में 'अम्बादेवीरास' नामका एक ग्रन्थ आवश्यक है। क्योकि इनके अभावमे मूलग्रन्थ ही वंडित लिखा था जो उस समय विविध छन्दोमे गाया जाता था।' हो गया है। ८२वे पत्रपर तो लिपिकारकी प्रशस्तिका थोडामा
अश गया प्रतीत होता है। १. भव्वरिय बंधि विरइय सरसु, गाइज्जइ सतिउ तारु जसु। इस ग्रन्थमे ११ सधिया दी हुई है जिनमें २०२ कडवकनच्चिज्जइ जिण-पय मेवाह, किउ रामउ अबादेवयहि ।। निबद्ध हुए है, जिनमें कविने पार्श्वनाथके चरितकोबड़ी खूबी
-जंम्वामिचरितप्रशस्ति के साथ चित्रित किया है। प्रथमें पहले पाश्र्वनाथतीर्थकरका डा. वासुदेवशरणजी अग्रवालके मतानुसार रामा या चरित दिया हुआ है, और उमके बाद उनके पूर्व भवान्तरोका रासकका पुरातन उल्लेख कवि वाण के 'हर्षचरित' मे पाया कथन संक्षिप्त रूपमें अकित किया है। ग्रंथकी भाषा अपभ्रंश जाता है। रासा वास्तवमें ऊंचे ताल स्वरके साथ भक्तिके होते हुए भी वह हिन्दी भाषाके बहुत कुछ विकामको लिये आवेशमें नाट्यक्रियाके साथ गाई जाने वाली रचना है। हुए है। ग्रन्थमें दोषक छन्दका उल्लेख करते हुए ग्रन्थकारने आचार्य हेमचन्द्रने काव्यानुशासनमे गमकका लक्षण निम्न २. अनेकनर्तकीयोज्यं चित्रताललयान्वितम्-' प्रकार बतलाया है :
आचतुःषष्टियुगलाद्रासकं मसूटणोडते ॥
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अनेकान्त
[बष ११
भगवान् पार्श्वनाथकी उस ध्यानमुद्राको अंकित किया है काव्यको रचना गुंदिज्ज नगरके पार्श्वनाथ मन्दिरमें निवास जिसमें वे एक जंगलमें पाषाणकी सुन्दर शिलापर बैठे करते हुए की है। गुंदिज्जनगर दक्षिण प्रांतमें ही कही पर हुए स्व-स्वरूपमें निमग्न है। इस उद्धरणपरसे पाठक ग्रन्थ- अवस्थित होगा। इसके सम्बन्धमें और कुछ ज्ञात नहीं हो की भाषाका सहज ही अनुमान कर सकते हैं :-
सका। कविवर देवचन्द मूलसंघ देशीगच्छके विद्वान् वासव "तत्य सिलायले थक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोयहो बंदो। चन्द्रके शिष्य थे। उनकी गुरुपरम्परा निम्न प्रकार है:पंच-महव्वय-उद्दय-कंधो , निम्ममु चत्त-चउन्विहबंधो। श्रीकीर्ति, देवकीर्ति, मौनीदेव, माधवचन्द्र, अभयनन्दी, जीवदयावरु संग-विमुक्को, णं दहलक्खणु धम्मु गुरुक्को। वासवचन्द्र और देवचन्द । ग्रन्थमें रचनाकाल दिया हुआ जम्म-जरा-मरणुझिय दप्पो, बारस भेय तवस्स महप्पो। नहीं है जिससे यह बतलाना कठिन है कि यह ग्रंथ कब बना है मोहतमंच-पयाव-पयंगो , खंतिलया रुहणे गिरि तुंगो। क्योंकि तदविषयक ऐतिहासिक सामग्रीका अभाव है। ग्रंथसंजम-सील-विहूसिय देहो , कम्म-कसाय-हुआसण-मेहो । की यह प्रति सं० १४९८ के दुर्मति नाम संवत्सरके पूष महीनेपुफ्फंधणु बर तोमर धंसो, मोक्ख-महासरि-कीलणहंसो । के कृष्णपक्षमें अलाउद्दीनके राज्यकालमें भट्टारक नरेन्द्रइदियसप्पहं विसहरमतो , अप्पसरूव-समाहि-सरंतो । कीतिके पट्टाधिकारी भट्टारक प्रतापकीतिके समयमें देवगिरि केवलनाण-पयासण-कंखू , घाणपुरम्मि निवेसिय-चक्खू। महादुर्गमें अग्रवाल श्रावक पंडित गांगदेवके पुत्र श्री णिज्जिय सासु पलविय बाहो, निच्चल-देह-विसज्जिय बाहो। पासराजके द्वारा लिखाई गई है। कंचणसेलु जहा थिरचित्तो, दोधकछंद इमो बुह वुत्तो।" प्रशस्तिमें ऊपर जिस गुरुपरम्पराका उल्लेख किया
इसमें बतलाया गया है कि भगवान् पार्श्वनाथ एक गया है, उसका पूरा समर्थन अन्यत्र कहीसे भी प्राप्त नहीं शिलापर ध्यानस्थ बैठे हुए है, वे सन्त, महन्त और त्रिलोकवर्ती हुआ। इस गुरुपरम्परामें अन्तिम नाम वासवचन्द्रका आया जीवोंके द्वारा वन्दनीय है, पंच महावतोके धारक है निर्ममत्व है। अबतक मुझे वासवचन्द्र नामके दो विद्वानोंका पता है, और प्रकृति, प्रदेश, स्थिति अनुभागरूप चार प्रकार- चला है। जिनमें एकका उल्लेख खजराहा के सं० १.११ के बंधसे रहित है। दयाल और संग (परिग्रह) से मुक्त है, वैशाख सुदी ७ सोमवारके दिन उत्कीर्ण किये गए जिननाथ दशलक्षणधर्मके धारक है। जन्म-जरा और मरणके दर्पसे रहित मन्दिरके शिलालेखमे दिया हुआ है, जो वहांके राजा धंगहैं। तपके द्वादश भेदोंके अनुष्ठाता है, मोहरूपी अंधकारके दूर के राज्यकालमे खोदा गया है। करने के लिये सूर्य समान है, क्षमारूपी लताके आरोहणार्थ दूसरे वासवचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके शिलालेख वे गिरिके समान उन्नत है। जिनका शरीर संयम और शीलसे नं०५५ में पाया जाता है, जो शक संवत् १०२२ (वि० सं० विभूषित है, जो कर्मरूप कषाय-हुताशनके लिये मेघ है। ११५७) का है। उस लेखके २५वें पद्यमें बतलाया गया है कामदेवके उत्कृष्ट वाणको नष्ट करनेवाले, तथा मोक्षरूप कि वासवचन्द्रमुनीन्द्र स्याद्वाद विद्याके विद्वान् थे कर्कशमहासरोवरमें क्रीड़ा करनेवाले हंस है। इंद्रियरूपी विषधर तर्क करनेमें उनकी बुद्धि चलती थी। उन्होंने चालुक्य राजासाँके रोकनेके लिये मंत्र है, आत्मसमाधिमें चलने की राजधानीमे 'बालसरस्वति' को उपाधि प्राप्त की थी। वाले है। केवलज्ञानको प्रकाशित करनेवाले सूर्य है, नासान- यदि इन दोनों वासवचन्द्रोंमेंसे कोई एक वासवचन्द्र उक्त दृष्टि हैं, श्वासको जीतनेवाले हैं, जिनके बाहु लम्बायमान देवचन्द्रके गुरु रहे हो तो देवचन्द्रका समय विक्रमकी ११वी हैं। और व्याधियोंसे रहित जिनका निश्चल शरीर है। या १२वी शताब्दी हो सकता है। जो सुमेरुपर्वतके समान स्थिरचित्त हैं। इस समुल्लेख परसे
वीर-सेवा-मन्दिर भगवान पार्श्वनाथकी अटल ध्यान-समाधिका जो कर्मा- १-See Epigraphica Indica Vol. I वरणकी नाशक है, परिज्ञान हो जाता है।
Page 136. इस ग्रन्थके रचयिता कविवर देवचन्द है। जिन्होंने २-वासवचन्द्रमुनीन्द्रो रुन्द्रस्याद्वादतर्क-कर्कश-विषण :। इस ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्तिमें अपनी गुरुपरम्परा इस- चालुक्यकटकमध्येबालसरस्वतिरिति प्रसिद्धि प्राप्तः।२५॥ प्रकार बतलाई है, इससे ज्ञात होता है कि कविने इस महा
-श्रवणबेलगोलाशिलालेख
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५००) रु० के पाँच पुरस्कार
जो कोई विद्वान्, चाहे वे जैन हों या जनेतर, निम्न कि इस गाथामें 'अपदेससंतमज्म' नामका जो पद पाया विषयोंमेंसे किसी भी विषयपर अपना उत्तम लेख हिन्दी में जाता है और जिसे कुछ विद्वान् 'अपदेसमुत्तमजन' रूपसे लिख कर या अनुवादित कराकर भेजनेकी कृपा करेगे उनमेंसे भी उल्लेखित करते हैं, उसे 'जिनमासण' पदका विशेषण प्रत्येक विषयके सर्वश्रेष्ठ लेखकको १००) रु० बतौर बतलाया जाता है और उससे द्रव्यश्रुन तथा भावश्रुतका भी पुरस्कारके वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टकी मार्फत सादर भेंट किये अर्थ लगाया जाता है, यह सब कहा तक सगत है अथवा जाएंगे। जो सज्जन पुरस्कार लेनकी स्थितिमे न हो अथवा पदका ठीक रूप क्या होना चाहिए? श्री अमृतचन्द्राउसे लेना नही चाहेंगे उनके प्रति दूसरे प्रकारसे सम्मान चार्य इस पदके अर्थ-विषयमे मौन है और जयसेनाचार्यने व्यक्त किया जायगा। उन्हे अपने इष्ट एव अधिकृत विषयपर जो अर्थ किया है वह पदमें प्रयुक्त हुए शब्दोंको देखते हुए लोकहितकी दृष्टिसे लेख लिखनेका प्रयत्न जरूर करना कुछ खटकता हुआ जान पड़ता है। एक सुझाव यह भी है कि चाहिए । प्रत्येक विषयका लेख फुलस्केप साइजके २५ पृष्ठों यह पद 'अपवेससतमझ' (अप्रवेशमान्तमध्यं) है, जिसका अथवा ८०० पंक्तियोसे कमका नहीं होना चाहिए और उसे अर्थ अनादिमध्यान्तहोता है और यह अप्पाणं (आत्मान) ३१ दिसम्बर सन् १९५२ तक विज्ञापकके पास निम्न पतेपर पदका विशेषण है, न कि 'जिनमामणं' पदका । रजिस्ट्रीसे भेज देना चाहिए । जो सज्जन किसी भी विषय- शुद्धात्माके लिये स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड (६) में की पुरस्कारको रकममे अपनी ओरसे कुछ वृद्धि करना और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथम द्वात्रिशिका १) चाहेगे तो वह वृद्धि यदि २५) से कमकी नही होगी तो मे 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया है। समयसारके स्वीकार की जायगी और वह बढी हुई रकम भी पुरस्कृत एक कलशमें अमृनचन्द्राचार्यने भी 'मध्याद्यन्तविभागमुक्त' व्यक्तिको उनकी ओरसे भेट की जाएगी। पुरस्कृत लेखो- जैसे शब्दो द्वारा इमी बातका उल्लेख किया है। इन सब को छपाकर प्रकाशित करनेका वीरसेवा-मन्दिर-ट्रस्टको बातोको भी ध्यानमे लेना चाहिए। अधिकार होगा। विषयोंके नाम और तत्सम्बन्धी कुछ। सूचनाएं इस प्रकार है :
एक बात और भी स्पष्ट होने की है और
वह यह कि १०वी गाथामे शुद्ध नयके विषयभूत १. समयसारकी १५वीं गाथा--
आत्माके लिये पांच विशेषणोका प्रयोग किया गया इस गाथाकी ऐसी व्याख्या होनी चाहिए जिसके द्वारा है, जिनमेसे कुल तीन विशेषणोका ही प्रयोग १५वी यह स्पष्ट हो जाय कि आत्माको अबद्ध स्पृष्ट, अनन्य गाथामे हुआ है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणोऔर अविशेष रूपसे देखने पर सारे जिनशासनको कैसे को भी उपलक्षणके रूपमें ग्रहण किया जाता है। तब देखा जाता है ? उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस यह प्रश्न पैदा होता है कि यदि मूलकारका ऐसा ही द्रष्टाके द्वारा पूर्णतः देखा जाता है ? और वह जिनशासन आशय था तो फिर इस १५वी गाथामें उन विशेषणोको श्री कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वाति और अकलक जैसे महान् क्रमभग करके रखनेकी क्या जरूरत थी? १४वी गाथाके आचार्योके द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशामनमे पूर्वार्धको ज्यों-का-त्यों रख देनेपर भी शेष दो विशेषणोको क्या कुछ भिन्न है ? यदि भिन्न नहीं है तो इन सबके द्वारा उपलक्षणके द्वारा ग्रहण किया जा सकता था। परन्तु ऐसा प्रति-पादित एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी सगति नही किया गया, तब क्या इसमें कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट कैसे बैठती है? साथ ही यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए होने की जरूरत है ?
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
२. श्री कुन्द कुन्द और समन्तभद्रका तुलना- ४. शुद्धि-तत्त्व-मीमांसा-- त्मक अध्ययन--
शुद्धिका मूल तत्त्व क्या है ? अशुद्धिका क्या स्वरूप है ? __ इस शीर्षक लेखमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और स्वामी वह आत्मामें कहांसे तथा कैसे आती है और उसे कैसे अथवा समन्नभद्रके सभी उपलब्ध ग्रन्थोंका तुलनात्मक अध्ययन किन उपायोसे दूर किया जा सकता है ? अशुद्धिको दूर करते करके यह बतलानेकी जरूरत है कि दोनों आचार्य किस-किम हुए मानवको इसी जन्ममे तथा जन्मान्तरमे कितना ऊचा विषयमें परस्पर क्या विशेषनाको लिये हुए है ? दोनोंके उठाया जा सकता है ? बाह्यशुद्धि और अन्तरगशुद्धिका दृष्टिकोणमें क्या कही कुछ अन्तर है ? और दोनोंके द्वारा परस्पर क्या सम्बन्ध है ? दोनोंमे किसको कितना महत्व प्रतिपादित जिनशासन क्या एक ही है अथवा उसमे कही कुछ प्राप्त है ? और उनमेसे प्रत्येकका अधिकारी कौन है ? इन सब भेद है? यदि भेद है तो वह कहा पर क्या भेद है ? और बातोका सप्रमाण विवेचन एव स्पष्टीकरण इस लेखमे होना मौलिक है या औपचारिक ? साथ ही, यह भी स्पष्ट करके चाहिए और उसके लिये जन-जनेतर दोनो प्रकारकी दृष्टियोको बतलाना चाहिए कि दोनों आचार्योंके द्वारा जिनशासनकी सामने रखना चाहिए। विषयको पुष्ट करनेवाले कुछ प्रौढ तथा लोकको जो सेवाए हुई है वे अलग-अलग किस कोटि की उदाहरण भी साथमे सक्षेपतः प्रस्तुत किये जा सकते है।
और फिनने महत्वकी है। दोनो आचार्योंके कथनोमे परसर समानता और असमानताको प्रदर्शित करनेवाली ५. विश्व-शान्तिका अमोघ उपाय-- एक सूची भी साथमे रहनी चाहिए।
आजकल विश्वमे चारो ओर अशान्ति है और ऐसी
अशान्ति है जैसी पहले कभी नहीं हुई। इस व्यापक अशान्ति३. अनेकान्तको अपनाए विना किसीकी
का मूल कारण क्या है ? उसको दूर करनेका अमोघ उपाय भी गति नहीं--
कौनसा है ? और कैसे उस उपायको व्यवहारमे लाया जा अनेकान्तको प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपसे अपनाये विना सकता है ? इन्ही सब बातोका विवेचन एवं स्पष्टीकरण कसे किसीकी भी गति नही बनती, इस बातको विशद इस लेखका विषय है। इस लेखमें शान्तिके सिद्धान्तोंकी
रमण अकालका महत यापित करनेटा कोरी बाते ही न होनी चाहिएँ, बल्कि उनके व्यवहारकी इस लेख में यह स्पष्ट करके बतलाने की खास जरूरत है कि ठीक दिशाका भी बोध कराना चाहिए। साथ ही, यह भी कोई भी सर्वथा एकान्तवाद अथवा मत अपने स्वरूपका मुझाना चाहिए कि वतमानम शातिक उस उपा प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता। इसके लिये संसारके ऐसे कुछ या उपाय-समूहको काममें लानेके लिये क्या-क्या बाधाएँ प्रमुख सर्वयकान्तवादी प्रचलित मतों तथा वादोको चुनकर उपस्थित है और उन्हे कैसे अथवा किस व्यापक तरीकेसे यह सप्रमाण दिखलाना होगा कि वे कैसे अपने स्वरूपके दूर किया जा सकता है। इसमें भी जैन-जनेत्तर दोनों प्रतिष्ठापक नही हो सकते और कैसे उनके द्वारा लोकका दृष्टियोसे विचार होना चाहिए। व्यवहार नही बन सकता। लोकव्यवहारको बनाये रखने
पुरस्कारदानेच्छुक के लिये यदि वे दूसरे प्रकारकी कुछ कल्पनाए करते हैं तो अपने सैद्धान्तिक दौर्बल्यको प्रदर्शित करते है और
जुगलकिशोर मुख्तार प्रकारान्तरमे उस अनेकान्तवादको अपना रहे है जो सापेक्ष
वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) नयवादका विषय है । इस विषयका एक नमूना अनेकान्तके ------- गत 'सर्वोदयतीर्थाक' मे पृष्ठ ११, १२ पर प्रकट किया गया नोट-इस विज्ञप्तिको दूसरे पत्र-सम्पादक भी अपनेहै, उसे ध्यान में रखना चाहिए।
अपने पत्रोंमें देनेकी कृपा करे, ऐसी प्रार्थना है।
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सम्पादकीय
१. तीन महीने बाद पूनः सेवामें-- हुई थी और धर्मके प्रतापमे सूलके रूपमे परिणत होकर ___ आज मै कोई तीन महीने बाद अपने पाठकोकी सेवामे चली गई तथा कितना ही पाठ पहा गई है। अब मै एक उपस्थित हो रहा हूँ। तीन महीनेकी इस अनुपस्थितिका प्रकारमे अपना नया जन्म हुआ हो समझता हू। अस्तु । कारण वह भयकर तांगा दुर्घटना थी जिसका १३ अप्रेलको मेरी इस अस्वस्थताके कारण अनेकान्तकी ४थी किरण देहलीके चावड़ी बाजारमें मुझे अचानक शिकार होना पड़ा था। समय पर नही निकल सकी, जिसका मुझे खेद है। मै तो समइस दुर्घटनासे दाहिनी और बाई दोनो तरफकी छह पसलियो झता था कि मुझसे तथा अनेकान्तसे प्रेम रखनेवाले समाजके की हड्डिया टूट गई थी, रीढकी एक हईडीमे तथा सिरमे कुछ विद्वज्जन इस कठिन अवसरपर अपना खास तौरसे भी कई जगह भारी चोटे आई थी और शरीरके दूसरे अग-- सहयोग प्रदान करगे और पत्रको लेट नही होने देंगे, परन्तु दोनों घुटने, हाथ, भुजाए, कधे-भी अनेक चोटोसे अभिभूत आफिससे प्रेरणतमक पत्रोंको पाकर भी वे अपनी परिस्थितियो हुए थे। इन सब चोटोके कारण मै घटनास्थलपर ही बेहोश के वश समय पर कोई लेख नही भेज सके । चौथी किरणका हो गया था और बेहोशीकी हालतमें ही इविन अस्पताल समय टलनेपर मैने चोथी और पाचवी किरणको संयुक्तरूपले जाया गया था, जहा कुछ घंटोंके बाद मुझे होश आया था। में निकालनेका विचार स्थिर किया और ता. ४ जुलाई
गोरी तथा लापर्वाहीका कळ ऐसा वातावरण अनभव- को मैटरप्रेममे भेज दिया। आशा थी २० या २२ जुलाई तक मे आया जिसमे मुझे मजबूर होकर दो दिन बाद अन्यत्र स० कि० प्रकाशित हो जायगी परन्तु दुर्भाग्यसे प्रेमकी मशीनएक्स रे (X' Ray) कराते हुए, श्री सुखवीरकिशोरजीके के खराब हो जाने जादिके कारण १५ दिन तक मैटर अस्पतालमे जाना पडा, जहा घरका-सा आराम मिला और बिना कम्पोजके ही पड़ा रहा और इसमे यह संयुक्त प्रेमके साथ चिकित्सा की गई। देहलीसे बाहर ले जाए जाने किरण भी कुछ लेट हो गई । ऐगी हालत में पाठकोको योग्य होनेपर मेरे भतीजे डा० श्रीचन्द सगल मुझे कारद्वारा जो प्रतीक्षाजन्य कष्ट उठाना पड़ा है उसका मुझे खेद है। ता०६ मई को एटा ले गये और वहा अपने पास रखकर आशा है परिस्थितियोकी विशताकी ओर जब पाठक उन्होने बडी सावधानी एव तत्परताके माथ मेरी चिकित्सा देखेंगे तब अपने उम कष्टको भुला देंगे। की, जिसमें स्थानीय मिविल सर्जन श्री पी. सी. टण्डनजीका २ परस्कारोंकी योजना-- भी सहयोग प्राप्त रहा, उसीका यह शुभ परिणाम है जो में अपने स्वास्थ्य-लाभकी खुशी में मैने ५००) रु. की एक फिरमे अपने पाठकोकी सेवाके लिये प्रस्तुत हो रहा है । इस निजी रकम निकाली है, जिसे मै विद्वानोंको पुरकारके प्रसंग पर जिन सज्जनोने मेरी सेवाएं की है और जिन्होंने मेरे रूपमे देना चाहता है । पुरस्कागेकी एक योजना इमी पत्र प्रति संवेदना व्यक्त की है उन सबका मै हृदयसे आभारी हू। में अन्यत्र प्रकाशित है । आशा है विद्वज्जन उन्हें प्राप्त करने
उक्त दुर्घटनाजन्य चोटोके कारण मुझे जिन कष्टो तथा का शीघ्र ही प्रयत्न करेंगे। इसमे विद्वानोको जहा अवकाशवेदनाओका सामना करना पड़ा है उनका यहा उल्लेख के ममयमें काम मिलेगा वहां उनकी प्रतिभाको चमकनेका करके मैं अपने पाठकोका चित्त दुखाना नहीं चाहता, सिर्फ अवसर भी प्राप्त होगा और वे ममाज तथा देश-हितके लिये इतना ही कहना चाहता हूँ कि मैने उन सब दुखोको बड़ी आवश्यक ठोम माहित्यका निर्माण कर लोकमे यशस्वी शांति और समताभावके माथ सहन किया है-अपने चित्तमे हो सकेंगे। ययाशक्ति संक्लेश-परिणामको आने नही दिया-यही मेरी वीग्सवामन्दिर-ट्रस्टके उद्देश्योमे 'योग्य विद्वानोको सबसे बड़ी विजय रही है और यही चित्तपरिणति मेरे शीघ्र उनकी साहित्यिक सेवाओ तथा इतिहामादि-विषयक आरोग्य होनेमें प्रधान सहायक बनी है; अन्यथा, ७५ वर्षकी विशिष्ट खोजोके लिये पुरस्कार या उपहार देन' का भी एक इस वृद्धावस्थामें इतनी भारी दुर्घटनाको झेल जाना आसान उद्देश्य है। इस उद्देश्यकी ओर ट्रस्ट कमेटी अपनी परिस्थिनही था। जान पड़ता है यह दुर्घटना एक सूलीके रूपमें उपस्थित तियोके अनुमार कब ध्यान देने में समर्थ होगी यह तो भविष्य
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अनेकान्त
[ वर्ष ॥
की बात है, परन्तु मैने अपनी ओरसे कुछ पुरस्कारोंकी योजना रहती है, परन्तु भारतीय राजशासनके लिये एक सम्बत् का कर उन्हें वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टकी मार्फत देनेका जो विधान होना जरूरी है। वह विक्रम सम्वत् हो सकता है, अशोकका किया है उसका एक लक्ष्य यह भी है कि मेरे जीवनमें राज्यकाल भी हो सकता है जिसके चक्रको भारतके राष्ट्रीय ही पुरस्कारोंकी परम्परा चालू हो जाय और ट्रस्टकमेटी ध्वजमें स्थान दिया गया है, और मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्तका को भविष्यमें इस विषयके आयोजनकी यथोचित प्रेरणा शासनकाल भी हो सकता है जिसने सबसे पहले विदेशियोके मिलती रहे।
आक्रमणसे भारतकी रक्षा की थी और विदेशियोंकी मेरे पास साहित्य, इतिहास और तत्त्व-सम्बन्धी कितने राजसत्ताको भारतमें जमने तथा पनपने नहीं दिया था। ही ऐसे विषय हैं जिनके लिए पुरस्कारोकी योजना होनी इन सम्वतोपर गहरा विचार करके जिसको अधिक उचित चाहिए। अतः जो भी सज्जन अपनी तरफसे कुछ रकम और उपयुक्त समझा जाय उसको अपनाया जा सकता है। पुरस्कारोंके रूपमें देना चाहें वे मुझसे (अधिष्ठाता वीर- देशी महीनों आदिके व्यवहरार्थ और विदेशी महीनों आदि के सेवामन्दिर के पते पर) पत्र व्यवहार करें। उनके पुरस्कार की व्यवहारको बन्द करने के लिये १५ वर्ष जितनी किसी लम्बी रकमके लिये योग्य विषय चुन दिया जायगा और उसकी अवधिकी भी जरूरत नही है-उसे ५-७ वर्षके भीतर ही विज्ञप्ति भी पत्रोंमें निकाल दी जायगी। जो बन्धु अपनी अमली जामा पहनाया जा सकता है। उसके लिये प्रस्ताव-द्वारा ओरसे किसी पुरस्कार की योजना न करना चाहे वे दूसरोंके एक छोटी अवधि नियत हो जानी चाहिए। द्वारा आयोजित पुरस्कारको रकममें कुछ वृद्धि कर सकते यहांपर एक खास बात और प्रकट कर देनेकी है और है, जो २५) से कमकी न होनी चाहिए, और वह बढ़ी हुई रकम वह यह कि प्राचीनतम भारतमे वर्षका प्रारम्भ श्रावणभी उन्हीकी ओरसे पुरस्कृत व्यक्तिको दी जावेगी। कृष्ण प्रतिपदासे होता था, जो वर्षाऋतुका पहला दिन है। ३. भारत-सरकारके ध्यान देने योग्य-- वर्षाऋतुसे प्रारम्भ होनके कारण ही साल (year) कानाम
विदेशी राजसत्ता अग्रेजी हुकूमतके भारतीय राजसिहा- 'वर्ष' पड़ा जान पड़ता है, जिसका अन्त आषाढी पूर्णिमाको सनसे अलग हो जानेके बाद विदेशी भाषा अंग्रेजीको भी राज- होता है । इसीसे आषाढी पूर्णिमाके दिन भारतमें जगह जगह काजसे अलग कर देनेको चर्चा चली और यह समझा गया अगले वर्षका भविष्य जाननेके लिये ज्योतिष और निमित्तकि इस भाषाका राजकाजमें प्रमुखताके साथ प्रचलित रहना शास्त्रोके अनुसार पवनपरीक्षा की जाती थी, जो आज एक प्रकारकी विदेशी गुलामी होगा और वह भारतीय तक प्रचलित है । सावनी आषाढीके रूपमें किसानोका फ़सली गौरवके अनुकूल नही होगा । अतः ससदके द्वारा १५ वर्ष साल भी उसी पुरानी प्रथा का द्योतक है, जिसे किसी समय की अवधिके भीतर अग्रेजी भाषाको राजकाजसे पूर्णतः पुनरुज्जीवित किया गया है। श्रावणकृष्ण-प्रतिपदासे वर्षके अलग कर देनेका विवान किया गया।
प्रारम्भसूचक कितने ही प्रमाण मिलते है जिनमेंसे एक बहुत विदेशी भाषाको तरह विदेशी महीनो तारीखों दिनों प्राचीन गाथा खास तौरसे उल्लेखनीय है, जिसे विक्रमकी तथा साल-सन् का राजकाजमें प्रचलित रहना भी भारतीय ८वों शताब्दीके विद्वान आचार्य वीरसेनने अपनी धवला शासनके लिये कोई गौरवकी वस्तु नही, वह भी गुलामीका और जयधवला नामको सिद्धान्तटीकाओमें उद्धृत किया चिन्ह है और इसलिये उसे भी दूर किया जाना चाहिए। है, और वह इस प्रकार है :स्वतन्त्र भारतके लिये उनका व्यवहार शोभाजनक नही वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। जिनके व्यवहारको विदेशी शासनके साथ उसपर लादा गया पाडिवद-पुन्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजम्हि । था। भारतके सदा कालसे जो अपने श्रावणादिक महीने इसमें वर्षके पहले महीनेको श्रावण और पहले पक्षको तथा तिथि आदिक है उन्हीका व्यवहार राजकाजमें भी होना बहुल (कृष्ण) पक्ष बतलाया है और उस पक्षको प्रतिपदाचाहिये।
को पूर्वान्हके समय अभिजित् नक्षत्र में एक तीर्थकी उत्पत्तिरही साल-सम्वत् की बात, जनता तो देशी महीनों आदि का उल्लेख किया है । इससे साफ जाना जाता है कि पहले के साथमें अपनी इच्छानुसार विक्रम, शक, वीरनिर्वाण और वर्षका आरम्भ यहां श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको हुआ करता था। बुद्धपरिनिर्वाणादि चाहे जिस सम्वत का उल्लेख करती यही प्राचीन भारतका नव-वर्ष-दिवस (न्यू ईयर्स ) था,
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किरण ४-५ ]
दुनियाकी नजरोंमें : पीरसेवामन्दिरके कुछ प्रकाशन
जिसपर भारत कृषिप्रधान देश होनेके कारण खूब खुशिया बदि एकमको सुव्यवस्थित रूपसे अहिंसाकी प्रथम देशनादी हो मनाया करता था।
और उसका नाम अहिंसासंवत् या वर्ष रखना चाहिए। ऐसी हालतमें स्वतन्त्र भारतका वर्ष भी श्रावण कृष्ण जिस अहिंसाके प्रतापसे वर्तमानमें गांधीजीने भारतदेशप्रतिपदा (सावनवदि१) से प्रारम्भ होना चाहिए, उसीको को स्वराज्यकी प्राप्ति कराई है उसके नाम पर संवत सर्वत्र राजकाजमें स्थान दिया जाना चाहिए और उसी दिन प्रचलित करना कृतज्ञताका एक बड़ा भारी सूचक होगा। नये वर्षकी छुट्टी रखनी चाहिए। इससे किसानोंको भी ऐसी सुव्यवस्थित अहिंसा-देशना को आज २५०८ वर्ष हो चुके विशेष सन्तोष मिलेगा, जिनकी संख्या सबसे अधिक है। है और गत श्रावणीय-प्रतिपदासे २५०९ वां वर्ष चाल है।
सावनवदि एकमसे वर्षका प्रारम्भ करने पर भी उसके इसी अहिंसात्मक देशनावाले तीर्थकी उत्पत्तिका उल्लेख साथ साल सम्बत् जो चाहे जोडा जा सकता है, जैसाकि उक्त गाथा में है । ऐसे अहिंसा-सम्वत् या वर्षका अपने ऊपर प्रकट किया जा चुका है। यदि किसी व्यक्तिविशेष- यहां चालू करने में भारतका गौरव है, उसका यह नया के नामवाले सम्वतको न अपनाया जाय तो दूसरे आविष्कार होगा और अन्य प्रचलित सन्-सम्बतोंकी अपेक्षा स्वतन्त्र सम्वत् या वर्षकी एक योजना और हो सकती है और वह सख्यामें भी बढा चढा रहेगा । अतः इस विषयपर भारतवह तबसे होनी चाहिए जबसे किसी महान पुरूषने सावन सरकारको पूरी तौरसे ध्यान देना चाहिए।
दुनियाकी नज़रोंमें वीरसेवामन्दिरके कुछ प्रकाशन
१. पुरातन-जैनवाक्य-सूची prove a valuable instrument of research.
Please accept my respectful greetings." १. डा. हीरालाल जैन एम ए, डी लिट्, नागपुर
३ पं कैलाशचन्द जैन शास्त्री, बनारस"पुरातन जैन वाक्यसूचीकी प्रति पाकर बडा ही हर्ष
"इस ( पुगतनजैन-वाक्यमूची ) में प्राकृतभाषाके म । मत-
बानी हा। .....आपने साहित्य अन्वेषकोके हाथ में एक बहुत गिना जायक पलोंकी ही उपयोगी बहुमुल्य साधन दे दिया है जिससे उनकी न जाने ।
दी गई है। प्रारंभमें लगभग दासी पृष्ठको प्रस्तावना है उसमें कितने समय और शक्तिकी बचत हो सकेगी व खोजका
ग्रन्थ और अन्य कारोके विषयमें गवेष गापूर्ण प्रकाश डाला कार्य वेगसे गतिशील हो सकेगा ; आपकी प्रस्तावना तो
___ गया है । श्री जुगलकिशोरजी मुनारके नामसे और उनकी
का अध्ययनकी वस्तु है जो समयसाध्य है । . .आपने जो
सेवाओंसे जैनसमाज सुपरिचित है । मुख्तार सा. जैनसाहित्यपरिश्रम किया है उसका तो कोई पार ही नही । उसके द्वारा
विषयक इतिहासके आचार्य है । इस विषयमें उनकी सूझआपने साहित्यिकोंको अपना चिरऋणी बना लिया है।
बझ और गवेषणा निराली है । जैनाचार्योंके विषयमें उन्होंने xxxइस अत्यन्त महत्वपूर्ण रचनाके लिये मेरा विनीत
जो खोजे की है, वे अनुपम हैं । इसी ग्रन्थकी प्रस्तावनामें अभिवादन स्वीकार करें।"
आचार्य कुन्दकुन्द, यतिवृषभ, सिद्धसेन, नेमिचन्द्र आदिके २. डा.ए एन. उपाध्याय एम.ए, डी. लिट्, कोल्हापुर- विषयमे उन्होंने जो कुछ लिखा है वह जैन इतिहासके लिए
Just on the Diwali day I received उनकी अनुपम देन है । आचार्य सिद्धसेनको एक पक्ष अभी the copy of the Puratan-Jainvakya.
तक श्वेताम्बरपरम्पराका ही मानता आता है। किन्तु मुख्तार Suchi. It is a sumptuous volume with
सा. ने बड़ी प्रांजल युक्तियों के आधारपर सन्मतिसूत्रके कर्ता a solid and learned Introduction. It will definitely give youa longer life and प्रसिद्ध सिद्धसेनको दिगम्बर आम्नायका विधान प्रसित
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मनेकान्त
[वर्ष १०
किया है । सिद्धसेन-विषयक उनका विस्तृत निबन्ध उनकी Literature and Philosophy. So I reगवेषणापूर्ण बुद्धि और श्रमका साक्षात प्रतीक है।xxx commend the Puratana:Jainvakya
Suchi and..... 'to the scholars and अधिक न लिखकर हमारा ज्ञान-प्रेमियोंसे इतना ही
libraries of India and to the Indological निवेदन है कि इस पुस्तकको खरीदकर अपने-अपने भडारोंमें
Departments of big foreign Universities, रक्खे और बडे-बड़े इतिहास अजैन विद्वानों तथा बड़े-बड़े interested in Indian religion and phiपुस्तकालयोको अर्पण करे, वे ही इस पुस्तकका यथेष्ट उप- losphy." योग और समादर कर सकते है । हम स्वय तो सस्कृत पद्या
२. आप्त-परीक्षा नुकमणीकी प्रतीक्षामें हैं।"
१ श्री जमनालाल जैन, सम्पादक “जैनजगत" ४. सैकेटरी, जैन रिसर्च इन्स्टिटयूट, यवतमाल
वर्धा"-The book is the most valuable "इस (आप्तपरीक्षा) अयमें कुल १२४ कारिकाएं and important addition to our collection है और उन्हीकी विस्तृत टीका भी । आप्त अर्थात् 'ईश्वर' and very useful for the use while work
की परीक्षा इस प्रयका मूल उद्देश्य है । 'ईश्वर' यों तो एक ing in the field of research regarding our religion, its history and literature
छोटा-सा ओर जाना-बूझा शब्द है, परन्तु अर्थ और alike."
व्याख्याकी दृष्टिसे कठिन भी उतना ही है । इस एक शब्द ५. श्री जमनालाल जैन, सम्पादक "जैनजगत"-- ने बडे-बड़े प्रकाड विद्वानोको हजारो वर्षांसे उलझा रखा है। "-उन (पं. जुगलकिशोर मुख्तार) की आकाक्षा
विभिन्न दर्शोंमें ईश्वरसबबी भिन्न-भिन्न मान्यताए है और थी कि इतिहासके विद्यार्थियो और अध्ययनशील अन्वेषकांके सब एक दूसरेका खडन भी करते रहते है । आचार्य विद्याकार्य में, सुविधाकी दृष्टिसे अकारादिक्रमसे पद्यानुक्रमणिकाका नन्दने जैनदर्शनमें मान्य ईश्वरके सर्वज्ञता, वीतरागता, रहना अत्यन्त आवश्यक है। यह कार्य कठिन है । परन्तु और हितोपदेशिता आदि गुणोकी अन्य दर्शनोंकी मान्यताओंमुख्तारजी धुनके पक्के और लगनके सच्चे थे कि यह पर्वत-सा को आलोचनाके साथ परीक्षा और प्रतिष्ठा की है। प्रारभमे भारी कार्य भी सम्पन्न कर सके। भूमिका काफी विस्तृत, प कैलाशचन्दजीका प्राक्कथन है और सम्पादकको (प सूक्ष्म अध्ययनसे परिपूर्ण और इतिहासके क्षेत्रमे अनुपम दरबारीलाल न्यायाचार्य) की विद्वत्ता तथा खोजपूर्ण लम्बी मानी जायेगी। इसमें प्राकृत-भाषाके ग्रयो, अथकारो आदिका प्रप्तावना है । प्रस्तावनामें दार्शनिक तथा ऐतिहासिक परिचय ऐतिहासिक तथा भाषा-शास्त्रको दृष्टिसे दिया दृष्टिसे ग्रंय, ग्रयकार आदिपर पर्याप्त प्रकाश डाला गया गया है । अन्य विद्वानोंके मतोंपर भी पर्याप्त विचार किया है। बादमें कुछ परिशिष्टोंमें सुविधाके लिए कारिका-अनुगया है। मुख्तारसाहबका यह कार्य उनकी कोतिको बनाए क्रमणिका, ग्रथकारोकी सूची, समय आदिका निर्देश उपयोगी रखनेके लिए दोपस्तम्भके समान समझा जायगा । साहित्य
हुआ है । हिंदी अनुवाद उत्तम हुआ है। ऐसे महान् दार्शऔर इतिहासके क्षेत्र में इस आदर्श और मल्यवान सेवाके निक प्रयको प्रकाशमे लानेके लिये सम्पादक और प्रकाशक लिए मुख्तारजी न केवल अभिनन्दन बल्कि श्रद्धाके पात्र है। धन्यवादाह है।" प्रस्तुत ग्रंय बड़ी-बड़ी लाइब्रेरियो, विश्वविद्यालयों और २. पं वर्षमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सम्पादक 'जैनबोधक' भडारों में रहना ही चाहिए।"
शोलापुर६. डा. कालीदास नाग एम ए, डी लिट्, कलकता
"श्री महर्षि विद्यानंदकृत इस (आप्तपरीक्षा) महत्वपूर्ण “The Puratana-Jainvakya-Suchi,
प्रयका संपादन व हिंदी अनुवाद प दरबारीलालजी न्यायाचार्य based on 64 standard works of the Di- कोठियाने किया है।......."न्याय प्रयकी हिी टीका करना gambar Jains in Prakrit and Apabh- बडा ही कठिन कार्य है तथापि सम्पादकजीने बहुत श्रमसे ransh, is now presented to the public, the Hindi Introduction of which is full
यह कार्य किया है । कही-कही पाठ-भेद भी दिये गये है । of his (Pt. Jugal Kishore Mukhtiar's)
निक्षप्त पाठोंका भी सकेत दिया गया हैं। ........वीर सेवाvaluable researches in Jain History, मन्दिर द्वारा ऐसे ग्रंयोंका प्रकाशन होता है जिससे साहित्य
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दुनिया की नजरों में : बोरसेवामन्दिरके कुछ प्रकाशन
२११.
ससारमें बड़ा ही उपकार हो रहा है। छात्रोंको अध्ययन तर्कको चट्टानोंको लापते-लांघते. ही वे भकिसके द्वारपर करनेके लिए इस संस्करणका बहुत ही अधिक उपयोग पहुचे है। कुल मिलाकर ११६ श्लोकोंमें बाचार्यजीने अलं होगा।.........."हर एक ग्रंथ-भंडारोंको एव स्वाध्याय- कार, रस-पौष्ठव और भाव-व्यंजनाका जो चमत्कार प्रेमियोंको यह अथ अवश्य मगाना चाहिये ।"
और पाडित्य बताया है, वह आज भी शानियोंके लिये चिंतन३. डा. डब्ल्यु. शुबिंग (W. Schubring) हैम्बर्ग का विषय है । प्रस्तावना पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारने, (जर्मनी)
ऐतिहासिक शोधों और प्रमाणोंके आधारपर परिश्रमपूर्वक "The आप्तपरीक्षा with its survey of लिखी है और सचमुच आचार्य समन्तभद्रपर लिखनेके वे ही various standard systems can not but अधिकारी भी है। अनुवाद ठीक हुआ है छपाई-सफाई उत्तम।" attract the greatest interest of all students of Jainism as well as of Indian
२. डा हीरालाल जैन, एम ए. डी लिट्, नागपुरthought in general. Should there be "(स्तुति विद्या) का पाठशोवन और अर्य-विस्तार an occasion, I shall certainly not for- सावधानीपूर्वक अच्छी रीतिसे हुआ है । और आपकी प्रस्ताget to mention these valuable products वाने ग्रयको चमका दिया है। इस अत्यन्त महत्वपूर्ण रचनाके of your scholarly zeal."..
लिये मेरा विनीत अभिनन्दन स्वीकार करें।" ४. श्री के के हैण्डिक, एम ए, वाइस-चांमलर,
३. श्री मा ज भीसीकर एम ए, न्यायतीर्थ, सम्पागोहाटी यूनिवर्सिटी गोहाटी (आसाम)
दक 'सन्मति' शोलापुर"The new edition of Vidyananda's Aptapariksa prepared by Pandit Dar
___ "समन्तभद्राचार्य-विरचित 'स्तुति-विद्या' अर्थात् 'जिनbarilal Jain is a valuable contribution स्तुति-शतक' या चित्राल कारपूर्ण काव्याचं वसुनन्दि आचार्यto the study of Indian Philosophical कृत सस्कृत टोकासहित झालेले नवे भाषातर विशेष उल्ले. text. Students will be grateful for this खनीय आहे. मागचे विद्वान साहित्याचार्य पं पन्नालालजी exhaustive edition with a learned Introduction and a translation in Hindi with बात याना अत्यत पारश्रम घऊन आयानक पद्धतीन several appendices. The text is not a टिपणी, विशेषार्थ व इलंकाची विविध चित्रे देऊन हे भाषाvery easy one, and the translation तर तयार केले आहे । व मुख्तारजीनी आपली ३१ पानी appears to be lucid and can be follow
अभ्यासपूर्ण प्रस्तावना त्याम जोडून हे, अत्यत दुर्गम ed by students of Sanskrit even with a little knowledge of Hindi. . . . . . A de
काव्य रसिकाना सुगम करून ठेवले आहे । विद्वत्ससार tailed exposition of Vidyananda's treat- त्याचा या चिर-काक्षित उपकृती बद्दल सदैव ऋगी ment of Jaina doctrines and those of गहील।" the other schools of Indian thought will
४ श्री के के हैण्डिक, एम ए., बाईस-चासलर, advance our knowledge of the crosscurrents in Indian philosophical litera- गोहाटी यूनिवसिटी, गोहाटी (आसाम)ture."
-The first edition of the work ३. स्तुति-विद्या
was published nearly forty years ago, १. श्री जमनालाल जैन, सम्पादक "जैनजगत" वर्वा- and the newedition reflects great credit
on Pandit Pannalal Jain who has re-edi. "दो हजार वर्ष पूर्व आचाय समन्तभद्रन पशन, तक, ted the work with the commentary of आचार और भक्ति आदि सबबी गभीर और मार्मिक साहित्य- Vasunandin and a Hindi translation. का सृजन किया था । उनका साहित्य भारतीय वाङ्मयमे Samanta bhadra is better known as a अपना विशिष्ट स्थान रखता है। प्रस्तुत स्तुतिविद्या या great exponent of Jaina philosophical
and religious tenets, and is earlier, proजिन-शतक प्रथमे उन्होने चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुनि या
bably much earlier than Akalanka who भक्ति की है। भक्ति अधिकतर भावना-प्रवान होती is known to have flourished in the seventh है। किन्तु आचार्य समन्तभद्र स्वभावतः तार्किक थे। century A. D. The Stutividya is a
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२२०
अनेकान्त
[बर्ष ११
poctical work in 116 verses in praise of एक ही ग्रंथ प्रयमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और the twenty-tour linthankaras and em- द्रव्यानुयोगका स्वरस है । ऐसा ज्ञात होता है जैसे सरस्वती ploys throughout the citralankaras such as Murajabandha, Ardhabhrama and
स्वयं ही बोल रही । इसके हिंदी अनुवादक मुख्तार साहब the different varieties of Yamakas etc.
श्रीसमन्तभद्र-भारतीके गंभीर एवं तलस्पर्शी अध्येता है । The use of these devices in a religious आचार्यश्रीकी रचनाओं एवं उनके परिचयके विषयमें अभीpoem by such an early author helps to
तक मुख्तार साहबने जितना लिखा है संभवतः उतना किसीने explain their recurrence in Mahakavyas, and bears witness to the mastery of
भी नहीं लिखा । इसके लिये उन्हें जितना धन्यवाद दिया जाय the intricacies of the Sanskrit language
थोड़ा है । इस वृद्धावस्थामें भी माता सरस्वतीकी सेवाके expected of the poets..........Our लिए वे जो कुछ कर रहे है वह हर एकके लिये अनुकरणीय thanks are due to Pandit Jugal Kishore
है।...... स्तोत्रके प्रत्येक पद्यको पढते समय रचयिताकी Mukhtar well known for his researches in
लोकोतर-प्रतिभा जैसे आंखोंके सामने नाचने लगती हो । Jaina Sanskrit literature, for his learned introduction to the poem."
यह हिंदी अनुवाद भी मूलग्रयके अनुरूप ही हुआ है । "
प्रारंभमें ८२ पृष्ठकी प्रस्तावना और २४ पृष्ठका समन्तभद्रका ४. स्वयम्भूस्तोत्र
सक्षिप्त परिचय लगा देनेसे प्रयकी उपयोगिता बहुत बढ़ गई १. प. कैलाशचन्द्र जैन शास्त्री, बनारम
है । परिशिष्टमें स्वयभूस्तवनछद सूची और अर्हत्सबोधन"आ. समन्तभद्र-प्रणीत स्वयभूस्तोत्र एक ऐसा महत्व
पदावलि भी लगा दी गई है। पुस्तक प्रत्येक दृष्टिसे उपादेय पूर्ण स्तोत्र है जिसमें चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुतिके आधारसे
है। प्रत्येक मन्दिर और पुस्तकालयमें इसकी एक-एक प्रति अनेकान्तवादका, नयवाद, प्रमाणवादका, सप्तभंगीका,
अवश्य चाहिए।" तथा स्तुति और पूजनके महत्व, उद्देश्य आदिका गभीर
____३. श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय, सम्पादक 'ज्ञानोदय' विवेचन है। अनुवादकके शब्दोमें इसमें जैन शानयोग,
बनारसकर्मयोग और भक्तियोगको त्रिवेणी प्रवाहित है।..........
"इस स्तोत्रमें चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति करते हुए ...."मुख्तार सा ने इसका अनुवाद बहुत ही नपे-तुले शब्दोंमें स्वामी समन्तभद्रने जैनागमका सार एव तत्त्वज्ञान गागरमें किया है। यों तो इसके विवेचनमें एक बृहत्काय ग्रंथ लिखा जा सागरकी तरह भर दिया है। और खबी यह है कि जहा श्रद्धालु सकता है इतना प्रमेय इस स्तोत्रमें भरा हुआ है । अनुवाद
आत्मा-स्तवन करते हुए भक्ति-विभोर हो उठता है, वहां सुन्दर है और ग्रंथको समझनेमे सहायक है। प्रारभमें सौ
तत्त्व-चिन्तन करते हुए आत्मलीन हो जाता है। इस ग्रंथ में पृष्ठकी प्रस्तावना है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है । इसमें भक्तियोग, ज्ञानयोग, और कर्मयोगको निर्मलधाराएं इस स्तोत्रका विवेचन और विश्लेषण अनेक दृष्टियोंसे किया गया
कलापूर्ण ढंगसे एकाकार हुई है, कि समन्तभद्राचार्यके बनाये है।.... ... इसके पढ़नेसे स्तोत्रके हृबकी पूर्णरूपरेखा पाठककी
इस संगममें जो एकबार डुबकी मार लेता है, कृतकृत्य । दृष्टिमें अंकित हो जाती है।......स तरह इसके सपादनमें
जाता है । .......स्तोत्रका अनुवाद भी मुख्तार साहबने काफी श्रम किया गया है।......." पुस्तक संग्राम है।"
आत्म-विभोर होकर किया है। एक-एक शब्दको सरल और २. पं. चैनसुखदास, न्यायतीर्ष, सम्पादक 'वीरवाणी'
सुन्दर ढंगसे व्यक्त किया है। अनुवादके अतिरिक्त १०६ जयपुर
पृष्ठोंमें ग्रंथकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना और ग्रंय-कर्ताका परिचय "जैन वाङमयमें स्वामी समन्तभद्राचार्यकी रचनाओंका जिस खोज और अध्यवसायसे दिया है, वह ग्रंयके स्वाध्यायसे अत्यंत आदरणीय स्थान है । उनकी आश्चर्यकारिणी प्रतिभा- ही विदित हो सकता है।" के द्वारा प्रसूत यह स्वयंभूस्तोत्र निःसन्देह संस्कृत वाङ्मयका ४. प. वर्षमान पार्षनाथ शास्त्री, सम्पादक "जैनअनुपमेय मंच है। इसमें बादीश्वरसे महावीर चौबीस बोषक" शोलापुरतीबंकरोंका स्तवन है। पर ग्रंथकर्ताने इस स्तवनके रूपमें "जैन शासनके प्रभावक आचार्य स्वामी समन्तभद्रसमूचे जैन बाबमयका सार निचोड़कर रख दिया है। यह के द्वारा विरचित स्वयम्भूस्तोत्र प्रसिद्ध है जिसमें २४ तीर्थ
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किरण ३-४ ] दुनियां की नजरों में बीरसेवामन्दिरके कुछ प्रकाशन
- करोंकी स्तुति अत्यत भावपूर्ण है। इतना ही नहीं इन स्तुति- किया है । ग्रंय अतिगहन है इसीसे अभीतक हिंदी में इसका योंमें जैनागमका दार्शनिक अंश भी कूट-कूटकर भरा है। कोई अनुवाद नहीं हो पाया था। मुख्तार साहबने इसके हिंदी प्रकृत अयमें मुख्तारजीने उस स्वयंभूस्तोत्रका मलसहित अनुवादको प्रस्तुत करके तया वीरसेवामन्दिरने उसे प्रकाअनुवाद प्रकाशित किया है। अनुवाद अत्यत स्पष्ट व सरल शित करके एक बहुत बड़े अभावकी पूर्ति की है। अंकका होनेके कारण सर्वसाधारण जनताको समझने में सरलता प्राक्कथन न्यायाचार्य पंडित महेन्द्रकुमारजीने लिखा है । हो गई है। किसी भी स्तोत्रके अर्थको समझकर पाठ करनेमे उन्होंने मुख्तार सा. के अनुवादको सुन्दरतम, प्रामाणिक और ही उसका यथार्थ फल मिलता है । ग्रंयमें स्तोत्र और स्तोत्र- सरल बताया है। वास्तवमें दर्शन-शास्त्रको गुत्थियोंसे बोतकार समन्तभद्र स्वामीके परिचय, इतिहास, आदिके सबमें प्रोत प्रयका हिंदी अनुवाद करना सरल कार्य नही है । मुख्तार ऊहापोहात्मक विस्तृत प्रस्तावना १०६ पृष्ठोंमें है। इस सा ने अपने अनुवादमें प्रत्येक पथके रहस्यको अच्छी तरह दृष्टिसे प्रयकी उपादेयता और भी बढ़ गई है। अंतमें स्वयभू स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है । प्रयके आरंभमें मुख्तारस्तोत्रगत स्तवन-छदसूची और श्लोकानुक्रमणिका भी दी सा की छतीस पृष्ठकी प्रस्तावना भी है जिसमे ग्रंय तथा गई है । पुस्तक संग्रह करने एव पढ़ने योग्य है।" प्रथकारके विषयमें रोचक प्रकाश डाला गया है। प्रय समास
५. ब्र गुलाबचन्द जैन, स्वाध्याय मन्दिर, सोनगढ़-- है, प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमीको इसका स्वाध्याय अवश्य करना
"आपका त्रियोगविषयक स्वयभूस्तोत्र पढकर अत्या- चाहिये ।" नन्द हुआ । प्रस्तावना लिखने में आपने सर्वया योग्य (श्रम) ३. चैनसुखदास, न्यायतीर्थ, सम्पादक 'वीरवाणी', किया है । यह प्रस्तावना सचमुच सर्वोनम है।"
जयपुर५. युक्त्यनुशासन
___"--भगवान् महावीरको स्तुतिस्वरूप यह (युक्त्य१ प्रो. महेन्द्रकुमार, न्यायाचार्य, हिंदू विश्वविद्यालय नुशासन)प्रय जैनागम के दार्शनिक सिद्धातोंका गभीर हृदयाकाशी
कर्षक एक विश्लेषणात्मक विवेचन करने वाला है। ..... "युक्त्यनुशासन-जैसे जटिल और सारगर्भ महान् हम इस स्तोत्रको स्तोत्रोंका सम्राट् कह सकते है। समूचे सस्कृत प्रयका सुन्दरतम अनुवाद समन्तभद्र स्वामीके अनन्यनिष्ठ वाङमयमें यदि इसकी सानीका दूसरा कोई स्तोत्र हो सकता भक्त, साहित्य-तपस्वी प. जुगलकिशोरजी मुख्तारने जिस है तो वह इमी कविकी दूसरी रचना स्वयभू स्तोत्र ही हो अकल्पनीय सरलतासे प्रस्तुत किया है, वह न्याय-विद्याके सकता है । ऐसे महिमामय स्तोत्रका हिंदी अनुवाद करके अभ्यासियोंके लिये आलोक देगा । सामान्य-विशेष युत- आदरणीय मुख्तार माहबने हिदी पाठकोका बड़ा उपकार सिद्धि-अयुतसिद्धि, क्षणभगवाद, सन्तान आदि पारिभाषिक किया है । अबके प्रारभ २४ (१२) पृष्ठोंकी प्रस्तावना दर्शनशब्दोका प्रामाणिकतासे भावार्थ दिया है। आचार्य और २४ पृष्ठोका समन्तभद्रका संक्षिप्त परिचय देकर जुगलकिशोरजी मुख्तारको यह एकान्त साहित्य-साधना इसे और भी उपयोगी बना दिया है।" आजके मोल-तोलवाले युगमें भी महगी नही मालूम होगी, ४. श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय, सम्पादक, 'ज्ञानोदय', जब वह थोड़ा-सा भी अतर्मुख होकर इस तपस्वीकी निष्ठा- काशीका अनुवादकी पंक्ति-पंक्ति पर दर्शन करेगा । वीरसेवा- "कहनेको इस अयमें स्वामी समन्तभद्राचार्यने वीर मन्दिरकी ठोस साहित्य-सेवाएं आज सीमित साधन होनेसे प्रभुका स्तवन किया है । लेकिन वे किस धर्मके प्रवर्तक थे? विज्ञापित नही हो रही है पर वे घ वताराए है,जो कभी अस्त कल्याणकारी मार्ग क्या है, आत्महितैषी कौन है, वास्तविक नही होते और देश और कालकी परिधियां जिन्हे धूमिल सुख क्या है? आदि विषयोंपर बहुत गहरेमें डूबकर चिंतन नहीं कर सकती।"
किया है। मुख्तार साहबने इस अनुपम ग्रंथका अनुवाद बड़ी २. प. कैशलाशचन्द्र जैन, शास्त्री, बनारस
तन्मयतासे प्रस्तुत किया है और सर्वसाधारणके समझने "युक्त्यनुशासन स्वामी समन्तभद्रकी महनीय कृति है। योग्य बना दिया है।" इसमें ग्रयकारने ६४ पद्योंके द्वारा अबाधित वस्तुतत्त्वका ५. प. वर्षमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सम्पादक, "जैन निरूपण करके वीर प्रभुके तीर्थको ही सर्वोदय तीर्थ सिद्ध बोषक" शोलापुर
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बनेकान्त
[वर्ष ११
"स्वामी समन्तभद्रके उक्त महत्वपूर्ण प्रयका हिंदी संक्षिप्त महत्वका निरूपण करते हुए वीर-जिनेन्द्रको आगम अनुबाद मुख्तार साहबने बहुत ही सुन्दर ढंगसे किया है। तया युक्तिसे परीक्षित शासनकी विजयमाला रूप प्रस्तावनामें समन्तभद्रके संबंध में एवं प्रकृत ग्रंयके संबंध उपहारसे उसकी स्तोत्ररूपता भी युक्त है। वीर जिनेन्द्रको खूब विस्तृत परिचय दिया गया है। ...पुस्तक पठनीय, किसी विशिष्ट माता-पिताकी प्रसूति रहते हुये भी स्वयंभू अवश्य संग्रहणीय है।"
पद प्रयोगकी उपपत्तिके लिये जो उसपदकी व्याख्या की है, ग्रन्थ नम्बर ४, ५पर युगपत् विचार वह अत्यन्त मनोरंजक है। जैनसमाजके द्वारा आपकी स्वयं१. पं. अमृतलाल जैन, दर्शनाचार्य, काशी
आविर्भूत, साहित्यसेवोपयुक्त असाधारण विद्वत्ताका जो "आपकी दोनों पुस्तकें-युक्त्यनुशासन और स्वयंभू परिचय मिला है, तदनुसार आप भी स्वयंभू इस उपाधिस्तोत्र-पाकर बडी प्रसन्नता हुई । आपका अनुवाद उतना के योग्य हैं। मै एकमात्र अपने संस्कृत पद्यसे आपकी वीरसेवा ही प्रशंसनीय है जितना मल्लिनाथका । मल्लिनाथकी सजी- प्रवृत्तिको जागरूक रहनेकी कामना करता हुआ सक्षिप्त वनी टीकासे कालिदासकी भारती जीवित हो गई और समालोचनासे उपरत हो रहा हूं:आपकी टीकासे समन्तभद्रकी । भगवान से प्रार्थना है कि स्वत एवाद्भुतवीरो युगलकिशोरो विभाति युगवीरः । आप १०० वर्ष और जीवित रहें। आपके बाद ऐसे काम तेनास्तु वीरसेवा सन्ततमेवाधुनेवासी ॥ कौन करेगा? आप तो वृद्ध युवक है । अब तो युवक वृद्ध
५. श्री जमनालाल जैन, सम्पादक, "जैनजगत" वर्धाहोने लगे हैं।"
"दोनों आचार्य समन्तभद्रकी अनुपम कृतिया है । २. डा. ए. एन. उपाध्याय, एम. ए., डी. लिट्, कोल्हापुर- आचार्य समन्तभद्र जैन दार्शनिक परम्पराके वह अखड
"-These two books have come out ज्योतिर्मान दीपक है, जो अपनी उज्ज्वलता, प्रखरता, और in an excellent form, and your authori- महानताके लिये सुप्रसिद्ध है। शब्दोंके मूल्य और महत्वको tative Hindi rendering has not only
समझके लिये इनकी कृतियोका अध्ययन आवश्यक है । enriched the Hindi language but has also given a wider circulation to these
गत दो हजार वर्षोंमे अनेक विद्वान् आचार्योने उनकी ज्ञान
सपा works of Samantabhadra which you गरिमासे प्रकाश प्राप्त किया है । शान-के इस अथाह सागरhave made subject of your life-long study में गोता लगानेवाले अनेक पुरुषार्थी भ्रम-भवरसे पार हो and meditation. I have to learn more
चुके है । इस युगके आचार्यवरके अनन्यभक्त प जुगलकिशोरfrom these books than to suggest anything to you when you have spent so
जी मुम्तारने इन दोनों रचनाओका सम्पादन किया है। much time and energy on them." जिन कृतियोका सम्पादन वर्षोंके गहन अध्ययन और मयनके
३. प्रो हीरालाल जैन, एम. ए., डी. लिट्, नागपुर- बाद हुआ हो उनके विषयमें क्या कहा जाय? .......
"-मुख्तारजीने इन अतिदुर्गम ग्रंथोंको अपनी टीका- ये स्तुतियां तर्क और सिद्धातके आधारपर रची गई है। द्वारा बहुत ही सुबोध बना दिया है । इसके लिये उनका हृदयसे इन स्तुतियोमे व्यक्तिगत गुण-दोषोंको स्थान न देकर आचार्यअभिनन्दन करता हूं।"
श्रीने जैनवर्मकी नीति, सिद्धात और दार्शनिकताके एक-एक ४. श्री भूपनारायण झा, ग. सं कालिज, बनारस- अंगको स्पष्ट कर दिया है। युक्त्यनुशासनमे ही, सबसे पहले
"श्रीमान् जुगलकिशोरजी मुख्तार 'युगवीर' ने स्वामी आचार्यश्रोने वीरके धर्मको सर्वोदय-तीर्थ बताया है। सम्पासमन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्र और युक्त्यनुशासनका जो अनु- दक महोदयने ऐतिहासिक विवेचनामे आचार्यके समय, उनबाद लिखा है, वह सारायंगभित, तथा प्रतिपद विशद रहने की शैली, भाषा और अंयगत विषयको भलीभांति समझाया के कारण आपकी प्रौढ़ प्रतिभाका आदर्श है । स्वयंभूस्तोत्रकी है। छपाई-सफाई अत्युत्तम है।" प्रस्तावनामें भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, इन तीनो ६. श्री मा. ज. भोसीकर, एम. ए , न्यायतीर्थ, सम्पादक प्रवाहमागौसे उसे भगवती त्रिपथा गंगा अथवा त्रिवेणीका 'सन्मति'रूपक, तथा उसमें सर्वश्रेष्ठ भक्तियोगकी मुख्यता सत्यता- "अशा या महान् कृतीचे महा-मूल्यमान या छोटयाशा पूर्ण प्रतीत हुई है। युक्त्यनुशासनको प्रस्तावनामें उसके लेखांत मी कुठवर करणार? तें स्वामी समन्तभद्र-मारतीचे
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किरण ४-५]
दुनियाकी नजरोंमें : वीरसेवामन्दिरके कुछ प्रकाशन
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एकनिष्ठ उपासक महर्षि जुगलकिशोर मुख्तार यांनीच "-सभी अब आबोपात देवलिया, अत्यानन्द हआ। करावें । व ते त्यांनी नुकतेच संपादित नि प्रकाशित केलेल्या श्री समन्तभा-भारतीका नमूना तो बहुत सुन्दर, बहुमोल, 'स्वयभूस्तोत्र' व 'युक्त्यनुशासन' या सर्वांगसुन्दर पुष्पद्वयास मनोजरूपसे आपने उसका संकलन, अनुवाद, सुन्दर प्रस्ता१०६ व ४८ पानांची बृहत् प्रस्तावना जोडून केले आहे। वनादिसे प्रकाशित किया है । इसीलिये आप धन्यवादके पात्र अध्यात्मप्रेमी रसिकानी ती दोन्ही प्रकाशने 'वीरसेवामन्दिर, है ही। साथ साथ आपका साहित्यका दीर्घ अभ्यास और सरसावा' येयून मागवून जरूर अभ्यासावीत।"
परिचय होता है । आप सरीखे विद्वानोसे और ऐसे ही बहु७. श्री आण्णगौडा आदगौडा जैन पाटील, सैक्रेटरी, मोल ग्रथसाहित्य सभ्रमसे प्रकाशित होने के लिये आप शताय "श्री शातिनाथ लायब्रेरी", शेडबाल (बेलगांव)-- होवें ऐसी श्री जिनेद्रचरणोमे प्रार्थना है।"
संरक्षकों और सहायकोंसे प्राप्त सहायता
अनेकान्तके सरक्षक और सहायक सज्जनोंसे जो सहायता अभी तक प्राप्त हुई है उसकी तफसील इस प्रकार है:५००) बा. नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता मध्ये २५१) ला० रघुवीर किशोरजी, जैना वाचक०, देहली १५००) के
१०१) बा० ऋषभचन्दजी जैन, कलकत्ता, मध्ये २५१) बा० सोहनलालजी कलकत्ता
२५१) के २५१) ला० गुलजारीदास ऋषभदास, कलकत्ता १०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) बा. दीनानाथजी सरावगी,
१०१) बा० जीतमलजी, कलकत्ता २५१) बा० रतनलालजी झांझरी,
१०१) बा. चिरजीलालजी सरावगी, २५०) सेठ बलदेवदासजी,
१०१) बा० लाल चन्दजी सगवणे, २५१) सेठ गजराजजी गंगलाल,
१०१) बा. काशीनाथजी, २५०) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन,
१०१) ला० महाबीर प्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) बा. विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) कलकत्ता स्थित फतहपूर जैन समाज २५१) बा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) श्रीमती श्री मालादेवी धर्मपत्नी डा. श्रीचन्द २५१) ला० कपूरचन्द खूपचन्दजी, कानपुर
जैन, 'सगल, एटा' २५१) बा. जिनेन्द्र किशोरजी जौहरी, देहली
१०१) गुप्त महायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) बा. मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली
१०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी, कलकत्ता २५१) सेठ छदामीलालजी, फीरोजाबाद
१०१) बा. लालचन्दजी सेठी, उज्जैन योग ५२२४)
..
जन,
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साहित्य परिचय और समालोचन
१.नजागरणके अग्रदूत-लेखक, बाबू अयोध्या- विचार नहीं किया गया है, जिसके करनेकी आवश्यकता थी। प्रसादजी गोयलीय । प्रकाशक, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ इस ग्रन्थकी इस प्रस्तावनाके लेखक पं० दरबारीलालजी काशी। पृष्ठ संख्या, ६३६ । मूल्य सजिल्द प्रति का ५)रुपया। न्यायाचार्यने श्वेताम्बरोंकी इस मान्यताका निरसन किया है
प्रस्तुत पुस्तकमें ३७ विद्वानो, त्यागियो और श्रीमानों और बतलाया है कि इस स्तवनके कर्ता सिद्धसेन दिवाकर आदिके जीवन परिचय दिये गये है, जिन्हे त्याग और साधना- नही है किन्तु यह कुमुदचन्द्रचार्यकी कृति है। प्रसिद्ध के पावन-प्रदीप, तत्वज्ञानके आलोकस्तम्भ, नवचेतनाके ऐतिहासिक विद्वान् प० जुगलकिशोरजी मुख्तारने इससे भी प्रकाशवाह, श्रद्धा और समृद्धिके ज्योतिरल इन चार विभागो पूर्व पुगतनजनवाक्य-सूचीकी प्रस्तावनामें अनेक प्रमाणोके में बाटा गया है। कितने ही परिचय तो पत्र पत्रिकाओसे आधारमे इस स्तवनका कर्ता कुमुदचन्द्रको ही बतलाया है संकलित किये गये है और कुछ परिचय इनमे गोयलीयजी सिद्धसेन दिवाकरको नही। आदिके द्वारा नवीनभी लिखे गये है पर उन सबका संकलन इस स्तवनमे मूलस्तोत्र कर्ताने कही पर भी मंत्र-तत्र गोयलीयजीने ही करके उसे वर्तमान रूप दिया है। गोयलीय- आदिका विधान नही किया है, क्योंकि प्रस्तुत स्तवन निष्काम जो स्वयं सिद्धहस्त लेखक है उनके दिलमें उमंग है और हृदय भक्तिको उत्कट भावनाका प्रतीक है, उसका प्रत्येक पद उत्साहसे भरा हुआ है, उनकी लेखनीमे तेज है और वह भक्तिभावकी अपूर्वताको लिये हुए है, उसमे भक्तिकी अनेकोंको उत्तेजित भी करते रहने है । परिचयोमे यद्यपि महत्ताका उद्भावन करते हुए लिखा है कि भावशून्य क्रियायें कितने ही परिचय अतिरजित और कितनं ही अतिशयोक्ति- फलवती नही होती । परन्तु लेखक (अनुवादक) महाशयने योको लिये हुए है पर इसमे सदेह नहीं कि गोयलीयजीने इस संस्करणमें मूलस्तवनके साथ उनके अनेक ऋद्धिमंत्र उक्त पुस्तकका संकलन आदि कर एक आवश्यक कमीको दूर यत्र साधनविधि और उसके फल प्राप्त करनेवालोंकी करनेका प्रयत्न किया है । इसकेलिये गोयलीय जी धन्यवादके सक्षिप्त कथाए भी साथमें जोड दी, इससे जहां भक्तजन इस 'पात्र है। पुस्तककी छपाई सुन्दर और गेटअप चित्ताकर्षक है। स्तवनके द्वारा जिनेन्द्रगुणोको यथावत् अवधारण कर कर्म
२. कल्याणमन्दिरस्तोत्र-(ऋद्धि मंत्रयत्र और साधन- बंधनको ढीला करनेका प्रयत्न करता वहा उसे मंत्रयंत्र तंत्रविधि सहित) मूलकर्ता, आचार्य कुमुदचन्द्र । लेखक के झमेलेमे डालकर सांसारिक बन्धनोंकी ओर लगानेका (अनुवादक) प० कमलकुमार शास्त्री खुरई । प्रकाशक, प्रयत्न किया गया है और यह नहीं बतलाया कि ये ऋद्धिमत्र श्री कुन्थसागर स्वाध्याय सदन खुरई जि. सागर । पृष्ठ संख्या, यंत्रादि उक्त स्तवन परसे कैसे फलित होते है। और इसलिये १८० । मूल्य, अजिल्द प्रति का २) रुपया।
वे मूलस्तोत्रके साथ असम्बन्ध जान पड़ते तथा भ्रामक प्रतीत प्रस्तुत स्तवनका नाम कल्याण-मन्दिर है जो उसके होते है बिना किसी युक्ति प्रमाणके ऐसा करके लोगोको आद्यपद्यके प्रारम्भमें ही प्रयुक्त हुए 'कल्याणमन्दिरम्' पदके गुमराह करना उचित नहीं कहा जा सकता। यों ही इस प्रकारकारण भक्तामर आदि स्तोत्रोंकी तरह लोकमें विश्रुत हुआ की चीजोका इधर उधरसे संकलित करके रख देना मूल है। इसमें जैनियोंके तेइसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथका स्तवनकी महत्ताको कम करना है। स्तवन अंकित है । जिसमें उनके साघुजीवनके समय उनके इसके सिवाय लेखकने इस स्तवनके कर्ता कुमुदचन्द्रपूर्वज लघुबन्धु कमठके द्वारा घटने वाली उस सोपसर्ग घटना- के साथ उज्जनीमे सिद्धसेन दिवाकरके साथ घटने वाली का सजीव चित्रण किया गया है जो श्वेताम्बर परम्पराद्वारा उस महाकालेश्वरकी घटनाका सम्बन्ध जोड़ दिया है जिसका अमान्य है। फिर भी इस स्तवनका समादर दिगम्बर और प्रस्तुत स्तवनकत्तकि इतिहासके साथ कोई सम्बन्ध नही श्वेताम्बर उभय सम्प्रदायोंमें पाया जाता है। इस स्तवनके इस प्रकार की असावधानी भविष्य में बड़ी दुखदायक हो जाती कर्ता आचार्य कुमुदचन्द्र है, पर कुमुदचन्द्र कब हुए है और है। प्रेसादिकी असावधानीसे छपनेमें कुछ त्रुटियां रह गई है। उनकी गुरुपरम्परा क्या है, इस सम्बन्धमें प्रस्तावनामें कोई, फिर भी छपाई सफाईकी दृष्टिसे यह संस्करण बुरा नही है।
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किरण ४-५ ]
साहित्य परिचय और समालोचन
२२५
३. स्यावाद सिदि:-मूलकर्ता, आचार्य वादीभसिंह- पुस्तकका विषय उसके नामसे स्पष्ट है। इसमें जैनियोंसूरि । सम्पादक, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया। के चौवीसवें तीर्थंकर भगवान महावीरके जीवनका दिग्दर्शन प्रकाशक, पं. नाथूरामजी प्रेमी, मत्री माणिकचन्द दि. जैन कराया गया है। लेखकने श्वेताम्बरीय आचारांग सूत्रके ग्रन्थमाला हीराबाग, बम्बई ४। पृष्ठ संख्या १४०। मूल्य मूल भावोको आधुनिक दृष्टिकोणके साथ सरल भाषामें डेढ रुपया।
रखनेका प्रयल किया है और उसका सम्पादन भाई जमनाप्रस्तुत ग्रन्थका विषय दार्शनिक है, उसमें विविध दर्शनों- लालजीने किया है । पुस्तक उपयोगी है, इसके लिए लेखक के मन्तव्योंकी अलोचना करते हुये स्वमतका सस्थापन किया और सम्पादक धन्यवादाह है। गया है। प्रायः सारा ही ग्रन्थ संस्कृतके अनुष्टुप् छंदमें रचा ६. प्राचीन भारतीय संस्कृतिमें नारीका स्थान-लेखक गया है, रचना गम्भीर और प्रसादगण युक्त है । ग्रन्थका रघुवीरशरण दिवाकर । प्रकाशक,मानव-साहित्य-सदन, अन्तिम भाग किसी कारणवश खडित हो गया है,उसकी यह मुरादाबाद । पृष्ठ संख्या ४० । मूल्य बारह आना। अपूर्णता हमारी असावधानीकी ओर संकेत कर रही है जिसका प्रस्तुत पुस्तकमें भारतीय संस्कृतिमें नारीके साथ किये हमें खेद है। इसी तरहकी उपेक्षा और असवाधानीसे जाने वाले अन्याय, अत्याचारोका सप्रमाण उदघाटन किया हमारा कितनाही बहुमूल्य साहित्य आज अनुपलब्ध हो रहा गया है। पुस्तकको लिखकर दिवाकरजीने जनताकी है, आशा है समाज भविष्यमे इस असावधानीको पनपने आखे खोल दी है । पुस्तक सरल और रोचक ढंगसे लिखी नही देगी । ग्रन्थको प्रस्तावना महत्वपूर्ण है और उममें ग्रन्थ- गई है इसके लिए वे धन्यवादके पात्र है। कर्ता वादीभसिंह सूरि तथा उनके समय सम्बन्धादिके विषय ७. धर्म और समाज-लेखक पं मुखलालजी सघवी । में पर्याप्त विचार किया गया है, साथ ही, ग्रन्थका हिन्दीमें सम्पादक, दलमुख मालवणिया। प्रकाशक, पं० नाथूराम प्रेमी संक्षिप्त सार और विषयसूचीभी लगा दी गई है जिससे प्रस्तुत स्व० हेमचन्द मोदी पुस्तकमाला, हीराबाग, गिरगाव, बम्बई । सस्करणकी उपयोगिता अधिक बढ़ गई है। इसके लिए पृष्ठ मण्या, २०८ । मूल्य डेढ रुपया। सम्पादक प दरबारीलाल जी और ग्रन्थमालाके सुयोग्य प्रस्तुत पुस्तक प सुग्वलालजी संघवीके विचारात्मक मन्त्री श्रद्धेयप. नाथूराम जी प्रेमी बम्बई धन्यवादके पात्र है। निबन्धोका मग्रह है। इसमें २४ निबन्ध अकित है जिनमें धर्म ग्रन्थ पठनीय है और संग्रहणीय है।
___और समाजकी वस्तुस्थितिका अच्छा चित्रण किया गया ४ भारतीय राष्ट्रीयता किषर-लेखक, रघुवीर शरण है। पडितजी गहरे विचारक है और उनकी लेखनी भी दिवाकर । प्रकाशक मानव-साहित्य-सदन मुरादाबाद, । पृष्ठ विचारको नूतन सामग्री प्रस्तुत करती है। प्रेमीजीने स्व० सम्या ७८ । मूल्य एक रुपया ।
हेमचन्द मोदी ग्रन्थमालामे इमका प्रकाशन कर जगतका ___ इस पुस्तकमे लेखकने भारतीय साहित्यके अध्ययन भारी उपकार किया है, इसकेलिए वे धन्यवादके पात्र है। और मननस्वरूप नारीत्वके शोपण और पददलनकी करुण पुस्तक पठनीय और संग्रहनीय है। कहानीके साथ नारी पूजाके रहस्यको प्रकट किया है, और ८ तत्वार्थसूत्र-मूल लेखक, श्री १०८ गृद्धपिच्छाचार्य, नारी-जीवनके खिलाफ दिये जाने वाले फतवे, यहा तक सम्पादक, प० कैलाशचन्दजी शास्त्री । प्रकाशक, भारतीय कि पतिके मृत शरीरके साथ नारीको जीवित जलाने जैसी दिगम्बर जैन संघ मथुरा । पृष्ठ सख्या २५६ । मूल्य दो रुपये मती-प्रथाके रहस्यका भी उद्भावन किया है । दिवाकरजीने आठ आने ।। पुस्तकमें अपने स्वतन्त्र विचारोंका निर्भयतामे प्रदर्शन तत्वार्थमूत्र जैन ममाजका एक बहुमूल्य सूत्र ग्रन्थ है, किया है । इम स्पष्टवादिताके लिए वे धन्यवादके पात्र है। उसके कर्ता उमास्वाति बतलाये जाते है। इस सूत्र ग्रन्थका आशा है भारतीय विद्वान इसे पढकर नारी जीवनको ऊंचा श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही समाजोमें समादर है। श्वेताम्बर उठानेका प्रयत्न करेंगे।
समाजकी अपेक्षा दिगम्बर समाजमें इसका पठन-पाठन ५. महावीरका जीवन दर्शन-लेखक, ऋषभदाम अधिक तादादमें होता रहा है उस पर महत्वपूर्ण प्राचीनस गंका । सम्पादक, जमनालाल जैन । प्रकाशक भारत महा- प्राचीन टीकायें भी प्राचीन आचार्यों द्वारा समय-समयपर मंडल वर्धा । पृष्ठ ४२, मूल्य ६ आने।
लिखी गई है। श्वेताम्बर परम्पग मान्य सूत्र नन्वार्थाधिगम
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२२६
সনকাল
वर्ष ११
सूत्रपाठके नामसे उल्लेखित किया जाता है। उसपर एवं विशेषार्थोके द्वारा विषयका रोचक ढंगसे सर्वार्थसिद्धिभाष्यवादको बना और भाष्यकी टीकायें भी लिखी गई है। के आधारपर स्पष्टीकरण किया गया है, जिससे जिज्ञासु श्वेतांबरसूत्रपाठमें अनेक पाठ-भेद देखे जाते है जबकि दिग- पाठक उक्त सूत्रग्रन्थके रसका भली भांति आस्वादन कर म्बर समाजमें एकही सूत्र पाठ प्रमाण माना जाता है, उसी सकते है। पर सर्वार्थसिद्धि आदि अनेक टीकायें लिखी गई है।
इस ग्रन्थकी प्रस्तावनामें शास्त्रीजीने पं. फूलचन्द्र
__ जी सिद्धान्तशास्त्रीकी तत्वार्थसूत्रके कर्ता गर्दपिच्छाचार्य प्रस्तुत ग्रन्थकी यह नवीन टीका प्रकाशित हुई है। है उमास्वाति नही, इस कल्पनाको मान देते हुए उसे पुष्ट पंडित कैलाशचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीने इसे विद्यार्थियों करनेका प्रयत्न किया है। पंडितजीका यह प्रयत्न अभि
और स्वाध्यायप्रेमियोके लिए खासकर तैयार किया है। नन्दनीय है, पुस्तककी छपाई सफाई सुन्दर है। टीका समयोपयोगी और संक्षिप्त है और उसमें शंका समाधान
परमानन्द जैन
www
सन्तश्री वर्णी गणेशप्रसादजीका तीसरा पत्र
श्रीयुत महाशय पण्डित जुगलकिशोरजी योग्य इच्छाकार। आपके स्वास्थ्यका समाचार पढ़कर प्रसन्नता है हुई। मेरा तो यह विश्वास है जिनके निर्मल परिणाम होते है उनका संसार बन्धन छूट जाता है यह तो कोई बात नही आत्मा अनन्त शक्तिशाली है-अपनी भूलसे इतस्ततः भ्रमण कर रहा है यह सर्व मोहराजका विलास है जिस दिन उस पर विजय प्राप्त कर लिया आपही में परमात्मा है-लोककी कथा छोड़ो, जो आप द्वारा मार्मिक सिद्धान्न प्रतिपादन किया जाता है वे इतने पराजित मोहसे हो गए है जो उस तरफ देखते ही नहीं-यदि उस तरफ १ बार ही दृष्टि दे देवें तब १ दिनमें आपके साहित्यका उद्धार हो सकता है परन्तु बात तो कुछ विपरीत हो रही है-अब समयने पलटा खाया है आप अपने जीवनमें अपनी इच्छाकी पूर्ति देखकर निराकुल परलोककी यात्रा करेंगे-यदि बाबू छोटेलाल जी साहब सब तरफसे दृष्टि संकोच कर इस ओर ही लगादें तब अनायास यह कार्य हो जावे परन्तु कहे कौन-यह देश दरिद्र है अतः मै इस विषयको यहां व्यवहारमें नही लाता-जिन बड़े आदमियोंसे आशा है वे मुझे सुधारक कहकर टाल देते है अत मै अकिंचित्कर कोटिमें आगया हैं। आ० सुदि २ सं० २००९
आ० शु० चि० गणेश वर्णी
दुःखद वियोग !! यह लिखते हुए दुःख होता है कि बीरशासन जयन्तीके दिन जिन पूज्य आचार्य श्री सूर्यसागरजीका 'आरोग्य कामना' दिवस सारे भारतमें मनाया गया था उनका डालमियां नगरमें श्रावण वदी अष्टमीकी रात्रि को १२ बजकर २० मिनट पर समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया है। आचार्य सूर्यसागरजी जैन समाजके ही नहीं | किंतु भारतके अध्यात्म योगी थे। बड़े प्रभावशाली थे और अध्यात्म शास्त्रके प्रेमी थे। साथ ही वस्तुस्थितिके स्पष्ट वक्ता थे। आप अन्त तक सचेष्ट रहे और पंच नमस्कार मंत्र का उच्चारण करते हुए दिवंगत हुए। आपके इस दुःखद वियोगसे वीर-सेवा-मंदिर परिवार दुःखित चित्त हुआ हार्दिक भावना करता है कि आपको परलोकमें सुख-शान्ति की प्राप्ति हो।
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वीरसेवामन्दिरके चौदह रत्न (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्योकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि
ग्रन्थोमं उद्धृत दुमने प्राकृत पद्योकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योकी सूची। मयोजक और मम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी गवेषणापूर्ण महत्त्वको १७० पृष्ठकी प्रस्तावनामे अलंकृत, डा० कालीदाम नाग एम ए, डी लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम ए, डी लिट की भमिका (Introduction) मे विभूषित है, शोध-वोजके विद्वानोंके लिये अतीव उपयोगी, बडा साइज, मजिल्द
(प्रस्तावनादिका अलगमे मल्य ५ क ) (२) आप्तपरीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी म्वोपज्ञमटीक अपूर्वकृति, आप्नोको परीक्षा-द्वारा ईश्वर-विषयके मुन्दर
मग्म और मजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य प० दरबारीलालके हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे
युक्न, मजिल्द (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी मृन्दर पोथी, न्यायाचार्य प० दरबारीलालजीक सस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी पर्गिशष्टोमे अलकृत, मजिन्द ... (6) स्वयम्भूम्तोत्र-ममन्नभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोग्जीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्द
परिचय, ममन्तभद्र-रिचय ओर भक्तियोग. ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्त्वकी
गवेपणापूर्ण प्रस्तावनामे मुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-म्वामी ममन्तभद्रकी अनोग्वी कृनि, पापोके जीननेकी कला, मटीक, मानवाद और श्रीजुगलकिशोर मुन्तारकी महत्त्वकी प्रस्तावनाम अलकृत, मुन्दर जिल्द-महित।
शा) (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-चाध्यायीकार कवि गजमल्लकी मुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-महित
और मुम्तार श्रीजगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाम भूषित । (७) युक्त्यनुशासन--तन्वज्ञानगे परिपूर्ण ममन्तभद्रकी अमाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था । मन्नार श्रीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रम्नावनादिम अलकृत, मजिल्द। .. ११) (८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र--आचार्य विद्यानन्दर्गचत, महत्त्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित। .. ) (९) शासनचतुस्त्रिशिका--(नीर्थ-परिचय)--मुनि मदनकीनिकी १३वी शताब्दीकी मुन्दर रचना, हिन्दी ___ अनुवादादि-महिन। (१०) सत्साघ-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बादक २१ महान् आचार्योंके १३७ पृण्य स्मरणो का
महन्यपूर्ण मग्रह मुम्नाग्थीक हिन्दी अनुवादादि-हित। (५१) विवाह-समद्देश्य-मग्नाग्धीका लिखा हुआ विवाहका मप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन .. (१२) अनेकान्त-रम-लहरी-अनकान्त जैसे गूढ गभीर विषयका अतीव सग्लनामे ममझने-समझाने की कुजी,
मुन्नार श्रीजुगलकिशोर-लिखित। (१३) अनित्यभावना---श्रीपद्मनन्दी आचार्यकी महत्त्वकी रचना, मुख्तारधीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ
महित । (१८) तत्त्वार्थसूत्र (प्रभाचन्द्रीय)--मुम्ताग्थीक हिन्दी अनुवाद नथा व्याख्याम युक्त नोट--ये मब ग्रन्थ एकमाथ लेनेवालो को ३७॥) की जगह ३०) मै मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला'
मरसावा, जि. सहारनपुर ।
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"
जा जन
Regd. No. D. 211 Hamaanadaa E EEEEEEEEEEEEEET __ अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
अनेकान्त पत्रको स्थायित्व प्रदान करने और सुचारू रूपसे चलानेके लिये कलकत्ता2 में गत इन्द्रध्वज-विधानके अवसर पर (अक्तूबरमें) संरक्षकों और सहायकोंका एक नया ४ 5 आयोजन हुआ है। उसके अनुसार २५१) या अधिकको सहायता प्रदान करने वाले सज्जन "
'संरक्षक' और १०१) या इससे ऊपरको सहायता प्रदान करने वाले 'सहायक होते हैं । अब R तक 'अनेकान्त' के जो 'संरक्षक' और 'सहायक' बने है--उनके शुभ नाम निम्न प्रकार है :--
१५००) बा० नन्दलालजी सरावगी कलकत्ता २५१) ला० रघुवीरसिहजी, जैनावाचकम्पनी,देहली २० 18 २५१) बा० छोटेलालजी जैन "
१०१) ला० परमादीलाल भगवानदासजी पाटनी,, M. २५१) बा० सोहनलाल जी जैन
१०१) बा. लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदास जी " १०१) बा. घनश्यामदाम बनारसीदासजी कलकत्ता " २५१) बा० ऋषभचन्द्रजी (V.R.C.)जैन" १०१) वा. लालचन्द्रजी जैन सरावगी " २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा. मोतीलाल मक्खनलालजी कलकत्ता २५१) बा० रतनलालजी झाझरी
१०१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी २५१) सेठ बल्देवदासजी जैन
१०१) बा. कांगीनाथ जी, कलकत्ता २५१) सेठ गजगजजी गगवाल
१०१) वा. गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) बा० धनजयकुमारजी २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) बा० जीतमलजी जैन २५१) सेट मांगीलालजी
१०१) बा. चिरजीलाल जी मरावगी " २५१) सेठ शान्तिप्रसाद जी, जैन
१०१) बा० रतनलाल चॉदमलजी जैन, रॉची २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) ला० कपूरचन्द्र धूपचन्द्रजी, जैन कानपुर १०१) ला० रतनलालजी मादीपूरिया, देहली २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी देहली १०१) श्री फतेहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता से २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) गुप्तसहायक सदर बाजार एटा २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेमल जी, देहली १०१) श्री थीमाला देवी धर्मपत्नी डा० श्रीचन्द्र २५१) ला० त्रिलोकचन्द्र जी सहारनपुर
जी जैन 'सगल' एटा २५१) सेठ छदामीलाल जी जैन, फीरोजाबाद
१०१) ला० मक्खनलालजी ठेकेदार, देहली। २५१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर'
सरसावा, जि० महारनपुर
परमानन्द जैन शास्त्री c/o धूमीमल धरमदास, चावड़ी बाजार, देहली। मुद्रक नेगनल प्रिटिग वर्क्स, १० दरियागज, देहली
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जिनका
सर्वोदय तीथा
सर्वाऽन्तवत्तद्गुरण-मुख्य-कल्पं सर्वाऽन्त-शून्यच मियोऽनपेक्षम् सर्वा पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
श्रीवार जिनालय
M
लाकस्बभाब/बदय/सामान्य काऑनत्यजावा माक्ष | पाप परलोक/ विभाखा पाया
विगोष।
नत्र
असन्
सम्या मिथ्या
मि/आत्मा हयाप्रमाण भगमनपरमात्मा
पुक्ति
मन्त्री प्रमोद
Usereebfs/E
N
E
TEE
तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याहाद-पुण्योदध
व्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कली। येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्त
कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिं वीरं प्रणोमि स्फुटम्॥
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विषय-सूची
१ श्री पार्श्वनाथ-स्तुति और महपि-स्तुति
६. पूज्य वर्णीजीका एक आध्यात्मिक पत्र २४०
---सम्पादक २७, ७. अनेकान्तकी महायताका सदुपयोग २ ममन्तभद्र-वचनामृत
---युगवीर २२९ ८. कविवर बधजन और उनकी रचनाएँ ३ विश्व-गुद्धि पर्व पर्यपण
--परमानन्द जेन २८३ -वी वी. कोछल वकील २३३ जोधपुर इतिहासका एक आवरित पृष्ठ भाग्नके अहिमक महमना मन्तथी पूज्य
अगरचन्द नाहटा २८८ गणेशप्रसादजी वर्णीकी वर्षगाठ २३४ १० श्री कुन्दकुन्दाचार्य --परमानन्द जैन ५ आन्मविद्याको अट धाग
११ म्व० थी दीनानाथ जी मगवगी. कलकना -~-वाब जयभगवान एडवोकेट -३५ ।
--मम्पादक २५५
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग (१) अनेकान्तके 'संरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और वनाना। (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको वनाना । (३) विवाह-शादी आदि दानके अवमरोंपर अनेकान्तको अच्छी महायता भेजना
तथा भिजवाना । (४) अपनी ओरसे दूसरोको अनेकान्त भेट-म्वरूप अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या
संस्थाओं, लायबेरियों, सभा-मोसाइटिया और जैन-अजैन विद्वानोको । (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमे देनेके लिये २५),५०)आदिकी महायता
भेजना। २५) की सहायतामें १०को अनेकान्त अर्थमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमे देना तथा दिलाना। (७) लोकहितकी साधनाम सहायक अच्छे मुन्दर लेग्व लिखकर भेजना तथा चित्रादिसामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना ।
महायनादि भंजन तथा पत्रव्यवहारका पता-- नोट--दस ग्राहक बनानेवाले महायकोको 'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेटस्वरूप
मैनेजर 'अनेकान्त' | वीरसेवामंदिर, सरसावा जि. सहारनपुर ।
भेजा जायगा ।
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ॐ अहम्
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ५)
इस किरणका मूल्य ॥)
नीतिक्रोिषवसीयोकव्यवहारवर्तक-सम्यक् ।। परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनान्तर
वर्ष ११ किरण ६
।
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
वीरसेवामन्दिर सरसावा जि. सहारनपुर भाद्रपद शुक्ल, वीर-संवत् २४७८, विक्रम संवत् २००६
अगस्त १६५२
श्रीपार्श्वनाथ स्तुति और महर्षि स्तुति
प्रस्तुत 'पार्श्वनाथस्तुति' और 'महर्षिस्तुति' ये दोनों ही हालमे देहली पंचायती मन्दिरके शास्त्रभंडार (गुटका नं.६) से उपलब्ध हुई है। पहली स्तुति 'वेणु' वर्णीको रचना है जैसाकि उसके पद्य नं. ९ से जाना जाता है; परन्तु ये वर्णी महाशय किसके शिष्य थे और कब हुए है इसका कोई पता स्तोत्रसे नहीं चलता । इनकी दूसरी कोई कृति भी अभी तक सामने नही आई अतः इस विषयमें खोजकी जरूरत है। यहांपर सिर्फ इतना ही प्रकट किया जाता है कि जिस गुटकेमें यह स्तुति पाई जाती है उसकी विषय-सूची पुस्तक-संचिका-दृष्टिक' “संवत् १७६५ अश्विनवदि ९ शनि" की लिखी हुई है। इससे यह स्तुति उक्त संवत् या उससे पहलेकी रचना जान पड़ती है, इतना तो सुनिश्चित है। विशेष हाल बादके अनुसंधानपरसे मालूम हो सकेगा। दूसरी 'महर्षिस्तुति' मे कर्ताका नामादिक दिया हुआ नहीं है । संभव है कि किसी ग्रंथका यह एक अंश हो और उसी परसे उद्धृत हो। जिन जिन विद्वानोंको इसके विषयका विशेष हाल मालूम हो उन्हें उसको प्रकट करना चाहिए। यह भी स्तुति उक्त सवत्-जितनी पुरानी तो जरूर ही है। दोनों ही स्तुतियां अच्छी सुन्दर हैं, और इसीसे उन्हें अनेकान्त-पाठकोके अवलोकनार्थ यहा प्रकट किया जाता है।
-सम्पादक श्रीपार्श्वनाथ-स्तुतिः भविक-कामिक-बान-सुखमः पब-नसावलि-निजित-बिनुमः । सुयशसा-परिपूर्ण-विशान्तरः सूजतु मां मम पार्वजिनेश्वरः ॥१॥
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२२८
अनेकान्त
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प्रणय-सम-सुरासुर-राजितः महिकदापि परंपच पराजितः । अवगताधिक-सोकपरंपर सुजतु मां मम पाश्र्वजिनेश्वरः ॥२॥ दुरित-बाव-बनापन-तुल्यतां अयति यो यतियोग्य-समस्तताम् । कमठ-तापस-मान-समुखर सुजतु मां मम पार्वजिनेश्वरः ॥३॥ बत-रमाधितवानपहापयः सकल-राज्यरमा-परमात्रयः । कमल-कोमल-पादतलो बरः सुजतु मां मम पार्वजिनेश्वरः ॥४॥ हृदयमाव-ताऽमरसुन्दरी-कृत-गुणस्तुति-रागतरौ करी ॥ सुषट-सप्तफणावलि-सुन्दरः सुजतु मां मम पाश्र्वजिनेश्वरः ॥५॥ शुचि-बचोरस-सुप्रतिबोषिताऽखिल-सभाजनतोत्सवः पिता । परणराज्य-निषेव्य-कृपाकरः सुजतु मां मम पार्श्वजिनेश्वरः ॥६॥ प्रचित-सगुणरल-रमाश्रितः सकल-साधुजनालिभिराद्रितः । मित-समस्तनयो विजितस्मरः सृजतु मां मम पार्श्वजिनेश्वरः॥७॥ विलसबंशुकलातिशयोवधिः सुख-समावि-सुमान-दयानिषिः । विवलिताखिल कुष्टदरोबरः सुजतु मां मम पाश्र्वजिनेश्वरः॥८॥ श्रीपाश्र्वनाथस्य जिनस्येयं स्तुतिः कृता मया सेवक-वेण-वणिना। पठन्ति ये केपि भजन्ति ते सुखंभवत्यमीषामपि शास्वतं पदम् ॥९॥
इह जगति महिम्ना सेवधिः पार्श्वनाथः सफल-सुख [स] मृविधेणिवीरुत्सुपायः । स्तुति इति जयमाला नाम नुत्पास्तु भक्त्या रचयतु जयमालां सेवितः साधु-भक्त्या ॥१०॥ इति श्रीपाश्र्वनाथस्तुतिः समाप्ता ।
श्रीमहषि-स्तुतिः महायोगिन् नमस्तुभ्यं महामाश नमोऽस्तु ते । नमो महात्मने तुम्यं नमोऽस्तु ते महीये ॥१॥ नमो विषिर्षे तुभ्यं नमो देशाऽवधि-विवे।परमाऽवषये तुभ्यं नमः सर्वाऽवधि-त्विषे ॥२॥ कोष्ठ-पुढे नमस्तुभ्यं नमस्ते बीजबुद्धये । पदानुसारि संभिन्नश्रोत्र तुभ्यं नमोनमः ॥३॥ नमोस्त्वधूमते तुभ्यं नमस्ते विपुलात्मने । नमः प्रत्येकबुद्धाय स्वयंबुद्धाय वै नमः ॥४॥ अभिनवापूवित्वात्राप्तपूजाय ते नमः। नमस्ते पूर्वविद्यानां विश्वासां पारशिवने ॥५॥ दीप्तोप-तपसे नित्यं नमस्तप्त-महातपः । नमो घोरगुणाह्मचारिणे घोर तेजसे ॥६॥ नमस्ते विकिय नामष्टपा-सिद्धिमीयुवे । आमर्ष-बेलि-वाग्विषट्-जल-संबौषधे नमः ॥७॥ ममोऽमृत-मधु-सीर-सपि-संबाविने स्तुते । नमोमनो-वच:-काय-बलिना ते बलीयसे ॥८॥ बल-बा-फल-भणी-सन्तु-पुष्याम्बरांश्च यान् । चारणाडि-शुषे तुभ्यं नमोऽक्षीणसमृद्धये ॥९॥ त्वमेव परमो बन्दुस्त्वमेव परमो गुरुः । त्वमेव सेव्यमानानां भवन्ति ज्ञानसम्पदः ॥१०॥ स्वयंव भगवविश्वविहिता धर्मसंहिता । अतएव नमस्तुभ्यममी कुर्वन्ति योगिनः ॥११॥ स्वत्त एव वरं यो मन्यमानास्ततोषयम्। तबपाहि यच्छायान्वयातिक्याबुपास्महे ॥१२॥ बामगुप्तेस्तस्तुतोहानिर्मनीगुप्तेस्तव स्मृती। कायगुप्त-प्रणामेन काममस्तु सवाजपिने ॥१३॥
पति महर्षि-स्तुति-विधानं समाप्तमिति मंगलं।
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समन्तभद्र-वचनामृत
स्वामी समन्तभद्रने, अपने समीचीन-धर्मशास्त्रमें, (पूर्वनिर्दिष्ट हिंसादि-विरति-लक्षण) चारित्र 'सकल' सम्यक्चारित्रका वर्णन करते हुए, जिस वचनामृतकी वर्षा
(परिपूर्ण) और 'विकल' (अपूर्ण) रूप होता हैकी है उसका कुछ रसास्वादन यहां अनेकान्तके पाठकोंको
महाव्रत-अणुव्रतके भेदसे उसके दो भेद है । सर्वसंगसेकराया जाता है:
बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहसे-विरक्त हिंसा-ऽनृत-चौर्येभ्यो मैथुनसेवा-परिपहाभ्यां च। पाप-प्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥४९॥
गृहत्यागी मुनियोंका जो चारित्र है वह सकलचारित्र 'हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुनसेवा और परिग्रह रूप जो
(सर्व संयम) है, और परिग्रहसहित गृहस्थोंका जो चारित्र पाप-प्रणालिकाएं है-पापास्रवके द्वार हैं, जिनमें होकर ह वह विकलचारित्र (दशसयम) है।" ही ज्ञानवरणादि पाप-प्रकृतियां आत्मामें प्रवेश पाती हैं और व्याल्या-यहां चारित्रके दो भेद करके उनके इसलिये पापरूप है-उनसे जो विरक्त होना है-तद्रूप प्रवृत्ति स्वामियोंका निर्देश किया गया है । महाव्रतरूप सकलचारित्रन करना है-वह सम्यग्ज्ञानीका चारित्र अर्थात् सम्यक् के स्वामी (अधिकारी) उन अनगारों (गृहत्यागियों) को चारित्र है।'
बतलाया है जो संपूर्णपरिग्रहसे विरक्त है, और अणुव्रतरूप व्याख्या-यहां 'संज्ञस्य' पदके द्वारा सम्यक् चारित्र विकलचारित्रके स्वामी उन सागारों (गृहस्थों) को प्रकट के स्वामीका निर्देश किया गया है और उसे सम्यग्ज्ञानी किया है जो परिग्रहसहित हैं और इसलिये दोनोंके 'सर्वसंगबतलाया गया है। इससे स्पष्ट है कि जो सम्यग्ज्ञानी नहीं विरत' और 'संसंग' इन दो अलग अलग विशेषणोंसे स्पष्ट उसके सम्यक्-चारित्र होता ही नहीं-मात्र चारित्र-विषयक है कि जो अनगार सर्वसंगसे विरक्त नहीं है-जिनके मिथ्याकुछ क्रियाओंके कर लेनेसे ही सम्यक् चारित्र नहीं बनता, स्वादिक कोई प्रकारका परिग्रह लगा हुआ है- गृहउसके लिये पहले सम्यग्ज्ञानका होना अति आवश्यक है। त्यागी होनेपर भी सकलचारित्रके पात्र या स्वामी नहीं
हिंसाके लिये इसी ग्रंथमें आगे, 'प्राणातिपात' यथार्थमें महाव्रती अथवा सकलसंयमी नहीं कहे जा सकते; (प्राणव्यपरोपण,प्राणघात), 'वध' तथा 'हति' का; अनृत- जैसे कि द्रव्यलिंगी मुनि, आधुनिक परिग्रहधारी भट्टारक के लिये 'वितथ', अलीक' तथा मृषाका एवं फलितार्थ- तथा ११ वी प्रतिमामें स्थित क्षुल्लक-ऐलक । और जो सागार के रूपमें असत्यका; चौर्यके लिये 'स्तेय' का; मैथुनसेवा- किसी समय सकलसंगसे विरक्त है उन्हें उस समय गृहमें के लिये 'काम' तथा 'स्मर' का एवं फलितार्थ रूपमें 'अब्रह्म' स्थित होने मात्रसे सर्वथा विकलचारित्री (अणुव्रती) नहीं का; और परिग्रहके लिये 'संग', 'मूर्छा' (ममत्वपरिणाम) कह सकते वे अपनी उस असंगदशामें महाव्रतकी ओर तथा 'इच्छा' का भी प्रयोग किया गया है। और इसलिये बढ़ जाते है। यही वजह है कि ग्रंथकार महोदयने सामायिकमें अपने अपने वर्गके इन शब्दोंको एकार्थक, पर्यायनाम स्थित ऐसे गृहस्थोंको 'यति भावको प्राप्त हुआ मुनि' अथवा एक दूसरेका नामान्तर समझना चाहिए। लिखा है (कारिका १०२) और मोही मुनिसे निर्मोही सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंग-विरतानाम् । गृहस्थको श्रेष्ठ बतलाया है (का. ३३)। और इससे यह नतीजा अनगाराणा, विकलं सागाराणां ससंगानाम् ॥५०॥ निकलता है कि चारित्रके 'सकल' या 'विकल' होनेमें प्रधान
+देखो, हिसावर्गके लिए कारिका ५२,५३,५४,७२,७५ कारण उभय प्रकारके परिग्रहसे विरक्ति तथा अविरक्ति से ७८,८४; अनृतवर्गके लिए कारिका ५२,५५,५६, है-मात्र गृहका त्यागी या अत्यागी होना नहीं है । अतः चौयंवर्गके लिए कारिका ५२,५७ मधुनसेवावर्गके लिए 'सर्वसंगविरत' और 'ससंग' ये दोनों विशेषण अपना खास कारिका ५२,६०,१४३; और परिग्रहवर्गके लिए कारिका महत्व रखते हैं और किसी तरह भी उपेक्षणीय नहीं कहे ५०,६१।
जा सकते।
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२३०
अनेकान्त
[वर्ष ११
--
गृहिगां वा तिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षा-प्रतात्मकं चरणम् । जाता है कि यहां कारणमें कार्यका उपचार करके पापके पंच-त्रि-चतुर्भेवं त्रयं ययासंल्यमापनम् ॥५१॥ कारणोंको 'पाप' कहा गया है । वास्तवमें पाप मोहनीयादि
'गृहस्योका (विकल) चारित्र अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षा- कर्मोकी वे अप्रशस्त प्रकृतिया है जिनका आत्मामें आस्रव व्रतरूपसे तोन प्रकारका होता है। और वह व्रतत्रयात्मक तथा बन्ध इन हिंसादिरूप योगपरिणतिसे होता है और चारित्र क्रमशः पांच-तीन-चार भेदोंको लिये हुए कहा गया
इसीसे इनको 'पापप्रणालिका' कहा गया है । स्वयं ग्रन्थकार है-अर्थात्, अणुव्रतके पाच, गुणव्रतके तीन और शिक्षाव्रत
महोदयने अपने स्वयम्भूस्तोस्त्रमें 'मोहरूपो रिशुः पापः
कषायभंटसाधनः' इस वाक्यके द्वारा 'मोह' को उसके के चार भेद होते हैं।'
क्रोधादि-कषाय-भटो-सहित 'पाप' बतलाया है और देवागम विकल चारित्रके इन भेदों तथा उपभेदोका क्रमशः
(९५)तथा इस ग्रन्थ (का. २७) में भी 'पापासव' जैसे शब्दोवर्णन करते हुए स्वामीजी लिखते है:
का प्रयोग करके कर्मोकी दर्शनमोहादिरूप अशुभ प्रकृतियोंप्रागातिपात-वितव्याहार-स्तेय-काम-मूर्छाभ्यः
को ही 'पाप' सूचित किया है। तत्त्वार्थसूत्रमें श्री गृध्रपिच्छास्यूलेभ्यः पापेभ्यः व्युपरमगमणुव्रतं भवति ॥५२॥
चार्यने भी 'अतोऽन्यत्पापं' इस सूत्रके द्वारा सातावेदनीय, 'स्थूल प्राणातिपात-मोटे रूपमें प्राणोके घातरूप
शुभआयु, शुभनाम और शुभ (उच्च) गोत्रको छोड़कर स्थूलहिंसा, स्थूल वितथव्याहार-मोटे रूपमें अन्यथा कथन
शेष सब कर्मप्रकृतियोको 'पाप' बतलाया है। दूसरे भी रूप स्थूल असत्य, स्थूलस्तेय-मोटे रूपमे परधनहरणादि
पुरातन आचार्योका ऐसा ही कथन है । अतः जहा कही भी रूप स्थूल चौर्य (चोरी), स्थूल काम-मोटे रूपमे मैथुन- हिसादिकको पाप कहा गया है वहां कारणमें कार्यकी दृष्टि सेवारूप स्थूल अब्रह्म, और स्थूलमूर्छा-मोटे रूपमें सनिहित है, ऐसा समझना चाहिए। ममत्वपरिणामरूप स्थूल-परिग्रह, इन (पांच) पापोसे जो संकल्पात्कृत-कारित-मननाद्योग-त्रयस्य चर-सत्वान् । विरक्त होना है उसका नाम 'अणुव्रत' है।
न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूल-वधाद्विरमणं निपुणाः ॥५३॥ व्याख्या-यहां पापोके पांच नाम दिए है, जिन्हे अन्यत्र
'संकल्पसे-सकल्पपूर्वक (इरादतन) अथवा शुद्ध दूसरे नामोंसे भी उल्लेखित किया है, और उनका स्थूल
स्वेच्छासे-किए गए योगत्रयके-मन-वचन-कायके-कृतविशेषण देकर मोटे रूपमे उनसे विरक्त होनेको 'अणुव्रत'
कारित-अन मोदनरूप व्यापारसे जो त्रस जीवोंका लक्ष्यबतलाया है। इससे दो बातें फलित होती है-एक तो यह कि भूत द्वीन्द्रियादि प्राणियोका-प्राणघात न करना है उसे इन पापोका सूक्ष्मरूप भी है और इस तरहसे पाप स्थूल- निपुणजन (आप्तपुरुष वा गणधरादिक) 'स्थूलवधविरमण' सहमके भेदसे दो भागोमें विभक्त है। अगली एक कारिका --अहिंसाऽण व्रत-कहते है । ('सीमान्तानां परतः' नं. ९५) में स्थूलेतरपंचपाप
ध्याल्या-यहा 'संकल्पात्' पद उसी तरह हेतुरूपमें संत्यागात्' इस पदके द्वारा इन पाच पापोंके 'स्थूल' और
प्रयुक्त हुआ है जिस तरह कि तत्त्वार्थसूत्र में 'प्रमत्तणेगात्' 'सूक्ष्म' ऐसे दो भेदोंका स्पष्ट निर्देश भी किया गया है और
और पुरुषार्थसिद्धयुपायमे 'कषाययोगात्' पदका प्रयोग पाया ६८ वी तथा ७० वों कारिकाओंमें सूक्ष्मपापको 'अणुपाप'
जाता है*, और यह पद आरम्भादिजन्य त्रसहिंसाका निवर्तक नामसे और ५७ वी कारिकामें स्थूल पापको 'अकृश'
(अग्राहक) तथा इस व्रतके व्रतीकी शुद्ध स्वेच्छा अथवा शब्दसे उल्लेखित किया है, इससे 'अणु' और 'कृश' भी सूक्ष्मके
स्वतंत्र इच्छाका सद्योतक है । और इसके द्वारा व्रतकी नामान्तर है। दूसरी बात यह कि सूक्ष्मरूपसे अथवा पूर्णरूपसे इन पापोंसे विरक्त होनेका नाम 'महाव्रत' है, जिसकी
अणुताके अनुरूप जहा त्रसहिंसाको सीमित किया गया है वहां सूचना कारिका ७०,७२ और ९५ से भी मिलती है।
___ * "प्रमत्तयोगात्माणव्यपरोपणं हिंसा" इसके सिवाय, जिन्हें यहां 'पाप' बतलाया गया है उन्हें
तत्वार्षसूत्र ७-१३ ही चारित्रका लक्षण प्रतिपादन करते हुए पिछली एक कारिका "यत्वल कवाययोगात्प्राणानां द्रव्य-भाव-रूपाणां । (४९) में 'पापप्रणालिका' लिखा है, और इससे यह जाना व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिसा॥पुरु
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समन्तभद्र-वचनामृत
२३१
यह भी सूचित किया गया है कि इस (संकल्प) के बिना वह तथा दूसरे किसी प्रतिबन्धादिके द्वारा शरीर (संकल्पी) असहिंसा नही बनेगी । और यह ठीक ही है; और वचनपर यथेष्ट-गति-निरोधक अनुचित रोक-थाम क्योंकि कारणके अभावमें तज्जन्य कार्यका भी अभाव होता लगाना-, पीडन-दण्ड-बाबुक-वेत आदिके अनुचित है। और इस 'संकल्पात्' पदकी अनुवृत्ति अगली 'सत्याणुव्रत' अभिघात-द्वारा शरीरको पीड़ा पहुंचाना तथा गाली आदि आदिका लक्षण प्रतिपादन करनेवाली कारिकाओंमें उसी कटुक वचनोंके द्वारा किसीके मनको दुखाना-, अतिभाराप्रकार चली गई है जिस प्रकार कि तत्त्वार्थसूत्र में 'प्रमत्त
रोपण-किसी पर उसकी शक्तिसे अथवा न्याय-नीतिसे योगात्' पदकी अनुवृत्ति अगले असत्यादिके लक्षण-प्रतिपादक
अधिक कार्यभार, करभार, दण्डभार तथा बोझा लादना--, सूत्रोमें चली गई है।
और आहार-वारणा-अपने आश्रित प्राणियोके अन्न-पानाशुद्ध स्वेच्छा अथवा स्वतत्र इच्छा ही संकल्पका प्राण है, इसलिए वैसी इच्छाके बिना मजबूर होकर जो अपने
दिका निरोध करना, उन्हें जानबूझकर शक्ति होते यथासमय प्राण, धन, जन, प्रतिष्ठा तथा शीलादिकी रक्षाके लिए
और यथापरिमाण भोजन न देना-, ये पांच स्थूलवधविरोधी हिंसा करनी पडे वह भी इस व्रतकी सीमासे बाहर
विरमणके अहिंसाऽणुव्रतके-अतीचार है-सीमोल्लंघन है । इस तरह आरम्भजा और विरोधजा दो प्रकारकी अथवा दोष है।' त्रसहिंसा इस संकल्पी त्रसहिंसाके त्यागमें नही आती। पंच- व्याख्या-यहां जिस सीमोल्लंघन अथवा दोषके लिए सूना और कृषिवाणिज्यादिरूप आरम्भ-कार्योंमें तो किसी 'व्यतीचार' शब्दका प्रयोग किया है उसीके लिए ग्रन्थमे आगे व्यक्तिविशेषके प्राणाघातका कोई संकल्प ही नही होता, क्रमशः व्यतिक्रम, व्यतीपात, विक्षेप, अतिक्रमण, अत्याश,
और विरोधजा हिसामें जो सकल्प होता है वह शुद्ध व्यतीत, अत्यय, अतिगम, व्यतिलंघन और अतिचार शब्दोंका स्वेच्छासे न होनेके कारण प्राणरहित होता है, इसीसे इन प्रयोग किया गया है*, और इसलिए इन सब शब्दोंको दोनोंका त्याग इस व्रतकी कोटिमे नही आता । इन दोनों एकार्थक समझना चाहिए। प्रकारकी हिंसाओकी छूटके बिना गृहस्थाश्रम चल नही सकता, स्थूलमलीकं न वदति न परान्वावयति सत्यमपि विपदे। राज्य व्यवस्था बन नही सकती और न गृहस्थजीवन व्यतीत यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावाव-बैरमणम् ॥५५॥ करते हुए एक क्षणके लिए ही कोई निरापद या निराकुल '(संकल्पपूर्वक अथवा स्वेच्छासे) स्थूल अलीककोरह सकता है। एक मात्र विरोधिहिंसाका भय कितनोंको ही मोटे झूठको-जो स्वयं न बोलना और न दूसरोसे बुलवाना दूसरोके धन-जनादिकी हानि करनेसे रोके रहता है। है, तथा जो सत्य विपदाका निमित्त बने उसे भी जो स्वय न यहापर इतना और भी जान लेना चाहिए कि 'हिनस्ति' बोल
बोलना और न दूसरोसे बुलवाना है, उसे सन्तजन-आप्त पदके अर्थरूपमें, हिंसाके पूर्वनिर्दिष्ट पर्यायनाम 'प्राणाति
पुरुष तथा गणधरदेवादिक-स्थूलमृषावाद वैरमण'पात' को लक्ष्यमें रखते हुए प्राणाघातकी जो बात कही गई। है वह व्रतकी स्थूलतानुरूप प्राय: जानसे मारडालने रूप
सत्याणुव्रत-कहते हैं।' प्राणघातसे सम्बन्ध रखती है, और यह बात अगली कारिका
व्याख्या-यहा स्थूल अलीक अथवा मोटा झूठ क्या? मे दिए हुए अतीचारोको देखते हुए और भी स्पष्ट हो जाती
यह कुछ बतलाया नही-मात्र उसके न बोलने तथा न बुलहै । क्योकि छेदनादिक भी प्राणघातके ही रूप है, उनका
वानेकी बात कही है, और इसलिए लोकव्यवहारमें जिसे समावेश यदि इस कारिका-वणित प्राणघातमें होता तो उन्हें मोटा झूठ समझा जाता हो उसीका यहां ग्रहण अभीष्ट जान अलगसे कहने तथा 'अतीचार' नाम देनेकी जरूरत न रहती।
पड़ता है। और वह ऐसा ही हो सकता है जैसा कि शपथअतीचार अभिसन्धिकृत-व्रतोंकी बाह्य सीमाएं है।
साक्षीके रूपमे कसम खाकर या हलफ़ उठाकर जानते-बूझते छबन-बन्धन-पीडनमतिभारारोपणं व्यतीचाराः ।।
अन्यथा (वास्तविकताके विरुद्ध) कथन करना, पंच या जज आहारवाणाऽपि च स्थूलवषाव्यपरतेः पंच ॥५४॥
(न्यायाधीश)आदिके पदपर प्रतिष्ठित होकर अन्यथा कहना 'छेदन-कर्ण-नासिकादि शरीरके अवयवोंका परहित- *देखो, कारिका नं. ५६,५८,६२,६३,७३,८१,९६, बिरोपिनीवष्टिसे छेदना-भेदना-मन्धन-रस्सी, जंजीर १०५११०,१२९ ।
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२३२
[वर्ष
कहलाना या निर्णय देना, धर्मोपदेष्टा बनकर अन्यषा उपदेश किसीकी विपदाका कारण हो, यह एक खास बात है और देना और सच बोलनेका आश्वासन देकर या विश्वास दिला- इससे यह साफ सूचित होता है कि अहिंसाकी सर्वत्र प्रधानता कर झूठ बोलना (अन्यथा कथन करना) । साथ ही ऐसा है, अहिंसावत इस व्रतका भी आत्मा है और उसकी अनुझूठ बोलना भी जो किसीकी विपदा (संकट वा महाहानि) वृत्ति उत्तरवर्ती व्रतोंमें बराबर चली गई है। का कारण हो; क्योकि विपदाके कारण सत्यका भी जब परिवाब-रहोऽभ्याझ्या पैशून्यं कूटलेखकरणं च । इस व्रतके लिए निषेध किया गया है तब वैसे असत्य बोलने न्यासापहारिता व्यतिक्रमाः पंच सत्यस्य ॥५६॥ का तो स्वतः ही निषेध हो जाता है और वह भी स्थूलमषा- 'परिवाद-निन्दा-गाली-गलौच, रहोभ्याख्या-गुह्य वादमें गभित है । और इसलिए अज्ञानताके वश (अजान- (गोपनीय) का प्रकाशन, पैशून्य-पिशुनव्यवहार-चुगली, कारी) या असावधानी (सूक्ष्मप्रमाद) के वश जो बात
तथा कूटलेखकरण-मायाचारप्रधान लिखावट-द्वारा जालबिना चाहेही अन्यथा कही जाय या मुंहसे निकल जाय उसका
साजी करना अर्थात् दूसरोंको प्रकारान्तरसे अन्यथा विश्वास स्थूल मृषावादमें ग्रहण नहीं है। क्योंकि अहिंसाणुव्रतके
करानेके लिए दूसरोंके नामसे नई दस्तावेज या लिखावट लक्षणमें आए हुए 'संकल्पात् ' पदकी अनुवृत्ति यहां भी है।
तैयार करना, किसीके हस्ताक्षर बनाना, पुरानी लिखावटजैसाकि पहले उसकी व्याख्यामें बतलाया जा चुका है। इसी
में मिलावट अथवा काट-छांट करना या किसी प्राचीन तरह ऐसे साधारण असत्यकी भी इसमें परिगणना नहीं है
ग्रन्थमेंसे कोई वाक्य इस तरह से निकालदेना या उसमें बढ़ा जो किसीके ध्यानको विशेषरूपसे आकृष्ट न कर सके अथवा
देना जिससे वह अपने वर्तमान रूपमें प्राचीन कृति या अमुक जिससे किसीकी कोई विशेष हानि न होती हो।
व्यक्तिविशेषकी कृति समझी जाय--और न्यसापहारिताइसके सिवाय, बोलने-बुलवाने में मुखसे बोलना-बुल- धरोहरका प्रकारान्तसे अपहरण अर्थात् ऐसा वाक्य-व्यवहार वाना ही नहीं बल्कि लेखनीसे बोलना-बुलवाना अर्थात् जिससे प्रकटरूपमें असत्य न बोलते हुए भी दूसरेकी धरोहरका लिखना-लिखाना भी शामिल है।
पूर्ण अथवा आंशिक रूपमें अपहरण होता हो, ये सब सत्यायहां ऐसे सत्यको भी असत्यमें परिगणित किया है जो णुव्रतके अतीचार है।
-युगवीर
वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टके उद्देश्योंका सार वीरसेवामन्दिर और उसके ट्रस्टके जो उद्देश्य एवं ध्येय ट्रस्ट नामाकी आठ कलमों (उपधाराओं) में यत्किचित् विस्तारके साथ दिये गये हैं उनका पंचसूत्री सार इस प्रकार है :
१. जैनपुरातत्वसामग्रीका अच्छा संग्रह, संकलन और प्रकाशन । २. महत्वके प्राचीन जैनग्रन्थोंका उद्धार । ३. लोक-हितानुरूप नव-साहित्यका सृजन, प्रकटीकरण और प्रचार । ४. जनताके आचार-विचारको ऊंचा उठानेका सुदृढ प्रयत्न।
५. जैनसाहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान-विषयक अनुसंधानादि कार्योका प्रसाधन तथा उनके प्रोत्तेजनार्थ वृत्तियोंका विधान और पुरस्कारादिका आयोजन ।
अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर
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विश्व-शुद्धिका पर्व पर्यषण
(श्री वी० बी० कोछल वकील ) मानव-शुद्धिपर विश्वकी शुद्धि होना निर्मर है। विरति-विधान कराना मनीषियोंने ठीक समझा। कितने दर्शन विशुद्धि वह प्रशस्त अमर प्रदीप है जिसमें विश्वके महान् दूरदर्शी ये वे, कितना भरा था समाज-प्रेम उनमें, वे चेतन और अचेतन द्रव्योंके समस्त रहस्य खुल जाते हैं। सुधारवादी नहीं थे कितने अधिक थे वे क्रान्तिकारी, परिवर्तनमानवता प्राणवती तभी होती है जब वह अपनेको विज्ञान कारी, कितने महान् विप्लववादी थे वे कि जिन्होंने मिथ्यात्व की प्रयोगशाला (Laboratory) मानकर, अपनी और अज्ञानको समाजसे हटानेके लिये धार्मिक जहादकी अशुद्धिका कारण ढूंढनेके प्रयासमें संलग्न होती है स्व- घोषणा इस पर्वमें कर दी। और प्रत्येक व्यक्तिको पर्वृषणी निरीक्षण और परीक्षण करनेके बाद परिणाम सिद्धि निकालती बना दिया । शारीरिक शुद्धि-मानसिक शुद्धि और आत्मशुद्धिहै । बन्धनको सयुक्ति ही उसे मुक्तिकी चाह पैदा करती की सामूहिक योजना बनाकर प्रवृत्तिमें निवृत्तिके अनुष्ठान है। इसमें व्यक्त और अव्यक्त तत्वोंकी संश्लिष्टि है, यही संयोजित कर दिये, और समाजमें नवीन उन्नतिकी होड़ कारण है कि वह अव्यक्त होना चाहती है । अचेतन शक्तियों- पैदा कर दी; सामयिक आदि षट् आवश्यककर्मोको के मोहमें वह व्यक्त होकर विपरीत दर्शन कर रही है और नियोजित कर दिया। और मानवको तीर्थ बनानेके लिये उन्हींके व्यापारमें रत होकर आबद्ध हो रही है। अविपरीत उपवास-उपाहारसे शरीर-शुद्धि, विरति भावसे रति शुद्धिदष्टि हो जानेपर वह अपनी स्वशुद्धिके निर्माणमें लग के अनुष्ठान यज्ञ प्रारम्भ कर दिये, जनमात्रको इस जहादजाती है-यही प्राथमिक दर्शनविशुद्धि हो जानेपर, उसके में निरत कर धर्म प्रभावनाके कार्यमें संलग्न कर दिया जीवनके समस्त व्यापार प्रतिशोधर्म संलग्न हो जाते हैं। और प्रामाणिक पुरुषोंने दर्शनविशुद्धि आदि षोडशकिरणोंदर्शन-विकारके कारण जो भावोंके निक्षेप और विकल्प की प्रशस्त ज्योति (Flash Light) छोड़ना प्रारम्भ उसमें पैदा हो रहे थे वे शनः २ निरपेक्ष और निर्विकल्प कर दिया और मानव हृदस्थित करण-लब्धियां जाग्रत कर हो जाते है। और साम्यदृष्टि हो जानेसे-पुद्गल वर्गणा तीयोंकी समष्टि करदी और घोषणा करदी कि प्रत्येक मानव और अनंत व्यापार निदर्शित हो जानेस-वह अनंतदी, तीर्थ है" और तीर्थकर हो सकता है-उसमें उत्तम शमादि तत्त्वजनित भावोंके विलय हो जानेसे अनंतशानी और दश धोको सत्तात्मक निधि मौजूद है कहीं बाहरसे किरायेउनकी स्वतंत्र क्रियाओंका अनुभव हो जानेपर अनंत- से उसे लाना नही पड़ता है। माथ ही 'अहिंसा भूतानां जगति चारित्रकी निधि "पूर्ण सिद्धि" को पा लेता है पर द्रव्योंके विदितं ब्रह्म परमम्' का झंडा फहराते हुए; आदेशना करदी (Control) हट जानेसे वह दिव्य दृष्टि अर्हन् बन जाता कि विश्वके समस्त तत्त्व मानव पर्यायमें निहित होकर है, और उसमें विश्वशुद्धि क्रिया अनवरत रूपसे चालू रहती आये हैं। विश्वनिर्माण ही स्वच्छ है, उसमें समस्त द्रव्योंके है। इसी विश्वशुद्धिके मार्गको चालू रखनेके लिये विज्ञा- नग्न और मुक्त व्यापार हो रहे है,वे सब दिगम्बरी है। मानवनियोंने भाद्रपदको संवत्सरी प्रतिक्रमणके लिये प्रशस्त को पूर्ण सिद्धि इसी दिगम्बरत्वमें है, यही अव्यक्त तत्त्व है समझ कर इसे सामाजिक शुद्धिका पर्व निश्चित किया। जिसकी प्राप्ति पर मानव धर्म-जैन धर्म-विश्व धर्म हो
प्रतिवर्ष भाद्रपद आता है और साथ साथ विरति पर्व जाता है। हरएक मानवका कर्तव्य है कि वह विश्वको गंदा न लाता है। इस मासमें रति-क्रिया चक्र स्थितिको प्राप्त होती करे। जो गंदा करता है उसे जमीन पर जीना मरना पड़ता है; वर्षा कारण मानव बाह्म व्यापारकी गति संस्थानको है और दुःख उठाने पड़ते हैं और वह मुक्तिका व्यापारी प्राप्त होती है और अनुष्ठान वतादि स्वयं जागृत हो उठते नहीं बन सकता। शाश्वत लोककी यही संदृष्टि है और है। व्रत-पर्व भी वैज्ञानिक रहस्यसे खाली नहीं है-समाजमें यही अमर प्रकाश है, जिसमें पर्दूषणपर्वका माहात्म्य सामूहिक रति बढ़ जाती है तो उसे दूर करनेके लिये सामूहिक भरा है।
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अनेकान्त
भारत के अहिंसक महामना सन्त श्री पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी की
वर्ष गांठ पूज्यवर्णीजी भारतके ही अहिंसक सन्त नहीं हैं, किन्तु वे दुनियाके आध्यात्मिक सन्त हैं। उन्होंने अपने ७८ वर्षके जीवनमें देश, धर्म और समाजकी जो सेवा की है, वह भारतीय इतिहासके पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। भारत आध्यात्म विद्याका सदासे केन्द्र रहा है और आजभी वह केन्द्र बना हुआ है। भारतको पूज्य श्री गणेषप्रसादजी वर्णी जैसे महासन्तोंसे गर्व है। इतनी वृद्धावस्थामें भी उनका दिल व दिमाग आत्म-साधनाके साथ जगतके पीड़ित एवं दुखी जनोंको आतंभावनाओं को दूर कर उन्हें वास्तविक-सुखशान्तिका सच्चा आदर्श उपस्थित कर रहा है। पाठकोंको यह जानकर अत्यन्त हर्ष होगा कि श्री पूज्य वर्णीजी की ७९वी जन्म जयन्ती असौज वदी चतुर्थी ता०७ सितम्बर १९५२ को है। अत. आप सब महानुभावोंका कर्तव्य है कि प्रत्येक नगर व ग्राममें उक्त महापुरुषकी शुभ जयन्ती मनाते हुये उनके शतवर्ष जीवी होने की कामना करें। साथ ही उनके मौजूदा जीवनसे लाभ उठाते हुये उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्गका अनुसरण कर आत्म-विकास करनेका प्रयत्न करें। म उनके शतवर्ष जीवी होनेकी कामना करता हुआ अपनी श्राजलि अर्पित करता हूं।
श्रबावनत परमानन्द जैन
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भारतमें श्रात्मविद्याकी अटूट धारा
(बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) ब्रह्मजिज्ञासा
के सहारे जीता है, किसके सहारे बढ़ता है ? कौन इसका जन्मेजयकी मुत्युके बाद जब उत्तरके नागवंशी विषाता है। कौन इसका अधिष्ठाता है? कौन इसे सुखक्षत्रियोंके आये दिनके हमलोंने कृषक्षेत्रके कौरवोंकी इस रूप वर्ताता है? कौन इसे मारता और जिवाता है?" राष्ट्रीय सत्ताको छिन्न भिन्न कर दिया और सप्तसिंघ देश अब ऋक्, यजु, साम, अथर्व, वैदिक संहिताएं और शिक्षा, व मध्यदेशमें पुनः भारतके नागराज घरानोंने अपनी
कल्प, निरुक्त, छंद, व्याकरण, ज्योतिष सम्बन्धी पड़ांग अपनी राष्ट्रीय स्वतन्त्रताको प्राप्त किया, तो कौरववंशकी
विद्याएं, जिन्हें वे अमूल्म निषिजानकर परम्परासे पढ़ते संरक्षताके अभावमें वैदिक संस्कृतिको बहुत धक्का पहुंचा।
और पढ़ाते चले आये थे, उनको अपस अर्थात् मामूली पान्धारसे लेकर विवेह तक समस्त उत्तर भारतमें पहलेके
लौकिक विद्याएं भासने लगी। अब धन और सुवर्ण, पाय समान पुनः श्रमण-संस्कृतिका उभार हो गया। इसी ऐति
और घोड़े, पुत्र और पौत्र, खेत और जमीन, राज्य व अन्य हासिक स्थितिकी ओर संकेत करते हुए हिंदू पुराणकारोंने
लौकिक सम्पदाएं जिनकी प्राप्तिके लिये, रक्षा तथा वृद्धिलिखा है कि भारतका प्राचीन धर्म को सतयुगसे हारी रहला
के लिये, वे निरन्तर इंद्र और अग्निसे प्रार्थनाएं किया करते चला आया है, तप और योग साधना है। प्रेता युगमें सबसे
थे, उनकी दृष्टिमें सब हेय और तुच्छ और सारहीन वस्तु पहले यज्ञोंका विधान हुआ द्वापर में इनका ह्रास होना शुरू
दिखाई देने लगी। अब उनके लिये आत्मविद्या ही परम हो गया और कलियुगमें जमका नाम भी शेषन रहेगा।
विद्या बन गयी। आत्मा ही देखने और जानने और मनन पुनः मनुस्मृतिकारने लिखा है कि सतयुगका मानवीधर्म
करने योग्य परम सत्य हो गया ।। तप है, वेताका ज्ञान है, द्वापरका यच है और कलियुग
अब उन्हें भासने लगा कि "यज्ञयाज आदि श्रीतकार्य का दान है।
संसार बन्धनतकका कारण है, और ज्ञान मुक्तिका कारण है, इस तरह शुरू-शुरूके राष्ट्रिक संघर्षों और सांस्कृतिक
कर्म करनेसे जीव बारबार जन्ममरणके चक्करमें पड़ता वैमनस्योंसे ऊब कर जब वैदिकऋषियोंका ध्यान भारत
रहता है, परन्तु ज्ञानके प्रभावसे वह संसारसागरसे उभर की आध्यात्मिक संस्कृतिकी ओर गया, तो वे उसके उच्च.
कर अक्षय परमात्मपदको पा लेता है। नासमझ आदमी ही आदर्श, गम्भीर विचार, संयमीजीवन और त्यागमयी साधना
इन कर्मोकी प्रशसा करते हैं, इससे उन्हें बार-बार शरीर मार्गसे ऐसे आनन्दविभोर हुए कि उनमें आत्मज्ञानके लिये
धारण करना पड़ता है।" एक अदस्य-जिज्ञासाकी लहर जाग उठी है। अब उन्हें ४. किं कारणं ब्रह्म कुतः स्य जाता जीवाय केन वन जीवन और मृत्युकी समस्याए विकल करने लगी। अब संप्रतिष्ठाः ।अधिष्ठिताः केन सुनेतरेषु कामहे उनके मानसिक व्योममें प्रश्न उठने लगे-ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥ -श्वेताश्वर, उप० १,१ जीवात्मा क्या वस्तु है ? इसका क्या कारण है ? यह जन्म ५, तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद: शिक्षा-कल्पसमय कहांसे आता है ? यह मृत्यु-समय कहां चला जाता है ? व्याकरणं । निरुक्तं छंदो ज्योतिषमिति अथ कौन इसका आधार है ? कौन इसकी प्रतिष्ठा है? यह किस
परामया तदक्षरमधिगम्यते ॥
-मुंडक उप,१.१.५ १. महाभारत-शान्तिपर्व-अध्याय ३३५
६. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो लिद्वि२. तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ।
ध्यासितक्यः । द्वापरे यज्ञमेवाहुनमेकं कलौ युगे।
पह, उप० २,४.५ मनुस्मृति१,८६ ७. मुण्डक समय १२,७। महाभारत शान्तिमाई यध्याय ३. "अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा" ह्यसूक,१.१.१.
२४१-५-१०
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अनेकान्त
व्रात्योंके प्रति आदर
इस जिज्ञासाके फलस्वरूप उनका व्रात्यों और यतियोंके प्रति आदर और सहिष्णुताका व्यवहार बढ़ने लगा । ब्राह्मण ऋषियोंने गृहस्थ लोगोंके लिये यह नियम कर दिया कि जब कभी व्रात्य व्रतधारी साधु अथवा श्रमणजन घूमते-फिरते हुए आहार लेनेके लिये उनके घर आयें तो उनके साथ अत्यन्त विनयका व्यवहार किया जावे, महांतक कि यदि उनके आनेके समय गृहपति अग्निहोत्र में व्यस्त हो तो गृहपतिको अग्निहोत्रका कार्य छोड़ उनकी आतिथ्य सेवा करना अधिक फलदायक है।"
ब्रह्मविद्याकी खोज
ज्ञानकी इस अदम्य प्याससे व्याकुल हो अनेक प्रसिद्ध ऋषिकुलोंके पूर्ण शिक्षाप्राप्त नवयुवक परवार छोड़ ब्रह्मविद्याकी खोज में निकल पड़े। वे दूर-दूरकी यात्राएं करते हुए, जंगलोंकी खाक छानते हुए, गान्धारसे विदेह तक, पांचालसे यमदेश तक, विभिन्न देशोंमें विचरते हुए, ब्रह्मविद्याके पुराने जानकार क्षत्रिय घरानोंमें पहुंचने लगे, वे वहां शिष्य भावसे ठहर कर इंद्रिय संयम, ब्रह्मचर्य, तप, त्याग और स्वाध्यायका जीवन बिताने लगे ।
इनकी इस अपूर्व जिज्ञासा, महान उद्यम, और रहस्यमयी संवादोंके आख्यान भारतीय वाङ्मयके जिस भागमें सुरक्षित हैं, उसका नाम उपनिषद् है । यों तो ये उपनिषद् संख्या में १०० से भी अधिक हैं, परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिसे ग्यारह मुख्य उपनिषद — ईश, केन, कट, मुण्ड, मांडुक्य, प्रश्न, छांदोग्य, वृहदारण्यक, तैस्तिीय, एतरेय और श्वेताश्वर, बहुत ही उपयोगी है। चूंकि इन उपनिषदोंमें महाभारतकालसे लेकर वैदिक और श्रमण दो मौलिक संस्कृतियोंके
सम्मेलनको कथा अंकित हैं* चूकि इनमें जिज्ञासुक
१. अथर्ववेद, कांड १५, सूक्त १ (११), १ (१२), १ (१३), २. (i) "Upnishads are the Product of the Arya, Dravidian inter Mixture of Cultures"
[ वर्ष ११
ऋषि-पुत्रोंकी सरल विचारणा, सत्यपरायणता और तत्कालीन आध्यात्मिक शिक्षा-दीक्षाके जीते जागते चित्र दिये हुए हैं, चूंकि इनमें आर्म्यऋषियोंके तत्त्वज्ञान का अन्तिम निष्कर्ष दिया हुआ है, चूंकि ये वैदिक वाङ्मयके अन्तिम फल वेदान्त रूप हैं, और आधुनिक हिंदू दर्शन शास्त्र मूलाधार है, इन्हीका दोहन करके २०० वी. सी. के लगभग बादरायण ऋषिके नामसे ब्रह्मसूत्रकी रचनाकी गई है, इसलिये इनका भारतीय साहित्यमें एक अमूल्य स्थान है । बुद्ध और महावीरसे पहलेकी भारतीय संस्कृतिकी जांच करनेके लिये इनका अध्ययन बहुत ही आवश्यक है ।
KEITH-Religion and Philosophy of the Vedas and Upnishads-pp. 497. (ii) Dr. Wintevnitz - History of . Indian Literature — Vol I pp. 226-244.
उस समय ब्रह्मज्ञानके प्रसारमें पिप्पलाद, अंगिरस, याज्ञवल्क आदि ऋषियोंके अलावा जिन क्षत्रिय राजाओंने बड़ा भाग लिया है, वे है केकयदेशके अश्वपति, पांचालदेशके प्रवाहण जैबलि, काशीके अजातशत्रु, विदेहके जनक, और दक्षिणदेशके विवश्वत यम आदि । इनके आख्यानोंके कुछ नमूने यहां उद्धृत किये जाते हैं। प्रवाहणजैबलि की कथा"
एक बार अरुणि गौतम ऋषिका पुत्र श्वेतकेतु पांचाल देशके क्षत्रियोंकी सभामें गया, तब पांचालके राजा प्रवाहण जैबलिने उसको कहा - हे कुमार ! क्या हां भगवन् ! उसने मुझे शिक्षा दी हैं । तुझे तेरे पिताने शिक्षा दी है ? यह सुनकर उसने उत्तर दिया
राजाने कहा हे श्वेतकेतु ! जिस प्रकारसे मरकर प्रजाएं परलोकको जाती है, क्या तू उसे जानता है? उसने कहा भगवन् ! मै नही जानता । राजाने कहा- जिस प्रकारसे प्रजाएं पुनः जन्म लेती है क्या तू उसे जानता है ? उसने कहा -- भगवन् ! मै नही जानता । राजाने पूछा- क्या तू देवयान और पितृयानके मार्गोंकी विभिन्नताको जानता है ? उसने कहा भगवन् ! मैं नहीं जानता । उसके बाद राजाने फिर पूछा - जिस प्रकार यह लोक और परलोक कभी जीवोंसे नहीं भरता, क्या तू उसे जानता है ? उसने कहा भगवन् ! में नहीं जानता । राजाने फिर पूछा -- जिस प्रकार गर्भाधानमें पुरुषाकृति बन जाती है—क्या तू उसे जानता है? उसने कहा भगवन् ! मै नहीं जानता ।
तदनन्तर राजाने कहा- जो मनुष्य इन प्रश्नोंका ३. छन्दो० उप० ५-३ वृह० उप० ६-२
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किरण]
भारतमें आत्मवियाको बटूट धारा
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उत्तर नहीं जानता वह किस भांति अपनेको सुशिक्षित कह वार्ताका समय लगभग १४०० ई. पूर्व होना चाहिए। सकता है? इस प्रकार प्रवाहण राजासे परास्त हो वह कैकेयअश्वपतिकी कथा श्वेतकेतु अपने पिताके स्थानपर गया और कहने लगाकि आपने मुझे बिना शिक्षा दिये हुए ही यह कैसे कह दिया
कैकेय देशका राजा अश्वपति परीक्षित और जन्मेजयकि मुझे शिक्षा दे दी गयी है।"
का समकालीन था। कैकेय देश (आधुनिक शाहपुर जेहलम राजन्यबन्धुने मुझसे पांच प्रश्न पूछे, परन्तु मै उनमें- गुजरात
नमें गुजरात जिला) गांधारसे ठीक पूर्वमें सटा हुमा है। कैकेय से एकका भी उत्तर देने में समर्थ न हो सका । बह अरुणी
र अश्वपतिकी कीर्ति उसकी सुन्दर राज्य व्यवस्था बीर
. बोला-मभी इन प्रश्नोंका उत्तर नही जानता। यदि मै
उसके ज्ञानके कारण सब ओर फैली हुई है। इनका उत्तर जानता हुआ होता तो कैसे मै तुम्हें इन्हे एक बारका कथन है कि उपमन्युका पुत्र प्राचीनशाल, न बताता।
पुलुषिका पुत्र सत्ययज्ञ, मालविका पुत्र इंद्रधुमन, उसके बाद वह अरुणि गौतम उन प्रश्नोंका ज्ञान शर्कराक्षका पुत्र जन और अश्वतराश्विका पुत्र बुडिल जो करनेके लिये राजा प्रवाहणके पास गया। राजाने उसे बड़ी-बड़ी शालाओंके अध्यक्ष थे और महाज्ञानी थे आपसमें आसन दे पानी मंगवाया और उसका अर्घ्य किया। तत्- मिल कर विचारने लगे "हमारा आत्मा कौन है ? ब्रह्म क्या पश्चात् राजाने कहा-हे पूज्य गौतम ! मनुष्य योग्य धन- वस्तु है।" उन्होंने निश्चय किया कि इन प्रश्नोंका उत्तर का वर मागो। यह सुनकर गौतमने कहा-हे राजन् ! अरुणवशीय उद्दालक ऋषि ही दे सकता है, वह ही इस समय मनुष्य धन तेरा ही धन है । वह मुझे नही चाहिए । मुझे तो आत्माके ज्ञान को जानता है, चलो उसके पास चलें। वह वार्ता बता दे, जो तूने मेरे पुत्रसे कही थी।
उन आगन्तुकोंको देख उद्दालक ऋषिने विचार किया गौतमको यह प्रार्थना सुन राजा सोचमें पड़ गया।
कि ये सभी ऋषि महाशाला वाले है और महा श्रोत्रिय सोच-विचार करने पर उसने ऋषिसे कहा-यदि यही
है, उनको उत्तर देनेके लिये मै समर्थ नहीं हूं। उसने कहा वर चाहिए तो चिरकाल तक व्रत धारण करके मेरे पास रहो।
कि इस समय कैकेय अश्वपति ही आत्माका सब नियत साधना करने पर राजाने उसे कहा-हे गौतम ! जिस विद्याको तू लेना चाहता है, उसे मै अब देने को तैयार
प्रकारका ज्ञाता है। आओ उसके पास चलें। वहां पहुंचने
पर अश्वपतिने उनका सत्कार किया और कहा 'मेरे देशमें हूं, परन्तु यह विद्या पूर्वकालमें तुझसे पहले ब्राह्मणोंको
न कोई चोर है न कृपण, न शराबी, न अग्निहोत्र रहित, प्राप्त न होती थी इसलिये सारे देशोंमें क्षत्रियोंका ही
न कोई अपढ़ है और न व्यभिचारी, व्यभिचारिणी तो होगी इस पर अधिकार था । क्षत्रिय क्षत्रियोंको ही सिखाते थे।
कहा से?" आप इस पुण्य देशमें ठहरें,मैं यज्ञ करनेयह कहकर राजाने पंच प्रश्नोंका रहस्य गौतमको बतलाना
वाला हूं, आप उसमें ऋत्विज बनिये, मैं आपको बहुत शुरू कर दिया। पं. जयचन्दके कथनानुसार पांचालनरेश प्रवाहण
ही दक्षिणा दूगा। उन्होंने कहा, कि हम आपसे दक्षिणा
लेने नही आये है, हम तो आपसे आत्मज्ञान लेनेके लिये जैबलि-जन्मेजयके पौत्र अश्वमेधदत्त अर्थात् पाडव पुत्र
' आये है । अश्वपतिने उन्हें अगले दिन सवेरे उपदेश देनेअर्जुनकी पांचवी पीढ़ीके समकालीन था।' इस तरह उक्त
का वादा किया। अगले दिन प्रातःकाल वे समिधाएं १ "सह कृष्छी बभूव । त ह चिरं बसेत्तथाज्ञापयां हाथोंमें लिये उसके पास पहुंचे और अश्वपतिने उन्हें
चकार । तं हो वाच-यथा मां त्वं गौतमावदो आत्मज्ञान दिया । ययं न प्राक् त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति। तस्मात् सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति।
३. छां. उप. ५-११,१२; महाभारत-शान्तिपर्व अध्याय -छां. उप. ५-३-७ । २. भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, जिल्द प्रथम, ४. भारतीय इतिहासकी रूपरेखा-जिल्द प्रथम, पृष्ठ २८६ ।
पृष्ठ २८६ ।
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अजातशत्रुकी कथा'
उपरान्त सनत्कुमारने आत्मशिक्षा बैंकर नारदको संतुष्ट
कर दिया । काशीनरेश अजातशत्रु, विदेहकें राजा जमक उग्रसैम, तमा रुराज जन्मेजयके पुत्र शतानीकका समकालीन था। नचिकताको गाथा वह अपने समयका एक माना हुमा जात्मज्ञानी था । और कठ उपनिषदमें औद्दालिक अरुणि गौतमके पुत्र अत्यनज्ञानकी चर्चामें अभिरुचि रखनेवाले विद्वानोंका नचिकेता ऋषिकी एक कथा दी हुई है, कि एक बार नचिभक्त था। एक बार गर्ग गोत्री भी दृप्त बालाकि नामवाला केता, जो जन्मसे ही बड़ा उदार और विचारशील था, ब्राह्मण ऋषि वात्मचकि लिये उसके पास पहुंचा और अपने पिताके संकुचित व्यवहारसे रूठकर भाग गया । कहने लगा कि मैं तुझे ब्रह्मकी बात बताऊंगा। अजातशत्रु- वह शान्ति लाभके लिये वैवस्वत यमके घर पहुंचा। पर उस ने कहा, कि यदि तुम ब्रह्मकी व्याख्या कर पायोगे, तो मै समय वैवस्वत बाहर गया हुआ था। उसके बाहर जानेके तुम्हें एक हजार गायें दक्षिणामें दूंगा। गाय॑ने व्याख्या कारण नचिकेताको तीन रात भूखा रहना पड़ा। वापिस करनी चाही, परन्तु वह सफल न हुआ। अजातशत्रुने कहा- आनेपर घरमें भूखे अतिथिको देखकर यमको बड़ा खेद गाग्र्य! क्या इतना ही ब्रह्म विचार है ? गाग्यंने कहा- हुआ। अपने दोषको निवृत्तिके लिये यमने नचिकेताको ही इतना ही। तब अजातशत्रुने कहा, इतनेसे ब्रह्म नही कहा कि तीन रातके कष्टके बदले बह उससे तीन वर मांग जाना जा सकता। तब गायके शिष्यवृत्ति धारण करने पर ले। नचिकेताके मागे हुए पहले दो वर यमने उसे तुरन्त ही अजातशत्रुने उसको ब्रह्मका स्वरूप समझाया ।
दे दिये। फिर नचिकेताने तीसरा वर इस प्रकार मांगा। सनत्कुमारकी कथा'
"यह जो मरनेके बाद मनुष्यके विषयमें संदेह है,
कोई कहते हैं रहता है, कोई कहते है नहीं रहता, यह आप एक समय नारद महात्माने सनत्कुमारके पास
मुझे समझा दें कि असल बात क्या है। यही मेरा तीसरा बर है। जाकर कहा हे भगवन् ! मुझे ब्रह्म विद्या पढ़ाइये । सनत्कुमार
इस वरको सुनकर यम बोला-"इस विषयमें तो पुराने ने उसको कहा—जो कुछ तू जानता है, मेरे समीप
देवता भी संदेह करते रहे है । इसका जानना सुगम नही है, बैठ, वह मुझे सुना दे, उससे ऊपर तुझे बताऊंगा।
यह विषय बहुत सूक्ष्म है। नचिकेता, तुम कोई दूसरा वर नारदने कहा-भगवन् ! मै ऋग्वेदको जानता हूं,
मांगो, इसे छोड़ो, मुझे बहुत विवश न करो।" यजुर्वेदको, सामवेदको, चौथे अथर्ववेदको, पांचवें इतिहास पुराणको, वेदोंके वेद व्याकरणको, पितृ कर्मको, गणित
_इसपर नचिकेताने कहा-"निश्चयसे ही यदि देवोंशास्त्रको, भाग्यविज्ञानको, निधिज्ञानको, तर्कशास्त्रको,
ने भी इसमें संदेह किया है और आप स्वयं भी इसे सुगम नहीं नीति-शास्त्रको, देव-विद्याको, भक्तिशास्त्रको, भूत
कहते, तो तुम जैसा इसका वक्ता दूसरा कौन मिल सकता है विद्याको, धनुर्विद्याको, ज्योतिष सर्वविद्या, संगीत नृत्य- '
. इसके समान दूसरा वर भी क्या हो सकता है ? विद्याको जानता हूं। हे भगवन् ! इन समस्त विद्याओंसे ।
यमने यह जाननेके लिये कि नचिकेता आत्मज्ञानका सम्पन्न मै मंत्रवित् ही हूं, परन्तु आत्माका ज्ञाता नहीं हूं।
अधिकारी है या नही, उसे बहुतसे प्रलोभन दिये। हे नचिमैंने आप-जैसे महापुरुषोंसे सुना है कि जो आत्मवित्
केता! तू सौ-सौ वर्ष की आयुवाले पुत्र और पौत्र मांग। होता है, वह जन्ममरणके शोकको तर जाता है। परन्तु
बहुतसे पशु हाथी, सोना और घोड़े मांग, भूमिका बड़ा भारी भगवन् ! में अभी तक शोकमें डूबा हुआ हूं। मुझे शोकसे
भाग मांग। और जबतक तू जीना चाहे उतनी आयुका वर पार कर देवें। सनत्कुमारने नारदसे कहा-तुमने आज तक
‘मांग । तू इस विशाल भूमिका राजा बन जा। जो भी जो कुछ अध्ययन किया है वह नाममात्र ही है, इसके
कामनाएं तू इस लोकमें दुर्लभ समझ रहा है वे सभी
जी खोलंकर तू मुझसे मांग । रथों और बाजों सहित ये १. वह उपनिषद् २.१-कौषीतिकी ब्राह्मणोपनिषद्- अलभ्य रमनियां तेरी सेवाके लिये देता है। इन सभी 'बध्याये।
वस्तुओंको ले लो। परन्तु हे नचिकेता! 'मरनेकै अनन्तर२. . उप. ७ वा अध्याय ।
की बात मुझसे न पूछो।
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९३९
भारतमें मानषिचाकी अटूट पारा -
- -- पर नचिकेता इन प्रलोभस तनिक भी मममें न सापना किया करते थे। उन्होंने यह विवा उस समय पड़ा। वह बोला "हे येम ! ये सब भोग-उपभोगके सामान से लेक ब्राह्मण लोगोंको न दी जबतक उन्हें परीक्षा करके दिनके हैं। ये सब इंद्रियोंका तेज नष्ट करने वाले है। यह विश्वास न हो गया कि वे (बाह्मजन) शुद्ध बुद्धि वाले जीवन अल्पकाल तक रहनेवाला है, इसलिये ये सब नाच- हैं, और वे नम्र भाव एवं शिष्यवृत्तिसे इसे ग्रहण करनेगान, हाथी, घोड़े मुझे नहीं चाहिए । धनसे कमी तृप्ति नहीं के लिये उत्सुक है । चूकि आत्मशानी होने के लिये होती । मुझे तो वहीं वर चाहिए।" ।
राग-द्वेष-मोह-ममता, और परिग्रहको त्याग मन वचन नचिकेताकी इस सच्ची लगनको देख यम विवश कायकी शुद्धि करना साधकका सबसे पहला कर्तव्य है। हो गया। उसने अन्तमें जन्म-मरण सम्बन्धी आत्मज्ञान इस मानसिक नियंत्रणके लिये योगदर्शनमें यम, नियम, दे नचिकेताके छटपटाये हुए दिलको शान्ति प्रदान की।
बासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधिउपरोक्त कथामें जिस नचिकेताका उल्लेख है, वह
रूप अष्टांगिक मार्गकी एक विशेष प्रणाली दी हुई है।
इन अध्यात्मवादि क्षत्रियोंका, इस कारण कि कही कठ जातिका ब्राह्मण मालूम होता है। प्राचीनकालमें यह जाति पंजाबके उत्तरकी ओर रावी नदीसे पूरबवाले
अध्यात्मविद्या अनधिकारी हाथोंमें पड़ कर दूषित न हो
जाये, सदा यह नियम रहा है कि यह विद्या श्रद्धालु पुत्र देशमें जिसे आजकल माम्मा (लाहौर अमृतसर वाला देश)
और शांत चित्त शिष्यके सिवाय किसी और को म दी जाय, कहते है, रहा करती थी। इसी कारण इस देशका पुराना नाम
चाहे वह धनपरिपूर्ण सागरसे घिरी सारी पृथ्वी भी पुरस्कारकठ है। उपर्युक्त कथाके समय यह जाति मध्य देश अर्थात्
में देनेको तैयार हो । आपखंडमें बसी हुई थी।
इसी कारण उपनिषदोमें अध्यात्मविद्याको रहस्य विवश्वतयम जिसके पास नचिकेता ज्ञानप्राप्तिके
विद्या व गुह्य विद्या कहा गया है। स्वयं उपनिषद् शब्दका लिये गया था, उस सूर्यवंशी शाखाका एक क्षत्रिय राजा
अर्थ है "-किसीके निकट बैठना" अर्थात् वह रहस्य विद्या मालूम देता है, जिसन मध्यदशक दाक्षणका आर एक जो गुरुके निकट रह कर साक्षात् उनकी वाणी और जीवनस्वतन्त्र जनपद कायम कर लिया था। इसीलिय भारताय से ग्रहण की जाती है। इस प्रकार विनीत, श्रद्धालु और मन्तःअनश्रतिमें दक्षिणका अधिष्ठाता यम कहा गया है। यम वासीयोंको कालमें मौखिक सपसे शामिक शिक्षा किसी विशेष व्यक्तिका नाम न होकर इस शाखाक राजाआका देमेकी प्रथा केवल उपनिषद् कालमें ही प्रचलित न की, परम्परागत उपाधि थी। सूर्यवंशी क्षत्रियोंकी यह शाखा -- अपनी दान, दक्षिणा, उदारता और ज्ञानचकि लिये ३ तपः श्रद्धे मे युपवसन्त्यरण्ये शान्तो विद्वांसोबहुत प्रसिद्ध थी। इसी कारण इस शाखाका उल्लेख शत
भैक्षचर्या चरन्तः । पच ब्राह्मण १३-४-३-६ और ऋग्वेदके दसर्वे मंडल के १०वें सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृत: स सूक्तमें भी मिलता है।
पुरुषोहल्पमात्मा ॥ अध्यात्मविद्याकी शिक्षा-दीक्षा रीति
-मुण्डक उप० १११,२
__४ (अ) "वेदान्तं परमं गुह्यं पुरा कल्पे प्रचोदितम् ।। ऊपर वाले व्याख्यानोंसे यह स्पष्ट है कि भारतमें
नाप्रशान्ताय दातव्यं ना सुनाया शिष्याय वामनः। अध्यात्मविद्याके वास्तविक जानकार क्षत्रिय लोग थे।
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरी। परम्परासे उन्हीं लोगोंमें अध्यात्मतत्त्वोंका मनन होता
तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाशन्तै महात्मनः ।।" चला आया था और उन्हीके महापुरुष घर-बार छोड़ भिक्षु
श्वेताश्वर :६-२२-२३ । बन जंगलोंमें रहते हुए तप ध्यान और श्रद्धा द्वारा आत्म
(आ) नान्यस्मै कस्मैचन यद्यप्यस्मा इमाभक्तिः १ जयचन्द विद्यालंकर-भारतीय इतिहासकी
. परगृहीताम् । रूपरेखा, प्रथमजिल्द पृ. २९.
धनस्यपूर्ण स्यात्, एतव तो 'भूब इत्येतदेव २ वृह. उप. ३-९-२१
ततो भय इति"- .. .. ३-११-६ ।
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२४०
[वर्ष ११
बल्कि यह प्रथा भारतके शंब, जैन, बौखादि अध्यात्मकारि- विद्वान न बन जायें। तीसरे शिक्षा-दीक्षाकी प्राचीन पद्धति । लोगोंमें बाजतक जारी है। यह इसी प्रथाका फल है, कि ऊपर वाले कारणोंमेंसे तीसरा कारण ही इस अभावका आजसे पचास साल पहले तक जैन विद्वानोंको अपना सबसे जोरदार कारण माना जाता है। साहित्य दूसरोंको दिखाना या उसे मुद्रित कराना तनिक भी शिक्षा-दीक्षाकी इस प्राचीन परतिके कारण ही सहा न था। इसलिये जनसाहित्यका परिचय बाहिरके भारतके तत्ववेत्ता क्षत्रिय विद्वानोंने लिखित रचनाएं तो विद्वानोंको आज तक बहुत ही कम हो पाया है। दूर रहीं कभी अपने तत्त्वदर्शन और अध्यात्मिक कथानकों
को संकलन करनेका प्रयास तक नही किया । दार्शनिक लिपिबोध और लिखितसाहित्य
साहित्य ही क्या, इतिहास, विद्या, पुराणविद्या, सर्पविद्या, सिंध और पंजाबके मोहनजोदड़ो और हडप्पा आदि पिशाचविद्या, असुरविद्या, विश्वविद्या, अंगरसविद्या, ब्रह्मपुराने नगरोंके खंडरातसे प्राप्त मोहरोंके अभिलेखोंसे विद्या, गाथा, नाराशंसी आदि भारतकी अनेक पुरानी यद्यपि यह सिब है कि भारतीय लोग लगभग ३००० ईसा पूर्व विद्याओंका भी जिनका नाममात्र प्रसंगवश वैदिक वाङमय'. कालसे भी पहिले लिपि विद्या और लेखनकलासे भलीभांति में मिलता है और जिनका सविस्तर वर्णन जैनवाङमय के परिचित थे, परन्तु सिवाय तिजारती कामोंके वे इस कलाको १४ पूर्वोके कथनमें दिया हुआ है, कोई संकलित व लिखित पार्मिक, पौराणिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक अथवा नैतिक साहित्य मौजूद नही है। रचनाजोंके लिये कमी प्रयोगमें न लाते थे। इन सभी बातों-बार
ब्राह्मणोंका श्रेय के लिये वे केवल मौखिक शब्दसे ही काम लेते थे और
इस अभावपरसे कुछ विद्वानोंने यह मत निर्धारित मौखिक शम्बके द्वारा ही वे अपनी शान-विधिको अगली
किया है कि औपनिषदिककालसे पहले भारतीय लोगोंको सन्तति तक पहुंचाते थे। जैसा कि यूनानी दूत मेगास्थनीज
आत्मविद्याका कोई अबबोध न था। भारतमे अध्यात्मिक के वृत्तान्तोंसे विदित है। ईसासे ३०० वर्ष पूर्व मौर्य
विद्याका जन्म उपनिषदोंकी रचनाके साथ-साथ या उसके शासन काल तक भारतीय लोगोंके पास अपने कोई लिखे
कुछ पहलेसे हुआ है। उनका यह मत कितना अज्ञानपूर्ण कानून तक मौजूद थे। इसी तरह बौद्ध आचार्योंने यद्यपि
है यह ऊपर वाले विवेचनसे भली-भांति सिद्ध है कि औपअपने आगम साहित्यको २४० ईसा पूर्वमें संकलित कर लिया
निषदिककाल आत्मविद्या जन्म काल नही है। आत्मविद्या था, परन्तु इस समयके बहुत बाद तक कभी वे लिखित
वैदिक आर्यगणके भी आनेसे पहले सिंघदेशकी ३००० साहित्यका सृजन न कर सके। भारतमें सबसे पुराने धार्मिक
ईसा पूर्व मोहनजोदड़ो कालीन आध्यात्मिक संस्कृतिसे अभिलेख जो आज तक उपलब्ध हो पाये है वे हैं जो अशोककी
पहले यहांके प्रात्य, यति, श्रमण कहलानेवाले योगीजनोंधर्मलिपिके नामसे प्रसिद्ध है। ये सम्राट अशोक ने अपने
को मालूम थी । औपनिषदिककाल केवल उस युगशासनकालमें तीसरी सदी ईस्वी पूर्व स्तम्भों व शिला खंडों
का प्रतीक है जब ब्राह्मण विद्वानोंकी निष्ठा वैदिक विद्यापर अंकित कराये थे। लिखित साहित्यके अभावके कई
से उठकर आत्मविद्याकी ओर झुकी थी, और आत्मकारण हो सकते है-एक तो योग्य लेखन सामग्री और
विद्याक्षत्रियोंकी सीमासे निकल कर ब्राह्मणोंमें फैलनी खासकर कागजका अभाव, दूसरे विद्वानोंकी महत्त्वाकांक्षा
शुरू हुई थी। इस दिशामें ब्राह्मणऋषियोंका श्रेय इसमें और संकीर्णता, कि कहीं दूसरे भी पढ़-लिख कर उन जैसे -
३ अथर्ववेद १५-६,७-१२; गोपक ब्राह्मण पूर्व १,१०। Ancient India as described by
शतपथ ब्राह्मण १४-५,४,१०; वह उपनिषद् Megasthenies by Macrindle
२-४-१०। शांखाय न श्रोत्रसूत्र १६.२, अश्व-1877, p. 69. लायण श्रौत्रसूत्र १०,७ ।। २ विद्वानोंका अब यह मत होता चला जा रहा ४ (अ) षट्खंडागम-धवलाटीका-जिल्द १ अमहै कि यह अभिलेख अशोकने नही बल्कि उसके
रावती सन् १९३९ पष्ठ १०९-१२४ । .. पौत्र सम्राट् सम्प्रतिके है।
(आ) समवायांग सूत्र।
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भारतमें आत्मविद्याकी अटूट धारा
२४१
है कि उन्होंने सबसे पहले भारतके अध्यात्मिक तत्वों अध्यात्मविधाको इस प्रकार अनधिकारी लोगोंसे और उनके आख्यानोंको उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र सुरक्षित रखनेका विधान केवल भारतके सन्तों तक ही आदि दर्शनशास्त्र व पुराणोंकी शकलमें संकलन व लिपिबद्ध सीमित न रहा है, भारतके अलावा जिन अन्य देशोंमें करनेका साहस किया। यदि इन द्वारा संकलित की हुई अध्यात्मिक तत्वोंका प्रसार हुआ है, वहांके अध्यात्मिक अध्यात्म चर्चाएं हमारे पास न होतीं, तो बुद्ध और महावीर सन्तोंने भी इस विद्याको अनधिकारी लोगोंसे बचाकर रखनेकालसे पहलेकी अध्यात्मिक संस्कृतिका साहित्यिक प्रमाण का भरसक यत्न किया है। आजसे लगभग २००० वर्ष पूर्व बुढ़ना हमारे लिये असंभव था। जैन लोगोंमें लिखित जो जब पश्चिमी एशियाके यहूदी लोगोंमें प्रभु ईसा ने आध्यालिखित साहित्य आज मिलता है, उसकी परम्परा महावीर त्मिक तत्वोंकी विवेचना शरू की तो बहुत विवेक और निर्वाणके ६०० वर्ष पीछे अर्थात ईसाकी पहली सदीमें सावधानी से Parables अर्थात रूपकों द्वारा ही की।' उस समयसे शुरू होती है, जब जैन आचार्योंको यह कि कही वे अपनी नासमझीसे इन तत्वोंको बिगाड़कर कुछअच्छी तरह भान हो गया था, कि अध्यात्म तत्त्वबोध दिनोंदिन का कुछ अर्थ न लगा बैठें और फिर विरोध पर उतारू हो घटता जा रहा है, और यदि इसे लिपिबद्ध न किया गया तो जायें। इसीलिए प्रभु ईसाने इस बातको कई स्थलोंपर दोहरहासहा बोध भी लुप्त हो जायगा ।।
राया है-"जो बहुमूल्य और पवित्र तत्व हैं, उन्हें श्वान
और वाकवृत्तिवाले लोगोंके सामने न रखा जाय, कही ये अध्यात्मविद्या सभी लोगोंमें रहस्यविद्या
उन्हें पाओंसे रोंदकर तुम्हें ही फाड़ने के दर पर बनकर रही है
न हो जायें। भारतके सभी धर्मशास्त्रोमें जगह जगह अधिकारी
३. "But without a parable spake be और अनधिकारी श्रोताओंके लक्षण देते हुए बतलाया गया
not into them",Bible-Mark,IV34. है कि अध्यात्म विद्याका बखान उन्हीको किया जावे जो ४. (अ) It is not meet to take childजितेन्द्रिय और प्रशान्त हों, हस समान शुद्ध वृत्ति वाले हों, ren's bread and to cast it into the जो दोषोंको टाल कर केवल गुणोका ग्रहण करने वाले
dogs. Bible--Marke VII 27 हों।
(आ) Give not that which is holy
into the doga, not castye your १. वही षट् खण्डागम-डा० हीरालाल द्वारा लिखित
pearls before swine lest they प्रस्तावना ।
tramble them under their feet and २ (अ) महाशान्तिपर्व अध्याय २४६ ।
turn agin and rend you." (आ) वही षट् खण्डागम-गाथा ६२,६३ ।
Bible-Mathew VII 6.
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पूज्य श्री वर्णी गणेशप्रसादजीका एक आध्यात्मिक पत्र
(श्रीमान् ला• जिनेन्द्रकिशोरजी जोहरी देहलीके सौजन्यसे प्राप्त) श्रीमहानुभाव लाला जिनेन्द्रकिशोरजी झवेरी, योग्य होता है जैसे घटादि पदार्थके द्वारा दीपकमें कोई दर्शन विशुद्धिः
विक्रिया नहीं होती। घटके अस्तित्वमें दीपक स्वस्वरूपपत्र पाकर अति प्रसन्नता हुई-आत्माकी परिणतिकी से ही प्रकाशमान हो रहा है एवं ज्ञान भी शेयके सद्भावमें निर्मलता ही तो इसको संसारसमुद्रसे उत्तीर्ण करती है, जैसे स्वरूप रूपसे प्रकाशित हो रहा है एवं ज्ञेयके अभावजिस जीवका मोह गया वह संसारबंवनसे उसी समय मुक्त में मी स्वरूपसे प्रकाशमान हो रहा है-फिर भी जीव अपनी हो गया। संसारको मूल कारण यही तो है आत्मा तो निरंजन अज्ञानतासे निज उदासीनताको त्यागकर नाना यातनाओंका प्रतिसे परबोध स्वरूप है इतने काल जो संसारमें भ्रमण पात्र होता है-अत: जिसने इस पर विजय प्राप्त कर ली कर रहा है मोह ही की तो विडम्बना है-वही कहा है:- वही कल्याणका पात्र है-आपके पत्रसे यह बात समझमें अहो निरंजनः शान्तो बोधोहं प्रकृतिपरः ।
आती है जो आपकी श्रद्धा दृढ़ है वही आपका कल्याण करेगीएतावन्तमह कालं मोहेनैव विडम्बितः ॥ चिन्ताकी बात नही-शारीरिक अव्यवस्था काल पाकर स्वयसंसारको जड़ मोह ही है इसके अभावमें अनायास
मेव शान्त हो जावेगी। अथवा हम अपनी परिणतिको संसार चला जाता है-संसार अन्य कोई पदार्थ नही, आत्मा
क्यो न देखें उसमें जो दोष हों उन्हे दूर करनेका प्रयास की विकार परिणति ही का नाम तो संसार है-यद्यपि उस करना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिये। विकार परिणतिके उपावान कारण हम ही तो है । ज्ञेय
वैशाख सुदि १० पदार्थ विकारी नहीं-वह तो निमित्तमात्र है-आत्माका
मा० शुचि शाब जो है वह जेयके निमित्तसे कोई विकारको नही प्राप्त
सं० २००९ गणेश वर्णी
अनेकान्तकी सहायताका सदुपयोग 'अनेकान्त' को जो सहायता विवाहादिके अवसरोंपर प्राप्त होती है उसका बहुत अच्छा सदुपयोग किया जाता है। इस सहायतासे जैनेतर विद्वानों, लायब्रेरियों, गरीब विद्यार्थियों तथा असमर्थ जैन संस्थाओंको 'अनेकान्त' बिना मूल्य अथवा रियायती मूल्य ३) में भेजा जाता है। इससे दातारोंको दोहरा लाभ होता है-इधर वे अनेकान्तके सहायक बन कर पुण्य तथा यशका अर्जन करते हैं और उधर उन दूसरे सज्जनोंके ज्ञानार्जनमें सहायक होते हैं जिन्हें यह पत्र उनकी सहायतासे पढ़नेको मिलता है। अतः इस दृष्टिसे अनेकान्तको सहायता भेजने-भिजवाने की ओर समाजका बराबर लक्ष्य रहना चाहिये और कोई भी अवसर इसके लिये चूकना नहीं चाहिये। अनेकान्तकी सहायताके मार्गोको टाइटिलके दूसरे पृष्ठ पर देखिये।
-व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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कविवर बुधजन और उनकी रचनाएं
(पं० परमानन्द जैन शास्त्री) कविवर वधीचन्द या बुधजन जयपुर निवासी से भरना असंभव-सा हो गया है । शारीरिक और मानसिक निहालचन्दजीके तृतीय पुत्र थे। आपकी जाति खंडेल- अना वेदनाएं तुझे चैन नही लेने देतीं, फिर भी तू अपनेको बाल और गोत्र 'बज' था। आपको रुचि बालकपनसे स्वभा- सुखी समझनेका यत्न करता है, यही तेरी अज्ञानता है, वतः जैनधर्मके ग्रंथोंके अध्ययन और जिनेंद्रकी भक्ति दूसरोंको उपदेश देता फिरता है-हितकी बातें सुझाता में आकृष्ट होती थी । आप बड़े ही धर्मात्मा सज्जन थे। है, पर स्वयं अहितके मार्गमें चल रहा है। इस तरह तेरा आपने लौकिक शिक्षणके साथ धार्मिक प्रयोका भी अच्छा कल्याण कैसे हो सकता है ? इसका स्वयं विचार कर अभ्यास किया था। और बादको स्वाध्याय एव सत्संग द्वारा और अपने हितके मार्गमें लग, इसीमें तेरी भलाई है। अप अपने ज्ञानको बराबर वृद्धि करते रहे है । आपकी जिनेंद्र ही तारन तरन है, इसीसे मैने अब उन्हींकी शरण जिनेंद्रभक्ति प्रसिद्ध है, वह सप्राण और निष्काम थी। उसमें ग्रहण की है। इस तरह मनमें कुछ गुन-गुनाते हुए कवि कविको आन्तरिक श्रद्धा अथवा आस्था ही प्रबल कारण जान वर एक दिन बोल उठेपड़ती है। इसीसे वह अपने सात्विकरूपको लिये हुए “सरन गही मै तेरो, जग जीवनि जिनराज ।। थी। आपके भक्तिपूर्ण पद इसी भावको द्योतित करते हैं। जगतपति तारन तरन, करन पावन जग, हरन-कर. इसी भक्ति-भावनासे प्रेरित होकर आपने जयपुरमें द जिन
भव-फेरी ।। मन्दिरोंका निर्माग करवाया था जो आज भी वहां मौजूद है
ढूढत फिरपो भरघो नाना दुख, कहू न मिली सुख सेरी। और जिनमें जाकर भक्त जन पुण्यार्जनके साथ पापके विनाश
यात तजी आनकी सेवा, सेवा रावरी हेरी ॥ का बम कर आत्मपरिणतिको निर्मल बनानेका प्रयास करते
परमें मगन विसारयो आतम, घरपो भरम जग केरी । है। कविवरने अपने गृहस्थजीवन और गुरु आदिका कोई
ए मति तजू भजू परमातम, सो बुधि की मेरी ॥" परिचय नही दिया, जिससे उसका यथेष्ट परिचय मिल
एक दूसरे दिन जिन चरणोंमें अडोल श्रद्धाको और जाता ।
भी निर्मल बनाने के हेतु, अपनी आत्म कहानी कहते हुए कविवर जहां धर्मनिष्ठ कवि, दयालु थे, वहां अध्यात्म- तथा मोहरूपी फांसीको काटकर अविचल सुख प्राप्त करने शा के भी वेत्ता थे। वे कभी कभी भक्ति रसकी सरस धारा- तथा केवल ज्ञानी बननेकी अपनी भावनाको व्यक्त करते में निमग्न हो इस बातका विचार किया करते थे कि हे हुए कविवर कहते है:बुधजन! तूने जिनेन्द्रके भजन अथवा आत्मदेवके आराधन मेरी अरज कहानी सुनिये केवल ज्ञानी । विना ही अपने मानव जीवनको यों ही गंवा दिया, चेतनके संग जड़ पुद्गल मिल, मेरी बुधि बोरानी ॥१॥
और जो कुछ रहा है वह भी बोता जा रहा है। पानी आनेसे भवन माहीं फेरत मोकू, लखि चौरासी थानी । पहले 1: (बांध)न बाधी फिर पीछे पछताने से क्या लाभ को तू वरनू तुम सब जानू-जन्म मरण दुख खानी॥२॥ हो सकता है। जप, तप, संयमका कभी ने आचरण नहीं भाग भले ते मिले बुधजनकू, तुम जिनवर सुखदानी किया, न किसोको दान हो दिया-किंतु धन और रामाकी मोहि-फांसिका काटि प्रभुजी की केवल शानी ॥३॥ सार सम्हाल करते हुए उन्होके आशाजालमें बध कर ही तूने कविवर सोचते हैं कि हे बुधजन ! तूने मूढ अज्ञानी बन इस मानव-जीवनको हराया है। अब तू वृद्ध हो गया । शरीर कर तनिक-से विषम सुखकी लालसामें अनन्त काल यों ही
और शिर तेग कंपने लगा, दांत भी चलाचल हो रहे हैं- बिता दिया, अनादि कालसे जड़ चेतनाका यह मेल बंध वेएरक करके विदा लेते जा रहे हैं। चलना-फिरना भी अथवा एक जगह रहना इस तरह इन दोनों की एकता, अब किसी लाठीके अवलम्बन बिना नहीं हो सकता। जिस तरहको एकता दूध और पानीमें पाई जाती है, जो दोनों आशापी कांसा तेरा इतना विस्तृत हो गया है कि उसका भिन्न भिन्न स्वरूपका भान नहीं होने देती । इसी मिया
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अनेकान्त
[वर्ष ११
एकताके कारण हेमालन! तू मनन्तकालसे दुःखका के सच्चे शिवधामकी प्राप्ति हो, जो तेरी चिर अभिलाषा पात्र बना हुआ है। इस एकतासे तेरा कैसे छुटकारा हो, का विषय रहा है। इन सब विचारोंसे कविवरका आत्महितजिससे यह भव-फांसी कट कर गिर जाय और तू स्वयं का लक्ष्य और भी दृढ़ हो गया, और वे सबसे उदासीन आतमराममें लीन हो जाय, तुझे उसी बलकी आव- होकर आत्मसाधनाके कार्यमें जुट गये।। श्यकता है। -"हूँ तो बुधजन ज्ञाता दृष्टा, ज्ञाता तनजड़ अब कविवरका जीवन, जो कभी आत्महितकी विचारसरवानी। वे ही अविचल सुखी रहेंगे होंय मुक्तिवर प्रानी।" तरंगोंमें उछला करता था, वह उस ज्ञायक आत्मस्वरूपमें यद्यपि मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ, फिर भी मोहकी यह वासना अनन्त स्थिरता पानेका अधिकारी हो गया, इसके लिये उन्हें संसारका कारण है, उस अनन्त संसारका छेदन करना काफी पुरुषार्थ कर ध्यानका अभ्यास करना पड़ा, ही आत्मकर्तव्य है।
पर इससे उनके चित्तकी प्रसन्नता और संतोषमें भारी वृद्धि पर जब मैं अपनी पूर्व परिस्थितिका चिन्तन करता हूं हई, जो आत्मसाधनामें सहायक है। एक दिन कविवर और संसारको विचित्र दशाका स्मरण करता हूं तब मेरी ध्यानमें बैठे हुए कुछ गुनगुनाते हुए कहते है:जो दशा बनती है उसे शब्दों द्वारा व्यक्त करना संभव प्रतीत
मै देखे आतम रामा ॥ नहीं होता, और न वह वचनोंसे कही ही जा सकती है। "रूप परस रस गंधते न्यारा, दरश ज्ञान गुन धामा। उसका स्मरण करना भी मेरे अनन्त दुःखोंका कारण है । नित्य निरंजन जाके नाही, क्रोध-लोभ मद कामा ॥१॥ इसी बातका विचार करते हुए कविवर कहते है:
नहि साहिब नहि चाकर भाई, नही तात नही मामा ॥२॥ • "उत्तमनरभव पायकै मति भूल रे रामा ॥ भूल अनादि थकी जग भटकत, ले पुद्गलका जामा । कीट पशुका तन जब पाया, तब तू रहा निकामा । बुधजन संगति गुरुको कीयें, मै पाया मुझ ठामा ॥३॥ अब नर देही पाय सयाने क्यों न भज प्रभु नामा ॥१॥ इस तरह कविवर आत्मरसमें विभोर हो शरीरको सुरपति याकी चाह करत वर, कब पाऊं नर जामा। पुद्गलका जामा समझकर सुगुरुको संगति अथवा कृपासे भूख-प्यास सुख दुख नहि जाके, नाहीं वन पुर गामा। अपनी निधिको पा गये। ऐसा रता पायके भई, क्यों खोवत धिन कामा ॥२॥ रचनाएँ धनजीवन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि भामा।
इस समय कविवरकी मुझे चार रचनाओंका पता काल अचानक झटक खायगा, पडे रहेंगे ठामा ॥३॥
चला है । बुवजन सतसई, तत्त्वार्थबोध, बुधजन विलास अपने स्वामीके पद पंकज, धरो हिये विसरामा ।
और पंचास्तिकायका पद्यानुवाद। इन ग्रंथोमसे पंचास्तिकाय'मेटि कपट-भ्रम अपना'बधजन' ज्यों पावो शिवधामा॥४॥" कोबोटकाखतीन रचनाओंको देखा है और उनपरसे
अतः हे बुधजन ! अब अधिक चिन्तन और विचार करने कुछ नोट्स भी लिये थे। पंचास्तिकायकी रचना संभवतः से तेरा कुछ भी सुधार नहीं हो सकता, पशु पर्यायमें तू निकामा जयपुरमें ही किसी प्रथभंडारमें होगी, इसीसे उसे देखनेका ही रहा-आत्महितसे दूर रहा, और नरतनरूपी हीरा सौभाग्य अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। पाकर, जिसे देवेंद्र भी पानेकी अभिलाषा करता है, तू उसे १ बुधजन सतसई-यह अथ सातसौ दोहोंमें रचा व्यर्थ खो रहा है। कर्मोदयसे जो तुझे धन, यौवन और सुन्दर गया है । इसमें चार प्रकरण है-देवानुराग शतक, सुभाषितशरीर मिला है उसे पाकर भामा (स्त्री) में क्यो मग्न नीति, उपदेशाधिकार और विराग भावना । इस ग्रंथके हुआ है। गुरु बार बार पुकार कर कह रहे हैं-हे आत्मन् ! उक्त प्रकरणोंका अध्ययन करनेसे अथकी महत्ता और पंच इन्द्रियोंके यह विषय बड़े ही घातक हैं, इन्हें छोड़, अन्यथा कविकी प्रतिमा एवं अनुभूतिका सहज परिचय मिल जाता काल अचानक आकर तुझे खा जायगा, और कर्मोदयजनित है। परन्तु खेद इस बातका होता है कि इतने सुन्दर अथका यह सब ठोट पड़ा रह जायगा, तेरा मनका विचार मनमें समाजमें कोई प्रचार ही नही है। और न उसक, तुलनात्मक ही रह जायगा, फिर कुछ न कर सकनेके कारण केवल अध्ययन द्वारा कोई महत्त्वका आधुनिक संस्करण ही पछतावा तेरे हाथ रह जायगा । अतः अब तू अपना अन्तर निकाला गया है, जिससे वह साहित्यसंसारमें अध्ययनकी कपट रूपी भ्रम मैट, और अपने हितकी और देख, जिससे वस्तु बनता। .
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कविवर बुधजन और उनकी रचनाएं
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उक्त प्रकरणोंमेंसे प्रथम प्रकरणमें कविने देवता- "विपताको धन राखिए धन दीजे रसि दार । विषयक अनुराग एवं भक्तिका सजीव चित्रण किया है । आतमहितको छोड़िए धन दारा परिवार ॥" बुषजन कविके देवानुराग-विषयक कथनको देखते हुए महात्मा "आपदर्थे धनं रक्षेत् दारान् रक्षेननरपि । सूर और कविवर तुलसीके देव-भक्तिविषयक पद भी कही आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनरपि।" -हितोपदेश स्मृतिका विषय बन जाते है । संभव है उनकी कुछ छाया "रिपु समान पितु मात जो, पुत्र पढाब नाहि । कविपर पड़ी हो, जैसा कि निम्न उद्धरणसे स्पष्ट है:
शोभा पावै नांहि सो, राज सभाके मांहि ।" "मेरे अवगुन जिन गिनौ, मै औगुनको घाम ।
"मातः शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः । पतित उद्धारक आप हो, करोपतितको काम।"-बुधजन ___ न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ।"-हितो. "प्रभु मेरे अवगुन चित्त न धरो।
___ इसी तरहके और भी कितने ही दोहे है जिन्हें संस्कृत समदर्शी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो॥"-सूरदास
पात पद्योंका भावानुवाद कहा जा सकता है।
या "रामसो बड़ो है कौन मोसे कौन छोटो। रामसौं खरो है कौन मोसे कौन खोटो।"-तुलसी ,
उक्त सतसईमें नीति-विषयक दोहे कुछ ऐसे भी है सुभाषित नीतिपर भी कविने २०० दोहे लिखे है,
___जिनकी अन्य हिंदी कवियोके दोहोंके साथ समानता पाई उनके पढ़नेसे कविके अनुभवपूर्ण पाडित्यकी झांकीका
जाती है। पाठकोकी जानकारीके लिये यहां सिर्फ ४ दोहे सहज ही दर्शन हो जाता है। उनमे कितने ही दोहे संस्कृत
ही दिये जा रहे है.के नीति-सम्बन्धी श्लोको के सूचक है । हिंदी भाषाके प्रायः सब ___"दुष्ट मिलत ही साधुजन, नही दुष्ट हा जाय । ही कवियोने (वृन्द, रहीम, और तुलसी आदि ने) सस्कृत
चन्दन तरु को सर्प लगि, विष नहीं देत बनाय । बुधजन पद्योके नीति-विषयक पद्योका अनुवाद ही दोहोमें किया बुद्धिवान गम्भीरको संगत लागे नांहि । है। इसलिये इस सम्बन्धमें कविवर बुधजनको उनका
ज्यों चन्दन ढिग अहि रहत विष न होय तिहि माहि । वृन्द अनुकरण करने वाला नहीं कहा जा सकता कितु वे सब दोहे
रहिमन ज्यो उत्तम प्रकृति का कर सकत कुसंग । सस्कृत पद्योपरसे ही स्वकीय योग्यतानसार अनूदित किये
चन्दन विष ब्यापै नही लिपटे रहत भुजंग। रहीम गये है । जैसा कि उनके निम्न उद्धरणोसे स्पष्ट है:
दुर्जन सज्जन होत नहि राखो तीरथ बास । "महाराज महावृक्षकी, सुखदा शीतल छाय ।
मेलो क्यों न कपूरमै हीग न होय सुवास ॥ बुषजन सेवत फल भासै न तो, छाया तो रहि जाय ॥ बुधजन
नीच निचाई नहिं तज, जो पावै सत्सग ॥ "सेवितव्यो महावृक्ष., फलच्छाया समन्वितः ।
तुलसी चन्दन विटपिवसि विष हि तजत भुजग । तुलसी यदि दैवात् फले नास्ति छाया केन निवार्यत.॥हितोपदेश
करि सचित कोरो रहे, मूरख विलसि न खाय । "पर उपदेश करन निपुन, ते तो लखे अनेक ।
माखी कर मंडित रचे, शहद भील ले जाय । बुधजन कर समिक बोल समिक, ते हजारमें एक "॥ बुधजन खाये न खरच सूम धन, चौर सबै ले जाय । . "परोपदेशे पांडित्य, सर्वेषा सुकर नृणाम् ।
पीछ ज्यों मधु मक्षिका, हाथ मले पछताय । वृन्द धर्मे स्वीयमनुष्ठानं, कस्य चित्तु महात्मन : ॥ हितो.
दुष्ट कही सुनि चुप रह्यो, बोले बै है हान । "मिनख जनम ले ना किया, धर्म न अर्थ न काम ।
भाटा मारे कीचमे, छोटे लागै आन ॥ बुधजन सो कुच अजके कंठमें, उपजे गए निकाम ॥" बुधजन
कछु कहि नीच न छेड़िये, भलो न वाको सग । "धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोपि न विद्यते । पाथर डारघो कीचमें, उछरि विगार अंग ॥" बन्द अजागलस्तनस्यैव, तस्य जन्म निरर्थकम् ॥" हितोप०
आत्म कर्तव्यका भान कराने वाले कविवरके निम्न "नदी नखी शृगीनिमें शस्त्र पानि नर नारि । दोहे खास तौरसे मनन करने योग्य है जो आत्म-बोषके साथ बालक अरु राजानढिग, वसिए जतन विचारि॥' बधजन वस्तुस्थितिके निदर्शक तथा वैराग्योत्पादक भी है:"नदीनां शस्त्रपाणीनां नखीनां शृंगिणां तथा । धंधा करता फिरत है, करत न अपना काज । विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च ॥' हितो. घरकी मुंपरी जरत है, पर घर करत इलाज।
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२४६
मनेकान्त
[वर्ष ११
इस ग्रंथको किसीकी प्रेरणासे नहीं बनाया है किन्तु अपनी बुद्धिकी प्रेरणासे स्वयं ही रचा है ।
कविवरकी दूसरी रचना 'तस्वार्थबोध' है जो एक पद्यबद्ध ग्रंथ है। इसमें गुडपिच्छाचार्यके 'तत्त्वार्थसून के सूत्रविषयका पल्लवित अनुवाद दिया हुआ है। इसके सिवाय ग्रंथ में १४ गुणस्थानोंका विशद वरूप, पल्य, सागर, राजू का प्रमाण, मध्यलोकका वर्णन, १४ मार्गणाओं की चर्चा, श्रावकों षट् आवश्यक कार्य, दशधर्म द्वादशतम, वाईस परिषद्, अठारह हजार शोलके भेद और सत्सख्यादि
कितने दिवस बीते तुम्हें करते क्यों न विचार | काल गगा आय कर, सुनि है कौन पुकार ॥ जो जीए तो क्या किया मूए तो क्या दिया खोय । कारे लगी अनादिकी, देह तर्ज नहि कोय ॥ तर्ज देहसौं नेह भर, मानं लोटा संग । नहि पो सोलत रहे, तब तू होय निसंग ॥ तन तो कारागार है, सुत परिकर रखवार । यों जाने भानं न दुख, मानं हितू गंवार ॥ या वीरध संसारमें, मुबो अनन्ती बार । एक बार ज्ञानी मरं, मरं न दूजी बार ॥ मन तुरंग चंचल प्रबल बाग हाथमें राचि । जा छिन ही गाफिल रह्यो, ता छिन डारै नाखि ॥ चाह करं सो न मिलें, चाह समान न पाप । चाह रखे चाकर करें, चाह विना प्रभु आप ॥ परमारथका गुरु हितू स्वारथका संसार । सब मिल मोह बढ़ात हैं, सुत तिम फिकर यार ॥ तीरथ तीरथ क्यों फिर, नीरथ तो घट मांहि । जो थिर हुए सो तिरगए, अधिर तिरत है नांहि । अपने आप बिगाड़ते निवचं लागत पाप । पर अकाज तो हो नहीं, होत कलंकी आप ॥ को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सरायमें, बिरंगे निरधार ॥ परी रहेगी संपदा, घरी रहेगी काय I छलबल करि क्यों तू न बचे, काल झपट ले जाय ॥ देहधारी बचता नही, सोच न करिए भ्रात । तनती त गे रामसे, रावनकी कहा बात ! आया सोनांही रहथा, दशरथ लछमन राम । तूं कैसे रह जायगा, झूठ पापका धाम ॥ करना क्या करता कहा, धरता नांहि विचार । पूंजी खोई गांठकी, उल्टी खाई मार ॥ और भी कितने ही दोहे पाठकोंके अवलोकनार्थ दिये जा सकते थे, परन्तु विस्तार भयसे उन सबको छोड़ा जाता है। ऊपरके इन कतिपय उद्धरणोंसे पाठक उसकी महत्ताका मान कर सकते हैं कविवरने इस सतसई पंचको सं. १८७९ में जयपुरके राजा जयसिंह तृतीयके राज्यकालमें बना कर समाप्त किया है। पंच कर्ताने
१ संवत् डारासे भी एक बरस से पाट उपेष्ट कृष्ण रवि अष्टमी हूबो सतसई पाठ ॥
रणाओंका सुन्दर कथन दिया हुआ है। इस ग्रंथको भी कविने सं. १८८९ में राजा जयसिंह राज्यमें बनाकर पूर्ण किया है ।" तत्त्वार्थं बोधसे यहां सिर्फ चतुर्थं गुणस्थानका संक्षिप्त स्वरूप पाठकोंकी जानकारीके लिये दिया जा रहा है:
जो निज आतम अनुभने तन-तुष-माव पिछान । उदासीन घरमें वसं, सो चौथा गुनथान ॥ २१ ॥ सात तत्त्व पट् द्रस्यको गुन-परजाय विधान । जैसा भाष्या केवली, तिसा करं सरघान ॥२२॥ सूतो जीव मनादिको मोहनीदमें दीन । कर्मशत्रु धन लूटकं, करो संपदाहीन ॥ २३॥ जागे गुरउपदेशते, मोहनीद तजि जीव । पानशने कर्मनिर्ज, सपति रहे सदीव ||२४|| विषयविरेचन औषधी, श्रीजिनवचन प्रमाण । जन्म- जरा दुख दाघहर, शिव-सुखदायक जान ॥ अनंत चतुष्टयका धनी, मदिरा मोह सवादि । रंक भया चिद दुख सह, निजधन करं न यादि ॥ रहिये जा सग जाहिसों, आदि अन्त सुख भोग । आदि अन्त सुखमय सदा, परसंग तजिवे जोग ॥ जरं मरे फार्ट गेरे, नव जीरनता वानि । बरं मरे नहि जीव मे दुखी पराई हानि ॥ हानि बुद्धिके योगमें, दुखी मुखी मतिमान | जो बोया सो ही मिले निज प्रापति उनमान ॥ जो अलाभ भी सामसिर बंधो सो मिलई आय । कर्म जो है पति जिसी, नाही देत गिराय ॥
उस समय जयपुरमें जयसिंह तृतीयका राज्य था, जो जगतसिंह पुत्र थे और वे तब चार-पांच बरसके थे। उनकी माता उस समय राज्यकी अधिकारिणी थी। जयसिंह की सन् १८३४ वि. सं. १८७१ में मृत्यु हो गयी थी ।
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कविवर बुधजन और उनकी रचनाएं
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जो कछु नीत अनीत है, निरख पराई गर । क्षमा कर तो रनघट, बड़े धरै जिय वैर ॥ जो जिन दर्शन भ्रष्टक, लाज लोभ भय खाय । इष्ट जानके पग पर, ताको समकित जाय ।। सम्यक् रुचिारषानते, शुद्ध शान उपलब्धि । ताते निज आचरन हो, कर्मनाश शिव सिद्ध । धर्म मूल सम्यक्त जिन, कहो देव निर्दोष । धर्महीन समकित दिना, होय न कबहू मोक्ष ॥ विना मूल ज्यों विटपके, दल फल फूल न वृद्धि । धर्ममूल समकित विना, त्यों न होय सिव सिद्ध । विषम परीषहको सह, विन समकित सरधान । करै कोटि लख बरष तप, तो न लहे निरवान । चूटत काटत दल मलत, मिटत न इम मिथ्यात । मूल उखारत समकिती, पुनि विकास नहि पात ।। चरितमोहनीकै उदै, वर तन धार लेश । पहचान निज अपर कू, रहे उदासी भेस ॥ जो जग अपजस न बढ़, धर्म विरोध न कोय । वा कारिजको समकिती, करै उद्यमी होय ॥ मेरी नाही राजरिद्धि, सुत दारा परिवार । राग दोष तन मन वचन, क्रोध लोभ मद मार ।। मनमें मैं तब ही कियो, अहंकार ममकार । जब जब बांध्यो कर्ममुझ, लयो कुगति दुखभार ॥ मै नहि इनका ये न मम, हुए न होंगे नाहि । मै एकाकी ज्ञान धन, जिसा शिवाले मांहि॥ पहले कीनी भूल जो, उदै आय रस देय । तासौं परवश पररह्यो, करज देय सो लेय ॥ जड़को करता जड़ सही, मै मेरा करतार । विरषा करता होय पर, कैसे भुगतों मार ॥ मन वच काय शरीर सब, पर पुद्गलके बंध । पुनि ज्ञानावरणादि वसु, द्रव्यकर्म सम्बन्ध ॥ मेरा लक्षण चेतना, असंख्यात परदेश । गलै बले पूरै नहीं, आदि अन्त विनिवेश ।। अहो भाग्य समकित जग्यो, निज धन लाग्यो हाथ ।
कर कलेस वाटा वटपा, दुख सहते पर साथ ॥ जो नरभव समकित गहै, ता महिमा सुरलोय । जो अजान विषयागमन, बूई सागर सोय ॥"
इन थोड़ेसे दोहोंपरसे ही पाठक इस ग्रंथकी उपयोगिता महत्ता और विषयविवेचनकी सरल एव मनोहर सरणि का मूल्य आक सकेंगे। और कविके भावुक हृदयकी गतिविधिको भी पहचान सकेंगे। इस तरह यह सारा ही ग्रंथ सैद्धांतिक विवेचन सुन्दर सुगम एवं ललित सूक्तियों, विविध अनुप्रासों आदिको लिये हुए है। यद्यपि यह ग्रंथ भी छप गया है, परन्तु इसका शुद्ध सुन्दर संस्करण अभी तक प्रकाशमें नही आया है जिसके लानेकी आवश्यकता है।
तीसरी रचना 'बुधजन' विलास है। इस ग्रंथमें अनेक फुटकर छोटी-बड़ी रचनाओका संग्रह एकत्र किया गया है जो विभिन्न समयों में रची गई है । छहढाला, इष्ट छत्तीसी, दर्शन पच्चीसी, पूजन करनेसे प्रथम पढा जाने वाला पाठ, ब रह भावना पूजन तथा अनेक सुन्दर भक्तिपूर्ण, औपदेशिक एवं आध्यात्मिक पदोंका संकलन किया गया है, जिनका कुछ परिचय ऊपर कराया जा चुका है। बुधजन विलासकी प्रथम रचना छहढाला बड़ी ही सुन्दर कृति है । इस कृतिको देखकर ही कविवर दौलतरामजीने छहढालाकी रचना की है। छहढालेकी यह रचना जो खड़ी बोलीमें की गई है, मुमुक्षु जीवके लिये हित बोधक जान पड़ती है। इस ग्रंथको कविने सं. १८५९ में वैशाख शुक्ला तीजको बनाकर समाप्त किया है। जैसा कि उसके निम्न पद्यसे प्रकट है:
ठारहसौ पंचास अधिक नव संवत जानों। तीज शुक्ल वैशाख ढाल षट् शुभ उपजानों ।।
इस ग्रंथके अन्तमें कविने आत्म संबोधनका उल्लेख करते हुए लिखा है कि हे बुषजन। करोड़ बातकी यह बात है, उसे अपने हृदयमें धारण कर, और मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक जिन धर्मका शरणा रखना, वह दोहा इस प्रकार है:
कोटि बातकी बात अरे 'बुधजन' उर धरना । मन वच तन शुद्धि होय गहो जिम वृषका शरणा॥
वीरसेवा मन्दिर ता. २६-८-५२
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जोधपुर इतिहासका एक प्रावरित पृष्ठ (जोधपुरको मुसलमान अधिकारीसे वापिस लेनेवाला-गवहीया तेजा)
(श्री अगरचन्द नाहटा) जिस प्रकार जैनाचार्योंका इतिवृत्त पट्टावलियों, प्रति- घरपर रखी हुई बतला देते है। कोई जातीय इतिहासका मालेखों, ग्रंप प्रशस्तियों, लेखन पुष्पिकाओं व प्रबन्धसंग्रहों में प्रेमी खोज करे तो कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी हाथ लगने
और रास काव्य, गीतादिमें पाया जाता है उसी प्रकार जैन व प्रकाशमें आनेकी सभावना है। खेद है वैसा जातीय इतिधावकोंके वंशको नामावली व इतिहास वंशावलियों आदिमें हासका प्रेमी व्यक्ति अभी नजर नहीं आता । पाया जाता है। पर अभी उनकी ओर विद्वानोंका जैसा समाजमें ऐसी वंशावलियां हंगी पर उनके सम्बन्धमें चाहिए ध्यान नहो गया, फलतः (जातीय) बहुत सी महत्वपूर्ण अभीतक कहीं प्रकाश डलाया गया नजर नही आया अतः बातोंसे हम अपरिचित से है।
दि० विद्वानोंसे अनुरोध है कि वे उनकी शोध पर इतिवृत्त
प्रकाशमें लावें। हमारे पूर्वजोंने इतिवृत्तको सुरक्षित रखनेका काम कुलगुरु, महात्मा व भाटोंके सुपुर्द किया था । वशावली
भाटोंके पासको प्राचीन वंशावलियां देखनेका तो लिखते रहने के लिये हजारों लाखों रुपये ओसवाल समाज
मुझे अवसर नही मिला । उन्होंने तो उसकी गोप्यताके
लिये साकेतिक लिपिका आविष्कार भी वर्षोसे कर लिया है। के इन लोगोंके दान व सत्कारमें खर्च होते थे पर खेद है जिस साहित्य रक्षाके लिए उन्होंने लाखो रुपये खर्च कर
अतः साधारण व्यक्ति बही पास पड़ी रहे तो भी उसे पढ ऐसी सुन्दर व्यवस्था की थी हमने उसकी सर्वथा सुधि
नहीं सकते । पर जैन यतियो व महात्माओ व यथेरणी द्वारा विसार दो है। फलतः हमारे पूर्वजोंके कार्य-कलापों एवं
लिखित कतिपय वंशावलिया हमारे संग्रहमें एवं अन्यत्र भी
प्राप्त है। इनमे सबसे प्राचीन ज्ञात वशावली बड़ौदाके कीर्ति-गाथाओंसे हम सर्वथा अपरिचित से है। इसीलिये
म्यूजियममे सुरक्षित है जिसका कुछ हिस्सा नष्ट हो गया है। उनके कार्यों द्वार, हमें जो प्रेरणा मिलनी चाहिए थी वह
यह कपड़े पर लिखी हुई है और १६ वी शतीके अन्त की है। नहीं मिली।
इसका थोड़ा सा परिचय मै ओसवालके एक अंक में प्रकाशित . इन वंशावलियोंसे कभी कभी ऐसी महत्त्वपूर्ण राजकीय
कर चुका है। इससे परवर्ती वंशावलिया हमारे संग्रहमें घटनाओंका परिचय मिलता है जिनका उल्लेख राजकीय है जिनमें कपड़े पर लिखित दो वशावलियां ही सबसे प्राचीन ख्यातों आदिमें भी नही पाया जाता । अत. इनका महत्व प्रतीत होती है। प्रथममें लेखन सं. १६१२ लिखा नआ है। ओसवालादि वशके इतिवृत्तके साथ भारतीय इतिहासकी
दूसरी इसके कुछ बाद की है पर है वह भी १७ वी शतीकी । दृष्टिसे भी है। वंशावला लेखनका कार्य अब बन्द सा हो
१८-१९-२० शतीकी लिखित तो कई वंशावलियां रहा है। कुलगुरु महात्मा इसको छोड़ रहे है। भाट लोग कभी
| मेरे सग्रहालयमें है। ये सभी उपकेश (कवला) गच्छीय कभी आ जाते हैं और पुत्र पुत्री व विवाहादिको नाष यतियोकी लिखित हैं। अभी उनको सांगोपांग देखने व लिख कर ले जाते है पर उनका पूर्व जैसा अब आदर नहीं जा
आदर नहा उनपर प्रकाश डालनेका सुअवसर तो नही आया पर रहा, अतः वे भी थोड़े दिनोंमें इस पेशेको छोड़ देंगे, ऐसा ,
सरसरी तौरसे देखनेपर उनसे कई महत्त्वपूर्ण बातोंवर्तमान स्थितिसे सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
का पता चला, जिनमेंसे एकको प्रस्तुत लेखमें प्रकाशित पुरानी वंशावलियां असावधानी व कहीं भाटोंके आपसी किया जा रहा है। बटवारे आदिके कारण नष्टप्रायः हो चुकी है। उनके कुछ वर्ष हुए हमारे संग्रहके एक गुटकेमें जोधपुरके आधारसे विलिखित नई बहिया ही भाट व कुलगुरुओं- तेजा गदहीया व उनके वंशजोको प्राप्त दाना माफीके के पास देखी जाती है । पूछ ताछ करने पर पुरानी बहियां परवानोंकी नकल पाई गई थी, जिसे मै “ओसवाल" वर्ष भरती (पूरी लिखी जा चुकने) हो जानेसे व जीर्ण हो जानेसे १६ अं. ३ में प्रकाशित कर चुका हूं। मूल परवाना सं.
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जोधपुर इतिहासका आवरित पृष्ठ
२४९
१९०३ के विजय दशमीको जोधपुरके महाराजा मालदेवने द्वि जैतसी। सा० तेजा सहिमलको दिया था। परवर्ती दो परवानोंमें २ वस्ता पु.देवीदास १ नगराज २ पितर छ उसी बातको दुहराया गया है । परवर्ती राजाओ द्वारा (वस्तान बेटो प्रत्यक्ष हूवो (बेटो दीपो केसरीसिंघ) पूर्व प्राप्त दान माफीकी बातको पुष्ट किया गया है ।
२. जैतसी पु. जैराज १ जसवंत २ जगमाल ३ जोषा मूल परवाने में लिखा गया है कि सा. तेजा सीहमल ४ जैकर्ण ५ जगमाल ६ गदहीया "रावलें बड़े अवसाण आया छै सुइणा नु मया कर १ जैराज पु. रूपचन्द १ अमीचंद २ दुलीचद ३ रूपधरतीमें दाण जगात बगसीयो है" बीजो ही इणा नु क्युं न चंद पु. कपूरचद १ लागे, सरब माफ छ। स्याम धरमी छोर छै।" इन शब्दों- २ अमीचंद पु अनोपसिंघ १ अजबसिंघ २ द्वि आणंद से जोधपुर राज्यके ये कभी किसी बड़े काम आये थे, ज्ञात ३ विरधा ४ सावत ५ अखा ६ तेजा ७२ अजबसिंघ पु. रतनजी होता है। पर यह बड़ा काम क्या था? अभी तक अज्ञात था। १ अनोपसिघ पु. भाऊजी, सांवल जी । भाऊजी पु. जोधपुर इतिहास में इसका कुछ भी विवरण नहीं मिलता। लालचंद १ सवाई २ उमा ३ लालचंद पु. खेता १ अमा २ मैंने इसे प्रकाशित करते समय लिखा था कि “अब इनके २ जसवंत पु. मयाचंद, पेमराज २ रामचद ३ हरचंद वंशमें कोई है या नही? तेजा सीहमलने क्या सेवा बजाई ४ किमनचद ५ (मयाचद पु. विरधीचंद) थी? वे कहा रहते थे ? आदि बातें अन्वेषणीय है।" आशा पेमराज पु. भगोतीदास १ दीनानाथ २ गुलाबचंद की गई थी कि जोधपुरके कोई सज्जन या उनके वंशज इन ३ भावसंघ ४ पु. सिरदारा १ बातोंपर विशेष प्रकाश डालेगे पर इतिहासकी ओर उदासीन १ भगोती पु. थिरपाल १ होनेके कारण किसीने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया प्रतीत २ दीनानाथ पु. रुघनाथ १ जिणदास २ चंद ३ । होता है। आज तो लोग रोटीकी समस्याको हल नही कर जिणदास पु. सुरताण । पाते तब इस ओर ध्यान दे भी कैसे ! मेरे जैसा प्राचीन ३ गुलाबचंद पु० इतिवृत्तका प्रेमी इन विस्मृत बातोंको प्रकाशमे लानेका ४. जोधा पु. रामचद १ उदचद २ ताराचंद ३ देवचंद४ प्रयत्न करता है तो लोग इसे 'मुर्दैको कब्र खोदकर बाहर (जोधा कारकन हवी मेडतै, सं. १७३४ म. जसवंत निकालना' कहते है, अस्तु । मेरी खोज चालू ही थी। अभी सिंहजी रै) उस दिन अपने संग्रहकी ओसवाल वंशावलियोको उलटते १. रामचंद पु. सुकलचंद १ म्वो० श्रीचंद पु खुस्याल पुलटते समस्याका हल एक वशावलीमे ही प्राप्त होगया। चंद १ पाठकोकी जानकारीके लिये वंशावलीका आवश्यक अश २ उदचंद पु. छजमल १ छीतर २ छजमल पुत्र सरूपयहा उद्धृन कर दिया जाता है। इससे तेजाके वशजोंके चद १ वखतमल २ तखतमल ३ नामादि ज्ञात होनेके साथ वह किस बड़े अवसाण (मौके ४ जोधा द्वि. भा. तिलोकचद १ कार्य) पर काम आया था, पता चल जाता है।
इसके बाद सीताकी वंशावलि आरंभ होती है वंशावली का उद्धरण
जोधपुर या उसके आसपास कहीं गदहीये तेजोके गादहीया गोत्र
वंशज अब भी संभवतः निवास करते होंगे उनमेंसे कोई सिनामोने चोरडिया शाखाय गादीया सज्जन जातीय इतिहास व स्ववंशके गौरवका प्रेमी हो
माजमा डागाडीमा जाणिवा तो इस सम्बन्धमे विशेष जानकारी प्रकाशमें यें यह अनुरूपारेल विरुदमभूत् । पत्तन मध्ये । साभइसा पु. कउंरा रोष है। पु.छाहड पु.पाल्हण पु. केल्हण भा. कमलादे पु. लिखमीधर तेजा १.छोहर।
४. तेज गढ़ जोषपुर लोगो तेरी बाकी-राठोड़ जोधपुरे गादहीया .
वीरमदे दूदावत रावजी श्रीमालदेजी ऊपर सूर पातिसाहो ४ तेजा पु. सीहमल १ समरथ २। सीहमल पु. वस्ता १ कटक ल्यायो। संः १६.० वर्षे अंतो कूपो समेल काम भायो।
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२५०
अनेकान्त
[
१
पातसहजी हमजानुं जोधपुर फोजदार राखीयो। पछ सा. ३०८ से ३१० में इस घटनाका विवरण प्रकाशित है गादहीय तेज सहसावत हमजान मारनं गढ जोधपुर लीयो। व पं. विश्वेश्वरनाथजी रेउके मारवाड़ राज्यके इतिहास रावधी मालदेजी नुं सू पीयो। बडो स्वामिधर्मी हुवो। रावजी
भा. १के र. १२८ में उसका विशेष वर्णन पाया जाता है। इयो नुमय करिने दाण जगात छूट कीषा। तिणरा पटा
वंशावलिमें उल्लिखित सूर पतिसाह सुप्रसिद्ध शेरशाह था। छ । वलं तिण समेरो गीत छ
राठोड़ वीरम और भीम ही उसे प्रोत्साहित कर स. १६०० सूर पातिसाह ने मालवे सांकलो
में जोधपुर पर चढ़ा लाये थे। राठोड़ोंकी वीरतासे उसने ठाकुरे बडवडे छांडीया डाल
विजयको आशा छोड़ वापिस चले जानेका कई बार विचार गिरंद झूझारीये तेष कण गादह्यो
किया था पर वीरमने उसे रोके रखा और अंतमें एक कपटप्रतपीयो तेजलो गढ रखपाल ॥१॥
की चाल चलकर राव मालदेवको अपने सामन्तोंसे अविश्वास साम र काम परधान सहसा सुतनविरद पतिसाह सूहुवो बाथ
पंदा करा दिया, फलतः शेरशाहको विजय प्राप्त होगई। राव जोधपुर महाभारष कियो जोरवर
मालदेव पहाड़ियोंमे जा छिपा । वीरमको मेड़ताका शासन हमजो मार लियो जस हाथ ॥२॥
प्राप्त हो गया।भारमल हरे मेछांण दल भांजिया
जोधपुर आधीन कर शेरशाहने वहांका प्रबन्ध राव रै काम अखियात राखी
खवासखांको सौंप दिया । पर वशावलि और गीतके कोटनव अचल राठोड़ साको कियो
अनुसार उसका नाम हमजा था। रेउजीके इतिहासमें लिखा सूर नै सोम संसार राखी (! साखी) ॥३॥ हारिया असुरइम जस हुवो
है कि १-१॥ वर्ष तक जोधपुर मुसलमानोके अधीन रहनेके वाणिय इसो करि दाख वारो
अनंतर स. १६०२ में शेरशाहके मारे जाने पर मालदेवने थापियो मालवे तोन तेजा सुधिर
पहाड़ोसे आकर शेरशाहके नियुक्त मुसलमान अधिकारी थयो खटसुर खंडे नांमथारो ॥४॥
व सैनिकोको मारकर राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। सेवकोंराठोड़ वीर जैता कुपाने इस युद्ध में बड़ी वीरता के काम मालिको नाममे प्रसित टोले या और स्वामिभक्ति दिखाई । दुर्भाग्यवश सैनिक कम होने वास्तवमें जोधपुरको वापिस प्राप्त करनेका श्रेय तेजोको व दिशा भ्रम हो जानेसे जैता कूपा काम आये । जैसा कि ही मिलना चाहिये। ओसवाल जातिके इतिहासमें इस वीरउपरोक्त उदरणमें लिखा गया है शेरशाहकी विजय तो की गौरव-स्मृति सदा बनी ही रहेगी। हुई पर वह बहुत महगी पड़ी। फलतः उसके मुहसे ये शब्द
श्वेताम्बर श्रावकोका पहले गुजरातके राज्यसचालन निकल पड़े-"खुदाका शुक्र है कि किसी तरह फतह
व श्रीवृद्धिमें बडा हाथ रहा है। पाटणके महाराजा सिद्धराज
जयसिंह व कुमारपालका समय स्वर्णयुग था । उस हम हासिल हुई वरना मैने एक मुट्ठी भर बाजरे के
समय जैनधर्म गुजरातमें चरम उर र्षको प्राप्त हुआ था। लिये हिंदुस्तानको बादशाहत ही खोई थी।"
वस्तुपाल तेजपालकी वीरता, व्यवहार कुशलता. नीतिउपर्युक्त उद्धरणसे स्पष्ट है कि सूर पातिसाहने निपुणता व धर्मप्रेम तो गुजरातके जन इतिहासमें चिर स्मरराव मालदेवजीपर चढ़ाई सं. १६०० में की थी, जैता इसमें णीय रहेगा । चौदहवी शतीमें ता. दानवीर जगडूशाह काम आये। जोषपुर पातसाहके कब्जे में जा चुका था। व धर्ममूर्ति पेथड़शाह व समरसिहकी कीर्तिगाथा प्रसारित पातसाहने हमजाको जोधपुरका फौजदार नियुक्त कर दिया होती है । १५-१६वो शतीमें मंत्रिमंडल एवं संग्रामसिंहथा। सा. तेजा गदहीयेने उस समय वहांके नियुक्त हमजा का मंडपदुर्ग-मालवेमें बडा प्रभाव प्रतीत होता है । इस समयफौजदारको मारकर राठोड़ोंके हाथसे निकले हुए जोषपुरको में राजस्थानमें जैन श्रावकोंका राज्य संचालनमें प्रधान प्राप्त किया और उसे उसके स्वामी रामालदेवजीको सौंप स्थान हो जाता है। इसी शतीके कर्मसाहका धर्म मर्म उल्लेख दिया। इससे वह कितना वीर, साहसी व सामधर्मी था- योग्य है। १७वों में मंत्रीश्वर कर्मचंद्र व राजा भारमल. सहज पता पड़ जाता है। विधर्मी व शत्रुके हाथमें गये हुए १८वों में भंडारी रतनचंद, मुहणोतनैणसी और १९वीं में राज्यको वापिस प्राप्त कर लेना कितना बड़ा काम है, यह संघवी इंद्रराज हिंदुमल वैद अमरचंद धुराणा आदिने किसीसे छिपा नहीं है। इस बसाधारण सेवाके उपलक्षमें जोधपुर व बीकानेर राज्यकी बड़ी सेवा व उन्नति की। इसी हो उसे वंश परम्परा तक दाण व जगात माफ की गई थी। प्रकार जयपुर में दि. जैन श्रावकोंका बहुत अच्छा प्रभाव जिससे परवानेको नकल पूर्व प्रकाशित की जा चुकी है। प्रतिष्ठा रही है। इन सबसे प्रत्येक जैनीको परिचित
स्व. बोझाजीके जोधपुर राज्यके इतिहासके पृ० होना चाहिये।
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श्री कुन्दकुन्दाचार्य
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
भारतीय जैन श्रमण परम्परामें आचार्यश्री कुन्दकुन्दका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है । वे उस परम्पराके केबल प्रवर्तक आचार्य हो नहीं थे किंतु उन्होंने आध्यात्मिक योग शक्तिका विकास कर अध्यात्म विद्याकी उस अविच्छिन्न धाराको जन्म दिया था, जिसकी निष्ठा एवं अनुभूति आत्मानन्दको जनक थी और जिसके कारण भारतीय श्रमण परम्पराका यश लोकमें विश्रुत हुआ था ।
श्रमण कुलकमलदिवाकर आचार्य कुन्दकुन्द जैनसंघ परम्पराके प्रधान विद्वान एवं महर्षि थे । वे बड़े भारी तपस्वी थे । क्षमाशील और जैनागमके रहस्यके विशिष्ट ज्ञाता थे । वे मुनि पुंगव रत्नत्रयसे विशिष्ट और संयमनिष्ठ थे। उनकी आत्म-साधना कठोर होते हुए भी दुःख निवृत्तिरूप सुख मार्गकी निदर्शक थी। वे अहंकार ममकाररूप कल्मष भावनासे रहित तो थे ही, साथ ही, उनका व्यक्तित्व असाधारण था । उनकी प्रशान्त एवं यथाजात मुद्रा तथा सौम्य आकृति देखनेसे परम शान्तिका अनुभव होता था । वे आत्म-साधनामें कभी प्रमादी नही होते थे किंतु मोक्ष मार्गको वे साक्षात् प्रतिमूर्ति थे । वास्तवमें कुन्दकुन्द ऋषितुंगव थे। यही कारण है कि 'मगल भगवान वीरों' इत्यादि पद्य में निहित 'मंगलं कुन्दकुन्दार्यो' वाक्यके द्वारा मंगल कार्यो में आपका प्रतिदिन स्मरण किया जाता है। नामका कारण
कुन्दकुन्दका दीक्षा नाम पद्मनन्दी था। वे कौण्डकुण्डपुरके वासी आचार्य थे । अतः उस स्थानके कारण बादको उनकी कौण्डकुन्दाचार्य नामसे प्रसिद्धि हुई थी जो बादको कुन्दकुन्द इस श्रुति मधुर नाममें परिणत हो गया था । और उनका संघ 'कुन्दकुन्दान्वय' के नामसे लोकमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ और आज भी वह उसी नामसे प्रचारमें आ रहा है । वे मूल संघके अद्वितीय नेता थे । यद्यपि उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने सघका कोई उल्लेख नही किया fig उत्तरवर्ती आचार्योंने अपनी गुरुपरम्पराके रूपमें या अन्य प्रकारसे उनकी पवित्र कृतियोंकी मौलिकताके कारण अपने अपने संघको मूल संघ और अपनी परम्पराको 'कुन्दकुन्दान्वय' सूचित किया है। वे ऐसा करनेमें अपना गौरव
समझते थे; क्योकि आचार्य कुन्दकुन्दने भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट समीचीन मार्गका अनुपम उपदेश दिया था । साथ ही, उसे अपने जीवनमें उतारकर भरतक्षेत्रमें उस श्रुतकी प्रतिष्ठा की थी । उन्होंने आत्मानुभूतिके द्वारा श्रुतकेवलियों द्वारा प्रदर्शित आत्ममार्गका उद्भावन किया था, जिसे जनता भूल रही थी। यही कारण हैं कि आचार्यकुन्दकुन्द दिगम्बर जैनश्रमणों में प्रधान थे । आपकी आध्यात्मिक कृतियां अपनी सानी नही रखती और वे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें समान रूपसे आदरणीय मानी जाती है । आपकी आत्मा कितनी विमल थी और उन्होने कल्मष - परिणति पर किस प्रकार विजय पाई थी, यह उनके तपस्वी जीवनसे सहज ही ज्ञात जाता है । अटल नियम पालक मुनिपुंगव कुन्दकुन्द जैन श्रमण परम्पराके लिये आवश्यकीय मूलगुण और उत्तर गुणोंका पालन करते थे और अनशनादि द्वादश प्रकारके अन्तर्बाह्य तपोका अनुष्ठान करते हुए तपस्वियों में प्रधान महर्षि थे। उन्होंने प्रवचनसारमे जैन श्रमणोके मूलगुण इस प्रकार बतलाये है:वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सय मचेलम०हाणं । खिदिसमणमदंतवणं ठिदिभोयण-मेगभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्तं । तेषु पमत्तो समणो छेदोवद्वावगो होदि ॥३-७, ८ 'पांच व्रत, पाच समिति, पाच इंद्रियोका निरोध, केशलोंच, षट् आवश्यक क्रियाएं, अचेलक्य (नग्नता) अस्नान, क्षितिशयन, अदन्त-धावन, स्थिति भोजन और एकभुक्ति ( एकाशन) ये जैन श्रमणोंके अट्ठाईस मूलगुण जिनेंद्र भगवानने कहे है । जो साधु उनके आचरणमे प्रमादी होता है वह छेदोपस्थापक कहलाता है ।” ग्रामों-नगरोंमें ससंघ भ्रमण
वे यथाजात रूपधारी महाश्रमण अनेक ग्रामो, नगरोमे ससंघ भ्रमण करते थे और अनेक राजाओं, महाराजाओं महात्माओं, राजश्रेष्ठियों, श्रावक-श्राविकाओं, और मुनियोंके समूहसे सदा अभिवन्दित थे, परन्तु उनका किसीपर अनुराग और किसीपर विद्वेष न था । विकारी कारणोंके
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अनेकान्त
रहनेपर भी उनका चित्त कभी विकृत नही होता था; वे समदर्शी श्रमण जब गुप्तिरूप प्रवृत्तिमें असमर्थ हो जाते थे तब समिति में सावधानीसे प्रवृत्त होते थे। क्योंकि उस समय भी वे अपने उपयोगकी स्थिरताके कारण शुद्धोपयोगरूप संयमके संरक्षक थे, इसलिये समिति रूप प्रवृत्तिमें सावधान साधुके बाह्यमें कदाचित् किसी दूसरे जीवका घात हो जानेपर भी वह प्रमत्तयोगके अभाव में हिंसक नहीं कहलाता ; क्योंकि शुभोपयोग प्रवृत्ति संयमका घात करने वाली अन्तरंग हिंसा ही है, उससे ही बन्ध होता है, कोरी द्रव्य हिंसा हिंसा नही कहलाती; किंतु अयत्नाचाररूप प्रवृत्ति करनेवाला साधु रागादिभाव के कारण षट्कायके जीवोंका विराधक होता हैं । परन्तु जो अपनी प्रवृत्ति में सावधान है - रागादिभावसे उसकी प्रवृत्ति अनुरंजित नही है तब उसकी हलन चलनादि क्रियाओंसे जीवको विराधना होनेपर भी वह हिंसक नही कहलाता --- वह जलमें कमलकी तरह उस कर्मबन्धनसे निर्लेप रहता है- शुद्धोपयोगरूप अहिंसक भावनाके बलसे उसका अन्तःसमय सर्वथा अक्षुण्ण बना रहता है ।
निर्जन स्थानों में निवास
इस तरह महामुनि कुन्दकुन्द नगरसे बाह्य उद्यानो, दुर्गम अटवियों, सघन वनों, तरु कोटरों, नदी पुलिनों, गिरिशिखरों, पार्वतीय कन्दराओं में तथा स्मशान भूमियों ( मरघटों) में निवास करते थे, जहां अनेक हिंस्र जाति-विरोधी जीवोका निवास रहता था। शीत उष्ण डांस, मच्छर आदिकी अनेक असह्य वेदनाओंको सहते हुए भी अपने चिदानन्दस्वरूपसे जरा भी विचलित नहीं होते थे । सब क्रियाओं में प्रवृत होते हुए भी वे महामुनि अपने ज्ञान दर्शन -चारित्र रूप आत्मगुणों में स्थिर रहने के लिये एकान्त प्राशुक स्थानोमें आत्म-समाधिके द्वारा उस निजानन्दरूप परमपीयूषका पान करते हुए आत्म-विभोर हो उठते थे। परन्तु जब समाधिको छोड़कर संसारस्य जीवोंके दुःखों और उनकी उच्च नीच प्रवृत्तियोंका विचार करते, उसी समय उनके हृदयमें एक प्रकारकी टीस एव वेदना उत्पन्न होती थी, अथवा दयाका स्रोत बाहर निकलता था ।
१. सुष्णहरे तरुहिट्ठे उज्जाणे तह मसाण बासे वा । गिरि-ह- गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा । ४२ --बोभप्राभृत
[ वर्ष ११
चारणऋद्धि और विदेह गमन
इस तरह सम्यक्तपके अनुष्ठानसे आचार्य कुन्दकुन्दको चारणऋद्धिकी प्राप्ति हो गई थी जिसके फलस्वरूप वे पृथ्वीसे चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में चला करते थे * आचार्य देवसेन के 'दर्शनसार' से मालूम होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द विदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामीके समवसरण में गए थे और वहां जाकर उन्होंने उनकी दिव्य ध्वनि द्वारा आत्मतत्वरूपी सुघारसका साक्षात् पान किया था और वहांसे लौट कर उन्होंने मुनिजनोके हितका मार्ग बतलाया था । *
श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंसे तो यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने चारण ऋद्धिकी प्राप्तिके साथ, भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की थी- उन्होंने उसे समुन्नत बनाया था इसमें कोई सन्देह नही कि जब तपश्चरणकी महत्तासे आत्मासे निगड कर्मका बन्धन भी नष्ट हो जाता है तब उसके प्रभावसे यदि उन्हें चारणऋद्धिकी प्राप्ति हो गई हो, इसमें Rainी कोई बात नही है; क्योकि कुंदकुन्द महामुनिराज थे, अतः उन जैसे असाधारण व्यक्ति के सम्बन्ध में जिस घटनाका उल्लेख किया गया है उसमे सन्देहका कोई कारण नही है और देवसेनाचार्यके उल्लेखसे इतना तो स्पष्ट ही है कि विक्रम स० ९९० मे उनके सम्बन्ध में उक्त घटनाके उल्लेख प्रचलित थे । अध्यात्मवाद और आत्माका विध्य
अध्यात्मवाद वह निर्विकल्प रसायन है जिसके सेवन अथवा पानसे आत्मा अपने स्वानुभवरूप आत्मरसमें लीन हो जाता है, और जो आत्मसुधारसकी निर्मल धाराका जनक है । जिसकी प्राप्तिसे आत्मा उस आत्मानन्दमे निमग्न हो जाता है, जिसके लिये वह चिरकालसे उत्कंठित हो रहा
२. रजोभिरस्पष्ट तमत्वमन्तर्बाह्येऽपि स व्यंजयितु यतीशः रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मम्ये चतुरंगुलं सः ॥ -श्रवणबेलगोल. लेख नं० १०५ ३. जह पउमणदिणाहो सीमंधरसामि दिव्वणाणेण । ण वि बोहइ तो समणा कहं सुभग्ग पयाणति दर्शनसार
४. वंद्य विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः, कुन्दप्रभाप्रणविकीर्ति विभूषिताशः ।
यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥श्र० लेख नं० ५४
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श्रीकुनाकुन्दाचार्य
मा। आचार्य कुन्दकुन्दने आत्मानुभवकी उस विमल सरिनामें पथिक बन जाता है और अन्तिम परमात्म बस्थाकी निमग्न होकर भी, संसारी जीवोंकी उस आत्मरसशून्य साधनामें तन्मय हुआ अबसर पाकर उस कर्म-संबछाको अनात्मरूप मिथ्यापरिणतिका परिशात किया । साथ ही, नष्ट कर देता है-आत्म-समाधिस्पचित्तकी एकामपरिणतिचाह-दाह रूप दुःख दावानलसे झुलसित आत्माका अवलोकन स्वरूप ध्यानाग्निसे उसे भस्म कर अपनी अनन्त चतुष्टयकर उनका चित्त परम करुणासे आई हो गया और उनके रूप आत्मनिधिको पा लेता है। समुद्धारकी कल्याणकारी पावन भावनाने जोर पकड़ा, आचार्य कुन्दकुन्दकी देन अतः उन्होने स्व-परके भेद विज्ञानरूप आत्मानुभषके बलसे
आचार्य कुन्दकुन्दने जिस बात्माके विध्यकी कलामा उस आत्मतत्वका रहस्य समझाने एवं आत्मस्वरूपका बोध
की है और उसके स्वरूपका निदर्शन करते हुए उसकी महत्ता कराने के लिये 'सारत्रय' जैसी महत्त्वपूर्ण कृतियोंका निर्माण
एवं उसके अन्तिम लक्ष्य प्राप्तिकी जो सूचना की है उसके किया। और उनमें जीव और अजीवके संयोग सम्बन्धसे होने
अनुसार प्रवृत्ति करनेवाला व्यक्ति अपने चरम लक्ष्यको बाली विविध परिणतियोका-कर्मोदयसे प्राप्त विचित्र
प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्दकी उस अवस्थाओंका-उल्लेख किया और बतलाया कि:
देनको उनके बादके आचार्योंने अपने अपने संयोमें मात्माहे आत्मन् ! पर द्रव्यके संयोगसे होनेवाली परिणतियां के विध्यकी चर्चा की है और बहिरात्म अवस्थाको छोड़कर तेरी नही है और न तू उनका कर्ता हर्ता है वे सब राग-द्वेष तथा अन्तरात्मा बनकर परमात्मअवस्थाके साधनका मोहरूप विभाव परिणतिका फल है । तेरा स्वभाव ज्ञाता उल्लेख किया है। द्रष्टा है, परमें आत्मकल्पना करना तेरा स्वभाव नही है। इस तरह भारतीय श्रमण परम्पराने भारतको सच्चिदानन्द है तू अपने उस निजानन्द स्वरूपका भोक्ता वन, उस अध्यात्मविद्याका अनुपम आदर्श दिया है । इसीसे उस आत्मस्वरूपका भोक्ता बननेके लिये तुझे अपने स्वरूपका भ्रमण परम्पराकी अनेक महत्वपूर्ण बातें वैदिक परम्पराके परिज्ञान होना आवश्यक है, तभी तेरा अनादिकालीन ग्रंयोमें पाई जाती है । और वैदिक परम्पराकी अनेक कविमिथ्या वासनासे छुटकारा हो सकता है।
सम्मत बातें घमण परम्पराके आचार-विचारमें समाई हुई इस आत्माकी तीन अवस्थाएं अथवा परिणतियां है बहि- दृष्टिगोचर होती है, क्योकि दोनों संस्कृतियोंके सम-सामयिक रात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। इनमेंसे यह आत्मा प्रथम होनेके नाते एक दूसरी परम्पराके आचार-विचारोंका अवस्थामें इतना रागी हो गया है कि यह अनादिसे अपनी परस्परमें आदान-प्रदान हुआ है। यही कारण है कि आचार्य ज्ञान दर्शनादिरूप आत्मनिधिको भूल रहा है और पर अचेतन कुन्दकुन्दके प्रायः समान अथवा उससे मिलते-जुलते रूपमें (जड़) शरीरादि वस्तुओमे अपने आत्मस्वरूपकी कल्पना आत्माके विध्यकी कल्पनाका बह रूप कठोपनिषदके करता हुआ चतुर्गतिरूप संसारमें परिभ्रमण कर असह्य निम्न पद्यमें पाया जाता है जिसमें आत्माके मामात्मा एवं घोर वेदनाका अनुभव कर रहा है, वह दुःख नहीं सहा
महदात्मा और शांतात्मा ये तीन भेद किये गये है। जाता, किन्तु अपने द्वारा उपार्जित कर्मका फल भोगे बिना यच्छेवाङ्मनसीप्राज्ञस्तयच्छेज्जानमात्मनि । नही छूट सकता, इसीसे उसे विलाप करता हुआ सहता है। ज्ञान मात्मनि महति नियच्छे तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ।। जीवकी यह प्रथम अवस्था ही संसार दुःखकी जनक है, छान्दयोग उपनिषद् में जो आत्म-भेदोंका उल्लेख किया यही वह अज्ञानधारा है जिससे छुटकारा मिलते ही आत्मा गया है । उसके आधारपर डायसनने भी आत्माके तीन भेद अपने स्वरूपका अनुभव करने में समर्थ हो जाता है । आत्मा- किये है शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा । इस तरह की यह दूसरी अवस्था है जिसे अन्तरात्मा कहते है, वह आत्म- यह आत्म विध्यकी चर्चा अपनी महत्ताको लिये हुए है। शानी होता है-उसे स्वस्वरूप और पररूपका अनुभव परन्तु श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याण विजयजीने 'श्रमण होता है, वह स्व-परके भेदज्ञान द्वारा भूली उस आत्मनिधि- भगवान महावीर' नामकी अपनी पुस्तकमे आत्माके का दर्शन पाकर निर्मल आत्म-समाधिके रसमें तन्मय हो त्रैविध्यकी कल्पनाको विक्रमकी पांचवीं शताब्दीकी जाता है और सदृष्टिके विमल प्रकाश द्वारा मोक्ष मार्गका घोषित करते हुए बिना किसी प्रामाणिक उल्लेख के उसके
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बनेकान्त
आधारसे आचार्य कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी ५ वी एक एक आचार्यका समय कमसे कम पच्चीस वर्षका माना शताब्दीमें होनेकी जो कल्पनाकी है वह प्रमाण शून्य और जावे तो इन छह आचार्यों का समय १५० वर्ष होता है। ऐतिहासिक तथ्यसे हीन है। इस प्रकारको निरर्थक कल्पनाओं ताम्रपत्रमें जिन गुणचन्द्राचार्यका उल्लेख किया गया से ही इतिहासका गला घोंटा जाता है।
है वे आचार्य कुन्दकुन्दके साक्षात् शिष्य नही थे किन्तु गुरुपरम्परा और समय
उनके अन्वयमें (वशमें) हुए हैं। यदि उस अन्वयको ___आचार्य कुन्द कुन्दने अपनी कोई परम्परा नहीं दी
लोकमें प्रतिष्ठित होनेका समय कमसेकम ५० वर्ष
और अधिकसे अधिक १०० वर्ष मान लिया जाय, और न अपने ग्रंथों में उनका रचना काल ही दिया है । किन्तु
जो अधिक नही है तो ऐसी स्थितिमें उक्त ताम्रपत्रसे कुन्दबोष प्राभूत की ६१ नं. को गाथामें अपनेको भद्रबाहुका शिष्य सूचित किया है' और ६२ नं० की गाथ में भद्रबाहु
कुन्द का समय २०० वर्ष पूर्वका हो जाता है अर्थात् शक सं० श्रतकेवलोका परिचय देते हुए उन्हें अपना गमक गुरु बत
१८० के करीब पहुंच जाता है।
पट्टावलियोंकी प्राचीन परम्परा भी उन्हें ईस्वी सन् से लाया है। और लिखा है कि जिनेन्द्र भगवान महावीरने
पूर्व पहली शताब्दी के मध्य भागमें रखती है । यदि तामिल अर्थ रूपसे जो कुछ कथन किया है वह भाषा-सूत्रोंमें शब्द
वेद (कुरल काव्य) के कर्ता एलाचार्य और कुन्दकुन्द दोनों विकारको प्राप्त हुआ है-अनेक प्रकारके शब्दोंमें गूंथा गया
एकही व्यक्ति हो तो कुन्दकुन्दका समय ईसाकी प्रथम है। उसे भद्रवाहुके मुझ शिष्यने उन भाषा-सूत्रों परसे उसी
शताब्दीका प्रारम्भिक भाग हो सकता है। रूपमें जानकर कथन किया है।
इससे स्पष्ट है कि बोधप्रभुतके रचयिता कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थ रचना भद्रबाहुके शिष्य जान पड़ते है और ये भद्रबाहु श्रुतके- आचार्य कुन्दकुन्द ८४ पाहुड ग्रंथोके कर्ता माने जाते है। वलीसे भिन्न ही ज्ञात होते है। जिन्हें प्राचीन ग्रंथोंमें परन्तु इस समय उनकी वे सभी रचनाएं उपलब्ध नही है, आचारांग नामक प्रथम अगके धारकोंमें तृतीय विद्वान किन्तु उनकी २१ या २२ रचनाएं जरूर उपलब्ध है जो सब बतलाया गया है । और जिनका समय जैन कालगणनाके हिन्दी और सस्कृत टीकाओंके साथ प्रकाशित हो चुकी है अनुसार वीर नि० सं० ६१२ और वि० सं० १४२ से पूर्व कुंदकुन्दाचार्य के ये ग्रंथ बड़े ही महत्वपूर्ण है। इनमें आध्यात्मिक वर्ती हो सकता है, परन्तु उससे पीछे का नहीं मालम होता; दृष्टिसे आत्मतत्त्वका विशद विवेचन किया गया है। उक्त क्योंकि भद्रबाहु श्रुतकेवलीके समयमें जिन कथित श्रुतमें मुनिपुगवकी कथनशैली बड़ी ही परिमाजित, संक्षिप्त, ऐसा कोई विकार उपस्थित नही हुआ था जो उक्त गाथामें सरल और अर्थ गौरवको लिये हुये है। जैन समाजमें इनके --"सद्दवियारो हो भासासुत्तेसु जंजिणे कहियं" इन ग्रंथ रत्नोंकी बड़ी भारी प्रतिष्ठा है, क्योंकि वे यथार्थ वस्तुवाक्यों द्वारा उल्लिखित हुआ है । वह उस समय अवछिन्न- तत्त्वके निर्देशक है और आध्यात्मिकताकी सरस एव गंभीरपुटरूपसे चल रहा था, परन्तु द्वितीय भद्रबाहुके समयमें उसकी से अलंकृत है। उनकी आध्यात्मिक तत्त्व विवेचना गम्भीर वह स्थिति नही रही, उस समय कितनाही श्रुतशान लुप्त तथा तलस्पर्शिनी है-वह जैनधर्मके मूलतत्त्वोंका मार्मिक हो चुका था।
विवेचन करती है । इन्ही सब कारणोंसे आचार्य कुन्द कुन्दमर्कराके ताम्रपत्र में जो शक संवत् ३८८ का उत्कीर्ण की रचनाएं जैन साहित्यमें अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हुआ है और जिसमें कुन्दकुन्दान्वय देशीगणके छह आचार्यों है। और वे प्रवचनसारादि अथ महाराष्ट्रीय प्राकृतमें रचे का गुरुशिष्यक्रमसे उल्लेख किया गया है। उनमें से यदि
नामधेयदत्तस्य देशीगण कोण्डकुन्दान्वय-गुणचन्द १. सहवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । भट्टार (प्र) शिष्यस्य अभयणंदिभट्टार तस्य शिष्य
सो तह कहिये बायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६॥ शीलभद्र भट्टार शिष्यस्य-जनाणंदि भट्टारशिष्यस्य २. बारस अंग वियाणं चउदस पुव्वंग विउल वित्थरणं। गुणणदिभट्टारशिष्यस्य चन्द्रणदि भट्टार्गे अष्ट__ सुयणाणि भद्दवाहू गमयगुरू भयो जयजो ॥२॥ शीतित्रयोशतस्य संवत्सरस्य माघमास ........। ३. श्रीमान् कोंगणिमहाराजाधिराज -अविनीत -देखो कुर्ग इन्स कृप्शन्स ।
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किरण ६ ]
गए हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं:
१ प्रवचनसार २ समयसार ३ पंचास्तिकाय ४. नियमसार ५ वारस अणुवेक्खा (द्वदशानुप्रेक्षा ) ६ दंसणपाहुड ७ चारित्तपाहुड ८ सुत्तपाहुड ९ बोषपाहुड १० भावपाहुड ११ मोक्षपाहुड १२ लिंगपाहुड १३ और शीलपाहुड १४ सिद्धांतभक्ति १५ श्रुतभक्ति १६ चारित्रभक्ति १७ योगिभक्ति १८ आचार्यभक्ति १९ निर्वाणभक्ति २० पंचगुरुभक्ति २१ थोसामियुदि ( तीर्थंकरभक्ति ) २२
और रयणसार ।
स्व० श्री दीनानाथजी सरावगी, कलकत्ता
इनमें अन्तिम रचना 'रयणसार' अपने यथार्थ मूलरूपमें उपलब्ध नही है, उसमें कितनी ही गाथाएं प्रक्षिप्त रूपमें निहित है । अनेक प्रतियोंमे भी गाथा सख्या एक सी नहीं मिलती, अतः उसके सम्बन्ध में यथेष्ट अनुसंधान करने की आवश्यकता है । तभी पर्याप्त परिश्रमके द्वारा उसका असली
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स्व० श्रीदीनानाथजी
स्वर्गीय सेठ रामजीवनदासजी कलकत्ता दिगम्बर जैन समाजके ख्याति प्राप्त श्रीमान् और धर्मात्मा महानुभाव थे । आप जैन विद्वानोका बहुत आदर सत्कार किया करते थे। अपने जीवनकालमें उस समयकी स्थितिके अनुसार काफी दान करते थे । आपके आठ पुत्र हुए । जिनमें १ सबसे बड़े और १ सबसे छोटे तो युवावस्था में ही मृत्युको प्राप्त हुए । सेठजीका समाधिमरण कलकत्तामें अब तक आदर्श माना जाता है ।
कलकत्ता दिगम्बर जैन समाजके सभी धार्मिक और सामाजिक कार्यों में आपके पुत्रोंने तन, मन और धनसे योगदान किया है और कर रहे है । सब भाई शिक्षित और धर्मात्मा है । श्रीस्याद्वाद विद्यालय काशी, जैनबाला विश्राम आरा और श्रीवीरसेवामन्दिर सरसावाको आप लोगोंने काफी सहायता दी है ।
दो वर्ष हुए तब माताजीका समाधिमरण पूर्ण विधिसे सम्पन्न हुआ था । माताजीने भी अपने जीवन कालमें प्रचुर दान दिया था और केवल वीरसेवामन्दिरके लिये
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मूलरूप खोजा जा सकता है । उसी समय ही वह ग्रंथ सविशेष रूपसे प्रमाण कोटिमें रखा जा सकता है।
इन ग्रंथोंके अतिरिक्त 'मुलाचार' नामका जो ग्रंथ उपलब्ध है, जिसमें जैन श्रमणोंके आचारका विवेचन किया गया है और जिसे आचार्य वीरसेन स्वामीने अपनी 'धवला' टीकामें 'आचारांग' नामसे उल्लेखित किया है, उसमें कुन्दकुन्दके ग्रंथोंके कितने ही पद्म पाए जाते हैं। और मूलाचारकी कितनी ही प्रतियोकी पुष्पिकायोंमें उसे कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत लिखा भी मिलता है। डा० ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट् कोल्हापुरको ऐसी कितनी ही प्रतियां देखने में आई है जिनमें उसका कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य सूचित किया गया है। अतः यह बहुत संभव है कि मूलाचारके कर्ता कुन्द कुन्द ही हों, क्योकि वट्टकेराचार्य नामके किसी भी मुनि या आचार्यका कोई उल्लेख नही मिलता और न गुरुपरम्पराका ही कोई उल्लेख उपलब्ध होता है ।
सरावगी, कलकत्ता
करीब पचास हजारका दान दे गई थीं और असहाय जैन महिलाओंको सदा गुप्त सहायता भी करती थीं ।
आपके द्वितीय पुत्र सेठ फूलचन्दजी मृत्युके पूर्व तीस हजार रुपये वीरबाला विश्राम, आराको दे गये थे । तृतीय पुत्र सेठ गुलजारीलालजी, जिन्होंके तत्वाधानमें कलकत्ताका दिगम्बर जैन भवन निर्मित हुआ था, मृत्युके पूर्व पच्चीस हजार श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशीको दे
गये थे ।
चतुर्थं पुत्र श्री दीनानाथजीका अभी गत भाद्रपद कृ० १४ ता० १९ अगस्तको पूर्ण सफलताके साथ समाधिमरण हुआ है। जैनसमाजके प्रसिद्ध त्यागी कलकत्ताके श्री भगतजी महाराज (ब्र० प्यारेलालजी) के पास आप गत ४० वर्षोंसे बराबर धर्मश्रवण किया करते थे, नाना प्रकारके त्याग और व्रत लिया करते थे और अन्तमें श्री भगतजीने ही समाधिमरण बड़ा उत्साह एवं साहस दिलाते हुए पूर्ण सावधानता पूर्वक सम्पन्न करवाया है । सर्व परिग्रहका त्याग कर नग्न हो, जल तकका त्याग कर पूर्ण सचेत अवस्था
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अनेकान्त
में धर्मश्रवण करते हुए तथा रोग-मृत्यु जनित कष्टोंको प्रतिष्ठित भाइयोसे आर्थिक सहायता ली थी। और स्वयं पुद्गलका परिणाम समझते हुए और अन्तिम स्वांसमें 'अहंत' भी प्रदान की थी। राजगिरिमें भी इसी प्रकार एक धर्मशाला के उच्चारण पूर्वक इस नश्वर शरीरका आपने त्याग किया। (बंगला) आपके तत्वावधानमें बना था ।
माप गत ६ माससे रक्त चापके कारण बहुत दुर्बल आप अपने छोटेभाई श्री छोटेलालजी जैनका परामर्श हो गए थे और शयारूद थे। तबसे नित्य दिन रात शास्त्र लिये बिना कोई भी कार्य नहीं करते थे । अभी जब छोटेश्रवण करते रहे। मृत्युके दो तीन दिन पूर्वसे आपने अनेक लालजी देहली गये हुए थे तब आपकी तबियत कुछ अधिक जैन भाइयोंसे क्षमा याचना की। गत ता० १६ मईको बिगड़ी अतः छोटेलालजी को तुरन्त बुलवाकर कहा कि अब बाप अपना अन्तिम दानपत्र भी लिख गये है और उसी समय निकट है मुझे सम्हालो, अधिक धर्मध्यानकी व्यवस्था समय पच्चीस हजारके सरकारी लोन 'श्री वीरबाला विश्राम करो और समाधिमरण अवश्य हो इसका पूरा खयाल रखो। बाराको भेज चुके हैं । दानपत्र अभी तक खुला नही है, तुरन्त ही आप त्याग और तपश्चरणमें संलग्न हो गये । श्री खुलने पर उसका विवरण मालूम हो सकेगा ।
भगतजी महाराज, श्रीमती ब. चमेलाबाईजी, श्री कैलाश६ मास पूर्व जब आपका रक्तचाप बहुत अधिक बढ़ चन्द्रजी जैन (जायसवाल), श्री डाक्टर साहब, श्री चिरंजीजानेके कारण बेहोशी हो गई थी उस समय कलकत्ता लालजी जैन माधोपुरवाले, श्री चिरंजीलालजी जैन बनारसदिगम्बर जैन समाजकी एक सार्वजसिक मीटिंग हुई थी, वाले और उनके लघुभ्राता श्री छोटेलालजी जैन बराबर जिसमें तन, मन और धनसे आप द्वारा की गई विविध उनकी सेवा शुश्रूषा और धर्माचरणमें सहायता देते रहे। सेवाओंके प्रति आभार मानते हुए आपके स्वास्थ्य लाभके आपके कोई सन्तान नहीं हुई। हम आपकी धर्मपत्नी लिये श्री वीर प्रभुसे प्रार्थना की गई थी।
तथा अन्य कुटुम्बीजनो और विशेषकर भाई छोटेलालजी श्री वेलगछिया उपवन मन्दिरके सुधार और इमारती और नन्दलालजीके प्रति सम्वेदना और सहानुभूति प्रगट कार्योंके कराने और वहां नये वृक्षादि लगाने में प्रचुर समय करते हुए स्वर्गीय आत्माके लिये परलोकमें सब प्रकारसे सुख और शक्ति आपने लगाई थी तया इस कार्य में समाजके शान्तिकी प्राप्तिकी दृढ़ भावना करते हैं। -सम्पादक
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वीरसेवामन्दिरके चौदह रत्न
(१) पुरातन-जनवाक्य-सूची-प्राकृतकं प्राचीन ६८ मूल-ग्रन्थोकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ८ टीकादि
ग्रन्थोम उद्धृत दूसरे प्राकृत पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यांकी सूची। मयोजक और मम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी गवेषणापूर्ण महत्त्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनामे अलकृत, डा० कालीदास नाग एम ए, डी लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए.एन उपाध्याय एम ए, डी. लिट की भूमिका (Introduction) मे विभूषित है, शोध-खोजके विद्वानांकं लिये अतीव उपयोगी, बडा साइज, मजिन्द
(प्रस्तावनादिका अलगमे मुल्य ५ रु.) (२) आप्तपरीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञसटीक अपूर्वकृति, आप्तोकी परीक्षा-द्वारा ईश्वर-विषयके मुन्दर
माम और मजीव विवेचनको लिए हए, न्यायाचार्य प० दरबारीलालके हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिम
युक्त, मजिल्द (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी मुन्दर पोथी. न्यायाचार्य प० दरबारीलालजीक संस्कृटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टॉम अलकृत, मजिल्द .. (6) स्वयम्भूस्तोत्र--समन्तभद्रभागतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्द
परिचय, ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वको
गवेषणापूर्ण प्रस्तावनामे मुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-स्वामी ममन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुम्नारकी महत्त्वकी प्रस्तावनामे अलकृत, मुन्दर जिल्द-सहित ।
.. १॥) (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि गजमल्लकी मुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-महिन और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाम भूषित।
.. ॥) (७) युक्त्यनुशासन--नत्त्वज्ञानमे परिपूर्ण ममन्तभद्रकी अमाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुआ था। मुम्नार श्रीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिमे अलकृन, मजिल्द। ..
) (८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-आचार्य विद्यानन्दर्गचत, महत्त्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। .. ॥) (:) शासनचतुस्त्रिशिका-(नीर्थ-परिचय)-मुनि मदनकीतिकी १३वी शताब्दीकी मुन्दर रचना, हिन्दी ___ अनुवादादि-सहिन। (१०) सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बादके २१ महान् आचार्योक १३७ पुण्य स्मरणा का
महत्त्वपूर्ण सग्रह मुस्ताग्थीकं हिन्दी अनुवादादि-महित। (११) विवाह-समुद्देश्य-मुन्नारश्रीका लिम्बा हुआ विवाहका मप्रमाण मामिक और तात्विक विवेचन .. ॥) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी--अनकान्त जैसे गूढ़ गभीर विषयको अतीव मरलतासे ममझने-समझाने की कुजी, ____ मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित।। (१३) अनित्यभावना--श्रीपद्मनन्दी आचार्यकी महत्त्वकी रचना, मुन्नारथीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ
सहिन । (१०) तत्वार्थसूत्र (प्रभाचन्द्रीय)-मुम्नारश्रीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्याम युक्त नोट--ये मब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालो को ३७॥) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला'
मरसावा, जि० सहारनपुर ।
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Regd. No. D. 211
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
'अनेकान्त' पत्रको स्थायित्व प्रदान करने और सुचारू रूपसे चलानेके लिये कलकत्तामें गत इन्द्रध्वज-विधानके अवसर पर (अक्तूबरमें) संरक्षकों और सहायकोंका एक नया / के आयोजन हुआ है। उसके अनुसार २५१) या अधिकको सहायता प्रदान करने वाले सज्जन । 'संरक्षक' और १०१) या इससे ऊपरकी सहायता प्रदान करने वाले 'सहायक' होते है । अब तक 'अनेकान्त' के जो 'संरक्षक' और 'सहायक' बने हैं-उनके शुभ नाम निम्न प्रकार है :-- १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) ला० रघुवीरसिहजो, जैनावाचकम्पनी ,देहली ०२५१) बा० छोटेलालजी जैन "
१०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, २५१) बा० सोहनलाल जी जैन
१०१) बा. लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन २५१) ला. गुलजारीमल ऋषभदास जी "
१०१) बा. घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता २५१) बा० ऋषभचन्द्रजी (V.R.C.)जैन" १०१) बा० लालचन्द्रजी जैन सरावगी " 0 २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी
१०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) बा. रतनलालजी झांझरी
१०१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी २५१) सेट बल्देवदासजी जैन
१०१) बा० काशीनाथ जी, कलकत्ता २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) सेठ सुआलालजी जैन
१०१) बा० धनजयकुमारजी २५१) बा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) बा० जीतमलजी जैन २५१) सेठ मांगीलालजी
१०१) बा. चिरजीलाल जी सरावगी " २५१) सेठ शान्तिप्रसाद जी, जैन
१०१) बा० रतनलाल चाँदमलजी जैन, रॉची २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) ला० कपूरचन्द्र धूपचन्द्रजी जैन, कानपुर १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) श्री फतेहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) गुप्तसहायक सदर बाजार, मेरठ २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमल जी, देहली १०१) श्री श्रीमाला देवी धर्मपत्नी डा. श्रीचन्द्र २५१) ला० त्रिलोकचन्द्र जी, सहारनपुर
जी जैन 'सगल' एटा २५१) सेठ छदामीलाल जी जैन, फीरोजाबाद
१०१) ला. मक्खनलालजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर'
मरसावा, जि. महारनपुर NavBIND
RA परमानन्द जैन शास्त्री c/o धूमीमल धरमदास, चावड़ी बाजार, देहली। मुद्रक-नेशनल प्रिटिग वर्क्स, १० दरियागज, देहली
RSSRADHAN
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श्री वीर-जिन का
सर्वोदय तथा
तसर्वाऽन्तवत्तद्गा-मुख्य-कल्प
सर्वाऽन्त-शून्यच मिथोऽनपेक्षम् सर्वा पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
जिनालय।
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AMANNA
सत
क। नित्य । जाब।बन्धापण्यालीमास्वभावाव्यासामान्य असत् अनेक अनित्य अजीव मोक्ष पाप परलोक/ विभाब पर्याय/विगोष
Trantra/
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-
हिंसाम्यक विपासापेक्षा दव, मयपक्ति/रोर/आत्मा अहिंसा मिथ्या अविधा निरपेक्ष पुण्याचे प्रमाण अगम अशुख/परमात्मा
मैत्री प्रमोद
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2
/
शत/अति/समिति मारकमा
REMIGNATURANT
तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याहाद्-पुण्योदय
व्यानामकलङ्क-भाव-कृतये माभाविकालेकली। येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्ततं. = कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिवीरं प्रणोमि स्फुटम् ॥ =
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विषय-सूची
१. भावना-पद्धतिः -सम्पादक २५६ -भगवान् पाश्वनाथका किला २. समन्तभद्र-वचनामृत -युगवीर २६४
पं. कैनाशचन्द्रजी शास्त्री २६६ ३. महाकवि रवधू पं०परमानन्द जैन शास्त्री २६५ १०. भेलसाका प्राचीन इतिहास ४. युक्त्यनुशासनको प्रस्तावना
राजमल मडवैया २६७ -० जुगलकिशोर मुख्तार २६१ ११. जैन पूजाविधिके सम्बन्ध जिज्ञासा ५. बुन्देलखण्डके कविवर देवीदास ।
-बा. माईदयाल बी०ए० २६ -पं० परमानन्दजैन शास्त्री २७३ १२. किशोरीलाल घनश्याम मशरूवाला ६. विश्व एकता और शक्ति
बा. माईदयान बी० ए० ३०० -बाबू अनन्तप्रसादजैन B.Sc. २६४ १३. श्री सत्यभक्तजीके खाम सन्देश ३०१ ७. गीताका स्वधर्म-प्रो. देवेन्द्र कुमारजैन २६१ १४. स्व-पर गुण पहिचान-वविवर देवीदास ३०२ ८. बिरोध और सामन्जस्य
१५. विश्व में महानतम-(हिन्दुस्तानसे) -डा. हीरालाल जैन एम०प० २६३ १६. देहलोमें वीर-सेवा मन्दिर ट्रस्ट की मीटिंग ३०४
॥ वीर-सेवा-मन्दिरका स्थायी दफ्तर देहलीमें ॥ अनेकान्तके प्राहकों और पाठकॉसे निवेदन है कि अब "बीर सेवा-मन्दिर " का स्थाई दपतर देहलीम हो गया है। अतः सर्व प्रकारका पत्र-व्यवहार निम्न पते पर करें।
___मैनेजर- 'अनेकान्त वोर सेवा मन्दिर C/o अहिमा-मन्दिर बिल्डिंग,
१, दरियागंज, देहली।
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग
(.)चमेकात 'सर' तथा 'सहाय'बनना और बनाया। (१)स्वयं बकाम्बके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना । (.) विवाह-शादी धादि दानके अवसरों पर बनेकाम्तको भकी सहायता मेजमा तथा भिजवाना। (.)अपनी बोरसे दूसरोंको भनेकान्त भेंट-स्वरूप अथवा फ्री मिजाना; जैसे विचा-संस्थानों, बामने रियों, ___ सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको। (२)विद्याधियों भादिको बनेकान्त अर्थ मूल्य में देने बिते २५),२०) मादिकी सहायता भेजना । २५) की
सहायता की अनेकान्त अर्धमूलपमें भेजा जा सकेगा। (1)अनेकात ग्राहकोंको मच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना व्या दिवाना। (-)ोकहितको साथमा सहायक अच्छे सुन्दर बेख लिखकर भेजना बथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ मुटामा।
सहायठादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:गोर-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको
मैनेजर-'अनेकान्त' 'अनेकान्त' एक वर्ष का मेंट
वीरसेवान्दिर, अहिंसा मन्दिर बिल्डिंग स्वरूप भेजा जायगा।
१, दरियागंज, देहली
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वार्षिक मूल्य ५)
विश्व तत्व-प्रकाशक
वर्ष ११ किरण ७-८
ॐ म्
नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त ॥
सम्पादक - जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
वीर सेवामन्दिर, अहिसा मन्दिर बिल्डिंग १, दरियागंज, देहली आश्विन, कार्तिक शुक्ला, वीर वि० सं० २४७१ वि० सं० २००६
{
इस संयुक्त किरण का मूल्य
सितम्बर अक्टूबर १३५२
श्रीमत्प्रभाचन्द्र - शिष्य - पद्मनन्दि - विरचिता
भावना - पद्धतिः
( भावना - चतुस्त्रिशतिका)
[ यह 'भावना-पद्धति', जिसे १४ पथमें रचित होनेसे 'भावना-चतुस्त्रिशतिका' भी कहते हैं, कोई दो हुर जयपुर में बड़े मन्दिरके शास्त्र- अवहारका विरोध करते हुए मुझे एक अतिभीर्य शीर्थ गुटके परसे देखने को मिश्री थी। देखने पर वह भावनात्मक जिनेन्द्रस्तुति अति सुन्दर जान पड़ी और इसलिये बादको पं० कस्तूरचन्द श्री काशीवाल एम० ए० से इसकी कापी कराकर मंगाई गई, जिसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । प्रतिके अशुद्ध होनेसे अभी तक इसे प्रकाशित नहीं किया जा सका था। इसमें परिश्रमपूर्वक प्रत्यके संशोधनका यथाशक्ति प्रचस्य किया गया और उसीके स्वरूप धान पद भावपूर्ण स्तुति अनेकान्स- पाठकोंके सामने रक्की नाही है। भा चन्द्राचार्य के शिष्य पदमयन्दि झुनिकी कृति होनेसे यह विक्रमकी १४वीं शताब्दीकी रचना है और इसलिये इसको बने हुए भाव १०० वर्षसे ऊपर हो गई है । है पाठक इस पुराउन पूर्व द्योमन कृषिको पाकर मसन होंगे और इससे पर्यामागे ।
[ Shihath
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२५८ ]
शुद्ध प्रकाश महिमाऽस्त समस्त मोहनातिरेकमसमाऽवगम - स्वभाव । आनंदामुद्यास्त- दिशाऽनभिज्ञ,
अनेकान्त
स्वापव भवतु धाम सतां शिवाय ॥१॥ श्रीगौतम प्रभूयोऽपि विभोर्म्महिम्न: - माक्रक्षमा न यतयः स्तवनं विधातु । इथं विचार्य जहतस्तमुत्रलोके, सौख्याssप्रये जिन भविष्यति मे किमम्यत् ॥२ राकाशशांक- महसां भवतो गुणानां
को वक्तुमीश ! निपुणो महतामियत्तां को वा प्रभुर्गणयितु' गगनेऽत्र ताराः
संवर्षतां जलमुचाममिताश्च धाराः ॥३॥ सावधमैनदथवा निरवद्यमीश !
स्तोत्रं त्वदीयममते गता ममापि । मोक्षो न चेतरपि देवनदं ध्रुवं स्या
श्रीनोपि हेर्मागरिमाप्य लभेत किंचित् ॥ ४॥ आनन्दरूप भगवन् भवता सहेकी
भावं जिनानुभवतीह तमांस्यपास्य । दूवाद्भुत-विवेक कलः किलात्मा, तमाऽस्य कर्मभिरुदेति कदापि बंधः | ५|| सद्दर्शनाऽवगम-वृत्त-मयो य एष
मार्गे निसर्गविशदः सुखदो विमुक्तः । तस्मै यथा मम मनः स्पृहयत्यजत्र,
तस्मिन् हिते विहरतीश ! तथा कुरुष्व ॥ ६॥ अव मानस-मराल ! जिनेंद्रसेवा
देवापगांभसि रमस्व मनस्वि मन्ये । यातेऽथवा विधिवशादिवसावसाने.
कीनाश-पाश-पतितस्य कुतो रतिस्तं ||७|| कम्मरा-पटलसंपिहितं परात्म
ज्योतिनिधिर्जिन ! तब रतव-सत्खनित्रैः । उत्खाय हस्तगतमाशु यथा करोमि, कारुण्यसागर मयीश तथा प्रसीद ||८| : रूप चिदात्मकमदः स्मरतः स्मरारे ! नामांत च जपतो भवतो भदंतः । गुणान् श्रुतिपथं नयतो नयाब्धेः ! कालोऽयमेतु मम निर्मम सन् कृपालो ॥२॥ अद्राक्षमक्षय-सुखामृत कुंड-चढ
पाखंड खंडन ! यद्विभुग त्वदीयं ।
[ वर्ष ११
अंधोरुकूपरूदृशे तदहं जनन्या
गर्भकत्वमशुचौ न पुनः स्पृशामि ||१०|| मावादिनिर्मित- शुभ प्रतिमासु यस्त्वां
ध्यायत्यमन्ये- पतितामुपयाति सोऽपि । ज्ञानात्मकं तु भजतां भवतः स्वरूपं,
कीकियत्फलमलं तदहं न जाने ||११|| सर्वेषु देव-निचयेषु जगत्रयेऽस्मिन्,
लोकोत्तमः सकलवज्जिन एव देवः । नान्यः किजति सुविचारपरं मनो मे स्थातु स्वयोक्षति चिदात्मनि निर्विकारे ||१२|| देवेषु भूरिषु हरि प्रमुखेषु सत्सु,
व्यापत्सरस्वति जनान् पतितान् विमोहात् । मत्र जनएव विभु र्न चान्ये,
मत्त्रेति वांछति मनो भव सेवां ||१३|| संपेव संपदवला चपला घनाली
लोलं वपुः सुत-सुहृत्- कनकादि सर्व । ज्ञात्वेति सोऽहमहमिंद्र-शत- स्तुतांहे !
लीये मुदा त्वयि सनातन ! चित्स्वभावे ॥ १४॥ अातंक-शोक-मरणोद्भव - तुरंगशैल
dersaceae मम पीडितस्य । दुर्बारतापनये भवताज्जिनेश !
युष्मद्वचः शुचि-सुधा-सरसि प्रवेशः ||१५|| लोकेऽखिलेऽहमुरु-राग- समन्वितेन
संभ्रामितोऽनुभवितु बहुदुःखजालं । एतेन देव मनसा भ्रमिता तदेतत्,
वाचलं निजगुणै र्नय-निश्चलत्वं ||१६|| देवत्वमेव भगवन्नहमित्यकंपा,
त्वां ध्यायत समभवन्मम या सुबुद्धिः । संसारसागरतरीमिह तां विनिघ्नन,
सवार्यतामरमरातिरयं विमोहः ॥ १७॥ याच्यामहं जगति जन्मनि उन्मनीह, क्षिप्तः पुनः पुनरगाध भवाब्धि-मध्ये । एनौ च तौ जिन निवारय राग-रोषौ,
यस्मान्निवारण -विधावनयोस्त्वमीशः ||१८|| केनापि नो सुभटकोटिषु निजितो यो,
कामो जिनो जिनपते ! भवतेति मत्वा । एतावन्तमतोऽमिऽर्थये त्यां,
मां तापर्यंतमकूपं जद्द पापमेनं ॥१६ ॥
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किरण ७८)
भावना-
पतिः
[२५४
रे पाप लोम! मम चित्तगृहे प्रवेश,
स्वप्ने पि मा कुरु हठात् शठ वारितोसि । निर्लोभता तगदा स्वयमादधान
तस्मिन् जिनस्तव यतो हननार्थमास्ते ॥२०॥ कोपाद्वधः सकलदेहिषु तेन नूनं
स्वाधी गति भवति दुःखपरंपरा स्यात। मत्तस्ततो जिनपते ! गलक गृहीत्वा,
निस्सारयाऽद्भुतममु विपदां निदान ॥२१॥ एकेंद्रिय-प्रमुखजीवगणे प्रमादा.
द्वाधाभिरुष्मितदयेन मया कृतामिः। पापं यदाजितमनेकविघं जिनेन्द्र!
मिथ्या तदस्तु चरणामृतभक्तितस्ते ॥ २२॥ कयादितः पृथगिहाऽस्ति न कश्चिदात्मा,
देवो न कोऽपि न गुरु ने दया न धर्मः। लोकः परोपि न विभो ! बहुधेत्यविद्या
sऽवेशाद्यदजि दुरितं विफलं तदस्तु ॥२३॥ मोहोदयेन मदनज्वलनावलीढो,
यत्कर्मदुष्फरमकार्षमृषि-स्तुतांहे ! तन्वत् प्रमादवशतो निखिलं निरस्य,
निष्कम्मणि त्वयि परात्मनि देव ! वः ॥२॥ कायेन देव ! वचसा मनसा स्वयं यत,
पापं परैरहमकामचीकर च । अन्यैः कृतं मुदमगामनुमन्यमाना.
मिथ्याऽस्तु मे तदाखलं भवतः प्रसादान ॥२५॥ क्लेशाकुलेषु करुणा विपरीत वृत्ती,
माध्यस्थमासुनिचये परमा च मैत्री। विद्वत्सु शीलकलितेषु सदा प्रमोदः
संपद्यतां भवविपद्यमनैकहेतो ! ॥२६॥ स्त्रैणे तृणे सुहृदि वैरिणि निंद्यकाचे,
सत्कांचनेऽश्मनिचये कुसुमोच्चयेप। दुःखे सुखे समहशो जपतो ममात्र,
लोकप्रभो ! जिन जिनेति दिनानि यांतु ॥२७॥ मानें त्वददिते सदा विहरतस्त्वां तत्त्वतो ध्यायतस्त्वद्वाक्यामृतमद्भुतं च पठतस्त्वत्सद्गुणान् मृण्वतः __स्ववृत्तं स्रषतस्त्वदहिकमल-द्वंद्वार्चन कुव्वतः, कालोऽयं विजने बने निषसतो मे यातु लोकप्रमोगा। मृत्यु क्रीडति दुर्धरोहरिरतो :जन्मस्पुर दूधकरः (?) प्रायो भीषयते जरा विचरित-व्याघ्रोन्धितो दुम्मुखी। संसारो वनमत्र को निपतितःप्राणी सुखी स्यादिति, त्या सोहं शरणं गतः शरणदः ला रक्ष रक्ष प्रभो!॥२६|| सत्यामृतोद्गारवचो, दयाद्र' चित्तं चिदानंदपर सदैव । मतिर्जिनद्रागम-कोविदाचभवत्प्रसादाद्भगवन्ममाऽस्तु३०
नो पाकशासन-महासन-लब्धिमधि
नीरां बरामपि धरां भगवन याचे। याचे समाधिमरणं परिणामशुद्धि
मात्मानुभूतिमधिकां सकृपाऽपवर्ग ॥३१॥ रत्नत्रय-प्राप्तिमथात्मशुद्धिमत्यद्भुतां मुक्तिपुरीसमृद्धि देवडतं मोहतर लुनीहि समाधिमाघेहि मयीश!दीने ३२ यव्यंजन-स्वर-विसर्ग:सदर्थमुक्त
मात्राभर-च्युतमर पदवाक्यहीन । र.त्संधियर्जितमवाचि मया प्रमादात
वाणि! श्रमस्वनदिह स्खलितं मदीयं ॥३३॥ श्रीमत्प्रभेन्दुप्रभुयाक्य-रश्मि
विकाशिचेतः कुमुदः प्रमोदान् । श्रीभावनापद्धतिमात्मशुयै
श्रीपद्मनन्दी रचयंचकार ॥१॥ इति श्रीपद्यनन्दिदेवकृता भावना पद्धविः चतुस्तिशतिका)
समाप्ता॥
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समन्तभद्र-वचनामृत
निहितका पवित्र वा सुविस्मृत का परस्वमविसृष्टम्। रूपमें स्थित थी, जबकि इसके विद कोई दूसरी नविपनपतेबदकश-चीयर्यादुपारमणम् ॥७॥ बात स्पच सिदमहोभाव।
विना दिये हुए पर-म्बको, चाहे वह धरा-ढका यहाँको स्यून त्यागकी पिसे हवना और भी हो, पड़ा गिरा हो अथवा अन्य किसी अवस्थाको बागवेना चाहिये किलो पदार्थ बहुत ही साधारण व्या प्राप्त होगी
अपवा वेडा) स्वयं न अत्यल्प मूल्यका हो और जिसका बिना दिये प्राव हरना-मनीविपरमाना, और न (अनधि मा उसके स्वामीको कभी अक्षरसागो-से
प) दसरोंको देना है उसे स्थूल-चौर्यविरति- किसीके खेतसे हस्त-शुद्धिके लिए मिट्टी का बेना, जवाबमोनि-कहते हैं।'
से पीनेको पानी प्रहण करना और इसे दाँतनका पाल्वा-वहाँ 'परस्य' और सका मुख्य विशेष तोड़ना-ऐसे पदार्थ विना दिये बनेका स्वाग इस व्रतके 'अविवाति शिवापर हीमोगसौरसे बीके लिए विहित नहीं है। इसी तरह दूसरेकी बो मालपोप। विसका स्वामी अपनेसे मिकोई वस्तु विमा संकरके ही अपने प्राण मा बाप उससे दूसरानो सपा-बान्बादि पदार्थको 'परस्व' t समसको बाधा नहीं पहुंची बोंकि अहिंसावतके पर-वन और परश्रमबीसीसरे मामहै। बसबमें प्रयुक्त हुए 'संकरपात्' पद की अनुवृत्ति इस पार्षअपने काखीम स्वामी राप्रपा सकी पतके साथ भी।। इमामबापा बनविसे दिया गयामहोपा'प्रवि. चौरप्रयोग-चौराादान-विजोप-सहशसम्मिश्राः । पप'मावा', 'पदच' भी उसीका मामान्सर हीनाधिकविनिमानं पंचाऽस्तेये व्यतीपाताः ॥८॥ और उसमें वडा अध्यक्त दोनों प्रकार पदार्थ चौरप्रयोग-चोरको चोरीके कर्ममें स्वयं प्रयुज शामिव । 'रवि' हिवापर, जिससे हरमा फलित (प्रवृत) करना, दूसरों द्वारा प्रयुचकराना तथा प्रयुक्त होवानीविपूर्वक प्रहमा सूचक उसीकी रधि ए की प्रशंसा-मनुमोदना करना, अथवा चोरीके प्रयोगों
अगवा क्रियापद र मधित कपसे देनेका (पापों) को बतळा चौरकमकी प्रवृत्ति में किसी वाचकहो बाबा। और इसलिए वो पदार्थ अस्वामिक प्रकार सहायक होगा-चौराादान-आनएमकर हो अपना मावादि समय जिसका कोई प्रकार स्वामी चोरीका मानना-विलोप-दूसरों की स्थावर-जंगम मौपाना संबायो और जिसके प्रबादिमें उसके अथवा चेतन-भचेतनादिरूप सम्पत्तिको भाग बगाने, स्वानीकी स्यामाया पाशा बाधक हो उसके बम गिराने, तेजाब विषकने, विष देने भादिके द्वारा महबादिका यहाँ क्लेिष नही है। साथ ही, बो धन- अपकर देना, व्या राज्य पर्य विषयान्याय्य नियमोंसम्पति विना दिवेही किसीको उत्तराधिकारके रूप का भंग करना-सहशसंमिश्र-अनुचित लाभ उठाने पाच होगी उसके प्राचाविका भी इसके प्रतीके प्रयासरोंकोगनेकी रष्टि से बरीमें समान रंग-रूपादिशिव विच की। इसी वरण बोहात स्वामिक कीमाटी तथा गुमायमें परमल्य बस्तुकी मिबाट पति अपनी मिवकिपसमकामादिकमीवर भू- करना और मसीको नाममा मसबीके रूप में देनामाद पायो सभी प्रामादिका सके और होनाधिकविनिमान-देने के बाद-पराध
विषयही समकामारिका माविक गजमाने मादिकमती-बसी रखना और उनके द्वारा पायसम्बदा सम्पत्तिका मी मावा माखिक कमवी-बसी बोल-माप करके अनुचित बाम म्हावा,
और यह समकमा चाहिए ये पाँचों अस्वेयके-सोचमक-व्यतिपात हैंपिसी सम्बस अपवा गुप्त सम्पचिक अतिचार अथवा दो ।
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किरण
भावना-पद्धति
नतु परदारान् गच्छतिनपरान् गमयति पापभीर्यत्। मानिसजन नहीं है और 'भाकर सरासर सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसंतोषनामापि ॥५६॥ मोरसे विवाहकार्यको सम्पन्नमनाभत्स ___ 'पापके भयसे (किरामादिक भबसे) पर-स्त्रियों बनसे पायोग देना है। और बिपी को-सदारमिट अन्य नियोंको-जो स्वयं सेवन वा भाबित नोंका विवाहमा सवा सविचारन करना और न दूसरोंको सेवन कराना है यह 'पर- में मात्र सखाह-मशवराभवासमतिका देवास हारनिवत्तिब्रत है, 'स्वदारसंतोष' भी उसीका वि दोषरूप अपवा पापकही। बीमार नामान्तर है-दूसरे शब्दों में उसे स्थून मधुमसे विरति हाराउन अंगोंसे या उन अंगों काम-
कानेका स्यामविरति बया मर्याणवत भी कहते है। ष किया है जो मानवों में कामसेवा प्रामसेवन
व्याख्या-यहाँ इस बार दो नाम दिये गये है- के लिये निहित नहीं है, और इससे स्वमेधुनारिक एक 'परदारनिवृत्ति' दसरा 'स्वदारसंतोष' जिनमें से सभी प्राकृतिक मैथुन दोष रूप हरव त्व रिकाएकनिषेधपरक दूसरा विधिपरक है। दोनोंका भाशय गमन' पदमें 'इत्वरिकान उस स्त्रीका पापको पक। विधिपरक 'स्वारसंतोष' का पायव विक्कुल चाइको बटा अथवा म्पमिरिकी हो गई हो-परती स्पद और वह अपनी स्त्री ही सन्तुप रहग- काबाचक बहनहीं बोंकि परस्त्री-गममा बाग एकमात्र उसीके साथ काम-सेवा करना । और इसलिए वो मूलबसमें ही भागया है जब बसिगरों में उसके पुनः परदारनिवृत्तिका भी वही भाशय लेना चाहिए-अर्थात त्यागका विधान कुछ ही रखा । स्वदारभित्र अन्य स्त्रीके साथ कामसेवाम त्याग। धन-धान्यादि-मन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्पृहता। इससे दोनों नामोंकी वायभूत वस्तु (महानिर) परिमितपरिणः स्यादिच्छापरिमाणनामाऽपि ॥११॥ स्वरूप में कोई असर नहीं रहता और बह एक ही "धन-धान्यादि परिप्रहको परिमित करके--- व्हरती है। प्रत्युत इसके 'परदार का अर्थ परकी (पराई) पाम्बादिल इस प्रकार के बाद परिवहोंका संख्या-सीमाविवाहिता बापरेजा की हुई स्त्री करना और एक मात्र निर्धारणात्मक परिमाण करके-जो उस परिमाणसे उसोका त्याग करके शेष कन्या गवरया सेवनकी छड अधिक परिग्रहोंमें वांछाकी निवृत्ति है उसका नाम रखना संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इससे दोनों नामो- 'परिमितपरिप्रह' है, 'इच्छापरिमाण' भी रसीका के अर्थका समानाधिकरण नहीं रहता।
नामान्तर है-दूसरे शब्दों में उसे 'स्यून मूविरलिपरिअन्यविवाहाऽऽकरणाऽनङ्गक्रीडा-विटत्व-विपुलतृषः। प्रहपरिमाणम' और अपरिग्रहावत' भी कहते है। इत्वरिकागमनं चाऽस्मरस्य पंच व्यतीचाराः ॥६॥ व्याख्या-यह जिस पक्याम्यादि परिमापरि
'अन्यविवाहाऽऽकरण-दूसरोंक मर्यात् अपने तथा मायका विधान है वह पास परिग्रह और उ स स्वानोंसे भिड का विवाह सम्पद करने में परापोग भेद है, जैसा कि 'परिग्रहत्याग' नामकी एसबी प्रतिमा देना- अनलक्रीडा-निर्दिष्ट कामके अंगोंको कोलकर स्वरूपकथनमें प्रयुक हुए, 'वारिस बहावते. अब अंगादिकोसे या अन्य अंगादिकोंमें कामकीया से जाना जाता है।यस प्रकार परिहास करणा-विटपनेका व्यवहार-भपापनेको विपन, पाम्ब विपर, तुपद, सपनासन, पाप और काव-वचनकी कुचेष्टा- विपुलतृष्णा-कामकी ती भारत- बमें सब प्रकारको भूमि, पचौरमदीबाबसा-और इत्वरिकागमन-कुमरा व्यभिचारिणी नाशामिब।बास्तु में सब प्रकार मन्दिर, मकान, सस्त्रीका सेवन-ये स्मरके-स्वकामविरति अथवा दुकान और भवमादिक वाजिबनमें सोना-चारी, ब्रह्मापर्वानव-पांच विचार हैं।
मोठी, रन, बाराक और इसे बने बाबा व्याख्या-पहा 'मन्यविशाहाss','अन्धकीचा,
रुपवा वादि सब परिणाहीबाबाम्ब शालिगमा और 'इत्वरिकागमन' येतीव पदबास और ध्यान देने मर, गागरबादि सोको सब पैदावार बन्न पोग्बामन्याविवाहायपरमें 'मम्बाब्दका अभि- क्षेत्र वास्तु धन धान्य, विपदरपतुष्पदम् । प्रायानबरे बोगोंसेबी अपने दम्बी अपना शैय्यासन पवनयभारडमिवियम्।।
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[वर्ष ११ विषद सली सी राखौकर गया, स्त्री पुनधि 'निरतिचाररूपसे पालन किये गये (सहसादि) को संस्थाले लोगों का चतुष्पदमें हाथी, घोड़ा, बैस, पाँच अणुव्रत निधिस्वरूप हैं और वे उस सुरलोकको साबदामाच, परी प्रादि चार बार फलते हैं-प्रदान करते हैं-वहाँ पर (स्वत: स्वमापसे) मानव प्रयासबमें सोने और बैठने के सब अवविज्ञान, बिमादि) माठ गुण और दिव्य शरीर
पोका समावेशीब बार, पलंग, पटाई, प्राप्त होते है। गीत सिंहासन बारिक । बागमें गोली, व्याख्या-यहाँ 'अवधि:' पदद्वारा जिस प्रकिस , गाय, मौका, महाब, मोटरकार, और बाई बागका रखेस वा भवप्रत्यय अवधिज्ञान है, जो देव.
सारिका प्प में सबकारके सूती, लोक भव-भारणबत् सम्म मेके साथ ही उत्पन होता बीवी माविसमन्वनिचितथा भाषा में था उस भपकी स्थिति-पर्यन्त वा और जिसके बोबा,चा, पीवबसी भाविधान-उपचातुओंके, मिट्टी- द्वारा देश-कासादिकी अवधि-विशेषके भीतर रूपी पदायों पथर-बाप और काळारिक बने हुए सभी प्रकार का एकदेश साकार (देशप्रस्था)ज्ञान होता है। यह
परयौजारविचार या खिजीने संग्रहीत अधिज्ञान सर्वावधि तथा परमावधि होकर देशावधि है। इन सब परिग्रहोंका अपनी शक्ति परिस्थिति और था. कहलाता है और अपने विषय में निम्ति होता है। 'म.. प्रसाबहुसार परिमाणकरके उस प्रमायासे बाहर जो गुणाः' परदारा निजबाट गुणोंका उखेल किया गया इसरे पहबसे पाय परिवह उन्हें प्रायन करना ही नहीं है-अणिमा, महिमा, अषिमा, प्राप्ति, पकिन इसका जो स्वागही परिमित प्राकाम्य, शिस्त, बशिस्य, और कामरूपिस्व । परिग्रहकाबाबा और इसीसे उसका दूसरा नाम भागमानुसार 'पणिमा' गुण उस शक्तिका नाम है जिसमें 'पपरिमायसी क्या गया।
बडेसे बदारीर भी प्रारूप में परिजन किया जा सके। बविवाहमाऽतिसंग्रह-विश्मय-शोभाऽतिभारवहनानि। 'महिमा' गुण उस शक्तिका नाम है जिससे बोटेसे छोरा परिमिपरिग्रहत्य विक्षेपाः पचनश्यन्ते ॥६२॥ प्रारूप पर भी मेरमाण जिवना अथवा उससे भी बड़ा
परिमिवपरिग्रह (परिमापरिमाण) प्रतके भी किया जा सके।बधिमा गुण उस शक्तिका नाम निसले पंच विचार निदिष्ट किये जाते हैं और वे हैं१मति मे से भारी शरीरको भी वायुसे अधिक हबका अथवा पाहन-अषिकबाम उठानेकी रबिसे अधिक खाना-इवना हबका किया जा सके किबह मकड़ी-जालेके वन्तुओंभोतमारसमा करना अथवा काम वेगा-भतिसंग्रह- पर निर्वाध रूपसे गति कर सके। प्राप्ति गुण उस शकि. विविएनामकी पाशा अधिक
काम-माम्बाधिक विशेषको कहते हैं जिससे दूरस्थ मेह-पर्वतादि शिखरों का -, अतिविस्मय-व्यापारादिकमें स्थापन्य सूबोंकि बिम्बोंको हाथकी अंगुखियोंसे एषामा इसरों किसाभको देखकर विचार करना अर्थात् सके। 'प्राकाम्ब' गुण वह शक्ति है जिससे जल में गमन पृथ्वी ब- -..प्रतिलोम-विशियामहोप पर गमनकी तरह और पृथ्वी पर गमन में गमनके श्रीमति चामको बाबमा खना- और समान सन्मज-निममन करता हुमा होसके। ईशिव'
अतिभारवाहन-जोमय पिसी परसेवा गुबस शक्किा माम बिससे सर्वसंसारी खोबों मावि अधिकमारवादवा।
तथा प्राम नगरादिकोंको भोगने - उपयोग में लाने की व्याख्या-परिमाश्मिाण मे समय का सामान बवासाकी प्रमुवा पटित हो सके। Mसावन पहायोंसे बाम उठाने के लिये
क्रिको जिससे ग्राम संसारी मास (उपयोग) धादिकाको माला
बीबोका बशीकरण किया जा सके। 'कामरूपित्य' गुण विकास या वाक्-मोनिका परवीति 'मन्दकापामा सडकका नामससाबाया-बारा भनक प्रकारक पंचायणनिय नितिक्रमणाः फलन्वि मुखोकम् । मिस पुनपर धारण किये बास और 'विम्यारीर' पत्राशी म्यन्ते ॥ ३३॥ पोसाक अहीरका अभियान को सफा पान
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समन्तभद्र-वचनामृत
व्या मड-मुबादिसे युद्ध बौदारिकम होकर वैझिाक एकहोबा रूपमें उपस्थित हो। इसके स्वाबमें बसहोता है और अदिवोष शोभासे सम्पस रहता है। हिंसाकी रबि निहित है। और मड, विसायाम
मद्य-मांस-मधु त्यागी सहाऽणव्रत-पंचकम् । यहाँ विहित है, वह पदार्य है जिसे मधुमक्सियां पुष्पोंसे अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः ॥६६॥ बार अपने पत्तोंमें पंचवमती है और मोबाइमें पाया
'श्रमणोत्तम-श्रीजिनेन्द्रब-मद्यत्माग, मांस. पत्तोको बोह-मरोबसमा मिचोरकर म साले त्याग और मधुत्यागके साथ पांच अणवतीको (स) लिये प्रस्तुत किया जाता है और जिसके इस प्रस्तुतीगृहस्थोंके आठ मूलगुणा बताते हैं। और इसमे अन्य
करणमें मधुमक्खियोंको भारी बाधा पहुँचती है, उनका दिग्णवादिक को गुण हैं वे सब उत्तरगुण है, यह साफ
तथा उसके अपडे-बच्चोंका रसादिक भी निचुटकर उसमें कवितहा ।
शामिल हो जाता है और इस तरह बोएकपणित पदार्थ व्याख्या-यहाँ 'गृहिणा' पद पयपि सामान्यरूपसे
पन जाता है। 'चौद्र' संज्ञा भी उसे प्राया इस प्रकियाकी बिना किसी विशेषणके प्रयुक हुपा है फिर भी प्रकरणकी
रटिसे ही प्राप्त है। इसके त्यागमें भी बस-दिसाके रबिसेबडन सद्गृहस्णका वाचक है जो प्रती-प्रावक
परिवारकी रटि संनिहित है; जैसा कि अगली होते है-अबतो गृहस्थोंसे उसका प्रयोजन नहीं है। जन
कारिकामें प्रयुकहुए 'सहति-परिहरणार्थ पिशित भौत धर्ममें जिस प्रकार महाप्रती मुनियों के लिये भूलगुषों और
पवर्जनीयं इस वाक्यमे जामा जावा उत्तगुणोंका विधान किया गया है उसी प्रकार अणुव्रतो
यहां पर एक पावसास बोरसेबाननेकी औरही भावकोंके लिये भी मूलीचरगुणोंका विधान है। मूख
अष्टम्सागुणों में पशुखताका निर्देश पोंकिमस्वय, गुणोंसे अभिमाय उन बत-नियमादिकसे है जिनका अनु.
पोमदेव और देवसेन जैसे कितने ही उत्तरवर्ती भाचार्यों ठाम सबसे पहले किया जाता है और जिमके अनुष्ठान पर
सपा कविराममहादि जैसे विद्वानोंने अपने-अपने ग्रन्थों में ही उत्तर गुणोंका अथवा दूसरे व्रत नियमादिका अनुष्ठान
पंचायतोंके स्थानपर पंच गुम्बरको निर्देश दिया भवलम्बित होता है। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि
है।जिममें बक, पीपल, पिजसन मादिके पक्ष कामिल है। जिस प्रकार मूखके होते ही बचके शाखा पत्र प्र सारित कहाँ पंचाणुगत और कहां पंच उदुम्बर का स्वाग! का उद्भव हो सकता है उसी प्रकार मूलगुणोंका माचरय
दोनों में जमीन-पास्मान-कासा अन्तर बस्तुका विचार होते ही उत्तरगुणों का पाचरण यथेष बन सकता।
किया जाये तो गुमरफलोंका त्याग मासके बागमें ही भावकों के मूखगुण पाठ है, जिनमें पांचो वे अणुव्रत ।
पा जाता है। क्योंकि इन कोंमें -फिरते मीचोंहैं जिनका स्वरूपादि इससे पहले निर्दिषहो चुका
का समूह सामावभी दिखबाई देवान माणसे मांस और तीन गुण मच, मांस था मधुके त्याग रूपमें है।
भाणा स्पष्ट दोष लगता है, इसीसे इनके मामका विशेष
किया जाता है और इसखिये बोमांस-मासस्वागी मय, जिसके त्यागका यहां विधान है, पहनशीजीवस्तु मी मनुष्यकी बुद्धिको प्रष्ट करके उसे उन्मत्त अथवा भारी
वे प्रायः कमी हनका सेवन नहीं करते। ऐसी हाजमेबसावधान बनाती है-चाहे वह पिष्ठोदक गुरु और
मांस त्याग नामका एक सूखागुण होते हुए भीपावकी प्रादि पदार्थों को गवा-सपाकर रसरूपमें वस्पार
भार फोंके स्वागको, जिनमें परस्पर ऐसा कोई विशेष की गई दो और बा भांग-पदादिकद्वारा खाने-पीने
भेद भी नहीं है, पर अवग पग मूवगुपकरार देना किसी भी रूपमें प्रस्तुत हो क्योंकि मयत्यागमें प्रग्यकारकी
और साथ ही पंचाहनोंको मूल गुखोंसे विवाद देना एक रष्टि प्रमाद-परिवरणकी है, जैसाकिसी अन्धकी अगली
पड़ी ही विवाणवा मासूम होती।इस प्रकारका एक कारिकामें प्रयुक हुए 'प्रमादपरिहतये मद्य'च
परिवर्तन कोई साधारण परिवर्तन नहीं होता । यह परि
पा वर्जनीय'इस वाक्यसे जाना जाता है मांस उस विकत बन
बन कुछ विशेष अर्थ रखता है। इसके बारा मूबगुणोंपदार्थका नाम नहीन्द्रिबादि सजीवोंक रस-रकादि
का विषय बहुत ही हमका किया गया है और इस बरा
का मिति कलेवरसे निपम होता है और जिसमें निरन्तर प्रस- देखो, पुरुषार्थ सिध्युपाय, पाविसक, भावसंग जीवोंका उत्पाद बना रहा है-चापापा मारा (मा.) और पंचाध्यायी था बाढी संहिता ।
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स
[वर्ष ११ मेंपिकमाकमाकर की सीमाको कावा हारा प्रतिपादित मुबानोंका व्यवहार भावियों
मानसी और विवेहीमा प्रतिबोको ही लिखे पर पुरविवान बसियों वाले याहिंसादिक गये ही दोनों में परस्पर मेद बस्तु सप्रकार owोदय (पूजा) पाना सर्वसाधारण मायकी पषिदोबा पर, बषि, महाबली, दिया विवादिकमबारे और बो हम गुक भारती भी भावकों या देशवासियों में असा एक देश(स्थूलसे) पाखन कान्हें परिणितेहै-सोमदेवने, बशस्तिसको, बम्हें साफ
मायालयतिमा मातोरसे शिवलिया-छो भीवास्तवमें उन्हें 'बामबब महामवियोंक ८ मुबगुषोंमें अहिंसादिक भाव अथवा देवावलि समझना चाहिये, जैसाकि kuwaiपणन किया गयादेशाविक मूलगुणों- पंचाध्यायोकेनिग पसे प्रकटीबो खाटीसंहिता की मेंmaiका विधान होना स्वामाविकही है और इस पाया जाता है और जिसमें यह भी पसाया गया है कि जो विसामो समसमान पंच मावोंको सिये हुए भावकों- गृहस्थ हम पाडौंका त्यागी नहीं पहनामका भी बावक
बाम एवोकाको प्रतिपादन कियावह घुक्तियुक्त नहीं है:होमीयोवापरतावमें ऐसा काम पाकि
मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बरपंचकः। पूर्वस्वोंको परस्परके इस व्यवहार कि 'मार श्रावक
नामतः भाषक: ख्यातो नान्यथापि तथा गृही। और 'पाप बाकी भारी असमंजसका
अब भापक वोहीहैलो पंचमानोंका प्रवीच इस प्रसमससाकोर करनेके लिए
पासमकाते हैं। और इस सब कपनकी पुष्टि शिकअपमा देशकाकी परिस्थितियोंकि अनुसार सभी नियों
हिमाचार्यकी 'रलमाखा' निम्न वापसे भी होती कोकाकीपभाडेवाभाविक चियेगा.
है, जिसमें पंच-मनोंक पासन सहित मध, मांस और पाचोको इसकी पर पड़ी कि मूखों में
मधुके त्यागको 'पप्रमुगुण' लिखा है और साथ ही पर-फार कि बाल और ऐसे गुण स्थिर किये
माबापा कि पंच-मदुम्बरवाले को अचमबाण पिजीवियों और पवियों दोगोंकि सिपे साधारण
है को-पासको, मो, बोरों अथवा कमजोरोंके बगुबमा मांस और मडके त्याग कप तीन
लिए है। और इससे उनका साफ था बाल सम्बन्ध हो सकते थे, परन्तु र पहवेसे गुणोंकी संख्या
मनासयोंसे भाग पडता हैपासपीसविस संख्याको पों-का-स्वोभायम व तीन मुबगुबोंमें पंचोदुम्बर कोंक
मद्य-मांस-मधु-त्याग-संयुताणुनवानि नुः। बारहमसर्वसाधा
अष्टौ मूलगुणाः पंचोदुम्बराश्चामेकेष्वपि ॥१६॥ पॉषिमान परती भूबाब
हम समन्वमा-प्रतिपादित मुबगुषोंमें श्रीनिमसेन अमियोंषियों रोषसि साधारण, इसका
और अमितमति से पापायोंने भी अपने-अपने सपीकर कविराम पंचायापी पया बाटीसंहिता
मविपायों भरोषा बोरा गुरु मेर उत्पा बकनिम्न पयले भने प्रकार वाता
किया, जिसका विशेष पर्यन और विश्व वागयों तत्र मूलगुणाराष्टौ गृहिणां प्रधारिणाम् ।
का शासन मेष' नामक बस बाबा जा सकता।. कषिरविनां परमात सर्वसाधारणा इमे।
-युगवीर पान्तमबागमें रखीभाविकपमय- समीचीवनमा अप्रकाशित भाग्यसे ।
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महाकवि रइधू
(पं० परमानन्दजैन शास्त्री)
[ अनेकांत व १. किरण १० से आमे ] समकालीन विद्वान भट्टारक
येनैतत्समकालमेव रुचिरं भव्यं च काव्य तया, ___ कवि रहधूने ग्वालियरका परिचय कराते हुए कुछ
साधु श्री कुशराजकेन सुषिया कीतिश्चिरस्थापकम् भट्टारकोंका आदर-पूर्वक समुल्लेख किया है और 'सम्मइजिनचरिउ' नामक ग्रथको प्रशस्तिमें देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन,
उपदेशेन ग्रन्थोऽयं गुणकीर्तिमहामुनेः। भावसेन, सहस्त्रकीति, गणकीति, गुरुभ्राता एवं शिष्य
कायस्थपद्मनाभेन रचितः पूर्वसूत्रतः ॥ यश.कीति, मलयकीति, और गुणभद्र आदिका नामोल्लेख
वीरमदेव का समय वि० सं० १४६२ (ई. सन् १४०५) पूर्वक परिचय भी दिया है। उनमें से भटारकमसति है, क्योकि उस समय मल्लू इकबालखाने ग्वालियरपर के बादके विद्वान् भट्टारकोंका उपलब्ध संक्षिप्त परिचय
चढ़ाई की थी और उसे निराश होकर दिल्ली लौटना पड़ा यहां दिया जाता है जो प्रायः कविवरके समकालीन एवं उससे
था। अतः यही समय भट्टारक गुणकीर्ति का है, वे विक्रम
था। अतः यहा समय भट्टारक गुणका कुछ समय पूर्व हुए थे.
की १५ वी शतीके अन्तिम चरण तक जीवित रहे है।
संवत् १४६० में वैशाख सुदि १३ के दिन खंडेलवाल भट्टारक गुणकीति-यह भट्टारक सहलकीतिके
वंशी पं० गणपतिके पुत्र पं० खेमलने पुष्पदन्तके उत्तर शिष्य थे और उन्हीके बाद भट्टारक पदपर आस हुए थे। इन्हें बड़े तपस्वी और जैन सिद्धांतके मर्मज्ञ विद्वान् बतलाया है।
पुराणकी एक प्रति भट्टारक पचनन्दिके बादेशसे गुणकीतिइनका शरीर तपश्चरणसे अत्यन्त क्षीण हो गया था। इनके
को प्रदान की है। इससे भी भ० गुणकीर्तिका समय उपर्युक्त
ही निश्चित होता है। लघुभ्राता और शिष्य थे यशःकीति । गणकीतिने कोई
म. पशःकोति-यह भट्टारक गुणकीतिके शिष्य साहित्यिक रचना की अथवा नहीं, इसका स्पष्ट उल्लेख
एवं लघुभ्राता थे, उनके बाद पट्टधर हुए थे। और अपने समयदेखनेमे नही आया। परन्तु इतना जरूर मालूम होता है कि
के अच्छे विद्वान् थे। इन्होने संवत् १४८६ में विबुध श्रीधरका इनकी प्रेरणा एव उपदेशसे और धर्मात्मा सेठ कुशराज जैन
सस्कृत भविष्यदत्तचरित और अपयश भाषाका सुकुमाल के आर्थिक सहयोगमे, जो ग्वालियरके राजा वीरमदेवके
चरितमें दोनों अथ अपने ज्ञानबरणी कर्मके यार्थ लिखवाए विश्वसनीय मंत्री थे, और जिन्होने स्वर्गसे स्पर्धा करने वाला
थे। महाकवि रहने 'सम्मइजिनचरिउ' की प्रशस्तिमें एक अति उत्तुग एवं विशाल चैत्यालय श्रीचन्द्रप्रभभगवान
यशः कीर्तिका निम्न शब्दों में उल्लेख किया हैका बनवाया था। प० पद्मनाभ नामके एक कायस्थ विद्वान् ने संस्कृत भाषा
१.हिन्दी टाउराजस्थान मोझा जी द्वारा सम्पादित म 'यशोधरचरित' अथवा 'दयासुन्दर' नामके एक महा
पृ०२५१। कापकी रचना की थी, जैसा कि उक्त ग्रन्थकी प्रशस्तिके
१. देखो, सं०१३९१ की लिखित उत्तर पुराणकी मामेर निम्न पद्योसे प्रकट है:
भंडारकी प्रति । ज्ञाता श्री कुशराज एव सकलक्ष्मापालचूड़ामणिः २. “सम्बत् १४८६ वर्षे अश्वणिवदि १३ सोमदिने श्रीमत्तोमर वीरमस्य विदितो विश्वासपात्रं महान् । गोपाचलदुर्गे राजा गरेन्द्रसिहदेवविजयराज्यप्रवर्तमाने मत्रीमत्रविचक्षणः क्षणमयः क्षीणारिपक्षः क्षणात् श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगण आचार्यश्रीभावसेन क्षोण्यामीमणरक्षणक्षममतिजैनेन्द्रपूबारतः ॥
देवास्तत्प? श्रीसहस्त्रकीतिदेवास्तत्पट्टे श्री गुणकीतिस्वर्गस्पद्धि समृद्धि कोऽतिविमलन्त्यालयः कारितो, देवास्तत्शिष्येन श्रीयशःकीर्तिदेवेन निजज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ लोकानां हृदयंगमो बहुधनैश्चन्द्रप्रभस्य प्रभोः।। इद सुकुमालचरितं लिखापितं कायस्थ याजन पुत्र थल
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२६६
"ताह कमानय तब तविगो, निम्मासम-वण-संगो भ-कमल-संबो-यंगमंदिवस जिकित्ति संगो। तरस पसाएँ कम्बु पयासमि, चिरमनि विहित बसुहणिण्णासमि"
अनेकान्त
सम्यकत्व गुणनिधानकी आदि प्रशस्तिमें निम्न रूपमें स्मरण किया है।
--साथ-तथियो
मन्य-कमल-संगोह पगो
जियोग्भासिय पवयण लगो, बंदि बि सिरि जसकित्ति असंगो । साधु पसाए कम्बु पास आलि विहिर मिसिनि ॥
म० यशः कीर्तिने स्वयं अपना 'पाण्डव पुराण' वि० सं० १४९७ में अग्रवालवंशी साहू बील्हाके पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे बनाया था। यह पहले हिसारके निवासी थे और बादको देहलीमें आकर रहने लगे थे, और देहलीके तात्कालिक बादशाह मुबारिक ग्राहके मंत्री थे, वहां इन्होंने एक चैत्यालय भी बनवाया था। और उसकी प्रतिष्ठा भी करायी थी।' इनकी दूसरी कृति 'हरिवंश पुराण' है जिसकी रचना इन्होंने वि० सं० १५०० में हिसारके साहू दिवाकी प्रेरणा की थी। साहू दिवढ्डा अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुए थे, उनका गोत्र 'गर्ग' था । वे बड़े धर्मात्मा और श्रावकोचित् द्वादशव्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले थे। इनकी तीसरी कृति 'आदित्यवार कथा' है जिसे 'रविव्रत कथा' भी कहते है। और चौथी रचना 'निराणि कथा' है, जिसमें शिवरात्रि रूपाके डंगपर वीरजन रात्रि व्रतका फल बतलाया गया है। इनके सिवाय
लेखनीयं"
"संवत् १४८६ वर्षे आमापदि ९ गुरुदिने गोपाचल दुर्गे राजा डूंगरसी (सि) ह. राज्य प्रवर्तमानं श्री काष्ठासंचे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री सहत (स) कीर्ति देवास्तपट्टे आचार्यगुणकीर्ति देवास्तच्छिष्य श्री यशः कीर्तिदेवास्तेन निज ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्त पंचमी कथा लिखापितम्।"
[वर्ष ११
'चन्दप्पड़ चरिउ' नामका अपभ्रंश भाषाका एक ग्रंथ और भी उपलब्ध है जिसके कर्ता कवियशकीति हैं, परन्तु प्रस्तुत यशःकीति उक्त चन्द्रप्रभचरित्र के कर्ता है इसका ठीक निश्चय नहीं, क्योंकि इस नामके अनेक विद्वान हो गये है। भाषा और ग्रन्थ सरणीको देखते हुए वह इसका बनाया हुआ नहीं मालूम होता ।
भ० यशःकीतिको महाकवि स्वयंभूदेवका 'हरिवंश पुराण' जीर्ण-शीर्ण दशामें प्राप्त हुआ था और जो खण्डित भी हो गया था, जिसका उन्होंने ग्वालियरके कुमरनगरीके जैनमन्दिरमें व्याख्यान करनेके लिये उद्धार किया था।" यह कविवर रहके गुरु थे, इनकी और इनके शिष्योंकी प्रेरणासे कवि रइधूने अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। इनका समय विक्रमकी १५ वीं शतीका अन्तिम चरण है. सं० १४८१ से १५०० तक तो इनके अस्तित्वका पता चलता ही है किन्तु उसके बाद और कितने समय तक ये जीवित रहे इसको निश्चित रूपसे बतलाना कठिन है।
१. जंग करावउ जि-याळ, पुण्यहेड विर-रण पक्खालि । वय-तोरण कलतेहि बलंकित, जमुगुरु से हरि जाणुवि संकिउ । पाण्डव पुराण प्रशस्ति
भट्टारक मलकीर्तिः -- यह भट्टारक यशः कीर्तिके बाद उक्त पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। इनके शिष्य गुणभद्र भट्टारक थे, जिन्होंने इनकी कृपासे अनेक कथा ग्रथ रचे है । क रहने 'सम्बइजिन परिव' की प्रशस्तिमे भट्टारक मलयकोतिका निम्न शब्दोमें उल्लेख किया है-"उत्तम-खमवासेण अमंद, मलकति रिसिब दिउ" प्रस्तुत मलयकीर्ति वे ही जान पड़ते हैं जिन्होंने भट्टारक सकलकीतिके 'मूलचारप्रदीप' नामक ग्रथकी दान प्रशस्ति लिखी थी। इन्होंने और किन-किन ग्रंथोंकी रचना की यह कुछ ज्ञात नही हो सका ।
भट्टारक गुणभद्र यद्यपि गुणभद्र नामके अनेक विद्वान
१. त जसकित्ति मुणिहि उद्धरयिउ, णिएवित्तु हरिवंसच्छारियउ । णिय-गुरु- सिरि-गुणकित्ति पसाए, किउ परिपुष्णु मणहो अजुराए । सरह से (1) बेडियाएसँ कुमरणयरि आविउ सविसेसें । गोवग्निरिहे समीवे विसालए. पणिवा रहे जिनवर -बेवालए।
सावपजणहो पुरउ वक्लाणित दिधु मिच्छतु मोह अगमाणिउ । हरिवंशपुराण-प्रशस्ति
।
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किरण ७-८]
२६७
हुए हैं जिनमें उत्तरपुराणादिकके कर्ता गणभद्र जो भगवज्जिन- १५२१ में राजा कीतिमिहके राज्यमें गुणभद्र मौजूद थे, सेनाचार्यके शिष्य थे, प्रसिद्ध ही हैं। शेष दूसरे गुणभद्र नाम- जब ज्ञानार्णवकी प्रति लिखी गई थी। इन्होने अपनी कथाओंके अन्य विद्वानोंका यहा परिचय न देकर मलयकीतिके शिष्य में रचनाकाल नही दिया है। इसीसे निश्चित समय मालूम गुणभद्रका ही परिचय दे रहा हूं। ये भ० गुणभद्र काष्ठा करनेमें बड़ी कठिनाई हो जाती है। संघी मथुरान्वयके भ. मलयकीतिके शिष्य थे और अपने इन विद्वान् भट्टारकोके अतिरिक्त क्षेमकीति, हेमगुरुके बाद उनके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे। इनकी रची हुई कीर्ति, कुमारसेन कमलकीर्ति और शुभचन्द्र आदिके नाम निम्न १५ कथाएं है जो देहली पंचायती मंदिर खजूर मस्जिद- भी पाये जाते है। इनमेंसे क्षेमकीति, हेमकीर्ति और कुमारसेन, के शास्त्र भंडारके गुटका न० १३-१४ में दी हुई है, जो ये तीनों हिसारकी गद्दीके भट्टारक जान पड़ते है, संवत् १६०२ में श्रावण सुदी एकादशी सोमवारके दिन क्योंकि कविरइधूके पार्श्वपुराणकी सं० १५४९ की रोहतक नगरमें पातिशाह जलालुद्दीनके राज्यकालमें लिखा लेखक-पुष्पिकामें जो हिसारके चैत्यालयमें लिखी गई है गया है।'
उक्त तीनों भट्टारकोके अतिरिक्त भट्टारक नेमिचन्द्रउन कथाओंके नाम इस प्रकार हैं:
का नाम भी दिया हुआ है जो कुमारसेनके पट्टपर प्रतिष्ठित १ अणंतवय कहा, २ सवणवारसि-विहाण कहा, ३ हुए थे, उस समय वहा शाह सिकन्दरका राज्य था। पक्खवइ कहा, ४ णहपंचमी कहा, ६ चंदायणवयकहा, ७ कुछ ग्रन्थ प्रशस्तियोंके ऐतिहासिक उल्लेख चंदण छट्ठीकहा, ८ णरयउतारी दुद्धारसकहा, ९ मउडसत्तमी
महा कवि रइधूकी समस्त रचनाओमे यह विशेषता कहा, १० पुप्फजलिवय कहा, ११ रयणत्तयविहाण कहा पाई जाती है कि उनकी आद्यन्त प्रशस्तियोमें तत्कालीन १२ दहलक्खणवय कहा, १३ लद्धिवय विहाणकहा, १४ ऐतिहासिक घटनाओंका समल्लेख भी अंकित है, जोकि सोलहकारणवयविहि, १५ सुयधदसमी कहा । इनमसे नं. ऐतिसासिक दृष्टिसे बड़े ही महत्वका है और वह अनुसंधान१,१० और १२ वी ये तीनों कथाएं ग्वालियरके जैसवाल- प्रिय विद्वानोके लिये बहुत ही उपयोगी है। उन उल्लेखोंपर वशी चौधरी लक्ष्मणसिंहके पुत्र पडित भीमसेनके अनु- से ग्वालियर जोइणपुर (दिल्ली) हिसार तथा आसपासके रोषसे रची गई है। नं०२ तथा १३ ३ नम्बरकी कथाएं अन्य प्रदेशोंके निवासी जैनियोकी प्रवत्ति आचार-विचार ग्वालियरवासी सघपति साहु उद्धरणके जिन मंदिरमें निवास और धार्मिक मर्यादाका अच्छा चित्रण किया जा सकता है करते हुए साहू सारगदेवक पुत्र देवदासका प्ररणा पाकर बनाइ खास कर १५ वी शतीके उत्तर प्रातवासी जैनियोके तात्कालिक गई है। और न०७ की कथा गोपाचलवासी साहु वीषाके पुत्र
जीवनपर अच्छा प्रकाश डाला जा सकता है। उनमेंसे सहजपालके अनुरोधसे लिखी गई है। शेष नौ कथाआक बतौर उदाहरणके यहा कुछ महत्वपूर्ण घटनाओका उल्लेख सम्बन्धमें कथा निर्माणके निमित्त भूत श्रावकोका कोई किया जाता परिचय नही दिया है और इससे वे बिना किसीकी प्रेरणा
(१) हरिवंशपुराणकी आद्य प्रशस्तिमें उल्लिखित के स्वेच्छासे ही रची हुई हो सकती है।
भट्टारक कमलकीतिके पट्टका 'कनकाद्रि' 'सुवर्णगिरि भट्टारक गुणभद्रका समय भी विक्रमकी १५ वी शती का या वर्तमान मोजागिर अन्तिम और १६ वी शतीका प्रारम्भिक काल है, क्योंकि
भट्टारक शुभचन्द्रके पदारूढ होनेका ऐतिहासिक उल्लेख संवत् १५०६ को लिखी हुई धनपालकी पंचमी कथाकी अपूर्ण बड़े महत्वका है। उससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि ग्वालियर लेखक पुष्पिकासे मालूम होता है। कि उस समय भट्रारकीय गद्दीका एक पट्ट सोनागिरिमें भी स्थापित हवा ग्वालियरके पट्रपर भ० हेमकीति विराजमान थे। और संवत् था.जैसाकि प्रशस्तिकी निम्न पंक्तियोसे प्रकट है:१. अथ संवत्सरेस्मिन् श्री नुपविक्रमादित्य राज्यात्
सं० १६०२ वर्षे धावण सुदि ११ सोमवासरे ३ ज्ञानार्णवकी लेखक-पुष्पिका जैनसिद्धांतभवन, रोहितासशुभस्थाने पातिशाह जलालदी
आरा प्रति। (जलालुद्दीन) राज्य प्रवर्तमाने। २. धनपाल पंचमी कगाकी अपूर्ण लेखक प्रशस्ति ४. पावपुराणकी लेखक-पुष्पिका, जो मेरी नोट्सबुकमें
कारंजा प्रति ।
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"कमलकित्ति उत्तम खमबारउ, भव्बहिंमब-बंबोणिहि तारस । तर पट्टकमय परिट्टिङ, 'सिरिसुहचन्द्रसु-तब उनकंठिट" ।
(२) कविके 'सम्मइजिनचरित' नामक ग्रंथकी प्रशास्ति में जैनियोंके आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रेम भगवानकी एक विशाल मूर्तिके निर्माण करानेका उल्लेख निम्न प्रकारसे दिया हुआ है और उसमें बतलाया है कि अग्रवाल कुलावतंस संसारशरीरभोगोंसे उदासीन, धर्मध्यानसे संतृप्त, शास्त्रोंक अर्थरूपी रत्नसमूहसे भूषित तथा एकादश प्रतिमाओं के संपालक, खेल्हा नामके ब्रह्मचारी उस श्रावकने मुनिसे यश:कीर्तिकी बन्दना की, और कहा कि आपके प्रसादसे मैंने संसार-दुःखका अन्त करनेवाले चन्द्रप्रभ भगवानकी एक विशाल मूर्तिका निर्माण ग्वालियरमें कराया है। इस आशयको व्यक्त करनेवाली मूलग्रंथकी पंक्तियां इस प्रकार हैं:"ता सम्मि खणिवंजवय-भार-भारेण सिरि अवर-वाक वंसम्मि सारेण । वरषम्मझाणामएणेव तिचेण ।
संसारतणु-भोय- णिविणि चित्तण
खेल्छाहिह्वाणेण णमिऊण गुस्तेण जसकित्ति विणयत्तु मंडियगुणो । भो मयण-दावग्गि उल्हवण वणदाण संसार - जमरात्रि
उत्तर-वर जाण ।
तुम्हहं पसाएण भव-दुह कयंतस्स ससिपहजिर्णेदस्स पडिमा विद्युतस्स ।
काराविया मई जि गोवायले तुग उड़चावि णामेण तित्थम्मि सुहसंग ।"
पुण्यासव कथाकोशकी अन्तिम प्रशस्तियें बतलाया है कि जोइणिपुर ( योगिनीपुर-दिल्ली) के निवासी साहूतासउके प्रथम पुत्र नेमिवासने, जिसे चन्द्रवाद, के चौहानवंशी प्रतापरुद्र नामके राजाने सन्मानित किया या बहुत प्रकारकी धातु, स्फटिक और विद्रुममयी (मूंगाकी)
[ वर्ष ११
अनमित प्रतिमाएं बनवायी थीं, और उनकी प्रतिष्ठाभी दर्द भी, तथा चन्द्रप्रभ भगवानका उत्तुंग शिखरों वाला एक चैालय भी बनवाया था ।
(४) 'सम्मतगुणनिधान' नामके ग्रंथकी प्रथम संधिके १७ में कडषकसे स्पष्ट है कि साहू खेमसिंहके पुत्र कमलसिंहने भगवान आदिनाथकी एक विशाल मूर्तिका निर्माण कराया था, जी ग्यारह हाथ ऊंची थी और दुर्गतिकी विनाशक मिध्यात्वरूपी गिरीन्द्रके लिये वज्ज्र समान, भब्यकि लिये शुभगति प्रदान करनेवाली तथा दुख-रोग-शोककी नाशक थी । ऐसी महत्वपूर्ण मूर्तिकी प्रतिष्ठा करके उसने महान् पुण्यका संचय किया था और चतुर्विध संघकी विनय भी की थी ।
(५) 'सम्मइजिनचरिउ में फिरोजशाहके द्वारा हिसार नगरके बसायेजाने और उसका परिचय कराते हुए वहां सिद्धसेन और उनके शिष्य कनककीर्तिका नामोल्लेख किया गया है। इन सबकी पुष्टि 'पुण्यासव' सम्मत्त गुणनिधान', तथा जसहरचरिउ' की प्रशस्तियों से भी होती है।
(६) हिसार नगरके वासी सहजपालके पुत्र सहदेव द्वारा जिनबिम्बकी प्रतिष्ठा कराने और उस समय अभिलषित बहुत दान देनेका उल्लेख भी' सम्मइजिनचरिउ' की अन्तिम प्रशस्तिमें दिया हुआ है । साथ ही सहजपाल के द्वितीयादि पुत्रों द्वारा गिरनारकी यात्राके लिये चतुविधसंघ चलाने तथा उसका कुल आर्थिक भार वहन करनेका भी समुल्लेख पाया जाता है। जैसा कि उसकी अन्तिम मसस्तिके ३१ वें ३२ वे कडवकसे ज्ञात होता है ।
(७) मघोषरचरितकी प्रशस्तिसे भी प्रकट है कि लाहण या लाहडपुरके निवासी साहूकमलसिंह ने गिरनारकी यात्रा ससंघ अपने समस्त परिजनोंके साथकी थी और यशोवरचरित नामके ग्रंथका निर्माण भी कराया था। ( अमली किरण में समाप्त )
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युक्त्यनुशासनकी प्रस्तावना
ग्रन्थ-नाम
इस ग्रन्थका सुप्रसिद्ध नाम 'युक्त्यनुशासन' है । यद्यपि ग्रन्थ आदि तथा अन्तके पद्योंमें इस नामका कोई उल्लेख नहीं है -- उनमें स्पष्टतया वीर - जिनके स्तोत्रकी प्रतिज्ञा और उसीकी परिसमाप्तिका उल्लेख है और इससे ग्रन्थका मूल अथवा प्रथम नाम 'वीरजिनस्तोत्र' जान पड़ता हैफिर भी ग्रन्थकी उपलब्ध प्रतियों तथा शास्त्र भण्डारोंकी सूचियों में 'युक्त्यनुशासन' नामसे हो इसका प्रायः उल्लेख मिलता है। टीकाकार श्रीविद्यानन्दाचार्यने तो बहुत स्पष्ट शब्दों में टीकाके मंगलपद्य, मध्यपद्य और अन्त्यपद्यमें इसको समन्तभद्रका 'युक्त्यनुशासन' नामका स्तोत्रग्रन्थ उद्घोषित किया है; जैसा कि उन पद्योंके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
"जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् " (१) " स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिननतेरस्य निःशेषत.” (२) "श्रीमद्वीर जिनेश्वराऽमलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणं. साक्षात्स्वामिसमन्तभद्र गुरुभिस्तत्वं समीक्ष्याऽखिलम् । प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वावमार्गानुर्गः " (४) यहा मध्य और अन्त्यके पद्योमे यह भी मालूम होता है कि ग्रन्थ वोरजिनका स्तोत्र होते हुए भी 'युक्त्यनुशासन' नामको लिये हुए है अर्थात् इसके दो नाम है- एक 'वीरजिनस्तोत्र' और दूसरा 'युक्त्यनुशासन' । समन्तभद्रके अन्य उपलब्ध ग्रन्थ भी दो-दो नामों को लिये हुए है; जैसा कि मैने 'स्वयम्भूस्तोत्र' को प्रस्तावना में व्यक्त किया है। पर स्वयम्भूस्तोत्रादि अन्य चार ग्रन्थों में ग्रन्थका पहला नाम प्रथम पद्य-द्वारा और दूसरा नाम अन्तिम पद्य द्वारा सूचित किया गया है और यहा आदि-अन्तके दोनों ही पद्योंमें एक ही नामकी सूचना की गई है तब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या 'युक्त्यनुशासन' यह नाम वादको श्रीविद्यानन्द या दूसरे किसी आचार्यके द्वारा दिया गया है अथवा ग्रन्थके अन्य किसी पथसे इसकी
१ " स्तुतिगोचरत्व निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं" (१) ; "नरागन स्तोत्र भवति भवपाशच्छिदि मुमौ" (६३); " इति स्तुतः शक्त्या श्रेयः पदमधिगतस्त्वं जिन मया ।
महावीरो वीरो दुरितपरसेनाभिविजये..." (६४) ।
...
भी उपलब्धि होती है ? श्रीविद्यानन्दाचार्यके द्वारा यह नाम दिया हुआ मालूम नहीं होता; क्योंकि वे टीकाके आदि मंगल पद्यमे 'युक्त्यनुशासन' का जयघोष करते हुए उसे स्पष्ट रूपमें समन्तभद्रकृत बतला रहे है और अन्तिम पद्यमे यह साफ घोषणा कर रहे है कि स्वामी समन्तभद्रने अखिल तत्वकी समीक्षा करके श्रीवीरजिनेन्द्रके निर्मल गुणोके स्तोत्ररूपमें यह 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थ कहा है । ऐसी स्थितिमें उनके द्वारा इस नामकरणकी कोई कल्पना नही की जा सकती । इसके सिवाय, शकसंवत् ७०५ ( वि सं. ८४०) में हरिवंशपुराणको बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने 'जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम्, वचः समन्तभद्रस्य ' इन पदोके द्वारा बहुत स्पष्ट शब्दो में समन्तभद्रको 'जीवसिद्धि' ग्रन्थका विधाता और 'युक्त्यनुशासन' का कर्त्ता बतलाया है । इससे भी यह साफ जाना जाता है कि 'युक्त्यनुशासन' नाम श्रीविद्यानन्द अथवा श्रीजिनसेनके द्वारा बादको दिया हुआ नाम नही है, बल्कि ग्रन्थकार द्वारा स्वयंका ही विनियोजित नाम है ।
अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थके किसी दूसरे पद्यसे इस नामकी कोई सूचना मिलती है ? सूचना जरूर मिलती है । स्वामीजीने स्वयं ग्रन्थकी ४८वी कारिकामें 'युक्त्यनुशामन' का निम्न प्रकारमे उल्लेख किया है
" दृष्टागमाभ्यामविवद्धमयं प्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।"
इसमें बतलाया है कि 'प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप जो अर्थका अर्थसे प्ररूपण है उसे 'युक्त्यनुशासन' कहते है और वही ( हे वीर भगवन् । ) आपको अभिमत हैअभीष्ट है ।" ग्रन्थका सारा अर्थप्ररूपण युक्त्यनुशासनके इसी लक्षणसे लक्षित है, इसीमे उनके सारे शरीरका निर्माण हुआ है और इसलिये 'युक्त्यनुशासन' यह नाम ग्रन्थकी प्रकृतिके अनुरूप उसका प्रमुख नाम है। चुनाचे ग्रन्थकारमहोदय, ६३वी कारिका में ग्रन्थके निर्माणका उद्देश्य व्यक्त करते हुए, लिखते हैं कि है वीर भगवन् ! यह स्तोत्र आपके प्रति रागभावको अथवा दूसरोंके प्रति द्वेषभावको लेकर नहीं रचा गया है, बल्कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानमा चाहते है और किसी प्रकृतविषयके गुण-दोषोंको जाननेकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह हितान्वेषणके उपायस्वरूप
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
से दग्ध है; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्व प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधित है
सत्यमेवासि नियुक्ति खाराविरोधिना । अविशेष पद से प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥५॥ स्वन्मताऽमृत-बाह्यानां सर्वबैकान्तवादिनाम् । आप्ताऽभिमान-सन्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ -आप्तमीमांसा
आपकी गण-कथाके साथ कहा गया है, इससे साफ़ जाना जाता है कि ग्रन्थका प्रधान लक्ष्य भूले-भटके जीवोंको न्यायअन्याय, गुण-दोष और हित-अहितका विवेक कराकर उन्हें वीरजिन प्रदचित सन्मार्गपर लगाना है और वह क्तियोंके अनुशासन द्वारा ही साध्य होता है, अतः ग्रन्थका मतः प्रधान नाम 'युक्त्यनुशासन' ठीक जान पड़ता है । यही वजह है कि वह इसी नामसे अधिक प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है। 'वीरजिनस्तोष' यह उसका दूसरा नाम है, जो स्तुतिपानकी दृष्टि है, जिसका और जिसके शासनका महत्व इस ग्रन्थ में स्थापित किया गया है । ग्रन्थके मध्य में प्रयुक्त हुए किसी पदपरसे भी ग्रन्थका नाम रखनेकी प्रथा है, जिसका एक उदाहरण धनंजय कविका 'विषापहार' स्तोत्र है, जो कि न तो 'विषापहार' शब्दसे प्रारम्भ होता है और न आदि-अन्तके पथोंमें ही उसके 'विषापहार' नामकी कोई सूचना की गई है, फिर भी मध्यमें प्रयुक्त हुए 'विषा पहारं मणिमवानि' इत्यादि वाक्यपरले वह 'विषापहार नामको धारण करता है । उसी तरह यह स्तोत्र भी 'युक्त्यनुशासन' नामको धारण करता हुआ जान पड़ता है ।
इस तरह प्रत्यके दोनों ही नाम युक्तियुक्त है और वे ग्रन्थकार द्वारा ही प्रयुक्त हुए सिद्ध होते है। जिसे जैसी रुचि हो उसके अनुसार वह इन दोनों नामोमें से किसीका भी उपयोग कर सकता है । ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय और महत्व --
यह प्रन्य उन आप्तों अथवा 'सर्वज्ञ' कहे जानेवालोंकी परीक्षाके बाद रचा गया है, जिनके आगम किसी-न-किसी रूपमें उपलब्ध है और जिनमें बुद्ध-कपिलादि के साथ वीर जिनेन्द्र भी शामिल है । परीक्षा 'युक्ति - शास्त्राऽविरोधि वाक्त्व' हेतुसे की गई है अर्थात् जिनके वचन युक्ति और शास्यसे अविरोध रूप पाये गये उन्हें ही आप्तरूपमें स्वीकार किया गया है-शेषका माप्त होना बाधित ठहराया गया है। ग्रन्थकारमहोदय स्वामी समन्तभद्रकी इस परीक्षामें, जिसे उन्होंने अपने 'आप्त-मीमांसा' (देवागम) ग्रन्थमें निबद्ध किया है, स्याद्वादनायक श्रीवीरजिनेन्द्र, जो अनेकान्तवादिआता प्रतिनिधित्व करते है, पूर्णरूपसे समुत्तीर्ण रहे हैं और इसलिये स्वामीजीने उन्हें निर्दोष आप्त ( सर्वश) घोषित करते हुए और उनके अभिमत अनकान्तशासनको प्रमाणाऽवाचित बतलाते हुए लिखा है कि आपके शासनात से बाह्य जो सर्वच एकान्तवादी है वे आप्त नहीं बाप्ताभिमान
इस तरह वीरजिनेन्द्रके गलेमें आप्त-विषयक जयमाल डालकर और इन दोनों कारिकाओं में वर्णित अपने कथनका
स्पष्टीकरण करनके अनन्तर आचार्य स्वामी समन्तभद्र इस स्तोत्रद्वारा वीरजिनेन्द्रका स्तवन करने बैठे है, जिसकी सूचना इस ग्रन्थकी प्रथम कारिकामें प्रयुक्त हुए 'अद्य' शब्दके द्वारा की गई है। टीकाकार श्रीविद्यानन्दाचार्य भी 'अ' शब्द का अर्थ 'अस्मिन् काले परीक्षावसानसमये दिया है। साथ ही, कारिकाके निम्न प्रस्तावना - वाक्य-द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ आप्तमीमांसा के बाद रचा गया है-
"श्रीमतामन्तभद्रस्वामिभिराप्तमीमांसायामन्ययोगव्यवगोदान् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताईतान्यतीर्थसुपरमवेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षवो भवन्तः ? इति ते पृष्ठा
"
स्वामी समन्तभद्र एक बहुत बड़े परीक्षा प्रमानी आचार्य थे, वे यों ही किसीके आगे मस्तक टेकनेवाले अथवा किसीकी स्तुतिम प्रवृत्त होनेवाले नही थे । इसीसे वीरजिनन्द्रकी महानता विषयक जब ये बातें उनके सामने आई कि 'उनके पास देव आते है, आकाशमें बिना किसी विमानादि की सहायताके उनका गमन होता हैं और चंवर-छत्रादि अष्ट प्रातिहायोंके रूपमें तथा समवसरणादिके रूपमें अन्य विभूतियोंका भी उनके निमित्त प्रादुर्भाव होता है, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि 'ये बातें तो मायावियोंमें- इन्द्रजालियोंम भी पाई जाती हैं, इनके कारण आप हमारे महान् पूज्य अथवा आप्त-पुरुष नहीं है।" और जब सरीरादित महान् उदयकी बात बतलाकर महानता जतलाई गई तो उसे भी अस्वीकार करते हुए उन्होंने कह दिया कि शरीरादिका यह महान् उदय रागादि के वशीभूत देवताओंमें भी पाया १. देवागम - नभोमान -चामरावि-विभूतयः ।
मायाविध्यपि दृश्यन्ते नास्त्वमसि नो महान् ।। १ ।।
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किरण ७-८]
युक्त्यनुशासनकी प्रस्तावना
२७१
जाता है । अतः यह हेतु भी व्यभिचारी है, इससे महानता की, ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्मोका नाशकर बनन्त ज्ञान(आप्तता) सिद्ध नहीं होती। इसी तरह तीर्थकर होनेसे दर्शनरूप शुद्धिके उदयकी और अन्तराय कर्मका विनाश महानताकी बात जब सामने लाई गई तो आपने साफ कह कर अनन्तवीर्यरूप शक्तिके उत्कर्षकी चरम-सीमाको दिया कि 'तीर्थकर' तो दूसरे सुगतादिक भी कहलाते है प्राप्त किया है और साथ ही ब्रह्मपथके-अहिंसात्मक और वे भी संसारसे पार उतरने अथवा निर्वृति प्राप्त करने- आत्मविकासपद्धति अथवा मोक्षमार्गके वे नेता बने हैके उपायरूप आगमतीर्थके प्रवर्तक माने जाते है तब वे उन्होने अपने आदर्श एवं उपदेशादिद्वारा दूसरोंको उस सब भी आप्त-सर्वज्ञ ठहरते है, और यह बात बनती नही, सन्मार्ग पर लगाया है जो शुद्धि, शक्ति तथा शान्तिके परमो. क्योकि तीर्थङ्करोंके आगमोंमें परस्पर विरोष पाया जाता दयरूपमें आत्मविकासका परम सहायक है।' और उनके है। अतः उनमें कोई एक ही महान् हो सकता है, जिसका शासनकी महानताके विषयमें बतलाया है कि 'वह दया सापक तीर्थकरत्व हेतु नही, कोई दूसरा ही हेतु होना (अहिंसा), दम (संयम), त्याग (परिग्रह-त्यजन) और चाहिये।
समाधि (प्रशस्तध्यान) की निष्ठा-तत्परता को लिये हुए ऐसी हालतमें पाठकजन यह जाननेके लिये जरूर है, नयों तथा प्रमाणोंके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्टउत्सुक होंगे कि स्वामीजीने इस स्तोत्रमें वीरजिनकी महानता- सुनिश्चित करने वाला है और (अनेकान्तवादसे भिन्न) का किस रूपमें संद्योतन किया है। वीरजिनकी महानताका दूसरे सभी प्रवादोके द्वारा अबाध्य है-कोई भी उसके संद्योतन जिस रूपमें किया गया है उसका पूर्ण परिचय तो विषयको खडित अथवा दूषित करने में समर्थ नहीं है। पूरे ग्रन्थको बहुत दत्तावधानताके साथ अनेक बार पडने यही सब उसकी विशेषता है और इसीलिये वह अद्वितीय है।' पर ही ज्ञात हो सकेगा, यहां पर संक्षेपमें कुछ थोडा-सा ही अगली कारिकाओंमें सूत्ररूपसे वणित इस वीरशासनपरिचय कराया जाता है और उसके लिये ग्रन्थकी निम्न के महत्त्वको और उसके द्वारा वीरजिनेंद्रकी महानताको दो कारिकाए खास तौरसे उल्लेखनीय है -
स्पष्ट करके बतलाया गया है--खास तौरसे यह प्रदर्शित त्वं शुद्धि-शारयोदयस्य काष्ठां
किया गया है कि वीरजिन-द्वारा इस शासनमें वर्णित वस्तुतत्त्व तुला-व्यतीतां जिन ! शान्तिरूपाम् ।
कैसे नय-प्रमाणके द्वारा निर्बाध सिद्ध होता है और अवापिय ब्रह्मपयस्य नेता
दूसरे सर्वथैकान्त-शासनोमें निर्दिष्ट हुआ वस्तुतत्त्व किस महानितीयत्प्रतिवक्तुमीशाः ॥४॥
प्रकारमे प्रमाणबाधित तथा अपने अस्तित्वको सिद्ध करमें क्या-वम-त्याग-समाधि-निष्ठ
असमर्थ पाया जाता है। सारा विषय विज्ञ पाठकोंके लिये नय-प्रमाण-प्रकृताऽङजसार्यम् ।
बड़ा ही रोचक है ओर वीरजिनेंद्रकी कीतिको दिग्दिगन्तअघृष्यमन्यैरखिल. प्रवाब
व्यापिनी बनानेवाला है। इसमें प्रधान-प्रधान दर्शनों और जिन! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥
उनके अवान्तर कितने ही वादोंका सूत्र अथवा संकेतादिकइनमेंसे पहली कारिकामें श्रीवीरकी महानताका और
__ के रूपमे बहुत कुछ निर्देश और विवेक आ गया है। यह विषय
३६ वी कारिका तक चलता रहा है। श्री विद्यानन्दाचार्यने दूसरीमें उनके शासनकी महानताका उल्लेख है। श्री वीरकी
इस कारिकाकी टीकाके अन्तमे वहा तकके वणित विषयमहानताको इस रूपमें प्रदर्शित किया गया है कि वे अतुलित
की संक्षेपमे सूचना करते हुए लिखा हैशान्तिके साथ शुद्धि और शक्तिको पराकाष्ठाको प्राप्त .
- स्तोत्रे युक्त्यनुशासन जिनपतेर्वोरस्य नि.शेषतः हुए हैं-उन्होंने मोहनीयकर्मका अभाव कर अनुपम सुख-शान्ति
सम्प्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवी काष्ठा परामाश्रिताम् । २. अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः ।
निर्गोतं मतमद्वितीयममलं सोपतोपाकृतं दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ॥२॥ तद्बाह्य वितथ मतं च सकल सद्धीषनबुध्यताम् ।। तीर्थकृत्समयानां च परस्पर-विरोधतः ।
अर्थात्-यहांतकके इस युक्त्यनुशासन स्तोत्रमें सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥३॥ शुद्धि और शक्तिको पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेंद्रके
-आप्तमीमांसा अनेकान्तात्मक स्याद्वादमत (शासन) को पूर्णतः निर्दोष
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जो सर्वथा एकान्तके आग्रहको लिये हुए मिथ्यामतोंका जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्या दृष्टि होता हुआ समूह है उस सबका संक्षेपसे निराकरण किया गया है, यह भी सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है। ऐसी बात सद्बुद्धिशालियोंको भले प्रकार समझ लेनी चाहिए। इस ग्रंथके निम्न वाक्यमें स्वामी समन्तभद्रने जोरोंके साथ
इसके नागे, ग्रंथके उत्तरार्धमें, वीर-शासन-वणित घोषणा की हैतत्वज्ञानके मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोंको कामं विषन्नप्युपपत्तिचनः स्पष्ट करके बतलाया गया है जो ग्रन्थकार-महोदय स्वामी ममीला ते समवृष्टिरिष्टम् । समन्तभद्रसे पूर्वके ग्रंथोंमें प्रायः नहीं पायी जातीं, जिनमें त्वयि एवं खण्डित-मान-श्रृङ्गो 'एवं' तथा 'स्यात्' शब्द के प्रयोग-अप्रयोकग के रहस्य की बातें भवत्यमद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२॥ भी शामिल हैं और जिन सबसे वीरके तत्त्वज्ञानको समझने इस घोषणामें सत्यका कितना अधिक साक्षात्कार तथा परखनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है। और आत्म-विश्वास संनिहित है उसे बतलानेकी जरूरत वीरके इस अनेकान्तात्मक शासन (प्रवचन) को ही नहीं, जरूरत है यह कहने और बतलाने की कि एक समर्थ अंधमें 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया है-संसार-समुद्रसे पार आचार्यकी ऐसी प्रबल घोषणाके होते हुए और वीर उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा मार्ग सूचित शासनको 'सर्वोदयतीर्थ' का पद प्राप्त होते हुए भी आज वे किया है जिसका आश्रय लेकर सभी पार उतर जाते हैं लोग क्या कर रहे हैं जो तीर्थके उपासक कहलाते हैं, पण्डेऔर जो सबोंके उदय-उत्कर्षमें अथवा आत्माके पूर्ण विकास पुजारी बने हुए हैं और जिनके हाथो यह तीर्य पड़ा हुआ है। में सहायक है और यह भी बतलाया है कि वह सर्वा- क्या वे इस तीर्थ के सच्चे उपासक हैं ? इसकी गुण-गरिमा न्तवान् है-सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध और एवं शक्तिसे भले प्रकार परिचित हैं ? और लोकहितएकत्व-अनेकत्वादि अशेष धोको अपनाये हुए है- मुख्य की दृष्टिसे इसे प्रचारमें लाना चाहते है ? उत्तरमें यही गौणकी व्यवस्थामे सुव्यवस्थित है और सब दुःखोंका अन्त कहना होगा कि 'नहीं'। यदि ऐसा न होता तो आज इसके करनेवाला तथा स्वयं निरन्त है-अविनाशी तथा अखंडनीय प्रचार और प्रसारकी दिशामें कोई खास प्रयत्न होता है। साथ ही, यह भी घोषित किया है कि जो शासन हुआ देखनेमें आता, जो नहीं देखा जा रहा है। खेद है कि वो पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता है- ऐसे महान प्रभावक ग्रंथोंको हिन्दी आदिके विशिष्ट उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है-वह सर्वधर्मोसे अनुवादादिके साथ प्रचारमें लानेका कोई खास प्रयल शून्य होता है-उसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन भी आजतक नहीं हो सका है, जो वीर-शासनका सिक्का सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ लोक-हृदयोंपर अंकित कर उन्हें सन्मार्गकी ओर लगाने कसती है; ऐसी हालमें सर्वथा एकान्तशासन 'सर्वोदयतीर्थ वाले हैं। पदके योग्य हो ही नहीं सकता। जैसा कि ग्रंथके निम्न प्रस्तुत ग्रंथ कितना प्रभावशाली और महिमामय है, वाक्यसे प्रकट है
इसका विशेष अनुभव तो विज्ञपाठक इसके गहरे अध्ययनसे सर्वान्तवत्सद्गुण-मुल्प-कल्प
ही कर सकेंगे। यहांपर सिर्फ इतना ही बतला देना उचित सर्वान्त-शून्यं च मियोनपेक्षम् ।
जान पड़ता है कि श्रीविद्यानन्द आचार्यने युक्त्यनुशासनका सर्वापदामन्तकर निरन्तं
जयघोष करते हुए उसे 'प्रमाण-नय-निर्णीत-वस्तु-तत्वमसर्वोचवं तीर्थमिदं तवैव ॥६॥
बाषितं' (१) विशेषणके द्वारा प्रमाण-नयके आधारपर वीरके इस शासनमें बहुत बड़ी खूबी यह है कि 'इस वस्तुतत्वका अबाधित रूपसे निर्णायक बतलाया है। साथ ही, शासनसे यथेष्ट अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी, टीकाके अन्तिम पथमें यह भी बतलाया है कि 'स्वामी यदि समदृष्टि हुमा उपपत्ति चक्षसे-मात्सर्यके त्यागपूर्वक समन्तभद्रने अखिल तत्वसमूहकी साक्षात् समीक्षा कर समाधानकी दृष्टिसे-वीरशासनका अवलोकन भौर परी- इनकी रचना की है। और श्रीजिनसेनाचार्यने, अपने क्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानशंग खंडित हो हरिवंशपुराणमें, हतयुक्त्यनुशासन' पदके साथ
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किरण ७८]
'वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते' इस वाक्यकी योजना कर यह घोषित किया है कि समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन ग्रन्थ पीरभगवानके वचन ( आगम ) के समान प्रकाशमान् एवं प्रभावादिकले युक्त है।' और इसमे साफ जाना जाता है कि यह प्रन्थ बहुत प्रामाणिक है, आगमको कोटिमें स्थित है और इसका निर्माण बीजपदो मम्मी और बहुये सूबों द्वारा हुआ है। महमुद इस प्रत्यकी कारिकाएँ प्रायः अनेक गद्य सूत्रोंने ममिल हुई जान पड़ती हैं, जो बहुत ही गाम्भीर्य तथा गौरवको लिए हुए है। उदाहरण के लिये य कारिका को कीजिये इसमें निम्न चार सूर्योका समावेश है
१ मे भेदात्मकमतत्वम् ।
बुन्देलखण्ड के कविवर देवीदास
२ स्वतन्त्राऽम्यतरस्वपुष्पम् ।
३ श्रवृत्तिमस्वात्ममवायवृत्त े : ( संमर्गहानिः ) ।
देश- परिचय
इस भारत-भु पर बुन्देलखपढ एक सुन्दर सुहावनामा प्रदेश । वहाँकी श्राव-हवा शुष्क होते हुए भी स्वास्थ्यप्रद और जल मिष्ट, स्वादिष्ट तथा शीतख है । इसकी इस भूमि पर अनेक भारतीय प्रसिद्ध वंशोंके वीर पत्रियोंने-कलचुरि चन्देल, गाँव, ठाकुर और बुन्देला राजद के वीर परामी रामा ने-राज्य शासन किया है। वहाँके लोग सीधे-साधे और अपनी बात धनी होते थे । यद्यपि इन्देलखण्ड एक निर्धन प्रदेश है, क्योंकि वहाँ आज भी व्यापारके विशेष साधन नहीं है। इस दशामें पहले से कुछ सुधार हुआ भी वो भी उसमें विशेष मग खाने की आवश्यकता है। यहाँ प्राकृतिक संग अनेक फलोंमे परिपूर्व होते हैं उनसे गरीब जनता अपनी उदर पूर्तिका प्रयत्न करती रहती है। आजकल ये प्राकृतिक जंगल भी राज्यशासनकी श्रायके साधन बन रहे हैं। यह हरा-भरा कृषि है, हाँ पैदा होते
[ २७३
४-दामिः ।
इसी तरह दूसरी कारिकामका भी हाल है। मैं चाहता या कि कारिकापरसे फलित होने वाले गद्यसूत्रोंकी एक सूची अगले दो बाली, परन्तु उसके तैयार करने योग्य मुझे स्वयं अवकाश नहीं मिल सका और दूसरे एक विद्वान् जो उसके लिए निवेदन किया गया हो उनसे उसका कोई उत्तर प्राप्त नहीं हो सका। और इसलिए वह सूची फिर किसी दूसरे संस्करण के अवसरपर ही ही जा सकेगी।
बुन्देलखण्ड के कविवर देवीदास
अशा ग्रन्थके इस संक्षिप्त परिचय और १२ पेशी विषयसूची पर पाठक प्रत्यके गौरव और उसकी उपा देयता को समझ कर सविशेषरूप से उसके अध्ययन और मनममें प्रवृत्त होंगे।
जुगलकिशोर मुस्तार
बुन्देलखन्ड, बेतवा, नर्मदा और बसा आदि नेक छोटी-बड़ी नदियाँ बहती है, यहाँकी जमीन पहाड़ी होनेके कारण प्रायः नहरोंका अभाव है । अव यहाँका समस्त कृषि वर्षाके ऊपर निर्भर है।
इस देश में अहाँ अनेक राजा-महाराजा पेठ-साहूकार त्याग-तपस्वी और साधुजन हुए हैं। साथ ही, वहाँ अनेक मन्दिर और सुन्दर प्रशाम्त मूर्तिमां भी उस देश की समृद्धि पूर्व महत्ताके निशंक है। वहाँ अनेक कवि भी हुए हैं जो अपनी कक्षा चातुरीसे अपने हृदय-गत भावको व्यक्त करते थे । वे अपनी कलासे केवल जनताका मनोरंजन ही नहीं करते थे, प्रत्युत उस वस्तुस्थितिका वह भी उपस्थित करते थे जिसे यदि जनता अपने हृदय पर अंकित कर लेती थी तो वह उन सांसरिक महाविपत्तियोंमे छुटकारा पाने के लिए उद्यत हो बाली भी ग्रामहितका प्रधान समय है।
इसके
यु-देवलगढकी अधिकांश जनता भाज भी चारित्र
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२७४
अनेकान्त
[वर्ष ११
की बोर अपना खास ध्यान देती है। बापि कुछ समयसे ग्राममें भा बसे थे। भोरकामें उस समय सावंतसिंहउसमें शिथिलताका समावेश होने लगा है, जिसका कारण का राज्य था। शहरों में उस पारचाप सम्यवाका पनपना, जो पाय- देवीदास प्राकृत-संस्कृत भाषाके साथ हिन्दी भाषा संस्कृतिकी विधायक है। परन्तु भान मी पुन्देखखन्ड भी अच्छे विद्वान थे और काम्य-कलामें निष्णात थे। केखोग उस चारित्रको अपना अंग बनाये हुए हैं। इसी- इनका रहन-सहम सीधा-सादा था। जैनधर्ममें इनकी से पहा बोगोंका रहन-सहन, खान-पान सादा होते अदा अडोख थी और वे श्रावकोषित् षटकर्मों का पालन
ए भी सात्विक वृत्तिको लिए हुए हैं। आज भी बुन्देल सदा किया करते थे। वे लोक व्यवहार में निपुण थे । और बाडमें मनकट विद्वान, कवि और त्यागी-तपस्वी बह स्वभावतः भद्र परियतिको जिए हुए थे। वे बड़े होते हुए भी वहाँ शिक्षाकी कमी है। कुछ स्थान तो किफायतसार और व्यापारिक कार्यों में निपुत्र थे । इमऐसे है यहाँ बागारके काई साधन उपलब्ध ही नहीं हैं। के संबन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित है, जिनमें उन इसीसे अनेक प्रामनगरोंके लोग अपने अपने स्थान- के जीवन्सम्बन्धि खाम घानामों का उल्लेख निहित है को कोषकर समीपवर्ती शहरों में भावाद होते जा रहे हैं। और उनसे उनकी जीवन वृति और भद्र परिणतिका सरकारका कर्राम्य है कि वह बुन्देलखण्डको समूबत सहमही अन्दाज लगाया जा सकता है। कविकी धार्मिक बनाने के लिए विविध उपायोंको काममें बाय, जिससे परिणतिके साथ उनकी काग्य-कलाका विकास भी, जिसवहाँको जमवाके रहन-सहनका स्तर ऊंचा उठे और का परिचय 'परमानन्द विलास' नामको संग्रह कृतिमें वहाँ खेती भार व्यापारकी सुविधा प्रास हो,पाथ ही इस देखनेको मिलता है। जो कविकी अपूर्व प्रतिभाका देशकी कलात्मक प्रवृत्तियोंको प्रोत्साहन मिले। अस्तु, चोक है। एक अन्यमें 'चित्र काम्य-कला' का एक
पुन्वेखाएके भाज एक ऐसे विद्वान कविका परि- प्रकरण है जिसमें सर्प, पर्वत, कपाट, धादि अनेक विधपय पाठकोंको करानेका प्रवल कर रहा हूँ, जो अब तक चित्रबद्ध पथ दिये हुए हैं जिनमें से एक-दो का नमूना प्रायः बासिद रहा है और जिसकी कृतियोंका प्रचार भागे 'प्रन्य-परिचय' नामक शीर्षकमें किया जायेगा। नगरप-सा है। उसकी प्रसिदिका एक कारण यह भी जहाँ कविका मुकाव भकि उसकी ओर था वहाँ रहा है कि वह जैग कुजमें उस्पस हुआ था और उसकी सनका मानस माध्यात्मिकरससे सराबोर भी था। उनके प्रायः सारी ही कविता जैनधर्म मन्तब्योसे मोत-प्रोत माध्यामिक पदोंको देखनेसे यह सहज ही मालूम हो होती हुई भक्ति-रस और प्राण्यास्मिक रसकी बह सुन्दर बावा है कि कविको अन्तरास्माका मुकाव पारमानुभवएवं व-हारिकी सरिता है जिसमें अवगाहन करना की उस महान् झांकी की मोर मुका हुआ ही नहीं था; साधारण व्यक्किा काम नहीं है।
किन्तु उसकी अन्तरारमामें उस भामरसका नो स्वाद जीवन-परिचय
अनुभवमें माता था, पचपि वह वचमातीत था, को भी वह पुण्येवमहमें अनेक ग ए । उनमें कविकी परिणतिय दता, भद्रता, सरलता और सत्यताका 'वर्षमान काम्बका कवि नवबयार भी प्रसार सम्मिश्रण अभियंजक था. इसी से उनकी रट निर्मल जाम समकालीन बिनका परिचय बादमें दिया जायेगा
परती थी। जबकभी कविकी रष्टि अपने साधर्मी भाइयोंबुन्देखबहाब बकवियों शावरीमा की ओर जाती थी तब वह उनकी विपरीत परिणतिको परमा बिससे उनका परिचय भी दिया जा सके। गोलाबारे सानिया शरीषा होत,
प्रस्तुत कविवर देवीदास 'मोरला स्टे' दुगौला प्राम- सोषियार सुबक वसु पुनि कासिव सुगोत निवासी थे। पहमाम महारत्र और परमा नामक पुनि कासिड सुगोत्र सीक सिकहाए खेरी, मामके पास।कषिकी बावि 'गोवाबारे' और वंश देश भदावर माहि जो सुपरम्यो विहि केरौ। 'परोया' याबमा बैंक सोनवियार और गोत्र 'कासिव' कैलगमाके वसनहार संतोष सुभारे, था। के पूर्वज भदावर देने वागा' प्रामके कवि देवी बसु पुत्र दुगौटे गोलाबार। निवासी थे। पति किसी कारब- गोवा नामक
-चतुर्विशति पूजा
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किरण ७८
बुन्देलखर
भी हो जाते थे
देखकर कुछ समय से स्वभावका विचार करते हुए 'अलभ्यशकि भवितव्यता' का स्मरण कर अन्य विकल्पसे अपनेको विमल बनानेका प्रयत्न करते थे। उनकी इस सरवृष्टिको देखकर लोग उन्हें 'अ'मी' के नामसे पुकारते थे बड़े सभी लोग उन्हें भायजी कहा करते थे ।
आपकी भाजीविकाका साघन कपदेका व्यापार था आप कपड़ेका व्यापार करते हुए हानिके अवसरों पर कभी दिलगीर अथवा दुःखी और हर्षित नहीं होते थे। वे कपड़ा बेचने के लिये अपने ग्रामसे दूसरे गांवमें जाया करते थे और बेचकर वापिस आये और फिर नया माल जाकर पुनः बेचनेका प्रयत्न करते थे जीवन - घटनाएँ
कविवर देवीदास जी एक समय अपने लघु भ्रावा
के बलित
नव विवादी सामग्री लेनेके लिये उसके
साथ
पुरका रहे थे कि मार्ग बीच ही में घुमाता शेरके । में शिकार होनेसे थोड़ी देर बाद यकायक स्वर्गवासी हो गए। इस अमति परमासे कवि हृदयको बा परन्तु वस्तु स्थितिका विचारकर उसका क्रिया काण्ड किया, और यह विचार भी किया कि मिस निभिसके लिये मैं सामग्री खरीदने जा रहा था । वह बीचमें ही काल कयलित हो गया, अत: अब विवादको सामग्री खरीदने का निरर्थक है, यदि पह मंजूर होता तो वह सब कार्य सानन्द पूरा होता पर कर्मके उदयका बानक इसी तर बनना था ! अतः अब मैं सीधा खोटकर रावास पर पहुंचे उनकी मां ने गए,
इन्हें
देखकर
तुम वो आठ दिनमें आनेको कह गए थे आज वो ५ व ही दिन है। कविन कहा मां श्रा गया। मां ने कहा, सामान कहां है और का तेरा छोटा भाई है ? मावा इन प्रश्नोंको सुन्दर कविवर पहले तो असमंजसमें पये पर संभलकर बोले, मी कमकी गति बड़ी टेही है वह बचनों नहीं कही जा सकती, सोचा कुछ और ही था, और कार्य कुछ और ही बना है। छोटा भाई रास्ते में शेरसे घायल होकर बीच में ही चकबसा है !! रामचन्द्र प्रातः इस भू. के चक्रवर्ती राजा होने वाले थे; परन्तु उन्हें बारह के लिये बनवाना पड़ा. य ने यह विचार किया था कि इस युद्धको ओठकर में
कविवर देवीदास
२७५
सीता रामचन्द्रको वापिस छोटा दूंगा परन्तु यह सब विचार यों ही क्या रहा, और राजयको मृत्युलोकमें
मा पड़ा। इन्हीं सब विचारोंसे परिपूर्ण कविवरके एक पड़के ये निम्न वाक्य खास चौरसे ध्यान देने योग्य है, पूरा पद प्राप्त नहीं हुआ ।
"बांकरी करम गति जाय न कही। मां बांकरी करम गांत जाय न कही चिन्तत और वनत कलु श्रीरदि होनहार सो होय सही"
यह जीव कर्मके परवश हुआ वृथा ही अभिमानके द्वारा अपनेको समर्थ और बलवान मानता है । परन्तु वस्तुस्थिति इससे विपरीत है, यह की अनीश्वर-म है, और अपनी अक्रिया के द्वारा अपने मिध्याध्यासे पीड़ित होता हुआ जन्म जरा चौर मायके अपार दुखमे सदा उनि रहता है। मिध्यावसमासे दूसरोंके सुख दुःखका कद बनता है, परन्तु वह कर्मको बड़ी नटिके रहस्यसे अपरिचित ही रहता है। यही उसकी अज्ञानता है ।
भारतके अहिंसक सन्त महामना पूज्य वर्गीजीने अपनी जीवन-गाथायें प्रस्तुतकविके सम्बन्धमें उ पटना के अतिरिक अन्य फोन परनाओंका उल्लेख किया है। जिन्हें कमसे नीचे दिया जाता है :
एक बार ये अपना पड़ा बेचने के लिए '' पर थे, वहाँ वे जिन साधन बाईके मकान उरते थे। उनके पाँच वर्षका एक छोटासा बाधक भी था। वह प्रायः भायजीके पास ही खेलनेके लिए भा जाया करता था । अन्य दिनोंकी तरह उस दिन भी जाया और साथ घण्टे बाद चला गया। उसकी माँने उसके बदनसे मंगुलिया वारी, तो उसके साथ ही उसके हाथका चाँदी का एक चूरा (कड़ा) भी अंगुलिया की माँहके साथ निकल गया और वह उसमें ही कहीं घट गया जब माँने लड़का हाथ गंगा देखा तो उसका भट यह विचार हो गया कि बूरा (कहा) भावजीने उचार बिया होगा, इसी विचार से वह फटपट उनके पास गई और बोली भाषी ] [] इस बच्चेका चूरा को नहीं गिर गया ? भायजी उसके मनसापापको समझ गए और बोले कि हम कपड़ा बेचकर देखेंगे। चूरा कहीं गिर गया होगा बड़केकी माँ वापिस चली गई। इन भाषकी
अटक
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ने शीघ्र ही सुमारके पास जाकर पाँच वाले चाँदीका कड़ा बनवाकर उस बच्चेकी माँको दे दिया । म उस कनेको पाकर प्रय हुई और भायजी बाजार में गये। दूसरे दिन मां उस बच्चेको मुखिया पुनः पहनाने लगी वो उससे वह कड़ा निकल पड़ा। बच्चेकी म मग ही सर्मिन्दा हुई और जब बाजार से भाषामी वापिस भाए, तब जाकर कहने लगी कि भावी! मुझसे बड़ी हुई ही आपको पूरा बेनेका दोष लगाया | भायजीने का, कोई हर्ज महाँ चीन कोलावेपर सन्देह हो ही जाता है, इस कनेको रहने दो।
अनेकान्त
एक समयकी बात है कि आप ललितपुर से कपदा aise और घोड़ेपर लादकर घर वापिस आ रहे ये कि जंगल के बीच में सामयिकका समय हो गया । साथियोंने मायसीसे कहा कि अभी एक मील और चलिये। महरं पना जंगल है और चोरोंका डर भी है। आयलीने कहा, आप लोग हम वो सामायिक के बाद ही पहले चलेंगे। और घोड़ेपरले कपड़ेका गट्ठा उतारकर घोड़ा एक ओर बांध दिया और भाप स्वयं सामायिक बैठ गए, इसने में चोर आये और कपये के गड्डे लेकर चले गए। पोषी दूर जानेपर चोरोंके दिव यह विचार उत्पन्न हुआ कि हम लोग जिसका कपड़ा चुरा करके जा रहे हैं वह बेचारा मूर्तिके समान स्थिर बैठा है मामी कोई साधु हो, ऐसे साधु पुरुषकी चोरी करना महा पाप है। इस विचार जाते हो बेचारे लौटे और रूपये हाँसे उठाये थे वहीपर रख दिए और कहने लगे कि महाराज से आपके गट्ठे रखे हैं अन्य कोई चोर आपको संग न करे, इसलिए हम अपना एक आदमी हो जाते है। इन चोर आगे चले और जी आपजीको उस घने भयानक जंगखमें अखा फोहर चले गए थे उन्हें मार-पीट की तथा उनका सब माल असबाब लूट लिया । भायजीके पास जो आदमी बैठा था, उसमे उनका ध्यान पूरा होने पर उनसे कहा कि महाराज ! अब आप अपना कपड़ा सम्हालो, हम जाते हैं।
[ वर्ष ११
लकड़ीमें १२ महीने रोटी बनाकर काई और अंत में उस पैसे को भी• बचाकर ले आए। वे रोजाना एक पैसेकी लकड़ी मोक्ष देते थे और रोटी बनानेके बाद उसका कोयला किसी सुनारको एक पैसेमे बेच देते थे। और अग दिन फिर उसी पैसेकी कड़ी खरीद लेते थे। इस उन्होंने एक पैसेको में ही एक वर्षका भोजन बनाया । इससे उनकी feeten करनेकी आदतका पता चलता है।
पं० देवीदास जी यू० पी० प्रान्तमें किसी स्थान पर दिया अध्ययन करनेके लिए गए। वहाँ आपने एक पैसेकी
ये तीनो ही घटनाएँ उक्त कविके जीवन के साथ खास सम्बन्धित है। इनके अतिरिक और मा अनेक किवदन्तियों कविके सम्बन्धमे उनके निवास स्थान दुगौदा प्रममें प्रचलित है पर उन्हें लेख वृद्धि यहाँ छोड़ा जाता है ।
से
जिनेद्र-भक्ति
कविका जीवन जहाँ अध्यात्म शास्त्रोंके अध्ययन मे प्रवृत्त होता था वहां वह भक्तिरसरूप बागाकी निष्काम विमन धाराके प्रवाह में दुबक बनाता रहता था। वे जिनेन्द्र भगवानके गुयोंका चिन्तन एव भक्ति करते हुए इवनं तन्मय अथवा धात्म-विभोर हो जाते थे कि उन्हें उस समय बाहरकी प्रवृत्तिका कुछ भी ध्यान नहीं रहता था-भक्तिरस के अपूर्व उन कमे वे अपना सब कुछ भूल जाते थे-भगवद् भक्ति करते हुए उनकी काई भी भावना उसके द्वारा धनादिकी प्राप्ति अथवा ऐहिक भोगोपभोगोंकी पूर्ति रूप मनोकामना को पूर्ण करने की नहीं होती थी, इसमें उनकी कि निष्काम कही जाती थी । कविकी भक्तिका एक मात्र लक्ष्य सांसारिक 'विकलपता' को मिटाने और भमन्युर्योकी प्राप्ति का था। उनकी यह हद श्रद्धा थी कि उस वीतरागी जिनेंद्रकी दिव्य मूर्तिका दर्शन करनेसे अम्म-जन्मान्तरोक अशुभ कर्मोंका ऋण (कर्जा) शीघ्र चुक जाता है-वह विनष्ट हो जाता है और सि परम आनन्द परिपूर्ण हो जाता है। यद्यपि मिनेन्द्रका गुणानुवाद प्रत्यन्त गम्भीर है, वह बच्चनोंसे नहीं कहा जा सकता, और जिसके सुनने अवधारण करने अथवा श्रद्धा करनेसे यह श्रीवारमा कमौके फन्दसे छूट जाता है। कवि स्वयं कहते है कि जिगुया रूप सनके सेवन से अब मेरी यह सांसारिक 'विरा' दूर हो गई है। अबतक मुझे मोंकी परख (पहिचान) व आई थी तब तक मैं एक कोड़ी
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किग्ण ७-८]
बन्देलखण्डके कविवर देवीदास
[२७७
की भाबीके बदले हंगामे चा नाता था। कविको कारण अनादि काससे भापके चरण-शराकी प्राप्ति उक्त भावनाका रूप परमानन्द विहार में दिये हुए है, इससे मुझे भव-वनमे रुखमा पाप मैंने उस निम्न पदसे स्पष्ट है :
भव-वासके माता बारकी रद शरण ग्रहण की । मूरति देख सुख पायो,
अत है जिनेन्द्र ! मेरा यह भववार विनाश कीजिए, मैं प्रभु तेरो मूरति देख सुख पायो।
जिससे मुझे स्वपदकी प्राति हो। कविका निम्न पद एक हजार आठ गुन सोहत,
इसो भावनाका द्योतक हैलक्षण सहस सुहायो टेका।
सुजस सुनि आयो शरण जिन नरे। जनम जनमके अशुभ करमौ ,
हमरे वैर परे दोऊ तसकर, रिनु सब तुरत चुकाया ।
राग-द्वेष सुन तेरे ॥ परमानन्द भयो परिपूरित,
तुम सम और न दीसत कोई, ____ ज्ञान घटाघट छायो ||2|
जगवासी बहु तेरे । अति गंभीर गुणानुवाद तुम,
मो मन और न मानत दूजो, मुखकार जात न गाया ।
लीक लगाइ न बैरे॥१॥ जाके सुनत सरदहे प्राणी,
मोह जात शिव मारगके रुख, कर्म-फन्द सुरझायो ॥२॥
कर्म - महारिपु घेरे । विकलपता सुगई अब मेरा,
आन पुकार करी तुम सन्मुख, निज - गुण - रतन भजायो ।
दूर करो अरि मेरे ।। २॥ जात हतो कोड़ीके बदले,
इस संसार असारविर्षे हम, जब लगि परखिन आयो ॥३।।
भुगते दुःख घनेरे । कविवरने अन्य दूसरे पदमे जिनेन्द्रकं सुयशका अब तुम जानि जपो निशि-वासर, मुनकर उनकी शरणमे जानकी चर्चाको व्यक करते
___ दोप हरयो हम केरे॥३॥ हुए अपनी आत्माको राग-द्वेष-शत्र रूप चोरोंस काल अनादि चरण शरणाविन, छुटकारा दिलाने वाला जिनेन्द्र भगवान सिवाय अन्य
भव - वनमांहि परेरे । कोई नहीं है, इस तरह अपनी श्रद्धाको दृढ़ताको व्यक देवियनास वास भवनाशन, किया है। कवि कहते हैं कि अब मेरा मन जिनेन्द्रका
काज भए जिन चेरे ।। ४ ।। कोपकर अन्यत्र नहीं जाता, मोक्षमार्गम जातं हुए मुझ अष्ट कर्म रूप वैरी मोडा रोकते है। मैं उस स्थान पर
इस तरह कविकी जिनेन्द्र भक्ति कितनी सरस और भानकी बराबर चेष्टा करता हूँ, परन्तु अभी तक नहीं जा
भारमलामको निर्मल दृष्टिको लिए हुए मिकामा है। सका हूँ। इसीस हे जिनेन्द्र ! मैंने श्यपकी शरण में मा
इसे बतलानेको भावश्यकता नहीं पाठक उनकी रचनायोंकर यह पुकार की है कि भाप मेरे इन शत्रुनों को दूर
के अध्ययनसे सायं उसमतीजेको पा सकते हैं। उसमें काजिये। इस प्रसार संसारमें मैंने रहकर अनेक घोर कप
अंधश्रद्धा, अंधर्भात मादि किसी भी सांसारिक कामनाको भोगे हैं जिनकी करुण कहानी कहना अपनो व्यथाको
स्थान प्राप्त नहीं है। और बढ़ाना है, उन्हें आप स्वयं जानते हैं। पर वे सब
परमानन्द विलास अपवा 'देवीविखास' गत 'पुकार दुःख अपने पदको भूल कर और परको भाना मागकर पच्चीस क निम्न पचाम भी किसी कामनाका समावस जो भारी अपराध मैंने किया था उसीके फल-स्वरूप वे नहीं है। अतः
नहीं है। अतएव यह कि समीचीमा है और परम्परा जन्म-जम्माम्बरासे बराबर मेरे साथ चलेभा रहे। मुक्तिकी साधक है। मेरे उम दोषको दूर कीजिये, जिसके दूर हुए बिना मेरा "कर्म अकान करै हमरौं, अब हित होना संभव नहीं है। इन सब दुःखोंका प्रधान
हमकों चिरकाल करै दुखदाई।
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२५८ अनेकान्त
वर्ष ११ मैं न विगार कियौ इनको,
संयोगको कोदयका विपाक समझते थे, उसमें अपनी विन कारण पाय भए अरि आई। कत व बुद्धि और प्रक्रियारूप मिथ्या वामनाको मात पिता तुम हो जनके,
किसी प्रकारका कोई स्थान नहीं देते थे । इसी कारण तुम छांदि फिराद करौं कहां जाई। वे व्यर्थकी अशान्तिसे बच जाते थे। साथ ही प्रतस्वपारहिं बार पुकारत हौं,
परिणति और मोह-ममतासे अपनेको बाये रखने मे हमरी विनती सुनिये जिनराई ॥ सदा सावधान रहते थे-कमी असावधान थवा प्रमादी x x x x नहीं होते थे। वे स्वयं सोचते और विचारते थे कि है सो तुमसौं कहि दूरि करचौ प्रभु,
मात्मन् ! जब तेरी प्टि जागृत हो जायगी, उस जानत हो तुम पीर पराई ।
समय कालनधि, सत्संग निविकलपता, और गुरु उपदेश मैं इनिकौ परसंग कियौ,
सभी सुलभ हो जायेंगे। विषय-कायोंकी बलक मुरमा
जावेगी, वह फिर तुझे अपनी ओर आकृष्ट करने में समर्थ दिनहू दिन आवत मोहि बुराई ।
न हो सकेगी। मनकी गति स्थिर हो जानेसे परिणामोंज्ञानमहानिधि लूट लियौ,
की स्थिरता हो जावेगी | तब मोहरूपी अग्नि प्रज्वलित इन रंक कियौ हर भांतिहि राई।
होगी और उसमें विभाव भावरूप वह सब ईधन भस्म हो बारहिं बार पुकारत हों जनकी,
जावेगा। तेरे अन्तर्घटमे विवेकज्ञानकी रुचि बढ़ेगी। विनती सुनिये जिनराई ॥
फिर मन पर - परिणति में सभी नहीं होगा और तू सब अध्यात्म-राग
तरहसे समर्थ होकर अनुभव रूपी रंगमें रंग जायगा। काववर सध्यात्म-शास्त्रोंके कोरे पंडितहीन थे किन्तु तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप मोषमार्ग में प्रवृत्त उन्होंने उन अध्यात्मशास्त्रोंके अध्ययन मनन एवं चिंतन- होगा। और इस तरह तुझे फिर कभी पर उगम सकेगा। से जो कुछ भी विवेक ज्ञान प्राप्त किया था, वे उसे रह हे देवीदास । अब तू स्वाधीन पन, और निजानन्दरसका महामें परिणत करमेके साथ-साथ प्रशिकरूपसे अपने पान कर सन्तुष्ट हो। यही आशय निम्न पदमें ग्यच. जीवनमें तदनुकूल बन करनेका भी प्रयत्न करते थे। किया गया हैसुनांचे उनका जीवन अध्यात्मरससे सराबोर रहता था। जब तेरी अन्तर्दृष्टि जगेगी ।।टेका। बेइ वस्तुका वियोग होनेपर भी कायरोंकी भांति काललबधि आवत सुनिकट जब, दिखगीर अथवा दुःखी नहीं होते थे, किन्तु वस्तुस्थितिका
_____ सत्सति उपदेश गहेगो । परावर चिन्सन करते हुए कमजोरीमे जो कुछ भी थोडेसे अल्पकाल महि निरविकलप हो, समपके लिए दुखि अथवा कष्टका अनुभव होता था वे
गुरु उपदेश लगेगो ॥॥ उसे अपनी कमजोरी समझते थे। और उसे दूर करनेके
विषय-कपाय सहज मुरझावत, लिये वस्तुस्वरूपका चिन्तनकर स्काल उससे मुक्त
थिर होय मनु न हगेगो।
होत सुथिर परिनामनिकी गति, होनेका प्रयत्न करते थे। इन्ही सब विचारोंसे उनकी
मोह-अनल तब शीघ्र दगेगो।। गुमशता और विवेकका परिचय मिलता है। वे भारम
बढ़त विवेक सुरुचि घट अंतर, ध्याममें इतने सालीन हो जाते थे कि उन्हें बाहरकी
पर-परिनति न पगेगो । क्रियाका कुछ भी पता नहीं चलता था। किसोकी समरथ हो करि है निज कारज, निन्दा और प्रशंसाम वे कमी भाग महीं देते थे। यदि
निज अनुभव रंग रगेगो ॥३॥ देवयोगसे कोई ऐसा अवसर था भी जाता था बुद्धि दर्शन-ज्ञान-चरन शिव मारग. पूर्वक इसमें प्रवृत्त नहीं होते थे। और न अपनी शान्ति
जिहिं रस-रीति खगेगो। भंग करनेका कोई उपक्रमही करते थे। वे कमोदयजन्य देवियदास कहत तब लगि है, क्रियामों हारा होनेवाले इष्ट-मनिष्ट पदार्थोक वियोग
जिय तुम पर न ठगेगो॥४॥
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किरण ७-८]
बुन्देलखण्डके कविवर देवीदास
[२७९
वह स्वानुभाव रूप प्रात्मरस अत्यन्त मधुर और
स्वादत फिर न उवीठौ । सुखद है, परन्तु उस सहज रसका स्वाद स्थाद्वाद ग्सना
देवियदास निरक्षर स्वारथ, के बिना नहीं हो सकता। जब तक मारमा अपनी विभाव.
अन्तरके हग दीठौ ॥४॥ रूप सर्वया एकान्तदृष्टिको छोड़कर अनेकान्तरटिको कविवर कहते है कि वह निर्मक निजरस मैने बस जीवन में नहीं अपना लेता, तब तक वह उस स्वानुभव लिया है, अब मुझे किसी भी कार्य करने की अभिलाषा रूप सुधारसका पान करने में समर्थ नहीं हो पाता। महीं है। अब मैंने सम्पग्दर्शन ज्ञान चरण रूप मुक्तिके उस वह स्वानुभव पूर्व रसायम है, जिसका स्वाद अपूर्व और मूल वृक्षका पता लगा लिया है जहापर राद्वष रूपमाश्चर्यजनक है, उसके चखते ही संसारके सभी स्वाद पर परिनमन हेप जानकर स्वाग दिये जाते है-प्रथवा वे फीके ( नारस ) पर जाते हैं। जिन्होंने उस निजानन्दरस- स्वयं छूट जाते हैं। और शुद्ध उपयोगकी वहप म धारा का पान कर लिया है उन्हें इन्द्र नरेन्द्रादिके वे पर:धीन उपादेय हो जाती है। मनको दौर तो पखाकाके समान इन्द्रियजन्य चाणक सुख सुखद प्रतीत नहीं होते-वह चल और अस्थिर है और उसकी स्थिति समद्रके मध्य जीव सरागमवस्थामें उनका उपभोग करता हुमा भी जहाज पर बैठे हुए उस पलीके समान है। मैंने बामने कभी सुखी नहीं हुमा और न हो सकता है। क्योंकि वह योग्यको जान लिया और देखने योग्यको देख लिया। पासे मिश्रित कर्मविपाक रस है, स्वानुभव नहीं, स्वानुभव अब उस अन्तिम मंजिल अथवा लषय पर पहुँचनेकी देर तो परके मिश्रणसे सर्वथा प्रतीत है, उस निजानन्द रूप है। जैसा कि कवि निम्न पदसे प्रकट है:परम सुधारसके अनुभव या स्पर्श होते ही जन्म-जरा- निज निरमल रस चाखा, मरण रूप दुःख दूर हो जाते हैं। वह रस सरस होते हुए ___ जब वह निज निरमल रस चाखा । भी वचनातीत है, परन्तु उसका दर्शन या अनुभव अन्त- करनेकी सुकछु अब मोकी, 'टिके जागृत हुए बिना नहीं हो सकता। अतः उसे
और नहीं अभिलाषा टेक।। प्राप्त करना ही दे पात्मन् तेरा परम बचय है। कविवर
सूझ परे पर जोग आदि पर, कहते है:
मन सु अवर तन भाषा । श्रातमरस अति मीठो,
दर्शन-ज्ञान-चरन समकित जुत, साधो आतम-रस अति मीठो।
मूल मुकति-तरु पाखा ॥१॥ म्याद्वाद रसना बिन जाको,
राग-द्वेष मोहादि परिनमन, मिलत न स्वाद गरीठौ ।।टेक।
हेय रूपकरि नाखा । पीवत हो सरस मुख,
सुथिर शुद्ध उपयोग उपादेय, सो पुनि बहुरिन उलटि पनीठौ ।
परम धरम उर राखागा अचिरज रूप अनूप अपुरव,
मनकी दौर अनादि निधन म, जा सम और न ईठो॥१।
जैसे अथिर पताखा (का)। तिन उत्कृष्ट सुरस चाखत ही,
सो जिहाज पंछी समकी थिर, मिथ्यामत दे पीठो ।
जिम दरपनमें ताखा ||शा तिन्हिको इन्द्र नरेन्द्र आदि सुख,
जाननहार हतौ सोई जान्यौ, सो सब लगत न सीठी ॥२॥
देखनहार सु देखा। आनन्द कन्द सुछन्द होय करि,.
देवियदास कहत समय इक हो, भुगतनहार पटीठौ ।
होय चुक्यो सब साका । ४॥ परम गुधासु समै इक परसत,
जन्म - जरा दिन चीठौ।।।। वचन अतीति सुनीति अगोचर,
कविवर विद्वान होने के साथ-साथ पाम सन्तोषी मी
अन्य-परिचय
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२८०] अनेकान्त
[वर्ष ११ थे, भार वस्तु स्वरूपको सरबतासे समझाने में कुशल थे। किया था जैसा कि उस प्रन्यके निम्न प्रशस्ति पथ कुण्डअापकी कविता बड़ीही रसीली, भावपूर्ण संक्षिप्त और सियासे स्पष्ट है:वस्तु तवकी निदर्शक है। करिने अनेक प्रन्योंकी चनाकी
संवत् अष्टादश धरौ जा ऊपर इक ईस । है, जिनमें से इस समय मुझे कुल दो रचनाएँही प्राप्त हुई
सावनसुदि परमा सु-रवि वासर धरा उगीसा हैं। चतुर्वित जिन पूजा और परमानन्द वलास । इनके
वासर धरा जगीम ग्राम नाम सुदुगौडौ । अतिरिक्त इनकी एक रचना और बतलाई जाती है जिसका
जैनी जन बस वास औड सो पुरवोडौ । नाम 'प्रवचनसार भाषा है जिसमें आर्य कुन्द-कुन्दके
मावंतसिंघ सुराज आज परजा सब थंवतु। प्रवचनसारका पद्यानुवाद है। यह प्रन्य अभी तक
जहँ निरीकरि रची देवपूजा धरि संवतु ॥ अपनेको उपलब्ध नहीं हुभा। वह सम्भवतः उनके निवासस्थान दुगौडा ग्राम या बुन्देलखण्डके अन्य किती शास्त्र
उस समय भोरछा स्टेटमें गजा सावंतसिंहका राज्य भंगरम होगा, जिसका अन्वेषण करना आवश्यक है। इन
था, जो राजा पृथ्वीसिंहका पुत्र था। पृथ्वीसिंहने बोरछेमें
सन् १७३९से सन् १७१२ तक अर्थान् वि० सं० १७६३से कृतियोंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है:
1८०६तक वर्ष राज्य किया है । इनके समय राज्यका -तुर्विशतिजिन पूजा-इम जैनियोंकि वर्तमान बहुत कुछ हास हो गया था, क्योंकि उस समय गजपूत बीमतीर्थक की चोवीस पूजाएँ दी हुई हैं, को विविध राजा और मुगल बादशाह दोनोंही मरहटोंके शिकार छन्दों रची गई है। रचना सुन्दर और भाव पूर्ण है। हो रहे थे । इस कारण मड-पानीपुर बहासागर और इसकी लिखित प्रनियाँ अनेक ग्रन्धभण्डारों में उपलब्ध मामी भादि जिले उम समय राज्यसे निकल गए थे। होतीकविने इस कृतिको चिपुरी ललितपुर प्रादि जिससे भोग्छ। स्टेटकी आमदनी बहुत कम हो गई थी। विभिख मानक उनसद्धबह सज्जमों की अनुमतिसे बना• पृथ्वीसिंहके पुत्र मामिह मन् १७५२ वि० सं०1०हमें कर सम किया था जैसा कि उस ग्रन्धक निम्न पद्यसे राज्याधिकारी हुए थे। इन्होंने सन् १७५२मे सन् २०१५
वि.सं. १८०३मे १८२तक ३वर्ष राज्य किया है। छिपुरी छगन ललितपुर लल्ले,
सन् १७५६में अहमदशाहने भारतपर आक्रमण किया कारीविर्षे कमल मनभाएँ।
था, उस समय राज्यके अन्य भागोंके साथ उक्त रियासतका टिहरी मैं मरजाद तथा पुनि,
'पाठगढी' नामक स्थानमी राज्यसे निकल गया । सन गंगाराम वसत विलगाएँ।
१७६में जब पानीपतकी तीसरी लडाई हुई, उसमें मरहठे देवीदास गुघाल दुगौडे,
कमजोर हो गए। और मन में बक्सरकी सपाई हुई. उदै कवित्त कलाके श्राएँ।
जिसमें अंग्रेज भारतमें सबसे अधिक विष्ठ माने जाने
बगे। रीवामे वापिस लौटते समय देहबीके बादशाह शाह भाषा करी जिनेश्वर पुजा,
पाखमका सावंतसिहने बड़ा भारी सन्मान किया। जिसके छहों श्रीरकी आज्ञा पाएँ ।
फलस्वरूप उसे 'महेन्द्रकी पदवी और शाही मंडा मिला। कपिने इस पूजाका रचनाकाल वि. मं. १८२१
सन् १.(वि.सं. २२) में सावंतसिहका स्वर्गवास बावन सुदी पामा (पतिपदा) रविवार दिया है और उसे
हो गया। पोरका स्टेटके दुगौडा नामक ग्राममें जहाँबहुतसे जैनी
सरी रचना परमानन्द विलास है जिसे देवी विलास बन बसते थे, राजा मानसिंह राज्यमें बनाकर ममाप्त
भी कहते है। इस संग्रह प्रथमें समय-समयपर रची गई पच गम्खिलित माम-संचित और अधूरे जान पड़ते अनेक छोटी बनी रचनाएँ दी हुई है जिनमेंसे कई रचनाएँ है। नाम बगगमनमा बमबाखमादिहोना चाहिये। सस्कृत प्राकृत भाषाके प्रन्योंके पचानुवाद रूपमें प्रस्तुत
xोरखा राज्यको नीव मलकामसिंह गढ़कुडार है। और शेष कविके अनुभवसे रखी गई है। विकासको राजाके मेक पुत्र रुद्रप्रतापने सन् १५. कीवडाबी रमानों में एक रचनाको पोषकर शेषमें रचनाकाल नहीं बी, विलसन् १५५ कम्य किया था।
दिया गया, जिससे यह निर्णय करना कठिन है कि वे का.
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किरण]
बुन्देलखण्ड
कविवर देवीदास
गणधर रच्यो एसो गुणको निधान भारी,
श्रेणिक
[क] रची गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्रति भारी अशुद्धियों को लिये हुए है, और देहली के संडके कूका भएकारकी है। इस प्रतिकाखक उस प्रथको प्रतिनिधि प्रायः अपति चित जान पड़ता है, इसीसे उक्त ग्रन्थ में इतनी अधिक समझ समझ ताहि घर माँहि राख्यौ है। ज्ञात होती हैं । ग्रन्थ में कितनेक स्थान विक्रमी दर्शन मुहीन बाल बंदिए 'न तीन काल, छोड़े गए हैं, जो मेरे उक्त विचारोंको पुष्ट करते हैं। प्रन्थगत रचनाओंके नामानि इस प्रकार हैं.
कारण न होत जिनवानी मांहि नास्यी है। सम्मत सलिल पडो चिहिय परिए जस्स । कम्म बालुय पर बंधुरिचय सासिए तस्स ||७|| ममदर्शन नीर प्रमाण को
तिनके घट जासु प्रवाह वह्यौ । बाल अकर्म अनादि पगे,
,
पहली रचना 'परमानन्द स्तोत्र भाषा है, को संस्कृत 'परमानन्द स्तोत्र' का पद्यानुवाद है। दूसरी रचना 'जीव की दादी है। सीकरी माnt' है, जिसमें जिन भगवानोंके अन्तकको सूचित किया गया है। चौथी रचना 'धर्म पच्चीसी' है, पाँचवी रचना 'पंच पद पचीसी है। रचना 'दशधासाम्यवोके स्वरूप बोधक पद्योंको लिये हुए 'सम्ययस्व बोधक' है । सातव रचना 'पुकार पच्चीसी' है। जिसके दो पद्म पहले दिये जा चुके है जिनमें सिनेमके गुखका व्याक्यान करते हुए जीवके चतुर्गति-दुःखो और भ्रष्टकर्मों के बन्धनसे छुटकारा पाने की प्रार्थना अथवा पुकार की गई है चारों पना 'बीपी' है, जिसमें जीवके शुभ-अशुभ और शुद्ध रूप त्रिविध परिणामोंका कथन ३१ सा सबैयोंमें दिया हुआ है, जिसके आदि अन्त पथ नीचे दिये जाते है:
तमु फूटत नेकु न वारु लगे ॥ जह मूलम्म विराट्ठे दुमरस परिवार परिवडी । तह जिमभट्टा, मूल विट्टा ए सिज्यंति || जैसे तरुवर विनस्यौ मूल,
1
बड़े न शाखा परिकर फूल ।
मन मनन करके नमी, शुद्ध आतमाराम । वरनीन दरबके, त्रिविधरूप परिणाम ॥ वीतराग पच्चीसिका पत्र मुने रस पोष परमारथ परचै सुनर, पायें अविचल मोष ||२६||
3
नौवीं रचना 'दर्शन पच्चीसी' है, जिसमें श्राचार्य कुन्दकुन्दके 'दस पाहुड' नामक प्राकृत ग्रन्थका पथानुवाद दिया हुआ है । रचना सरस और भावपूर्ण है । अनुबाद
३१.२३ सा छप्पय गीतिका, कोरक, चौपाई, टोहा, साकिनी, धरिवल, कुडलिया, मरहठा, चर्चरी, बेसरी, पदडी, नाराच और कवित्तादि विविध छन्दोंमें किया गया है। पाठकोंकी कारीजिये उसके पच सूख गाथाओ के साथ नीचे दिए जाते है:
पद्य
मूलो धम्मो, उपट्टो जिबरेहिं सिस्साएं । तं सो सकरये दंसण दीयो य दिव्यो ॥२॥ धरमकी मूल जामैं भूल कहूँ कलू नाहि,
दर्शन सुनाम ताहि भगवान भाष्यौ है।
२८१]
जाके कार्य भए सोई सुनि मुनि पाक्यो है ॥ आदि जीव संत सब रुचि मानि
जैसे दिन दर्शन वर कोई, धर्म
मूल
विन मुकति न होई ॥
में निम्न दोहा देकर पूर्ण
कविने सबके किया हैं : --
।
कुन्दकुन्द मुनिराज कृत दर्शन पाहुद मूल कोनी परम्परा, भाषा मति सम तूल ॥
दशवीं रचना 'बुद्धियायनी' है, जिसमें २४ पद्य विविध छन्दों में दिये हुए हैं। साथही इस अम्पके अन्त में उक्त कृतिके रचे जाने और उसके समयादिकाभी निर्देश किया गया है। जिससे स्पष्ट है कि उक्त बुद्धिबावनी सं० १८१२ मे, दुगौड़ा ग्राम चैतदि परमागुरुवार के दिन समाप्त हुई है। उस समय भी वहाँ सावन्तसिंहका राज्य था। उक्त प्राममें कविको गंगाराम, गुपालचन्द और कुमापति आदि सम्म जोगांबाद दुगौदा ग्रामके निवासी थे कविको उनसे पोषित शिक्षा मि रहती थी । यथा
.
संवतु साल अठारह से पुनि द्वादश और धरै अधिकार चैतमुदि परमा गुरुवार कवित्त जत्रे इकठे करि धार ।। गंगह रूप गुपाल कहे कमलापति मीख सिखावनहारे
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२८२]
अनेकान्त
[वर्ष ११
5
|
क
कैलगमा पुनि प्राम दुगौडहु के सब ही वस वासन हारे पिका मावि दिये गये है। जिनमें से पाओ परवतध और __ ग्यारहवीं रमा तीन मूढता भारती', जिसमें देव. कपाटबंध नमूने के तौर पर दिये जाते हैं:महता, गुरुमूढता और शास्त्रमूलवाके भाव, द्रव्य, परोष, प्रत्या, बोक, क्षेत्र और काखके भेदसे प्रत्येक सात सात मेद मिला कर मूहलाके २१ भेदोका स्वरूप दिया हुआ है। यथा:
महावीर गंभीर गुण, वंदी विविध प्रकार । देव-शास्त्र-गुरु मूढ़कौ, करौं प्रगट निरधार ।। पर सा त मा रा भाव द्रव्य जगमांहि प्रगट, पुनि परोख परितक्ष। लोक क्षेत्र अरु काल शठ,लख्यौ सप्त विधि दक्ष ।
बारहवीं रचना 'शीलांग चतुर्दशी' है, जिसके प्रारम्ममें कविवर पानसरायकी देवशास्त्रगुरु भाषा पूजाके पोंके अमर शीख अठारह हजार भेदोंका कथन दिया हुआ है उसके अन्तिम दोहे निम्न प्रकार है:
दो द भी कहे भाष शीलाँगके, सहस अठारह भेद । जे पालै तिनके हृदय, शिव स्वर्गादि उमेद ।।१।। शील सहित सरवंग सुख,शीन रहित दुख भौन । देवीदास सुशीलकी, क्यों न करौ चिन्तौन ॥१४॥
जी क मो ल | वी राप। तेही रचना 'सप्तव्यसन कवित्त' है जिसमें जमा उक रचनाके अंतर्गत 'जोग पच्चीसी' है जिसमें शुभ. मादि सप्तम्यसनोंका स्वरूप निर्देश किया गया है। अशुभ और शुद्ध उपयोगका वर्णन दिया हुआ है जो चौदहवीं रचना 'विवेक बत्तीसी है जिसमें चित्रबद्ध ॥ ौपदेशिक होते हुए भी सद्पदेशोंमें रोचक है। उसमेंमे दोहों द्वारा बारम विवेकको प्राप्त करनेका उपदेश किया कुछ बन्द पाठकोंकी जानकारी के लिये नीचे दिये जाते हैंगया है। जैसा कि उसके अन्तिम दोहोंसे प्रकट है:
"मन वष तन दर्वसौं, कियो बहुत व्यापार । जह निहचल परिनति जगी, भगी सकल विपरीति। पराधीनता करि परचौ, टोटो विविध प्रकार ॥ पगी आपसौं श्राप जब, निरभय निर्मल रीति ॥३शा अरे हंसराज! तोहि ऐसी कहा सूमि परी, स्व-पर-हेत उचम सु-यहु निज हग देखि विलोय। पूँजी लै पराई वंजु कीनौ महा खोटो है। भव्य पुरुष अवधारियौ, यामै कष्ट न कोय ॥३२॥ खोटो वंज कियौ तोहि कैसे के प्रसिद्ध होहि चित्र बंध सब दोहरा, वर विवेककी बात । भाषा परगट समझियो, सुबुद्धिवंत जे तात ॥३३॥ वेहुरेसौ बंध्यो पराधीन हो जगत्र माहि,
देह-कोठरीमें तू भनादिकौ अगोटो है। पन्द्रही रचना 'स्व-बोगराबरी है जिसमें कमोदयवश मिथ्यात्वक सम्बन्धसे होने वाली जीवकी भूखको प्रगट
" मेरी कही मानु खोजु आपनौ प्रतापु आपु, किया गया है। सोखहवीं रचना ' 'माखोचमांतरावजी'
तेरी एक समयकी कमाई कौन टोटो है॥१॥ है, जिसमें तीर्थंकरोंके पूर्वमवाम्वरोका उपदेश किया
दया दान पूजा पुंजी, विषय कषाय निदान ।
ये दोऊ शिवपंयमें, वरनों एक समान ॥
दया दान पूजा शील पूजीसौं अनान पनै, भावी रचना स्वयं कवित्तकारी रचना
जे तो इस तू अनंतकालमें कमायगौ। 'भोगपच्चीसी' है जिसमें चित्रावर अनेक पद और पन्त- तेरी विवेककी कमाई या न रहे हाथ,
मापसौं आप जब, EिT देखि विलोय। खोटो बंजु कियौ तो कवाय व्याज चोटी है।
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किरण ७-८ ]
भेदज्ञान विना एक समैमें गमायगौ ॥ लम्व अखंडित स्वरूप शुद्ध चिदानन्द,
जमांहि एक समय जो रमायगौ । मेरी कही मानु यामैं और की न और कर. एक समयकी कमाई तू अनंतकाल खायगौ ||
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दया दान पूजा सुफल, पुन्य पाप फल भांग । भेद ज्ञान परगट विना, कर्मबन्धकौ जोग ॥ दया दान पूजा सुपुन्य करिन भवि जानो । पुण्यकर्म संजोग होत सासौ पहिचानो ॥ शुभ साता तह विषय भोग परणत जगमाहीं । विषय भोग तह पाप बंध, दुविधा कछु नाहीं । फल पाप करम दुरगति गमन दुःख दायक अमित || विधि विलोकि निज दृष्टिसौ पाप पुन्य इक खेत नित कोऊ क वितर्कसी, भला पुन्यतै पाप । जासु उ दुःखसों भजे, पंच परम पद जाप ॥ पाप कर्म के उदय जीव बहु विधि दुःख पावत । दुख मेटनके काज पंच परमेश्वर ध्यावत || पंच परम गुरु जाप मांहि शुभ कर्म विराजत ।
बुन्देलखण्ड के कविवर देवीदास
शुभ कर्मनिको उदय होत दुर्गति दुख भाजन || दुःख नशत मुखवंत जिय कुगति गमनुतिनि दलमलौ । कहि पुन्यकर्म जगत महि, पापकर्म इहि विधि भलौ ।।
को जन ऐसी कहे, भलौ पापतैं पुन्य । उपजै विषय कषाय करि विधन धर्म करि सुन्य पुन्य केजोगसी भांग मिलै पुनि भोग पापको पुन्य भियारे । पापकी नीतिसौं रीत लटी गति नीच पर मरिकैं सुजियारे ॥ त्यागवो जोग उभय करणी निज पंथ तजै इनिको रसिया । कर्म तो एक स्वरूप सबै चिकै शुभ लक्खनु कौने जियारे ।
पाप पुन्य परिनमनमें, नहीं भला पनु कोट । शुध उपयोग दशा जगै, सहज भलाई होइ ॥
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[ २८३
सात प्रकृतिको बलु घटै, उपजै सम्यक भाव । यही सात मरदे बिना, निरफल कोटि उपाव ।। सम्यकदृष्टि जगे बिनु जीव नहीं, अपनो पर पौरुष बुभै । सम्यकदृष्टि जगे विनु जीव,
निचै विवहार नसू ॥ सम्यकष्टि जगे विन जीव,
सही निजुकै सिव पंथ न गुभै । सो समदृष्टि जगै स्वयमेव, faa गुरुको उपदेश सम्मै ॥
उको
रचना 'द्वादशानुप्रेक्षा' है, जिसमें अनित्यादि द्वादश भावनाओंका स्वरूप निर्देश प्राकृत गाथाओं परसे श्रदितकर ४६ दोहोंमें दिया गया है। दोहा सुन्दर और भावपूर्ण है। में कवि अपनी लघुता व्यक्त करते हुए कहते हैं :
भाषा कथि मतिमंद अति होत महा असमर्थ । बुद्धिवंत धरि लीजियौ, जहं अनर्थ करि अर्थ ||४६ || गुरुमुख ग्रन्थ सुन्यौ नहीं. मुन्यौ जथावत जास । निरविकलप समझावनौ, निजपद देवियदास ॥४६॥
वसव रचना 'उपदेश पच्चीसी' है । २१वीं रचना ''जिनस्तुति' है । बाईसव रचना 'औपदेशिक' और आध्या मिक ४६ पदोंका संग्रह है। जिनमें कितनेही पद पदेही रोचक और धान बोधक है। इन पदोंके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है ।
रचना 'हितोपदेश जरूरी' है, जिसमें लमारी जीवको सगुरुके हित उपदेशकी बातें सुझाई गई है।
इस तरह कवि देवीदासकी उक्त १४ रचनाएँ भावपूर्ण है। इस संक्षिप्त परिचयपरसे पाठक उक्त कविके सम्बन्ध भच्छी जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और बुन्देव
एडके अन्य कवियोंके सम्बन्धमें बांके लिये प्रोत्साहित होंगे ।
ता० १२-१०-५२ (पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
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'विश्व एकता और शक्ति'
देखक-अनन्त प्रसाद जैन, B.Sc. (Eng) 'लोकपाल' इस पनि विश्व में जो भी वस्तुएं है वे सभी कंपन- भाकाशमें हम कहांसे कहां चखते जा रहे है कोई नहीं प्रकम्पनसे पुकारे सूर्य, चन्च, वारे, प्रह, उपग्रह, पृथ्वी और जानता पर यह निश्चित ध्रुव है कि ये गतियां प्राध, इनमेंकी हर एकबस्तु भी प्रबग-बग कंपन प्रकम्पनसे निरन्तर और शाश्वत रूपसं होतीही रहती है। पृथ्वीके युक्त हैं। बड़ी-बड़ी वस्तुएं पर्वत वगैरह छोटी-छोटी जीव होनसे इसीके साथ हर तरह के "नाच नाच" हुए वस्तुएं घर मकान इत्यादि या बालूके कण अथवा परम इम, मानव ) भी इन गतियोंसे सतत युक्त हैं-भलेही सूक्ष्म "पुद्गल" परमाणुसकान कम्पन प्रकम्पनोंसे वंचित हम इसे जानें, न मानें, सममें या सममें, पर ये कम्पन, नहीं है। ये कम्पन प्रकम्पन शास्वत है-अनादि कालसे प्रकम्पन और दूसरी गतियां होतीही रहती है। हमारे हैं और अनन्त काल तक रहेंगे। ये बन्द नहीं हो सकते। शरीरका हर एक परमाणुभी अलग-अलग इन गतियों और इनमें कमी वेशी किन्हीं कारखोंसे भलेही होती रहे, पर ये कम्पन प्रकम्पनादिसे युक्त हैं और ये कभीभी एक पणके हक नहीं सकते । यह सोचना भी कि यदि ये पण भरको लियेभी, बंद नहीं होते | यही बात हर वस्तु, हर जीवभी बन्द हो जाय तो क्या होगा-मूर्खताकी बात होगी- जन्तु, हर पेड़ पौधे, एवं हर अणु परमाणु के साथ लागू क्योंकि यह होगाही असम्भव है। यही विश्वका नियम है है। हमारा जन्म विकास, परिवर्तन, मृत्यु इत्यादिइन्हीं इसमें व्यविक्रम पा व्यवधान नहीं हो सकता। इसी द्वारा उत्पन्न नियन्त्रित एवं सतत परिचालित होते कम्पन प्रकम्पनके कारणही विश्व में सदा सर्वदा सूजन, रहते हैं। उत्पादन और विनाशका क्रम चलता ही रहता है। पुरानी- ये क्यों होती है ? संक्षेपमें हम इतमा जान कि का परिवर्तन और गएका जन्म, गएका पुराना होना और कोईभी परमाणु, वस्तु, व्यक्ति, जीव या ग्रह उपग्रह या पुराना बदलकर कुछ और नया धनमानका तार तम्य कुछभी जो इस विश्वन (या संसारमें ) अपनी अवस्थिति कभी नहीं टूटता । इसीको समयका प्रवाह या समय चक्र- रखता है अकेला नहीं है। हर एक इस महान विश्वका केंद्रभी कहते हैं। ग्यकि, समाज, देश और देशोंके गुहोंकी बिन्दु कहा जा सकता है और हर तरफ अनन्त तक हर परिस्थितयों में भी हर समय परिवर्तन होताही रहता है। एक तरह-तरह की इन चीजोंमे घिरा है जो हर ओरसे समय एकसा कभी नहीं रहता । समयगति शीख है इसकी अपना कम-श प्रभाव बाबतीही रहती है। श्राकर्षण गति कभी रुकती नहीं । समयकी गतिके सायही सब कुछ प्रत्याकर्षणक बारेमें तो हम बहुत कुछ सुन या पढ़ चुके हैं पखवाया है। एक-एक पण था एक एक पके और जानते है पर इनके अलावे चोरभी पाश्चर्य जनक शश, सहस्रोश पालशमें भी यह तब्दीखी, परिवर्तन प्राकृतिक क्रियाएँ (Natural Phenomena) ऐसी अथवा क्रमिक विकास या हास इत्यादि स्थगित नहीं होते। है जिनका असर हमेशा एक दूसरेपर क्रियाशीलता या स्थिरता कहीं नहीं है. गतिशीलताही जीवन है। स्थिरता- प्रभावकारी रूपसे पढ़ताही रहता है। इनमें समय-समय ही विनाश, बिच-भिनता पा भग्नता और सांसारिक पर कमी-बेशी भलेही हो पर बन्न नहीं हो सकते । र भाषामें मृत्यु है। वैज्ञानिकोंने यह सिद्ध कर दिया है कि ग्रह या उपग्रह चारों तरफके बाकी दूसरे ग्रहों उपग्रहोंका सभी ग्रह उपग्रह गतिशील हैं। ग्रह, उपग्रह सभी अपनो इकट्ठा प्रभाव इस तरहसे पड़ता है कि फलस्वरूप ये कल्पित मध्य पूरीपर घूमते हैं। साथही उपग्रह किसी ग्रह- गतियां अपने पापही होतीराती हैं। जब तक ग्रहों उप. को केन्द्रित करके उसको परिक्रमा करते हैं। जबकि ग्रहमी ग्रहोंकी अवस्थिति इस विश्वमें है-और सर्वदा रहेगी ही सूर्यको परिक्रमा करते ही रहते हैं इनकी विभिन्न गतियों- तब तक ये एक दूसरे पर अपना अधुरण प्रभाव डालतेही के काल-परिमाणभी विभिन्न है । सूर्यमें भी पवश्यही ये रहेंगे और इस कारण इनकी विभिन्न गतियां भी कमी बंद गतियां होंगी या हेही। अखिल विश्व, ब्रह्मायड या नहीं हो सकी। ज्योतिष या माधुनिक ऐन्ट्रो मौमी
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किरण ७८] विश्व एकता और शक्ति
[ २८५ (Astronomy) को गणनाएं इस बातका एक बहुत रहता है पर इन क्रियात्मक गतियों वा हिलने होखनेका भी पदा सबूत देवी हैं। ग्रहों उपग्रहोंका स्थान परिवर्तन बाध्यापक प्रभाव इस तरह पुद्गल वर्गणाओंके निस्सरण, इतमा व्यवस्थित है कि सैकड़ों वर्षों बाद ठीक विस अनुसरण और प्रवेशादिसे हर व्यक्ति या साकार समय कौन-कौन ग्रह कहां-कहां किस स्थितिमे तथा एक दूसरे व्यक्ति या वस्तु पर परवाही है। सारा शरीरमी को दूसरेके अपर क्या प्रभाव डालते रहेंगे ज्योतिषी ( Astr- पुद्गलों ( Matter particles) का ही बना हुधा है onomens) बड़ी खूबीसे हिसाब करके बतला देते हैं। इससे यही बात उस समयभी होती है जब हमारा मन सूर्य हमारे सूर्य-माखका सबसे बड़ा और सबसे एकान होकर विभिन्न बातोंके सोचने, विचारने मादिका अधिक प्रभावशाली ग्रह है। सूर्य एक जलता हुआ बड़ा विषय बदलता ही रहता है। भारी गोला है जिससे निकलकर किरणोंके रूपमें करोड़ों मेरे कथनका सारांश संक्षेपमें यह है कि संसारमा जब पुद्गल ( Matter) विभिन्न रूपोंमें हमारी पृथ्वीपर विश्व में कोई वस्तु या जीवनरेखा नहीं है और हर एक एवं सभी ग्रहों उपग्रहों में पहुँचतेही रहते हैं। ये ही गर्मी पर सारे विश्वकी वस्तुओं, जीवों और उनकी गतियों एवं भी देते हैं जो सारं शक्तियों की जननी है। सूर्यसे माने हनन-चक्षनका प्रभाव इसतरह पुद्गल वर्गवानों या वाले इन पुद्गलोको हम स्वतः महसूस करते है। पर धारामों और किरणों द्वारा पढ़ता ही रहता है। हम इसे सूर्यसे ही नहीं हर प्रहसे इसी तरह की पुद्गज वगंणाएं नहीं जानत इसी कारण संसारके वैज्ञानिक, विद्वान्, राज(Molecules of Matter) हर दूसरे ग्रह तक कम या नीतिज्ञ और दसरे लोग यह समझते रहते हैं कि एक वेश रफ्तार या तेजीसं जाती है और उसी अनुपातमें देश दूसरे देश भिम यामबग है अमेरिका समझता अपमा प्रभावभी एक दूसरेपर पैदा करती हैं। यह हमारी है कि उसके पास बेइन्तहा धन और सामान इसमे पृष्धी (Glole orearth) भी यही बात करती रहती वह बाकी संसारके दुखी रहते हुए भी अकेला सुखी है। है सूर्य इत्यादि सभी दूसरे ग्रहोंका भी असर इस पर गलैंड चाहता है कि बाकी सारा संसार दुःकी रहेका पड़ता है और दूसरोंपर यहभी अपना प्रभाव डालती है। मुखी उसके पास अधिकाधिक धन कहीं-कहींसे किसी
पृथ्वीही नहीं इस पर रहने वाला हर प्राणी हर समय न किसी उपायसे भाग रहना चाहिए ताकि सम्पद बना ये पुद्गल वर्गणा (Moleculcs of Matter) रहे। हर व्यक्ति हर देशका यही स्वाहिश रखता है और अपने हर तरफ अपने इस पुद्गल कृत ( Matle of वैसा ही वर्तता भी है कि यह दिन पर दिन अधिकाधिक Matter) शरीर- विकीर्य करताही रहता है। दूसरे धन संपति बटोरता और बाता जाय कि दूसरोंसे शरीरों और वस्तुओंसे निकली वर्गणाए भी हर प्राणीके अधिक प्रभावशाली और खुश होता रहे। इसीके लिए शरीरपर असर करतीही रहती है। सारा वायु मंडल एक देश (या एक व्यक्ति) तरह-तरहके उपायोंसे एकपुद्गल परमाणुओं एवं वर्गणामोंसे भरा हुमा है। हर दूमरेको लूटता-खसोटता है और युद्ध हिंसा इत्यादि करते बरहकी किरण और धाराएं निकलती एवं प्रवाहित होती ही रहते हैं। बी प्रभावशाली देश (या व्यक्ति) शक्ति ही रहती हैं। ये हर व्यक्तिपर अपना असर रातो रक्षती सम्पन्न है वे दूसरे अशक्त देशों (या पक्षियों) को वषा हैं। हमारे भोजन पागका असर बो हमारे उपर पड़वाही शक्ति मागे पड़ने देना या उठने देना नहीं चाहते इसहै। हम जो कुछ करते, कहते और सोचते हैं उसकाभी बरसे कि कहीं उनकी प्रभुता कमन पर बाय बाट असर हमपर और हमारे चहुंओर पड़ता है। हमारे वस्तु न माय । इत्यादि पर ये लोग सभी प्रज्ञान और अंधकार शरीरके प्राथमिक या स्वाभाविक कम्पन प्रकम्पनके अलावे में हैं। कारण यह है कि संसारके सभी देशों में प्राय: जबभी हम शरीरको हिलाते-जाते हैं नई पुद्गल वर्ग- जो शिक्षा दी जाती हैं उनका भाचारही गलत और श्रमपाए धारा प्रवाह रूपसे शरीरसे निकलती है और श्रावृत- पूर्ण सिद्धान्तों पर कायम है। सारा संसार या सारा वातावरण में ग्वेलन पैदा करती हैं। जिससे दूसरोंपर- मानव समाज एक पृथ्वी पर रहने वाला एक कुटुम्बके भी असर होता है। स्वाभाविक गतियों एवं कम्पन प्रकंपन- व्यक्तियों की तरह ही एक-दूसरेसे सम्बन्धित और अपना का तो प्रभाव जो होता रहता बहतो सर्वदा होताही पारस्परिक प्रभाव वा अमर बने बाजारपेसाग
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२८६]
अनेकान्त
[वर्ष ११ सममकर हम बबग-बाग समाज, देश या माति से छुड़ा देना या जिन्न-मित्र कर देना ही मानवताका इत्यारिकरूपमें ही सारी व्यवस्था एवं सामाजिक निर्माण- उच्च मादर्श हो गया है। पहले यदि एक पुदमें का बादर्श मानते हैं। यह हमारी भ्रम या गलती सबीस हजार भादमी मारे जाते थे तो वही अब एक-एक हमारे संसारकी मो अति प्राचीन काल भ्रमात्मक- एटमबमसे लाखों व्यक्ति (जवान, खे बच्चे, मान्यवानोंके व्यापक विस्तारके फल-स्वरूप चखतीही मई औरत समी)ो युद्ध में शामिल है भी वो नहीं माई। विज्ञानका विकास को हुया पर 'सच्चे ज्ञान' है वे भी सभी मारे जातेइसीसी "डेमोक्र सी" कामावलीहा। इसी कारण माज विज्ञान संरक्षक (Democraev) कहते हैं। हंगर अमेरिकामें धनयोंहोनेके बजाय विवंसक हो गया है और सममा का राज्य है कि रूसचीवमें साराका सारा देश एक माने बगा। अमेरिका और रूस प्राजे यदि बडे कटम्बकी बहो कुछ होता बाँटकर खाने और सस विसे यह समम किर मानवका सुख- सदख में समान भागबेनेकी व्यवस्था है। पूंजीवादी दुख समाम भार एक जगहकी हत्याप्रति उत्पन्न देशों में सब दसका परिमावधनी और गरीब होनेकी माहों और एक हल-चक्षसे व्यथित या विसुन्ध कमीवेशी पर गिर है। जो अधिकवे और अधिक वातावरण दूसरेके प्राकाश मण्डल या वातावरण को भी सुखी होना चाहते है भले ही सनके सुख या संपत्तिकी बोभित और व्यथित करता है तो सारा मादा और वृद्धि के लिए गरीवको और अधिक दुखी या गरीब होना संसारके विनाशका भय दूर हो जाय | सारा अपराध पर इसकी उन्हें पर्वा नहीं। गरीब अपने 'दुर्भाग्य' का प्रथमतः धर्माचताका है और बादमें पहंकारसे उत्पन्न भोक्ता और भनी अपने सौभाग्यका मालिक है। दोनों में शिरकारों एवं धर्म-सिद्धान्तों में बड़ा गोलमाल हर संघर्ष' बराबर पलता ही रहता है। किमीको चैन नहीं रजगह फैला रखावेज्ञानिक जोगभी अभी अखिन इसेही यदिनांग सुख मान बैठे हैं तो यहगतो सुख है। रिव रूप में परमाधिक प्रभावके सिद्धान्तको नहीं जान मान्ति ही। यह तो शाश्वत अशान्तिका करने वाला पाए। विडम्बना तो यह है कि उनका ध्यान ही अभी और वर्तमान एबीवादी व्यवस्थामें वहाँ धनही सुख, कार नहीं गया है। जरूरत है कि विश्वके हितैषी सन्तोष, मान, प्रतिष्ठा प्रभूता पौर शक्तिको देने और और शान्तिकबोगहन ज्ञानिकोंका ध्यान इधर कान पाना है। फिर तो धनकी बांधा या तृष्णाका पाकर्षित करें। ये विज्ञानके पण्डित खोज 'द एवं मानव होना जरूरी ही है। और उसके बाद तो फलमगनके अपराब अपने विवेचनात्मक विचार व्यक करेंगे। स्वरूप संवर्ष', हिंसा, असत्याचरण, मक्कारी,लव प्रपंच, तो संसारकी सरकारोंको बसाने वालोंका ध्यान उधर शोषण इत्यादि अपने आप मा जाते हैं। यों भी यदि जायगा। तबध्यवस्था और शिक्षा पद्धति में सुधार लाकर ठीक तौरसे देखा जाय तो धनकी अधिकता सच्चे सुखको राष्ट्रीय भावनाके साथ-साथ मानव मात्रको अपना कुटुम्बी नहीं उपजाती बह तो एक भुलावा या भ्रम है जो भांतरिक निधी, हरपल्के पुण्य पापों और हरएकके दुख सुखका अशान्तिका सृजन करती और बढ़ाती ही है। साथी एवं हिस्सेदार समझने की भावना उत्पनकी जा वह तो अवनतिकी मोर ले जाने वाला ही है । बोग सकेगी बनी संसारसे युद्ध और हिंसाएं बम्ब होगी। अपने प्रज्ञाममें इसे न समझते हुए दुबसे बिललाते हुए अमीनोमो धनी है वे अपने धन और प्रभुताके मदमें भी विवश बसते हो जाते है और कि उन्हें दूसरा कोई इसने मापाकि गरीबको मनुष्य ही नहीं गिनते। इससे अच्छा मार्ग या बात मालूम नहीं इससे इसेही पकरे इस युगको सम्बयाका युग करते हैं इसलिए कि खुला हुए है। हाँ महार या निम्न स्वार्थपरताले उत्पा अत्याचार व्यक्ति द्वारा वकिपर किया जाना बबिंत मोहान्धकारके कारण दूसरेको समझने के बजाय हमेशा समका जाता है. पहले पुनरों में सिपाहियोंके अंग-भंग गलत मानकर दुश्मनी या विरोध ही करते रहते हैंकरने की ब जाय 'जंगली' कहा जाता है। इससे संसारमें दुख और अवनति पड़ती जाती है। भवम्बधिको प्रच्चा तरीकोंसे अपने वामें करना और विज्ञान लि. बम विज्ञान कहते है व्यापक बस्तु युद्ध में बम गिराकराणामारों धामोंको बीच भार- शाम मोहीकोपर "मुबानपा सम्बयान (Right.
हा जाता है। गत मानकर दुरमनी या विरोध
अब पतिको
म
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किरण ७८] विश्व एकता और शक्ति
[२८७ Knowledge)ो हरगिज नहीं है। इसीके प्रभावमें अमेरिका या दूसरे जीवादी गुह वाले देश रूस, चीन हम संसारव्यापीरूपमें "बहके" ही चले जारहे है। और साथ ही साथ एशियाको अपने सुख समृद्धि के लिए धर्माधिपतियों या धर्मगुरुपों और धर्मपितामोंने अपनी बर्बाद करना या अपना गुलाम बनाना चाहते हैं तो यह "रोजी" बनाए रखने के लिए मियाभाषमानोंको विभिन्न उनका श्रम और भारी ग़जती है सारा विश्व एक ममाओंसे दूर नहीं होने दिया, फिर संघर्ष होता ही रहता दुख सुख एक साथ होता है। यदि एशिया बाले दुखी है। धर्मोंका व्यापक सुधार पुननिर्माण (Reorie- तो अमेरिका वाले भी उनकी माहोंसे निकले पुद्गहntation) और एकीकरण संसारमें शान्ति स्थापित वर्गणामोंकी बाराप्रवाहके बागवायमें परम प्रशान्त करनेके लिए अत्यन्त जरुरी है।
और विषुब्ध है। किसी भी अमेरिकनका दिल भीतरसे म जाने किस प्राचीन कालमे 'ईश्वरवाद' और देखिए वह कितना मशान्त और उहिग्न हैयह मारमा'अनीश्वरवाद'का मग चला पाता है। बाज वही का हनन करने वाला और भावी संतान (Generation) भगवा जीवाद और साम्बवावमें परिणत हो गया है। को हुवा देने वाला है और भी क्या निश्चय है कि एटमइस झगडेको किसी 'मध्यमार्ग द्वारा' समझौता करके बोका प्रयोग सफल ही होगा। जर्मनी भी तो सारे खतम करना होगा यदि स्थायी शान्ति और सच्चा सुख स्सको जीत कर सारे युरोप और फिर सारे संसार पर हीपष्ट हो तो विभिन्न देशोंके लोग जिसे प्रगति और हावी होना चाहता था। पर क्या हुमा नेपोलियनने सुख समझे बठे हैं वह सचमुच मृगतृष्या या मृगमरीचिका भी फ्रान्सकी प्रधानता सबके ऊपर स्थापित करवीणही ही है-उससे स्वयं उनका पतन और विनाश ही अवश्य थी। क्या हमा! प्रकृतिने ऐन मौके पर उनकी सारी म्भावी है। अपना पतन या बिनायसे बचने और सारे पाशाओं और तैयारियों को मिट्टी में मिला दिया। पीसंसारकी चाके लिए भी रूस और अमेरिकाको एक लिपनको भी हार और अन्त होने में प्रकृतिका बड़ा दूसरेसे मित्रता करनी होगी।
गहरा हाथ रहा जिसे इतिहास पढ़ने वाले अच्छी तरह भाज अमेरिकाके एटमयमोंसे सारा संसार र जानते है। रूसमें हिटलर और जर्मनीके अत्याचारोंको सा कि कहीं अमेरिकाके लोभी पंजीपति मालिकोंने भी अम्त करने के लिए उत्तरी बर्फीली हवा ऐसी बसी साम्यवादको मिटानेकी जिद्दमें एटमयमोंका व्यापक जैसी पहले कभी नहीं चलो थी-तीन चौथाई जर्मन फौज प्रयोग करने के लिए यदि युद्ध ब दिया तो क्या हालत उस बर्फमें जम गई और सारी कोबी वाला और युद्धहोगी ? सब कोई मुंह बाए, आँख फैलाए, भयास की व्यवस्था टूट कर छिन-भिन्न हो गई । जर्मनीके सपनोंएक दूसरेकी भोर सूना सूमा-सा देखते हुए किंकर्तव्य- कापत हो गया। क्या ऐसी हो कोई बात अमेरिका विमूह हो रहे है। एशियाई देश तो हमने जोरों में महम एटमयमके प्रयोग करनेके पहले ही नहीं हो सकती। गए हैं किजिसकी इन्तहा नहीं। क्या अमेरिकाका इससे धर्मादा खराब है। एकदा पुष्छन वारा-भूमकेतु मला हो सकता है। यह विचार करनेकी बात है। (A big Comet) यदि किसी पध्मबमके भागारएशियाके गरीब देयों और गरीबोगोंके लिए किसी के स्थानसे करावे तो समम बीजिये कि अमेरिकाका 'वाद' में कोई दिखचस्पी नहीं। उन्हें तो किसी तरह भर वो बारमा हो ही जायगा वीके बाकी दो बिहाई पेट खानेको भिखना चाहिए। हो सके तो कुछ पहननेको मानव भी उनके और विस्फोटसे पैदा होने वाली और एक पर भी धूप पाबीसे रसके लिए परिहो हलचलोंसे मृत्युको प्राप्त होंगे । संसारमें कुवमी बाप तो काफी है। यह चाहे किसी 'बार' से मिले । रूस असम्भव नहीं। और चीनने योदे समबमें ही गरीबोंको बाइस बंधाने दिमान कि धूमकेनु नही ही बावे और अमेरिका बाली व्यवस्था इस तरहकी बनाई जिससे कोई भूगम रूस, चीम या पशि- किसी बड़े भागको एटमबमोंरहे। जो सारे देश में है या होता है उसे सबकोई की मारसे पर्वाद दे तो क्या अमेरिकामें ही शान्ति 'बाँटकर' भोगें और सबसबके दुख सुख साथी बनी रहेगी ? पवावे इस तरह बिनाश पथकी भोर मनहो। इसने एशियाके गरीबोंका ध्यानींचा अववि सर नहीं होंगे। भविष्य कोई नहीं जानता । बागेवा
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होगा कहना कठिन है-पर ग्राम जर्मनीको हरा कर भी सारा युरोप त्रसित, दुखित बौर अभावोंसे पीड़ित है । अभी वो अमेरिका उनकी मदद कर रहा है पर अब स्वयं अमेरिका युद्ध में पूर्व रूपसे शामिल हो जायगा तो वहाँ की सम्पति भी तो विध्वंस होगी ही फिर उसके विरोधी मी खुप बैठे नहीं रहेंगे। उनके पास भी तो हो सकता हैम हो दूसरे अस्त्र शस्त्र भी होंगे ही यदि वह भी मान aिया जाय कि अमेरिका के अस्त्र शस्त्र अधिक संहारकारी हैं और उनके कम होगे, तब भी अमेरिकाकी बड़ाईकी जीत हार युरोप वालों पर ही निर्भर करती है यह तो निश्चित है कि यदि आगे कहीं युद्ध हुआ तो वह बुद्ध कई गुना भयानक एवं विध्वम्सकारी होगा | फिर उस महा विनाशकारी युद्ध में यही क्या ठीक है कि युरोप वाले बराबर अमेरिकाका साथ ही देते रहेंगे विरोधी भी कम शक्ति वाला नहीं है और अब 'दूरी' की माप बहुत कम हो गई है एवं समुद्रका व्यवधान भी अब पहले के शतांश भी बाधक नहीं रहा। रूस, चीन बहुत बड़े देश हैं उन्हें जीतना और फिर जीत कर इस आधुनिक सजग-संज्ञान काल में वश में रखना आसान नहीं है। फिर उन्ह ने भी अपनी तैयारियों कर रखी हैं तब अमेरिका रूसके टक्कर मे बाकी पश्चिमी युरोप भी तो बर्बाद हो जायगा । और यदि फ्रान्स, इलैंड खतम हो जाय तो अकेला अमेरिका क्या कर सकता है ? भले ही अमेरिका बड़े महासागरोंसे अलग होने से बच भी जाय पर युरोपके नष्ट हो जाने पर सो वह जीत कर भी हार जायगा और हार कर वो हारा रहेगा ही । शायद अमेरिका के राजनीतिज्ञ लोगोंने प्रश्न या मसले के इस पहलू पर कभी ध्यान नहीं दिया है । यदि यह कहा जाय कि युरोप में युद्ध में छेद कर एशिया की भूमि पर या केवल चीन पर ही युद्ध होगा तो यह तो मानी हुई बात है कि फिर वह युद्ध एशिया ही तक सीमित कभी भी नहीं रहेगा वह कमसे कम पश्चिमी युरोपमें तो अवश्य ही तुरन्त फैल जायगा और उसकी भयंकरताका अन्दाज कोई भी जानकार लगा सकता है । फिर इतनी बड़ी जनसंख्याको हिसा करके संसारका कोई देश न सुखी हो सकता है न शक्ति ही प्राप्त करा सकता है । सारा विश्व एक है। एक सूत्रमें गुंथा हुआ है। प्रकृलिने सारे संसारको एक बना रखा है। एक
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[ वर्ष ११
जगहकी रेडियोकी बोली सारे संसारके बातावरण में फैल जाती है । मानवका हृदय और मन बड़ा भारी 'रेडियो' की धाराओंको जन्म देने वाला और फैलाने वा है। यहाँ बड़ी हस्यायें करके कोई सुखी नहीं हुआ। संसारका इतिहास यही कहता है। चाहे रूस हो या अमेरिका बड़ा भारी युद्ध करके कोई सुखी नहीं होगा- दोनों का विनाश किसी न किसी रूपये हो जायगा ।
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यदि अमेरिका दे कि रूसके बरसे वह भयानक बहुव्यापी व्यूह बन्दी सभी जगहों में कर रहा है और तैयारियाँ कर रहा है तो यह भी भारी भ्रम और गलती है जैसा कार होता है वैसा ही फल भी होता है। या प्रचार और बुकी तैयारी शान्ति नहीं हो सकती है । आापसी सुलह मसलहतने ही या मिलजुल कर किसी मध्य मार्गको हद निकालने से ही विरोधके कारणो को दूर कर मनोमालिन्य हटाया और शान्तिका बोज बोया जा सकता है। क्या ही उत्तम होता कि अमेरिका का पूंजीवादी गुह और रूसका साम्यवादी गुह इन बातोंकी सत्यताको ज्ञान जाता और समककर उचित उपायों द्वारा संसारको और मंमारके लोगोंको भयानक हर वक्त के भय से छुटकारा दिलाया ऐसा करके और आपस में सुह और मेल करके ही दोनों प्रतिस्पर्धी स्वयंभी सुखी होग और संसारकी भी सुखी बनावगे । इसी स्थाई शान्ति स्थापितकी जागो । यही करके अमेरिका बगैर पूजी वादी देश नैतिक पनपने देशवासियांकी रखा करके
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fait an. (Netural decay, disintegra
ti and doom ) 'वनाशमे बचायेंगे और रूम, चीन के साम्यवादी शमी 'आमा' ( Soul ) की महत्ताको जानकी फुर्सत पाकर उच्चत्तम हो सकेंगे । और सभी मिलकर बाकी दूसरे एशियाई देशों और पददलित लोगोंकभी सुखी एवं समृद्धशाली बनाकर स्वयं सचमुच सुखी हो सकेंगे ! जबतक साग संसार सुखी नहीं होगा-उसका एक हिस्सा अपनेको सुखी समझता हुबा भी सच्चे अर्थोंमेंरी रहेगा में जिसने अधिक से अधिक प्राणी सुखी और निश्चित होते जायेंगे सच्चे सुखकी वृद्धि अपने आप होती जायगी। यही संसार ब स्वर्गसे भी अधिक अन्य सुखी और सुन्दर हो आया।
संसारके दो बड़े-बड़े 'गुट्टों' में बंड जानेके कारण भारतकी तटस्थतामई दास पड़ीही शोचनीय रही
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किरण ७८]
विश्व एकता और शक्ति
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सर्राष्ट्रीय राजनीति पश्यम्त्र और भीतरी पुरानापन प्रारम निर्भरता एवं पारमसम्मानकी नागरिकोंमें दि होती पाकरता इसे भागे बदने नहीं देखी । देशमे इतना रहती है। भाजगढ़ में मी सामायिक विभेद बहुत भीषण सामाजिक और माथिकषम्य है कि सुधार और बड़े है। गो ऐसे नहीं जैसे भारतमें है-फिरभी इतनी ही उतिकी सारी चेष्टाएँ भ्रष्टाचारका माधार पाकर इस विषमताके कारण इंगळे सामोंका उत्पादन की वैषम्यको और अधिकाधिक बढ़ाती ही हैं। जहाँ इतने कर्मचारी ( Per Employee) पीछे अमेरिकासे बहुत अधिक लोग गरी, दुस्खी, हित और हाहाकार करते कम करीमपाधीके बराबर है। भारतमें तो दोहरी बंधन रहेंगे वहा सरचा सुख पाशान्ति भला कैसे हो सकती है? पा गुलामी और अधिक कही-फिर हमारी उम्नति अमेरिकामें ही सामाजिक विभिन्नता केवल काले गोरों व गैर व्यवस्थामें परिवर्तन किए होना सम्भव नहीं। (Negros & whites)कबीच ही कुछ है इसले कम्युनिटी प्रोजेक्टभी मोही गरीषको भी कुछ बेहतर वहां उन्मति शीघ्र हुई यपि वहांके सबसे नीची श्रेणी बनाये पर वे उससे कई गुमा सम्पन्न पमियों को बनायेगे। वाले लोगमी यहकि मध्य वर्गीय लोगोंकी तुलना में काफी इस तरह पे विषमताको अधिक बढ़ानेमें ही सम्पन्न हे पा प्राधिक वषम्यता निम्नवर्ग और उच्चवों में सहायक होंगे यदि जमीनका समान पटवारा नहीं होता बहुत दी है। यह उपन्यही शोषण, ईर्षा, भ्रष्टाचार और झार्षिक समामता अधिकसे अधिक-यथासंभव हर तरह के यनाचार और दिसादिको उत्पन्न करता और नहींकी भाती है। यही बात पंचायती द्वारा गांगोंक नियबढ़ाता है। आज बरकाका मामा जीवन दिन व एके साथभी दाग। दं-चार पन्चायतियां अग्छे दिन नीचे गिरा जा रहा है युद्ध और युद्धसे उत्पन्न पन्धोके मिल जाने के कारण भलेही सफल हो जाय, पर कही-बड़ी मादनियां मनुष्य की अधिकाधिक कोमी एवं पंचानवे फीसदी वेईमामीको ही बढ़ाने वाली वा शोषणको
बमासी है। एटमे सफलता लरकी इच्छापा और उत्तेजना देने वालीही सिन्दू होगी। फिर ऐसी हालत में सीम की ससमें सिरदर और नेपायिन सं हम विश्वशान्तिको स्थापनामें क्या सक्रिय मदद कर सकते बड़े-बड़े लुटेरे और हिसक एवं मूर, म.दिर भार गजनी अपनी शान्ति और विश्वशान्ति के लिएभी हमे अपने जैसे लोग न जाने कितने हुए पर इन देशकोहालत सौ.-तरीके बदलने होंगे । शिक्षाका स्वरूप' भी बदलना भाजक्या है ? किस शके भायरे इं. नीन-चार सापों- होगा। सारमें 'सच्चे ज्ञान का विस्तार करना होगा। की अवधि ही यह बतलाती है कि वह सपख हा या अमेरिका इंगर और स्स चीनको बनाना होगा कि ठरूका पतन हुचा। बड़ी की लूटमार चौरहिया करने उनकी अलग-अलगकी सच्ची भनाईभी बाकी दूसरोंकी
पाने वालोंवा अन्तिम तन और नाश अवश्यम्भावी है। भलाई में ही सन्निहित, गर्भित या शामिल है। वे बजाय क्याही अच्छा होता कि इंगलैंड और अमेरिका नागाशाको युद्ध कर युद्धकी तैयारियां करनेके बाद भी यदि वही
और हिरोशिमाको भयंकर हिंसानों के बाद अधिक हिंसा उत्पादन धीर निर्माणात्मक शक्ति पिछ.गरीब, दुखी देता. नहीं करते कराते । पर कोरियाका विध्वन्स इन लोगों की उन्नति जगायो अपना भलामी करेंगे और संसारका पंक नीचे भय भी हरहा है। भली भावुक्ता कहकर मना करनेमे सुख पूर्ण वातावरण जो उममें पैदा होगा बाताबदी जाय पर इन सिायीका अन्तिम फल भी. उसमे ये भी सचमुच सुखी होंगे और तभी स्थाई शान्तिभी भी परछाया भला नहीं हो सकता। ये युद्ध होते ही संसारमें हो सकेगी। क्यों है?धिक सम्पत्ति और प्रभुता पाने या बढ़ानेक पहले अर्थशास्त्री ( Econom.sts)हत थे कि किए पापसी जागटसं । इमामूल है बाकि वैषम्य । युद्धसे जनसंख्या घरी पर यगे बात ठीक उलटी हो भारतसभी दुखदैम्प र करने के लिए इस व्यापक भार्थिक गई है। युद्धकी तैयारियां करने वाले या युद्ध में रत देश वैषम्यकी और प्रगतिक लिए सामाजिक वैषम्यमी दूर रसमय जोरोंसे अपनी जन संख्या तरह-तरह के उपायोंसे करना जरूरी है। जितना अधिकाधिक ये दूर होंगे उसना बढ़ाते हैं। नतीजा यह होना कि युद्ध जितने भादमी ही अधिकाधिक हम उन्नति और सुख-शाrिai तरफ मरते हैं उनसे कई गुमा जन संस्था तब तक विभिन्न देशाम बदते एवं शक्तिशाली होते जायेंगे। इसमें भागमविवार बढ़ जाती है। जम मण्या नेमे पकारी (union.
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२६.1
अनेकान्त
वर्ष ११
ploymeut) भी बढ़तीही है। इस तरह खुद और युद्धकी हो तो सारे सूर्य मंडल (था हमार विश्व) पर उसका तैबारी हर तरह विश्वका "भार" (burden) बढ़ातीही मधुरण प्रभाव पड़ेगा-उस समय क्या होगा कहना कठिन है-पटाती जरामी नहीं। पाप वोहर रहके बनते है, वे है। एक देश या व्यक्ति इस पृथ्वी पर है उसके बाय मखग । युदसे बेकारीकी समस्या कभी इलभी नहीं हो वे बात होगी ही। देश या संसार जीवों या व्यक्तियोंका सकती, मह तो और अधिकाधिक जटिल ही होती जायगी। एक बहुत बड़ा घर या समुदाय है । हर व्यक्ति जो कुछ यहोवा शान्ति और विश्वव्यापी निर्माणात्मक कार्यों करता है उसका असर इकट्रा होकर बड़ा महान् हो से ही हल हो सकती है।
____ जाता है। इसे हम चूकि जामते नहीं था जानना नहीं हर एक बस्तकी जैसे “गति" होना ऊपर बतलाया चाहते इससे अब तक इस विज्ञानसे हम वंचित रहे हैं। गया है वैसाही हर एकका "माग्य" भी हुमा करता है। हम अपने भाग्यके प्रथमतः स्वयं निर्माणकर्ता है-व्यकि विश्वका भाग्य; देशका भाग्य; देशके गुहाँका भाग्य; किसी रूपये भी और समष्टि रूपसे भी पुनः हम विश्वका एक छुद्रजाति, समाज या सम्प्रदायका भाग्य; किसी कुटुम्ब परि- तम (बहुत छोटा ) "कण या भाग होनेसे उन गतियों वारका भाग्य और व्यत्तिका भाग्य अलग-अलग होते हुए और प्रभावोंमे भी सर्वदा प्रभावित होते रहते है जो प्राकृभी और एक दूसरे में इस तरह गुथे हु एवं सम्बन्धित तिक एवं विश्वमई है। इन प्रभावोंपर हमारा कोई वश हैं कि एक दूसरेसे अलग नहीं किये गसकते । हम इन मरी- हम इनके बनाए चलते हैं और इसीको नियति या बातोंको टीक-ठीक नहीं समझते (या एकदम जानते ही नहीं) मितव्यता भी कहते हैं। इसमें भी हमारे कर्मोंका माग भी इसीलिए देशों, व्यकियों एवं जातियों हितोंकी भिन्नता है पर चकिमारे विश्वका संचालन समष्टिरूपसे होता है। (differences of interests) की बातें करते और इससे हमारा श्राना कर्म विश्वको महानताके आगे इतना वैसाही म्यवहार करते हैं। वह भाग्य क्या है ? छिरे किए तुच्छ हो जाता है कि हम उसके भागे विवश रहते है। गएको समम्बवात्मक एकत्रीकरणमे होने या मिलनेवाजे ग्रहों उपग्रहोंके प्रभावको छोड़कर बाकी समाष्टरूप संसारभागामी "फल"। जैसे व्यक्तिके कार्य होते हैं से किसी भाग्यका निर्माण हर देश और हर व्यक्तिके किए कर्माके देशके भी कार्यहोते-एक अकेला दुसरा समष्टि रूप। समुच्चय फल स्वरूपही बनता है। और यदि इस तरह कई व्यकि मिलकर एक कुटुम्ब बनाते हैं । बसही देशको भी एक देश दूसरे देश पर आक्रमण करके उसे तहस-नहस हम एक बहुत बड़ा कुटुम्य यदि मामले को भाग्य या भाग्य और बर्बाद कर दे, वहां हिंसा द्वारा व्यक्तियोंकी एक बहुत फखको समझने में प्रासानी होगी। एक कुटुम्बके किसी प्रमुख बड़ी संख्या मारी जाय-बाकी लोग भी दुख और श्रभाव म्मकिके कर्मोंसे उत्पम दुख सुख सबको भांगना पड़ता है। में रोते और कलपतेही रहें तो इससे तो संसारका "भाग्य" व्यक्ति केला जो कुछ भीगता है वह तो है ही उसके जो समष्टि रूप में बनता है वह सरावही होगा। यदि हम प्रक्षावा भी वह कुटुम्बका प्राणी (भागी-हिस्सेदार) होनेसे ससारको वा संसारके किसी भागको वामय, हिसामय और कुटुम्ब पर पड़ने वाला दुख सुख भी भोगता ही है। इसी समय बनानेके बजाय प्रेममय और सुखमय बनाये तो सरह देशको बात है। जर्मनी पा जापान हार गए तो सारे समाका भाग्यभीमदर सुखद और भव्य होगा। इससे देश वासियों को उनका फल भुगतना पड़ा। इसी तरह गत भविष्यभी अच्छा, उत्तम मौर शुभ्र होगा, एवं वर्तमानमी महायुद्धसे उत्पन्न हुई मंहगाईने सारे संसारको "मय" अशान्तिमय न होकर शान्तिमय होगा। संसारमें इस डाला। सारे देशोंके कर्म मिल मिलाकर संयुक्त रूपसे भव्यताके फलस्वरूप अच्छे-अच्छे काम और घटनाएं होंगी, विश्व भाग्यका निर्माण करते है। हो, ग्रहों उपग्रहों वगैरह प्राकृतिक उत्पात कम होंगे और योग स्वतः स्वाभाविक का प्रभावभी हर एक पर स्वाभाविक रूपसे को पड़ता और परकी उच्चता, महानता, सौम्यता और शुद्धताकी रहता है वही ।माल किपदि पुच्छ सारा "पून- तरफ बढ़ते जायेंगे, प्रेम और सुख दिन-दिन पहेंगे और केतु" इस हमारी पृथ्वीसे टक्कर का जाप तो उसका भोग बांगोंकी नैतिक प्रगति नीचे न होकर उत्तरोत्तर "क" तो सभीको भोगना होगा। यह है संसारण माम्य । यदि होगी । संसारमें पुनः "सत्ययुग' का आगमन होगा और सूर्य गाज हो जाय वा उसमें कुछ भारी उथल-पुथल सभी हम मानवताका उच्चतम ध्येय और मादर्शकी प्राप्ति
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किरण ७८
गीता का स्वधर्म
[२६१
कर सचमुच 'मानव' कहखानेके अधिकारी होग, अथवा ही होगा। दोनोंका भला एवं सबका भया केस मह, मानव जन्मको सफल बनाने वाले कहे जायंगे। इसमें हर समझौता, प्रेम और मेल में ही है और होगा। हमारी तो व्यात हर देशका कर्तव्य है कि वह उच्चध्येय रखे और यही माना है कि दोनों अपने विभिन वादों ( Isus) वैसाही पाचरण करे । तभी संसारकाभी भला होगा और की विपरीतताका क्यालन करते हुए 'मानवता के हित व्यक्तिका भी। परिस्थितियोंको हम इकट्ठा अपने कमाये के लिए और उसमें सम्मिहित अपने हित के लिए पापसमें निर्माण करते या उसमें फेर बदन करते हैं और पुनः सम्धि करने और सारसे युद्धकी विभीषिकाको मिटाकर व्यकियों कों या मारण पर भी कुटुम्ब, देश वा शान्ति स्थापित करें। ॐशान्ति : संसारकी परिस्थितियों का अमर पड़ताही रहता है-हम मोट:-यहाँ विश्वका भाग्य या मानव इत्यादिके कर्म करनेको केवल एक सीमित अमें ही स्वतन्त्र हैं भाग्यके विषयमें विशेष व्याख्या देना सम्भव नहीं-यहाँ अन्यथा हमें समाज और देश या ससारमें रहकर एक तो संकेतमात्र दिया गया है पाठक इसे ऐसाही सममेंप्यास्था या नियमका पालन करना पड़ता है। इसके पूर्ण न सममें । लेख में दीगई बहुतसी बातोंके खुखासाके
खावा भी अपने चारों तरफके वातावरण और राष्ट्रीय yि मेर २ लख देखें:- अंग्रेजीमें Peace. Poliअथवा अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियोंके अनुकूल व्यक्तिको tics & Ahina'जो Tute of Ahinsa नाम अनीति नीति-आबार म्यवहार जरूरत मुताविक पत्रिका जुनाई-अगस्त, ११५ के अंकमें प्रकाशित हुआ बनाना पड़ता है । इस तरह अखिन मानव समुदाय एक है-लेख ट्रैकट रूप में भी छपा है-पत्रिका और ट्रेक्टदृमरसे विश्व व्यापी कपन गुथा हुआ है। कोई अकेला विश्व जैन मिशन अलीगंज. एटा, उत्तर प्रदेशमे मित्र नहीं है । सब सबसे घिरे हुए ह । भी हालत में यदि म सकते हैं हिन्दी में जीवन और विश्व के पवर्तनों का शार अमेरिका अपने अपनेको 'इकला' समम एक दमो रहस्य' जो 'अनेकाa'-वर्ष.-किरण ४-५ में प्रकाकी हानि करें तो यह मूर्खता और म्बय अपनी हानि करना शित हुया है।
गीताका स्वधर्म
(प्रो. देवेन्द्रकुयार जैन एम०५०) गीतामें कहा है कि "अपने धर्म पर मर मिटना, अजुन । युद्ध विमुख अजुनको युद्ध में लगाना ही बड़ श्रेयकी बान है, 'स्वधर्मे निधनं श्रयः' पर यह इसका गुस्य लक्ष्य है ? गीताकारका वर्ण-व्यवस्था, अपना धर्म क्या है, और भिन्न युगांम इसका अर्थ
ईश्वर और भक्ति में पूरा विश्वास है, मृष्टिके विषयमें कितना बदला, इसका विचार बहुत कम हो चुका है, उसका कहना है कि चाह उमे मांख्यमूलक मानो, सचमुच यह "स्वधर्म" प्रत्येक नवीन-विचारधाराको या योगमूलक, दोनांका अंतिम लक्ष्य हे 'भगवानम रोकने के लिए ढालका काम देता रहा है, इसलिए यहां लय हो जाना"! गीतामें धर्म और कर्म गन्नांका इस बातकी छानबीन बहत आवश्यक है कि गीताका व्यवहार एक अथम हुआ है, अतएव ग्वधर्म या यह "अपना धर्म" क्या है, और आजकी परिस्थिति
स्वकर्म पर मर मिटना एक ही बात है। अर्जुन में अपनानेका क्या हित है।
सजनोंकी हत्या और पापक डरसे युद्धमें भाग
नहीं लेना चाहता था, उसने साफ शब्दों में गोविंदगीताका दृष्टिकोण
से कह दिया था कि मुझे राज्य और भोग नहीं गीता स्वतंत्र विचार प्रधान ग्रंथ न होकर एक धर्म चाहिए । इसका समाधान करने हुए श्रीकृष्ण प्रधान है, इसके वक्ता हैं "श्रीकृष्ण" और श्रोना कहते हैं,-अर्जुन तुम क्षत्रिय हो, ल इना तुम्हारा
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२६२]
अनेकान्त
[वर्ष १२
जन्मजात: कर्म या धर्म है, अपने इस धर्म पर मर मिलनेकी सामाजिक भूमिका थी, आर्योंने अनायामिटना ही श्रेयकी बात हैं, क्योंकि दूसरोंका धर्म को मिलाया तो, पर अलग शूद्र वर्ण देकर, गीतामें भयावह होता है, डरावना । अर्जुन शायद सन्यास भी ब्राह्माण क्षत्रिय और वैश्यों की गिनती तक समस प्रहण करना चाहता था, पर यह तो उसके लिए परधर्म पदमें है "ब्राह्मण क्षत्रिय वियाँ " ओर शूद्रोंकी था, क्योंकि संग्राम जैसे धर्म युद्धको छोड़कर क्षत्रिय
सग्राम जैस धर्म युद्धको छोड़कर क्षत्रिय- अलग"शदाणा च पर नपः" । वौदिकयुगमें समूची के लिए कल्याणकी दूसरी बात नहीं हो सकती। जनता "पिथः' कहलाती थी, धीरे २ उनमेंसे ब्राह्मण ऐतिहासिक-परिस्थिति
क्षत्रिय और पेंश्य फूटे । पर शूद्र उनसे अलग थे, __गीताके इस दृष्टिकोणको समझने के लिए तत्का. भारतीय साहित्यमें ये कभी दास बने और कभी लीन-परिस्थितिको देखें। गीताकारके समय, भारतीय अत्यंज । गाँधी युगमें इन्हें 'हरिजन' कहा गया। समाजमें बहुत उथलपुथल हो रही थी, प्रवृत्ति- गीताम इन्हें आध्यात्मिक मुक्तिका लालच दिया गया निवृत्ति, हिंसा-अहिंसाको लेकर तरह २ की विचार है, और वह यह कि अपना कर्म करते हुए भी तुम धाराएँ चल रही थीं, श्रमण विचारक, वर्ण व्यवस्था- अन्तमें मुझमे ही लीन हो जाओगे। गीतामें जो के विरुद्ध क्रांति कर रहे थे, सभी वर्गों की जनता विभिन्न विरोधी मतोंका समन्वय मिलता है, वह मुक्तिके लिए सन्यास मार्गको अपना रही थी, गीता- भी इस लोकव्यवस्थाका बनाये रखने के लिये ? कारके सामने प्रश्न था कि पुरानी वर्ण व्यवस्था- गीता सांख्य-सिद्वांतको मानती है। पर ईश्वरके साथ के भातर नये आचार विचारका कैसे पचाया जाय, वैदिकयोंके स्थानमें यह भाग्यपनका मानती हैं, इसके लिए उसने सिद्धान्त निकाला "अनामत कर्म- आचारप्रधान संयम, पर वह जार देतो है, पर देहभागे । गीताका कहना है कि इसके पालन करनेसे योगात्मक तपका वह विरोध करती है । इसका असली लोकव्यवस्था भी नष्ट नहीं होनी ओर मुक्ति भी प्रयोजन है. प्रत्येक वर्ण अपने कर्म-धर्मका आचरण मिल जाती है, बीज बना रहता है और मनुष्य जन्म. अनासक्त भावसे करे, उमे मुक्तिकी चिन्ता नहीं मृत्युके महान् भयसे मुक्त हो जाना है। प्रत्येक करनी चादि, क्योंकि यह भगवानके हाथ में है. और मनुष्य अपने जन्मजात वाके कमको करता हुआ भगवानने ही गुण कम आधार पर चारों वर्णको भी सिद्धि पाही लेना है, अनामनभावसे जो अपने बनाया है। यही मृटिका बीज है, और जो इस बीज"कर्म' को करता है, उसे में उसी कपमें भजता का पालन करता है, वह भगवानका ही काम करता हूँ. अंतमें सबका लय गुझमें ही है । गीनामें जो है। अन्तमें भगवान उसे अपना ही लेंगे । फलमें अनासक्त होनेकी बात कही गई है. यह लौकिक फलको लक्ष्यमें रखकर ही। यदि लौकिक फन एक प्रश्न में हमारी आसकि होगी-तो फिर अच्छे फलको शब्द पुराने और ग्रंथ नया' भारतीय सस्क्रतिकी आकांक्षाको हम अच्छे वीके कर्मको अपना सकते विशेषता है। 'यज्ञ' शब्द इमका एक उदाहरण है, हैं, और इससे वर्ण-व्यवस्थाका आघात पहुँच सकता वैदिक युगमें 'यज्ञ' का कुछ अर्थ था और विनावा
इसीलिय गीताम वा-विभागका आधार गुण जो के "भूमिदान यज्ञ" का अर्थ कुछ और है। हम और कर्म दोनोंको माना गया है । बुद्ध महावीर
लोग पुराने शब्दोंको जल्दी छोड़ना उतना पसन्द नहीं वर्ण विरोधी विचारों और विरागमूलक धर्मोंकी
करते जितना उसे नया अर्थ दे देना, पर जब हम छाप अनासक्ति कम योग पर अवश्य है।
गीता प्रवचनमें 'स्वधर्म' का व्यवहार करते हैं तब वर्ण-व्यवस्थाका प्राधार
क्या उसका पुराना अर्थ बदला जा सकता है ? तिलकशुरूमें वर्ण-व्यवस्था-आर्य-अनार्य या दासोंके ने स्वधर्मका अथ किया था 'स्व-विवेक व निश्वित्१ अश्याय 11 श्लोक ४२, ४ . २ रखोक ४८ कर्तव्य'। गाँधीजीने इसी अर्थको मानकर 'अनासक्त प. लोक,
कर्मयोग' की कपनाकी, गीतासे उसका संबन्ध
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हिरण ७-८।
विरोध और सामन्जस्य
[२६३
नहीं था, पर इससे कहीं अधिक इस शब्दके अर्थका त्मिक मुक्ति देनेका आश्वासन दिया, पर क्या भाजअनथ हुआ है। फितनी ही स्त्रियाँ सतीत्वको स्वधर्म की परिवर्तित परिस्थितिमें सामाजिक एवं-आर्थिक समझकर चितामें जल मरो, साम्प्रदायिक-दंगों में भी स्वतंत्रताके लिए भी "स्वधर्मे निधनं श्रेयः" का सहारा 'इसी स्वधर्म' की दुहाई दी गई? हम यह मान लिया जा सकता है ? यह बात राजनैतिक दृष्टिसे लेते है कि विशेप ऐतिहासिक परिस्थितियों में ही नहीं--सांस्कृतिक दृष्टि से भी विचारने योग्य है। गोनाकारने त्वचमके नाम पर शुद्रांको भी आध्या- नरसिंहवाड़ी अल्मोड़ा
२०-६-५२
विरोध और सामन्जस्य
(प्रोफेसर डा. हीरालाल जैन, नागपुर) विद्वत्ममाज पर यह बात स्वीकृत हो चुकी है कि जो भमैथुन या ब्रह्मचर्यको एक स्वतंत्र पर बतलाया, भगवान महावीरने कोई नया धर्म स्थापन नहीं किरा, इसमे उनका प्रयोजन सह पाहि प्रमथुन या स्त्रीपरित्याग किन्तु उन्होंने एक प्राचीन प्रचलित धर्मका पुन: मंग्कार मात्रसे ही रम्यादान विषम की परिपूर्णता नहीं किया। उपप्राचीन पर अनुयायी श्रम' कहलाते समझना चाहिये, किन्तु इस व्रतका न्यायत: परिपालन थे। श्रमणीका एक यति-सम्प्रदाय था जिसवैदिक सम्म तो तभी हो सकता है जबकि बाह्य समस्त परिग्रह, यहां दायके 'ब्राह्मणों में अनेक मौशिक बातो मतभेद था। तक कि अपये पप वस्त्रका भी पूर्णत: स्याग किया श्रमण 'चातुर्याम' अर्थात् पार संपमोका पालन प्रकार ज्ञाय हमी भादर्शके अनुरूप उन्होंने बाईस पोषहोंकरने थे। ये चार संयम थे--अहिंसा, अमृपा, भाचार्य का भी सुसंगठन किया जिनका पालमभी श्रमणो लिये
ओर प्रवाहिस्तादान । जब महावीर इस श्रमण सम्प्रदायमें अनिवार्य ठहराया गया प्रकार उनके अनुसावी प्रविष्ट हुए तब उन्होंने देखा कि श्रमएका भरण न तो परचे नियंभ्य बन गये. 'मन' भी कहलाने लगे पूर्णत: परिग्रह रहित है और म माकुलतासे मुक्त। इस. और वे प्रामीन चातुर्याम श्रमण सम्पवायसे पूर्वक लिये उन्होंने चतुर्थ संम्म अर्थात् प्रतिस्थादान बहित्था हो गये। दामामो वेरमणं) को दो स्वतन्त्र प्रतों में विभाजित कर भगवान महावीर के पट्टशिष्य गौतम गवरक क दिया-एक प्रमथुन और दूसरा अपरिग्रह । इसका यह चातुर्याम सम्प्रदायके मायक श्रमण केशीको यह पास समअर्थ नहीं समझना चाहिये कि अमैथुन अर्थात् ब्रह्मवयंका मानेमें सफल हुपकि महावीरने जो विशेषता उनके धर्ममें इससे पूर्व श्रमणों द्वारा पालन नहीं किया जाता था। उत्पम की वह उस प्राचीन सम्प्रदायके वन वियही पथार्थत: तो परिस्थिति यह थी कि चारित्रका सारा भार नहीं थी, किन्तु उससे उस प्राचीमधर्मका ही सच्चा मर्म इसी स्त्री-परित्याग रूप भवहिम्यादान पर था । स्त्रीका और प्राण प्रकट किया गया है। इस स्पष्टीकरणसे पह परित्याग हो जानेपर अमय खिये अन्य परिप्रोंक चातुर्याम पाखा पार सम्प्रदाय और महावीर भगवानका सम्बन्धमें उतनी कदाई नहीं रहती थी। महावीर स्वामीने भाचेलक सम्प्रदाय ये दोनों एकत्र हो गये और उन्होंने
प्राचीनवार यामोंके स्थान पर पांचोंको स्वीकार Proceedings and 'Iransactions of the 13th All India Oriental Conference
लिया । इस सम्मेलनमें वस्त्रो सम्बन्ध को समझौता 1946 Part II pp. 402 में ऐं अंग्रेजी लेखकका
हुमायामान पता विपके रूपमें हुमा, क्योकि
. अनुवाद।
+उचराध्ययन सूत्र २ केम्बिम बिस्दी माफ इंडिया, हा, मादि। x उत्तराध्ययन सूत्र"
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
कर्ता शिवार्यके सत्य अनुमान किया है।" इस ग्रन्थ सुनियोंके लिये भाग्यका नियम (उत्सर्ग) बतलाया गया है, और साथही यह अपवादभी बतलाया गया है कि 'महर्षिक'' और ''भी धारण कर सकते हैं। इस प्रकार स्वयं जिनकल्प के भीतर भी कुछ विकल्पका व्यवहार होने लगा ।
किन्तु इस विकरूपमें ही चुना भेदके बीज विद्यमान क्योंकि इसके कारण नाग्न्यका नियम न्यायतः स्खलित हो गया। यदि किसीभी कारण कोई विशेष व्यक्ति विमा भाग्यका पालन किये निर्भयताको पूर्णताको प्राप्त कहे जा सकते थे, तो उसी प्रकार अन्य सुनिभी क्यों न वस्त्र धारण करते हुए पूर्ण भ्रमण गिने जाय ? इस विषमता कारण नाम्यके नियमका पालन करनेमें स्वयं निकल्पके भीतर शिथिलता थाने लगी ।
२४]
इसके पश्चाद हमें जिनकल्प अर्थात अन्तिम जिम महावीर द्वारा उपदिष्ट 'माय' और स्थविरकल्प अर्थात् प्राचीन चातुर्याम सम्बन्धी करप वस्त्र ग्रहण रूप आचारका प्रादुर्भाव हुआ दिखाई देता है। किन्तु यह समकोवा स्वभावतः ही स्थायी नहीं हो सकता था, क्योंकि जो अचेलकस्य व नाभ्यका कठिन व पालन करते थे चोर भी इसका पाचन नहीं कर सकने के कारण अचेल तपस्वियों द्वारा होन समझे जाते थे उन दोनोंके बीच समानताको भावनाको स्थिर बनाना संभव नहीं था। भगवान् महावीर के पश्चात्की जो पट्टापक्षियों उपम्य है उनके अनुसार यह सम्प्रदाय केवल योग पोड़ियों की सम्मिक्षित रह सका। इस सम्मिि सम्मायके नायक केसी' कहे गये है और वे क्रमशः श्रीमही हुए गौम सुधर्म और जम्मू उत्पश्चात् सम्झ दायका नायक विधि हो गया और हमें पट्टायजियोमें प्राचार्य परम्पराकी दो विभिन्न धारायें दिखाई देने बर्गी इनमें से एक भावार्य 'नन्दि' से प्रारम्भ होती है और दूसरी 'प्रम' से इन्दो शाखाओंने सम्बन्धमें हमें जो कुछ वृत्तान्त प्राप्त होता है उस परसे जाना जाता है कि इममेंसे प्रथम शाखा 'जिesदपी' अर्थात् मन मिग्रन्थोंकी थी और दूसरी 'स्थविर कल्पी' अर्थात् बरधारी श्रमयोंकी । किन्तु अभीतक दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायका सुखरूपमें प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, क्योंकि इस समयके वृतान्तानुसार एक शाखाको छोड़कर दूसरी शाखा में प्रविष्ट होना कठिन नहीं था ।
स्थाविरकी
बाकी अपेक्षा जिनकी शाखायें एक विशेष कठिनाई थी। नागम्य परोषहका सहन करना सरल नहीं था, विशेषतः उन भ्रमयों द्वारा जो धनी गार्हस्थ जीवन से आये थे, अथवा जिनके धन-प्रत्यंगमें कोई विशेष विकृति थी । और स्त्रियों तो नाम्म्यका पालन करहो नहीं सकर्ती । इन कारणोंसे जिनकल्पियोंकी संख्या स्थविर कल्पियोंकी अपेक्षा हीन रहती थी । इस कमीकी पूर्ति आर्य शिवभूतिने की, जिन्होंने वेसाम्बर स्थविराबली के अनुसार स्थविरश्पको त्यागकर जिनकल्प किया था था जिनका एकस्य मैंने खाना
+ षट्संडागम, भा० पृ० ६५ प्रस्तावना पृ० २१,
प
इस प्रकारको परिस्थिति में कुन्दकुन्दाचार्यने जिन कल्पका नायकत्व ग्रहण किया। उन्होंने उक्त समस्याका अन्तिम निपटारा करन के लिए अपना ध्यान अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट प्रावारपर दिया, जिसके अनुसार नायका प्राधान्य था । अतएव कुन्दकुन्दाचार्यने यह निर्णय किया कि नान्यका परिपालन संयमीके लिए अनिवार्य और निरपवाद नियम है, तथा को उसका पालन नहीं कर सकते उन्हें मुनि रहनेका कोई अधिकार नहीं।
1
अथ समस्या स्त्रियोंकी उत्पई सम्हें स्वपरिस्थागका उपदेश देना असम्भव था । अरुएव उन्हें सबस्त्र अवस्था रहने दिया गया, किन्तु उनका आध्यात्मिक विकास अर्थात् गुणस्थान भाविकाओं ऊंचा नहीं मान जा सका। इस प्रकार अब स्त्रियोंके लिए पूर्ण संयमका सर्वथा निषेध कर दिया गया। पस्के परिस्याग के बिना संयम हो नहीं सकता और संयम के बिना मुक्ति प्राप्त
*
शिवभूति और शिवाये नागपुर यूनी० जर्नल,
हा० ६. पृ० ६२.
* मुखाराधना ३-८४
जैन इतिहासका एक विद्युत अध्याय ।
(A Hidden land mark in the hist ory of grainism ) B. C. law valume par 11 P.57
x सूत्र पाहुड १०, १९, २०, २१, २७
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विरोध और सामंजस्य
किरण जन्य ]
करना असम्भव है, अतएव, म्वायतः स्त्रियों में मुक्तिकी योग्यताका भी निषेध करना पड़ा ।
२६५
पूज्यपाद के उपयुक] [भावस्वी और ग्रम्यस्त्री की व्यवस्था विचारणीय है। मुक्तिकी प्राप्ति कर्म सिद्धान्यकी इस व्यवस्थाका परिणाम यह हुआ कि जिन भागम- व्यवस्थानुसार मानी गई है। कर्मसिद्धान्तमें शरीर निर्मा में पुरुष और स्त्री दोनों में आध्यात्मिक योग्यताका पूर्व के को नियम पाये जाते हैं उनमें उक प्रकारले भावस्वी विकास स्वीकार किया गया था ने इस सम्प्रदाय अमाऔर इम्यरवीका भेद निर्माण होना सम्भव नहीं है। हो गये। सुजान पड़ता है कि दिगम्बर सम्प्रद्यपाद के पश्चात् सकलंकदेव x और स्वामी--- ने भी उमेद के समर्थनका प्रयत्न किया है, किन्तु उनके प्रयत्नसे व्यवस्थाकी अांतरिक कचाही प्रकट
बीरसेन
न्य
होती है
।
जैन संपके भीतरकी के इस चिष्ठ परिचय स्पष्ट है कि प्रायोंमें स्त्रीची गुरुस्थानों तथा मुक्तिका विधान पाया माता है। किन्तु इस व्यवस्थाका संयमरे लिये माग्न्य की अनिवार्यताका विरोध पाया जाता है, क्योंकि स्त्रियोंके लिये मायका कहीं उपदेश नहीं है। इस विशेषका परिहार करने के लिये अनेक प्रयत्न किये गये जिनमें अन्तिम प्रयत्न देवनन्दि पूज्यपाद का था। उनके भावस्त्री धीर अम्यस्त्री मेदके द्वारा गत लगभग पन्द्रह शताब्दियों तक दिगम्बर सम्मदाय में एकता बनी रही ।
किन्तु कर्मसिद्धान्तको व्यवस्थाओंकी कसोटीपर परीक्षा करनेसे पूज्यपाद कृत उमेद सिद्ध नहीं होता क्योंकि सिद्धान्तानुसार जीवकी नामक प्रवृतियों द्वारा ही उसकी द्रव्यात्मक शरीर रचना होती है, जिसके फलस्वरूप स्त्रीवेदोदयी जीवके पुरुष शरीरकी रचना असम्भव है । इस परीक्षाका तात्पर्य यह निकलता है कि या तो स्त्रियोंमें मुक्तिकी योग्यता स्वीकार की जाय, या फिर परम्परा गत कर्म सिद्धान्त की व्यवस्थाएं अस्वीकार कर दी जय । इस परिस्थिति बचवा अन्य कोई उपाय नहीं
अंग ग्रन्थोंका सर्वथा लोप माने जानेका यह भी एक कारण है। यही नहीं, किन्तु स्वयं जिनकल्पियों द्वारा निर्मित पट्ागम जैसे शास्त्रभी कुन्दकुन्दाचार्य मूलसंघमें अमान्य सिद्ध हुए ।
इस विरोधका सामय अबकी बार प्राचार्य देव नन्दि ने किया और संभवतः उनके इसी महान् कार्यके लिए वे 'पूज्यवाद' को सन्मान्य उपाधिमे भूषित किये गये । वे इतिहास में पूज्यपाद नामी अधिक प्रसिद्ध हुए। । उन्होंने उमासिकृतसर्वार्थ सिद्धि' नामक टीमें भावस्थ और दम्यस्त्रीका मेद करके प्राचीन आगमो विदित मनुष्यनीके चौदों श्रागमो गुणस्थानों और कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा उपदिष्ट स्त्रीमुक्तिनिषेध विरोधका परहार कर दिया।
पूज्यपाद के इस सूत्रात्मक परिहारचा मथितार्थ प निकलता है कि एक पुरुष शरीरी मनुष्य भावमे स्त्री भी होता है, और यही वह 'भाव स्त्री' है जिसमें मुि की योग्यता स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि यह वस्त्र परित्यागरूप संयम का पालन कर सकता है। किन्तु जिसकी अंग रचना स्त्रीरूप ई व 'द्रव्य स्त्री' न उत संयमका पाचनर सकती और न परिणामतः मुक्ति प्राप्त कर सकती। इस शोध के आधारपर पूज्यपाद जिनकपियोंके बीच विरोधको मिटाकर एकता स्थापित करनेमें सफल हुए अब जिनकल्प और परिपकी शाद और श्वेताम्बर सम्बदायोंके रूपमें से पृथक हो गई । दिगम्बर सम्प्रदाय में भावस्त्रीके मेदसे स्त्रीमुक्ति मानी जाने बगी और श्वेताम्बरोंमें बिना ऐसे किसी विपसे।
सूत्रटीकापुन भाववेदमेव तथा १०-६ टीका 'त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न ब्रम्यतः ।
x तत्वार्थ राजवाधिक ८ ८४ पाम १ १ २ टीका * 'क्या घट खंडागम सूत्रकार और उनके टीकाकार वीरसेनाचार्यका अभिप्राय एकही है ?"
a. fer. at 11, 1, 8. 14
x सिद्धान्त समीक्षा (हिन्दी ग्रन्थ रचाकर कार्यालय,
बम्बई)
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भगवान् पार्श्वनाथका किला
लेखक-श्री ६० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री उत्तर प्रदेश मिला विनगौरमें नगीना नामका एक अधिक है। यहाँ गभाई भी उत्साहीहै। रहोंने बवाह उत्तरीय रेलवेकी मुरादाबाद-सहारमपुर बजे भरके जैन भायोंके सहयोगमे एक जैन हायर पाहनपर स्थित रेलवे स्टेशन है और उबरसे भानेसेकेंड्री स्कूल स्थापित म्यिा है, जो नहटौरके तीन स्कूलोंपाने वाली प्रत्येक गादी वहाँ सकती है।
में सर्वोतम माना जाता है। करीब दस हजार रुपया नगीवाने पाठ मीलकी दूरी पर एक बढ़ापुर मामका सर्च करके सोमके कामका एक विशाल गजरथ पवाषा कस्बा और बकापुर से करीब 1-1 मीट पर कासीपुरा है, जिसकी प्रतिष्ठा बादोंमें होने वाली है। नहटौरके पाकासीमामा मामा एक गाँव है। नगीनाले रमीज कुछमाई उक मूर्तिके बहुत ही भक है। पर मार्ग में बोह नामकी नदी पड़ती है। वहाँ तक पक्की पिछले दिनों भारतीय दि. जैन संघके कार्यालय में सबक है।बोहमदी पर पुल नहीं है। इससे बरसातमें उमका एक पत्र माया, जिससे मालूम हुमा कि सरकार इसमदीको पार करना कठिन ही है। दूसरे इम नदीका उस मूर्तिको कासीवाखासे उठाकर देहली राष्ट्रपति भवन बहाव बहुच तेज होता है और इसकी सस-भूमि भी में ले जाना चाहती है। इससे जिला बिजनौरके जैनियों में कसार नहीं है: मिश्चित जलमार्गसे जरा भी इधर- और खासौरसे महशेरके कुछ म भायोंमें बहुत थे. पर होनेसे इसमें खानेका भय रहता है। तीसरे चैनी है। मेरे पास भी रजिस्ट्री-पन्न भाया । मुझे महटौर इस नदी सबमें पैर रखते हुए चले जाने में तो कोई जाना था अतः मैंने एक बार मूर्तिक शंकर बनेका भवनहीं है किन्तु थोड़ी भी देर रकने से पैरोंके नीचेसे चिार किया। नहटौर जाने पर मालूम था कि भाज
विसकने बगता है और मनुष्य गहराई में जाने जगता कल यहाँ जाने के कापक मार्ग मही। किन्तु बहकि कृष है। सवाल-गादियोंका है। परमात बीत जाने पर भाईयोंका अत्यन्त साह बकर मैंग भी जानेका और डर जाती है और जब तांगा भार मांटर भी जा संकल्प पर जिया। सकते है।
महम्मे नगीना तक हम नग हाँगांस गये और कासीवाला गाँवमें एक टीला है जो पारसनाथका भगीनामें खा-पीकर सुबहके नौ बजे के करीष बैलगादीसाता । पहले यह स्थान बाहर अंगल था। से रवाना हुए। हम सब स्त्री-पुरुष १२.१४थे और बैल किस शरणार्थियोंके बस मानेसे बहा मजको काटकर मावीमें 4-6 का ही स्थान था। पहः उतरते-घदत जमीनको खेतीके योग्य बना दिया है और अब बड़े पैमाने चले। करीब शामके ॥ बजे मांग कासीवाला पर खेसोती है।
पहुँचे। और मूर के दर्शन किये । म बहुत ही मनोज गत वर्ष कपिलेसं एक मूर्ति एक शरणार्थी है। एक ही पपरमें तीन मायाँ किस हैं। बीच में भारको प्राप्त है। जिले के जैनियों को पता लगा तो वे पद्मासम मुख्य मूर्ति भगवान महावीरकी है और उनपीनाथ गये और उन्होंने इसकी कुछ व्यवस्था के दोनों ओर भगवान नेमिनाथ और भगवान चन्द्रप्रमवगैरह भी की।
कीबदमासन मूतिया है। तीनों मर्तियोंके मीचे नि मैं भी बिना बिजनौरका निवासी हूँ| बा अपने स्ने हुए हैं। मतिं पर १०६७ सम्बत् खुदा हुधा है जो जिलेमें पारस पथके किलंके मामले प्रसिद्ध स्थान धौर उस. विक्रम सम्बत् होना चाहिये । अत: यह मूर्ति एक से प्राप्त मूर्तिको देखने की उमएठा मा स्वभाविक ही हमार वर्ष जितमी प्राचीन है। मुझे तो उस मति में पैसाहै। मेरे सम्म स्थान महटौरसे नगीना शायद " मोल ही भाकर्षण प्रतीत हुमा, सानाकर्षय श्री महावीरजी है। जिला विचौरमें नहरीर ही एक ऐसा स्थान है जहाँ (चान्दन गाव) की मति है। बियोकी संख्या जिले के सम्म स्थानोंकी अपेक्षा सबसे महिने शंभ करने के बाद हम योग रास रीमेकी
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भेलसाका प्राचीन इतिहास
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देखने गये जहां यह मति प्राप्त हई है और जो पारस नहीं निकली। किन्तु इस पानासे मेरे उस प्रश्नका भी मायन क्लिाहलाता है। के भग्नावशेष बहुत समाधान हो गया। हमारे साथियोंने बताया किपड़ादूर तक फैले हुए है। वर्षा ऋतुके कारण मादियोंका पुरमें एक पेड़ के नीचे एक जैन मूर्ति बहुत दिनों से पड़ी मुण्ड उगा होनेसे हम उस स्थानको पड़ी रहनहीं हुई है। वहमति भी उसी किसे निकली थी। देख सके। फिर भी ऐसा तो प्रतीत होता ही है कि बढ़ापुर पहुंचकर हमने पेड़के नीचे पड़ी हुई उस खुदाई होने पर उस स्थानसे अन्य मी मग अवशेष प्राप्त विशालकाय पगासन मूर्तिको देखा। मर्ति भगवान हो सकते है।
पारनायकी है। किन्तु उसका चेहरा एकदमसे उसार कासीबाखाके शरणार्थी भाई भी इस प्रयत्नमें है लिया गया है। जैसे ही हमलोग उस मर्तिके दर्शनार्य कवा मुनि बासे न जाये। उनसे बात-चीत करनेसे गये. मुहल्लेको स्त्रियाँ, जो मुसलमान थीं, कहने लगी, मालूम हुमा कि इस मर्तिके प्रास होने के बाद उनकी इसे उठाकर ले जानो। उन्हींकी जवानी मालूम हुमा
सी मच्छी हुई है और जबकि दूसरे लोगोंकी खेतियाँ कि एक भादमी इस मतिको पारसनाथ किसे उरा पानीके बिना सूख गई उनके खेतों में पानीकी कमी नहीं खाया था। उसने इसका चेहरा बोरामा। उसके घर हुई। किन्तु मतिकी व्यवस्था वहाँ डीक नहीं है। उनके में १६ प्राणी थे। थोडेही दिनों में सब से और कोपोंके बीच में एक ऊँचेसे चबूतरे पर मति रखी हुई अब उसका कोई नाम लेगा भी नहीं रहा। तबसे सब है। पहले उस स्थान पर छप्पर पड़ा हुआ था किन्तु बोग करने लगे हैं और मर्ति बैसे ही पपी हुई है। उममें भाग लग गई। सारी पासात मर्तिके ऊपर ही हिमालय पहारकी उपत्यकामें अंगलके बीच में स्थित बरसी है। जब हम पहुंचे तो मर्तिके दोनों कोनों में दो पारसनाथका किला जैनधर्मके प्रसार पर एक ऐतिहासिक रास्त्रियाँ बरक रही थीं। उन्हें हमने खोलकर अलग प्रकाश डालता है। मावश्यकता है कि पुरातत्वज्ञ विद्वान किया। उनका रंग महि पर जमा हुमा था। उस स्थानका निरीक्षण करके अपनी राय और उसके
मेरे विचारसे उस स्थान पर मतिका रहना या वहीं पश्चात् उस स्थानकी खुदाई कराई जाये। म पुरातत्वउसकी व्यवस्था वगैरह करना तो उचित प्रतीवनहीं के प्रेमियों तथा उदार दामियोंका ध्यान इसमोर पाकहोता। वहामेलाकर जिलेके ही किसी मन्दिरमें इस र्षित करते हैं। खास करके दानवीर साह शातिमासिको विराजमान कर दिया जाये तो प्रबहा होगा। प्रसादजीका ध्यान हम इस ओर विशेषरूपसे भाकर्षित मेरे मन में एक प्रश्न बराबर उठता था कि पारसनाय करना चाहते हैं क्योंकि आप उसी जिलेके मर रत्न हैं। किसे पारसनाथको मति निकलनी चाहिये थी, सोक्यों
(बैग सन्देशसे)
भेलसाका प्राचीन इतिहास
लेखक-राजमल मवैया-भेलसा मेलसाके प्राचीन प्रसिद्ध नाम-महनपुर, भद्रकाबती, उदयगिरि पर गुफामों में बैठकर 'मेघदूत' काम्यकी विदिशा, सनगर, मालमगीरपुर, मेबसा।
रचना की। भद्दलपुरके समय
पहाड़ी उदयगिरिका परिचय श्री १००८ दस कर श्री शीतलनायक गर्भ, पहार पर २० गुफायें हैं। ये गुफायें वीं शताग्दो सम्म, सप.. कल्याणक यहाँ पर हुए । इस कारण यह की बनी प्रतीत होती है। गुफा नं. १, २. पहारको पुण्य भूमि है ' श्री रामचन्द्रजीका वनवास के समय गुमा- चोटी पर, बाकी उसकी कदमें बनी हुई हैं। गमन । महाराजा विक्रमादित्य मन्मकवि कालिदासने गुफा नं.१,२. दिगम्बर जैन समाजकी हैं। जिनमें
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किशोरीलाल घनश्याम मशरूवाला
(ले०-या० माईदयाल जैन बी. ए., (आनर्स) बी. टी.]
मंगलबार नौ सितम्बरको सार्यकाल गांधीवादी नक्षत्र में अपने 'यंग इडिया' और हरिजम' पत्रों में जो टिप्पणियां मण्डलका एक चमकता हुमा वारा भारत माताका सपूत, लिली जिनके कुछ अंश नीचे दिए जाते है। इनसे मालूम गांधीवादका बाल्याकार, स्वतन्त्र विचारक, निर्भीक तथा होगा किमहामाजी उनके बारे में कितनी ऊँचो सम्मति स्पष्ट पाखोचक और अंगरेजी, हिन्दी, गजराती तथा रखते थे। मराठीका लेखक हमसे सदा के लिये विदा हो गया । राष्ट्र
"..'वे बहुत पुराने कार्यकर्ता हैं। अभी हाल तक माजइसके शोकम दबा हमारा ये किशोरीलाल धन- गजरात विद्यापीठ के रजिस्टार थेभार देबज बीमारीक श्याम मशरूया थे।
कारण इन्हें ११ पदको छोड़ना पड़ा । भारतवर्ष' भरमें - श्री मशरूवाबाजीका जन्म सन् १८वीमें गुज
हमारे पास को मूक कार्यकर्ता हैं, उनमें वहमत्यन्त रात एक अत्यन्त धर्मपरायण कुटुम्ब : दुमा था, बाकि
विचारशील है। जो भी शब्द लिखा या बोलते हैं, बादमें अकोखामे रहन लगा था । युवा अवस- विचार
उसे पहले तोलते है । 'यंगरिया' २६ मई, 15२० । संगठनकाब में श्री मशरूवाला पर प्रसिद्ध देशभक गोपाल
एक और अवसर पर महात्माजीने २ मार्च के हरिजन कृष्ण गोखले तथा ठाम रचनात्मक कार्यकर्ता ठक्कर बाबा
में लिखा था-मशरूवाला हमारे अनूठे कार्यकर्ताओं में से के विचारोंका बड़ा प्रभाषा था। अब उनकी आयु
एक हैं। वे अथक परिश्रमी है। वे अत्यन्त शुद्धारमा वाले २५ वर्ष की थी तब वे वकालत कर रहे थे, उस समय व गांधीजीके सम्पर्क में पाये। गांधोजीके विचारों तथा महान
थे। छोटोसे छोटी बान भी उनकी दृष्टि से नहीं बचपाती।
यह एक दार्शनिक और गजरानीक सर्व-निय लेखक हैं। व्याकरबसे मशरूवालाजी इतने भाकर्षित हुए, कि दशके दूसरे सैकमों-कीलों और सरकारी नौकरों के समान उन्होंने
वह मराठीके इतने ही अच्छे विकून हैं जितने कि गुजराती
के। वह नस्ल, जाति अपनी चलती बकालतको छोर दिया और गांधीजाके
प्रान्तीय घमण्ड या पचपात
से विशेषरूपसे खाली हैं। यह एक स्वतन्त्र विचारक और साथ साबरमती आश्रम चखे गय । भारतमाताको सवाके लिये यह उमका महान् स्याग और बस था।
म धर्मों के विद्यारी है। उनमें कहरताका निशान भी नहीं
हैं, मो कामको अपने हाथमे ले लेनेके पश्चात् उनसे श्री मशरूबालाजीकी रुचि भारम्भकालसे शिक्षण
अधिक पारगामितासे करेगा। कार्यकी ओर थी, इसलिए माश्रममें पहुंचकर उन्होंने राष्ट्रीयशालामें पढ़ानेका कार्य अपने ऊपर लिया। इसके
श्री मशरूवाबाजीके स्वर्गवास पर हमारे राष्ट्रपति, पश्चात् गजरात विद्यापीठके राजस्ट्रारक पदको स्वीकार
प्रधान मन्त्री, श्रीविनोबा भावेजी और अन्य नेताओं ने करने की प्रार्थना गांधीजीने उनसे की। सन ... समवेदना तथा सहानुभूति-पूण पत्र उनके सम्बन्धियोंको और १२ में मशरूवालाजी गरेज सरकार ने बिखे या वक्तव्य दिव। उनमें सबसे श्रेष्ठ प्रशंसा मुझे भेजे गये। गांधीजीके स्वर्गवासके बाद उनके दोनों साप्त प्रधान मन्त्री जवाहरलाल का और वनोबा भावेजीको हिकपरिजनजी और हरिजन संबहिन्दी बची । नेहरूजीने लिखा, 'इन सब कठिन दिनों में को सम्पादित करनेका उत्तरदायित्व मशरूवाबाजीने अपने मशरूवामाजी रस सज्जनसमूहमें रह,जी सायिक घटनामों. उपर खिया। और इस कामको बड़ी अच्छी तरह किया। के प्रवाहमें नहीं बहे बकि गांधीजीके संदेश पर सपाई
महात्माजीने रचनात्मक कार्य सिए जो भी संस्थायें सेटे रहे।" स्थापितकी मशरूवाबाजी उनको प्रबन्ध समितियोंके मुख्य श्री विनोबा भावेजीने अपने सम्बे वक्तव्यमें शोभनी सदस्यों में से थे।
मशरूवाबाजाके प्रति अपने हृदयकी समस्त सद्भावना गांधीजीने तीन अवसरों पर मशवाखाजीक सम्बन्ध बार अदाको डेड दिया है। उन्होंने मशरूमानाजीको
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किरण ७-८1
श्री सत्यभक्तजीके खास संदेश
भारमशानी कहा है। प्रो. विनोभावेनी ब.: the Porta An Epitome of Gandhian. मशरूवाबानीकोनकोई जानता पाचरनकोईराना Thoughts. 'प्रतिसा' तथा 'महावीर और महारमा उपके सम्पर्क में रहा।
पद' पाधक बन । मारूलानी ने क पुस्तकें लिखी है, जिनमें-'The गरे राष्ट्रपतिजाने टीकही कहा है कि इस Purification of Life, The Fundamon का पूरा होगा कठिन है। tals of Education, The Revolution froin
डिपीगंज, विडी ।
श्री सत्यभक्तजीके खास सन्देश
ये सन्देश सत्यभक्त पं० दरबारीलालजीकी ५४वीं वर्षगांठ (जयन्ती) के अवसर पर हालमें उनके स याश्रमवधो २५ अक्टूबरसे प्रकाशित पत्रकाद्वारा प्रचारित किए गये हैं अनेकान्त पाठकोंकी जानकारीक लिये इन्हें पत्रिका के शब्दों में ही यहाँ प्रकाशित किया जाता है
सम्पादक) इस संसारको स्वर्गोम (संयममय प्रेममय वैवमय) स्वामोजीके खास खास सम्देश येनया संसार बनाने क जिय, मनुष्यमात्र कांटुम्बिकता लाने- - ध ने अपने युग और अपने क्षेत्रमें मानवताका के लिये पू. स्वामी सत्यभक्तमाका जीवन है। स्वामीनीने पाठ पढ़ाया हामास उनका अमुक अंश युगमा हो अपने असाधारण स्याग श्रम विना और प्रतिभा जीवन- सकता है पर उसने जो भलाई की उसलिए इमे सब धर्मोके हरएक (धर्म, समाज, रामनाति, अर्थशास्त्र, का, उनके पैगम्बरों का कृतज्ञ रहकर विवेकपूर्ण सर्वधर्म भाषाशास्त्र, संस्कृति श्रादि ) में बड़े ही मौलिक सन्देश समभावी बनना है। दिये है भोर योजनाएं बनाई है, पचामसे ऊपर मलिक (इसकजिय सत्यमकजीने सब चौकी मूर्ति बमा ग्रन्थ लिखे हैं, सर्वस्वका त्यागकर अपनी सम्पत्तिसे सत्या- चित्रवाला सर्वधर्म समभावी सस्यन्दिर सस्याश्रममें श्रम संस्था खड़ीकी है (जो सोलह वर्षों में काम कर रही स्थापित किया है । सब धर्मों के देवाके नाम प्राथनामों में है) देश विदेश में हजारों मोल भ्रमणकर निर्भयता सत्य- लिये जाते है, धर्मसमभाव जनसाधारणमें उतरे इसखिये का प्रचार किया है पैदलभो भ्रमण किया है, मानपातठा अनेक व्यावहारिक योजनाएँ मापनकी है साथही सर्वधर्म भाभको पर्वाह किये बिना जनकल्याणकारी सत्यका सन्देश समभावका दर्शन और इतिहास भी निर्माण किया है। दिया है। सन्देशोंको जीवन में उतारनेक जिरे, उसे सामा २-मनुष्यमात्रकी एक जाति है।बामपान विवाह में जिक रूप देने के लिये, सत्यममाजको स्थापना कीजिसकी उनके योग्य गुणोंका ही विचार होना चाहिये । जातिपातिशाखाएँ भारत और श्राफ्रिकामें जगह जगह है। के बन्धन तोड़ देना चाहिये। हरिजन मादि भच्छे नाम
विश्वमात्रका कल्याण करने वाली योजनाको रखनाभी बेकार है। इमसे जातीयता कायम रहती। फैलानक लिये एक निमित्त रूपमें जगह जगह सस्यमक
1-प्रध.वश्व सा रूदियों प्रबोकिक चमरकारों भाविजयन्ती प्रतिवर्ष मनाई जाती है । गतवर्ष अयोध्या उत्तर
का त्याग करना चाहिये। तकपूर्ण वैज्ञानिक रमिकोण
अपनाना चाहिये । विश्वकल्याणकी कसोटीपर कसकर प्रदेश ) चौदा मध्यप्रदश ! बार्शी (बम्बई प्रान्त) किसी बातपर श्रद्धा रखना चाहिये। सरपन (मध्यभारत) उदयपुर (राजस्थान) करिया वैज्ञानिक या भौतिक सतिसेही मानव जातिका (बिहार) भादि स्थानों में सत्यभक्त जयन्ती मनाई गई
कल्याण होगा, उममें संबम ईमानदारी विश्वसनीयता थी। आपनी अपने यदा यह कार्यक्रम रखकर सत्यकार सहयोगकी भावना होगा सरूरी है। प्रचार करें! अथवा यहाँ पधारका प्रचार में सायोग माशेयके कारय किसीके अधिकार कम न होना दऔर सबपर परज कल्याण के लिये स्वामीजीको चाहिये। मायाक भेट पार श्रद्ध अलि समर्पित कर ।
-श्रमको बधुवाका नहीं महत्ताका चिन्ह सम्ममा
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३०२] अनेकान्त
[वर्ष ११ चाहियेऔर यह श्रम सूत्रमी याद रक्सो कि "श्रमका वाद! पूजीवाद) के गुणोंका समन्वय करना है। दोनोंपदवनाही श्रमका विनाम है।
में कुछ-कुछ गुण है, कुछ-कुछ दोष या शक्य दोनों.-कम कम लेकर अधिकसे अधिक देना साधुता के गुण अपनाना है। है। साधु संस्थानोंका निर्माण इसी कसौटी पर कसकर १५-चुनावको न्यायोचित बनाना है। चुनावमें होना चाहिये और साधुओंको सब तरहको जनसेवाकी धन और पदमाशीके द्वारा योग्यता गुण सेवा ईमान पराजिम्मेदारी बेना चाहिये।
जित न हो ऐसी व्यवस्था करना है। जो विचारधारा देश में E-संसारको पतनशील या दुःसमय न मानना अल्पमतमें है उसको भी उपके अनुरूप प्रतिनिधित्व मिले चाहिये, उसे समतिशील और सुख स्वरूप मानमा चाहिये। ऐसी कोशिश करना है। अवनति और दुखको दुनियाकी बीमारी समझकर इलाज (दलीय निर्वाचन प्रणालीके नाममे आपने एक ऐसी करना चाहिये।
प्रणाजी बनाई है जिससे छोटे छोटे दबके साथभी अन्याय (करीब डेढ़ सौ वर्ष में दुनिया कैसी स्वर्गापम बन न होगा । आज वो हर एक चुनाव क्षेत्र में कोई दत्त जायगी इसका सुन्दर चित्र मापने 'नया संसारमें खींचा चालीस फीसदी हो तो साठ फीसदी वाले दनसे सत्र है,जो कि सम्भव तथा उपन्यासमे भी बनकर दिल- जगह हारकर प्रान्तमें इसका प्रतिनिधित्व शून्य फीसदी चस्प है।
होमकता है। आपकी बनाई प्रयानीसे यह मन्धेर दूर हो -दानशीखता किसी व्यक्ति जीवनकी शोभा हो जाता है। सकती है पर राष्ट्रकी नहीं। राष्ट्रकी शोभा है ऐसी १६-शासकमण्डल योग्यसे योग्य श्रादमियोंका बने
और उसमें चलतेपुले न घुम जाया करें ऐसी व्यवस्था सामाजिक और कानूनी व्यवस्था जिससे हरएक मनुष्य ।
करना है। इसके लिये संविधानमें काफी संशोधन करमा अपनप जीवन निर्वाहकी काफी सामग्री पा सके, है। मन्त्रिमयज निर्माणका तरीका नया बनाना है। किसीको भिखारी न बनना पड़े।
(ये सब बाते लेखों और पुस्तकों में बताई है) .-मनुष्यमात्रकी एक मानवभाषा बनाना जरूपी
१७-शासन संस्था ऐसी माविक बनाना है कि राष्टभेद प्रान्तभेदमादिकी भेदभावना, भाषाभेदभी किसी ईमानदार भादमीकी मनमो भय हो न उसका जबर्दस्त कारण है। मानवभाषा वैज्ञानिक प्राधारपर सरल अपमान हो शासक सहयोगी और सेवकके रूप में देखा और नियमोंके अपवादोंसे रहित होना चाहिये।
जाय । साधारण अजानकारीसे जनताका अपमान न हो। (मापने एक 'मानवभाषा' का निर्माण किया है 1-दुनिय में मनुष्योंकी भीड़ है। पर हर मनुष्य
अकेली .असहाय है, मंकटमें उसे किसीका भरोसा नहीं, जिपका पूरा व्याकरण-10 दिनों बाद हो सकता है,
ऐसी स्थितिसे प्रत्येक मनुष्यका पिंड चुकाना है। शब्दकोष भातुकोषभी सरल है। टेलीग्राफी और लिपिका
११-अहिंसा सस्य ईमान शील प्रादि धमके रूपों में भी अच्छा संशोधन किया है।)
पूर्ण व्यवहारिकता लाना है और उन्हें समाजके अधिकसे "-हमारा ध्येय एक मानवराष्ट्र या पृथ्वी राष्ट्र अधिक व्यक्तियों के जीवन में उतारना है। है।पाजके राष्ट्रोंको प्रान्त बनाना है। ऐसीही उदार २०-'मैं इमी दुनियामें एक ऐसे संसारके दर्शन मनोवृत्ति और व्यवस्थाका विकास करना है जिससे मानव- करना चाहता हूँ जिम्मन साम्राज्यवाद ही न पूंजीवाद,
म धर्मके झगड़े हो न आक्केि, न धनकी महत्ता होन राष्ट्र बने।
पशुपत की, सारी दुनियाका एक राष्ट्र हो, मनुष्यमात्रकी १२-युद्धोंको गैरकानूनी ठहराना है। विश्वभरका
एक जाति हो, नर नारीका अधिकार और सम्मान समान एक निष्पा और समर्थ न्यायालय बनाना है।
हो, सस्य ही ईश्वर हो विवेक ही शास्त्र हो, विज्ञान और १-देशके राजनैतिक दलों में प्रतिस्पर्धा भलेही रहे धर्म परस्पर पूरक हो, सदाचार और ईमानदारी लोगोंका पर उनमें शत्रता न हो, झूठी निन्दाकी वृत्ति न हो, स्वभाव हा एकका पुःख सबका दु:खहो, सारे विश्वका
एक कुटुम्ब हो, कोई गरीबन हो। सत्य समाज द्वाग मैं परस्परमें असभ्य व्यवहार न हो, मतभेदको छोडकर बाकी
ऐयेही नये संसारकी वरकस संसारको ले जाना बातों में सथा देशके संकटके समय परस्पर सहयोग हो।
चाहता हूँ। नये संसारका निर्माणकर सत्य समाजको 1-मिरतिवाद स्थानपर समाजवाद और व्यक्ति- विक्षीमोलाना"
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स्व-पर गुण पहिचान
(कविवर देवीदास) स्व-पर गुण पहिचानरे, जिय स्व-पर गुण पहिचान रे। सत् परम पुरुष महानरे, जिय स्व-पर गुण पहिचान रे॥
तू सुछंद अनिंद्य मन्दिर पद अमूरत वान ।
मन वचतन-धनको पसारो, सो सकल पर जान ||१|| चेतनागुण चिन्ह तेरो, प्रगट दरशन ज्ञान । जड़ स-परसादिक सुमूरति, पुद्गलोक टुकान ॥२॥
नरक-नर-पशु-देव पदवी, धरि सुभरम भुलान ।
कर्मकी रचना सबै तू', कर्मकौ करतान ॥३॥ नांहि तेरे क्रोध माया, लोभ-मोह न मान । नांहि पुन तेरे चतुर्दश, मार्गणा गुण्ठान ।।४।।
पंच दर्व शरीर आदि, सुजड़ अचेत अयान ।
तें समस्त सुतत्त्व ज्ञायक, सहज सुक्ख निधान ॥५॥ हौ अजान होरहयौ कहा, करि मोह-मदिरा पान । खोज अंतरष्टिसौं पद, आदि अन्त पुराण ॥६॥
आपनी निरधार करि तू', निज शरीर सुछान।
म्वाद करि अनुभी महारस, परम अमृत खान ॥७॥ सहज शुद्ध स्वभाव नेरौ, मिलै जब तोहि आन । होय भाग्यवली मु-देवीदास कहत निदान ॥८॥
विश्वमें महानतम
(हिन्दुस्तान से) सबसे ऊँचा पर्वत शिखर-गौरी शङ्कर (२६००२ फुट) सबसे बड़ा रेलव-स्टेशन-बाड सेंट्रल टर्मिनल, सबसे बड़ा रेगिस्तान - सहारा (३५ लाख वर्गमील) न्यूयार्क(७ प्लेट फार्म) सबसे ऊँचा भवन-मोवियट पैलेस (१३६५ फुट ) सबसे बड़ागुम्बद-गोल गुम्वद,बीजापुर ब्यास १४४फुट सबसे बड़ा राजभवन-बैटिकन पैलेस ( पोए सबसे लम्बा दालान-रामेश्वरम मन्दिर ४०००.फुट नगरी, रोम)
सबसे बड़ा कार्यालय-पैटागोन कार्यालय, अमेरिका सबसे यड़ा जहाज-क्वीन एलिजावेथ (८३७३ टन)
जिसमें ६० लाख्न वर्गफुट फर्श है और जहां सबसे ऊँची मूर्ति-मुक्ति की मूर्ति न्यूयार्क (१५१ फुट)
३२००० कर्मचारी काम करते हैं। उसके दालानोंसबसे बड़ा हीरा--कुलीलन (६०. कैरेट)
की लम्बाई ही १७ मील है! सबसे बड़ा मोती-अरेस्फोर्ड-होप ( १००० ग्राम)
___ सबसे ऊँचा वृक्ष-जायण मिकोइया (हैम्बोस्ट स्टंट
पार्क, केलीफोर्निया), जो · ६४ फुट ऊँचाहै और सबसे बड़ा दूरवीक्षक-पालोमर वेधशालामें है,
जिसकी लकड़ी का भार ५५ हजार मन होनेका जिसका लेंस २०० इञ्च है।
अनुमान है। सबसे लम्बी रेलवे - लाइन-रिगासे हलाडिवास्टक सबसे वृहद घण्टा-मास्को का घण्टा, जो १७३३ ई. तक (६०० मील)
में ढाला गया था, वह २१ फुट काही है। सबसे लम्बा प्लेटफार्म-सोनपुर, बिहार (२४१५ फुट) उमका भार ५५५५० मन है।
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देहलीमें वीर-सेवा-मंदिर ट्रस्टकी मीटिंग
आज ०२०-१०-१६५२ दोपहरको २ बजे :-ट्रस्टियोंकी यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि बीरला. राजकाजी जैनके निवास स्थान नं. २३ सेवा-मन्दिरको सुव्यवस्थित करने और ट्रस्ट के दरियागंज, देहलीमें ट्रस्ट्रियान वीर-सेवा-मन्दिरकी एक उद्देश्यों की पूति करने के लिये रजिस्ट्रेशन मीटिंग हुई, जिसमें निम्न-महानुभाव उपस्थित थे। सुसाइटीज एक्ट के अनुसार रजिष्ट्री कराया
१-श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ट्रस्ट्री। जाय, और उसका सब विधान बाबू जय २-बाबू जय भगवान्जी एडवोकेट ।
भगवानजी जैन एडवोकेट पानीपत बनाकर ३-ला. जुगलकिशोर जी कागजी।
तय्यार करेंगे। ४-ला. रामकृष्णजी (विशेषरूपसे आमंत्रित) -यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि इस संस्थाके ५-बाबू जिनेन्द्रकिशोरजी (
)
काममें वीर निर्वाण संवतको व्यवहारमें लाया निम्न प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे पास हुग:
जाय। १-बीर-सेग-मन्दिरके स्टियोंकी यह मीटिंग
है-यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि वीर-सेवा-मंदिरम. नानकचन्दजी रिटायर्ड एस डी० पी०
का स्थायी दफ्तर देहलीमें रहेगा। सामावा, इस्ट्री वीर-सेवा-मन्दिरके आकस्मिक निधन पर शोक प्रस्ताव करती है तथा उनके १०-यह कमेटी प्रश्नाव करती है कि इस सम्थाके कुटुम्धियोंमे उनके इस वियोग जन्य दु.खमें निम्न कार्यों के लिये यथा साध्य योग्य विद्वानोंकी हार्दिक समवेदना प्रकट करती है।
योजना की जाय। इस प्रस्तावकी एक कापी उनके पुत्र डा. १-अनेकान्त सम्पादन । अमरचन्दजी सरसावाके पास भेजी जाय।
-जैन प्रन्थोंका अग्रेजीमें अनुवाद । २-यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि बाबू नानकचन्द- ३-पुरातत्वको खोज और तत्सम्बन्धी साहित्यका जीके रिक्त स्थान पर डा. श्रीचन्दजी जैन संगल
प्रकाशन। एटाको ट्रम्दा ना जाता है।
११-यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि दरियागंज -यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि वीर-सेवा-मन्दिर
नं. २१ में जो जमीन हाल में बा० छोटेलालजी ट्रस्टके निम्न तीन व्यक्ति ट्रस्टी चुने गए-ला.
व नंदलालजी कलकत्तने अपनी स्वर्गीया माताजीराजकृष्ण जी, था. जिनेन्द्रकिशोर जी देहली
की ओरसे ४० हजारमें संस्थाको खरीद करवा दी और सेठ छदामीलालजी फिरोजाबाद।
है उसके लिये यह कमेटी उन दोनों सज्जनोंको ४- यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि वीर-सेवा-मन्दिर
हार्दिक धन्यवाद प्रदान करती है। और यह आशा के भावी कार्यक्रमकी रूप-रेखा बा० जय भगवान
करती है कि उनका कमेटीको हार्दिक सहयोग जी एडवोकेट पानीपत तय्यार करें।
सदा प्राप्त होता रहेगा। ५-यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि या० नेमचन्दजी
१२-यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि वीर-सेवा-मंदिरवकील सहारनपुरका मन्त्रीपदसे स्तीका पेश १५
के दफ्तरके लिये ला० राजकृष्णजी जैन देहलीने हुमा जो सर्वसम्मतिसे पास हुभा और उनके
एक वर्ष के लिये बिना किसी किरायेके जो मकान स्थान पर बाबू जय भगवानजी एडवोकेट पानीपत मन्त्री
दिये हैं उनके लिये यह ट्रस्ट कमेटी उन्हें धन्यवाद चुने गए।
प्रदान करती है। ६-यह कमेटी प्रस्ताव करती है कि लाला राजकृष्णजी बीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट के कार्यालयकी व्यवस्था
-बा. जयभगवानजी एडवोकेट व निरीक्षण करते रहें।
मन्त्री वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट
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वीर सेवामन्दिरके चौदह रत्न
(१) पुरातन जैन वाय- उची
उद्ध
प्राकृतक प्राचीन ६४ मूल ग्रन्थोंकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों में दूसरे पथोकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २२३१३ पद्य-वाक्योकी सूची | संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगल किशोरजी गवेषणा पूर्ण महस्वकी १०० पृष्ठको प्रस्तावनामे अलंकृत, डा० कालीदास नाग एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword ) और डा० ए. एन. उपाध्याय एम. ए., डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से विभूषित है, शोधखोजके विद्वानोंके लिये अती उपयोगी, बड़ा साइज, मजिदद।
(२ अप्त परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञसटीक अपूर्णकृति प्राप्तोंकी यरीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर सरस और सजीव पिवेचनको लिए हुए. न्यायाचार्य प० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसं युक्त मजिद ।
(३) न्यायदीपिका - न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीक संस्कृत टिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टों अलंकृत, सजिल्द |
(४) स्वयम्भूतोत्र - समन्तभद्र भारतीका पूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दचय, समन्तभद्र-परस्य और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावना सुशोभित ।
(५) स्तुतिविद्या - स्वामी समन्तभद्रको अनोखी कृति, पापों के जानने की कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारका महत्वकी प्रस्तावनाएं अलंकृत सुन्दर जिद सहित ।
(६) श्रयात्मक मलमानण्ड - पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लको रन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद- महित चार मुख्मार श्रीजुगल किशोरी कीजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएं भूषित ।
५॥ )
(७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान परिपूर्ण समन्तभद्रकी असा वा कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुआ था। मुख्ता बांकेबिनुवाद और प्रस्तावनादिमं अलंकृत, सजिद ।
(1)
m)
(घ) श्रीरायासी -- श्राचार्य विद्यानन्दचित, महत्वको स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित | (1) शासनचतुस्त्रिका - ( तीर्थ-परिचय ) - मुनि मदनकांतिको १३ वीं शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादित महित |
...
(२० सत्माधू-स्मरण मंगलपाठ - श्रीवीर वद्धमान और उनके बाद के २१ महान् चाचार्योंक १३७ पुण्य स्मरणोंका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवादादि सहित । (११) विवाहसमुद्देश्य- मुख्तारश्रीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और सास्विक विवेचन १०) अनेकान्त-रस लहरी - श्रनकान्त जैसे गृह गम्भीर विषयका प्रतीच सरलता से समझने-समझाने की कुंजी मुख्तार श्रीजुगलकिशोर लिखित |
...
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...
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...
1)
(१३) अतित्यभावन - श्रीपद्मनन्दी श्राचार्यकी महत्यमा रचना, मुक्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ
साइत ।
り
(१०) तन्त्रार्थसूत्र - ( प्रभाचन्द्रीय ) - मुख्तारी के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त नोट- ये सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालों की ३७॥) की जगह ३० ) में मिलेंगे ।
1)
(1)
1)
व्यवस्थापक 'वीर सेवामन्दिर - ग्रन्थमाला' अहिसा मन्दिर बिल्डिंग १, दरियागंज, देहली
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Regal. .No. D. 211 RECENT
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
_ 'अनेकान्त' पत्रको स्थायित्व प्रदान करने और सुचारू रूपसे चलानेके लिये कलकत्तामें गत इन्द्रध्वज-विधानके अवसर पर (अक्तूबरमे) संरक्षकों और सहायकोंका एक नया 1 आयोजन हुआ है। उसके अनुसार २५१) या अधिकको सहायता प्रदान करने वाले सज्जन ॥ 'संरक्षक' और १०१) या इससे ऊपरको सहायता प्रदान करने वाले 'सहायक' होते है। अब तक 'अनेकान्त' के जो ‘संरक्षक' और 'सहायक' बने है--उनके शुभ नाम निम्न प्रकार है :--
१५००) बा० नन्दलालजी मगवगी, कलकना २.१) ला० रघवीर्गमहजो, जनावाचकम्पनी,देहल' २५१) बा० छोटेलालजी जैन ।
१०१) ला० परमादीलाल भगवानदामजी पाटनी, २५.) बा. मोहनलाल जी जैन "
१०५) वा. लाल चन्दजी बी० मठी. उज्जैन २५.) लाल गल जागेमल ऋपभदाम जी । १०१) वा. घनश्यामदाम बनारमोदामजी, कलकना। २५१) बा० ऋपभचन्द्रजी (M.R.C.) जन" १०१) वा० सालचन्द्रजी जन मगवगी " २५१) बा. दीनानाथजी सगवगी
१०१) बा. मातीलाल मक्खनलाल जी, कलकना २५१) बा. रतनलालजी झाझरी
१०१) बा. बद्रीप्रमाजी मगवगी २५१) सेट बल्देवदामजी जन
१०१) बाकागीनाथ जी, कलना २५१) मेट गजगजजी गगवाल
१०१) बा. गापीचन्द पचन्दजी २५१) मेठ मुआलालजी जन
१०१) बा० धनजयकुमारजी २५१) वा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) वा. जीनमरजी जन २५१) मेट मागीलालजी
१०१) बा. चिजीलाल जी गगवी " २५१) सेठ शान्तिप्रमाद जी जैन
१०१) बा. र नला. चाँदमल जी जैन, गची AN२५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया १०१)ला. महावीरप्रमादजी टीदार, देहली
२५१) ला० कपूरचन्द्र धपचन्द्र जी जैन, कानपुर १०१) ला• रतनलाल जी मादीपुग्यिा, देहलो २५१) बा. जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) श्री फतेहपुर स्थित जन समाज, कलकत्ता २५१) ला. गजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) गानमहायक सदर बाजार, मेण्ट २५१) बा० मनोहरलाल नन्हमलजी. देहली ०१) श्री बीमाला देवी धर्मपन्नी डा० श्रीचन्द्र २५१) ला. त्रिलोकचन्द्र जी, महारनपुर
जी जैन 'सगल' एटा ॥ M२५१) सेठ छदामीलाल जी जेन, फीरोजाबाद १०१) ला० मक्खनलालजी ठेकेदार, देहली २५१) वा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली
___ अधिष्ठाता 'चीर-सेवामन्दिर' ।
मग्मावा, जि. महारनपुर । DDDDDDDDDD परमानन्द जैन शास्त्री। धमीमल धरमदाम, चावडी बाजार, देहली। मद्रक--नेशनल प्रिटिग वर्म. १० ग्यिागज. देहली
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श्री वीर-जिनका
Iसवादयताथा
सर्वाऽन्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं सर्वाऽन्त-शून्यच मियोऽनोख्यम सर्वा पदामन्तकरं निरन्त सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
वीर जिनालय।
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FARMER
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सत् स्क। नित्यमम पुग्यालोक स्वभाव
मामान्य असत् अनेकअनित्य जजमान पापपरलाक/ विभाचपाया विशीष्ट
CICINEMA
हिताहिप्सासम्बाहामासापेक्षा देवनयाजुक्तिाशुसिामान्मा। Mअहिलअनिसा मिथ्या विद्या नेरपक्षपुरुषाचं प्रमाण अंगम/एम/परमात्मा/
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दय/दम/त्याग/समाधि
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मित्री प्रमोद कारुण्य
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समता निर्भयता निम्हता लोकसेवा
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११.
तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधे
व्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कलौ -येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्तत :
--कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपति वीरं प्रणोमि स्फुटम् ॥ :
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विषय-सूची
३३२
૩૩૨
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लेखकों और कवियोंसे
श्री वर्द्धमान-स्तवनम्"
३०५ वीर मेयामंदिर को प्राप्त महायता समंतभद्र वचनामृत-[युग वीर
मंग्क्षकों और महायकामे प्राप्त सहाता नाजिनदासका एकजात रूपक काव्य-अगरचंद नाहटा ३१३ महाकवि रहधू-पं. परमानंद जैन शाम्बी ३११
ब्रह्म जिनदास -[पं० परमानंद जैन शास्त्री ३३३ संस्कृतका अध्ययन जातीय चेतनाके लिये ३२६ माहित्य परिचय और ममालांचन-परमानंद जैन ३३४ आवश्यक-[ राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रमादजी ३२६ श्रादर्श विवाह
३३६
भ्रम निवारण जैन समाजके मुलभूत सिद्धान्तोंका छ इतिहासका अनेकान्त वर्ष ११ किरण ७-८ में विरोध और प्रचार करने वाला तथा पुरातत्त्व शिलालेखा आदिका मामंजम्य' नामका डा. हीरालालजी नागपुरका जो लेख परिचय कराने वाला प्रमुग्ध पत्र 'अनेकाम्त' जैन समाजक बिना किसी पम्पादकीय टिप्पणीक छपा है उसमे अनेकांत लेखकों व कहानीकारको और कवियांसे अपनी रचनाएँ पाठकोंको ऐमा भ्रम हो गया है कि क्या अनेकान्तके भंजनेके लिये श्राह्वानन करता है। .
संचालक भी उस लेग्बकके मन्तव्यास सहमत हैं । इम अतः लंग्वक कहीनीकार और कवि बन्धु माहित्यिक विषयमे यह स्पष्ट कर देना श्रावश्यक है कि अनेका संद्धान्तिक, रचनाएँ अनेकान्तमें भेजकर जैनधर्मके प्रचार मंचालक उस लेग्वकके मन्तव्यास सहमत नहीं है जो व प्रसारमं अपना पूर्ण सहयोग देनेकी कृपा करें। विद्वान् डा. साहयक लेखका संयत भाषामें प्रामाणिक
व्यवस्थापक-अनेकान्त उत्तर दंगे वह अनेकान्तमें प्रकाशित कर दिया जायगा। १ दरियागंज देहली।
व्यवस्थापक-'अनेकान्त'
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग
(.)अमेकान्तके 'संरच-तथा 'सहायक'बममा और बनाना। (१) स्वयं भनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बमाना । () विवाह-शादी धादि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजमा तथा भिमवाना। (.)अपनी पोरसे दूसरोंको अनेकान्त भेट-स्वरूप अथवा फ्री मिजवाना; जैसे विद्या-संस्थानों, बायरियों,
सभा-सोसाइटियों और जैन-मजैन विद्वानोंको। (१) बिचाथियों मादिको बनेकान्त अर्थ मूल्यमें देनेके खिते २२), २.) भादिकी सहायता भेजना।२१)की ___ सहायता को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (1)भनेकाम्तके प्राहकोंको मच्छे ग्रन्थ पहारमें देना व्या दिनाना। (.)ोकहितकी साधनामें सहायक मछे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुरामा।
सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:मोर-स प्राहक बनानेवाले सहायकोंको
मैनेजर-'अनेकान्त' 'भनेकान्त' एक वर्ष तक भेंट
वीरसेवामन्दिर, अहिंसा मन्दिर बिल्डिंग स्वरूप भेजा जायगा।
१, दरियागंज, देहली
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AGORE
तत्त्व-सपातिक
बतत्व-प्रकाशक
वापिक मूल्य ५) AmmmmHERI
इस किरण का मूल्य )
नीतिविरोषध्यसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त।
वर्ष ११ किरण
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ) वीरसेवामन्दिर, अहिंसामन्दिर बिल्डिग १,दरियागंज, देहली
र्गिशीर्ष शुक्ल, वीर नि० सं० २५७६, वि० सं० २००६
नवम्बर ११५२
श्रीवर्द्धमान-स्तवनम्
(अज्ञातकर्तृक) सजल-जलधि-सेतु-दु:खविध्वंसहेतु-निहतमकरकेतु-रितानिष्टहेतुः । क्वणितसमरहेतु -नहनिःशेषधातु -जयति जगति चन्द्रो वईमानो जिनेन्द्रः ॥१॥ समयसदनकर्ताऽसारसंसारहर्ता, सकल-भुवनभर्ता भूरिकल्याण-धर्ता । परमसुखसमर्ता सर्वसन्देहहर्ता, जयति जगति - चन्द्रो वर्द्धमानो जिनेन्द्रः ॥२॥ कुगतिपथविनेता मोक्षमार्गस्थ नेता, प्रकृति-गहन-हन्ता तस्वसंघातवेत्ता।। गगनगमनगन्ता मुक्तिरामाभिकान्तो, जयति जगति चन्द्रो वर्षमानो जिनेन्द्रः॥३॥ सजलजसदनादो निर्जितायोषवादो, यतिवरनुतपादो वस्तुतत्वज्ञगादः। जपति भविकवृन्दो नष्टकोपाग्निकन्दो, जयति जगति चन्द्रो बईमानो जिनेन्द्रः॥४॥ प्रबलबलविशालो मुक्तिकान्तारसालो, विमनगुथसरानो नित्यकलोलमालः। विगतशरणसालो धारितस्वच्छभालो, जयति जगति चन्द्रो बर्दमानो जिनेन्द्रः॥॥ मदनमदविदारी चारुचारित्रधारी, नरकगतिनिवारी स्वर्गमोजावतारी । विदितमुवनसारी केवलज्ञानधारी, जयति जगति चन्द्रो बईमानो जिनेन्द्रः ॥ विषय-विष-विनाशो भूरिभाषानिवासो, गतभव-भयपाशो कान्तिवल्लीविकाशः करणसुखनिवासो वर्णसम्यूरिताशो, जयति जगति चन्द्रो वर्षमानो जिनेन्द्रः॥॥ वचनरचनधीर पाप-पूखी समीरः कनकनिकरगौरः रकमरियरः। कलुषदहननीरः पातिताउनावीरी, जयति जगति चन्द्रो बईमानो जिनेन्द्र
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समन्तभद्र-वचनामृत
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दिग्ववमनदाटतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । पापकी ही नहीं बल्कि सूक्ष्म पापकी मी निवृत्ति । मनसा यनिताया और यह तभी हो सकती है जब उस मर्यादा-बाह्य
क्षेत्रमें मनसे वचनसे तथा कायसे गमन नहीं किया ___'आर्यजन-तीर्थकर-गणधरादिक उत्तमपुरुष- जायगा। और इसलिये संकल्प अथवा प्रतिज्ञामें स्थित दिग्नत, अनथदण्डनत और भोगोपभोगपरिमाण (ब्रत) 'बहिर्न यास्यामि' वाक्य शरीरकी दृष्टि से ही बाहर न को 'गुणवत क्योंकि ये गुणोंका अनुहण जाने का नहीं बल्कि वचन और मनके द्वारा भी बाहर करते हैं-पूर्वोक्त आठ मूलगुणोंकी वृद्धि करते हुए न जानेका सूचक है, तभी सूक्ष्म-पापको विनिवृत्ति बन उनमें उत्कर्षता लाते हैं।
सकती है। ___ व्याख्या-यहां 'गुणवतानि' पदमें प्रयुक्त हुआ मकराकर-सरिदटवी-गिरि-जनपद-योजनानिमर्यादा 'गुण' शब्द गुणोंका (शक्तिके अंशोंका) और गौणका प्राहुर्दिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥६॥ वाचक नहीं है, बल्कि गुणकार अथवा वृद्धिका वाचक 'दशों दिशाओंके प्रतिसंहारमें-उनके मर्यादीहै, इसी बातको हेतुरूपमें प्रयुक्त हुए 'अनुहनात्' - पदके द्वारा सूचित किया गया है।
" करणरूप दिग्व्रतके ग्रहण करनेमें प्रसिद्ध समुद्र, नदी,
अटवी (वन), पर्वत, देश-नगर और योजनोंकी गणना दिग्वलयं परिगणितं कृत्वा तोऽहं बहिर्न यास्यामि। ये मर्यादाएं कही जाती हैं। अथात् दिग्वतका सङ्कल्प इति संकल्पोदिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्यै ॥६॥ करते-कराते समय उसमें इन अथवा इन जैसी दूसरी
दिग्विलयको-दशों दिशाओंको-मर्यादित करके लोकप्रसिद्ध मर्यादाओंमेंसे किसी न किसीका स्पष्ट जो सूक्ष्म पापकी निवृत्तिके अर्थ मरण पर्यत के लिये यह उल्लेख रहना चाहिये। संकल्प करना है कि 'मैं दिशाओंकी इस मर्यादासे अवघेवहिरणुपाप-प्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयताम् । बाहर नहीं जाऊँगा' उसको दिशाओंसे विरविरूप पंचमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥७०॥ 'दिग्नत' कहते है।
'दिशाओंके व्रतोंको धारण करने वालोंके अणुव्रत, व्याख्या-जिस दिग्वलयको मर्यादित करनेकी मर्यादाके बाहिर सूक्ष्म पापोंकी निवृत्ति हो जानेके बात यहां कही गई है वह पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर कारण, पंच महाव्रतोंकी परिणतिको उतने अंशोंमें ऐसे चार दिशामों तथा अग्नि, नैऋत,वायव्य, ईशान महावतों जैसी अवस्थाको प्राप्त होते हैं । ऐसे चार विदिशाओं और ऊर्ध्व दिशा एवं अधोदिशा
व्याख्या-जब दिखतोंका धारण-पालन करने को मिलाकर दश दिशाओंके रूपमें है, जिनकी मर्या
पर अणुव्रत महाव्रतोंकी परिणतिको प्राप्त होते हैं तब दामोंका कुछ सूचन अगलो कारिकामें किया गया है। दिखत गणव्रत हैं। यह बात सहजमें ही सष्ट हो जाती यहां पर इतना और बान लेना चाहिये कि यह मर्यादी
है और इसका एक मात्राधार मर्यादित क्षेत्रके बाहर करण किसी अल्पकालकी मयोदा के लिये नहीं होता,
इम पापसे भी विरक्तिका होना है। बल्कि यावजीवन प्रथमा मरणपर्यन्त के लिये होता है, इसीसे कारिकामें 'मामति' पदका प्रयोग कि प्रत्याऽख्यान-तनुत्वान्मन्दतराश्चरणमोह-परिणामा है। और इसका उद्देश्य है भवधिके बाहर स्थित सत्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते ॥७॥ क्षेत्रके सम्बन्ध भणुपापकी विनिवृत्ति अर्थात् स्थूल 'प्रत्याख्यानके कृश होनेसे-प्रत्याख्यानावरणरूप
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सनन्तभद्रवचनामृत
[३०७
द्रव्य क्रोध-मान-माया-लोभ नामक कर्मोंका मंद उदय होने अभ्यंतरं दिगवघेरपार्थकेभ्यः सपापयोगेभ्यः। के कारण-चारित्रमोहके परिणाम-क्रोध-मान-माया- विरमणमनर्थदण्डव्रत विदुतघराण्यः ॥७४ लोभके भाव-बहुत मंद हो जाते हैं। (यहां तक कि)
क) दिशाओंकी मर्यादाके भीतर निष्प्रयोजन पाप. अपने अस्तित्वसे दुरवधार हो जाते हैं-सहजमें
योगोंसे-पापमय मन, वचन, कायकी प्रवृत्तियोंसे-जो लक्षित नहीं किये जा सकते-वे परिणाम महाव्रतके
विरक्त होना है उसे व्रतधारियोंमें अप्रणी-तीर्थकरालिये प्रकल्पित किये जाते है- उन्हें एक प्रकार अथवा दिक देव-'अनर्थदण्डवत' कहते है। उपचारसे महाव्रत कहा जाता है।'
व्याख्या-यहां पापयोगका-अपार्थक ( निष्पपंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवचःकायैः।।
योजन) विशेषण खास दौरसे ध्यान देने योग्य है और कृत-कारिताऽनुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम्।।७२ इस बातको सूचित करता है कि मन-वचन-कायकी जो
'हिंसादिक पांच पापोंका-पापोपार्जनके कारणों- पापप्रवृत्ति स्थूलत्यागके अनुरूप अपने किसी प्रयोका-मनसे, वचनसे, कायसे, कृतद्वारा, कारित- जनकी सिद्धिके लिये की जाती है उसका यहां ग्रहण
नहीं है, यहाँ उस पापप्रवृत्तिका ही ग्रहण है जो द्वारा, और अनुमोदन-द्वारा जो त्याग है-अर्थात्
निरर्थक होती है, जिसे लोकमें 'गुनाह बेलज्जत' भी नव प्रकारसे हिंसादिक पापोंके न करनेका जो दृढ
कहते हैं और जिससे अपना कोई प्रयोजन नहीं सङ्कल्प है-उसका नाम 'महाव्रत' है और वह महा
सधता, केवल पापही पाप पल्ले पड़ता है। पापयोगका त्माओंके-प्रायः प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवत्ति
यह 'अपार्थक' विशेषण अनर्थदण्डके उन सभी भेदोंविशिष्ट आत्माओंके-होता है।
के साथ सम्बद्ध है जिनका उल्लेख अगली कारिकाओं व्याख्या-यहां पापोंके साथमें स्थूल जैसा कोई में किया गया है। विशेषण नहीं लगाया गया, और इसीलिये यहां स्थूल पापोपदेश-हिंसादानाऽपध्यान-दुःश्र तीः पंच। तथा सूक्ष्म दोनों प्रकारके सभी पापोंका पूर्ण रूपसे प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः॥७॥ त्याग विवक्षित है।
'पापोदेश, हिंसादान, अपध्यान, हुश्रुति (और) ऊर्ध्वाऽधस्तात्तिर्यग्व्यतिपात-क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम्। प्रमादचर्या, इनको अदण्डधर-मन-वचन कायके विस्मरणं दिग्विरतरत्याशाः पंच मन्यन्ते ॥७३॥ अशुभ व्यापारको न धरने वाले गणधरादिकदेव(अज्ञान या प्रमादसे) उपरकी दिशा मर्यादाका
" पांच अनर्थदण्ड बतलाते हैं-इनसे विरक्त होनेके उल्लंघन, नीचेकी दिशामर्यादाका उल्लंघन, दिशाओं
कारण अनर्थदण्ड ब्राके पांच भेद कहे जाते हैं। विदिशाओंको मर्यादाका उल्लंघन, क्षेत्रवृद्धि-क्षेत्रकी तियकक्लेश-वणिज्या-हिंसारम्भप्रलमनादीनाम। मर्यादाको बढ़ा लेना-तथा को हुई मर्यादाओंका भूल कथा-प्रसंग-प्रसवः स्मर्तव्यः पापउपदेशः ॥७६॥ जाना, ये दिग्वतके पांच अतिचार माने जाते हैं। 'तियेच्चोंके वाणिज्यकी तथा क्लेशात्मक-वाणि__ व्याख्या-यहां दिशाभोंकी मर्यादाका उल्लंघन व्यको या तियचकिक्लेशकी तथा क्रय विक्रयादि और क्षेत्रवृद्धिको जो बात कही गई है वह जान बूझ- -
रूप वाणिज्यकी अथवा तिर्यब्चोंके लिये जो क्लेश रूप कर की जाने वाली नहीं बल्कि अज्ञान तथा प्रमादसे
हो ऐसे वाणिज्यकी, हिंसाकी-प्राणियोंके वधको-, होनेवाली है; क्योंकि जान बूझकर किये जानेसे तो आरम्भकी-कृष्यादिरूप सावद्यकोंकी- प्रलव्रत भंग होता है-अतिचारकी तब बात नहीं म्मनका-प्रवचना-ठगाका-, ओर 'आदि' शब्दसे रहती।
मनुष्यक्लेशादि विषयोंकी कथानोंके ( न्यथ ) प्रसंग
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२०८ ]
aster 'पापोपदेश' (पापात्मक उपदेशं ) नामका अनर्थदण्ड जानना चाहिये ।'
अनेकान्त
व्याख्या- यहां जिस प्रकारकी कथाओंके प्रसंग छेड़ने की बात कही गई है वह यदि सत्य घटनाओंके प्रतिपादनादिरूप ऐतिहासिक दृष्टिको लिये हुए हो, जैसा कि 'चरित-पुराणादिरूप प्रथमानुयोगके कथानकोंमें कहीं-कहीं पाई जाती है, तो उसे व्यर्थ अपार्थ रु या निरर्थक नहीं कह सकते, और इसलिये वह इस अनथदण्डव्रतकी सीमाके बाहर है। यहां जिस पापोपदेशके लक्षणका निर्देश किया गया है उसके दो एक नमूने इस प्रकार हैं :--
१. 'अमुक देशमें दासी दास बहुत सुलभ हैं उन्हें श्रमुक देशमें ले जाकर बेचनेसे भारी अर्थ लाभ होता है.' इस प्रकार आशयको लिये हुए जो कथा प्रसंग है वह 'क्लेश- वणिज्या' रूप पापोपदेश है।
लेकर
२. 'अमुक देश से गाय-भैंस - बैलादिको दूसरे देशमें उनका व्यापार करनेसे बहुत धनकी प्राप्ति होती है इस आशय के अभिव्यंजक कथाप्रसंगको 'तिर्यक् वणिज्यात्मक - पापोपदेश' समझना चाहिये ।
३. शिकारियों तथा चिड़ीमारों आदिके सामने ऐसी कथा करना जिससे उन्हें यह मालूम हो कि 'अमुक देश या जंगलमें मृग-शूकरादिक तथा नाना प्रकारके पक्षी बहुत हैं, ' यह 'हिंसाकथा' के रूपमें पापो प्रदेश नामक अनथदण्ड हैं। परशु - रूपाण खनित्र-ज्वलनायुध-शृङ्गि - शृङ्खलादीनाम् । वध हेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवंति बुधाः ॥ ७७ ॥
'फरसा, तलवार, गेंती कुदाली, अग्नि, मायुध (छुरी-कटारी-लाठी-सीर आदि हथियार) 'बष, सांकल इत्यादिक वधके कारणोंका – हिंसाके उपकरणोंका जो ( निरर्थक ) दान है उसे ज्ञानीजन - गणधराविक मुनि- 'हिंसादान' नामका अनर्थदण्ड कहते हैं।"
[ किरण
कोटिसे निकल जाता है- क्योंकि अनर्थदण्डके लक्षण में पापयोगका जो अपार्थक (निरर्थक) विशेषण दिया गया है उसकी यहां भी अनुवृप्ति है, वह 'दान' पदके पूर्व में अध्याहृत गुप्त ) रूपसे स्थित है। इसी तरह पड़ौसी या इष्ट मित्रादिकको इसलिये मांग देता है कि यदि कोई गृहस्थ हिंसाके ये उपकरण अपने किसी उसने भी अपनी आवश्यक्ता के समय उनसे वैसे उपलेनेकी सम्भावना है तो ऐसी हालत में उसका वह करणोंको मांग कर लिया है और आगे भी उसके देना निरर्थक या निष्प्रयोजन नहीं कहा जा सकता और इसलिये वह भी इस व्रतका व्रती होते हुए व्रतकी कोटि से निकल जाता है--उसमें भी यह व्रत बाबा नहीं डालता। जहां इन हिंसोपकरणों के देने में कोई प्रयोजनविशेष नहीं है वहीं यह व्रत बाधा डालता है ।
व्याख्या- यहां हिंसा के जिन उपकरणोंका उल्लेख है उनका दान यदि निरर्थक नहीं है-एक गृहस्थ अपनी आरम्भजा तथा विरोधजा हिंसाकी सिद्धिके लिये उन्हें किसीको देता है तो वह इस व्रतको
वघ-बन्धच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । ध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ७८ 'द्वेषभावसे किसीको मारने-पीटने, बांधने या उसके अंगच्छेदनादिका तथा किसीकी हार ( पराजय ) का और रागभावसे परस्त्री आदिका - दूसरोंकी पत्नीपुत्र धन-धान्यादिका तथा किसीकी जीत (जय) काजो निरन्तर चिन्तन है - कैसे उनका सम्पादन, विनाश-वियोग, अपहरण अथवा सम्प्रापण हो ऐसा जो व्यर्थका मानसिक व्यापार है-उसे जिन शासनमें निष्णात कुशलबुद्धि आचार्य अथवा गणधरादिक अपध्यान नामका अनर्थदण्ड बतलाते हैं ।"
ST
व्याख्या- यहाँ 'द्वेषात्' और 'रागात्' ये दोनों पद खास तौर से ध्यान देने योग्य हैं, जो कि अपने अपने विषयकी दृष्टिको स्पष्ट करनेके लिये प्रयुक्त हुए जिसमें किसीकी हार ( पराजय ) भी शामिल है और हैं । 'द्वेषात्' पदका सम्बंध बध-बन्ध-छेदादिकसे है 'रागात्' पदका सम्बन्ध परस्त्री आदिकसे है जिसमें किसीकी जीत (जय) भी शामिल है । बध-बन्ध-च्छेदादिका चिन्तन यदि द्वेषभावसे न होकर सुधार तथा उपकारादिकी दृष्टिसे हो और परस्त्री आदिका चिन्तन कामादि-विषयक अशुभ रागसे
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किरण ६]
सम्बन्ध न रखकर यदि किसी दूसरी ही सद्दष्टिको लिये हुए हो तो वह चिन्तन अध्यानको कोटिसे निकल जाता है । अपध्यानके लिये द्वेषभाव तथा अशुभरागमें से किसीका भी होना आवश्यक है। आरम्भ-संग-साहस- मिध्यात्व- द्वेष-राग-मद-मदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥ ७६ ॥
'समन्तभद्र वचनामृत
'(व्यर्थत्रे) आरम्भ (कृष्यादिसावद्य कर्म) परिग्रह, ( धन-धान्यादि-स्पृहा ), साहस ( शक्ति तथा नीतिका विचार न करके एक दम किये जाने वाले भारी असत्कर्म), मिथ्यात्व (एकान्तादिरूप श्रतस्त्वश्रद्धान), द्वप राग, मद, और मदन ( रति- काम) के प्रादिद्वारा चितको कलुति-मलिन करने वाले - क्रोध-मान माया लोभादिकसे अभिभूत अथवा आक्रान्त बनाने वाले-शास्त्रोंका सुनना 'दु श्रुति' नामका अनर्थदण्ड है ।'
न
व्याख्या - जो शास्त्र व्यर्थके आरंभ- परिहादि के प्रोसेजन द्वारा चितको कलुमित करनेवाले हैं उनका सुनना-पढ़ना निरर्थक है; क्योंकि चित्तका कलुषित होना प्रकट रूपमें कोई हिंसादिक कार्य करते हुए भी स्वयं पाप बन्धका कारण है । इसीसे ऐसे शास्त्रोंके सुननेको, जिसमें पढ़नाभी शामिल है, अर्थदण्ड में परिगणित किया गया है। और इसलिये wers are aतीको ऐसे शास्त्रोंके व्यर्थ श्रवणादिकसे दूर रहना चाहिये। हाँ, गुण-दोषका परीक्षक कोई समर्थ पुरुष ऐसे प्रन्थोंको उनका यथार्थ परिचय तथा हृदय मालूम करने और दूसरोंको उनके विषयकी समुचित चेतावनी देनेके लिये यदि सुनता या पढ़ता है तो वह इस का प्रती होनेपर भी दोषका भागी नहीं होता । वह अपने चित्तको कलुषित न होने देनेकी भी क्षमता रखता है । चिति-सलिल-दहन - पवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदं सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ||८०||
'पृथ्वी, जल, अग्नि तथा पवनके व्यर्थ आरम्भको- बिना ही प्रयोजन पृथ्वी के 'खोदने- कुरेदनेको, जल उछालने - छिड़कने पीटने पटकनेको, अग्निके
[༢་
जलाने-बुझानेको पवनके पंखे श्रादिसे उत्पन्न करने ताडने रोकनेको व्यर्थके वनस्पतिच्छेदको और व्यर्थ के पर्यटन पर्याटनको -बना प्रयोजन स्वयं घूमनेफिरने तथा दूसरोंके घुमाने फिरानेको- 'प्रमाचर्या' Saree wares कहते हैं।
व्याख्या- यहां प्रकट रूपमें आरम्भादिका जो 'विफल' त्रिशेषण दिया गया है वह उसी निरर्थक अर्थ का द्योतक है जिसके लिये अर्थदण्डके लक्षणप्रतिपादक पद्म (७४) में 'अपार्थक' शब्दका प्रयोग किया गया है और जो पिछले कुछ पद्योंमें अध्याहृत रूपसे चला जाता है। इस पथ में वह 'अन्तदीपक' के रूपमें स्थित है और पिछले विवक्षित पयों पर भी अपना प्रकाश डाल रहा है। साथ ही प्रस्तुत पद्यमें इस बातको स्पष्ट कर रहा है कि उक्त आरम्भ, बनस्पतिच्छेद तथा सरण - सारण ( पर्यटन -पर्याटन ) जैसे कार्य यदि सार्थक हैं- जैसा कि गृहस्थाश्रमकी भावश्यकताओं को पूरा करनेके लिये प्रायः किये जाते हैंतो वे इस बनके व्रती के लिये दोषरूप नहीं है। कंदर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधनं पंच । असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोनर्थदंड कृद्विरतेः ८१
'कन्दर्प- कामविषयक रागकी प्रबलता से प्रहास मिश्रित ( हंसी ठट्टेको लिये हुए) भएड (अशिष्ट) वचन बोलना, कौत्कुच्य- हँसी-ठट्ठे और भण्ड वचनको साथमें लिये हुए कायकी कुचेष्टा करना, मौखर्य - ढीठपनेत्री प्रधानताको लिये हुए बहुत बोलना-बकवाद करना, अतिप्रसाधन-भोगोपभोगकी सामग्रीका आवश्यकता से अधिक जुटा लेनाऔर असमीयाऽधिकरण-प्रयोजनका विचार न करके कार्यको अधिक रूपमें कर डालना - ये पाँच अनर्थदण्डव्रत के अतिचार हैं।' अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अर्थवतामप्यवधौ राग-रतीनां तनुकृतये || २ ||
'रागोद्र कसे होनेवाली विषयों में आसक्तियोंको कुश करने- घटानेके लिये प्रयोजनीय होते हुए भी इंद्रियविषयोंको जो अवधिके अन्तर्गत - परिमहपरिमाण
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॥द पाशतप्रमाद-
पातय
भीर दिग्नतम ग्रहणका हुइ अवधियाँके भीतर-परि- 'जो पांचेन्द्रियविषय-पांचों इन्द्रियोंमें से किसीगणना करना है-काल मर्यादाको लिये हुए सेव्या- का भी भोग्य पदार्थ-एक बार भोगने पर त्याज्य हो ऽसेव्यरूपसे उनकी संख्याका निर्धारित करना है-' जाता है-पुनः उसका सेवन नहीं किया जाता-वह उसे भोगोपभोग' नामका गुण व्रत कहते हैं। भोग' है; जैसे अशनादिक-भोजन-पान-विलेपनादिक।
व्याख्या-यहां 'अक्षार्थानां' पदके द्वारा परि- और जो पांचेन्द्रिय विषय एक बार भोगने पर पुनः (बारप्रदीत ईदियविषयोंका अभिप्राय स्पर्शन, रसना, घ्राण, बार) भोगनेके योग्य रहता है-फिर-फिरसे उसका चन, और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियोंके विषयभूत सभी सेवन किया जाता है-उसे 'उपभोग' कहते हैं; जसे पदार्थोसे है, जो असंख्य तथा अनन्त है। वे सब दो
वसनादिक-वस्त्र, आभरण, शोभा-सजावटका सामान, भागोंमें बंटे हुए है-एक 'भोगरूप' और दूसरे 'उप
सिनेमाके पर्दे, गायनके रिकार्ड श्रादिक ।' भोगरूप, जिन दोनोंका स्वरूप अगली कारिकामें बत- .
सहति-परिहरणार्थनौद पिशितं प्रम द-परिहतये लाया गया है। इन दोनों प्रकारके पदार्थों में से जिस जिस प्रकारके जितने जितने पदार्थोंको इस व्रतका व्रती मद्य च वर्जनीयं जिनरचरणौ शरणमुपयातै|४॥ अपने भोगोपभोगके लिये रखता है वे सेव्य रूपमें 'जिन्होंने जिन-चरणोंको शरणरूपमें (अपायपरिगणित होते हैं, शेष सब पदार्थ उसके लिये असेव्य परिरक्षक-रूपमें प्राप्त किया ह-जो जिनेन्द्र देवके हो जाते हैं. और इस तरह इस व्रतका व्रती अपने उपासक बने हैं-उनके द्वारा त्रसजीवोंकी हिंसा अहिसादि मूलगुणोंमें बहुत बड़ी वृद्धि करने में समर्थ
टालनेके लिये 'मधु' और 'मांस' तथा प्रमादकोहो जाता है । उसकी यह परिगणना रागभावोंको
चित्तकी असावधानता-अविवेकताको दूर करनेके घटाने तथा इन्द्रियविषयोंमें आसक्तिको कम करनेके उद्देश्यसे की जाती है। यह उद्देश्य खास तौरसे लिये मद्य-मदिरादिक मादकपदार्थ-वर्जनीय हैंध्यानमें रखने योग्य है। जो लोग इस उद्देश्यको अथात् ये तीनों दूपित पदार्थ भोगोपभोगके परिमाणलक्ष्यमें न रखकर लोकदिखावा, गतानुगतिकता, में ग्राह्य नहीं है, श्रावकोंके लिये सर्वथा त्याज्य हैं। पूजा-प्रतिष्ठा, ख्याति, लाभ आदि किसी दूसरी ही व्याख्या-यहां 'त्रसहतिपरिहरणार्थे' पदके द्वारा रष्टि सेव्यरूपमें पदार्थों की परिगणना करते है वे मांस तथा मधुके त्यागकी और 'प्रमादपरिहतये पदके इस व्रतकी कोटि में नहीं आते।
द्वारा मद्यके त्यागकी दृष्टिको स्पष्ट किया गया है। यहां पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि अर्थात् प्रसहिंसाके त्यागकी दृष्टिसे मांस तथा मधुका इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों की यह परिगणना उन त्याग विवक्षित है और प्रमादके परिहारकी दृष्टिसे पदार्थों से सम्बन्ध नहीं रखनी जो परिप्रहपरिमारणव्रत मद्यका परिहार अपेक्षित है, ऐसा घोषित किया गया और दिग्वतकी ही सीमाओंके बाहर स्थित है- है। और इसलिए जहां विवक्षित दृष्टि चरितार्थ नहीं वे पदार्थ तो उन व्रतोंके द्वारा पहले ही एक होती वहां विवक्षित त्यागभी नहीं बनता। इन पदार्थोंप्रकारसे त्याज्य तथा असेव्य हो जाते हैं । अतः उक्त के स्वरूप एवं त्यागादि विषयका कुछ विशेष कयने व्रतोंकी सीमाओंके भीतर स्थित पदार्थों में से कुछ एवं विवेचन अष्टमूलगुण-विषयककारिका (६६) की पदार्थों को अपने भोगोपभोगके लिये चुन लेना ही व्याख्या गया है अतः उसको फिरसे यहां देनेकी यविवक्षित है-भले ही वे दिग्वतमें ग्रहण की हुई जरूरत नहीं है। क्षेत्र-मर्यादाके बाहर उत्पन्न हुए हों। इसी बातको बत- ,
त: अन्पफल-बहुविधातान्मूलकमाणि शृजवेराणि। लानेके लिये कारिकामें 'अवधौ' पदका प्रयोग किया गया है।
'नवनीत-निम्ब-कुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् ॥८॥ भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनथ भोक्तव्यः। 'अल्पफल और बहु विघातके कारण (अप्रासुक) उपमोगोष्शनवसनप्रभृतिः पाञ्चेन्द्रियोविषयः॥८३ मूलक-मूली आदिक-नया आई शृङ्गवेर प्रादि
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किरण ) समन्तभद-वचनामृत
[३११ सचित्त अथवा अप्रासुक अदरकादिक, नवनीत- और 'प्रासुकस्य भक्षणे नो पापः'-प्रासुक पदार्थ(मयांदासे बाहरका ) मक्खन, नीमके फूल, केतकी- के खानेमें कोई पाप नहीं- इस उक्तिके अनुसार वे के फूल, ये सब और इसी प्रकारकी दूसरी चीजें भी ही कन्द-मूल त्याज्य हैं जो प्रासुक तथा अचित नहीं हैं (जिनेन्द्र देवके उपासकोंके लिये त्याज्य हैं-अर्थात और उन्हींका त्याग यहां 'चाद्राणि' पदके द्वारा विवभावकोंको भोगोपभोगकी ऐसी सब चीजोंका त्यागही क्षित है । नवनीत (मक्खन) में अपनी उत्पत्तिसे कर देना चाहिये, परिमाण करनेकी जरूरत नहीं
अन्तमुहूर्तके बाद ही सम्मूच्र्छन जीवोंका उत्पाद होता जिनके सेवनसे जिह्वाकी तृप्ति आदि लौकिक लाभ तो है अतः इस काल-मयोदाके बाहरका नवनीत ही यहा बहुत कम मिलता है किन्तु त्रस और स्थावर जीवोंका त्याज्य-कोटिमें स्थित है-इससे पूर्वका नहीं; क्योंकि बहुत घात होनेसे पापसंचय अधिक होकर परलोक
जब उसमें जीव हो नहीं तब उसके भक्षण में बहुघातबिगड़ जाता है और दुःखपरम्परा बढ़ जाती है।
को बात तो दूर रही अल्पघातकी बात भी नहीं बनती। व्याख्या- यहां 'मूलक' पद मूलमात्रका द्योतक
नीमके फूल अनन्तकाय और केतकीके फूल बहुहै और उसमें मूली-गाजर-शलजमादिक तथा दूसरी
जन्तुओंके योनिस्थान होते हैं। इसीसे वे त्याज्यकोटिवनस्पतियों की जड़ें भी शामिल हैं। 'शृङ्गवेराणि' पदमें मस्थित है। अद्रकके सिवा हरिद्रा (हल्दी), सराल, शकरकन्द,
यहां पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि जमीकन्दादिक वे दूसरे कन्द भी शामिल है जो अपने
'अल्पफलबहुविघातात' पदके द्वारा त्यागके हेतुका अंगपर श्रमकी तरहका कुछ उभार लिये हुए होते हैं
निर्देश किया गया है, जिसके अल्पफल और बहुविऔर उपलक्षणसे उसमें ऐसे कन्दोंका भी ग्रहण आ
घात ये दो अङ्ग हैं। यदि ये दोनों अङ्ग एक साथ न जाता है जो श्रृङ्गकी तरहका कोई उभार अपने अंगपर
हों तो विवक्षित त्याग चरितार्थ नहीं होगा, जैसे बहु
फल अल्पघात, बहुफल बहुघात और पल्पफल अल्प लिये हुए न हो, किन्तु अनन्तकाय-अनन्त जीवोंके
घातकी हालतों में। इसी तरह प्रागुक अवस्थामें आश्रयभूत-हों। इस पद तथा 'मूलक' पदके मध्यमें
जहां कोई घात हीन बनता हो वहां भी यह त्याग प्रयुक्त हुआ 'आद्रोणि पद यहां अपना खास महत्व
चरितार्थ नहीं होगा।
ही रखता है और अपने अस्तित्वसे दोनों ही पदोंको अनु. प्राणित करता है। इसका अर्थ आमतौर पर गीले, यदनिष्टं तदव्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जलात् । हरे, रसभरे, अशुष्क रूपमें लिया जाता है; परन्तु अभिसन्धिकताविरतिर्विषयायोग्याव्रतं भवति ।।८६ स्पष्टार्थकी दृष्टिसे वह यहां सचित्त (living) तथा (श्रावकोंको चाहिये कि बे) भोगोपभोगका जो (प्रामुक अर्थका वाचक है। टीकामें प्रभाचन्द्राचायने इस पदका अर्थ जो 'अपक्वानि दिया है वह भी इसी -
: पदार्थ अनिष्ट हो-शरीरमें बाधा उत्पन्न करने के अथेकी दृष्टिको लिये हुए है। क्योंकि जो कन्द-मल कारण किसी समय अपनी प्रकृतिके अनुकूल न होअग्नि आदिके द्वारा पके या अन्य प्रकारसे जीवशून्य उसे विरति-निवृत्तिका विषय बनाएँ, छोड़दें-और जो नहीं होते वे सचित्त तथा अप्रासुक होते हैं। प्रासुक अनुपसेव्य हो-अनिष्ट न होते हुए भी गर्हित हो, कन्द-मूलादिक द्रव्य वे कहे जाते हैं जो सूखे होते है, देश-राष्ट्र, समाज सम्प्रदाय आदिकी मर्यादाके बाहर हो अग्न्यादिकमें पके या खूब तपे होते हैं, खटाई तथा अथवा सेव्याऽसेव्यकी किसी दूसरी दृष्टिसे सेवन लवणसे मिले होते हैं अथवा यन्त्रादिसे छिन्न-भिन्न करनेके योग्य न हो-उसको भी छोड़ देना चाहिये। किये होते हैं; जैसा कि इस विषयकी निम्न प्राचीन (क्योंकि ) योग्य विषयसे भी संकल्पपूर्वक जो विरक्ति प्रसिद्ध गाथासे प्रकट है:
होती है वह 'अत' होती है-व्रत-चरित्रके फलको "सुक्कं पक्कं वचं भविल-लवणेण मिस्सियं दव्वं । फलती है।' ज जंतेणय लिएणं तं सव्वं फासुयं भणियं " व्याख्या-संकल्पपूर्वक त्याग न करके जो यो
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३१२)
ही अनिष्ट तथा अनुपसेव्य पदार्थाका सेवन नहीं रात्रिको, पक्ष भरके लिये, एक महीने तक, द्विमास किया जाता, उस त्यागसे व्रतफलकी कोई सम्प्राप्ति अथवा ऋतु विशेष-पर्यन्त, दक्षिणायन, उत्तरायन नहीं होती-व्रत-फलकी सम्प्रान्तिके लिये सकल्पपूर्वक अथवा छहमास पर्यन्त, इत्य दि रूपसे कालकी अथवा प्रतिज्ञाके साथ त्यागकी जरूरत है, उसके द्वारा मर्यादा करके त्यागका विधान है वह 'नियम' उनका वहन सेवन सहनहीमें व्रत-फलको फलता है। इसीसे प्राचार्यमहोदयने यहां भोगोपभोगपरिमाणके कहलाता है। अवसर पर श्रावकोंको अनिष्टादि विषयोंके त्यागका व्याख्या-यहां भोग तथा उपभोगमें आनेवाली परामर्श दिया है। अनुपसेव्यमें देश, राष्ट्र, समाज, सामग्रीका अच्छा वर्गीकरण किया गया है और साथसम्प्रदाय आदिकी दृटिसे कितनी ही वस्तुओका ही कालकी मर्यादाओंका भी सुन्दर निर्देश ६। इन समावेश हो सकता है। उदाहरणके तौर पर स्त्रियोंका दोनोंसे व्रतको व्यवस्थित करने में बड़ी सुविधा हो
से अति महीन एवं झीने वस्त्रोंका पहनना जिनसे जाती है। इस व्रतका व्रती अपनी सुविधा एवं आवउनके गा अग तक स्पष्ट दिखाई पड़ते हों भारतीय श्यकताके अनुसार भोगोपभोगके पदार्थोंका और भी संस्कृतिकी दृष्टिसे गर्हित हैं और इसलिये वे अनुप- विशेष वर्गीकरण तथा कालकी मर्यादाका घड़ी-घंटा सेव्य है।
आदिके रूपमें निर्धारण कर सकता है। यहां व्यापकनियमः यमश्चविहितौ द्वधा भोगोपभोगसंहारा। हा
दृष्टि से स्थूल रूप भोगोपभोगके विषयभूत पदार्थों
का वर्गीकरण तथा उनके सेवनकी कालमर्याओंका नियमो परिमितकालो यावज्जीव यमो ध्रियते ।।८७) संसूचन किधा गया है।
भोगोपभोगका परिमाण दो प्रकारका होनेसे नियम विषयविषतोनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवौ । और यम ये दो भेद व्यवस्थित हुए हैं । जो परिमाण भोगोपभोगपरिमा-व्यतिक्रमाः पंच कश्यन्ते ॥१०॥ परमित कालके लिए ग्रहण किया जाता है उसे 'नियम'
विषयरूपी विषसे उपेक्षाका न होना- इन्द्रियकहते हैं और जो जीवन पर्यन्त के लिये धारण किया।
था. विषयोंको सेवन कर लेने पर भी आलिंगनादि रूपसे जाता है वह 'यम' कहलाता है।'
उनमें भासक्तिका बना रहना- अनुस्मृति-भोगे हुए भोजन वाहन-शयन-स्नान-पवित्रागराग-कुसुमेषु । विषयोंका बार-बार स्मरण करना-अतिलौल्य-वर्तताम्बूल-वसन-भूषण-मन्मथ-संगीत-गीतेषु ॥॥ मान विषयों में अति लालसा रखना-,अतितृषा-भावी
भोगोंकी अतिगृद्धताके साथ आकांक्षा करना - 'अत्यअद्य दिवा रजनी वा पदो मासस्तथतुरीयनं वा ।
नुभव-नियतकालिक भोगोपभोगोंको भोगते हुए भी इतिकाल-परिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियमः८६ अत्यासक्तिसे भोलना, ये भोगोपभोगपरिमाणबतके ___ 'भोज्य पदार्थों, सवारीकी चीजों, शयनके साधनों, पांच अतिचार कहे जाते हैं। स्नान के प्रकारों, शरीरमें रागवर्धक केसर-चन्दनादिके
- युगवीर विलेपनों तथा मिस्सी-अंजनादिके प्रयोगों, फूलोंके उपयोगों, ताम्बूल वगेकी वस्तुओं. वस्त्राभूषणके प्रकारों, काम-क्रीड़ाओं, संगीतों-नृत्यवादित्रयुक्त गायनों-.. और गीत मात्रों में जो आज अमुक समय तक दिनको समीचीनधर्मशास्त्र के अप्रकाशित भाष्य से।
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ब्रह्म जिनदासका एक अज्ञात रूपक काव्य
(लेखक-श्री. अगरचंद नाहटा) दिगम्बर विद्वानों ने प्राकृत, संस्कृत, अपनश, कब और उस समय तक राजस्थानी एवं गुजराती भाषामें और हामिल भाषा पोंमें प्रचुर साहित्य निर्माण करनेके विशेष अन्तर नहीं था मसः मापके प्रन्योंकी भाषाको साथ-साथ हिन्दी भाषामें भी बहुत बड़ा साहित्य निर्माण राजस्थानी भी कहा जा सकता है, पर हिन्दी नहीं। हाख किया है। पर राजस्थानी एवं गुजराती भाषामें उनकी ही में आपका एक महान शास्त्र प्राप्त हुमा है जिसका रचनाएं पहुत थोड़ी ही मिलती है । यद्यपि दिगम्बर परिचय करामा प्रस्तुत लेखमें अभीष्ट है। समाजके जयपुर, कोटा मादि अनेक केन्द्र स्थान राजस्थान गत अगस्त मालमें मार समिति संगठमके प्रसासे मही है। और जयपुरके विद्वानोंने हूँढाली भाषामें कुछ भी
ने ग्रन्थ लिखे भी हैं, पर उनकी दादो भाषामें हिन्दी का निमन्त्रणसे मयपुर जामा मातो बचे हुए समय में राजअधिक प्रभाव खपित होता है। गुजराती भाषा जो थोड़ा स्थान पुरातत्व मन्दिर और कस्तावन्दनीकी तैयार की दिगम्बर साहित्य निमित हुमा है उसका परिचय में जैन- एक दिगम्बर जैन मन्दिरकी प्रम-सूचीका प्रवनीकन सिद्धान्त भास्कर वर्ष १ अंक में अपने 'दिगम्बर गुज
करने के साथ-साथ मुखतान + और डेरागानीबाँके स्तसती, साहित्य शीर्षक सेगमें प्रकाशित कर चुका है।x
miart e मार इसमें मैंने ब्रह्म जिनदास की रचनाओं का भी उक्लेका किया
भागये थे और पाते समय वहाँका ज्ञान-पहार व प्रतिमा था। तदनन्तर मापकी रचनाओंकी भाषा हिन्दी है यह
अपने साथ ले माये थे उन दोनों)को देखनेका भी सु. बतलाते हुए श्री कस्तूरचन्द कासलीवाखने वीरवाणी वर्ष
अबसर प्राप्त बाहुमुस्तामश्वेताम्बर शान-भरडारकी २ अंक में आपके संस्कृत और छ भाषा अन्धोंका
प्रतियोंमे तीन अन्यत्र प्राप्य प्रन्योंकी प्रतियों देखने में परिचय दिया था। उस लेखकी विशेष जानकारी के रूपमें
भाई, जिनके सम्बन्ध में प्रकाश डालने के लिये मैं बाते मैंने उमी वीरवाणीके वर्ष, अंक में 'वय जिनदास
समय साथ लेता भाया। इनमसे बुद्ध रचित 'बमान को कतिपय अन्य गुजराती रचनाएं' नामक लेख प्रकाशित
बचनिका' का परिचय पीरवाणी में प्रकाशनार्थ भेजा जा किया था और उसमें कासलीवालजी द्वारा सूचित भाषा
चुका दूसरा प्रथम बिनबास रचित 'परमहंसरास' ग्रन्थोके अतिरिका अन्य रचनामोंकी सूची दी थी।
है जिसका परिचय प्रस्तुब मेखमें कराया जा रहा है। अतः भापके कुल २५ भाषा-प्रन्यों का वो अबतक पता
प्रस्तुत 'परमहंस रास' के प्र.हि० अन्वर इसके चला था। आपका समय सन् १९२.के भासपासका है
नामसे हीयानो नाम लिया था कि वह पक रूपक पद्यपि वेताम्बरीय साहित्यकी अपेक्षा दिगम्बर साम्य है क्योकि खेताम्बर साहित्यमें जयशेखरसूति विद्वानोंने गुजराती भाषामें कम साहित्य लिखा है। हिर रपित'परमहंस प्रबन्ध' (प्रसिद्ध अपरनाम त्रिभुवन भी दिगम्बरों का गुजराती साहित्य को कुछ भी पतक दीपक प्रबन्ध) एवं इसका संस्कृत रूपावर सावरगच्छीय परिचय में भारावा है उससे वह कई गुणा अधिक शास्त्र. नवरा रचित 'परमहस सम्बोधचरित' + अन्यसे मैं भण्डारों में उपलब्ध होता है। उसे इतमा ही समझ पूर्व परिचित 'परम सम्पोषचरित' कीबोगत लेना बड़ी भूल होगी। समानके विद्वानोंका कर्तव्य है कि जनवरी में (1-1-१२को)ही मैने प्रस्तावमा सिसी थी बे गुजराती भाषाके शादिगम्बर साहित्यका पवागा. कर उसे प्रकाशमें लाने का प्रयत्न करें। -सम्पादक
+ मुक्वानके दिगम्बर मन्दिरका प्रम्य-भवहार___x इससे पूर्व बनेकान्स '. अंक में प्रकाशित श्री.
प्रतिमा कहाँ विराजमान है जाममा बावश्यक है। पालचरित्र सम्बन्धी अन्य बेशकी टिप्पणमें बीम 4. अमृगमा मोहनमा संघवी सम्पादित जिनदासकी शान रचनामोंका उलेख किया था। हरीभाईकी बादी बहमदाबादमे प्रकाशित।
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३१९४
अनकान्त
[किरण
सब प्रपन्च और चरिक-मदोनों प्रन्योंकि सम्बन्ध में तुब- अनुवादके रूपमें उपयुक 'परमहंस प्रबन्ध' ११ पचों नात्मक प्रकाश सावकार मिला था। मह में बनायास प्रयका भाषा एवं काधकी प्टिसे जिनदास नवीन पास ग्रन्थका नाम 'परमस राम' होने भीड़ा महत्व है। गुजरात वाक्यूबर सोसाइटी से साहजी में उसके विषयका वो मामासबोगया पर की ओरसे पी शताब्दी के प्राचीन गुर्जर काम्योंका संग्रह बामन्य किसमाचीवमन्यो पापारपर रचा गया निकला है उसमें उसे विशिष्ट स्थान दिया गया है। इसके इसका निवपावरबाकी विषय पर दिगम्बर सम्पादकाचार्य एवं अन्य गुजरात विहाबोंने इसके
और श्वेताम्बर दोनों विद्वानोंने रचनाएँ चीतो यह महत्वकी मुक्तकंठसे प्रशसा की है। स.100 में पंडित जिज्ञासा स्वामाविकभी कि दोनोंकी पनामोंका मूल बालचन्द भगवानदास गांधीमे इसका सम्पादन कर स्वतंत्र खोज कितना प्राचीन कोनसा प्र कवि माझ जिन- प्रत्यके रूप में भी इसका प्रकाशन किया था । माजिवदासदास रामको मसी मोवि देखने पर भी नहीं इसके मूब इस प्रन्यको पढ़ा होगा और प्रभावित होकर उसके प्राचारक सम्बन्ध में निर्देश नहीं पाया गया। कथावस्तु प्राधारसे प्रस्तव रासकी रचनाकी यह दोनों प्रचकि वो दोनोंडी एक-सीदी पर बबशेखरसरिका 'परम- सन्द साम्पको देखते हुए स्पष्ट कहा जा सकता।
सप्रबन्ध' इससे पूर्ववर्ती ,मतः उसके साथ तुलना सरासकी रचना कविने अपने उत्तर जीवन में की करना मावश्यक प्रतीमा और वैसा करनेपर मैं इस प्रतीत होती है। क्योंकि इस रासके मादि व अन्तर्म अपने निष्कर्ष पर पहुँगा किनिमदराने उखेसन भी किया हो सकसकी किसाथ भुवनकीर्ति और अपने शिष्य नेमीको भी अबशेखरसूकि प्रत्यको सामने रखते हुए भी दासका भी उल्लेख किया है। इस उपखवाले पच नोचे इसकी रचना की, प्रतीत होती है।
दिये जा रहे है:रूपक कथानोंकी प्राचीन परम्परा
प्रारम्भश्वेताम्बर प्राचार्य सिदार्षिने 'उपमिति भव प्रपंच
सकल निरंजन सकल निरंजन देव अनन्त कथा' की रचना में भीनमाबमें की है। काक
परमानन्द सुहायणा, प्रणभासु सरसती सार निरमल। कथा मम्मों में यह सबसे बड़ा एवं बादर्श ग्रन्थ है।
श्री सकसकीतिगुरु मनि धरू', बखि भुवनकीरति ऐसी म्पामा स्वतन्त्र रचनामोंका प्रारम्भ ही इसी अन्य
मुनिसार सौहबद्ध । सेमा परचा अनेक ग-नेवर प्रन्य रूपक
तह प्रसादे स्वदो, परमहंस जयवन्त । शैखीमें बिखे गये। बिकास परिचय 'मदन पराजय'
ब्रह्माभिमदास मणे गाइस', सुणो वियर गुरुवन्त । की प्रस्तावना बीबुख रामकुमारजी साहित्याचाने और भास चौपाईनीभीमेशनबावडास्त्री प्रयोग पच्चीखोकी प्रस्तावनामें दिया है। इनमें सबसेषरसरिक प्रबोधचिन्यामबि'
सुणो भविषय तुम्हें गुणमा । अन्यका भी महत्वपूरस्थानोबा अन्य सं. 1. सुखवा भावन्द गुणकम्प, में सम्मातमें रचा गया।भाषा संसास और सास
उपजै समिति निरामबचन्द अधिकारों में पूरा । इसमें मोह एवं विवेकी विमुषण नयर पणो वेराड, गुणवन्त दोसे बार। उत्पत्ति, उनका परिवार, परस्पर पुर और मान्समें विवेक नाम बी बाइपाप,दिन दिन पापै अधिक प्रताप ॥२॥ की विजय और मोहरामकी अपनपदा ही सुन्दर - ब ।बसाधारयके पोध शिवपापने काबीन ते विवेक मुफ निरमलो, मवि भवि देबु गुणवन्त । खोक भाषामें अपने अन्य स्वतन्त्र एवं सारगर्मित परमहंस परमातमा, जिम दो बवन्त ॥२॥
.माम्बवर पं.बापूरम प्रेमी एवं मोतीचनादिने भी सकसकीति पाय प्रथमीने, गुरु भुवनकीति भववार । इसकी बहुत ही प्रशंसा की है कि यह साहित्यका मनोद रास कियो मिह निरमतो, परमहंस सबो सार ।
पाह गुर जेसा भी, मनपरि भविषद भाव ।
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किरण ]
हरभरि दास करे भार ब्रह्मजिनदास शिष्य निरमला, नेमिदास x सविचार । पढाई पढायो बिस्तरो परमहंस भवतार ॥८॥ जिन शासन प्रति निरमी, त्रिभुवन माहिं उग अनमि अनमि सेवीस, महाभिनदास मयेग
इति परमहंसको रास समाप्त। पूर्व रखोक संख्या ३०० (नवी)|
प्रतिपरिचय - साइज ४॥ ४११४, पत्र २८ प्रति पृष्ठ पति ११ प्रतिपंकि अक्षर ४६, अक्षर बड़े एवं सुवाच्य ।
अझ जिनदासका एक अज्ञात रूपक काव्य
अब जयशेखरसूरि परमहंसपदम्य और प्रस्तुत परमहंसरासक शब्द साम्यके कुछ उदार उपस्थित किये आरहे है:
प्रबन्ध
तेजबन्त त्रिहुभवन मकारि, परमहंस नरबर अवधारि । जे जगवा पाप, दिनदिन वा अधिक प्राय ॥
इस पथके समान भाव गला रासका नम्बर २ वाला पथ ऊपर उद्धत किया जा चुका है, उसमे नीचे वाली पंचिका शब्द साम्ब विशेष रूपसे व जे योग्य है। अपो नदि बाग पाए' है हो रासमें
'नाम बीघइ जाइ बहु पाप' है। इसके भागेका वाक्य तो 'दिनदिन वा प्राय दोनोंमें एक समान अम्ब उदाहरण भी देखिये
1
प्रबन्ध -
बाचित मी त्रिभुवन माह महर कुरीति समाह दिपर कोहिहि जिसिट,
देवनं विसि एक भये पहिज अरिहंत, एरख हरिहरु भलु भगन्तु ।
रास -
निश्चय नय त्रिभुवन माहि भाइ,
दावा शरीर समाह बोर्ड विस्वार,
ज्ञान दिया नदि खामे पार ॥२॥ पनि भगवन्त, ए मझा ईश्वर ए सन्त ।
एक कहै
x आपके अन्य शिष्य मनोहर महिदास
हरिवंश रास (० १२१०) में भी है।
प्रवन्ध
काम परवदि
कुसुमिहि परिमल गोरसिनेहु ।
विवाहिते जिम याड़िक पार
[२१५
विनमसि जसरी
इस पथके भावको रामें विम्मोक पथोंमें द साम्यके साथ अधिक स्पष्ट किया है। पाषाण माहिं सोनो बिभोर खिमारे देख बसेक्सि बंग, मिसरीर भावमा भंग काम अनि जिमि हो, कुसुम परिम
मादे सबद सीत जिमि नीर, तेम भावमा बसे बगत सरीर ।
प्रयन्ध
राणी वासु चतुर चेतना, केला गुण बोखड बेहटमा । राठ राखी बेमन महिं मेखि निरन्त करइ कलोहस केवि । नको मनरंगी नारि, साम ी सहनि सविकारि ।
रास
चेतना राव्ही तेह ती जायि, गुय अनन्ता बहुत बचाणि । राणी राब ध्यान मेखि निरन्त का कोहख केसि |
नव जोवन नवरंगी नारि
सामड़ी सहजे (स) विकार !
प्रबन्ध---
अमृतकुड किम विष बाबा, सुधाकर किम अंगार । रवि किसोर अंचार,
रास
अमृतकुड मांहि विष कर, दिनकर किम संचार कर । अगनी करे किम चन्द छौ,
प्रवन्ध-
चामे छह मीति नागरि, द्वारमेह अस वीलुमेह, देव
बेटी पनि भोजन बाजरी । दिवाकर महिल
TH
आमची बम पाडुविय, तृय व्थो उचो हो । Pita raftaar खरी, पहिलो दिसावर अन् तो बेटीयम पर कम से कम दो सो कमय मोरे धान्यो । ए,
,
18
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३१६]
अनेकान्त
[किरण
D
प्रबन्ध
पाँव पसारवी है । मायाकेश होजानेसे राजाका विमुक तर विणि भांडी बसिवा सही, कावा नगरी नव बारही। माधिपतित्व नाशको प्रास होजाता है, तब वह अपने निवाजे हुँतम नगपति निरदोस,विणि ते तई मानिउं संतोस ।२७। सके जिये 'काया-नगरी' को बचाकर सन्तोष मान बेवा रास
है। अन्धमें शान-कलाको तिलांजलि देकर अपना समस्त कावाए नगरी चंग, मचारि अति वदी। व्यापार 'मन अर्पण करदेता है। 'मन' मन्त्री प्रारम्मसे जे होतो एजगपविराडतेविण नगरियो अदीए। ही मलिन होने के कारण राजकाजको धूलिमें मिला देखा है। और भी बहुतसे उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेख
वह अपनी चंचलतासे सर्वत्र भ्रमण करता रहता है और विस्तारके भवसे इवने ही से सम्सोष किया जाता है।
'माया' के साथ प्रतिजोद कर राजाको पाप-पाशमें बांधकर
स्वयं राज्यका स्वामी बन बैठता है। इससे देना, बरबाद, जैसा कि पूर्व कहा मा पुकार-दोनों प्रन्यों में कथा
करना बन्धन में डालना, बन्धनमुक्त करना, ये समस्त अपनी वस्तु एक ही है। कहीं कुछ रासमें अधिक जोर दिया है।
इमानुसार एवं जिस प्रकार उसे हचिकरहो इस प्रकार और कुछ बम विस्तारसे कर दिया है, इसीसे इसका
करता है। राजा पराभव भूत होकर बना पेट भरता है। परिमाण कुछड़ गया है। फिरभी कविताकी रष्टिये प्रबन्ध ही उत्तम प्रतीत होता है। प्रबंधकी कथाका सारांश
'मन' 'प्रवृत्ति' और निवृत्ति' दो स्त्रियां है। पंडित बाबचन्द भगवानदासने गुजराती में अपने संपादित
'प्रवृत्ति के द्वारा 'मोह' और 'निवृत्ति के द्वारा 'विवेक' प्रथमें दिया है उसका हिन्दी रूपान्तर भागे दिया जारहा
इन दो पुत्रोंकी उत्पत्ति होती है। प्रवृत्ति' 'मन' को वश में है। यदि किसी दिगम्बर विद्वानको ऐसी ही कथा बाबा
कर अपनी सौत निवृत्ति क्या उसके पुत्र 'विवेक'को विदेशकोई बम्ब अन्य दिगम्बर साहित्य में मिल जावे तो मुझे
गमन करवा देती है। सूचित करनेका नम्र अनुरोष है। रासकी प्रति अभी मेरे
मन, प्रवृत्ति और माया-वह त्रिपुरी राजाको बन्धनमे पास है, पदि कोई विद्वान् इसे सम्पादन करना चाहे या
बालकर अपनी समस्त मान्तरिकछानोंकी पूर्वि करते हैं। कोई स्था प्रकाशित करना चाहे तो उसकी प्रतिलिपिका
इस समय राजा अपनी 'चेतना' रानीकी शिक्षाका स्मरण प्रबन्ध भी किया जा सकता है। अभी तक ब्रह्मजिनदास
कर रोने लगता है और अपनी कायाजनक स्थितिका स्पष्ट का 'श्रीपाल रास' ही सूरतसे प्रकाशित मेरे अवखोकममें
वर्णन करके 'चेतना' को उसकी सम्हास करनेके लिये माया उपयुक१६ प्रन्योंके अतिरिक कुष फुटकर
प्रार्थना करता है । “तुमको माया मिलगई है, मेरा क्या स्ववन मादि भी मिबते है।
काम है: मन मन्त्रीका राज्य है, जिस प्रकार वह तुम्हें
विवश करे सहन करो।" इस प्रकार उत्तर देती हुई चेतना प्रारंभ कविने परमेश्वरको और योगरष्टिनारा सरस्वती
अवरच राती है। का स्मरण करके सरस्वती माधारसे सुन्दर काम्य रच्ने.
निवृत्ति के ले जाने वाद 'प्रवृत्ति' 'मम'को की सूचना दी फिर पाएमगुदिकी पावरपकवा, शान्त
समझाकर अपने पुत्रको राज्य दिखा देती है।मोदकुमारके रसकी श्रेषता और पात्मज्ञानका प्रभाव दिखाकर मारम
एम. राजा होते ही बगवमें मोहकी भाशा-प्रवरदेवा विचारको सुनने के लिये श्रोतामोको सावधान किया है।
' मोहराजा बिज्जादयस्थानमें 'अविधा' नामक त्रिभुवनमें अत्यन्त तेजवंत परमहन्स बाके यहां नगरीकी स्थापना करके राज्य करने लगता है। मोहके 'चेतना' नाम की रानी है। ये दोनों इण्यानुसार कुतूहल. दुर्मति नामकी एक रानी है, उसके 'काम' नामका एकदा केशि किया करते हैं। यकदिन 'मावा' नामक रमणीके पुत्र और राग और प-येोबोटे पुत्र हैं। निद्रा, रूपको देखकर राजा बिहब होगाताराबहगावकर रानी मधति और मारि ये तीन पुत्रिया है। इसी प्रकार मिष्याअपने पधिको मावाकी संगति नहीं करनेके लिए पात दर्शन मन्त्री, सम्पसन, समभंग, निगु यासंगति सभा, समकाती है, परन्तु उसका समकामा विफलस। नास्तिकाममित्र, अमर्षद, मावस्व सेनापति, राजाधिसमें 'मावा'पासोमानेसे 'वाहीपर वम पुरोहित और कबिरसोइया इत्यादि मोहराया विपकर बीपीका संचार खबासेमाचा विशेष परिवार है।
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उस ओर मोहरा
हत हुए देखती है।
ब्रह्माजनदासकाएक अज्ञातरूपक काव्य
!३१७ मोहराया राज्य होजानेकी बावको सुनकर निवृत्ति प्रवेश नहीं होने देनेको भाज्ञा करता है। बिना विश्राम लिये हो रवाना हो जाती है । भागे आते उस ओर मोहराय अपने राज्य की मार संम्हाला हुए विप्रपुरी में यज्ञ होते हुए देखती है। जिसमें बलशान कर रहा है। विवेककी याद आतेही उसको पतिकोम पटुकों द्वारा बींधे हुए घेचारे बकरोंका याजनक रश्य उत्पक होता है। विवेकके कार्यकलापोंको बानेके लिये देख, "मोहकी पुत्री 'मारिएका पदापर यहाँ हो जानेसे दंभ, कहागम, ( कंजूसी) पाखादि तोंको भेजता मेरा यहां रहमा नहीं होसकता" इस प्रकार विचारकर है। विवेककी सुधि प्राप्त कर वे लोग पुण्यरंगपारणको निवृत्ति बहाँसे प्रयास करदेती है। नये-नये देशों में रहते जाते है, किन्तु ज्ञानतलारसके निप्रइसे प्रवेश नहीं होनेसे हुए एयोंके अन्दर मौवाजीवकी पहिचानके अभाव में अनेक दंभ अतिरिक्त सभी वापिस लौट आते हैं। भफिर वेष प्रकारसे होता हुमा जीव-जंहार देख अपने रहनेके योग्य बदलकर पका वृत्तान्त प्राप्तकर मोहरायको जानता है। स्थानको कहीं न देख वह और भागे गमन करती है। जिसमें विवेककी नगरी और उसके परिवारका विस्तारसे फिरते-फिरते प्रबचनपुरीको प्राप्त करती है। सुन्दर नगर वर्णन करनेके बाद मोहरायको जीतने के लिए विवेककी और बारमाराम बनको देख विवेक कुमार की प्रेरणा सेशम- उसके मन्त्रीके साथ हुई बातचीत, मन्त्रीके बुखानेपर गुरु दम नामक वृषकी छाया में बैठ जाती है। वहार विमन- जोशीके द्वारा प्रवचनपुरीके राय अरिहन्तके सांपत सदुपबोध कुलपतिको वन्दन करके निवृत्ति विवेककृमारके सुख देशकी स्त्री श्रद्धाकी पुत्री सयमीका विवाह कर देनसे पादिके सम्बन्ध प्रश्न करती है। विमनोधके लक्षणों- शत्रसके विनाशका विवेकको दर्शाया हुभा उपाय, को देख वह अत्यानंदित हो जाता है और विवेक कुमारको दो स्त्रियोंके पतिको होने वाले दुखका विवेकका मन्त्रीके अपनी सुमति नामकी अपनी पुत्रीके साथ विवाह करके एवं साथ किया हुया विचार, सुमतिके द्वारा कुलीन और प्रकुअरिहंत । के अतिशयोंका वर्णन करके, उनकी तुष्टीको बीन स्त्रियोंका भेद दर्शाया जाकर पतिको की हुई प्रेरणा, प्राप्त करनेसे कार्य-सिदिका सूचन किया गया है। राजाको आज्ञासे मन्त्रीने जिनराजके पास संयमश्री की निवृत्ति कुलपतिके वचन दयमें धारण कर पुत्रवधु
मगनी करनेके लिए भेजे हुये शुभाध्यवसाय विशिष्टसुमतिको साथ ले प्रबचन-नगरी में जाकर सदगुरुके माधार ये समस्त समाचार सुनाकर दंभ मोहरायसे समाधान पर रहती है। वहाँ विवेककुमारको अपना वीवक पराभव
MUT THE THE करता है। मोहरायको चिंतातुर देख उसका बड़ा पुत्र थोर पुत्रके अश्वासनको दर्शाकर अरिहन्त प्रभुकी भारा- कामकुमार अपना शौर्य दिखाकर युबके लिये माज्ञा धना करने के लिए प्रोत्साहित करती है। विवेक कुमार मगता मोहराय इसको शिक्षा देकर भाज्ञा देता है। माताकी प्रशंसा करके इसमाज्ञाको मान देकर मरिहन्त कामकुमार अपने परिवारके साथ प्रयाण करता है। वह प्रभुकी सेवा में लग जाता है। अवसर भानेपर मोहरायके त्रिलोकीमें सर विजय प्राप्त करता है। मोमें प्रमदोहका वर्णन करती है। नगरपति मोहरावसे भयभीत को सावित्रीको स्वीकार कराके, बैकुण्ठपुरीके नायक विष्णुको बने हुए जनोंको मुकिदुग में बसाने के लिये नया मार्ग- गोपियों द्वारा वश कराकर, कैलाशपति शंकरको पातीके रथक तरीके उनके साथ रहने के लिए विवेकको भाशा करती साथ जोपकर, गौतम भादि अषियों को एक-एक स्त्री है। विवेककुमार स्वामीके वचनोंको कार्यमें खाता है, अंगीकार कराकर मोहराबकी माज्ञाको भारोपित करता भम्यजन मुकिमार्गका अनुसरण करते हैं। विवेकके है। कामकुमार यहाँसे पुरयरंगपाटणको रेश्य बनाकर वीरचरित्रसे प्रसस होकर परिहन्तराय उसको उत्तम जन्म- प्रयाण करतापाटनमें सदर पहुँचतेही विवेक उससमय वाले देशोंमें पुण्यरंगपाटणका रामा बना देते हैं। तस्व. युदनकर, संयमश्री के साथ विवाह करनेके बाद भवचिंतन रूपी पहनस्ति पर सवार होकर विवेकराय बग- सरोचित युद्ध करने के लिए अपने इडा-मित्र विचारको अबग सुखासनों पर बैठी हुई निवृति और सुमतिको बनाता है। इसी अवसरपर अरिहन्तरायकी भोर भेजे हुए साथ कर पारम्बर पूर्वक वहां प्रवेश गवारे। विवेककी विशिष्ट (राभाध्यवसाय)माकर विवेकको वहाँ पहुँचने के माझा प्रवृत्त होतेही पाखंडीके प्रायडित होजाते हैं। बिगता है विवेकराम अपने मित्र विचारको प्रजाकी हाम-वबारको मुसार विवेकराप किसी अपरिचिवको सम्हासकाने तथा अपने पीछे बचाने की सिलापन देखन
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३१८]
अनेकान्त
Lकिरण
प्रबचन-नगरीको जाता है।पीसे नगर बोगोंको साथमें मोह जब पाकोकम पहुँचता है उस समय प्रवृत्ति
पर विचार भी गमन कर देता है। शव दस प्रतिशोकमें पर बाती है, मन-मन्त्री बहुत ही विलाप यह सुनकर जिनेश्वर मोहरायके रखका नाश करने के लिए करता है। विवेक उसको समझाकर शान्त करता है। विबंद नहीं करनेकी विवेकको सूचना करते हैं या संघमश्री मन विवेककी राज्य स्थापना करता है, फिर भी चिर-परिकी श्रेष्ठता और पुष्पासाताको समझाकर बीररित्र प्रकट के कारण उसे मोह वारवार पाद पाता है। विवेक कानेके लिये उसकी प्राप्तिका वर्णन करते हैं। विवेक नको फिर शिक्षा करता हैकुमारकी प्रेरणासे रामासमा भरकर मारीको
'मोहक शोकको बोरकर परमेश्वरका अनुसायरी, स्थित करते है। विवेक कुमार भरसभामें अमुखिहरमन,
समस्त समताका मादर करो, ममता दूर करो, चार अग्निज्वाखाका पान मादि करता है और राधावेधको साधना
कषायोंका हनन करो, पाँचों इन्द्रियोंको जीत करके समहै।यह देखकर संयमी कन्या विवेक कुमारके गले में रसके प्रवाहमें रमण करो, भर चौकारमें स्थिर होकर
परमानन्मको प्राप्त करो।' परमाबाबाली है। विवेककुमार साय संयमश्रीका
इस शिका अनुसार मन अनुसरण करता है, किन्तु को उत्सबके साथ विवाह होता है। विवाहके बाद मोह-
मोह फिर भी पादत्रा जाता है, इससे विवेकको कहकर
. रायको जीतनकए मना तथा पास्त्र धारण का हर मनपाठ काँक साथ ध्यानाम्निमें प्रज्वचित हो जाता। मंथमश्रीको साथ लेकर विवेक हासे प्रयाण करता है।
इस अवसर पर चेतना रानी परमहंस राजाके पास दसरे लोगोंको पाश्वासन देकर विवेकशजब पहुंचता
पाकर कहती कि-'स्वामी! मायाने मो-कुछ किया है।इनद्वारा हकीकत सुन मोहराब अपशकुन होते हुए
त हुए उसका मापने अनुभव किया। लेकिन जो हुमा को हुमा, और मन्त्री प्रादिके निषेध करने परभी असंख्य सेना साथ
उसको माया पार करना मापने जिस कापापुरीकी कर सामने आता है। विवेक अपनी सेनाको प्रोत्साहन
रचना की है, बहवो पशुचि और कीचड़से भरी हुई है। देकर अपने परिवारके पराक्रम और अस्त्रशास्त्रोंकी देश
१०८ चोरोंकी वस्तीवासी नगरी में पापका निवास उचित भान करता है। फिर युद्ध के लिये समस्त सेना तैयार
नहीं। स्वामी ! आप स्वयं विचार करें और उठकर उसमें होबाती है। यह जानकर मोहराब भी अपनी सेनाको
भामशाहका प्रकाश करिये । मानो बाप सचेत हो पसकारतासीर प्रतिवीर सम्मुख उपस्थित होते हैं।
जायंगे शीघ्र ही इस राज्यको प्राप्त करेंगे। अब मायाविशेषज्ञ सम्बिके लिए फिरते है परन्तु सम्धि होती नहीं।
का खगाव मिट गया है। मन-मन्त्री अग्निमें प्रज्वलित हो उपकशी क्षेत्रमें मोह और विवेकका यह पुख प्रारम्भ
का यह पुत्र प्रारम्भ गया है और मोह अपने कुटुम्ब साय रखनमें विनाशको होता है। वीरगव परस्पर पराक्रम दिखाते हैं फिरभी
प्रास होगया है । म स्वामी ! शीघ्र प्रकाशित बोहणे, विवेकके वीरसुभट मोरकी सेवामें भगवा मचा देते हैं ।
विलम्ब नहीं करिये।" रागीके सकेसको पाकर परमहं जिससे मोह स्वय' रखामें पाकर भंसाडोह (मक्खयुद्ध)
सचेत होते है, जिससे परमज्योति प्रकाशित होती है, इससे, नामक युद्ध करता है। मोहरायके द्वारा अपनी सेनामें
पाप-पाश अपने आप टूढ माती। परमहंस चेतना सकी। भगदड़ देश विवेकराब उसके सम्मुख पाता है। मोहराब
के कथानुसार कायाको त्यागकर मुकदो आता। भपये पराममा बर्थन करके उसको धुर क्षेत्रसे भागनाने
"मनकी संतति बनीनहीं होती" ऐसा समझकर विवेककोकण विवेक रसके मिथ्यामिमामको विकारते
को भी अपनेसे बनाकर स्वयं त्रिभुवनका स्वामी बन हुए युद्ध करने के लिये सामन्त्रित करता है। बुदमें
दुबर्म मामाकागुन बीतने के बाद माम मुकृषित होता है, विवेकामाबुध द्वारा मोहका हम करता है। इस समय
प्रीमतु बीतने पर नदियों में पर जाता है, कृप्या. भाकाशमेंदुभि बजते हैं। पंचवर्षीर फहराते है।
बीतने पर बद्रकी डिहोती है, सागरमें अपषटके बाद देवता बोग अब-जब उच्चारकरके पुष्पवृष्टि करते है।
बार माता, गेंद गिरकर फिर अपर उठती। कपूर मितिकासाकर श्वभूमिमें सखेखालावास
तो फिर पर बनकर उसी पात्रमें गिरता, अवसर पर सुभामा विवेकराषकी महिमा कुम्हाचा. इसी प्रकार पुण्यप्रसादसेरामा बगव जाखको बोरकर
पुषारापप्राह किया।
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महाकवि रहधू
(ले०५० परमानन्द जैन शास्त्री)
(गत किरणसे भागे) कविवर रइधू द्वारा स्मृत विद्वान । (ताम्र पत्रादिकों ) में शम्दावतारके कर्तारूपसे दुर्षिनीत महाकवि ने अपने 'हरिवंश पुराण' मेघेश्वरचरित राजाका गुरु सूचित किया है इनका जीवन बदा ही और सन्मति जिनचरिड' नामक ग्रन्थों में पूर्ववर्ती कुछ प्रभावशाली रहा है और तपोनिष्ठाके कारण मनुष्योंके साहित्यिक विद्वानोंका स्मरण किया है, जिनके नाम है- अतिरिक्त देवताओंसे भी पूजित हुए हैं।
देवनन्दी, २ रविषेण, ३ चउमुंह (चतुर्मुख), ४ यह पुष्पदन्त भूतबलिके षट्खण्डागम, कुन्दकुन्द और दोश, ५ स्वयम्भूदेव, ६ वीर, वज्रसेन, ८ जिनसेन, समन्तभद्राचार्यके ग्रन्थोंसे खूब परिचित थे। इनका समय देवसेन, १०और पुष्पदन्त । इनका संक्षिप्त परिचय नीचे ईसाकी ५ वीं और विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वाद है। दिया जाता है:
इनका विशेष परिचय प्राप्त करनेके लिये वीरसेवा-मन्दिरसे १देवनन्दी-इनका दसरा नाम पूज्यपाद है+ प्रकाशित 'समाधितन्त्र' तथा 'पुरातन जैन वाक्यसूची' यह विविध विषयों के प्रौढ़ विद्वान प्राचार्य थे।इनकी प्रायः प्रन्योंकी प्रस्तावनाको देखना चाहिए। सभी कृतियों बढ़ीही सुन्दर संचित और अर्थ गौरवको २ रविषेण-अहमुनिके प्रशिध्य और लक्ष्मणसेनके लिये हुये हैं। यह लक्षण शास्त्रके विशेष विद्वान थे। शिष्य थे । अहमुनि दिवाकर यतिके शिष्य बतलाए गए हैं। गृदपिच्छाचार्य (उमास्वाति) के प्रसिद्ध तत्वार्थसूत्र पर इस गुरु परम्परामें संघ और गण गच्छादिका कोई उल्लेख आपकी 'तस्वार्थवृत्ति' नामकी एक टीका है जिसे 'सर्वार्थ- नहीं है। परन्तु 'रविषेण' यह नाम सेन परम्पराका जान सिद्धि' भी कहते है, और जो अपने ढंगकी महत्त्वपूर्ण. पड़ता है। इस परम्परामें अनेक प्रौद विद्वान आचार्य हुए संचित एवं अर्थ बहुल गम्भीर व्याख्या है। इसके अतिरिक्त हैं। प्राचार्य रविषेणकी एकमात्र कृति 'पद्मचरित' इस 'समाधितन्त्र' और हष्टोपदेश अध्यात्मके प्रतिपादक सरस समय उपलब्ध है। इस प्रन्धकी रचना कविने भगवान एवं सरल ग्रन्थ है जो वस्तु तत्वके निर्देशक हैं, पढ़ने में महावीरके निर्वाणसे १२०३ वर्ष वाव अर्थात् वि.सं. अत्यन्त रुचिकर और शान्ति प्रदान करने वाले हैं। इसी ७३३ में की है। प्रन्य सरस एवं सरल है और उसका तरह इनकी सिदभक्ति' प्रादि संस्कृत भक्तियाँ भी प्रौढ़ता- कथा भाग बदाही रोचक है। अन्य जितने भी पमपुराण को चिये हुए है। जैनेन्द्रग्याकरणतो इनका प्रसिद्ध व्याक- या ताद्विषयक चरित ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं वे सब उक रणका प्रन्थ है। जो बदा ही महत्वपूर्ण है इस पर अनेक चरित प्रन्यके बादकी रचनाएँ है। विद्वानो टीकाएं लिखी है। इनके सिवाय 'सारसंग्रह' श्वेताम्बरीय विद्वान उचोतन सूरिने अपनी 'कुवलयबन्दशास्त्र और वैचक अन्योंके भी उल्लेख मिलते हैं, माला' में रविषेणके-पद्मचरित और जटिल कविके परन्तु दुर्भाग्यवश वे ग्रन्थ वर्तमानमें उपलब्ध नहीं हैं। वरांगचरित' का उल्लेख किया है;x
इनके एक शिष्य 'पद्मनन्दी'ने वि.सं. १२६ में ३चउमुह-यह अपभ्रंश भाषाके प्रसिद्ध कवि थे 'दावि संघ' की स्थापनाकी थी। यह प्राचार्य कर्ना- और उक भाषाके स्वयंभूदेव तथा पुष्पदन्त नामके कवियों टक प्रान्तके निवासी थे और गंगवंशी राजा दुर्विनीतके देखो.काइकिप्सन्स भू. मैसूर एण्ड कुर्ग जि. शिक्षा गुरु थे, जिसका राज्यकाल सन् ४८२ से १२२
वक
ट का ..हिस्टरी पाया जाता है। इन्हें हेचुर मादिके अनेक शिलालेखों
माफ कनाडी लिटरेचर पृ. २५% और कर्नाटक कविचरिते। + देखो, मन्दिसंघ पहावली । देखो धवला ।ख जेहिं कर रमणिज्जे वरंग-परमाण चरितवित्यारे । ४ देखो, दर्शनसार गाथा २४-२८ ।
कहवण सलाहणिजे ते काणी जइब रविसेणो ।
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३२०]
अनेकान्त
[किरण है
से पूर्ववर्ती थे। इनकी अपभ्रंश भाषामें तीन कृतियोंके 'संतुआ' या शान्तिदेवी था, जो शीलादि गुणों से अलंकृतरचे जानेका उल्लेख स्वयंभूदेवके अन्यों में उपलब्ध होता थी। कविके तीन सहोदर (सगे) भाई थे, जो सीहल्ल है, वे हैं हरिवंश पुराण, पउमचरित और पंचमीचरिउ। लक्ष्मण और जपहर (यशोधर ) नामसे लोकमें विख्यात परन्तु खेद है कि इनमेंसे एकभी ग्रन्थ इस समय उप- थे। कविकी चार पत्नियां थीं जिनमती, पद्मावती, लब्ध नहीं है।
लीलावाती और जयादेवी । और नेमिचन्द नामका एकपुत्र ४ द्रोण-यह भी एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं। इनका
भी था। स्मरण कितने ही कवियोंने किया है। परन्तु इनके सम्बन्ध- वीरकविने मालवदेशकी सिन्धुपुरी नामकी नारीमें विशेष कुछ ज्ञात नहीं हो सका।
के मधुसूदन श्रेष्ठीके सुपुत्र 'तक्वडु,' श्रेष्ठीकी प्रेरणा५ स्वयंभूदेव-यह अपभ्रंश भाषाके महाकवि थे।
से उक्त जंबूस्वामी चरित्रकी रचनाकी है। जिसकी रचनाइनके पिताका नाम मारुतदेव था, जो काम्य-शास्त्रके मर्मज्ञ
में कविको पूरा एक वर्षका समय लगा था । माथही, महाविद्वान थे। इनकी माताका नाम पद्मनी था। कविवर
बन नामक उद्यानमें भगवान महावीरका पाषाण मय एक शरीरसे अत्यन्त दुबले पतले तथा उमेत थे और उनकी
विशाल मन्दिर भी बनवाया था और उसमें भगवान महानाक चपटी तथा दांत विरल थे-घने नहीं थे। इनकी
वीरकी मृतिकी भी प्रतिष्ठा कराई थी। उक्त ग्रंथ महाकाव्यतीन पत्नियां थीं, भाइचाम्बा, सामिश्रब्बा और तीसरी के सभी लक्षणमे परिपूर्ण है. 'सुब्बा ' । इनमें से प्रथम दो की सन्तानोंका कोई उल्लेख ७ वनमेन-इन्होंने षट् दर्शनाके मम्बंधमें कोई प्राप्त नहीं है। किन्तु सुअब्बाके पवित्र गर्भमे त्रिभुवन- प्रामाणिक ग्रंथ रचा था, जो आज अनुपलब्ध है । इस स्वयंभू' का जन्म हुआ था। कविका अपभ्रंश भाषा पर उल्लेखसे वे एक दार्शनिक विद्वान जान पड़ते हैं। उनका असाधारण अधिकार था । इनकी जो भी कृतियां हैं व वह दार्शनिक ग्रंथ विद्वानोंमें बहुत प्रसिद्ध रहा है। सब प्रायः अपभ्रंश भाषामें ही निबद्ध हुई हैं। इस समय जिनमेन-यह पुन्नाटसंघके विद्वान थे। इनके हुनकी तीन कृतियाँ उपलब्ध हैं। पउमचरिउ, हरिवंश
गुरुका नाम कीर्तिपेण था। इन्होंने अपना हरिवंशपुराण चरिउ और स्वयंभूछन्द । इनके सिवाय 'पंचमीचरिउ' और
शक संवत् ७०५ (वि० सं०८४०) में वर्तमानपुर के व्याकरण ये दोनों अनुपलब्ध हैं। स्वयंभूदेवने जब नमाज के बनवाए हए पार्श्वनाथके जिन मंदिरम उम पउमचरिठ रचा उस समय वे धनंजयके आश्रित थे। और
समय बनाकर समाप्त किया था जबकि उत्तर दिशाकी हरिवंशपुराणकी रचना करते समय उन्हें बंदहयाका आश्रय
इंद्रायुधनामका राजा, दक्षिण दिशा की कृष्णका पुत्र श्री प्राप्त था। इनके ग्रंथाके अन्तिम भागको इनके पुत्र त्रिभु
वल्लभ, पूर्वदिशाकी अवन्तिभूपाल वत्सराज और पश्चिमचन स्वयम्भूने पल्लवित किया था। यह विक्रमककी प्रायः
की सौरोंके अधिमण्डल या सौराष्ट्र की वीर जयवराह रक्षा १ वीं शताब्दीके विद्वान हैं।
करता था x अतः इनका समय विक्रमकी ७वीं शतादीकविवीर-यह अपभ्रंश भाषा और संस्कृत भाषा
का पूर्वाध सुनिश्चित है। के अच्छे विद्वान थे। इनके पिता देवदत्त काव्यशास्त्रके विद्वान कवि थे, जिन्होंने पद्धडिया छन्दमें 'चरांगचरित्र' विशेष परिचय के लिये देखो, 'प्रेमीअभिनन्दन की रचना की थी, शान्तिनाथचरित तथा अम्बादेवीका ग्रंथ' में प्रकाशित 'अपभ्रंश भाषाका जंबूस्वामी चरित्र' रास भी बनाया था; परन्तु ये तीनों ही रचनाएँ बाज और महाकवि वीर, नामका मेरा लेख । अनुपलब्ध हैं। इन सब रचनामोंका समुल्लेख इनके पुत्र शाकेस्वब्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेयूत्तरी । वीरकविकी रचना 'जंबू स्वामीचरित' में पाया जाता है
पातीन्द्रायुधिनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणं । जिसका रचनाकाल सं० १०७६ है। इनकी माताका नाम
पूर्वा श्रीमदवन्तिभूमृतनृपे बरसादिराजेऽपरो। * देखो, स्वयंभूषन्द, ४-२,७१,८२ ८६, १२।
मौरणामधिमण्डले जययुते वीरे बराहे ऽवति ॥ ये सब पच रामकथा सम्बन्धी है।
-हरिवंशपुराण प्रशस्ति
निह.
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महाकवि रह
[३२१
इस ग्रन्थके शुरूमें कथिने अपने पूर्ववर्ती अनेक पंनियांका एक दूसरा लेब भी अंकित किया हुआ मिला है प्राचार्यों का उनकी कृतियांके नामोल्लम्बपूर्वक म्मरण किया जो सं. ११५२ की वैशाग्व शुक्ला पंचमीको उत्कीर्ण किया है । ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्ति बड़ी ही महत्वपूर्ण है यदि गया है। उसी स्तम्भके बीच भागमें एक भग्न मनि उसके मध्य कुछ विद्वानांका उल्लंग्व और उपलब्ध हो भी है जिसपर 'श्री देवसन' लिम्वा हुया है । वह लेख इम जाय तो फिर भगवान महावीरसे उक्त ग्रन्यकर्ता जिनसेना- प्रकार है:चार्य तककी एक अविच्छिन्न गुरु परम्पराका भी संकलन
" मं० ११२ वैशाम्बसुदि पंचम्यां हो सकता है. जो ऐतिहासिक विद्वानांके लिये एक गौरवकी वस्तु होगी।
२ श्री काष्ठासंघ महाचार्य वर्य श्री देव देवपेन-यह निंडिदेवकं प्रशिष्य और विमलसन __ ३ मन पादुका युगलम्।" गणधरक शिष्य थे तथा 'मलधारी दव, के नामसे लोकम
इस लग्वस म्पष्ट है कि उस स्तूपवाले देवमन प्रसिद्धि को प्राप्त थे । मदन विजयी, तपस्वी, धर्मकै उए
काष्ठासंघके प्राचार्य थे। अब दम्बना यह है कि क्या इन देशक, संयमक परिपालक और भव्यजन रूप कमलांकी
देवमनके माथ सुलोचना चरितके कर्ताका मामंजस्य ठीक विकसित करनेक लिय मर्यक समान थे।
बैठ सकता है पिटर्मन माहबकी रिपोर्ट में दर्शनमारके कर्ताआपने 'मुलांचनाचरित्र को अन्तिम प्रशस्ति में देवमनको रामपनका शिघ्य सूचित किया गया है । इसका अपनी गुरु परम्पराका जो उल्लंग्ख किया है उसमे आपने उनके पास क्या श्राधार था, हम सम्बन्धमे कुछ ज्ञात संघ और गण-गच्छादिका कोई उल्लेख नहीं है. जिमर्म नहीं हो सका। पर इतना सुनिश्चित है कि दर्शनमारक दवमन नामके अन्य विद्वानांसं पापका पार्थक्य सिद्ध करने- कर्ता देवमन मुलांचना चरितके काम पूर्ववर्ती विद्वान है। में मुविधा होती।
हो सकता है कि प्रशस्तिम संघका उल्लेख न किया भावसंग्रह प्राकृत और आराधनामार यादि ग्रंथोंक जामका हो । रचयिता दंचमन भी विमलमन गणधरके शिष्य बनलार्य
प्रस्तुत देवसनने अपने ग्रंथम अपने पूर्ववर्ती जिन गा है। उन्होंने भी अपने ग्रंथाकै अन्नमें अपने मंध और ।
विद्वानांका उल्लेख किया है, उनमे अपभ्रंश भाषांक महागगा गछतिका कोई उल्लेख नहीं किया। और न गुरु
कवि पुप्परन्त ही सबसे बादक विद्वान जात होते है। परम्पराक माथ अपने गुरुकी किमी उपाधि विशेषका ही
इनका समय विक्रमकी 10वीं वीं शताबी है । वसननं सकन किया है. जिसमें उनकी पृथकनाका महज बांध हो
मुलांचनाचरितको गक्षम संवन्मरम श्रावण शुक्ला चतु. सकता। प्रस्नुन मुलांचनारितम अापने अपने गुरुकी
देशी बुधवारको बनाकर समाप्त किया है जैयाकि उनकी उपाधि मलधारी बतलाई है जबकि भावसंग्रहादिक कर्ना
प्रशस्तिक निम्न पदमे स्पष्ट है:देवसनने उसका कोई उल्लन नहीं किया। इसमें दोनों विमलामना की भिन्नता नो जान पड़ती है.पर उसमे उनक रवम संवत्सर वुदिवमाए, मुकचदिमिमावणमायण । संघ और गणगच्छादिकी भिवताका कोई मंकत नहीं चरिउ मुलायमाहि णिप्पण्णउ, पत्थ-ग्रन्थ-बरिणणसंपुण्णर। मिलना।
ज्योतिषकी गणना अनुसार माठ संवरमाम राक्षम ___सं० १६४५ के 'दबकुण्ड' वाले शिलालंग्व में देव- संवत्यर स्वां है। जो दो उल्लेखाम मिलता है। मेनका उल्लंम्ब निहित है । उसमें भी बिमलमन गणधर प्रथम राक्षस मवत्सर मन १०७५ (वि० सं० ११३२)
और उनक संघाटिका कोई उल्लेग्ब अंकित नहीं है जिसमें २६ जुलाईका श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार पड़ता है। म्पष्ट है कि मुलोचना चरितके कर्ता देवमेन उममे भिन्न है। और दमग मन् १३१ वि० सं० १३७२ का १६ जुलाईहां, उसी 'दबकण्ड' के एक 'जैन स्तूप' पर तीन के दिन बुधवार और उक्त चतुर्दशीका दिन पड़ता है।
अतः इन दोनों में पहला संवन्मर उपयुक जान पड़ना x Edigraphica IndcaY.L.11.P.237-248
है। उममे स्पष्ट हो जाता है। कि मुलाचनाचरितक का # See Archaelogical survey of India Y.L.20P 102
दवमेन काष्ठा मंधके विद्वान थे। उन्होंने प्राचार्य कुन्द
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३२२]
अनेकान्त
[किरण
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कुन्दके प्राकृत गाथा बद्ध सुलोचनाचरितको पद्धडिया यह सब उस धर्मवस्मलताका ही प्रभावह है जो भरतमंत्री छंदमें बनाकर समाप्त कियाह, जिमका रचनाकाल मं.११३२ उक कविवरसे महापुराण जैसे महान ग्रंथका निर्माण करान है। इससे दृबकुण्डका वह स्तूप लेग्ब २० वर्ष बाद लिम्बा में समर्थ हो सके। उत्तरपुराणकी अन्तिम प्रशस्निम, गया है। परन्तु स्तूपमें उल्लिग्वित देवमेनकी गुरु परंपरा- कविने अपना जो कुछ भी मंक्षिप्त परिचय अंकित किया है का भी यदि प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध होजाय तो उसमे स्पष्ट प्रतीत होता है कि कविवर बडे ही निम्मंग उसमे दोनों देवसेनाके व्यक्तित्वका ठीक-ठीक पता चल ओर अलिप्त थे और देहभोगामे सदा उदासीन रहते थे। मकता है।
उत्तरपुराणक उस संक्षिप्त परिचय परसे कविके उच्चतम १. महाकवि पुष्पदन्त-यह अपने समयके प्रसिद्ध जीवन-कणाम उनकी निर्मल भद्रप्रकृति, निम्मंगता और विद्वान कवि थे। इनके पिताका नाम केशव भट्ट और माता- अलिप्तताका वह चित्रपट पाठकक हृदय-पटल पर अंकिन का नाम मुग्धादेवी था। यह कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। हुए बिना नहीं रहता। उनकी अकिचनत्तिका इसमे श्रीर इनका शरीर अत्यन्त कश (दबला-पतला) और वर्ग भी अधिक प्रभाव ज्ञात होता है. जब व राष्टकट राजाश्रासांवला था। यह पहल शैव मनानुयायी थे, परन्तु बादको क बहुन बद साम्राज्यक सेनानायक और महामान्य द्वारा किपी दिगम्बर विद्वानके सांनिध्यम जैनधर्मका पालन मम्मानित एवं संगवित होने पर भी अभिमानम पर्वथा करने लगे थे। वे जैनधर्मके बड़े श्रद्धालु और अपनी
अने, निरीह एवं निस्पृह रहे है। देह-भागांमे उनकी काव्य-कलामे भन्योके चित्तको अनुरंजित एवं मुग्ध करने
अलिप्तता ही उनके जीवनकी महत्ताका सबमे बड़ा सबून वाले थे, तथा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश भाषाके महा
है । यद्यपि वे माधु नहीं थे, परन्तु उनकी वह निरीह पंडित थे । इनका अपभ्रंश भाषा पर असाधारण अधिकार
भावना इस बातकी संद्योतक है कि उनका जीवन एक था, उनकी कृतियों उनके विशिष्ट विद्वान होनेकी म्पष्ट
माधुमे कमभी नहीं था। वे स्पष्टवादी थे और अहंकारकी सुचना करती है । कविवर बड़े ही स्वाभिमानी और उग्र उस भीषणतामे सदा दूर रहते थे; परन्तु म्वाभिमानका प्रकृतिके धारक थे, इस कारण वे 'अभिमानमेरु' कहलाने परित्याग करना उन्ह किसी तरह भी इष्ट नहीं था. थे । अभिमानमेक, अभिमान चिह. काव्यरत्नाकर, कवि- इतना ही नहीं कितु वे अपमानसे मृत्युको अधिक श्रेष्ट कुल तिलक और मरस्वति निलय श्रादि उनकी उपाधियो समझ थी, जिनका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्या में स्वयं किया है। कविकी इस समय तीन कृतियां ममुपलब्ध है-महाइससे उनके व्यक्तित्व और प्रतिष्ठाका सहज ही अनुमान पुराण, नागकुमार चरित्र और यशोधरचरित्र जो मुदिन किया जा सकता है। वे सरस्वतिके विलासी और स्वाभा- है। ये सभी रचनाएँ सुन्दर अर्थ गौरव और भाषा माष्ठविक काव्य-कलाके प्रेमी थे। इनकी काव्य-शक्ति अपूर्व वताको लिए हुए हैं। इनकी रचनाग्राम स्वभाविक माधुर्य और श्राश्चर्यजनक थी । प्रेम उनके जीवनका वास अंग और पदलालित्य होते हुए भी शब्द काठिन्य अधिक पाया था। वे धनादि वैभवये अत्यन्त निस्पृह और जैनधर्मके जाता है, वे भाषा रस और अलंकारकी दिव्य छटाको अटल श्रद्वानी थे। उन्हें दर्शनशास्त्रों और जैनधर्मके लिए हुए हैं। कविका इस पर प्रामाधारण अधिकार था। सिद्धान्तका अच्छा परिज्ञान था । वे राष्ट्रकूट राजाश्रोके ग्रंथका अनुधावन करते हुए कविकी प्रतिभा तथा उनके अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीयके महामात्य भरतके द्वारा भावुक स्वभावका पद-पद पर अनुभव होता है। सम्मानित थे । इतनाही नहीं किन्तु भरतके ममुदार प्रेम
महापुराण दो खण्डों में विभाजित है, आदिपुराण मय पुनीत व्यवहारमे वे उनके महलोंमें निवास करते रहे, ..
तरह, • और उत्तरपुराण । आदिपुराणमें भगवान ऋषभदेवकाxजं गाहाबन्धं पासि उत्त, सिरिकुन्दकुन्द गणिणा णिरुत्तु ।
चरित्र वर्णित है और उत्तरपुराणम अवशिष्ट तेईम तं एस्थहि पद्धडियहिं करेमि, परि किंपिन गूढउ अत्थु देमि । स इसके लिए पाठक उत्तरपुराणकी प्रशस्तिका वह ते णवि कविणउ संखालहंति, जे प्रत्युदेग्वि वसणहि (वि) पंति अन्तिम अंश देखें । ग्रंथ माणिकचन्द्र ग्रंथमालामें
-सुलोचना चरित्र प्रशस्ति मुद्रित हो गया है।
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मधू
तीर्थकरों और १२ चक्रवर्ती यदि महापुरुषों का कथानक दिया दिया हुआ है । जिनमें महाभारत और रामायणकी कथाएँ भी संक्षिप्त रूपमे आजाती है । आदिपुराण में ३० और उत्तरपुराण मे ६५ संधियां हैं। और इन दोनों की श्लोक संख्या वीस हजारमे कम नहीं जान पडती । कविने अपना यह ग्रंथ क्रोधन संवत्सरकी श्राषाढ शुक्ला दशमी अर्थात् शक सं०८७ (वि० सं० १०२२) में बनाकर समाप्त किया है। इस ग्रंथका सम्पादन डा०पी. एल. वैद्यने किया है, जो माणिकचन्द्र ग्रंथमाला बंबई की श्रीरये प्रकाशित भी हो चुका है।
3
दूसरा ग्रंथ नागकुमारचरित है। यह एक छोटासा खंड काव्य है । इसमें नमी के फलको व्यक्त करनेवाला एक सुन्दर कथानक दिया हुआ है जिसमें सन्धियों द्वारा नागकुमारके चरित्रका अच्छा चित्रण किया गया है। रचना बडी सुन्दर सरस और चित्ताकर्षक है। इस ग्रंथ की रचना भग्न मन्त्रीके पुत्र ननकी प्रेरणा हुई है और इसीलिये यह ग्रंथ उन्हें नामांकित किया गया है । इस ग्रंथका सम्पादन] डा० हीगलालजी एम. ए. अमरावतीने किया है और वह कारंजा सीरीजसे प्रकाशित हो चुका है।
यशोधरचरित्र - इस मंथम चार संधियां हैं। जिनमे राजा यशोधर और उनकी माता चंद्रमतीका कथानक दिया हुया है. जो बडाही सुन्दर और हृदयद्रावक है और उसे कविने चित्रितकर कंटका भूषण बना दिया है। राजा यशांघरका यह चरित इतना लोकप्रिय रहा है कि उसपर अनेक विद्वानाने संस्कृत और अपभ्रंश भाषा अनेक ग्रंथ लिखे है। सांसद वादिराज, वासवसेन, सकलकीर्ति श्रतसागर पद्मनाभ माणिक्यदेव, पूरवि, कविर सोमकीनि विश्व और
स्वर विज्ञानाने अनेक ग्रंथ लिखे है ।
,
ग्रन्थोंकी भाषा
कविवर रहक मन्याकी भाषा १२ वी शताब्दी की प्राकृत अपभ्रंश है। उस समय हिन्दी भाषाका भी बहुत कुछ वो था इनके विविध प्रवाही देखने
या मनन करनेसे मालूम होता है कि उस समय बालचालकी भाषा हिन्दीका विकसित रूप था गया था और इसीलिये कवि के प्रथाही भाषा बहुत कुछ माल तथा सहज ही अर्धबोधक है उसमें देशी भाषाके शब्दोकी बहुलता दृष्टिगोचर होती है । चकि रह कविके प्रायः
[ ३२३
सभी ग्रंथ ग्वालियर और उसके आस-पास प्रदेशों अथवा नगरचे गए है, इसलिए उस पर शीरमेनी प्राकृत भाषाका प्रभाव स्पष्ट ही है । भाषा साहित्य की दृष्टिसे जो शब्द का अर्थ गौरव और अलङ्कारिकता पुष्पदन्तादि महाकवियांक अन्योंमे दृष्टिगत होती है वैसी कवि रहभूके ग्रन्थों में नहीं है, उनकी भाषा अपेक्षाकृत बहुत ही मरल और सुबोध है, चरित तथा पुराण ग्रन्थोंमे कविने प्रकृत कथा वस्तुको ही सोधे सादे शब्दों में रखनेका प्रयत्न किया और थावश्यक मंतित रूपम और नाश्रुतिरूप जैन सिद्धान्तकी मान्य ताओ का भी यथा स्थान समावेश कर दिया है ।
कवि रहने गरि पुराण, पूजा, कथा और मेवातिक विषयों पर ग्रन्थ लिखे है । और वे सभी ग्रन्थ विभिन्न जातियों एवं स्थानां धर्मात्मा श्रीमन्न पति अनुरोध पर रहेगी तत्कालिक महाकोकेशियर गुरु मानते थे और उनकी शाकिर उनके द्वारा अनेक जैन मन्दि मृतियांका निर्माण और प्रतिष्ठादि कार्य भी सम्पन्न हुए है। रद्द कविके म्यां चीप पडडी घना गाहा, दोहा, दुबई. छप्पय, मदनावतार और भुजङ्गप्रयात यदि अनेक छन्दोका प्रयोग हुआ है। किन्तु इन सब छन्दमं सबसे अधिक पढी छन्दका ही उपयोग हुआ मिलता है। अपभ्रंश भाषाके में यह खास विशेषता पाई जाती है कि उनमें सर्ग, अंक, अध्याय की जगह सर्वत्र परिच्छेद' और 'सन्धि' शब्दका प्रयोग हुआ देखने ग्राना है। प्रत्येक सन्धि या परिच्छेद में अनेक कडक होते है और एक कडक आठ श्राट यसकोका होना और दो पका एक यमक होता है पन्डी इन्दमें एक पद १६ है कि महाकवि स्वयंभू 'स्वयंभू' विषयक ग्रंथक अन्तिम अभ्यायकं निम्न पद्यां प्रकट है:पापड पनि विहिप हिजय उग्रिम्म अनि, कडबड अजिम अहिरन्ति ॥
पन मा मन्जिभगान्ति
"
संविध
ग्रन्थोंमें प्रयुक्त हुए सभी चन्द्रों का यदि परिचय कराया जाय तो लेव बहुत बढ़ जायगा । श्रतः कुछ वन्दके नाममात्रका उल्लेख करके यहां सिर्फ पडी छन्दका ही नमूना प्रस्तुत किया गया है ।
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३२४ ]
"मेकान्त
[ किरणह
रचना-काल
चउदहमय वाणव उत्तरालि, बरिसह गय विकमराय कालि । कविवर रहने अपनी कृतियों प्रायः ग्वालियरके वक्ग्वेयत्तु जि जिणवय-समक्खि, भव मार्माम्म स-मेयपक्वि तम्बर या तोमरवंशी राजा इंगरसिंह और उनके पुत्र पुण्णमिदिणि कुजवारे समोई, सुहया सुहणामें जणेडं । कीर्तिसिहके राज्यकाल में ही अग्रवाल आदि जातियोंके तिहुमासयरतिं पुण्णहउ; सम्मत्तगुणाहि णिहाण धूउ । स्थानीय तथा विभिन्न नगरीके निवामी श्रेष्टि-पुरुषांकी
मुकौशल चरितकी रचना इसमे चार वर्ष बाद विक्रम प्रेरणा एवं अनुरोधमे रची हैं। इमीमें ग्रन्थकर्ताने उन सवत १४६६ माघ कृष्णा दशमाका अनुराधा नजत्रम पूरा ग्रन्थ की प्रादि अन्त प्रशस्तियोंम ग्रंथनिर्माणमें प्रेरक भव्य गई है. जैसाकि उसके निम्न प्रशस्ति वाक्यमे स्पष्ट हैपुरुषोंके कुटुम्बादिका विस्तृत परिचय दिया है। जिसमे मिरि विक्कम समयंतरालि, वट्टतइ इंदु सम विसमकालि । उस समयके लोगोंकी परिणति, धार्मिक उत्साह और उदा- चउदहमय संक्च्छरइ अएण, छ एउ अहिपुणु जाय पुण्ण । रता आदिका कितना ही परिचय मिल जाता है। माथ ही माहदु जिकिराहदहमोदिण.म्म,अणुराहुरिक्वडियमम्मि उस समयकी अनेक धार्मिक घटनाओंका-मन्दिर, मृति- सम्मत्तगणनिधानमें फिमी ग्रंथके रचे जानेका कोई निर्माण तथा उनकी प्रतिष्ठा विधि-महोत्सव, तीर्थयात्रा उल्लेम्ब नहीं है हां, सुकौशलचरितमें पार्श्वनाथ पुराण, संघ गमन, और ग्रन्थ निर्माण एवं उनकी प्रतिलिपियाँ हरिवंश पुराण और बलभद्र चरित (पा पुराण) इन तीन कराकर दान देने आदिकी ऐतिहासिक घटनाओंका-समु- ग्रंथांका x नामोल्लेख किया गया है। जिसमें यह स्पष्ट ल्लेग्व भी उपलब्ध हो जाता है । कविने जिन जिन श्रेष्ठी है, कि उक्त तीनो ग्रंथ और उनमें उलिग्वित सभी ग्रंथ या श्रावकोंके श्राग्रहमे ग्रन्थ रचे हैं। उन उन पुरुषोंकी संवत १४६६ मे पूर्व रचेगए हैं । पद्मपुराण या बलभद्र पोरम कविका यथोचित सम्मान भी किया गया है और चरितमें सिर्फ नेमिनाथ पुराणका उल्लेख है हरिवंश अर्थादिके साहाय्यके साथ साथ वस्त्राभूषण श्रादिकी भंट® पुराणमे त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित (महापुराण) मेघेश्वर द्वारा उन्हें संतोपित भी किया गया है । इसीसे कविने भी चरित, यशोधर चरित, वृत्तमार, जीवंधर चरित और पार्श्व प्रत्येक ग्रन्थकी संधियोके शुरूम संस्कृत पद्यांमे उन भव्य चरित, इन छह ग्रंथाके x रचे जाने का उल्लेख है । इसम पुरुषोके गुणोंका पाख्यान करते हुए उनकी मंगल कामना ये सब ग्रंथ सं० १४६६ में पूर्व रच गए है । और मम्मइकी है और वह ग्रन्थ भी इच्छानुसार उन्हींके नामांकित जिनचरित' नामक ग्रंथमे, पार्श्वपुराण, मेघेश्वरचरित. किया गया है।
त्रिषष्ठिशलाका चरित रत्नाकर (महापुराण) बलभद्र सम्मत्त गुणनिधान और सुकौशलचरित नामके अन्या- चरित, मिद्धिचक्र विधि, सुदर्शन चरित धन्यकुमार चरित में उल्लिम्बित रचनाकालको छोड़कर शेष प्रन्याकी प्रश- नामक मत ग्रंथोंका उल्लेख किया गया है. जिसमें अंतके स्तियों में उनका रचना समय दिया हुआ नहीं है जिससे तीन ग्रन्थोंके नाम नये है। यह निश्चय करना अत्यन्त कठिन है कि कवि रहधूने सबसे प्रथम किस ग्रन्थकी रचना की थी । सम्मत्तगुणनिधानकी
xजह पइणेमि जिणिंदह केरउ,चरिउ रइउ बहु-सुक्म्ब जाउ रचना विक्रम संवत् १४६२ की भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा
अराणु वि पासहुचरिउ पयामिउ,ग्वेऊसाहू णिमित्त सुहापिउ मंगलवारके दिन की गई है जैसा कि उसके निम्न प्रशस्ति
बलहहहुपुराण पुणु तीयउ,णियमण अणुराणं पहं कीयउ ।
-सुकौशल चरित प्रशस्ति वाक्यसे प्रकट है:
... सोढलणिमित्त णेमिहु पुराणु, विरयउ जह कइजण विहयमाणु ® संपुगण करेप्पिणु पयड प्रस्थु, खेऊँ साहुहु अप्पियउ सत्थु
-बलभद्र चरित प्रशिस्ति बहुविणएं गिरिहयउ तेण, तक्वणि प्राणांदिउ णिय मोण । - सिरितसट्टि पुरिमगुण मन्दिरु,रहउ महापुराण जयचंदिरू। दीवंतर-आगय-विधिह-वत्थ, पहिराविवि अह सोहा पसत्थ। तह भरहहुसेरणावड्-चरियड,को मुहकहपबन्धु गुणभरियड पाहरणहिं मंडिउ पुणु पक्त्तुि, इच्छादाणे रंजियउ चित्तु । जसहरचरित जीवदय-पोसणु, वित्तसार सिद्धत पयासणु । संतुहउ पंडिय णिय मणमि, पासीबाउवि दिएणउ खम्मि । जीवधरहु वि पासहचरियउ,विरइवि भुवण त्तउ जसभरियउ । -पार्श्व पुराण प्रशस्ति
-हरिवंसपुराण प्रशस्ति
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इनके अतिरिक्त करकण्डुचरित, सम्यवस्वकौमुदी, दशमी मंगलवारके दिन पूर्व हुई है। इस प्रथको कविने अात्मसंबोध, अणथमी कथा, पुण्यावस्था, सिद्धांतार्थ- तीन महीने में बनाकर समाप्त किया है। प्रथकी भाषा सार, दशलक्षणजयमाला, और पांडशकारण जयमाला, सरल और सुगम है।
भी हैं। इन आठ प्रन्यामे से सम्यक्त्व कौमुदी और २ सकीशलारत-इम गथमें राजा सुकाशलका पुण्यानवकथा इनदो ग्रन्थोंको छोड़ कर शेष ग्रन्थ कब और पावन चरित चणित है। यह प्रथ भी चार संधियोम कहाँ रचे गए यह कुछ जात नहीं होता। इनके अतिरिक्त समापन हुया है। प्रस्तुत प्रथका निर्माण वि. सं. १४६ उपदेशरत्नमाला, सुदंशण चरित, और त्रिषष्ठि शलाका, में मालियर निवामी, अगवाल कुलावतंश माहू प्राणाके पुरुषचरित (महापुगण) नामकी रचनाएं मुझे अभी तक पुत्र रणमलमाहकी प्रेरणा एवं प्राग्रहमे हुआ है। प्राप्त नहीं होगी, जिनकी खोज जारी है. मिलने पर उनके प्रशस्तिमें उनके वंशका परिचय भी दिया हश्रा है।। सम्बन्धम भी प्रकाश डालनेका यन्न किया जायगा।
. ३ बलाहरित-(पति ) इसमें गमवन्द्र, में पहले यह बतजा आया हूँ कि कविवर रह प्रतिष्टा- लक्ष्मण और सीता आदिके चरित्रका अच्छा चित्रण किया चार्य थे। उनके द्वारा प्रष्टिन सं० १४६७ की प्रादिनाथकी गया है । यह ग्रंथ माह मंधियोंमें समाप्त हुआ है, मृतिका उल्लेग्वभी किया था। उन्होंने अनेक मनियाकी जिमकी श्लोक संख्या तीन हजार छहमौके करीब है। प्रतिष्ठा की है। उनका जीवन सं० १५२५ में भी बादमे प्रथका कथानक बडा ही रांचक और हृदयग्राही है। यह रहा है, क्योंकि उनके द्वारा सं० १५२५ में चैत्र सुदि अपभ्रंश भाषाकी १५ वीं शताब्दीकी जैन रामायण है । बुधवारके दिन ग्वालियरमे तोमर वंशी राजा कीनिसिहक यह ग्रंथ भी म्वालियर निवासी अग्रवाल कुलावतंश माह राज्यमं प्रतिष्टाचार्य रहधूकी पान मेवाम अग्रवाल वंशी बाटूके मुपुत्र हरमीमाकी प्रेरणा एवं अनुरोधमे रचा गया संघाधिपति प्रामञ्च भव्य हेमगजक लिये निर्मित आदिनाथकी है। माह हरमी जिन शामनके भक्त और कषायोंको वीण मृनिकी प्रतिष्टाकी गई है । इयम स्पष्ट है कि कविधर इसमें करने वाले थे । श्रागम श्रीर पुगण प्रयोके पठन-पाठनम बादमे भी जीवित रहे है। पर कितने समय रहे यह बतलाना समर्थ, जिन पूजा और मुपायदानम अनुरक्त, नथा रात्रि कठिन है। उनका समय विक्रमकी १५वीं शताबी का अन्तिम और दिनम कार्यान्सर्गमे स्थित होकर आत्मध्यान द्वारा चरण है । अर्थान व बी १६वीं सदीक विद्वान थे । म्व-परक भदज्ञानका विचार-विमर्श एवं अनुभव करने ग्रन्थ-परिचय
वाले नधा तपश्चरण द्वारा परीरको क्षीण करने वाले
धर्मनिष्ठ व्यनि थे । प्रधको प्राद्यन प्रशस्तिमें हरमी कदिक द्वारा रचित ३ प्रन्यामिग २. प्रन्याका
माहक कुटुम्बका विस्तृत परिचय कगया गया है। संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:
गमका चरित लाम्मे बड़ा ही पावन रहा है, उस पर १ सम्मत्तगुण निधान-प्रस्तुत ग्रन्थम सम्यक्त्व प्राकृन, मंस्कृत और अपभ्रंश भाषामं अनेक जैन ग्रंथ रचं स्वरूप और उसके निःशंकिनादि गुणांका परिचय चार गये है। मंधिया द्वारा कराया गया है, जिनमें उन थाट अंगोम नामनाथ जिन चरिन-(हरिवंशपुराण) हम ग्रंथ प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले पुरुषांक कथानकभी दिये हुप हैं। में जैनियांके व तीर्थकर भगवान नेमिनाथका पावनइम ग्रन्थमें कुल १०८ कडवक दिए हुए है जिनकी प्रानुमा- चरित दिया हुआ है। उक्त प्रथ १४ संधियोंमें ममात निक श्लोक संख्या तेरहसी पचहत्तरके करीब है। यह हुआ है । इस प्रथ की रचना योगिनीपुर (दहली) में उत्तर प्रन्थ गोपाचल वामी माहू खेममिहके पुत्र कमलमिहके दिशाकी श्रार किमी ममीपवर्ती नगरके निवासीकी प्रेरणाम अनुरोधमे बनाया गया है और उन्हींके नामांकित किया हुई है, जिसका नाम पाठकी अशुद्धिके कारण स्पष्ट नहीं पड़ा गया है। और गन्थकी श्राद्यन्त प्रशस्तियोंमे माह कमल- जासका । अग्रवाल कुलावतंश गोयल गांधी महामन्य सिंहके कुटुम्बका विस्तृत परिचय दिया हुआ है । गन्थ गत साहलाहाक पुत्र संघाधिप लांणा साहूकी प्रेरणास हुई है। कथाओंका आधार यशस्तिलकचम्पूके छट पाश्चापके समान प्रधिकी आयतप्रशम्तिमें साहूलाहाके परिवारका यथेष्ट परिहै। इस ग यकी रचना वि० सं० १४१२ को माघ शुक्ला चय कराया गया है। इस प्रथकी प्रशस्तिमं 'खेल्हा' नामक
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ब्रह्मचारीका उल्लेग्य किया गया है और इस प्रथकी पाय- श्राद्यन्त प्रशस्तिम इनके वंशका विस्तृत परिचय दिया रचनामे पूर्व कुछ गयीक रचे जानेका उम्लेच भी किया हुआ है। ग्रन्थका कथा भाग भी सुन्दर है। इस ग्रन्थमें है । नथ प्रम्निमें मांनागिरिक भट्टारकीय पट्टका उल्लेख कविने अपने पूर्ववर्ती निम्न अन्धकारोंका उल्लेख किया है और कमल कीर्तिक उम पट्ट पर शुभचंद्रके बैठनेका भी है। कवि धीरपन, देवनन्दी (पूज्यपाद) जैनेन्द्र व्याकरण, ऐतिहासिक उल्लेख अंकित है जिसकी सूचना पूर्व की वज्रमेन और उनका षट् दर्शनप्रमाण नामका न्याय ग्रन्थ, जा चुकी है।
रविषण और उनका पनचरित, जिनमेनका हरिवंश पुराण, ५पार्श्वपुराण - इस ग्रन्थ में जैनियाँके २३ व तीर्थ
मेघश्वर चरिन, (मुलांचना चरित ) देवमेन, अनंगचरित कर भगवान पार्श्वनाथका जीवन परिचय अंकित है।
दिनकरमन, महाकवि स्वयंभू , चतुमुख तथा पुष्पदन्त । यद्यपि भगवान पार्श्वनाथकं जीवन सम्बन्धी प्राकृत,
प्रस्तुत ग्रन्थ ग्वालियरक तोमरवंशी गजा डूंगरसिंहके मंस्कृत और अपभ्रंश भाषामें अनेक ग्रन्थ अनेक विद्वानों
राज्यकालमें रचा गया है। द्वारा लिखे गये है, जो अपनी अपनी विशेषताको लिये
यशोधर चरित-इम ग्रन्थमें राजा और यशरोध हुए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ मान संधियाम पूर्ण हुश्रा है इस
चन्द्रमतीका जीवन परिचय दिया हृया है । ग्रन्थका कथाग्रन्थका निर्माण भी अग्रवाल वंशी माहपजणके सुपुत्र
नक सुन्दर तथा हृदयगाही है, और वह जीवदयाकी माहखेऊ या वेमचन्दके अनुरोध हया है। यह जोडणीपर पोषक वाताम्म धान-घांन है । यद्यपि यशोधरक सम्बन्ध(दिली) के निवासी थे । इनका गोत्र पंडिल था। खेम- में संस्कृत भाषाम अनेक चरित-ग्रन्थ लिम्ब गये है जिनमें चन्दकी माताका नाम बील्हावी और धर्मपन्नीका नाम प्राचार्य मोमदेवका 'यम्तिलक चम्प' मबर्ग उच्च कोटिका धनदवी था और उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, महमगज,
महा काव्य-ग्रन्थ है। परन्तु अपभ्रश भापाका यह दूसरा ही पहराज, खुपति और हालिवम्म । इनमम माह मंघाधिप
ग्रन्थ है। प्रथम महाकवि पुष्पदन्तका है । प्रस्तुत महमराजने गिरनारको यात्राका संघ चलाया था। बऊं
ग्रन्थ चार मंधियाम समापन हश्रा है जिसमें १०४ कडवक माह सप्त व्यसनम रहिन और दव-शास्त्र-गुरुक भन थे।
है और जिसकी पद्य संन्या पाठमी श्लोक जितनी है । ग्रन्थ बन जाने पर माह खेमचन्दनं कविवर रइधूका वस्त्रा
इस ग्रन्थकी रचना भट्टारक कमलकीनिक अनुरोधर्म नथा भूषण श्रादिमे खूब सरकार किया था। इस तरह ग्रन्थ
अग्रवालवंशी माह कमलमिहर्क पुत्र हेमराजकी प्रेरणा एवं प्रशस्तिम खेऊ माह के परिवारका विस्तृत परिचय कराया।
अनुगंध पर की गई है, अतएव यह प्रथ भी हमराजक गया है । ग्रन्थकी पाथ प्रशस्निमें ग्वालियरका भी परिचय
नामांकित किया गया है । प्रथकी यायत प्रशतिमें माहदिया हुआ है। जिसमें वहांकी उम ममयकी परिस्थितिका
कमलसिंहके कुटुम्बका विस्तृत परिचय कराया गया है। बहुत कुछ पता चल जाता है।
कवि रइधने इस प्रथको 'जोधा' साहके सुदर विहारमें ६ मघश्वर-चरित-इम ग्रन्थमं भगवान आदिनाथ
बैठ कर बनाया है। और इमं स्वयं कविने 'दयारम भर के सुपुत्र भरत चक्रवर्ती, जिनके नामसे इस देशका नाम
गुण पवित्न' वाक्य द्वारा-पवित्र ट्यागुणरूपी रसस भारतवर्ष विश्रत हुअा है उनके प्रधान सेनापति जयकुमार
भरपूर बनलाया है। का जिन्हें गंधेश्वर भी कहते थे, चरित वर्णन किया गया धन्यकुमार चरित-इस गथम धन्यकुमारका है। और समकालीन श्रीपाल चक्रवर्तक हरण और निर्वाण जीवन परिचय दिया हुआ है। यह ग्रंथ भी चार संधियोप्राप्तिका कथानक भी दिया हुया है। प्रस्तुत ग्रन्थमें में पूर्ण हुआ है और उसका प्रमाण १०० मौ अनुष्टुप १३ मंधिया या परिच्छेद हैं जिनमे २८४ कडवक हैं और श्लोको जितना है। इस प्रथकी रचना प्रारीन जिला जिनकी श्रानुमानिक श्लोक संख्या तीन हजारमं कुछ ऊपर ग्वालियर निवासी जैसवाल वंशीय माह पुण्यपालके है। इस ग्रन्थकी रचना ग्वालियर वासी अग्रवाल वंशी माहू मुपुत्र माहू भुलणकी प्रेरणा एवं अनुरोधर्म हुई है। चमचन्दकी प्रेरणा की गई है । ग्रन्थ की मंधियोंके अंतमें
पुण्याश्रवकथा-इस गूथमें पुण्यका श्रास्रव म्वेमचन्दकी प्रशंसा सूचक मंस्कृत पद्य भी दिए हुए हैं, करने वाली कथायांका संकलन किया गया है। ये कथाएँ जिनमें उनकी मंगल कामना की गई है। साथ ही ग्रन्थकी बडी ही रोचक और शिक्षाप्रद है, इस प्रन्यका निर्माण
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[किरण
महाकवि रइधू
[ ३२७
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साहू नेमीदामकी प्रेरणा एवं अनुराधसे हुअा है. इमीस
एवं अनुराधस हुधा है. इसास कथा भाग बड़ा ही सुन्दर श्रार चित्ताकर्षक है और भाषा कविवरने नमीदामका और उनके कुदम्बका विस्तृत पारचय भी सरल तथा सुबोध है। प्रन्थका यह कथाभाग दश दिया है। प्रायन्त प्रशस्तिमें माहू नेमीदास जोइणिपुर संधियाम समाप्त हश्रा है जिसकी आनुमानिक श्लोक संख्या (दिल्ली) निवासी माह नामउके चार पुत्रांम से प्रथम थे। दो हजार दो सा बतलाई गई है । यद्यपि श्रीपालके जीवन कविवरक प्रशस्ति गत कथनमे माह नमीदामक्री धार्मिकता, परिचय और मिट्टचक्रवतके महत्वका चित्रित करने वाले उदारता और सजनतादिका महज ही अाभाम होजाता है, संका सिंदी और जगती मा
निशान और उनके द्वारा अगनित मूर्तियाक निमाण कराय जान ई.परन्त अवश भाषाका यह दमरा ही ग्रंथ है। प्रथम तथा मंदिर एवं प्रतिष्ठा महोत्सव आदि किये जानका परि
पार गय पंडिन नम्सनका है।। चय भी मिल जाता है, मिदास चंदवाडकं राजा प्रताप
१. वृत्तमार-यह कविवरकी सैद्धातिक कृति है। रुद्रमे सम्मानित थे. जी चौहान वंशी राजा रामचन्द्रक, जिनका राज्य वि. मं० १४६८ में विद्यमान था, पुत्र थे।
इस गन्थम सम्यक चरित्रकी प्रधानताये कथन किया गया
है। गन्ध छह अंकों अथवा अध्यायोंमें विभक्त है। जिनमें इनका विशेष परिचय फिर कभी कराया जायेगा।
सम्यग्दर्शन. गुगम्थान, कर्म, अनुप्रेक्षा, धर्म और ध्यानरूप १० मम्मइजिनचरित -इसमे जैनियोंके अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर या वर्धमानका जीवन परिचय दिया
छह प्रमेयांका विवंचन किया गया है। कुछ 'उन च इश्रा है । यद्यपि उसमें कवि अमग महावीरचरितम काई
पयोको छांट कर मूल ग्रन्थकी गाथा संख्या पाठमो विशेषता दृष्टिगोचर नहीं हुई किन फिर भी अपभ्रश
सत्ताईस है, जिसकी श्रानुमानिक श्लोक संख्या भाषाका यह चरित नथ पद्धडिया आदि विविध छंदाम
एक महमके लगभग होगी । इस ग्रंथकी रचा गया है । कविवरकी रचना-शैली माल होने काच
रचना कविन अग्रवाल वंशी माहू हालूके सुपुत्र कर भी है। यह ग्रंथ दम मंधियाम समाप्त हुआ है।
श्राद साहकी प्ररणाम कीगई है, अतएव यह गन्थ उन्होंक प्रस्तुत ग्रंथ हिसार निवासी अग्रवाल कुलाबनंश गोयल
नामाकित किया गया है । कविवरको कथन शैली संक्षिप्त
और माल है । ग्रन्थका अंतिम पत्र उपलब्ध न होने गात्रीय माह महजपालक पुत्र और संधाधिप महदेवक
यह ज्ञात नहीं हो सका कि अन्य निर्माणम प्रेरक माह लघु भ्राता साह नामउकी प्रेरणा एवं अनुराधर्म बनाया गया है । इस प्रथको आद्यन्त प्रम्तिम माहू नामक
प्राद कहांक निवासी थे। वंशका विस्तृत परिचय दिया हुआ है और उनके द्वारा
१३ अगथी कथा-इम कथाम गविभाजनके दोषी सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्योंका ममुल्लख भी किया और उपग होने वाली व्याधियांका उल्लेख करते हुए लिम्बा गया है। साथ ही बल्हा ब्रह्मचारी और ग्वालियरमं उनक है कि दो घडी दिनके रहने पर श्रावक लोग भोजन कर, द्वारा निर्मित चंद्रप्रभु भगवानकी विशाल मूनिकामी उन्लम्ब क्योंकि मृर्यके तेज मंद होने पर हृदय कमल मनित हो किया है, जिनका परिचय 'प्रशस्तियाक महत्वपूर्ण प्रति- जाता है, यतः गात्र भाजनक स्यागका विधान धार्मिक हामिक उल्लम्ब' शीर्षकके नीचे कराया गया है। इस ग्रन्थ तथा शारीरिक स्वास्थ्यको दृष्टिम किया गया है जैसा कि की प्राद्य प्रशस्तिमें इससे पूर्व बने हुए कुछ ग्रन्थाका भी उसके निम्न दा पद्योग प्रकट है:उल्लंब दिया हुआ है । जिनका नामोल्लेख 'रचनाकाल' जि राय दर्लाहय दीप्रणाह, . शीर्षकके नीचे किया गया है।
जि कुटु लिय कर करण मबाह । १५ सिद्धचक्रविधि-इस ग्रन्थका नाम मिद्धचक्रविधि दुहग्गु जि परियण वग्गु अणेहु, (श्रीपाल चरित) है इस ग्रन्थमं श्रीपाल नामके राजा और
मुरणिहि भायणु फलु जि मुणहु । उनके पांचसो माथियांका सिद्धचक्रवन (अष्टान्हिका वन)के घडी दुइ वासरु थक्का जाम, प्रभावसं कुष्टरोग दूर होजाने प्रादिकी कथाका चित्रण
मुभोयण मावय भुजहि नाम । किया गया है। और सिद्धचक्रवनका महाम्य ख्यापित दिवायक नेर जि मंनउ होड, करते हुए उसके अनुष्ठानकी प्रेरणाकी गई है। प्रयका
मकुच्चइ चित्तहु कमलु जि मोइ ।
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4N.
ब्रह्मचारीका उल्लेम्ब किया गया है और इस प्रथकी पाय- श्राद्यन्न प्रशस्तिमें इनके वंशका विस्तृत परिचय दिया रचनामे पूर्व कुछगयोंके रचे जानेका उल्लेख भी किया हुया है। ग्रन्यका कथा भाग भी सुन्दर है। इस ग्रन्थमें है । ग्रंथ प्रस्तिमें मानागिरिके भट्टारकीय पट्टका उल्लेख कविने अपने पूर्ववर्ती निम्न ग्रन्थकारोंका उल्लेख किया है और कमलकीर्तिके उम पट्ट पर शुभचंद्रके बैठने का भी है। कवि धीरमन, देवनन्दी (पूज्यपाद) जैनेन्द्र व्याकरण, ऐतिहासिक उल्लेख अंकित है जिम्मकी सूचना पूर्व की वज्रमेन और उनका षट दर्शनप्रमाण नामका न्याय ग्रन्थ, जा चुकी है।
रविषेण और उनका पद्मचरित, जिनमनका हरिवंश पुराण, पाचपुरागा - इस ग्रन्थमें जैनियोंके २३ व तीर्थ
मंघेश्वर चरित, (मुलोचना चरित) देवसेन, अनंगचरित कर भगवान पार्श्वनाथका जीवन परिचय अंकित है।
दिनकरमेन, महाकवि स्वयंभू , चतुर्मुख तथा पुष्पदन्त । यद्यपि भगवान पार्श्वनाथकं जीवन सम्बन्धमें प्राकृत,
प्रस्तुत ग्रन्थ ग्वालियरक नामरवंशी राजा डूंगरसिहके संस्कृत और अपभ्रंश भाषाम अनेक ग्रन्थ अनेक बिहानी
राज्यकालमें रचा गया है। द्वारा लिखे गये है, जो अपनी अपनी विशेषताको लिये
७ यशोधर चरित-इस ग्रन्थमें राजा और यशरोध हुए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ मान संधियाम पूर्ण हश्रा है इस चन्द्रमतीका जीवन परिचय दिया हुआ है । ग्रन्थका कथाग्रन्थका निर्माण भी अग्रवाल वंशी माइपजणक सुपुत्र
नक मुन्दर तथा हृदयगाही है, और वह जीवदयाकी माहम्मेऊ या खेमचन्दके अनुराधम हुआ है। यह जोइणीपुर
पोषक वार्तायाम श्रान-त्रांत है । यद्यपि यशोधरके सम्बन्ध(दिल्ली) के निवासी थे । इनका गोत्र एंडिल था । बेम- म संस्कृत भाषाम अनक चरित-ग्रन्थ लिख गये हैं जिनम चन्दकी माताका नाम वील्हादची और धर्मपन्नीका नाम श्राचार्य मोमदवका 'यस्तिलक चम्पू' सबसे उच्च कोटिका धनदेवी था और उमस चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, महमराज,
महा काव्य-ग्रन्थ है। परन्तु अपभ्रंश भाषाका यह दसरा ही पहराज, रघुपति और हीलिवम्म । इनमम माह संघाधिप
ग्रन्थ है । प्रथमथ महाकवि पुष्पदन्तका है । प्रस्तुत
चलाया था। ग्रन्थ चार मंधियांमे समाप्त हुश्रा है जिसमें १०४ कडवक साहू मत व्यमनसे रहित और देव-शास्त्र-गुरुके भन. थे।
न हैं और जिसकी पद्य संख्या आठमी श्लोक जिननी है। ग्रन्थ बन जाने पर माह बमचन्दने कविवर रइधका वस्त्रा
इस ग्रन्थकी रचना भट्टारक कमलकीर्तिक अनुरोधर्म तथा भूषण आदिमे खूब सरकार किया था। इस तरह ग्रन्थ
अग्रवालवंशी माहू कमलसिंहके पुत्र हेमराजकी प्रेरणा एवं प्रशस्तिमें खऊ साह के परिवारका विस्तृत परिचय कराया अनुगंध पर की गई है, अतएव यह प्रथ भी हेमराजके गया है । ग्रन्थकी पाय प्रशस्तिमे ग्वालियरका भी परिचय
नामांकित किया गया है । ग्रथकी अायत प्रशनिमें माहदिया हुया है। जिपमं वहाँकी उस समयकी परिस्थितिका कमलसिंहक कुटुम्बका विस्तृत परिचय कराया गया है। बहुत कुछ पता चल जाता है।
कवि रहधने इस प्रथको 'जोधा' साहके सुदर विहारमें ६ मेघश्वर-चरित-इम ग्रन्थमं भगवान आदिनाथ
बैठ कर बनाया है। और इस स्वयं कविने 'दयारम भर के सुपुध भरत चक्रवर्ती, जिनके नामसं इस देशका नाम
गुण पबित्त' वाक्य द्वारा-पवित्र दयागुणरूपी रमसे भारतवर्ष विश्रन हुअा है उनके प्रधान मनापति जयकमार भरपूर बतलाया है। का जिन्हें गंधेश्वर भी कहते थे, चरित वर्णन किया गया ८ धन्यकुमार चरित-इम गथमे धन्यकुमारका है। और समकालीन श्रीपाल चक्रवर्तीके हरण और निर्वाण जीवन परिचय दिया हुआ है। यह ग्रंथ भी चार संधियोंप्राप्तिका कथानक भी दिया हुया है। प्रस्तुत ग्रन्थमें में पूर्ण हुआ है और उसका प्रमाण १०० मा अनुष्टुप १३ मंधियों या परिच्छेद हैं जिनमें ०८४ कडवक हैं और श्लोकों जितना है। इस प्रथकी रचना प्रारीन जिला जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या तीन हजार कुछ ऊपर ग्वालियर निवासी जैसवाल वंशीय साह पुण्यपालके है । इस ग्रन्थकी रचना ग्वालियर वापी अग्रवाल वंशी साहू मुपुत्र साह भुल्लणकी प्रेरणा एवं अनुरोधमे हुई है। खेमचन्दकी प्रेरणा की गई है। ग्रन्थ की मंधियोंके अंतमें
पुण्याश्रवकथा-इस गूथमें पुण्यका आस्रव खेमचन्दकी प्रशंमा सूचक मंस्कृत पद्य भी दिए हुए हैं, करने वाली कथाांका संकलन किया गया है । ये कथाएँ जिनमें उनकी मंगल कामना की गई है। साथ ही अन्धकी बड़ी ही रोचक और शिक्षाप्रद हैं, इस ग्रन्थका निर्माण
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[किरण महाकवि रइधू
[३२७ साह नेमीदासकी प्रेरणा एवं अनुरोधसे हुअा है, इमीस कथा भाग बड़ा ही सुन्दर और चित्ताकर्षक है ओर भाषा कविवरने नेमीदामका और उनके कुदम्बका विस्तृत परिचय भी मरल तथा सुबोध है। अन्यका यह कथाभाग दश दिया है। श्राद्यन्त प्रशस्तिमें साह नेमीदास जोइणिपुर संधियोंमें समाप्त हुआ है जिसकी आनुमानिक श्लोक संख्या (दिल्ली) निवासी साह तामउके चार पुत्रांम से प्रथम थे। दो हजार दो सौ बतलाई गई है। यद्यपि श्रीपानके जीवन कविवरके प्रशस्ति गत कथनसं माहू नमीदासकी धार्मिकता, परिचय और मिद्धचक्रवतके महलको चित्रित करने वाले उदारता और सुजनतादिका महज ही आभास होजाता है, संस्कृत, हिदी और गुजराती भाषामं अनेक ग्रंथ विद्यमान और उनके द्वारा श्रगनित मनियों के निर्माण कराय जान है परन्त अपभ्रंश भाषाका यह दमरा ही ग्रंश है। प्रथम तथा मंदिर एवं प्रतिष्ठा महोत्सव आदि किये जानेका परि- गथ पंडित नरमनका है। चय भी मिल जाता है, नेभिदाम चंदवाड़के राजा प्रताप
१. वृत्तमार-यह कविवरकी सैद्धांतिक कृति है। रुद्रस सम्मानिन थे, जो चौहान वंशी गजा रामचन्द्रक,
इस गन्थमे सम्यक चरित्रकी प्रधानतामे कथन किया गया जिनका राज्य वि० सं० १४६८ में विद्यमान था, पुत्र थे।
है। गन्ध छह अंकों अथवा अध्यायों में विभक्त है । जिनमें इनका विशेष परिचय फिर कभी कराया जावेगा। १. मम्मइजिनचरित -इसमें जैनियाक अंतिम तीर्थ
सम्यग्दर्शन, गुणस्थान, कर्म, अनुग्रंक्षा, धर्म और ध्यानरूप
छह प्रमेयांका विवंचन किया गया है। कुछ 'उकच कर भगवान महावीर या वर्धमानका जीवन परिचय दिया
पांको छोड कर मूल ग्रन्थकी गाथा मंग्या पाठसी हा है । यर्याप उसमें कवि अमग महावीरचरितमे कोई
मत्ताईस है, जिसकी आनुमानिक श्लोक संख्या विशेषता दृष्टिगोचर नहीं हुई कितु फिर भी अपभ्रंश भाषाका यह चग्नि ग्रंथ पद्धडिया
महमके एक
लगभग होगी । इस पंथकी आदि विविध छंदोम रचा गया है । कविवरकी रचना-शैली परल होनस चि.
रचना कविन अग्रवाल वंशी साहू हालुके सुपुत्र कर भी है । यह प्रथ दम संधियाम समाप्त हुआ है।
श्राद साहकी प्रेरणाम कीगई है, अतएव यह गन्थ उन्होंक
नामाकित किया गया है । कविवरको कथन शैली संक्षिप्त प्रस्तुन ग्रंथ हिमार निवासी अग्रवाल कुलावतंश गोयल
और माल है। ग्रन्थका अंतिम पत्र उपलब्ध न होनेस गोत्रीय माह सहजपालक पुत्र और संधाधिप महदेवक
यह ज्ञान नहीं हो सका कि प्रन्ध निर्माणमे प्रेरक माह लघु भ्राता माह नामउकी प्रेरणा एवं अनुराधर्म बनाया गया है। इस प्रथकी पाद्यन्न प्रम्तिमे माह तापक
श्राद कहांक निवासी थे। वंशका विस्तृत परिचय दिया हुआ है और उनके द्वारा १३ अगाथमीकथा-हम कथाम रात्रिभोजनके दोषी सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्योंका समुल्लख भी किया और उससे होने वाली व्याधियांफा उल्लेग्व करते हुए लिखा गया है । माथ ही बल्हा ब्रह्मचारी और ग्वालियम्म उनक है कि दो घडी दिनके रहने पर श्रावक लांग भोजन कर, द्वारा निर्मिन चंद्रप्रभु भगवानकी विशाल मूर्तिकाभी उल्लम्ब क्योकि मूर्यके नेज मंद होने पर हृदय कमल संकुचित हो किया है, जिनका परिचय प्रशस्तियांक महत्वपूर्ण नि- जाता है, अनः रात्रि भोजनके त्यागका विधान धार्मिक हासिक उल्लंम्ब' शीर्षकक नीचे कराया गया है । इस ग्रन्थ तथा शारीरिक स्वास्थ्यको दृष्टिमं किया गया है जैमा कि की श्राद्य प्रशस्तिम इससे पूर्व बने हुए कुछ ग्रन्थोंका भी उमक निम्न दा पोय प्रकट है:उल्लेग्व दिया हुआ है। जिनका नामोल्लंग्व 'रचनाकाल जि रोय दलहिय दीणप्रणाह, शीर्षकके नीचे किया गया है।
जि कुटु गलिय कर करण मवाह । १५ मिद्धचक्रविधि-इस ग्रन्थका नाम सिद्धचक्रविधि दुहागु जि पग्यिणु बग्गु अणेहु, (श्रीपाल चरित) है इस ग्रन्थमें श्रीपाल नामके राजा और
मुग्यहि भोयगु फलु जि मुणहु । उनके पांचमी साथियोंका सिद्धचक्रवत (अष्टान्हिका व्रत) के घड़ी दुइ वासरु थका जाम, प्रभावसं कुष्टरोग दूर होजाने आदिकी कथाका चित्रण
सुभोयण मावय भुजहि ताम । किया गया है। और सिद्धचक्रवनका महात्म्य ख्यापित दिवायरु तंउ जि मंदउ होइ, करते हुए उसके अनुष्ठानकी प्रेरणाकी गई है। प्रथका
मकुच्चा चित्तहु कमलु जि मोह ॥
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३२८]
अनेकान्त
[किरण
. १४ मिद्धान्तार्थ सार-इम ग्रन्यका विषयमी सैद्धां- १७ दशलक्षण जयमाला-यह ग्रन्थ जैनियोंके तिक है और गाथा छंदमें रचा गया है। यह प्रन्य वाणि- धार्मिक पूजन-पाठमें प्रचलित है। इसमें उत्तम वमा, मार्दव, कवर श्रेष्ठी खेमसी साहूके निमित्त बनाया गया है। इस बार्जव, मन्य, शौच, संयम, तप, त्याग अकिंचन और ब्रह्ममृत्यम मापदर्शन, जोवस्वरूप, गुणस्थान, वत समिति, चर्य इन दश धर्मों का स्वरूप विशदरीतिसे बतलाया गया इंद्रिय निरोध प्रादि आवश्यक क्रियात्राका स्वरूप, अट्ठाईस है। जैनियोंके पयूषण पर्व में इसके पढ़े जानेका श्राम रिवाज मूल गुण, अष्टकम, द्वादाशांगत, लब्धि स्वरूप, द्वादश- है। यह ग्रन्थ हिंदी अनुवादके माथ प्रकाशित हो चुका अनुपेचा, दश खक्षणधर्म और ध्यानाके स्वरूपका कथन है। किंतु वृत्तमार नामके प्रथमें उक्त दशधर्मोके स्व किया गया है। परंतु उपलब्ध ग्रन्यका अंतिम भागवंडित रूपमा गाथा छदमें विराद रूपसे विचार किया किया है. लेखकने कुछ जगह छोड़कर लेखक पुष्पिकाकी प्रनिलिपि गया है। कर दी है। प्रन्यके शुरूमें कविने लिखा है कि यदि मैं उक
१८ जबंधर चरित-इम ग्रन्थ में दर्शन विशुद्धयादि सभी विषयोंके निरूपणमें स्वलित होजाऊँ तो छल ग्रहण
षोडश कारण भावनायोंके फलका वर्णन किया गया है और नहीं करना चाहिये।
उसके फल प्राप्त करने वाले जीमंधर या जीवंधर तीर्थंकरकी १५ मम्यक्त्व कौमुदी-इसमें सम्यक्त्वकी उत्पादक कथा दी गई है। यह जीमंधर स्वामी पूर्व विदेहक्षेत्रके कथायोंका बड़ाही रोचक वर्णन दिया हुआ है, यह ग्रन्थभी अमरावती देश स्थित गंधर्व राउ (राज) नगरके राजा रबधूने राजा कीर्तिसिंहके राज्य कालमें रचा है इसकी प्रादि मीमंधर और उनकी पट्ट महिषी महादेवीके पुत्र थे। इन्होंने अंत प्रशस्तिमे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ गोपाचलके दर्शनविशुद्धयादि पांडश भावनाका भक्तिभावसे चितन वामी गोलाराड़ीय जानिके भूषण मेउमाकी प्रेरणा किया था जिसके फल स्नम्प वे धर्मतीर्थक प्रवर्तक हुए । निर्मिन हुआ है, यह ग्रन्थ नागौरके ज्ञानभंडार में मौजूद इस ग्रन्थमें तेरह संधियां या परिच्छेद हैं। प्रन्थका कथाभाग है, जब मैं वहांके भंडार खुलनेके अवसर पर नागौर गया सुन्दर है। परंतु यह प्र-थ प्रति अत्यंत अशुद्ध रूपमें लिग्वी था तब वहां छोटे , पत्रात्मक इस प्र-थकी एक प्रति गई है. उसमे यह सहजही ज्ञात होजाता है कि लेखक देखी थी और उसकी प्रादि अंत प्रशस्तिभी नोट करनी पुरानी लिपीका अभ्यासी नहीं था और प्रति लिखवाकर चाही, परंतु वहांके भट्टारक और प्रधान श्रीमानोंके सर्वथा पुनः जांच भी नहीं की गई है। रोक देनेके कारण मैं ऐमा न कर सका, जिसका मुझे भारी म्वेद है। यदि इम ग्रन्थका उद्धार न किया गया तो वह
१६ करकण्ड चरित-इम गन्थम राजा करकण्डुकं शीघ्र ही समाप्त हो जायगा । आशा है वहांके भहारक
चरितका चित्रण किया गया है । कथानक सुदर और ऐतिदेवेन्द्र की तिजी उमे शीघ्र ही प्रकाश में लानेका कष्ट करेंगे,
हामिक दृष्टिमे भी महत्वपूर्ण है। उममें तेरापुरकी गुफाओं च कि अब वहां प्रन्य-मूचीका कार्यभी शुरू होगया है।
का भी वर्णन दिया हुआ है। ग्रन्थ की यह प्रति श्रादि अंन अतः इस ग्रन्थका प्रकाशनमी होजाना चाहिये।
भागस रहित है। और देहलीके मंदिर धर्मपुराक शास्त्र
भण्डार की है। पूर्ण प्रतिके उपलब्ध न होनेम उसके निर्मा१६ पांडश कारण जयमाला - इसमें दर्शन विशुद्धि,
ण श्रादिके सम्बंधमें विचार करना संभव नहीं है। विनयसम्पचना प्रादि मोलह भावनाओंका विवेचन किया
२. आत्म-संबोध क व्य-यह घोटामा काव्य ग्रन्थ गया है, जो तीर्थंकर प्रकृतिके बंधका कारण है. इसमें प्रथम
है जिम कविने अात्मसम्बोधनार्थ बनाया गया है। प्रस्तुत भावना दर्शनविशुद्धि सम्यक्वके २५ दोषोंसे रहित तीर्थकर प्रकृतिको बंधक है, शेष १५ भावनाएँ न भी हो, तांभी
ग्रन्थ प्रात्महितको दृष्टिको सामने लक्षित करके हिमादि पंच तीर्थकर प्रकृतिका बंध हो सकता है। किंतु दर्शन विशुद्धि के
पापों और ससव्यासनादिके परित्यागकी अच्छी शिक्षा दी अमाव में वे कार्य कारी नहीं है। अतः दर्शन विशुद्धिको
गई है। और पात्माको अपने कर्तव्यकी श्रोर लक्ष्य रग्वने
का प्रयत्न भी किया गया है। प्राप्त करना श्रेयस्कर है।
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संस्कृतका अध्ययन जातीय चेतनाके लिए आवश्यक
संस्कृत विश्वपरिषद् बनारसमें राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादका उद्घाटन भाषण “वाग्तवमें यह अत्यन्त ग्वेद और लज्जाकी बात जानीय चेतनाका पहचानना है कि इस विषयमें हमारे देशमें लेशमात्रभी मन्देह मरा यह विचार कंवल इसलिए ही नहीं है कि या शंका हो कि संग्कृतका अध्ययन श्रावश्यक भी है मुझं भारतकं अतोतसे प्रेम है और मैं उसकी ऐतिक्या ? विदेशी विद्वानों और शामको तकने मानिक- हासिक ज्ञाननिधि और जातीय अनुभूतिको मिट्रीकी प्टिसे संस्कृत अध्ययनके महत्वक बारेमें किमी ठीकरी या कूड़ा समझ कर नहीं फेंक देना चाहता। प्रकारकी शंका कभी नहीं को। हमारी संस्कृति, हमारा में मानता है और मेरा विश्वास है-कि कोईभी साहित्य, हमारी प्रादेशिक भाषाएँ, हमारी कला, विचारशील व्यक्ति इस बातसे इन्कार नहीं करेगा हमारे मत मतान्तर, हमारा इतिहाम अथ न हमारा कि-कोई जाति या राष्ट्र तब तक सफलतासे आगे सम्पूर्ण जीवन संस्कृत ज्ञानके बिना हमारे लिए अन- नहीं बढ़ सकता जब तक उसे अपनी ऐतिहासिक यूझी और अनजानी पहेलीद्दी बना रहेगा। यह हर्पकी चंतनाका अपनी मानसिक प्रवृत्तियों, शक्ति और बात है कि इस दिशामें पहला पग कृष्ण की लीला भूमि साधनोंका यथाविद ज्ञान न हो, क्योंकि ऐसी जातिके सौराष्ट्र में उठाया गया था और इसका अगला कदम व्यक्तियों में किसीभी कार्यक्रमकं लिए वह मनैक्य और भगवान शिवकी इस पुनीत और ऐतिहासिक नगरीम वह उत्साह नहीं हो सकता जो तब होता जब जातीय उठाया जायेगा। मुझे विश्वास है कि इन दो महा- चेतनाक मनोनुकूल और कोई कार्यक्रम हाथमें लिया विभूतियों की एतिहासिक छायामे आरम्भ होने वाला जाता है । जातीय चेतनासे सर्वथा अनभिज्ञ जनयह कार्य फलेगा और फूलेगा।" संस्कृत विश्व परिषद- नायक जन शक्तिको प्रगतिके लिए प्रयोगमें लानेमें के द्वितीय अधिवेशनका आज उद्घाटन करते हुए वैसे ही असमर्थ होगा जैसे कि जलशास्त्रसे सर्वथा राष्टपनि डा. राजेन्द्रप्रसादन उक्त विचार प्रकट किये। अपरिचित कोई व्यक्ति नदीको बांधकर उसे रचनात्मक
डा. राजेन्द्रप्रसाद ने कहा कि जिस प्रकार श्राज कार्योंके लिए प्रयोग करने में असमर्थ होता है। अनेक देशांक विद्यार्थी शिक्षाके लिए युरुप या अम. महात्माजी ने इस सत्यको खूब पहचाना था और रीका जाने है लगभग उसी प्रकार सास्त्राब्दियों तक उन्होंने भारतमें राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक अन्य देशीसे विद्या जिज्ञासु संस्कृत और उसका वांग- क्रातिका जो कार्यक्रम बनाया था वह हमारी ।तिमय पढ़ने के लिए हमारे देशमें आत थे उन युगाम हासिक जातीय चेतनाके ठीक ठीक ज्ञान पर ही सभ्यताके रहस्योंको पानकी संस्कृत एक कुञ्जी मानी आश्रित था और इसी हेतु उस कार्यक्रमको यहांकी जाती थी। आजकल भी यरुप, जापान, और साधारण जनताका सहजमें ही उत्साहप्रद समर्थन अमरीकामं सस्कृतक अध्ययनक लिये विशेष प्रबन्ध और सहयोग मिल गया था। अतः मेरा यह आग्रह है और उसकी शिक्षा पर यहां पर्याप्त धन व्यय किया है कि भारतके मुन्दर भविष्यके लिए, उसकी आर्थिक जाता है। यह सब इमलिए हीन कि सस्कृत अध्ययनसे और सांस्कृतिक प्रगतिके लिए यह नितान्त आवश्यक मानव जातिके अतीतके बहुत धुधले पृष्ठोंको ठीक है कि हम अपनी जातीय चेतनाको पहचानने का यथो. ठीक समझने में भारी सहायता मिलती है, उसके चित प्रबन्ध कर। इस प्रबन्धका एक प्रमुख अंग
और दर्शनसे मनुष्यको गहरा आनन्द और सूक्ष्म संस्कृत अध्ययनके लिए प्रबन्ध करना क्योंकि विचार-शक्ति प्राप्त होती है । पर विदेशियांसे कही संस्कृतम ही तो अधिकतर यह सामग्री है जिसके अधिक हमें इसकी आवश्यकता महसूस करनी आधार पर हम अपने जातीय म्वरूपको यथाविद् पहचाहिये।
चान और नान सकते हैं।
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अनेकान्त
[किरण
शोचनीय दशा
संस्कृतके आचार्य नौकरी करनेका तैयार मिलते हैं
और फिरभी नौकरी नहीं मिलती। सहायताकी पुरानी मुझे इस बातका खेद है कि इस दिशामें जैसी व्यवस्था होनी चाहिये, जितना धन, समय और शक्ति
परम्पराओंके लुप्त होनेका फल यह हो रहा है कि लगनी चाहिये बैसी न तो व्यवस्था है और न उनना
संस्कृतके शिक्षकों और विद्याथियों दोनों की ही
दुर्दशा हो रही है। दूसरे शब्दों में आज समाजसे धन समय और शक्ति हम लगा रहे हैं। एक समय
आने वाली दान-सरिता लगभग सूख गई है। अतः था जब राज्य और समाज दोनोंही संस्कृतके अध्ययन
इन परिस्थितियों में यदि संस्कृत अध्ययनकी परम्परा का पोषण करते थे। अंग्रेजी राज्यकालमें शिक्षाकी कुछ ऐसी व्यवस्था हुई कि हमारे देशमें यह भावना
खत्म हो गई तो चाहे वह आश्चर्यकी बात न हो किंतु घर करने लगी कि हमारी अपनी ऐतिहासिक परम्परामें,
वह स्वतन्त्र भारतके लिये लज्जाकी बात तो अवश्य संस्कार, रीति रिवाज सब व्यर्थ और हानिकर हैं और
होगी। विदेशाम सस्कृत अध्ययनका विकास हो और इसलिए उनको छोड़कर विदेशी सभ्यताको अपनाने में
स्वयं भारतमें वह खत्म हो जाय यह घटना यद्यपि
अकल्पनीय अवश्य है किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि ही हमारा कल्याण है । इस परिवर्तनका ज्वलन्त उदाहरण यही है कि इस युगमें देशकी आंखें काशीकी
हम उसके निकट पहुँचते जा रहे है। इसलिये हमें ओर न रहकर कलकत्तेकी और लग गई। किन्तु इम
जहां एक ओर संस्कृतको जीवकोपयोगी विद्या बनाना उपेक्षा और लपहासके युगमें भी संस्कृत बनी रही
है वहां इसे भी भूलना नहीं चाहिये कि उसको आज और संस्कृतके विद्वान बने रहे। वह इसीलिये सम्भव
तक जीवित रखने वाले वही धन्य पुरुष हुए है जो इसे हुआ; क्योंकि संस्कृत और संस्कृतके विद्वान्ने कभी
केवल अर्थोपार्जनका सावन नहीं मानते थे। समाजलक्ष्मीकी दासता स्वीकार न की थी। किन्तु अपने
को भी अपनी एसी भूमिका बनानी है जिसमें मान धर्म निवाहनेके साथ-साथ उनके मनमें यह विश्वास
मर्यादा प्रतिष्ठा सरकार सभी लक्ष्मोके अनुगामी न भी था कि उनके कभी न कभी जमाना करवट बद
बनकर सरस्वतीके लिये सुरक्षित रहें और लक्ष्मीके लेगा और इस देशके इसकी जनता के, इसके पण्डिता
लिए धन जनित शान शौकत और लाभ कार्य छोड़ और प्राचार्योंके भाग्य फिर जगेंगे मैं नहीं कह
रखा जाय। सकता कि स्वतन्त्र भारतमें उन्होंने अपने इस विश्वाम,
सरकारी सहायता इस स्वप्न, इन आशाओंकी पूर्तिकी झलक देखी है या डा. राजेन्द्रप्रसादने आगे कहा कि अतः हम सबनहीं। किन्तु मुझे कभी-कभी यह भय होने लगता है को इस बात पर बड़े धैर्यसे विचार करना है कि हम कि सम्भवतः स्वतन्त्र भारतमें संस्कृत अध्ययनकी यह क्या उपाय करे, जिनसे संस्कृतका अध्ययन घटनेके परम्परा कही समाप्त न हो जाये। आज संस्कृत बजाय देशमें और अधिक प्रसार हो। सर्वप्रथम तो विद्वानोंकी जो अवस्था है वह वास्तवमें शोचनीय है। हमारे सामने यह प्रश्न है कि भविष्यमे संस्कृत पाठअभी राज्यने संग्कृत अध्ययनको प्रश्रय देनेका भार शालाओं और विद्यालयोंके लिये वित्तका कैसे प्रबन्ध अपने सर पर नहीं लिया है । यह ठीक है कि विद्या- हो। यह प्रत्यक्ष है कि आजके समाजसे अधिक लयोंमें संस्कृतके अध्यबनके लिए कुछ प्रबन्ध है किन्तु अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह उन पाठशालाश्र.का वह ऐसा नहीं है। जिसे गिनतीमें सम्मिलित किया भी भार संभाले जोपाज वर्तमान है, नई पाठशालाओंजा सके । संस्कृतको जो पाठशालाएँ और विद्यालय का भी भार संभाले जो आज वर्तमान है, नई पाठआजतक चल रहे हैं और जिनके द्वाराही संस्कृत शालाओंके खोलने और चलानेका तो प्रश्न पैदा होता अध्ययनकी परम्परा अब तक बनी रही है उनकी ही नहीं। सच तो यह है कि आज राज्यने इतने अधिक अवस्था आजकल शोचनीय होती जा रही है। वहांसे मात्रामें सामाजिक सूत्र अपने हाथमें ले लिये हैं कि निकले विद्यार्थियोंका हमारे भाधुनिक जीवनमें लगभग यदि राज्यने संस्कृत अध्ययनके वित्तभारको अपने कंधे न कुछके बराबर स्थान है और फल यह है कि आज पर न लिया तो यह संभवतः आगे न चल सकंगा। मैं
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समझता हूँ कि इस दिशा में राज्य सरकारें पहला काम कर सकती हैं अब समय आ गया है कि वे संस्कृत अध्ययनके लिये श्रावश्यक वत्तिक प्रबन्ध करें । जब समाज के सब सति साधनोंको वे अपने हाथोंमें ले रहे हैं तो कोई कारण नहीं कि वे समाजके उत्तरदायित्वों को अपने सिर पर क्यों न लें। भारतीय समाजका ढाचा एक विशिष्ट प्रकारकी सहकारिता पर निर्भर करता था । विद्वानका भार गृहस्थ पर और गृहस्थ के मार्गदर्शनका भार विद्वान पर था । भारतीय समाज के हर क्षेत्र में इसी प्रकार की परम्परागत सहकारिता थी । जब हमने उस परम्परागत सहकारितासे हट कर जीवनका नियन्त्रण राज्यकं हाथम अधिकाधिक कर लेने की ओर रुख किया है तब राज्यका यह धम है कि वह इन उपरदायित्वों को भी अपने हाथमें लें मेरा विचार है कि भारतकी राज्य सरकारोंका अब यह धर्म है कि वे अपने कोपसे संस्कृत अध्ययन के लिये पर्याप्त सहायता देना प्रारम्भ करें ।
धनिकों का कर्त्तव्य
साथ ही यहां उद्योगपतियोंको भी अपना यह धर्म मानना चाहिये कि अपने दानका एक अंश विश्वविद्यालयोंमें संस्कृत अध्ययनके लिये विशिष्ट पीठियांकी स्थापना के लिये लगायें। इंगलैंड और अमरीका में वहांकी भाषाओंके प्रमुख कलाकारों और साहित्यकोंकी कृतियों और जीवनके अध्ययन के लिये वहांके धनिकोंने वहांकी f·श्वविद्यालयोंमें त्रिशिष्ट पीटियों की स्थापनाके लिये पर्याप्त दान दिया है । मैं समझता हूँ कि हमारे यहांके धनिकवर्गको ऐसा ही करना चाहिये । समन्वयका सूत्र
"इसके अतिरिक्त संस्कृत ज्ञाताके लिये हमें आर्थिक क्षेत्र में भी स्थान बनानेका प्रबन्ध करना चाहिये। मेरा विचार है कि आज संस्कृत अध्ययनकी जो परिपाटी और व्यवस्था है उसके कारण भी संस्कृत पढ़ने वालोंको आर्थिक क्षेत्र में कोई स्थान नहीं मिलता। यह आवश्यक है कि संस्कृत पाठशालाओं में संस्कृतके अभ्यासके साथ ही साथ आर्थिक दृष्टिसे उपयोगी और आधुनिक जगतसे परिचय कराने वाले त्रिषयोंका भी अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाय। आज संस्कृत
अध्ययन'
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न तो राजकर्मकी ही भाषा है, न कला की, न विज्ञान की, और न वाणिज्य और उद्योग की । किन्तु इस बातका यह तात्पर्य नहीं कि संस्कृत पढ़नेका कोई मूल्य नहीं। मूल्य तो है और सर्वदा रहेगा। सभ्यताके संरक्षण के लिये, स्वयं मानव जाति के अस्तित्व के लिये इस बातकी आवश्यकता है कि आध्यात्मिक और शैलिक शिक्षा में समन्वय हो । मेरा विचार है कि इस समन्वय के लिये संस्कृत अध्ययनके समान और कोई प्रभावी साधन नहीं हो सकता ।
आदर्श
डा. राजेन्द्रप्रसाद ने कहा कि मेरे विचार में सहस्त्राब्दियोंसे संस्कृतका आधार-तल और पृष्ठभूमि वह अध्यात्मवाद रहा है जो भारतकी मानवताको देन है सहस्त्राब्दियां व्यतीत हो गई जब भारतमें प्रथम बार इस विश्वासका जन्म हुआ। कि इस जगतकी हर प्रकारको विपत्ति, बाधाओं, कमियों और कठिनाइयों से मानव तब तक मुक्ति नहीं पा सकता, जब तक कि उसका जीवन शक्तिकी उपासना, सेवाका घटल व्रत, न्यायकी अविचल निष्ठा नहीं बन जाता। अपने इस व्यक्ति जो कुछ भी करे वह इस श्रद्धा और इच्छा आदर्शको उन्होंने कृष्णार्पणका नाम दिया अथात् करे कि वह यह समस्त विश्व और उससे भी परे विश्वात्मा की प्रसन्नता के लिये कर रहा है केवल अपनी इन्द्रियोंके सन्तोषके लिए नहीं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि व्यक्ति अपने सांसारिक कर्त्तव्यको परित्याग करके किसी जंगलमें जा बैठे। इसका केवल यही अर्थ था कि वह अपना कोई भी सांसारिक काम अपनी स्वार्थबुद्धिसे न करे, वरन् इस विचारसे करे कि यही विश्वात्माकी इच्छा के अनुकूल है और पैसा ही करके वह अपने अहंकी कैद से छूटकर अपने सच्चे विश्वस्वरूपको पहचान सकता है। सम्पूर्ण संस्कृत वांगमयका प्राण और प्रेरणाका यही आदर्श है । संस्कृत नाटक, संस्कृत आख्यान और कथाएँ, संस्कृत महाकाव्य, संस्कृत शास्त्र, संस्कृत विज्ञान सर्वत्र ही इसका साम्राज्य है। अतः यह स्पष्ट है कि संस्कृत साहित्यका विद्यार्थी इस आदर्शसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। मेरा विचार है कि जगतको हम जो सबसे
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अनेकान्त
बड़ी देन दे सकते हैं वह यही आदर्श है और यह दन हम तब ही दे पायेंगे जब न केवल हमारी भूमि और हमारे औद्योगिक यन्त्र विशाल धन धान्यकी सरिताक ही स्रोत बन गये होंगे वरन् उनमें कार्य करने वाले श्रमिक और कृषक भी इसी आदर्शसे प्रेरित होंगे। उस स्वर्णिम युगकी स्थापना के लिये हमें अनथक परिश्रम करना है, और अनेक प्रकारके आयोजन करने हैं । किन्तु इन सब प्रयासों और आयोजनों की शर्त यह है कि शिल्पिक शिक्षा और आध्यात्मिक शिक्षाकी खाई पट जाये । संस्कृत वह सेतु हैं जो इस ग्वाईको
वीरसेवा - मन्दिरको प्राप्त सहायता
हाल में वीरसेवा मन्दिरको उस बड़ी महायताके अलावा जो बाबू छोटेलालजी और बाबू नन्दलालजीने अपनी स्वर्गीय माता श्रीमती मानकंवरजीकी श्रोरमं देहली में वीरसेवा मन्दिरकी बिल्डिग के लिये ज़मीन खरीदने के वास्ते भिजवाई है, दूसरी जो खास सहायताएँ ( अनेकान्त सहायता के अतिरिक्त ) प्राप्त हुई है व इस प्रकार हैं :
१००१) सेठ भगवानदास जी जैन बीड़ी वाले सागर
(वाणश्री गणेशप्रसाद जीकी जयन्तीके अवसर पर ) । १०००) सिंघई कुन्दनलालजी जैन सागर ( वर्णी श्री गणेशप्रसादजीकी ७६ वीं वर्षगांठ के अवसर पर ) । १००१) सेठ छडामीलालजी जैन फीरोजाबाद ( चि० पुत्र विमलकुमारके विवाहकी खुशी में ) ।
५१) ला० सुमेरचन्दजी जैन, दरियागंज देहली (गृह प्रवेशकी खुशी में ) अधिष्ठाता 'वीर सेवा मन्दिर'
संरक्षकों और सहायकों से प्राप्त सहायता
water संरक्षकों और सहायकोंसे प्राप्त सहायताका जो विवरण गत किरण नं० ४-५ में प्रकाशित किया गया था और जिसका योग (२२४) था, उसके बाद जो और सहायता प्राप्त हुई हैं उसकी तनसील इस प्रकार है१०००) बाबू नन्दलालजी सरावगी कलकत्ता २५१) बाबू छोटेलालजी जैन कलकत्ता २५१) सेठ मांगीलाल पांड्या कलकत्ता
[ किरण पटाता है और इसी दृष्टि आधुनिक जगत में उसक' शिक्षा दीक्षाका आपको प्रबन्ध करना है ।
यह हर्षकी बात है कि इस दिशामें पहला ग कृष्णकी लीलाभूमि सौराष्ट्र में उठाया गया था और इसका अगला कदम भगवान शिवकी इस पुनीत आर ऐतहासिक नगरी में उठाया जायेगा। मुझे विश्वास है। कि इन दो महाविभूतियोंकी ऐतिहासिक छाया में आरम्भ होने वाला यह कार्य फलेगा और फूलगा ।
नवभारत टाइम्ससे
१०) बा ऋषभचन्द्रजी जैन ( B. R. C. ) कलकत्ता १०१) ला० रतनलालजी जैन मादीपुरिया देहली १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी कलकत्ता १०१) बा० बद्रीदासजी सरावगी कलकत्ता १०६) वा० वंशीवर जुगलकिशोरजी कलकत्ता १०९) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता १०१) बा० फलचन्द्र रतनलालजी कलकत्ता १०१) बा० धनंजयकुमारजी जैन कलकत्ता १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन न्यू देहली १०१) ला० मक्खनलालजी मोतीलाल जैन 'ठेकेदार देहली १०१) ना० उदयराम जिनेश्वरदामजी जेन सहारनपुर योग २६६२) पूर्णांग ७८८६)
अधिष्ठाता 'वीर सेवा - मन्दिर' सेवाएँ समर्पित कीं
जबसे वीरसेवा मन्दिरका ग्राफिस सरसावासे देवली आया है तभीसे वीरसेवा मन्दिरने अपना प्रचार विभाग व खोज-विभागको दृढ़ बनाने का निश्चय किया है ।
इस दृष्टि हमने जैन समाजके प्रसिद्ध २ विद्वानोंसे सम्पर्क स्थापित किया है। हमें प्रसन्नता है कि हमारे निवेदन करने पर प्रचार विभागकी दृढताके हेतु श्री पं० बाबूलालजी जैन जमादारने अपनी सेवाएँ 'वीरमेवामंदिर' को समर्पित कर दीं। और आपने प्रचार विभागका कार्य प्रारम्भ कर दिया ।
राजकृष्णा जैम व्यवस्थापक- वीरसेवा-मन्दिर
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ब्रह्म जिनदास
(ले० परमानन्द जैन शास्त्री) ब्रह्मजिनदास कुन्दकुन्दान्वय सरस्वति गच्छके भट्टारक उल्लेख गुजराती कविताके निम्न उपयोगी अंशसे जाना सकलकीनिके कनिष्ट भ्राता और शिष्य थे। ये मदनरूपी जा सकता है:शत्रुको जीतने वाले ब्रह्मचारी, क्षमानिधि. षष्टमादितपके तिहि अवसरे गुरु प्राविया, बहाली नगर मझाररे । विधाता और अनेक परीषहाँके विजेता थे। इन्होंने अनेक चातुर्मास निहीं करो शोभनो, श्रावक कीधा हर्ष अपाररे । देशों में विहार करके जननाका कल्याण किया था उन्हें अमीझरे पधरावियां बधाई गावे नर नाररे। सन्मार्ग दिग्बलाया था। ये जिनेन्द्रके चरणकमलोके सफलसंघ मिलि बंदियों पाम्या जय जयकाररे। चंचरीक, देव-शास्त्र-गुरुकी भक्ति में तत्पर, अत्यन्त दयालु तथा सार्थक जिनदाम नाममे प्रसिद्धिको प्राप्त थे और मंवत् चौदहसी इक्यासी भला श्रावणमास लसंतरे । प्राकृत, संस्कृत, गुजगती नथा हिन्दी भाषाके अच्छे पूर्णिमा दिवसे पुरणकर्या, मूलाचार महन्तरे ॥ विद्वान एवं कवि भी थे। इनके गुरु भट्टारक मकलकीर्ति प्रसिद्ध विद्वान थे जिनका संस्कृत भाषा पर अच्छा अधि
प्राताना अनुग्रह थकी कीधा ग्रन्थ महानरे ॥ कार था, नात्कालिक भट्टारकोंम उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी।
यपि मकलकीसिने अपने किसी भी ग्रन्थमें उसका इन्होंने अपने समयमे अनेक मन्दिर बनवाए, सैकडो
रचनाकाल नही दिया, फिर भी अन्य माधोप-मूतिमूर्तियांका निर्माण कराया और उनके प्रतिष्ठादि महात्मव
लेवादिक द्वारा उनका समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दी कार्य भी सम्पन्न किये हैं। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मृतियोंक
का उत्तराद्ध सुनिश्चित है भिट्टारक मलकीति ईडर गहीके कितने ही अभिलंम्ब मं० १४८० मे १४६२ तकके गरी
भट्टारक थे और भ. पद्मनन्दीक पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। नोट बुकर्म दर्ज है। इनके अतिरिक्त अनेक मृर्तियां और
कहा जाता है कि वे सं० १४४४ में उक्त गद्दी पर यासीन उनके अभिलेग्य और भी नोट किये जाने को है। जिन
हुए थे और सं० १४६के पूप मासमें उनकी मृत्यु महसाना मबके संकलित होने पर तत्कालीन ऐतिहामिक नामांक
(गुजरात) में हुई थी। महमानाम उनका समाधि स्थान अन्वेषणमं बहुत कुछ सुविधा प्राप्त हो सकती है।
भी बना हुआ है। भ. मकलकीनिंद्वारा रचित प्रन्योंके भ. मकलकीर्तिने सं0१४८1 में संघहित बडाली नाम इस प्रकार हैं। जिनमें उनकी विद्वत्ता और माहिल्यमें चातर्माम किया था और वहांके अमीकग पाश्वनाथ मंवाका अनुमान किया जा सकता है:चैत्यालयमें बैठकर 'मुलाचार प्रदीप' नामका एक मंस्कृत- १. पुगणमार, .. मिहान्तमारदीपक, ३. मल्लिग्रन्थ सं० १४८ की श्रावण शुक्ला पूणिमाको अपने नाथ चरित्र, ४. यशोधर चरित्र, ५. वृपभचरित (गादिकनिष्ट भ्राता जिनदापके अनुग्रहसे पूरा किया था। जिसका नाथ पुराण), ६. सुदर्शनचरित, ७. सुकमालचरित, ८.
विक्रमकी १५ वीं शताब्दीमे बडाली जन धन वर्धमानचरित. .. पार्श्वनाथपुगण, १०. मलाचारप्रदीप, सम्पन्न नगर था, उस समय वहाँ हुमड दिगम्बर जैन . याश्चतुर्वितिका, १२. धर्मप्रश्नोत्तरश्रावकाचार, श्रावकोंकी वम्ती थी। वहांका अमीझरा पार्श्वनाथका १७. सद्भामितावली, ४. धन्यकुमारचरित्र, १५.कर्मविपाक. मन्दिर बहुत प्रसिद्ध था। उस समय देवम्मी नामके एक १६. जम्बस्वामीचरित्र, १७. श्रीपालचरित्र भादि । वीमा हुमडने केशरियाजीकी यात्राका संघ भी निकाला ब्रह्मजिन दामने भी अनेक प्रन्योंकी रचनाकी *जिनमें था और मकलकीर्ति उम ममयके प्रमित विद्वान भट्टारक भ. मकलकीतिका बड़े गौरवकं माथ स्मरण किया है। थे। बागढ़ और गुजरातमें उनका अच्छा प्रभाव था वे इनके अनेक शिष्य थे जिनमें कुछका इन्होंने अपनी अपने शिष्य प्रशिष्यादि महित उक प्रान्तमें विहार करते प्रन्याम उल्लेख किया है। चूंकि जिनदाय सकलकीर्तिके हुए जैन धर्मका उद्योत कर रहे थे।
कनिष्ट भ्राता थे । इसलिये इनका समय भी विक्रमकी
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मानिस
५वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और १६वी शताब्दीका पूर्वा- पञ्चमी व्रतकथा और पञ्चपरमेही गुणानुवर्णन आदि 4जान पड़ता है। सं० 111में इन्हींके अनुरोधसे बहालीमें रचनाओंका संग्रह एक गुटके में पाया जाता है। ये सब मूलाचार प्रदीपके रचे जानेका अल्लेख ऊपर किया जा चुका रचनाएं प्रायः गुजराती भाषामें की गई है परन्तु इनमें है। और सं० १९२०में इन्होंने गुजराती भाषामें 'हरिवंस हिन्दी और राजस्थानी भाषाके शब्दोंका बाहुल्य पाया रासकी रचनाकी है..आपकी रचनाचोंमें जम्म स्वामी जाता है। इनके सिवाय निम्न प्रन्थ पूजा-पाठ-विषयक भी परिसरात
में हैं और जिनकी संख्या इस समय तक सात ही ज्ञात हो तीन अन्य तो संस्कृत भाषामें रचे गए है। जम्बूस्वामी- मकी हैं उनके नाम इस प्रकार हैचरित की रचनामें इनके शिष्य ब्रह्मचारी धर्मदासके मित्र १. जम्बूद्वीप पूजा २. अनन्तव्रत पूजा ३. साद्विजवंशरस्न कवि महादेवने सहायता दी थी। धर्मपंच द्वय द्वीप पूजा ४. चतुर्विशत्युद्यापन पूजा १. मेघमालो'विंशतिका' अथवा 'धर्मविलास' नामकी छोटीसी प्राकृत बापन पूजा ६. चतुर्विंशदुत्तर द्वादशशतोद्यापन ७. बृहरचना भी इन्हीं ब्रह्मजिनदासकी कृति है। इनके अतिरिक्त सिडचक्र पूजा। ब्रह्मजिन-दास रचित शेष प्रन्याँके नाम इस प्रकार है:- इस तरह ब्रह्मजिनदामकी संस्कृत प्राकृत और गुज
१. यशोधररास, २. प्रादिनाथरास, ३. श्रेणिकरास, राती भाषाकी सब मिलाकर लगभग ३० कृतियोंका अब४. समकितरास, १. करकंदुरास, ६. कर्मविपाकरास, तक पता चलसका है । इन सय ग्रंथांका परिचय प्रस्तावना ७. श्रीपालरास, ८. प्रद्युम्नरास, १. धनपालरास, १०. की कलेवर वृद्धिके भयसे छोड़ा जाता है । इनकी अन्य हनुमच्चरित,". और व्रतकथा कोश x-जिसमें दश- कितनी ही रचनाएँ यत्र तत्र ग्रन्थ भण्डारोंमें गुटकोंमें उल्लबक्षण व्रतकथा, सोलहकारणवतकथा वाहणषष्ठी व्रत- खित मिलती हैं पर वे सब इन्हींकी कृति हैं या अन्य कथा, मोपसप्तमीक था, निर्दोषसप्तमी कया, आकाश किसी जिनदास की । इस बातका निर्णय बिना पायो
पान्त अवलोकन किये नहीं हो सकता, ममय मिलनेपर इनमसे नं. १ बार "क अन्य भामरक महा- उनके सम्बन्धमें विचार किया जायगा। रकीय भण्डारमें पाये जाते है। शेष रासोंमें अधिकांश रासे और कुछ पूजाए, जो गुटकोंमें सनिहित है। देहलीके वीर सेवामन्दिरसे प्रकाशित होनेवाले अन्य प्रशस्ति पंचायती मन्दिरके शाख-भण्डारमें उपलब्ध होते हैं। मंग्रह प्रथम भागकी प्रस्तावनाका एक अंश ।
सानाचमारा
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साहित्य परिचय और समालोचन
१पंचाध्यायी-पं. राजमल्ल, टीकाकार स्वर्गीय रचना किसी तरह पूरी हो पाती तो इस ग्रंथका परिमाण पं. देवकीनन्दजी सिद्धान्त शात्री, सम्पादक पं० फूलचंद अत्यन्त विशाल होता। परन्तु वह जितना भी बन सका जी सिद्धान्त शास्त्री, बनारस, प्रकाशक गजशवर्णी दि० है। जहां उसमें कविकी प्रांतरिक निर्मलता और सर्वोपका' जैन ग्रंथमाला, २/३८ बनारस, पृष्ठ संख्या ३६६, मूल्य रिणी बुद्धिका व्यापार अन्तनिहित है वहां कविके विशिष्ट सजिल्द प्रतिका) रुपया।
अभ्यास. मनन, चिन्तन एवं दीर्घ कालीन अनुभवका पक्व प्रस्तुत ग्रंथको कविने पांच अध्यायोंमें बनानेका परिणाम है जिसे कविने पचाकर भारमसात् किया, ग्रंथकी मंकल्प किया था, जिसे 'पाध्यायावयवं' वाक्यके द्वारा कथनशैली अत्यन्त ही परिमार्जित, तर्कपूर्ण और वस्तुउसका उल्लेख भी किया है। परन्तु कविवर अपने उस स्थितिका दिग्दर्शन कराने वाली है ग्रंथमें कविके तलस्पग्रंथको पूरा नहीं कर सके, यह दुःखकी बात है । वह- ी पाण्डित्यका पद-पद पर अनुभव होता है, प्रयकारने ग्रंथ इस समय १५०६ रखोकोंकी संख्याको लिए हुए जिस प्रकणको कहनेकी चेष्टाकी है वह उसमें पूर्ण सफल है,जो दो मण्यायोंमें विभाजित है। यदि इस प्रथकी हुमा है उसकी इस सफलताका कारण कविकीवह पान्तरिक
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किरण]
साहित्य परिचय और समालोचन
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विशुद्धिकी हो है। कविका अन्तिम लक्ष्य प्रात्म-स्वतंत्रताकी प्रस्तुत प्रन्थ पुबाटसंघीय प्राचार्य हरिषेयके 'संस्कृतप्राप्ति है जिसका उन्होंने विवेचन करते हुए अपनी तास्विक- कथाकोश' की कथाओंका हिन्दी अनुवाद है। इस संस्कबुद्धिका परिचय दिया है।
रणमें १२ कथाएँ दी हुई हैं। ये कथाएँ जैन धर्मका पालन प्रस्तुत ग्रंथका अनुवाद स्पष्ट और वस्तु तत्त्व का विवे- अथवा व्रतोंका अनुहान कर, फल प्राप्त करने वाले व्यक्तियों चक है, और वह अपने पिछले संस्करणों में होने वाली के परिचयको लिये हुए हैं। कथाभोंका विषय रोचक है। भशुबियोंसे रहित है। सम्पादकजीने इस पर काफी अन्य बहुत उपयोगी है। परिश्रम किया है और उसे सब प्रकारसे प्रामाणिक एवं ३ बृहत्कथाकोश भाग २ अनुवादक पं. राजकुमारजी रुचिकर बनानेका प्रयत्न किया है। अनुवादकी भाषा भी जैन साहित्याचार्य प्रकाशक, भा० दि. जैन संघ, चौरासी परिमार्जित और सरल है। इतना ही नहीं, किंतु प्रथकी मथुरा । पृष्ठ संख्या २६२, मूल्य पजिल्द प्रतिका २॥) १२ पृष्ठोकी महत्वपूर्ण प्रस्तावनामें सम्पादकजीने ग्रंथगत
रुपया। विषयोंकी चर्चा करते हुए उसके विषयको स्पष्ट करनेका
इस भागमें भी उक्त कथाकोशकी १८ कथाओंका प्रयत्न किया है। और प्रान्मस्वतंत्रताके अंतिम लक्ष्यका
अनुवाद दिया गया है। ये पौराणिक कथाऐं जैनधर्म मोक्षपुरुषार्थके प्रधान माधक चारिग्रके सम्बन्धमें भी अपने
और जैन संस्कृतिकी महत्तासे सम्बन्ध रखती हैं । कथाएँ विचार व्यक्ति किये है। प्रस्तावनामें निश्चयनय व्यवहार और मन्दा। नयका खुलाशा करते हुए प्राचार्य कुदकुदके प्रवचनसारके ज्ञेय अधिकारके कथनके साथ प्रस्तुत कविके मंतव्योंकी
सर्वोदय यात्रा-लेखक, प्राचार्य विनोवाभावे । तुलनाभी की है।
प्रकाशक, भारत जैन महामंडन, वर्धा सी० पी० पृष्ठ साथ ही लाटी महिनाक ममान ही ग्रंथके बनने में
सध्या २४० । मूल्य सवा रुपया। निमित्त भूत साहू फामनकी इम पंचाध्यायी ग्रंथके निर्मा- प्रस्तुत पुस्तक हैदराबादके सर्वोदय सम्मेलनमें पैदल णमे भी प्रेरक निमत्त होनेका अनुमान किया है, जो ग्रंथ यात्रासे चलते हुये विनावाजीने जो जगह २ भाषण दिये, वाक्योको देखते हुए ठीक ही जान पड़ता है। माम्प्रदा
और वहांके लोगोंकी जो परिस्थतियाँ देवी, उन्हीं सबका यिकताके प्रभावके साथ द्रव्य क्षेत्र काल भावका प्रभाव भी
वर्णन इस पुस्तकमें किया गया है। पुस्तककी भाषा मरन ग्रंथकार पर पड़ा है। इस तरह प्रथका यह संस्करण
है। यद्यपि 'सर्वोदय' तीर्थ शब्दका प्रयोग करने वाले स्वाध्याय प्रेमियोंके लिए बहुत ही उपयोगी और संग्रहणीय
प्राचार्य ममस्त भद्र है, जो विक्रमकी दूसरी शताब्दीके है। पाशा है स्वध्याय प्रेमी हम प्रश्रको मंगाकर अपनी जान
तेजस्वी प्राचार्य थे। परंतु गांधीजी द्वारा प्रयुक्त 'सर्वोवृद्धि में महायक होंगे।
दय' की महत्ता प्रदान करनेके लिए प्राचार्य विनोबा २ वृहत्कथाकोश-भाग १ अनुवादक, पं० राजकुमार
भावेका यह प्रयत्न अभिनंदनीय है। इस पुस्तकमें यात्रा जी जैन साहित्याचार्य प्रकाशक, भा. दि. जैन संघ,
करते समय विवपचर्चाओं पर विचार किया गया है। चौरासी मथुरा । पृ संख्या २३६ मूल्द सजिल्द प्रतिका पुर
पुस्तक उपयोगी है। २॥) रुपया।
परमानन्दजी जैन शास्त्री
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३३६]
अनेकान्त
बाकरण
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आदर्श-विवाह *
... देहली के सुप्रसिद्ध स्वर्गीय नीचे प्रकाशित है। स्थानीय मंदिरों को चांदी और सिलवर
रामबहादुर ला. नन्दकिशोरजी के वर्तन भेंट किए गए तथा दो सुन्दर मनोज पांडुक मुर्णरन्टेसिंडग इंजीनियरकी शिलाय लाल मंदिर और मेटके कुचके मंदिरों को प्रदान पौत्री तथा श्रीजिनेन्द्रकिशोरजी की गई। जनजौहरीकी सुपुत्रीत्रायुधमनी १.०१) वीरसंवामंदिर, दरियागंज दिल्ली चि. उर्मिलारानीका शुभ विवाह १०१) स्यावाद महाविद्यालय, बनारस फिरोजाबादक सुप्रसिद्ध उद्योग- १.१) वर्णी विद्यालय मागर ।
पति दानवीर संठ छदामी २११) श्री समन्तभद विद्यालय दिल्ली लालजी जैनके सुपुत्र चिरंजीव कुवर विमलकुमार जीक साथ बढ़ी धूमधाम से ता. ११-११-१२ मार्गशीर्ष शुक्ला २) जन औषधालय मठका कृचा, दिल्ली २ को मानन्द मम्पन हुआ। .
२५१) टी. वी. कमेटी दिल्ली . दोनों पक्ष धार्मिक परिवार है इमो लिये भारतके २११ उत्तर प्रांतीय गुरुकुल हस्तिनागपुर
आध्यात्मिक संत न्यायाचार्य पूज्य चु० गणेशप्रमाद जी २११) पन्नालाल जैन विद्यालय फिरोज़ाबाद वर्णीका शुभ आशीर्वाद वर-कन्याको प्राप्त हुया, साथही २५१) कन्या पाठशाला फिरोजाबाद मनोज्ञ १. शिक्षाएँ यापने भिजवाई, जिसमे गृहस्थाश्रमका १०१) जैन बाला विश्राम यारा जीवन धार्मिक और सुग्यमय व्यतीत हो ।
१.१) अग्विल विश्व जैन मिशन अलीगंज यह विवाह संस्कार जैन विवाह विधिमे ला. राज- ०१) जैन मंदिर चिराग़ देहली कृष्ण जी और पं० सुमेरचंद जी शास्त्रीने सम्पन्न कराया। १०१) पार्श्वनाथ किला बटापुर नहमील नगीना (विजनार) इसमें स्थानीय और बाहरसे माये हुए विद्वानोंकी संख्या २१) वीर सभा दिल्ली एक दर्जन थी, और अनेक प्रतिष्ठित श्रीमान् भी वारात १५) वर्णी जैन विद्यालय मलहरा मे बाहरसे पधारे थे । जिन्होंने वरवधू को बड़े ही मधुर ११) सम्मेद शिखर जी शब्दाम आशीर्वाद दिया। अनेक महानुभावाने मंगल ५१) श्री महावीर स्वामी जी कामना सूचक संदेश भी भेजे थे। बारात में जुलूस दर्शनीय निम्न संस्थानां और पत्रों की २१-२१) २० दिया गया है था, जिसने राजधानीकी जनताके मनको अाकर्षित कर बर्द्धमान लायब्ररी दिल्ली, अनेकांत मासिक जैन, मित्र, दिया।
जैन संदेश, बीर, जन प्रचारक, वाइम आफ्न अहिसा, जन वर चांदीके सुन्दर हम निर्मित सिंहासन पर आसीन
गजट हिंदी, जैन गजट अंग्रेजी, जैन दर्शन मोरेना, वीर था । जुलूस फतहपुरी चांदनी चौक और दरीया होता
शामन कटनी, सतघरा महिलाश्रम देहली, ब्रह्मचर्याश्रम हुधा म्वागत स्थल पर पहुंचा।
मथुरा, श्री हस्तनागपुर क्षेत्र, चम्पापुर जी, गिरनार जी. जुलूसका अनेक स्थानों पर स्वागत किया गया। राजगृहजी, पावापुर जी, अहिच्छेत्र, जम्बूस्वामी जी, दरीबा कलां कांग्रेस कमेटी ने भी स्वागत किया। विवाह- शौरीपुर, कम्पिला जी, कोसाम्बी जी, वंशालीनीर्थक्षेत्र, के सानन्द सम्पन्न होने के हर्षोपलचपलाश्रमें सेठ बदामी- सोनागिर जी, अहारक्षेत्र, देवगढ़ जी, पपौरा जी, थूबीन, लालजी ने ११००)रु० का दान किया जिसकी दान-सूची बाइबलिजी श्रवणवेलगोला, ८ पोस्टेज आदि।
परमानन्द जैन शास्त्री
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वीरसेवामन्दिरके चौदह रत्न
(१) पुरातन-जैनवाक्य-मृची-प्राकृत के प्राचीन ६. मूल-प्रन्योंकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ - कादिग्रन्योमें
उद्धत पर पद्योकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योंकी सूी। संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजो गवेषणापूर्ण महत्वको १७० पृष्ठको प्रस्तावनासे अलंकृत, हा• कालीदास नाग एम. ए., डा.जिट के प्राक्कथन (Fortword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए., डी. लिट की भूमिका (Introduction) से विभूषित है, शोध-बोजके विद्वानोंके जिये अतीय उपयोगी, बा साहज,
मजिद। () श्राप्न-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यको स्वोपज्ञपटरीक अपूर्वकृति, भाप्तोंकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
सरस और मजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे
युन, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-वि.की मुन्दर पोथी, न्यावाचार्य पं० दरबारीलालजीके संस्कृत रिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावमा और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंमे अलंकृत. सजिषद ।। (४) स्वयम्भम्नांत्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि
चय, समन्तभद-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वको गवेषणापूर्ण
प्रस्तावनामे मुशोभित । (५) स्तुतिविपा-स्वामी समन्तभद्रको मनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, मटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशो
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनाये अलंकृत सुन्दर जिलद-साहित । (६) अध्यात्मकमलमानए-पंचाध्यायोकार कवि राजमस्तकी सुन्दर माध्यास्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित भोर मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी सोमपूर्ण विस्तृत प्रस्तावमा भूपित। ...
... ) (७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञानमे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुआ था। पुख्तार श्रीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनाहिसे अलंकृत, मणिर' ... 1) (E) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महतको स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ... (1) शामनचनुम्बिशिका-(तीर्थ परिचय)-मुनि मदनकोतिको १३ वी शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादित सहित। (१०) ससाध-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर बद्धमान और उसके बाद के २१ महान् प्राचार्योंके १५७ पुण्य स्मरणोंका
__ महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारधीके हिन्दी अनुवादादि-सहित। ... (११) विवाह-ममुद्देश्य-मुख्तारखीका लिखा हमा विवारहका मप्रमाण मार्मिक और साविक विवेचन ... ) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त मे गृढ गम्भी विषयको अतीव सरलतासे सममने-समझानेकी जी,
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित । (१३) अनिन्यभावना -श्रापद्मनन्दो प्राचार्य की महत्वकी रचना, मुख्तारीके हिन्दी पचानुवाद और भावार्थ
सहित। (१४) तत्त्वार्थमूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारीके हिन्दी अनुवाद तथा ग्यास्याम युक्त नोट-ये सब तन्य एक साथ लेनेवालों को ३७॥) की जगह १०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' अहिसा मन्दिर विल्डिंग १, दरियागंज, देहली
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अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१५०० ) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा० कोटलालजी जैन सरावगी २५१) बा० सोहनलालजी जैन लमेच २५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी ५१) बा० ऋषभचन्द्र (B... जैन
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महायक
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२५१) बा० दीनानाथजी सरावगी २५१) बा० रतनलालजी कांकरी २५१) बाट बल्देवदामजी जैन सरावगी
२५४) सेठ गजराजजी गंगवाल (२५१) सेट मालालजी जैन २५५) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
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२५४) सेठ मांगोलालजी ०५१) मेठ शान्तिप्रसादजी जन २५१) बाट विशनदयाल रामजोवनजी, पुरलिया २५१) ला कपूरचन्द्र धूपचन्द्रजी जैन, कानपुर २५५) बाट जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली २५१) लाः राजकृष्ण प्रेमचन्द्रजी जैन, देहली २५४) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी. देहली २५१) ला= त्रिलोकचन्दजी महारनपुर (२५५) मंठ बदलान जी जैन फीरोजाबाद (२५१) लाः रघुवीर सिंहजी, जैनावाच कम्पनी देहली
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(१:१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला प० साडीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली १०१) बा० लालचन्द्रजी बी: सेठी, उज्जैन
१०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) बा० लालचन्द्रजी जैन सरावगी
Regd. No. D. 411
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१०१) बा० मोतीलाल मक्म्वनलालजी, कलकत्ता १०४) बा० केदारनाथ बद्रीप्रसादजी सरावगी,, १०१) बाट काशीनाथजी,
१०१) बा० गोपीचन्द्र रुपचन्दजी
१०१) या धनंजयकुमारजी
१ : १) बा० जीतमल जी जैन १०१) बाट चिरंजीलालजी सरावगी
...
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१०१) बाः रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची ४०१) लाट महावोरप्रसादजी ठेकेदार, देहली १०६) ला रतनलालजी माडीपुरिया, रेहलो १०४) श्री फतेहपुर स्थित जेन समान, कलकत्त (१०.) गुप्त सहायक सदर बाजार मंठ
१०१) श्री श्रीमाला देवी धर्मपत्नी डा० श्रीचन्द्रजी जैन 'सगल' एटा (१०१) ला= मक्खनलालजी मोतीलालजी ठेकेदार, देहनी १०१) बा० फूलचन्द्र रतनलालजी जैन कलकत्ता १०४) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जेन, कलकत्ता १०९) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जेन, कलकत्ता १०१) बाः बद्रीदामजी मगवगा, कलकत्ता १०१) ला० उदयरान जिनेश्वरदासजी सहारनपुर
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अधिष्ठाता 'वीर - सेवामन्दिर' सरमाया, जि० सहारनपुर
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परमानन्दजी जैन शास्त्री (o अहिया मन्दिर १ दरियागंज देहली। मुद्रवरूपामिटिंग हाउस दरियागंज देही
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श्री वीर-जिनका
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वादयताथा
सर्वाऽन्तवत्तद्गुरग-मुख्य-कल्प सर्वाऽन्त-शून्यंच मिथोडनपेक्षम । सर्या पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव
श्रीवीर जिनालय
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सन
एक नित्य।
जोर अनेक अनित्य अजीव
पुण्यालोक स्वभावाक्य/सामान्य पाप परलोक विभाव/ पर्याय/ विमोष
असन
ANIMहित हिसा सम्यकावया सापेमादेव.नयागुक्तिाशसि.आत्या Iअहित अहिंसा मिथ्या अखिया निरपेक्ष पुरुषार्थ प्रमाण अगम अशुम्स/परमात्मा
दा/दम/स्यामा/समाधि
saleelfi/EE/R)
MAHARANAYANE
AJKPS
CF
तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधे
भव्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कलौ। येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्तनं ==
-कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिं वीरं प्रणोमि स्फुटम्॥ EPS-
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विषय-सूची
...
३५३ ३१६
-दो स्तवन पञ्चपरमेष्टि- मंत्र-स्तोत्रम्
सरस्वतीस्तवनम् सम्पादक... २-समन्तभद्र वचनामृत ... युगवीर ... ३-हेमराज गोदीका और प्रवचनसारका पद्यानुवाद
परमानन्द जैन शास्त्री ... ४-कुछ अज्ञान् जैन ग्रन्थ [पं० हीरालाल जैन
सिद्धान्तशास्त्री
-गौ रक्षा, कृषि और वैश्य समाज ३३७ [दौलतराम 'मित्र' ... ३३६ ६-इलायची [ला० जुगलकिशोर जैन
७-विजोलियाके शिलालेग्व
[६० परमानन्द जैन शास्त्री -सग्रहीत जैन इतिहासकी आवश्यकता
एन०सी० वाकलीवाल
...
३१८
३५१
...
३६०
वीरसेवा-मन्दिर भी गोम्मटस्वामीजोकी यात्राको
श्रीमान् ला० राजकृष्णजी व्यवस्थापक 'वीरसेवा-मन्दिर' का अपनी मोटर द्वारा मपरिवार गोम्मटस्वामीजीकी यात्राका निश्चय होजाने पर वीरसेवा-मन्दिरके अधिष्ठाता श्रीजुगलकिशोरजी मुतारने मी अाश्रमके कुछ विद्वानोंके साथ गोम्मटस्वामीजीकी यात्रा मोटर द्वारा करनेका विचार स्थिर किया है । ता. २६ जनवरी सन् १९५३ को सबका एकमाथ प्रस्थान होगा।
मुख्तार श्री की इच्छा है कि वे इस यात्रामें कुछ ग्वाम ग्वास शास्त्रभंडारोंका भी अवलोकन कर । अतः जहां कुछ प्राचीन शास्त्रभंडार हों या किसी शास्त्रभंडारमें कोई प्राचीन शास्त्र या गुटके आदि सुरक्षित हो तो वहांके मजन उन्हें दिग्वलाने के लिये भण्डारोंकी सूची सहित तय्यार रखनेकी कृपा करें । यात्राका मांटा प्रोग्राम प्रायः निम्न प्रकार हैजिसमें पथावश्यक परिवर्तन हो सकेगा।
यात्राका प्रोग्राम देहलीसे मथुरा, महावीरजी, जयपुर, पदमपुरी, अजमेर, व्यावर, नाथद्वारा, उदयपुर, केशरि याजी-इंगररपु, ईडर, अहमदाबाद, वदवान, राजकोट, जूनागढ़ (गिरिनारजी) सोनगढ़, पालीताना, मावनगर, घोघा, तारंगा, बड़ौदा, पावागढ़, मांगीतुगी, गजपंथा (नासिक), एलोरा, अजन्ता, बम्बई पूना, सितारा, कोल्हापुर, बेलगांव, स्तवनिधि, सिमोगा, मूडबिद्री, कारकल, बेणूर, हलेविड, श्रवणबेल्गोला, मैसूर, बंगलोर, हैदराबाद, शोलापुर, वारसी, कुंथलगिरि, नागपुर, रामटेक, अमरावती, मुक्तागिरि, इन्दौर, सनावद, बडवानी, सिद्धवरकूर, ऊन, जबलपुर, कुडलपुर, दमोह, सागर, नैनागिरि, द्रोणगिरि, छतरपुर, खजराहा, अहार, टीकमगढ़, पपौरा, ललितपुर, देवगढ़, चन्देरी, पवा, झांसी, सोनागिरि, ग्वालियर, आगरा ।
निवेदक परमानन्द जैन
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तत्व-मा
तत्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ५)
इस किरण का मूल्य 1)
LAHESHNEHHESARHHHHHHHHHHRS
नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्यबीज भुबनेकररुर्जयत्यनेकान्त।
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वर्ष ११ । वीरसेवामन्दिर, अहिसामन्दिर-बिल्डिंग १ दरियागंज, देहली दिसम्बर किरण १. मार्गशीर्ष शुक्ल, वीर नि० सं० २४७६, वि.सं० २००६ १९५२
दो स्तवन [ जिन दो स्तवनोंको आज यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है उनमेंसे पहला पञ्चपरमेष्ठि-मंत्र-स्तवन है, 1 फरवरी सन् १९४७में मुझे कानपुरके बड़े मन्दिरके शास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुए एक जीर्ण-शीण हे गुट के परसे उपलब्ध हुआ था। बादको अपने पूर्वसंग्रह में भी इसकी एक सुरक्षित प्रति मिल गई, जिसमें न्तिम पद्य नहीं है। यह जिस मन्त्रराजका स्तोत्र है वह सुप्रसिद्ध णमोकार मन्त्र है। उसीके महात्म्यको इसमें रवपूर्ण शब्दों-द्वारा ख्यापित किया गया है । स्तवनके अन्तमें इसे 'उमास्वातिविरचित' लिखा है। ये मास्वाति कौन हैं, यह अभी सुनिश्ति नहीं है। दूसरा 'सरस्वतीस्तवन' है, जिसके कर्ता ज्ञानभूषण मुनि हैं विक्रमकी १६वीं शताब्दीके विद्वान तथा भट्टारक भुवनकीर्तिके पट्टधर शिष्य थे । यह जिनवाणीरूप रस्वतीका बड़ा ही सुन्दर भावपूर्ण एवं हृदयग्राही स्तोत्र है । इसके प्रायः प्रत्येक पथके चतुर्थ चरणमें अपने लये चिदुलब्धिके विस्तारकी सार्थक प्रार्थना एवं भावना की गई है।
-सम्पादक] पश्चपरमेष्ठि-मन्त्र-स्तवनम् विश्लिष्यन घनकर्मराशिमनिः-संसारभूमीभृतः। स्वर्निवाणपुरप्रवेशगमने निःप्रत्यवायः सताम् । मोहाऽन्धाऽवटसंकटे निपततां हस्तावलंबोऽहतां पायानः सवराऽचरस्य जगतः संजीवनं मंत्रराट् ॥११॥
एकत्र पंच गुरुमंत्रपदाऽक्षराणि विश्वत्रयं पुनरनन्तंगुणं परत्र । योथारयेत्खलु तुलानुगतं तथापि वन्दे महागुरुतरं परमेष्ठिमन्त्रम् ।।२।। ये केचनापि सुषुमा-दुषमाद्यनन्ता उत्सर्पिणिप्रभृतयः प्रययुर्विवर्ताः।
तेवेप्यय परतरः प्रथितः पुरापि लब्ध्वैनमेव हि गताः शिवमत्र लोकाः ॥शा उत्तिष्ठग्निपतत्खलमपि धरापीठे लुटनास्पदे जापट्टा प्रहसन् स्वपमपि वने विभ्यश्वखेदमपि। गच्छन् वमनि वै स्मरेत्प्रतिदिन कर्म प्रकुर्वनमु यः पंचप्रमुमत्रमेकमनिशं किं तस्य नो वांछितम ॥४॥
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भनेकान्त
किरण १० संग्राम-सागर-करीन्द्र-भुजंग-सिंह-दुर्व्याधि-वन्हि-रिपु-बन्धन-संभवानि ।
चौर-ग्रह-भ्रम-निशाचर-शाकिनीनां नश्यन्ति पंच परमेष्ठिपदै भैयानि ॥५॥ योऽलक्ष्यं जिनलक्षबद्धहदयः सुव्यक्तवर्णक्रमः श्रद्धावान् विजितेन्द्रियो भवहर मंत्र जपेन्मानवः । पुष्पैःश्व वसुगंधिभिः सुविधिना लक्षप्रमाणैरमुया सपूजयते सविश्वमहितस्तीर्थाधिनाथो भवेत् ।।६।।
इन्दुर्दिवाकरतया रविरिन्दुरूप पातालमंबरमिला सुरलोक एव । कि नल्पितेन बहुना भुवनत्रयेपि यन्नाम तन्न विषमं च समं च तस्मात् ||७|| जग्मुर्जिनास्तदपवर्गपदं यदेव विश्वं वराकमिदमत्र कथं च न स्यात् ।
तत्सर्वलोकभवनोद्धरणाय धीरम्मत्रात्मकं जिनवपुर्निहितं तदाऽत्र ।।८।। हिंसावानऽनृतगीप्रियः परधनाऽऽहर्ता परस्त्रीरतः किं चान्येष्वपि लोकगर्हितमतिः पापेषु गाढोचतः। मंत्रेश स यदा स्मरेच्च सततं प्राणात्यये सर्वदा दुःकाहितदुर्गति क्षणगतः स्वर्गी भवेन्मानवः ॥६॥ अयं धर्मः श्रेयानयमपि च देवो जिनपतिः व्रतं चैतच्छ यस्त्विदमपि तपः सर्वफलदम् । किमन्यग्जिाले बहुभिरपि संसारजलधौ नमस्कारस्तत्कि यदिह तरि-रूपो न भवति ॥१०॥ सुखे दुखे भयस्थाने संग्रामे शत्रसकटे। श्रीपंचगुरुमंत्रस्य पाठः कार्यः पदे पदे ।११) इति उमास्वाति-विरचितं पंचपरमेष्ठि [मंत्र स्तवसनं मातम् ।
सरस्वती-स्तवनम् (द्रतविलम्बित)-त्रिजगदीश-जिनेन्द्रमुखोद्भवा त्रिजगती-जनजात-हितंकरा
त्रिभुवनेश-नुता हि सरस्वती चिदुपलब्धिमियं बितनोतु मे ॥ १ ॥ अखिल-नाक-शिवाऽध्वनि दीपिका नव-नयेषु विरोध-विनाशिनी। मुनि-मनोम्बुज-मोदन-भानुभा चिदु-लब्धिमियं वितनोतु मे ॥२॥ यतिजनाचरणाद्विनिरूपणाद् द्विदशभेदगता गत-दूषणा । भव-भयाऽऽतप-नाशन-चन्द्रिका चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे ॥३॥ गुणसमुद्र-विशुद्ध परात्मनःप्रकटनैककथा सुपटीयसी । जित-सुधा निजभक्त-शिवप्रा चिदुपलब्धिमिय वितनोतु मे ॥४॥ विविध-दुःख-जले भवसागरे गद-जरादिक-मान-समाकुले। असुभृतां किल तारण-नौ-समा चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे ॥५॥ गगन-पुद्गल-धर्म-तदन्यक सह सदा सगुणौ चिदनेहसौ। कलयता नरो यदनुग्रहात चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे ॥६॥ गुरुरयं हितवाक्यमिदं गुरोः सुमिदं (?) जगतामथवा शुभम् । इति जनो हि यतोऽत्र विलोक्यते चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे ॥७॥ त्यजति दुर्मतिमेव शुभे मति प्रतिदिनं कुरुते च गुणे रतिम् । जड-नरोऽपि ययाऽर्पित-धीधनश्चिदुप धमियं वितनोतु मे ॥८॥ खलु नरस्य मनो रमणीजने न रमते रमते परमात्मनि । यदनुभूतिपरस्य नरस्य वै चिदुपलब्धिमिय वितनोतु मे ॥६॥ विविध-काव्य-कृते मति संभवे भवति चाऽपि तदर्थ-विचारणे।
पद-विभक्ति-भरान्वित-मानवे चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे ॥१०॥ (वसन्ततिलका)-योऽहर्निशं पठित-मानस-मुक्त-मारः स्यादेव तस्य भव-नीर-समूह-पारः।
मुक्त जिनेन्द्रवचसोहदयेच हारःस शानभूषणमुनिः स्तवन चकार॥११॥
इतिहानभूषणमुनि-विरचितं.सरस्वती-स्तवनम् ।
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समन्तभद्र-वचनामृत
( 5 )
देशावका शिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा । वैय्यावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ ६१ ॥
'दशावकाशिक, सामयिक, प्रोषधोपवास तथा
वैयावृत्य, ये चार शिक्षाव्रत ( व्रतधरामणीयाँ- द्वारा )
बतलाए गए हैं।"
देशावकाशिकं स्यात्काल-परिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ॥ ६२ ॥
'( दिखतमें ग्रहण किए हुए) विशाल देशका - विस्तृत क्षेत्र मर्यादाका - कालकी मर्यादाको लिए हुए जो प्रतिदिन संकोच करना - घटाना है वह अणुव्रतधारी श्रावकका देशावकाशिक – देश निवृत्ति परकव्रत है ।"
व्याख्या - इस व्रतमें दो बातें खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है—एक तो यह कि यह व्रत कालकी मर्यादाको लिए हुए प्रतिदिन ग्रहण किया जाता है अथवा इसमें प्रतिदिन नयापन लाया जाता है; जबकि दिखत एक बार ग्रहण किया जाता है और वह ज्योंका त्यों जीवन पर्यन्त के लिए होता है। दूसरे यह कि दिग्व्रतमें ग्रहण किए हुए विशाल देशका - उसकी क्षेत्रावधिका - इस व्रतमें उपसंहार (अल्पीकरण) किया जाता है और वह उपसंहार उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है— देशव्रतमें भी उपसंहारका
अवकाश बना रहता है। अर्थात् पहले दिन उपसंहार करके जिसने देशकी मर्यादा की गई हो, अगले दिन उसमें भी कमी की जा सकती है-भले ही पहले दिन ग्रहण की हुई देशकी मर्यादा कुछ अधिक समयके लिए ली गई हो, अगले दिन वह समय भी कम किया जा सकता है; जबकि दिखतमें ऐसा कुछ नहीं होता और यही सब इन दोनों व्रतोंमें परस्पर अन्तर है । गृह-हारि-ग्रामाणां क्षेत्र-नदी- दाव - योजनानां च । देशावकाशिकस्य स्मरंति सीम्नां तपोवृद्धाः ॥६३
‘गृह, हारि ( रम्ब उपवनादि प्रदेश ), प्राम, क्षेत्र (खेत, नदो, वन और योजन इनको तथा ( चकार या
उपलचणसे) इन्हीं जैसी दूसरी स्थान निर्देशात्मक वस्तुओंको तपोवृद्ध मुनीश्वर ( गणधरादिक पुरातन - चार्य ) देशावकाशिकात की सीमाएँ क्षेत्र-विषयक मर्यादाएं-बतलाते हैं ।"
संवत्सरमृतुमयनं मास - चतुर्मास-पचमृक्षं च । देशावकाशिकस्य प्राहुः कालाऽवधिं प्राज्ञाः ॥ ६४ ॥
'वर्ष, ऋतु, अयन, मास, चतुर्मास पक्ष, नक्षत्र, इन्हें तथा (चकार या उपलक्षण से) इन्हीं जैसे दूसरे दिन, रात, अर्ध-दिन-रात, घड़ी घटादिसमय-निर्देशात्मक परिमाणोंको विज्ञजन ( गांगधरादिक महामुनीश्वर ) देशावका शिकव्रतकी काल-विषयक मर्यादाएँ कहते हैं।"
सीमान्तानां परतः स्थूलेतर - पंचपाप-संत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते । ६५ ।।
'मर्यादा के बाहर स्थूल तथा सूक्ष्म पंच पापोंका भले प्रकार त्याग होनेसे देशावका शिकव्रतके द्वारा भी महाव्रत साधे जाते हैं ।"
व्याख्या- यहां महावतोंकी जिस साधनाका उल्लेख है वह नियत समयके भीतर देशावकाशिक व्रतकी सीमाके बाहरके क्षेत्र से सम्बन्ध रखती है। उस बाहरके क्षेत्रमें स्थित सभी जीवोंके साथ उतने समय के लिए हिंसादि पांचों प्रकारके पापोंका मन-वचन-काय और कृत-कारितअनुमोदनाके रूपमें कोई सम्ध न रखनेसे उस देशस्थ सभी प्राणियोंकी अपेक्षा अहिंसादि महाव्रतोंकी प्रसाधना बनती है। और इससे यह बात फलित होती है कि इस व्रतके प्रतीको अपनी व्रतमर्यादाके बाहर स्थित देशोंके साथ किसी प्रकारका सम्बन्ध ही न रखना चाहिए और यदि किसी कारणवश कोई सम्बन्ध रखना पड़े तो वहांके स-स्थावर सभी जीवोंके साथ महावती मुनिकी तरहसे आचरण करना चाहिये ।
प्रेषण - शब्दाऽऽनयनं रूपाऽभिव्यक्ति- पुद्गलक्षेपौ । देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पंच॥६६॥
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३४०]
अनेकान्त
[किरण १०
'(देशावकाशिकव्रतमें स्वीकृत देश तथा काखकी व्रतकी क्षेत्र मर्यादाके भीतर और बाहर सब क्षेत्रोंकी मर्यादाके बाहर स्वयं न जाकर) प्रेषणकार्य करना-प्या- अपेक्षा त्याग करना है उसका नाम आगमके ज्ञाता पारादिके लिए किसी व्यक्ति, वस्तु, पत्र या संदेशको वहां 'सायिक' बतलाते हैं भेजना-पानयन कार्य करना-सीमा-बाय देशसे किसी व्याख्या-यहां जिस समयकी बात कही गई है
किको इनाना या कोई चीज अथवा पत्रादिक मंगाना, उसका सूचनात्मक स्वरूप अगली कारिकामें दिया है। (वाब देशमें स्थित प्राणियोंको अपने किसी प्रयोजनकी ।
उस समय अथवा प्राचारविशेषकी अवधिपर्यन्त हिंसासिद्धि के लिए) शब्द सुनाना-उच्चस्वरसे बोलना, दिक पांचों पापोंका पूर्णरूपसे त्याग इस व्रतके लिये टेलीफोन या वारसे बातचीत करना अथवा लाउडस्पीकर विवक्षित है और उसमें पापोंके स्थूल तथा सूचम दोनों (ध्वनि-प्रचारक यन्त्र) का प्रयोग करना, अपना रूप
प्रकार प्राजाते हैं। यह त्याग क्षेत्रकी दृष्टिसे देशावदिखाना, तथा पुद्गल द्रव्यके क्षेपण (पातनादि) द्वारा काशिक व्रतकी सीमाके भीतर और बाहर सारे ही क्षेत्रसे कोई प्रकारका संकेत करना, ये देशावकाशिकव्रतके
सम्बन्ध रखता है। पांच प्रतीचार कहे जाते हैं।
मूर्ध्वरुह-मुष्टि-वासो-बन्धं पर्यतबन्ध चापि । व्याख्यान प्रतीचारोंके दारा देशावकाशिकवत. की सीमाके वायस्थित देशोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी बात स्थानमुपवेषन वा समयं जानन्ति समयज्ञाः॥६॥ को-उसके प्रकारोंको स्पष्ट करते हुए अन्तिम सीमाके 'केशबन्धन, मुष्टिबन्धन, वस्त्रबन्धन पयङ्कबंधनरूपमें निर्दिष्ट किया गया है। यदि कोई दूसरा मानव इस पद्मासनादि मांडना- और स्थान-खड़े होकर कायोत्सर्ग प्रतके व्रतीकी इच्छा तथा प्रेरणाके बिना ही उसकी करना-तथा उपवेशन-बैठकर कायोत्सर्ग करना या किसी चीजको, उसके कारखानेके लेबिल लगे मालको, साधारण रूपसे बैठना, इनको आगमके ज्ञाता अथवा उसके शब्दोंको (रिकार्ड रूपमें) अथवा उसके किसी चित्र सामायिक सिद्धान्तके जानकार पुरुष (सामायिकका) या आकृति - विशेषको - अतसीमाके वासस्थित देशको समय-प्राचार-जानते हैं। अर्थात् यह सामायिक व्रतके भेजता है तो उससे इस व्रतका व्रती किसी दोषका भागी अनुष्ठानका बाह्याचार है। नहीं होता। इसी तरह सीमाबास स्थित देशका कोई व्याख्या-'समय' शब्द शपथ, आचार, सिद्धान्त, पदार्थ यदि इस व्रतीकी इच्छा तथा प्रेरणाके विना ही काल, नियम, अवसर प्रादि अनेक प्रों में प्रयुक्त होता स्वतन्त्र रूपमें बहांसे लाया जाकर इस व्रतीको अपनी है। यहाँ वह 'प्राचार' जैसे अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। क्षेत्रमर्यादाके भीतर प्राक्ष होता है तो उससे भी व्रतको इस कारिकामें जिन आचारोंका उल्लेख है उनमेंसे किसी दोष नहीं लगता। हां, जानबूझ कर वह ऐसे चित्रपटों, प्रकारके प्राचारका अथवा 'वा' शब्दसे उनसे मिलते-जुलते सिनेमाके पदों तथा चलचित्रोंको नहीं देखेगा और न ऐसे किसी दूसरे प्राचारका नियम लेकर जब तक उसे स्वेच्छासे गायनों भादिके बारकास्त्रों तथा रिकार्डोको ही रेडियो या नियमानुसार छोड़ा नहीं जावे तब तकके समय (काल) आदि द्वारा सुनेगा जो उसकी क्षेत्रमर्यादासे बाहरके के लिये पंच पापोंका जो पूर्णरूपसे-मन, वचन, काय और चेतन प्राणियोंसे सीधा सम्बन्ध रखते हों और जिससे उनके कृत-कारित-अनुमोदनाके द्वारा-सर्वथा त्याग है वही पूर्वप्रति रागद्वेषकी उत्पत्ति तथा हिंसादिककी प्रवृत्तिका कारिकामें वर्णित सामायिककी कालमर्यादाके प्रकारोंका सम्भव हो सके।
सूचक है; जैसे पद्मासन लगा कर बैठना जब तक असह्य प्रासमयमुक्ति मुक्त पंचाऽधानामशेषभावेन । (पाकुलताजनक) न हो जाय तब तक उसे नहीं छोड़ा
जायगा और इसलिये असमादि होने पर जब उसे छोवा सर्वत्र च सामयिकाःसामयिकं नाम शंसन्ति ।।१७ मा
(विवचित) समयकी-केशबन्धादि रूपसे गृहीत ® 'समयः शपथे भाषासम्पदोः कालसंविदोः। माचार की-मुक्तिपर्यन्त-उसे तोड़नेकी अवधि तक-जो सिद्धान्ताऽऽचार-संकेत-नियमावसरेषु च ॥ हिंसादि पांच पापोंका पूर्णरूपसे सर्वत्र-देशावकाशिक क्रियाधिकारे निर्दशेचा-इति रभसः
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किरण १० ]
जायगा तब तककी उस सामायिक व्रतकी कालमर्यादा हुई। इसी तरह दूसरे प्रकारोंका हाल है और ये सब घड़ीघंटा यादिकी परतंत्रतासे रहित सामायिककारकी स्वतन्त्रताके द्योतक अतिप्राचीन प्रयोग हैं जिनकी पूरी रूपरेखा आज बहुत कुछ अज्ञात है ।
समन्तभद्र-त्र चनामृत
'
एकान्ते सामयिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ॥ ६६ ॥ ‘बनोंमें, मकानोंमें तथा चैत्यालयों में अथवा (अपि शब्दसे ) अन्य गिरि गुहादिकों में जो निक द्रव-निराकुल एकान्त स्थान हो उसमें प्रसन्नचि से स्थिर होकर सामयिकको बढ़ाना चाहिये - पंच पापके त्यागमें अधिकाधिक रूपसे दृढ़ता लाना चाहिये ।
व्याख्या - यहाँ 'एकान्ते' और 'निर्व्याक्षेपे' ये दो पद खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य हैं और वे इस बातको सूचित करते हैं कि सामायिकके लिये वन, घर या चैत्यायादिका जो भी स्थान चुना जाय वह जनसाधारणके श्रावागमनादि सम्पर्क से रहित अलग-थलग हो और साथ ही चींटी, डांस मच्छरादिके उपद्रवों तथा बाहर के कोलाहलों एवं शोरोगुलसे रहित हो, जिससे सामायिकका कार्य निराकुलता के साथ सध सके—उसमें कोई प्रकारका विक्षेप न पड़े । एक तीसरा महत्वपूर्ण पद यहाँ और भी है और वह है ‘प्रसन्नधिया’, जो इस बातको सूचित करता है कि
सामायिकका यह कार्य प्रसन्नचित्त होकर बड़े उत्साहके साथ करना चाहिये - ऐसा नहीं कि गिरे मनसे मात्र नियम पूरा करनेकी दृष्टिको लेकर उसे किया जाय, उससे कोई लाभ नहीं होगा, उल्टा अनादरका दोष लग जायगा । व्यापार-वैमनस्याद्विनिवृत्यामन्तरात्मविनिवृत्या ! सामयिकं बध्नीयादुपवासे चैकभुक्ते वा ॥ १०० ॥
'उपवास तथा एकाशनके दिन व्यापार और बैमनस्यसे विनिवृत्ति धारण कर - आरम्भादिजन्य शरीरादिPost der और मनकी व्यताको दूर करके - अन्तर्जल्पादि रूप संकल्प-विकल्प के त्याग द्वारा सामायिकको दृढ़ करना चाहिये ।'
[ ३४१
कलुषता मिटे और अन्तरात्मामें अनेक प्रकारके संकल्पविकल्प उठकर जो अन्तर्जल्प होता रहता है—भीतर ही भीतर कुछ बातचीत चला करती है-वह दूर होवे । अतः इस सब साधन-सामग्रीको जुटानेका पूरा यस्न होना चाहिये । इसके लिये उपवासका दिन ज्यादा अच्छा है और दूसरे स्थान पर एक बार भोजनका दिन है।
व्याख्या -- यहाँ सामायिककी दृढ़ताके कारणोंको स्पष्ट किया गया है । सामायिकमें हड़ता तभी लाई जा सकती है जब काय तथा वचनका व्यापार बन्द हो, चिन्तकी व्यग्रता
सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्य नलसेन चेतव्यम् । व्रत पंचक परिपूरण- कारणमवधान युक्त ेन ॥ १०१ ॥
( न केवल उपवासादि पर्वके दिन ही, किन्तु ) प्रति · दिन भी निरालसी और एकाग्रचित्त गृहस्थ श्रावकों को चाहिए कि वह यथाविधि सामायिकको बढ़ावें; क्योंकि यह सामायिक अहिंसादि पंचत्रतोंके परिपूरणका उन्हें अणुव्रतसे महाव्रतत्व प्राप्त करानेका कारण है ।
व्याख्या - यहाँ पर यह स्पष्ट किया गया है कि सामायिक, उपवास तथा एक मुक्तके दिन ही नहीं, बल्कि प्रतिदिन भी की जाती है और करनी चाहिए; क्योंकि उससे अधूरे हिसादिक व्रत पूर्णताको प्राप्त होते हैं। उसे प्रतिदिन करनेके लिये निरालस और एकाग्रचित्त होना बहुत जरूरी है। इसकी ओर पूरा ध्यान रखना चाहिये । सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् १०२
'सामायिक में कृष्यादि आरम्भों के साथ साथ सम्पूर्ण बाह्याभ्यन्तर परिग्रहोंका अभाव होता है इसलिये सामायिक की अवस्था में गृहस्थ श्रावककी दशा चेलोपसृष्ट मुनि-जैसी होती है। वह उस दिगम्बर मुनिके समान मुनि होता है जिसको किसी भोले भाईने दबाका दुरुपयोग करके वस्त्र श्रोढ़ा दिया हो और वह मुनि उस बस्त्रको अपने व्रत ओर पदके विरुद्ध देख उपसर्ग समझ रहा हो ।
व्याख्या - यहाँ सामायिकमें स्थित गृहस्थकी दशा बिल्कुल मुनि-जैसी है, इसे भले प्रकार स्पष्ट किया गया है और इसलिए इस व्रतके व्रती श्रावकको कितना महत्व प्राप्त है यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है । अतः श्रावकोंको इस व्रतका यथा विधि आचरण बड़ी ही सावधानी एवं तत्परताके साथ करना चाहिये और उसके लिये अगली कारिकाओंमें सुकाई हुई बातों पर भी पूरा ध्यान रखना चाहिये ।
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३४२]
अनेकान्त
साथ ही बहस समझ लेना चाहिये कि सामाषिक केवल ध्यान करें--चिन्तन करें-कि 'में चतुर्गति भ्रमणरूपी जाप अपना नहीं है जैसा किबहुधा समर जाता है- जिस संसारमें बस रहा हूँ वह अशरण है-उसमें दोषोंमें अन्तर है और वह सामायिक तथा प्रतिक्रमम-पाठों अपायपरिरषक (विनाशसे रक्षा करने वाला कोई नहीं है, में पाए जाने वाले सामायिक ब्रतके इस बक्षणपयसे और (अशुभ-कारण-जन्य और अशुभ कार्यका कारण होनेसे) मी स्पट हो जाता है
अशुभ है, अनित्य है, दुःखरूप है और आत्मस्वरूपसे "समता सर्वभूतेषु संपमा शुभ-भावना ।।
भिन्न है, तथा मोक्ष उससे विपरीतस्वरूपवाला हैबात--अपरित्यास्तति सामाषिकं प्रतम् "
वह शरणरूप, शुभरूप, नित्यरूप सुखस्वरूप और प्रात्मइसमें सामाविकात उसे बनाया गया है जिसके ।
र स्वरूप है। प्राचारमें सब प्राणियों पर समता-भाव हो-किसीके प्रति व्याख्या-यहां सामायिकमें स्थित होकर जिस प्रकारराग-पका वैषम्य न रहे- इन्द्रिय संयम तथा प्राणिसंयम के ध्यानकी बात कही गई है उससे यह और भी स्पष्ट हो के रूप में संयमका पूरा पालन हो, सदाशुभ भावनाएँ बनी जाता है कि सामायिक कोरा जाप जपना नहीं है । और रहें-अशुभ भावनाको जरा भी अवसर न मिले और इसलिये परहंतादिका नाम वा किसी मन्त्रकी जाप जपने में भार्स तथा रौद्र नामके दोनों खोटे ध्यानोंका परित्याग हो। ही सामायिक की इति-श्री मान लेना बहुत बड़ी भूल है, इस माचारको लिये हुए यदि जाप जपा जाता है और उसे जितना भी शीघ्र हो सके दूर करना चाहिये । विकसित भाल्मायोंकि स्मरशोंसे अपनेको विकासोन्मुख वाकायमानसानां दःप्रणिधानान्यनादराऽस्मरणे । बनाया जाता है तो वह भी सामायिकमें परिगणित है।
सामयिकस्याऽतिगमा व्यज्यन्ते पश्च भावेन ॥१०५ शीतोष्ण-दंशमशकं परीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः 'वचनका दुःप्रणिधान (दुष्ट असत् या अन्यथा प्रयोग समयिक प्रतिपमा प्राषिकुवीरन्नचलयोगा।॥१०३॥ अथवा पणिमन), काय का दुःप्रणिधान, मनका दुःप्रणि
'सामाश्किको छाप्त हुए-सामायिक मारकर स्थित धान, अनादर (अनुत्साह) और अस्मरण (अनकाप्रता), हुए-गृहस्थोंको चाहिए कि वे ( सामायिक कालमें) ये वस्तुतः अथवा परम वैसे सामायिकततके पांच सर्दी-गर्मी डांस-मच्छर मादिके रूपमें जो भी परीषह अतीचार है।' उपस्थित हो उसको, तथा जो उपसर्ग आए उसको भी व्याख्या-सामायिकवतका अनुष्ठान मन-वचनकायको अचलयोग होकर-अपने मन-वचन-कायको डांवाडोल ठीक वशमें रखकर बनी सावधानीके साथ उत्साह तथा न करके-मौनपूर्वक अपने अधिकारमें करें-सुशीसे एकाग्रतापूर्वक किया जाता है, फिर भी दैवयोगसे सहन करें, पीलाके होते हुए भी घबराहट-बेचैनी या क्रोधादि किसी कषायके भावा-वश यदि मन-वचन-कायमेंदीनतासूचक कोई शब्द मुखसे न निकालें।
से किसीका भी खोटा अनुचित या अन्यथा प्रयोग बन व्याख्या-यह मौनपूर्वक सामायिकमें स्थित होकर जाय अथवा बैसा परिणामन हो जाय, उत्साह गिर जाय या सामायिक कालमें पाए हुए उपसर्गों तथा परीषहाँको समता- अपन विषयम एकाग्रता स्थिर न रह सकता वही इस भावसे सहन करते हुए जिस प्रचलयोग-साधनाका गृहस्थों- सके लिये दोषरूप हो जायगा। उदाहरणके तौर पर के लिये उपदेश है वह सब मुनियों-जैसी चर्या है और एक मनुष्य मौनसे सामायिकमें स्थित है, उसके सामने इसलिए प्रारम्भ तथा परिग्रहसे विरक ऐसे गृहस्थ साधकों एकदम कोई भयानक जन्तु सांप, बिच्छू व्याघ्रादि पाजाए को उस समय मुनि कहना-पेलोपसृष्ट मुनिकी उपमा
और उसे देखतेही उसके मुंहसे कोई शब्द निकल पड़ेदेना उपयुक ही है। .
शरीरके रोंगटे खड़े हो जाय, भासन डोल जाय, मनमें
भयका संचार होने लगे और उस जन्तुके प्रतिद्वेषकी कुछ प्रशरामशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् भावना जागृत हो उठे अथवा अनिष्टसंयोगज नामका भातमोबस्तद्विपरीतात्मेति घ्यायन्तु सामयिके ।१०४ ध्यान कुछ पणके लिये अपना पासन जमा बैठे तो यह
'सामायिक में स्थित सभी भाषक इस प्रकारका सब उस प्रतीके लिये दोषरूप होगा ।
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किरण १० ]
पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्य: प्रोषधोपवासस्तु । चतुरम्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदिच्छाभिः ।। १०६
'चतुर्दशी और अष्टमी के दिन चार अभ्यवहार्यो का, पान (पेय), खाद्य और लेझरूपसे चार प्रकारके आहारोंका जो सत इच्छाओंसे - शुभसंकल्पोंके साथ त्याग है--उनका सेवन न करना है— उसको 'प्रोषधोपवास' व्रत जानना चाहिये ।
समन्तभद्र वचनामृत
व्याख्या- 'पर्वणी' शब्द यद्यपि आमतौर पर पूर्णिमा का वाचक है परन्तु वह यहाँ चतुर्दशीके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है; क्योंकि जैनाम्नायकी दृष्टिसे प्रत्येक मासमें दो अष्टमी और दो चतुर्दशी ऐसे चार दिन आमतौर पर पर्वके माने जाते हैं, जैसाकि श्रागे प्रोषधोपवास नामक श्रावकपद (प्रतिमा) के लक्षण में प्रयुक्त हुए 'पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि मासे मासे' इन पदोंसे भी जाना जाता है । पर्वणीको पूर्णिमा माननेपर पर्व दिन तीन ही रह जाते हैं-दो अष्टमी
और एक पूर्णिमा। यहां पर्वणी शब्दसे अष्टमीकी तरह दोनों पक्षोंकी दो चतुर्दशी निर्वाचित हैं। प्रभाचन्द्राचार्यने भी अपनी टीकामें ‘पर्वणि' पदका अर्थ 'चतुदश्यां' दिया है । 'चतुरव्यवहार्याणां' पदका जो अर्थ अन्न, पान, खाद्य, और लेह्य किया गया है वह छठे श्रावकपदके लक्षण में प्रयुक्त हुए, पानं खाद्य लेा नाश्रनार्ति यो विभावर्याम्' इस वाक्य पर आधार रखता है ।
यहां इस व्रत के लक्षण में एक बात खास तौरसे ध्यानमें रखने योग्य है और वह है 'सदिच्छामि' पदका प्रयोग, जो इस बातको सूचित करता है कि यह उपवास शुभेच्छाओं अथवा सत्संकल्पोंको लेकर किया जाना चाहियेकिसी बुरी भावना, लोकदिखावा अथवा दम्भादिकके असदुद्देश्यको लेकर नहीं, जिसमें किसी पर अनुचित दबाव डालना भी शामिल है।
पंचानां पपानामलंक्रियाऽऽरम्भ- गन्ध- पुष्पाणाम् । स्नानाऽञ्जन- नस्यानामुपवासे परिहतिं कुर्यात् ॥ १०७
[ ३४३
नाक में दवाई डालकर नस्य लेने अथवा सूँघनेका त्याग करना चाहिये ।'
'उपवास के दिन हिंसादिक पांच पापोंका, अलंक्रियाका - वस्त्रालंकारोंसे शरीर की सजावटका कृष्यादि मारम्भोंका, चन्दन इत्र फुलेल आदि गन्ध द्रव्यों के लेपनादिका, पुष्पोंके (सूँघने धारणादिरूप) सेवनका, स्नानका, आँखोंमें अञ्जन श्रजनेका और
व्याख्या - इस कारिकामें उपवासके दिन अथवा
समयमें 'क्या नहीं करना' और अगली कारिकामें 'क्या करना' चाहिये इन दोनोंके द्वारा उपवासकी दृष्टि तथा उसकी चर्याको स्पष्ट किया गया है और उनसे यह साफ़ प्रस्तुत उपवास धार्मिकदृष्टिको लिए हुए है । इसीसे इस कारिकामें पच पापोंके त्यागका प्रमुख उल्लेख है, उसे पहला स्थान दिया गया है और अगली कारिकामें धर्मामृतको बड़ी उत्सुकताके साथ पीने-पिलानेकी बातको प्रधानता दी गई है। और इसलिये जो उपवास इस दृष्टिसे न किये जाकर किसी दूसरी लौकिक दृष्टिको लेकर किए जाते हैं— जैसे स्वास्थ्यके लिये लंघनादिक
थवा अपनी बातको किसी दूसरेसे मनवानेके लिये सत्याग्रहके रूपमें प्रचलित अनशनादिक वे इस उपवासकी कोटिमें नहीं आते।
धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् ज्ञान-ध्यानपरो वा भवतूपवसमतन्द्रालुः ॥ १०८
'उपवास करनेवाले को चाहिए कि वह उपवासके दिन निद्रा तथा आलस्यसे रहित हुआ अति उत्कण्ठाके साथ----मात्र दूसरोंके अनुरोधवश नहीं-याँ दूतको - जो धर्मके स्वरूप से अनभिज्ञ हैं या धर्मकी ठीक जानकारी नहीं रखते उन्हें-- धर्मामृत पिलावे -- धर्मचर्चा या शास्त्र सुनावे तथा ज्ञान और ध्यान में तत्पर हांवे --शास्त्रस्वाध्यायद्वारा ज्ञानार्जनमें मनको समावे अथवा द्वादशानुपाके चिन्तनमें उपयोगको रमावे और धर्मध्यान नामके अभ्यन्तर तपश्चरलमें लीन रहे ।'
ग्रहण-विसर्गाऽऽस्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादराऽस्मरणे यत्प्रोषधोपवास- व्यतिलंघन - पंचकं तदिदम् । ११०
' (उपवासके दिन भूख-प्यास से पीड़ित होकर शीघ्रतादिबस) जीव-जन्तुकी देख-भाल किये बिना और विना योग्य रीतिसे माड़े पोंछे जो किसी चीजका प्रहण करना--उठाना पकड़ना है, छोड़ना-धरना है, आसनबिछौना करना है तथा उपवास सम्बन्धी क्रियाओंके अनुष्ठान में अनादर करना है और एकाप्रताका न होना अथवा उपवासविधिको ठीक याद न रखना है. यह
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अनेकान्त
[ किरण १०
उसमें सकलसंयमी और देशसंयमी दोनों प्रकारके यतियोंका ग्रहण किया है।
इन कारिकाओं में प्रयुक्त हुए 'धमाय', अनपेक्षितोपचारोपकियं', 'गुणरागात्' और' याबानुपग्रहः' पद अपना खास महत्व रखते हैं। 'यावानुपग्रहः' पदमें दूसरा सब प्रकारका उपकार, सहयोग, साहाय्य तथा अनुकूलवर्तनादि बाजाता है जिसका इन दोनों कारिकाओंमें स्पष्ट रूप
उल्लेख नहीं है । उदारणके लिये एक संयमी किसी ग्रन्थका निर्माण करना चाहता है उसके लिये आवश्यक विषयोंके ग्रन्थों को जुटाना, ग्रन्थोंमेंसे अभिलषित विषयों को खोज निकालने श्रादिके लिये विद्वानोंकी योजना करना, प्रतिfafe आदिके लिये लेखकों (क्लकों) की नियुक्ति करना और ग्रन्थके लिखे जाने पर उसके प्रचारादिकी योग्य व्यवस्था करना, यह सब उस संयमीका आहार औौषधादिके दानसे भिन्न दूसरा उपग्रह है, जैसा कि महाराज अमोघ - वर्षने आचार्य वीरसेन-जिनसेनके लिये और महाराज कुमारपालने हेमचन्द्राचार्य के लिये किया था। इसी तरह दूसरे सद्गृहस्थों-द्वारा किया हुआ दूसरे विद्वानों एवं साहित्य तपस्वियोंका अनेक प्रकारका उपग्रह है ।
३४४ ]
सब प्रोषधोपवासका श्रतीचार-पंचक है - इस व्रत के पांच अतीचारोंका रूप है। दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥ १११ ॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयो: संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ ११२
'सम्यग्दर्शनादि गुणोंके नित्रि गृहत्यागी तपस्वोको बदले में किसी उपचार और उपकारकी अपेक्षा न रखकर जो धर्मके निमित्त यथाविभव - विधिद्रव्यादिकी अपनी शक्ति-सम्पत्ति अनुरूप दान देना है उसका नाम ' वैयावृत्य' है ।"
('केवल दान ही नहीं किन्तु ) गुणानुरागसे संयमियोंकी आपत्तियों को जो दूर करना है, उनके चरणों को दबाना है तथा और भी उनका जो कुछ उपग्रह है— उपकार, साहाय्य सहयोग अथवा उनके अनुकूल वर्तन हैवह सब भी ' वैयावृत्य' कहा जाता
व्याख्या - वहां जिनके प्रति दानादिके व्यवहारको 'वैयावृत्य' कहा गया है वे प्रधानतः सम्यग्दर्शनादि गुणोंके निधिस्वरूप वे सकलसंयमी, अगृही तपस्वी हैं जो विषयवासना तथा प्राशा तृष्णाके चक्कर में न फँसकर इन्द्रियविषयोंकी वांडा तकके वशवर्ती नहीं होते, चारम्भ तथा परिग्रहसे विरक्त रहते हैं और सदा ज्ञान-ध्यान एवं तपमें बीन रहा करते हैं, जैसा कि इसी शास्त्रकी १०वीं कारिकामें दिन तपस्वीके सबसे प्रकट है। और गौणतासे उनमें उन तपस्वियोंका भी समावेश है जो भले ही पूर्णतः गृहत्यागी न हों किन्तु गृहवाससे उदास रहते हों, भले ही भारम्भ - परिग्रहले पूरे विरक न हों किन्तु कृषि-वाणिज्य तथा मिलोंके संचालनादि जैसा कोई बढ़ा चारम्भ तथा ऐसे भारम्भोंमें नौकरीका कार्य न करते हों और प्रायः आवश्यकताकी पूर्ति जितना परिग्रह रखते हों। साथ ही, विषयोंमें आसक न होकर जो संयम के साथ सादा जीवन व्यतीत करते हुए ज्ञानकी अराधना, शुभभावोंकी साधना और निःस्वार्थ भाव से लोकहितकी दृष्टिको लिये हुए धार्मिक साहित्यकी रचनादिरूप तपश्चर्यामें दिनरात बीन रहते हों। इसीसे प्रभाचन्द्राचार्यने भी अपनी टीकामें 'संयमिन ' पदका अर्थ 'देश-सकत-यतीनां' करते हुए
'धर्मा' पद दानादिकमें धार्मिकदृष्टिका सूचक है और इस बातको बतलाता है कि दानादिकका जो कार्य जिस संयमीके प्रति किया जाय वह उसके धर्मकी रक्षार्थ तथा उसके द्वारा अपने धर्मकी रक्षार्थ होना चाहिये - केवल अपना कोई लौकिक प्रयोजन साधने अथवा उसकी सिद्धिकी प्रशासे नहीं । इसी तरह 'गुणानुरागात्' पद भी लौकिकदृष्टिका प्रतिषेधक है और इस बातको सूचित करता है कि वह दान तथा उपग्रह - उपकारादिका अन्य कार्य किसी लौकिक लाभादिकी दृष्टिको लक्ष्यमें लेकर अथवा किसीके दबाव या आदेशादिकी मजबूरीके वश होकर न होना चाहिये - वैसा होनेसे वह वैयावृत्यकी कोटिसे निकल जायगा । वैयावृत्यकी साधनाके लिये पात्रके गुणोंमें शुद्ध अनुरागका होना आवश्यक है। रहा 'अनपेक्षितोपचारोपक्रिय' नामका पद, जो कि दानके विशेषणरूपमें प्रयुक्त हुआ है, इस व्रतकी आत्मा पर और भी विशद प्रकाश डालता है और इस बातको स्पष्ट घोषित करता है कि इस वैयावृत्य व्रतके वती द्वारा दानादिके रूप में जो भी सेवाकार्य किया जाय उसके बदले में अपने किसी लौकिक उपकार या उपचारकी कोई अपेक्षा न रखनी चाहिये -- वैसी
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किरमा १०]
समन्वमद्र-बचनामृत
[३४५
अपेक्षा रखकर किया गया सेवा-कार्य बापत्यमें परि- है। प्रतिग्रहण, २ उच्चस्थापन, . पादप्रमाखन, . मक्षित नहीं होगा।
पर्चन, ५ प्रणाम, मनःशुदि, . पचनशुद्धि, काययही पर तना और भी जान लेना चाहिये कि प्रन्थ- शुदि और एषन (भोजन) शुद्धिके नामसे सम्पन्न कारमहोदयने चतुर्य शिक्षाबतको मात्र 'अतिथिसंविभाग'- उल्लिखित मिखते हैं । के रूप में न रख कर जो उसे 'वैयावृत्य' का रूप दिया है
दानके पात्रोंके विषयमें यह खास तौरसे उल्लेख किया वह अपना खास महत्व रखता है और उसमें कितनी ही गया है कि वे सूनाओं तथा प्रारम्भोंसे रहित होने चाहिये। ऐसी विशेषतामोंका समावेश हो जाता है जिनका ग्रहण- भारम्भोंमें सेवा, कृषि, वाणिज्यादि शामिल हैं. जैसा कि मात्र अतिषिसंविभाग नामके अन्तर्गत नहीं बनता; जैसा इसी ग्रन्थकी 'सेवा-कृषि-वाणिज्य-प्रमुखादारम्भतो युकिस विषयकी सरी लक्षणात्मिका कारिका (१२)से पारमति' इत्यादि कारिका नं०१४४ से प्रकट है। और प्रकट है, जिसमें दानके अतिरिक्त दूसरे सब प्रकारके उप- 'सूना' वधके स्थानों-ठिकानोंका नाम है और वे खंगिनी ग्रह-उपकारादिको समाविष्ट किया गया है और इसीसे (ोखली), पेषिणी (चक्की), बुल्ली (चौका पल्हा). उसमें देवाधिदेवके उस पूजनका भी समावेश हो जाता है उदकुभी (जलघटी) तथा प्रमार्जनी (बोहारिका)के मामसे जो कानके कथनानन्तर इस प्रथमें आगे निर्दिष्ट हुअा है पांच प्रसिद्ध हैं + । इससे स्पष्ट है कि वे पात्र सेवा-कृषिऔर जो इस व्रतका 'अतिथिसंविभाग' नामकरण करने वाणिज्यादि कार्योंसे ही रहित न होने चाहियें बल्कि वाले दूसरे ग्रन्थोंमें नहीं पाया जाता।
अोखली, चक्की, चूल्ही, पानी भर कर रखना तथा बुहारी नवपुण्यः प्रतिपत्तिः सप्तगुण-समाहितेन शुद्धन।
। देने-जैसे कामोंको करनेवाले भी न होने चाहिये। ऐसे पात्र
प्रायः मुनि तथा ग्यारहवीं प्रतिमाके धारक पुलक-ऐलक अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ॥११३॥ हो सकते हैं।
(दातारके) सतगुणोंसे युक्त तथा (बाह्य) शुद्धिसे गृहकर्मणापि निचितं कर्मविमार्टि खलुगृहविमुक्तानाम् सम्पन्न गृहस्थके द्वारा नवपुण्यों-पुण्यकारणों के साथ जो अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ॥११४ सुनाओं तथा प्रारम्भोंसे रहित साधुजनोंकी प्रतिपत्ति है- 'जैसे जल रुधिरको धो डालता है वैसे ही गृहउनके प्रति आदर-सरकार-पूर्वक माहारादिके विनियोगका त्यागी अतिथियों ( साधुजनों)की दानादिरूपसे की व्यवहार है-वह दान माना जाता है।
हुई पूजा-भक्ति भी घर के पंचसूनादि सावध-कार्योंके ख्यिा-जिस दानको १११वीं कारिकामे वयावृश्य द्वारा संचित एवं पुष्ट हुए पापकर्मको निश्चयसे दूर बतलाया है उसके स्वामी, साधनों तथा पात्रोंका इस कर देती कारिकामें कुछ विशेष रूपसे निर्देश किया है। दानके
व्याख्या-यहाँ 'गृहविमुक्कानां अतिथीना' पोंके स्वामी दातारके विषयमें लिखा है कि वह सप्तगुणोंसे युक्त द्वारा वे ही गृहत्यागी साधुजन विवक्षित है जो पिछली होना चाहिए । दातारके सात गुण श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, कारिकाभोंके अनुसार 'तपोधन' है-तपस्वीके उस बक्षणविज्ञानता, अलुब्धता, समा और शक्ति हैं, ऐसा दूसरे से युक्त है जिसे १० वीं कारिकामें निर्दिश किया गया है, प्रन्थोंसे जाना जाता है। इन गुणोंसे दातारकी अन्तः- 'गुणनिधि' है-सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी खान है-संयमी हैशुद्धि होती है और इसलिये दूसरे 'शुद्धन' पदसे बाहा- इन्द्रियसंयम-प्राणिसंयमसे सम्पत एवं कषायोंका दमन शुद्धिका अभिप्राय है, जो हस्तपादादितथा वस्त्रादिकी शुद्धि :
x पडिगहणमुच्चठाणं पादोदकमच्चणं च पणमं च । जान पड़ती है। दानके साधनों-विधिविधानोंके रूपमें जिन नव पुण्योंका-पुण्योपार्जनके हेतुओंका-यहाँ उल्लेख
मणवयणकायसुद्धी एसणसुद्धीमणवविहं पुण्णं ॥
-कामें प्रभाचन्द्र-वारा उस्त बा तुष्टिभक्तिर्विज्ञाममलुब्धता पमा शक्तिः। + खंडनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी प्रार्जनी । पस्यै समगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।
पंचसूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ।। -टीकामें प्रभाचन्द्र-वारा उद्धत
-टीकामें प्रभाचन्द्र-धारा उधत
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३४३ ]
अनेकान्त
[किरण १० किए हुए हैं और पंचसूना तथा प्रारम्भसे विमुक्त है। ऐसे दानोंसे यावृत्त्य को विज्ञजन चार प्रकारका बतलाते सन्तजनोंकी शुद्ध वैयावृत्ति निःसन्देह गृहस्थोंके पुजीभूत है। अर्थात् आहारदान, औषधिदान, उपकरणदान और पाप-मलको धो डालने में समर्थ है। प्रत्युत इसके, जो साधु आवासदान, ये वैश्यावृत्यके मुख्य चार भेद है।' इन गुण्होंसे रहित है, कषायोंसे पीवित हैं और दम्भादिक- व्याख्या-लोकमें यद्यपि आहारदान, औषधदान, से युक्त हैं उनकी वैग्यावृत्ति अथवा भक्ति ऐसे फलको विद्यादान और अभयदान, ऐसे चार दान अधिक प्रसिद्ध है; नहीं कहती। वे तो पत्थरकी नौकाके समान होते हैं- परन्तु जिन तपस्वियोंको मुख्यतः खचय करके यहां वैय्याप्राप दबते और साथमें दूसरोंको भी ले डूबते हैं। वृष्यके रूपमें दानकी व्यवस्था की गई है उनके लिए ये गोहानापानापना ही चार दान उपयुक्त हैं। उपकरणदानमें शास्त्रका
दान आजानेसे विद्यादान सहज ही बनजाता है और भय मक्तः सुन्दररूप स्तवनात्काातस्तपानाप" १२ को वे पहलेसे ही जीते हुए होते हैं, उसमें जो कुछ कसर भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ।। १५ को _ 'सच्चे तपोनिधि साधुओंमें प्रणामके व्यवहारसे रहती है वह प्रायः प्रावासदानसे पूरी हो जाती है। उच्चगोत्रका, दानके विनियोगसे इन्द्रिय-भोगकी, उपासनाची योजनासे पूजा-प्रतिष्ठाकी, भक्तिके प्रयोगसे सुन्दर रूपकी और स्तुति की सृष्टिमे यश. कीर्तिकी कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादाहतोनित्यम्११६ सम्प्राप्ति होती है।
(वैयावृत्य नामक शिक्षाबतका अनुष्ठान करने वाले व्याख्या यहाँ 'तपोनिधिषु' पदके द्वारा भी उन्हीं श्रावकको) देवाधिदेव (श्री अन्तिदेव) के चरणों में, सच्चे तपक्षियोंका ग्रहण है जिनका उल्लेख पिछली कारि- जो कि वांछित फल को देनेवाले और काम (इच्छा तथा काकी व्याख्यामें किया गया है और जिनके लिये चौथी मदन) को भस्म करनेवाले हैं, नित्य ही आदर-सत्कारके कारिकामें 'परमार्थ' विशेषण भी लगाया गया है । अतः साथ पूजा-परिचर्याको वृद्धिंगत करना चाहिये, जो कि इस कारिकामें वर्णित फल उन्हींके प्रणामादिकसे सम्बन्ध सब दुखोंको हरने वाली है। रखता है-दूसरे तपस्वियोंके नहीं।
व्याख्या-यहां वैयावृत्त्य नामके शिक्षाप्रतमें देवाधिक्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगत दानमल्पमपिकाले। देव श्री महन्तदेवकी नित्य पूजा-सेवाका भी समावेश किया फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम्११६
गया है । और उसे सब दुःखोंकी हरनेवाली बतलाया
गया है। उसके लिए शर्त यह है कि वह श्रादरके साथ ___ 'सत्पात्रको दिया हुआ देहधारियोंका थोड़ा भी
(पूर्णतः भक्तिभाव पूर्वक)चरणोंमें अर्पितचित्त हो कर दान, सुक्षेत्र में बोए हुए वटबीजके समान, उन्हें
की जानी चाहिए ऐसा नहीं कि बिना श्रादर-उत्साहके समय पर (भोगोपभोगादिको प्रचुर सामग्रीरूप) छाया.
मात्र नियमपूर्तिके रूप में, लोकाचारकी दृष्टिसे, मजबूरी विभवको लिये हुए बहुत इष्ट फलको फलता है।'
से अथवा आजीविकाके साधनरूपमें उसे किया जाय । व्याख्या-यहां प्रणामादि जैसे छोटेसे भो कार्यका
तभी वह उक्त फलको फलती है। बहुत बड़ा फल कैसे होता है उसे बड़के बीजके उदाहरण
वैय्यावृत्त्यके, दानकी दृष्टिसे, जो चार भेद किये गये द्वारा स्पष्ट करके बतलाया गया है। और इसलिए
हैं उनमें इस पूजा-परिचर्याका समावेश नहीं होता। दान पिछली कारिकामें जिसकार्यका जो फल निर्दिष्ट हुआ है
और पूजन दो विषय ही अलग-अलग हैं-गृहस्थों की उसमें सन्देहके लिए अवक.श नहीं। सत्पात्र-गत होने पर
पडावश्यक क्रियाओं में भी वे अलग-अलग रूपसे वर्णित उन कार्यों में वैसे ही फलकी शक्ति है।
हैं। इसीसे प्राचार्य प्रभाचन्द्रने टीकामें दानके प्रकरणआहारोषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानन। को समाप्त करते हुए प्रस्तुत कारिकाके पूर्वमें जो निम्न वैयावृत्य प्रवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः॥११७॥ प्रस्तावना-वाक्य दिया है उसमें यह स्पष्ट बतलाया है कि __ 'आहार, औषध, उपकरण (पीली, कमंडलु, शा- 'वैश्यावृत्त्यका अनुष्ठान करते हुए जैसे चार प्रकारका स्त्रादि) और आवास (वस्तिकादि) इन चार प्रकारके दान देना चाहिए वैसे पूजाविधान भी करना चाहिए'--
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किरण १० ]
"यथा वैयावृत्त्यं विदधता चतुविधं दानं दातव्यं तथा पूजाविधानमपि कर्तव्यमित्याह "
अर्हम्वदेव सुधा, तृषा तथा रोग-शोकादिकसे विमुक्त होते हैं—भोजनादिक नहीं लेते, इससे उनके प्रति चहारादिके दानका व्यवहार बनता भी नहीं । और इसलिए देवाधिदेवके पूजनको दान समझना समुचित प्रतीत नहीं होता ।
यहां पूजाके किसी रूपविशेषका निर्देश नहीं किया गया। पूजाका सर्वथा कोई एक रूप बनता भी नहीं। पूजा पूज्यके प्रति चादर-सरकाररूप प्रवृत्तिका नाम है और आदरसरकारको अपनी अपनी रुचि, शक्ति, भक्ति एवं परिस्थिति के अनुसार अनेक प्रकारसे व्यक्त किया जाता है, इसीसे पूजाका कोई सर्वथा एक रूप नहीं रहता । पूजाका सबसे अच्छा एवं श्रेष्ठरूप पूज्यके अनुकूल वर्तन हे उसके गुणों का अनुसरण है । इसीको पहला स्थान प्राप्त है ।
समन्तभद्र-वचनामृत
दूसरा स्थान तदनुकूलवर्तनकी ओर लेजानेवाले स्तवनादिकका है, जिनके द्वारा पूज्यके पुण्यगुणों का स्मरण करते हुए अपने को पापोंसे सुरक्षित रखकर पवित्र किया जाता है और इस तरह पूज्यके साक्षात् सामने विद्यमान न होते हुए भी अपना श्रेयोमार्ग सुलभ किया जाता है x । पूजाके ये ही दो रूप ग्रंथकार महोदय स्वामी सम
नार्थ तुडविनाशादिविवरसयुतैरन गनैरशुच्यानास्पृष्टेर्गन्धमास्यैर्न हि मृदुशयनै ग्लांनिनिद्रा द्यभावात् आतंकार्तेरभावे तदुपशमनसद्भेप जानर्थ्य तावद् । दीपाऽनर्थक्यवद्वा व्यपगततिमिरे 'दृश्यमाने समस्ते - नृज्यप दा वार्यः
।
[ ३४७
मतभद्र को सबसे अधिक इष्ट रहे हैं। उन्होंने अपनेको अर्हन्तोंके अनुकूल वर्तनके साँचे में ढाला है और स्तुतिस्तवनादिके वे बड़े ही प्रमीये, उसे श्रात्मविकासके मार्गमें सहायक समझते थे और इसी दृष्टिसे उसमें संज्ञन रहा करते थे न कि किसीकी प्रसन्नता सम्पादन करने तथा उसके द्वारा अपना कोई लौकिक कार्य साधनेके लिये । वे जल-चन्दन- अक्षतादिसे पूजा न करते हुए भी पूजक थे, उनकी द्रव्यपूजा अपने वचन तथा कायको अन्य व्यापारोंसे हटाकर पूज्य के प्रति प्रणामाअलि तथा स्तुति पाठादिके रूपमें एकाग्र करनेमें संनिहित थी । यही प्रायः पुरातनोंअतिप्राचीनों द्वारा की जानेवाली 'द्रव्य पूजा' का उस समय रूप था; जैसा कि श्रमितगति आचार्यके निम्न वाक्यसे भी जाना जाता है:
x जैसा कि स्वयम्भू स्तोत्र के निम्न वाक्योंसे प्रकट है:न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातिचित्तं दुरितां जनेभ्यः ॥
स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्यान्न वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥ यहाँ पहले पचमें प्रयुक्त हुआ 'पूजा' शब्द निन्दाका प्रतिपक्षी होने से 'स्तुति' का वाचक है और दूसरे पथमें प्रयुक्त हुआ। 'स्तुयात्' पद 'अभिपूज्यं' पदके साथमें रहने से 'पूजा' अर्थका द्योतक है।
वचोविग्रह- संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानस - संकोचो भावपूजा पुरातनैः ॥
-उपासकाचार
ऐसी हालत में स्वामी समन्तभद्रने 'परिचरया' शब्दका जो प्रस्तुत कारिकामें प्रयोग किया है उसका आशय अधिकां में अनुकूल वर्तनके साथ-साथ देवाधिदेवके गुणस्मरणको लिये हुए उनके स्तवनका ही जान पड़ता है। साथ ही इतना जान लेना चाहिये कि देवाधिदेवकी पूजा-सेवा में उनके शासनकी भी पूजा-सेवा सम्मिलित हैं । हरित - पिधान-निधाने हानादराऽस्मरण-मत्सरत्वानि वैयावृत्त्यस्यैते व्यतिक्रमाः पंच कथ्यन्ते || १२१ ॥ -
हरितपिधान - हरे (सच्चित्त, श्रप्रासुक) पत्र-पुष्पादि ant श्रहारादि देय वस्तु देना, हरितनिधान-रे (प्राक-सचित) पत्रादिक पर रक्खी हुई देय वस्तु देना- अनादरत्व - दानादिकमें अनादरका भाव होना अस्मरण - दानादिकी विधिमें भूलका हो जाना, और मत्सरत्व - अन्य दातारों तथा पूजकादिकी प्रशंसाको सहन न करते हुए ईर्षाभावले दानका देना तथा पूजनादिका करना, ये निश्चयसे वैयावृत्यके पाँच अतिचार (दोष) कहे जाते हैं।'
व्याख्या- यहाँ 'हरितपिधाननिधाने' पदमें प्रयुक्त हुआ 'हरित' शब्द सचित्त (सजीव ) अर्थका वाचक हैमात्र हरियाई अथवा हरे रंगके पदार्थका वाचक वह नहीं
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अनेकान्त
[किरण १०
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है, और इसलिये इस पदके द्वारा जब सचित्त वस्तुसे ढके है, न कि अचित्त वस्तुओंका-भले ही वे संस्कार-वारा हुए तथा सचित्त वस्तुपर रक्खे हुए अचित्त पदार्थके दाम- अचित क्यों न हुई हों; जैसे हरी तोरीका शाक और गन्ने को दोषल्प बतलाया है तब इससे यह स्पष्ट जाना जाता था सन्तरेका रस । ॐ है कि अनगार मुनियों तथा अन्य सचित्तस्यागी संयमियों
-युगवीर को माहारादिकके दानमें सचित्त वस्तुओंका देना निषिद्ध --
* समीचीन धर्मशास्त्रके अप्रकाशित भाष्यसे ।
हेमराज गोदीका और प्रवचनसारका पद्यानुवाद
___ . (पं० परमानन्द जैन शास्त्री) हिन्दी जैन साहित्यके कवियोंका अभी तक जो इति- अपना कार्य सुचारु रूपसे सम्पन कर रही थीं, इससे जहाँ बत संकलित हुभा है उसमें बहुतसे कवियोंका इतिवृत्त स्थानीय लोगोंका जैनधर्मके प्रति प्रेम होताथा यहाँ बाहरसे संकलित नहीं हो सका । उसका प्रधान कारण तद्विषयक
प्रागन्तुक सज्जनोंको धर्मोपदेशका यथेष्ट लाभ भी मिलता अन्वेषणकी कमी है। अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी भाषामें था। इन शैलियोंके प्रभावसे अनेक जैनेतर व्यक्ति भी जैन जैनियोंका बहुत साहित्य रचा गया है, जिस पर अनेक धर्मकी शरणमें प्राप्त हुए थे। इन शैलियोंके सभी सदस्य तुलनात्मक और समालोचनात्मक निबन्धोंके लिखे जानेकी
धार्मिक और वात्सल्य गुणसे युक्त होते थे । उनका दूसरोंके आवश्यकता है। प्रस्तु, आज हिन्दी जैन साहित्यके एक
प्रति आदर और प्रेम भाव रहा करता था, जो जनताको से अपरिचित कविका परिचय देनेका उपक्रम कर रहा हूँ अपनी मोर पाक में माता था। जिसके नाम और कृतिसे अधिकांश लोग अपरिचित ही हैं।
उन दिनों कामाकी उस शैलीके कविवर हेमराज भी उनका नाम हेमराज, जाति खंडेलवाल और गोत्र भावसा एक सदस्य थे. जो निरन्तर सैद्धान्तिक ग्रन्थोंका पठन-पाठन है, परन्तु उनका म्येक 'गोदीका' कहा जाता है। यह पहले
करते हुए तत्वचर्चाके रसमें निमग्न रहते थे। कामाकी सांगानेर (जयपुर) के रहने वाले थे, उस समय वहाँ
इस शैली में जिन दिनों प्राचार्य कुन्दकुन्दके प्रवचनसारका राजा सवाई जयसिंह राज्य करते थे। बादमें वे कारणवश
वाचन हो रहा था उन दिनों प्राचार्य अमृतचन्द्रकी संस्कृत सांगानेरसे कामा चले गये थे, जो कि भरतपुर स्टेटका एक
टीकाके अनुसार पांडे हेमराजकी बनाई हुई हिन्दी टीका
कानमार कस्बा है। कामामें उस समय कायस्थ जातिके गजसिंह
___ का काफी प्रचार था । जैसाकि कविके निम्न पद्योंसे नामक एक सज्जन दीवान थे, जो बड़े ही चतुर और राज- स्पष्ट है:नीतिमें दर थे। उन दिनों कामामें अध्यात्मप्रेमी सज्जनों अध्यातम शैली सहित बनी सभा सहधर्म । की एक सभा अथवा शैली थी, जिसमें स्थानीय अनेक चरचा प्रवचन सारकी करे सबै लहि ममं ॥ सजन भाग लेते थे। इस शैलीका प्रधान लक्ष्य अध्यात्म- अरचा प्ररहंत देवकी सेवा गुरु निरग्रन्थ । प्रन्योंका पठन-पाठन करना और तत्वचर्चा-बारा उलझी दया धर्म उर आचरें, पंचमगतिको पन्थ ॥ हुई गुस्थियोंको सुखमा कर जैनधर्म प्रचारके साथ प्रारम- ऐसी सभा शुरै दिन राती, अध्यातम चर्चा रस पाती। उचति करना था। उस समय भारतमें जहाँ वहाँ इस जब उपदेश सबनिकौलीयो, प्रवचन कवित बंध तब कीयो। प्रकारको अध्यात्मशैलियाँ विद्यमान थीं जिनसे जनता छप्पय-कुन्दकुन्द मुनिराज प्रथम माथा बंध कीनो। पाल्मबोध प्राप्त करनेका प्रयत्न करती थी। इनके प्रभाव गरभित प्ररथ अपार नाम प्रवचन तिन्ह दीनो। एवं प्रयत्नसे जहाँ बोकहदयों में जैन धर्मके प्रति आस्था अमृतचन्द पुनि भबे ग्यानगुन अधिक विराजत ।
और प्रेम उत्पन होता था वहाँ अनेकोंका स्थितिकरण भी पांडे हेमराजने प्रवचनसारकी यह टीका मागरामें होता था उनकी चल श्रद्धा सुद्धता पाजाती थी। उस शाहजहाँक राज्यकालमें विक्रम संवत् १७०६ को माघ समय जयपुर, देहली, और पागरामें ऐसी शैलियाँ भपना शुक्ला पंचमी शनिवारके दिन समास की थी।
ARTI
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किरण १.] हमराज गोदोका और प्रवचनसारका पद्यानुवाद
[३६ गाथा गून विचार संस्कृत टीका साजित।
ग्रन्धका कविने जो पचानुवाद करनेका प्रयत्न किया है वह टीका माहि जो अरथ भनि विना विवुध को ना बहै। उसमें कहाँ तक सफल हो सका है उसीके समबमें कुछ तब हेमराज भाषा वचन रचित बाबबुधि सरदहै। दिग्दर्शन करना है। यहाँ पाठकोंकी जिज्ञासापूर्तिके लिये पारे हेमराज कृत टीका, पढ़त बढत सबका हित नीका। कुछ गाथाचांका पयानुवाद नीचे दिया जाता है, जिससे गोपिमरथ परगट करि दीन्हों, सरलवचनिका रचि सुखल्लीन्हों पाठक कविकी, कविता और उसके प्रयत्नकी सफलताका
प्रवचनसारके पठन-पाठनसे शैलीके लोगोंकी यह विचार करनेमें समर्थ हो सकें। भावना हुई कि इसका पद्यानुवाद हो जाय तो लोग इसको धम्मेण परिणादप्पा अप्पा अदि सु-संपयोगजुदो। सहज ही याद कर सकेंगे। इसी प्रकारका भाव कविके पावदिणिग्वाण-सुहं सुहोवजुतो व सग्ग-सुहं ॥१॥ हृदयमें भी जागृत हुमा । फलतः प्रवचनसारका पचानुवाद इस गाथामें बतलाया गया है कि जब धर्मस्वरूप कविने करना शुरू किया और उसे संवत् १७२४ में बना परिणत यह प्रारमा शुद्ध उपयोगसे युक्त होता है तब मोर कर समाक्ष किया। जैसा कि ग्रन्थ प्रशस्तिके निम्न पचसे सुख प्राप्त करता है। किन्तु जब वह धर्मपरिणतिके साथ प्रकट है:
शुभोपयोगमें विचरण करता हैगवईक दान, पूजा, प्राषाढमास दुतिया धवल पुष्प नक्षत्र गुरुवार धुव ।
प्रत, संयमादि रूप भावों में प्रवृत्त होता है तब उसके फल
स्वरूप वह स्वर्गादिक सुखोंका पात्र बनता है-यह विषयसत्रहसौ चौवीस संवत शुभ दिन अरु शुभ घड़ी।
कषाय रूप सराम मावोंमें प्रवृत्त होनेके कारण, अग्निसे कीनो प्रन्थ सुधीस दोष देखि कीजहु खिमा ॥ तपे हुए घीसे शरीर सिंचन करनेसे समुत्पत्र देह-वाहके प्रवचनसारंकी इस टीकामें कविने, कवित्त, अरिल्लचंद,
समान इन्द्रिय-सुखोंको प्राप्त करता है। यही सब भाव वेसरी, पद्धती, रोबक, चौपई, दोहा, गीता, कुंडलिया,
टीकाकारने अपने पोंमें व्यक्त किया है। . मरहठा, एप्पय, और सबैया तेईसा आदि छन्दों का प्रयोग दोहा-शुन्द स्वरूपाचरगत, पावत सुख निरवान । किया है जिनके कुल पद्योंकी संख्या ७२५ है। जिनका शुभोपयोगी श्रोत्मा, स्वर्गादिक फल जान । व्यौरा कविके शब्दों में निम्न प्रकार है:
'. वेसरिछंद-विषयकवायीजीवसरागी, कर्मबन्धकीपरिणतिजागी कवित्त
तहाँशुद्धउपयोगविदारी,ताते विविधभांतिसंसारी उनसठ कवित्त, अरिष्ल बत्तीस सुबेसरि छंद निवै पर तीन। तपत घीव सींचत नर कोई, उपजत दाह शान्ति नहि होई । दस पजरी चारि रोडक मानि, सब चारीस चौपई कीन। त्योंही शुभउपयोग दुर माने, देव-विभूति तनक सुरूमाने । दोहा कन्द तीनसै साठा तामें एक कीजिये हीन । सुभोपयोगी सकति मुनिराई, इंद्रियाधीन स्वर्ग सुखदाई। गीता सात पाठ कुडलिया एक मरहठा मिनहु प्रवीन ॥ छिनमें होई जाय विनमा है, शुखाचरण पुरुप क्यों चाहै। छप्पय-बाईसा मनि चारि पांचसौ चौईसा कहिये। अइसयमाद समुत्यं विषयातीदं अपोवम मणतं।
एकतीसा बत्तीसा एक पचीसौं लहिये । अव्वुच्छिएणं च सुहं शुद्ध वभोगप्पसिद्धाणं ॥११२॥ छप्पय गनि तेईस छंद फुनि साम बिलंवित । इस गाथामें शुद्धोपयोगका फल निर्दिष्ट करते हुए
जानहु दस बर सात सकल तेईसा परमित ॥ बतलाया गया है कि परमवीतराग रूप सम्यचरित्रसे सोरठा-वंद तेतीस सब सात शतक पचवीप हुए। निष्पक्ष रहन्त सिद्धोंको जो सुख प्रास है यह इन्द्रादिके
प्रवचनसार एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है जिसमें जैनाचारके इन्द्रियजन्य सुखोंसे अपूर्व पाश्चर्यकारक, पंचेन्द्रियों के साथ तत्वज्ञानका अच्छा विवेचन किया गया है। इसमें विषयोंसे रहित, अनुपम, पास्मोत्य, अनन्त (अविनाशी) प्राचार्य कुन्दकुन्दकी दार्शनिक दृष्टिका दर्शन होता है। श्रब्युच्छिन्न (वाधारहित ) है-उस सुखामृतके सामने इसका दूसरा अधिकार 'ज्ञेवाधिकार' नामका है, जिसमें संसारके सभी सुख हेच एवं दुःखद प्रतीत होते हैं, क्योंकि शेयतत्वोंका सुन्दर विवेचन किया गया है। कथन-शैली वे सुखाभास है। इसी भावको कविने निम्न पथों में अंकित बढ़ी ही प्रौढ़ तथा गम्भीर एवं संचित है। ऐसे कठिन किया है:
सरि छंद निवा । त्याहा की सकति मुनि
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३५० ]
सबही सुखतें अधिक सुख, है धातम आधीन । विषयातीत बाधा रहित, शुद्ध धरया शिव कीन ॥ शुद्धाचरण विभूति शिव अतुल अखण्ड प्रकाश । सदा उये नये करम लिये दरसन ज्ञान विलास ॥ बेसरी - जो परमातम शुद्धोपयोगी, विषय-कषायरहितउर जोगी करे म नऊतम पूरषभाने, सहज मोक्षको उद्यम ठानै ॥ इन्द्रिय निस्थंद पुण्य-सुख, सबै इन्द्रियाधीन । शुद्धाचरण अखण्ड रस, उद्यम रहित प्रवीन ॥ अपदेसो परमाणू पदे समेतोय सयमसहो जो ! द्धिो वा लुक्खो वा दु-पदे सादिन्त महवदि || ७२ ।।
इस गाथामें परमाणुरूप द्रव्यसे स्कंध पर्याय कैसे बनती है ? इस सन्देहको दूर करते हुए लिखा है कि पुद्गलका सूक्ष्म अविभागीपरमाणु श्रप्रदेशी है— दो आदि प्रदेशोंसे रहित है । वह एक प्रदेशमात्र है और स्वयं अशब्द है— अनेक परमाणु रूप द्रव्यात्मक शब्द पर्यायसे रहित है अतएव वह परमाणु स्निग्ध और रूक्ष रूप परिणामवाला होनेके कारण दो प्रदेशोंको आदि लेकर अनेक प्रदेश रूप हो जाता है। इसी भावको निम्न पद्योंमें अंकित किया गया है:वेसविचंद-सूक्ष्मअविभागीपरमाणू, एकप्रदेश शब्दसुजाण ।
चिकणरूवि सहित गुणलहिये, पुद्गल अशुद्ध सो कहिये ॥ दोहा - चिक्कण सूक्ष्म संयोग, अणू मिलाप कराय ।
दोय आदि परदेश मिलि, होत बंध परयाय ॥ गुरमेगादी अस्स सिद्धन्तणं च लुक्नन्तं । परिणामादो भणिदं जाव तत्तमणुभर्वाद ॥७२॥ इस गाथामें परमाणुओं के स्निग्ध रूस गुणका उल्लेख करते हुए बतलाया है कि परमाणुके स्निग्ध रूक्ष गुणमें अनेक प्रकारकी परिणमन शक्ति होनेसे एकसे लेकर एकएककी वृद्धिको प्राप्त हुई स्निग्धता और चिक्कणता उनमें जब तक पाई जाती है जब तक वह अनन्त भेदोंको नहीं प्राप्त हो जाता है। इसी भावका संयोतक पथ निम्न प्रकार है:
अनेकान्त
[ किरण १०
गिद्धा व लुक्खा वा अणुपरिणामासमा व विसमा था । समदो दुराधिगा जदि बझन्ति हि आदि परिहीणा ॥७३॥
एक अणु मधि पाइये चिकण रूक्ष स्वभाव | अंश एक सौं एक बढ़ि, aaa अनंत फलाव ॥ atsure परिणामकी, धरत अणू बढ़ि-चारि । एक अंशकों आदि दे, अंश अनंत विचारि ॥
इस गाथामें परमाणु किस तरहके स्निग्ध ( चिकने ) रूक्ष (रूखे) गुणोंसे बंध कर पिण्ड रूप हो जाते हैं, यह व्यक्त करते हुए लिखा है कि परमाणुके पर्याय मंत्र स्निग्ध व रूक्ष हों, किंतु वे दो चार-छह आदि अंशोंकी समानता अथवा तीन पाँच सात आदि अंशोंकी विषमता युक्त हों; परन्तु जघन्य अंशसे रहित गणनाकी समानताले दो अंश अधिक होने पर ही परस्परमें बंधको स्कंध रूप पिण्ड, पर्यायको-- प्राप्त होते हैं। अन्य रूपोंसे नहीं । निम्न पद्म इसी भावको व्यक्त करते हैं:
रूक्ष तथा चिक्कण परमाणू, द्वै द्वै अंश बढत जहँ जांण । दो हो अंश अधिक गुण होई, अणू परस्पर बन्धत सोई ॥
विषय अवस्था भेदभनि, बन्ध दोय परकारि । एक अंशकी अधिकता, अणू अबन्ध विचारि ॥ विषमबंध-तीन पांच अरु सातलों, नव धारा इहिभांति । अधिक लग, विषमबंधकी मानि ॥ समबंध-दीय चार षट् अष्टदश यों अनन्त परकारि । द्वै द्वे अधिक मिलापसों, बंध समान विचारि ॥ अधिकता है है श्रंश बखानि । रूक्षरुचिकण परिणमन, अणूबंध परमानि ॥ राहूं होमि पेरसिंग मे परे सन्ति गाणमहमेको । इदि जो कार्याद झाणे सो अवाणं हवदि मादा । २-६६
इस गाथामें शुद्ध नयसे शुद्ध आत्माको लाभ बतलाया गया है और यह लिखा है कि मैं शरीरादि परद्रव्यों का नहीं हूँ। और न शरीरादिक परद्रव्य मेरे हैं। किन्तु मैं सकल विभावभावोंसे रहित एक ज्ञानस्वरूप ही हूँ । इस प्रकार भेद विज्ञानी जीव चित्तकी एकप्रता रूप ध्यानमें समस्त ममत्व भावोंसे रहित होता हुआ अपने चैतन्य
माका ध्यान करता है। वही पुरुष श्रात्मध्यानी कहलाता है ।
इसी भावको निम्न पथमें अनूदित किया गया है:मैं न शरीर शरीर न मेरो, हों एकरूर चेतना केरो । जो यह ध्यान धारना बारे, भेदज्ञान बलकरि बिरखारै । सो परमातम ध्यानी कहिये, ताकी दशा ज्ञानमें लहिये । तजि अशुद्ध नव शुद्ध, प्रकाश, ता प्रसादतें मोहविनाशै ।
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किरण १०] हेमराज गोदीका और प्रवचनसारका पद्यानुवाद
! ३५१ ताते तजि व्यवहार नय, गहि निह● परवान । हुभावीय विषयोंसे समुद्र में स्थित जहाज पर बैठे हुए अन्य विन्हके बजसी पाइये, परममातम गुन ग्यान ॥ पाश्रय हीन पलीके समान मनको चंचलताको रोक कर जो एक जाणित्ता मादि पर अप्पगं विशुद्धप्पा । अपने स्वकीय सहज परमानन्द स्वभावमें निश्चय भावसे सागारोऽणागारो खबेदि सो मोह दुग्गठिं ॥२-१२॥ स्थापित करता हैं वही पुरुष अपने शुद्ध स्वरूपका ध्याता
इस गाथामें शुद्धामाकी प्राप्तिसे क्या लाभ होता है है। मूलगाथाके इसी भावको कवि हेमराजने निम्न पद्योंमें यह बतलाते हुए प्राचार्य कहते हैं कि जो सागार अथवा कितने अच्छे ढंगसे अनूदित किया है:अनागार अविनाशी प्रात्मस्वरूपका चिन्तन करता है, पदरी-मोह मैल जब कियोदरि, विषय ममस्व न रह्यौ भूरि उसी शुद्धास्माका ध्यान करता है वह संसार बंधनकी करने मनकी पुनि चंचलता मिटीवानि,समतापद थिर हेरको पानि वाली उस सदमोह-प्रन्थिका नाश करता है। यही भाव सोई परमातम ध्यान धार. जर मरन छडि सो गयो पार । निम्न पद्यमें अंकित है:
तातें परमातम ध्यान जानि, एक परम शुद्धकारणबखानि ।। जो शिहदमोहगठी रागपहासे खवीय सामरणे। जैसे जलधि माहिमोहनकौं उरि-उडि खग बैठत नहि ठौर । होज्जं सम-सुह-दुक्खो सोवखे अक्रू ये लहदि । चहुँदिशि सजिल व्यंट नहि दीसत तिहिथिररूप भयो निरदौर। जो श्रावक मुनि यौं ध्यावे, निर्मल शुद्धतम पद पावें। स्याहीमनि जब तज्यो विषय-सुख गहि समता नर महि कहुँ और
सो ही मोहगंठिको खोलें, भव-सागरमें बहुरि न डोलें ॥ वात जो समता पद धारक सो मुनि सदाजगत शिरमौर । . इस गाथामें बतलाया गया है कि जो पुरुष मोहगांठ- उपर दिये हुए मूल गाथाओंके पचानुवादसे पाठक का भेदन करता है वह यति अवस्थामें होनेवाले राग-द्वेष कविकी कविताका श्रास्वादन कर यह निश्चय कर सकते रूप विभाव-भावोंको विनष्ट करके सुख-दुश्वमें सम- किकवने क्या कुछ परिश्रम किया है । यद्यपि कविता दृष्टि होता हुआ अक्षय सुग्वको प्राप्त करता है। यही भाव साधारण है उसमें भावों एवं पदोंका जालित्य और भलंकारिनिम्न परमें कविने निहित किया है। .
कता का वह चमत्कारी रूप नहीं है, फिरभी कविता प्रन्थगत जब जिय मोह गांठि उरभानी, राग-दोष तजि समता पानी। भावोंको स्फुट करनेमें समर्थ है, और वह सरल भी है। ममता जहाँ न सुम्ब-दुख ब्यापै, तहान बन्ध पुण्य अरू पापै ॥ कवि की सबसे बड़ी मजबूरी यह थी कि उसे ग्रंबके अनुसो मुनिराज निराकुल कहिये, सहज आतमीक सुख लहिये। सार अपने भावोंको व्यक्त करनेके साथ छन्दरूपमें परितातै मोहगांठि मुनि खोलें भुजत शिव-सुख अधिक श्रतोलें॥ एत करना पड़ा है। यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्नो मणो णिरूभित्ता। क्या कोई जैन साहित्यका भक्त इसकृतिको प्रकट कराने में समवद्विदो सहावे अप्याणं हवदि झादा ॥२१०४ अपना आर्थिक सहयोग देकर जगतकी ज्ञान पियासाको
इस पद्यमें बतलाया गया है कि जो पुरुष मोहरूपी दूर करने का यत्न करेगा। मैलका सय करता है, पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त -वीर सेवामन्दिर ता०-२१-१२-१२
कुछ अज्ञात जैन ग्रन्थ
(पं० हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री) महा कवि पं० आशाधरजीने जिन अनेकों ग्रन्थोंकी मैने जब दोनों टीकाओंको सामने रखकर उनका मिलान रचना की है, उनमें एक जिनसहस्रनाम स्तवन भी है। किंया, तो पता चला कि भाशापरकी स्वोपज्ञवृत्तिको ही उस पर भी उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थोंके समान स्वोपज्ञवृत्ति प्राधार बनाकर श्रुतसागरने अपनी टीकाका निर्माण किया लिखी है, जोकि अभी तक अनुपलब्ध थी। हालहीमें मुझे है। जहां पाशाधरजीने किसी एक नाम पर २-३ ही अर्थ पुराने अन्योंकी खोज करते हुए उसकी एक प्रति मिली है। किये हैं। वहां श्रतसागरने 10-11 तक अर्थ करके अपने पं० पायाधरजीके सहस्रनाम पर श्रुतसागरसूरिने भी श्रुतसागर नामको चरितार्थ किया है। एक टीका लिखी है, जो अनेकों मंडारोंमें पाई जाती है। श्रुतसागरने अपनी उकटीकामें लगभग ३२ प्राचार्यो
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३५२] अनेकान्त
[किरण १० के नामों और उनके प्रन्योंका उल्लेख किया है। जिनमें (२) एक स्थान पर प्रवीन्द्रिय शानकी व्याख्या करते कई गांचायाँके नाम वा अन्य एकदम भावपूर्ण है। हुए श्रुतसागर लिखते-उतखंडेन महाविनापाठकोंकी जानकारीके लिए यहां उनका उल्लेख मय सम्वएह अणिदिउणाणमगे जो मयमूदुन पत्सियइ। उद्धरण के किया जाता है:-
सोणिदिउ पचिदिय णिरउ बइतरणिहि पणिउ पिवइ ॥१ (७)'द' शब्द किन किन मोंका वाचक है, इसे इस रचनाको देखनेसे ज्ञात होता है कि खंडमहाकविने बतलाते हुए वे लिखते हैं तथा चोक-विश्वशम्भुमुनि- अपभ्रंशमें किसी महाकाव्यकी रचनाकी है जिससे कि प्रणीतायामेकाक्षरनाममालायाम
श्रुतसागरने उन्हें महाकविके नामसे उल्लेख किया है।
अपभ्रंश भाषाके जितने कवि और उनके द्वारा रचित दो दाने पूजने क्षीणे दानशौंडे च पालके ।
अब अभी तक सामने आये है, उनमें खंडमहाकविका देखे दीप्तौ दुराधर्षे दो भुजे दीर्घदेशके ॥१॥
नाम एक विशिष्ट एवं प्रभुतपूर्व ही समझना चाहिए। दयायां दमने दीने दंदकेऽपि दः स्मृतः।
यही पद्य अन्यत्र श्रुतसागरने 'उक्त च काम्यपिशाचेन' बढेच बन्धने बोधे वाले बीजे बलोदिते ॥२॥ कहकर भी उद्धृत किया है। विदोषेपि पुमाने ष चालने चीवरे वरे ।
(४) एक स्थल पर योगकी म्याख्या करते हुए इस उल्लेखसे पता चलता है कि विश्वशम्भुमुनिने पननन्दि-रचित सद्वोधचन्द्रोदय नामके एक ग्रन्थका . एकाक्षर-नाममाला नामक अन्य रचा था, जो कि एक
उल्लेख कर उसके एक श्लोकको उद्धत किया है। यथाएक मरके अनेकों प्रौँका प्रतिपादक था। विमन स्थलों पर इस ग्रन्थके भनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं।
उक्त च पद्मनन्दिना मद्बोधचन्द्रोदये(२) दुगसिंह नामके किसी
योगतो हि लभते विवन्धनं योगतोऽपि खल मच्यते नरः।
योगवर्त्म विषमं गुरोगिरा बोध्यमेतदखिलं मुमुक्षुणा ॥१॥ सरस्वतीस्तोत्रका एक पच उद्धत करते हुए श्रुतसागरसूरि बिखते हैं:-उफ'च महत्वं सरस्वत्या दुर्गसिंहन कविना- पचनन्दि नामके अनेक प्राचार्योंसे पाठक परिचित है.
पर यह सदधचन्द्रोदय नाम प्रथम बार ही परिचयमें शब्दात्मिकाया त्रिजगद्विभनि स्फुरद्विचित्रार्थसुधास्रपंति । प्रारहा है। या बुद्धिरीड्या विदुषांहदब्जे मुखे चसा मे वशमस्तु नित्यम् (५) एक प्रकरणमें रात्रिभोजनके दोषोंको बतबाते
इस दरबको देखते हुए सहजमें ही अनुमान होता हुए लिखा है। उकप्रभाचन्द्रगणनाकि यह एक उत्तम सरस्वतीस्तोत्र रहा होगा। श्रुतसागर- विरूपो विकलांगः स्यादल्पायुः रोगपीडितः। ने एक अन्य स्थल पर. दुर्गसिंहके नामसे एक और भी दुर्भगो दुःकुलश्चेव नक्तभाजी सदा नरः ।। रखोक उद्धृत किया है, जिसमें बताया गया है कि कौन- इस उद्धरणके मागे रात्रिभोजन स्वागका फल बताते कौनसे शब्द पुल्लिंग। इस श्लोकको उडत करते हुए हए एक और श्लोक उरत किया है, जो संभवतः उन्हीं श्रतसागर लिखते हैं:-विशेषेण यज्ञनाम्नः पुंसवं । प्रभाचन्द्रगणिका ही प्रतीत होता है। वह इस प्रकार हैतथा चोक्त दुर्गसिंहेन
निजकुलैकमंडनं त्रिजगदीशसम्पदं । • स्वर्ग-दिनमान-संवत्सर-नर-यज्ञ-मुचकेशमासत।। भजति यः स्वभावतात्यजति नक्तमोजनम् ||२||
अरि-र-जलदमलधिविषसुगस्यात्मभुजभुजगा.॥ प्रभाचन्द्र नामके अनेक विद्वान एवं प्राचार्य परिचयमें , शरनखकपोलकदन्तपकगुल्मोष्ठकठरएमानीला। पाये है, प्रभाचन्द्र गणी के नामसे संभवतः यह पहलाही
एषां संज्ञा धान्यान्युक्तो नाडीव्रणः पंडः ॥ उल्लेख प्राप्त हुआ है।
इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि ये दुर्गसिंह काव्य (६)सी जिनसहनवामकी टीकामें श्रुतसागरने और पाकरवशाखके अच्छे विद्वान् रहे है और उन्होंने धर्मचक्रका स्वरूप कहते हुए श्री देव न्दिके नामसे एक दोनों विषयों पर अपनी लेखनी चलाई।
श्लोक उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है:
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[३५३
किरण १०]
गौ रक्षा, कृषि और वैश्य समाज उक्कं च धर्मचक्रवर श्रीदेवनन्दिना -
एक स्थल पर भगवान्के रूपका वर्णन करते हुए स्फुरदरसइस्तरुचिर विमलमहारत्नकिरण निकरपरीतम्। लिखा है :प्रहसितमहस्रकिरण द्य ति मंडलमप्रगामि धर्मसुचक्रम् ॥१२-"दिवाकरसहस्रभासुरमपीक्षणानां प्रियम"
श्री देवनन्दिके नामसे उपलब्ध रचनायों में उक्त श्लोक इति गौतमस्वामिना-जिनरूप वर्णनत्वात । अनुपलब्ध है. जिससे ज्ञात होता है कि श्री देवनन्दिने ३-अताम्र नयनोत्पल सकलकोपवन्यात कोई पद्यमय अन्धकी रचनाकी है. जिसमेंसे कि उक रखोक
कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारितोडेकतः। उद्धृत किया गया है।
विषादमदानितः प्रहसितायमानं सदा पूज्यपादके नामसे कई श्लोक उबूत है, जो कि उनके द्वारा रचित............."में पाये जाते हैं। पर एक स्थल
मुखं कथयतीव ते हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम् ।। पर जो केवलज्ञानके स्वरूपका वर्णन करने वाला श्लोक इत्यादि गौतमेन भगवता जिनरूप वर्णनात् । उद्धत किया गया है, वह पूज्यपाद-रचित उपलब्ध ग्रंथों में उपयुक तीनों उल्लेखोंमें गौतम नामके साथ जो अभी तक देखने में नहीं आया है। वह इस प्रकार है:- महर्षि, स्वामी और भगवत् विशेषण दिये गये हैं, उनसे उक्तं च पूज्यपादेन
यही ध्वनित होता है कि ये सब श्लोक भगवान् महावीरके क्षाायकमेकमनन्त त्रिकालसवार्थयुगपदवभासम् । प्रमुख गणधर गौतम-रचित ही हैं। मकलसुखधाम सततं वंदेह केवल ज्ञानम् ॥१॥
इसके अतिरिक्त वाग्भट, धन्वन्तरि, कालिदास, पूज्यपादके उपलब्ध ग्रन्थासे यह अवश्य ही कोई शाकटायन, अमरसिंहके नामोल्लेख पूर्वक अनेक श्लोक भिन्न ग्रन्थ रहा है, जो कि आज अनुपलब्ध है। उद्धृत किये गये हैं। प्राचार्य कुन्द कुन्द स्वामी समन्तभद्र,
(.)गौतम महर्षिके नामसे कई श्लोक उद्धृत हैं, पात्रकेसरी, अकलंक, कुमुदचन्द्र, प्रभाचन्द्र, पूज्यपाद, नो कि सामायिकपाठमें उपलब्ध होते हैं। 'अर्हत्' नामकी जिनसेन, सोमदेव, गुणभद्र, नेमिचन्द्र बारि अनेक प्रसिद्ध व्याख्या करते हुए श्रुतसागर लिखते हैं कि:
प्राचार्योंके लगभग तीनसौसे भी ऊपर अवतरण श्रुतसागरतदुक्त श्री गौतमेन महर्षिणा
सुरिने अपनी इस टीकामें दिये हैं। अनेक दृष्टियोंसे यह १- मोहादिसर्वदोपारिघातकेभ्यः सदाहतरजोभ्यः। टीका बहुत महत्वपूर्ण है। इसे शीघ्र प्रकाशमें बाकी
विरहितरहस्कृतभ्यः पूजाहद्भयो नमोऽहद्भयः ॥११ प्रावश्यकता है।
गौ रक्षा, कृषि और वैश्य समाज
(श्रो दौलतराम 'मित्र')
श्री बंकिमचन्द्र अपने 'धर्मतत्त्व' नामक प्रन्धमें लिखते नहीं हो जाते, वे उसे खलिहानसे घर और बाजार तक है कि-"पयोंमें गौ हिन्दयोंकी विशेष प्रीतिकी पात्र पहुँचा देते हैं। भारतवर्ष में लदुएका सब काम बैल ही करते
गाय बैलके समान हिन्दीका परम उपकारी और है। गाय बैल मरने पर भी दधीचिकी तरह ही कोई नहीं है। गायका दृध हिन्दुओंके दूसरे जीवनके तुल्य सींग और चमड़ेसे उपकार करते हैं। मुर्ख लोग कहते है। हिन्दू मांस नहीं खाते। जो आम हम लोग खाते हैं हैं कि गाय बैल हिन्दुओंके देवता हैं। देवता नहीं, किन्तु उसमें पुष्टिकर पदार्थ बहुत कम होता है। गायका दूध न देवताके समान उपकार करते हैं। वृष्टि देवता इन्द्र हमारा मिलनेसे वह अभाव पूरा नहीं होता। हम केवल गायका जितना उपकार करते हैं, गाय बैल उससे अधिक टपकार दूध पीकर ही नहीं पलते हैं, बल्कि जिस प्रख पर हमारा करते हैं। यदि इन्द्र पूजनीय है तो गाय बैल भी है। यदि जीवन है उसकी खेती बैलसे होती है। अतः बैल भी किसी कारण वश भारत वर्षसे अचानक गोवंशका लोप हमारे अन्नदाता हैं। बैल केवल प्रश्न उपजाकर ही अलग होजाय तो निःसन्देह हिन्दू जातिका भी लोप होजायगा।
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२४४]
अनेकान्त
[किरण १० यदि हिन्दू मुसलमानोंकी देखा-देखी गो मांस खाना 'तिम्ल में बू आये क्या, माँ-बापके अतवार की। सीखते तो इतने दिनमें हिन्दु नामका लोप होगया होता, दूध तो डिब्बेका है, तालीम है सरकारकी । (अकबर) या हिन्दू बदीही दुर्दशामें होते । हिन्दुओंके अहिंसा धर्मने यहां यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि महिंसा ही हिन्दुओंकी रक्षाकी है।"
धर्मके हिमायती किंतु जीवन-रहस्यसे अनजान कतिपय बात बिलकुल ठीक है। यद्यपि आज हम गो मांस जैन विद्वानोंने अपने उपदेशोंके द्वारा जैन वैश्यांका कृषि नहीं खाते हैं, फिर भी गोवंशके प्रति हमारा वैश्योंका जो और गोपालन कर्मसे उदासीम करनेका प्रयत्न किया कर्तव्य है उसका पालन नहीं करनेसे आज हम और गोवंश यद्यपि पूर्वके जैन विद्वानोंका ऐसा मत नहीं रहा है। दुर्दशामें है। वैश्यका बेटा आज जितना सस्ता है वैसा जैसाकि जैन शास्त्रोंके निम्न वाक्योंसे प्रकट हैदूसरा कोई नहीं। और गोवंश तो आज लाग्योंकी संख्यामें "श्रध्नन्नपि भवेत्पापी, निश्नन्नपि न पापभ.क । प्रतिवर्ष जीवित करल किया जाता है। जीवित कत्ल होनेका अभिध्यान-विशेषेण, यथा धीवर-कर्पकौ ॥" पाप उन धनियोंके सिर पर है जिन्हें काफ-खेएर गोवत्स
(यश. चम्पू) चमड़े का सामान चाहिये । अन्यथा जीवित गोवंश महंगा "आरम्भेऽपि सदा हिंसा, सुधीः सांकल्पिकी त्यजेत् । पड़नेके कारण कभी कल नहीं होता।
धनतोऽपि कर्षकादुःच्चै, पापोऽनन्नऽपि धीवरः॥" __ हमारे पूर्व पितामहोंने जिस समय वर्ण (वृत्तिक)
(सागर ध० २-८२) व्यवस्था बांधी थी उस समय कृषि और गोपालन-कर्म हम
अर्थात्-जीवोंका घात न करता हुआ भी पापी धेश्योंकी तरफ रखा था। शूद्रोंमे सेवा लेकर दोनों कर्म हम होता है और घात करता हुआ भी पापी नहीं होता है,
लाग बराबर करते थे। उस जमानेम गोवंशही धन यह केवल संकल्पका फल है । जैसे धीवर और किमान । गिना जाता था। वास्तवमें है भी ऐसा ही । परन्तु जबसे धीवर जालमें मछली नहीं आने पर भी पापी होता है, हमने विलायती तालीम ली हमारी मति भ्रष्ट हुई, हम और किसान खेतीमें हिंसा करता हुश्रा भी पापी गोवंशको धन न समझकर चांदी सोनेको धन समझने लगे। नहीं है। परिणाम यह हुआ कि हम दोनों तरफसे कोरे होगये।
इस परसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि-खेतीमें उधर तो गोवंश छोड़ बैठे और इधर जो चांदी सोना इकट्ठा
होने वाली हिंसा संकल्पी हिंसा नहीं है। जैनोके पुराणकिया था वह सात समुद्र पार चला गया। यह तो वही
पुरुषोंके कथानकसे यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो मसल हुई कि
जाती है। जैनोंके श्रादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेवने "न खुदा ही मिला न विसाले सनम । लोगोंको अपने-अपने कर्मोंकी व्यावहारिक शिक्षा दी थी।
न इधरके रहे न उधरके रहे ।।१। । जैन मान्यताके अनुसार श्रीकृष्ण और उनके बड़े कृषि और गोपालन बोडकर हमने गांबड़े बर्बाद किए भाई श्री बलभद्रकी गिनती महापुरुषों में है । ये दोनों भाई और शहर पाबाद किए। भीमकाय राक्षस-जैसे यांत्रिक
खास गोपालक और कृषक थे। खेतीका प्रसिद्ध औजार कारखाने खोले । श्रम कर्म त्याग कर दूसरोंके कंधों पर चढ़ "हल" को तो बलभद्रने अपना खास शस्त्र भी बना रखा बैठे। करोदोको बेकार और गरीब बना डाला, गृहोद्योग
था, युद्ध में वे उसीसे काम लेते थे और इसलिये उनका
था, युद्धम व उसी नष्ट होगया । अब गौ-रक्षा कौन करे ?- शहरोंमें गऊकी नाम ही "हलधर" पड़ गया था। इसी तरह श्रीकृष्णकी रखामें कठिनाइयां अधिक । दसरोंके कंधों पर बैठने वाले तरफ गोपालनका काम था, अतएव वे भी "गोपाल" कहहम कठिनाइयों में क्यों पड़ने लगे? बच्चों के लिए दूध भी "प्रावर्तयज्जनहित खलु कर्मभूमौ विजारती (खिम्बे का) वर्तना स्वीकार कर लिया । अब
षटकर्मय गृहिवृषं परिवर्त्य युक्त्या । बाकी क्या रहा ? सारी संस्कृतिका सफाया हो गया। एक निर्वाणमार्गमनवध मजः स्वयम्भूः कखिने हमारे इस नाशकारी जीवनका दो लकीरों में फोटो
श्री नाभिसूनुजिनपोजयतात्स पूज्यः॥" खींचा है। वह कहता है
(पानंदि प्राचार्य)
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किरण १०]
गौ रक्षा, कृषि और वैश्य समाज
[३५५
लाते थे। कहा जाता है कि एक बार श्रीकृष्णने यह कहा नहीं सकता । अहिंसाके विषय में शास्त्रोंकी शिक्षा तो यह था कि-"जब कोई मुझको गोपाल कह कर पुकारता है है कि उसके सानिध्यमें हिंसक हिंसा, चोर चोरी, और तो मैं सोचने लगता है कि वह मुझे जानता है-पहि- जुलमगार जुल्म छोड़ेगा।" चानता है।"
खेतीका काम आजकल प्रायः शुद्ध, कुछ ब्राह्मण और ___ महात्मा गांधीने खेती और अहिंसाके विषयमें जैन- कुछ क्षत्रिय ही कर रहे है, वैश्य तो नाम मात्र । खेतीका सिद्धान्तसे मेल खाता हुआ अच्छा विवेचन किया है। प्रसिद्ध औजार 'हल' जिसके चलानेमें बैलोंकी जरूरत महारमाजीने उसमें खेती-विरोधी जैन विद्वानोंके द्वारा पड़ती है उसकी जगह अब यान्त्रिक हलोंके प्रचार करनेफैलाये गये भ्रमों का पूर्ण तौर पर निराकरण कर दिया है। की बातें सोची जा रही है । सोचने वाले कौन ? व्यापारी म. गांधी लिखते हैं कि
वैश्य लोग ? शर्मकी बात है इस तरह हम गोवंशकी "जिस खेतीके बिना मनुष्य जीवित ही नहीं रह
जरूरत कम कर रहे हैं, उसे बेजरूरतकी चीन बना सकता, वह खेती अहिंसा धर्म-पालन करनेवालेको, उसीपर जीवित रहते हुए भी त्याग ही देना चाहिये-ऐसी स्थिति
शासकों की नियतमें भी फर्क पड़ रहा है। उन्होंने अतिशय पराधीनताकी और करुणाजनक प्रतीत होती है।
गोवंशके चरनेके स्थान मंकुचित कर दिये हैं, और ऊपरखेती करने वाले असंख्य मनुष्य अहिंसा धर्मसे विमुख ।
से भारी टैक्स और लगा दिये हैं फल यह हुआ कि अब रहें, और न करने वाले मुट्ठी भर मनुष्य ही अहिंसा धर्म
गांवके गरीब कृषक लोगोंके पास जो गोवंश था उसे सिद्ध कर सकें, ऐसी स्थिति अहिंसा परमधर्मको शोभा
पालने में वे असमर्थ हो गये हैं। अतएव वे बेचारे शहरों देने वाली अथवा उसे सिद्ध करने वाली नहीं मालूम
में पाकर गोवंश बेचने लगे है । लेने वाले कौन ? कसाई होती । प्रतीत तो यह होता है कि सुज्ञ मनुप्य जब तक
लोग ? गोवंश घटता जा रहा है. एक परिणाम तो बड़ा खेतीका सर्वव्यापक उद्योग न करें तब तक वे नाममात्रके
ही भयंकर हुया है। वह है खेतोंको खाद न मिलनेसे ही सुज्ञ हैं। वे अहिंसाकी शक्तिका नाम निकालने में अस- व अप
वे अपनी उपजाऊ शक्ति खो बैठे हैं। मर्थ हैं। खेती जैसे व्यापक उद्योगमे लगे हुए असंख्य अगर हम लम्बा पुराण-काल नहीं, सिर्फ श्री महावीर भनुष्योंको धर्मकी राह पर लगानेक वे लायक नहीं है। और बुद्ध तक का ही इतिहास देखें तो यदि हम सहृदय यदि यह बात सचमुचमें सिद्धान्तमें गिने जाने वाली वस्तु होंगे तो रो पडेंगे । उस समय भारतमें गोवंश अरबोंकी हो तो इस विषयमें अहिंसाके उपासकका कर्तव्य है कि वह संख्यामें था। ऐसे-ऐसे वैश्य सेठ थे जो लाखों गोवंशका बार-बार विचार करे । खेतीके दृष्टान्तको जरा विस्तारसे पालन करते थे । एक सेठने तो अस्सी हजार गोगंश विचार करें तो हास्यजनक परिणाम आता है। सांपको लड़कीको दहेज में दिया था। और आज ? आज तो मारे बिना, चोरको सजा दिये बिना, और अपनी रक्षामें सारे भारतमें करीब आठ करोड गोवंश होगा। और रहे हुए बालक-बालाओंका जुल्मी मनुष्योंसे रक्षण किये
पालक तो कोई हजार पाँच सौ गायें रखने वाले सेठ गोवों बिना चल नहीं सकता हो-अनिवार्य हो तो क्या उपयुक्त
में मिलें तो मिलें अन्यथा शहरों में तो करोड़पतिके यहां सिद्धान्तानुसार यह काम दसरोंसे करवाना चाहिये. और भले ही दस बीस गायें नजर आयेंगी। इम अहिंसा धर्मका अनुपालन करना चाहिये १-यह अब भी समय है, कोई पहाड़ नही उठाना पड़ेगा। धर्म नहीं है अधर्म है। अहिंसा नहीं हिंसा है। ज्ञान नहीं सिर्फ मनोवृत्ति-दृष्टिबिंदु-पलट डालनेकी जरूरत है। मोह है। जो सापकी, चोरकी, जुल्मगारकी, प्रत्यक्ष भेट न नकली धन चांदी सोनेकी तरफसे मुंह मोड़ कर असली कर सके तब तक वह भय मुक्त होनेका नहीं, और जबतक धन गोवंशके तरफ मुंह फेरलें । यांत्रिक कारखानोंको भय मुक्त न हो तब तक अहिंसा धर्मका पालन वन्ध्या बन्द करके उसमें लगे हुए लोगोंको गोपालन और खेतीपुत्रके अस्तित्व जैसा ही रहेगा । और अहिंसाधर्मका जो के काममें लगावें । गृहोद्योगको उत्तेजन दें। खेती और एक महान परिणाम पाना चाहिये वह तो कभी था ही दूसरे भार बहन करनेके काममें बैलोंके उपयोग करने
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अनेकान्त
[ किरण १०
थोड़े ही दिनामें हम देखेंगे कि जमीन अनाप-सनाप माल पैदा कर रही है, और हमारा भारत हरा-भरा फूला-फला हो रहा है।
३५६ ]
की व्यवस्था करें । गरीब किसानों और बेकार हरिजनोंको सौ-सौ पचास-पचास गोवंश खरीद कर दे दें । दान करदें तो अत्युत्तम अन्यथा उनके नामे बिना ब्याज उधारी रुपए मांडकर उनकी सुविधाके अनुसार उनसे वसूल कर लेवें । शासकोंको समझा कर उनसे गायो के चरने के स्थान विस्तृत करवायें और टैक्स छुड़वा दें। विलायती दूध मक्खन खाना छोड़ें। जीवित पशुका चमड़ा वर्तना त्यागकरें और जीवित पशु करल न करनेका कानून बनावें इत्यादि तरीकोंसे गोरक्षा और जमीन-रक्षा दोनों होगी ।
इलायची
(ला० जुगलकिशोरजी )
इलायची खाने में बड़ी स्वादिष्ट और गुणोंमें परिपूर्ण होती है, प्रायः किसी भी दशामें और किसी समय हानिकारक प्रतीत नहीं होती । जिह्वा (जीभ ) के बिगड़े हुए स्वादको वह तुरन्त ही स्वादिष्ट एवं सुगन्धित बना देती है । इलायची देखनेमें छोटी और भद्दी सी जान पड़ती है, अन्दरसे काले काले छोटे छोटे दानोंको लिये हुए होती है। खानेमें हल्की और अत्यन्त रुचिकर होती है। जो मनुष्य इसके रहस्यको नहीं जानता वह इसका मूल्य किसी प्रकार भी नहीं भोंक सकता । इस छोटी सी इलायची में ऐसी कौनसी करामात भरी हुई है जिससे उसे सब लोग चाहते हैं, इलायचीके ऊपर सबसे पहले छिलका देखनेमें श्राता है वह पतला है और खानेमें कुछ स्वादिष्ट प्रतीत नहीं होता, परन्तु वह भीतरके बीज पदार्थकी रक्षा करनेमें समर्थ है। इलायची के बीजोंमें जो तरावट व सुगन्धि होती है वह उस छिलके द्वारा ही रक्षित रहती है, छिलका हटा कर मुखके द्वारा उसका चर्वण करनेसे रसास्वाद खानेवाले के चितको प्रसन्न कर देता है, यह उस छिलकेका ही प्रभाव है या इलायचीके बीजों का ? यह बात यहाँ विचारणीय है ।
बस यह गोवंश प्रति वैश्योंका कर्तव्य है । अगर वे इसका पालन नहीं करेंगे तो श्री बंकिमचन्द्रके कथनानुसार गोवंशका और उसके साथ ही हमारी हिन्दू जातिका लोप होजाना निश्चित है। आश है हम इस कलंकके भागी नहीं बननेका भरसक प्रयत्न करेंगे और अपने कर्तव्यका पालन करेंगे ।
छिलका पहले बना या बीज, बीजसे छिलका बना या छिलकेसे बीज ? दो वस्तुएँ एक साथ उत्पन्न होती हुई भी अनुभव नहीं आ रही हैं, न छिलका पहले बना और न पहले बीज ही बना, न बीजसे छिलका और न छिलके से बीज; किन्तु बीजसे बीज बना और छिलकेसे छिलका,
यदि ऐसा मान लिया जाय तो कोई हानि देखने में नहीं आती, छिलका और बीज दोनों ही पदार्थं अपनी अपनी स्वतन्त्र - सत्ताको लिये हुए हैं और दोनों अनादि हैं, दोनों एक ही स्थानमें उत्पन्न हुए हैं, पर अपने अपने भिन्न गुण धौर स्वभावको लिये हुए होनेक कारण दोनों ही जुदे जुदे पदार्थ हैं, और दोनों में ही परस्पर निमित्त, नैमित्तिक भाव पाया जाता है।
संगतिका प्रभाव
इलायचीका छिलका और बीज दो पृथक् पृथक् नाम हैं - यह दो पदार्थ हैं, दोनों एक दूसरे से भिन्न करने पर free हो जाते हैं । छिलका पृथक् होने पर इलायचीका forका, और बीज पृथक होने पर इलायचीका बीज, ऐसा कहा जाता है, इलायची शब्द एक, पदार्थ दो एक साथ उत्पन्न हों, एक ही समय में उत्पन्न हों, और एक ही समयमें एक दूसरे से भिन्न हो जावें, फिर भी अपने अपने साथ पूर्व शब्द से अलंकृत रहें-यह भी एक अनोखी ही बात 1 छिलकेके गुण अन्य, बीजांके गुण अन्य - एक दूसरेके साथ उत्पन्न होने पर भी बीज अपने गुण छिलकेको नहीं देता, और न बीज ही वैसा करनेमें समर्थ होता है । यह कैसी मित्रता हैं ? बीजके साथ जब तक छिलका एक साथ रहता है तब तक उस छिलकेकी तरी बनी रहती है, छिलका अलग हो जाने पर जरा सी देर में वह अपनी स्निग्धताको त्याग कर रूक्ष हो जाता है- रूखेपनमें बदल जाता है— सार-रहित होकर घृणाका पात्र बन जाता है ।
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किरण १०]
इलायची
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संसारमें विभिन्न दो पदार्थों का संप्रोग अनेक गुणोंका इसी कारण संमारमें इलायचीको इतना बड़ा महत्व समुत्पादक है उनकी संगति अथवा समागम हर्ष और रोष एवं सम्मान प्राप्त है कि समस्त शुभ अवसरों पर अथवा का कारण है। यद्यपि ये दोनों पदार्थ अपने अपने स्वतन्त्र अपने गृह पर पाए हुए बड़े से बड़े और महानसे महान् अस्तित्वको लिये हुए हैं। वे कभी एक नहीं हो सकते । व्यक्तिका आदर इन इसाचियोंके पेश करने पर समझा उदाहरणके लिये उसी इलायचीके स्वरूप पर दृष्टि जाता है, इलायची देने वालेका हृदय इलाचियोंको दोनों डालिए।
हाथमें लेकर बड़ा ही विनम्र प्रतीत होता है, बड़े ही छिलका जिसका मूल्य बीजाके साथ रहने पर बीजोंके प्रसन्न चित्त और समादरणीय भावसे भरी हुई इलाचियोंसाथ तोला जाता था वह ही छिलका बीजोंमे पृथक होने पर की तश्तरी उस आगन्तुक व्यक्तिके अन्तर मानसमें आदर, मूल्य रहित जान कर इधर उधर फेंक दिया जाता है, यह स्नेह, निर्मलता, कोमलता, मित्रता, एकता, निरहंकारता कैसी माया है ? छिलके में और बीजमें इतना अन्तर क्यों? और निःस्वार्थता आदि गुणोंको स्वयं ही व्यक्त कर देती जब एक ही वस्तुको अभेद दशामें देखा गया तो दोनोंका है। और मानवीय आन्तरिक भद्रताको भी किंचित् प्रकट मूल्य एक सा-और एक साथ एक वस्तुमें दो भेद करने करनेमें समर्थ हो जाती है। उसका उपयोग करने वाले पर मूल्यमें इतना अन्तर क्यों? एककी रक्षा, दूसरेकी व्यक्तिका हृदय भी फूल जाता है। वह केवल एक ही अरक्षा, एकका सम्मान दूसरेका अपमान, एकको गुण और इलायची उठा कर सन्तुष्ट हो जाता है, अपने हृदयमें उसी दूसरेको अवगुण, एकको उपादेच दुसरेको हेय, एकमें रुचि मैत्रीभाव और एकता आदि सद्गुणोंको स्थान देता है। दुसरमें अरुचि, एकमे गुरुता दूसरेमें लघुता, एकमें सार जिस समय दो मित्र बांधव इस प्रकारकी श्रादर व दुसरेमें निस्सार, एक स्वभाव दूमरमें विभाव, भादि सरकारकी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं तो उस समय उन दोनों अनेक स्वरूप प्रकट हो रहे हैं।
का हृदय इतना सन्तुष्ट और सरल क्यों हो जाता है-देने ___ यही बात आत्मा और शरीरके स्वरूप चिन्तनमें वाला तो थाल भर कर देता है और लेने वाला केवल लक्षित है, शरीर पर, जड़स्वरूप है, और प्रान्मा चैतन्यस्व- एक ही इलायची लेकर सन्तुष्ट हो जाता है। ऐसा होने रूप होकर भी अनंत गुणोंका पिण्ड है। आत्माकी वजहमे पर भी दोनोंका मन प्रसन्न ही रहता है। शरीरकी भी प्रतिष्ठा होती है, और उसके अभावमें उसे संसारमें पदार्थों की विभिन्न जातियां हैं-उनकी किस्में अग्निमें जला दिया जाता है। जब दोनों साथ रहते हैं तब अनेक होते हुए भी उनके गुणां-(रूप-रम) में भेद पाया दोनों ही एक दूसरेके कार्यों में सहयोगी बने रहते हैं। कभी जाता है। फिर भी उनमें अच्छा और बुरापन नहीं पाया
आत्माको शरीरके अनुकूल क्रिया करनी पड़ती है, और जाता; किन्तु यह मोही जीव उनमें दो प्रकारकी कल्पना कभी शरीरको आत्माके अनुकूल चलना पड़ता है। एकके करता है इष्ट और अनिष्ट, अपनी इच्छानुकूल परिणामको कष्टमें दूसरेको भी कष्टका अनुभव एवं दुख उठाना, और इष्ट कहते है और उमसे विपरीतको अनिष्ट । यहां यह अपमानका घूट पीना पड़ता है। उनमें एक उपादेय और जान लेना आवश्यक है कि पदार्थों में इष्ट अनिष्टता नहीं दूसरा घृणाका पात्र और हेय है। दोनों ही एक दूसरेके है। अपनी बौद्धिक कल्पनामें ही इष्टता और अनिष्टता है विभाव-स्वभावमें निमित्त नैमित्तिक बन रहे हैं। फिर भी और वह रुचि विभिन्नताका परिणाम जान पड़ता है। दोनोंका अवस्थान एक जगहमें देखा जाता है पर वे एक यदि उक्त कल्पना न होती तो जो पदार्थ हमें अनिष्ट नहीं हो सकते । अपने-अपने लक्षणोंसे जुदे जुदे प्रतीत होता है वही पदार्थ दूसरेको इष्ट क्यों लगता है और होते हैं।
जो हमें इष्ट जान पड़ता है वह दूसरेको अनिष्ट क्यों इलायचीमें अनेक गुण है जहाँ वह मिष्ट और शीतल मालूम देता है, इससे स्पष्ट है कि यह कल्पना केवल है वहाँ वह भोजनको पचाने में भी समर्थ है। उसका दवा- हमारी मान्यताका परिणाम है, पदार्थ जैसाका तैसा है, इयोंमें भी उपयोग किया जाता है। गर्मी में शान्ति प्रदान उसमें हमारी राग द्वेषरूप परिणति ही इष्ट अनिष्ट करती है। और जी मिचलाने पर मुखके विकृत जायके कल्पनाकी जनक है। पदार्थ तो अपने स्वरूपमें ही रहता है (स्वाद) को दूर करती है।
उसमें उस प्रकार का राग-द्वेष भाव नहीं होता। हां, एकही
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३५८]
अनेकान्त
[किरण १०
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पदार्थ एक समयमें इष्ट जान पड़ता है और वही पदार्थ दूसरे है। वह उस उत्कंठाकी पूर्तिके प्रभावमें अथवा उस वस्तुसमयमें अनिष्ट प्रतीत होता है जिस तरस धप और वर्षामें की प्राप्तिमें बेचैन रहता है। जब तक यह अभिलषित छतरी आवश्यक और हष्ट मालूम होती है। किन्तु धूप पदार्थों का उपयोग नहीं कर लेता तब तक उसके चित्त में आदिके अभावमें वही बोफरूप प्रतीत होती है। इससे विकलता और घबराहट अपना स्थान बराबर बनाये रहती यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि यह कल्पना है। इन्द्रिय-विषयों में से कदाचित् उसे किसी एक विषयमनुष्यकी स्वार्थ बुद्धिका परिणाम मात्र है, यह उम वस्तु- की प्राप्ति हो जाती है तो फिर अन्य पदार्थकी इच्छा की विशेषता नहीं। यदि इसे वस्तुको विशेषता माना जाय उसे विकलता या दाह उत्पन्न करने लगती है। इस तरह तो फिर मनुष्यकी स्वार्थ कल्पनाका क्या होगा? यह जीव अपने ही स्वरूपको भूलकर परमें प्रात्म-कल्पना
इलायचीका उपयोग भोजनके साथ भला क्यों प्रतीत वश दुःखका पात्र बनता है, और अागामी अनन्त दुःस्वानहीं होता? भोजनके बाद ही भागन्तुक महाशयको क्यों दी का कारणभूत कर्मोका संचय करता रहता है । इस कारण जाती है? क्या यह इलाचोकी ही विशेषता है.जो भोजन उसे उनसे छुटकारा नहीं मिलता, वह उस घटी यन्त्रके के साथ उसका उपयोग इष्ट नहीं प्रतीत होता, वास्तवमें
। समान बराबर चक्कर लगाता ही रहता है। इलायची में भी अच्छा या बुरापन नहीं है । इलायची तो
इलायची मनुष्यको एक सुन्दर पाठकी और भी शिक्षा अपने गुणांसे जैसीकी तैसी है। भोजनके पश्चात् हम
देती है और वह यह कि संसारके सभी विषय उस छिलके अपने स्वादको सुगन्धित और स्वादिष्ट बनानेका अनुभव
के समान नीरस और घृणाके पात्र हैं। जिस तरह इलाकरते हैं इसीसे हम उसे उपादेय समझते हैं; क्योंकि वह
यचीस छिलकेको निकालकर उसे नीरस और अप्रिय
समझ कर फेक दिया जाता है। यदि इलायचीके बीजोंसे हमारे अभिलषित स्वादको सुगन्धित, शीतल और मधुर बनाने में निमत्त है इसी कारण वह हमें प्रिय मालूम देनी
छिलकेको अलग करने पर भी वह अपने रूपादि गुणोंके है। किन्तु यदि वही इलायची किसी पित्तज्वर वाले रोगी
साथ स्वादमें विभिन्न और अरुचि कारक नहीं होता तो वह
बीजकी तरह ग्राह्यक्यों नहीं होता ? ठीक उसी प्रकार को दी जाती है। तो वह कड़वी और बेस्वाद प्रतीत होती
इन्द्रिय विषय भी भोगनेके बाद अरुचिकारक और अनिष्ट है। यद्यपि उस इलायची में स्वाभाविक परिवर्तनको छोड़कर कोई विशेषता या भेद नहीं हुआ है, किन्तु उस रोगी
प्रतीत होते हैं, तब यह जीव उन्हें छोड़ना चाहता है
उनसे दूर होना चाहता है, परन्तु अपनी शक्ति अथवा मनुष्यके स्वादमें अवश्य परिवर्तन हुना है-पित्तज्वरके उदयने उसके स्वादमें विपरीतता ला दी है-वह अपने
कमजोरीसे उनका परित्याग नहीं कर पाता । जो विषय
आज इष्ट प्रतीत होते हैं वही कल अनिष्कर हो जाते हैं। स्वभावसे विकृत हो गया है, इसी कारण उस रोगीको
यह उन्हें चाहता है पर वे उसे छोड़कर चले जाते हैं, यह वह इलायची अरुचि कारक एवं कडुवी प्रतीत हुई है यही
उनकी अप्राप्तिमें दुम्वका पात्र बनता है। अथवा उन्हें रुचिभेद उसकी विशेषताका कारण है।
अयोग्य, नीरस या दुख कारक समझकर उनका स्वयं परिसंसारके पर-पदार्थों में मोही जीवकी भी यही दशा है।
त्याग कर देता है। वह छिलका अपने समान इन्द्रिय विषवह भ्रमवश पर-पदार्थको इष्ट अनिष्ट कल्पनाका जनक
याँको नीरस, दुखद, पराधीन और घृणाका पात्र प्रकट जान कर उनमें रागद्वेष स्वयं करता रहता है और उससे
करता है। इलायचीके समान संसारके अन्यपदार्थोंका उसकी संसार-परम्परा बरावर बढ़ती रहती है। वह अपनी
स्वरूप भी हमें अपने प्रात्मस्वरूप चिन्तनकी ओर ले विभिन्न कल्पनाद्वारा अपनेको सुखी-दुखी अनुभव जाता है। पर हम अज्ञानताके कारण उनके भूल्यको नहीं करता अथवा मानने लगता है। पर मोहके उदयमे उसे प्रांकते । ये सब पदार्थ हमारे विवेक अथवा शानकी पुष्टि ही अपनी उस विपरीत कल्पना अथवा परिणतिका कोई अनु
नहीं करते प्रत्युत हमें वस्तु स्थितिका यथार्थ दर्शन कराकर भव या पता नही हो पाता, यहा उसका कमजारा ह । हमारी वे सभीभापत्तियोंका निरसन करने में समर्थ होते हैं।
ही, पदाकि उपभोगकी पाकाचा प्रत्येक समय उसके मनुष्यको सरष्टि प्रास होनी चाहिये, उसीके आधारपर वह मन बचन और काममें बराबर उत्कंठा उत्पन्न करती रहती अनेक पदार्थों से अच्छे पाठ ग्रहण कर सकता है।
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विजोलियाके शिलालेख
(पं० परमानन्द जैन शास्त्री) विजोलिया दीके एक कोने पर बसा हुआ है, जो है इस शिखरके पीछे वेदीका प्राकार बना हुआ है जिसमें उदयपुरसे उत्तर-पूर्व ११२ मील है, तथा कोटासे पश्चिम मूर्ति स्थापित होनेके निशान पाये जाते हैं। चारों तरफ ३२ मील है। इसका प्राचीन नाम विन्ध्यावली था, इस दीवार पर मुनियों (भट्टारकों) की मूर्तियाँ उस्कीणित हैं। नगरके शासक 'राव' या 'रावल' कहलाते थे, उन्हें 'सवाई' और एक लाइनमें कुछ लिखा हुश्रा भी है, परन्तु वह की उपाधि भी प्राप्त थी । विजालियाके यह राव मालवाके ___ पढ़ा नहीं जाता। मन्दिरसे सभामण्डप सटा हुआ है परमार राजाओंके वंशधर हैं जिनकी राजधानी कभी उज्जैन जिसकी लम्बाई चौड़ाई ३६४ २५ फुट हैं। इसमें १४ और कभी धार रही है। दिल्लीके सुलतान मुहम्मद तुगलक- खम्भे लगे हुए हैं। मण्डपके देखनेसे वह प्राचीन जान के समय मालवाका प्रायः सभी प्रदेश मुसलमानोंके अधि- पड़ता है। मन्दिरको चौग्वटमें दाहिनी बाजू पर सं० १२२६ कारमें चला गया था, इस कारण परमारोंके कुछ वंशधर की निम्न पंक्ति अंकित है-“साधु महीधर पुत्र मेवाअजमेर और पुछ दक्षिणादि प्रान्तोंमें चले गये थे। यह- रयो प्रणमनि नित्यं सम्बत १२.६ वैशाख कृष्णा १५।" सन् १६१० में रोवाइसे यहाँ पाये थे। इस ग्राममें ७०. मुख्य मन्दिरके चारों तरफ दुहरी गुम्बजदार चार गुमठियाँ घर हैं उनमें दि. जैनियोंके भी ४६ गृह हैं जिनकी जन- बनी हुई हैं जिनकी भीतों पर मुनियोंकी मूर्तियोंके अंकित संख्या १८६ के करीव है । वस्ती में राजमहलके पास एक होनेके निशान पाये जाते हैं। मन्दिरके सामने दो मानदि० जैन मन्दिर है जिसमें एक फुट अवगाहनाकी स्फटिक स्तम्भ हैं। पहला मानस्तम्भ दाहिनी ओर जमीनसे बाहर मणिकी एक मूर्ति पद्यामन विराजमान है जिसकी प्रतिष्ठा ६ फुट ऊँचा है। ऊपरके भागमें चार तीर्थंकरोंकी खडगासन पानीपतवामी सिकरचन्द बगदा वघेरवालने कराई थी इसके प्रतिमा विराजमान है, चन्द्रप्रभु, नेमिनाथ, वर्द्धमान और सिवाय तीन प्रतिमा, ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीर पाश्वनाथ । इनमेसे भगवान पार्श्वनाथकी मूर्तिके नीचे दो भगवानकी चार फुट अवगाहनाकी और भी पशासन विरा- मुनियोंकी मूर्तियाँ अंकित हैं जिनके मध्यमें शाख रग्बकर जमानो पानी
जनक गिर पढ़नेकी रिहल (चौकी) का आकार भी बना हुआ है। जानेसे उनके पाषाण उक्त कस्बेके किले में लगा दिये गए
पहले स्तम्भमें भट्टारक पधनंदिदेव और दूसरेमें भट्टारक थे। फिर भी जो मन्दिर इस समय विद्यमान है वे भी
श्री शुभचन्द्रदेवका नाम उस्कीर्ण है और दोनोंके मध्यमें दो अपनी प्राचीनतामें कम महत्वके नहीं हैं। विजोलियाके
कमंडलु बने हुए हैं और उनके नीचे उनके चरण खुदे हुए पूर्व में कोटके समीप तीन शिव मन्दिर हैं, जिनमें एक मन्दिर
हैं। अशिष्ट तीनो योर ३ मुनियोंकी खड्गासन मूर्तियाँ हजारेश्वर (सहस्रलिंग) महादेवका है, और दूसरा मन्दिर भी उत्कीर्ण है उनके चरणाके नीचे एक लेख संस्कृत महाकालका तथा तीसरा मन्दिर बैजनाथका, जिसमें खुदाई
मला भाषामें १२वीं शताब्दीका खुदा हुआ है जिसका कुछ भाग का काम बड़ा ही सुन्दर हुआ है।
जमीनके अन्दर दबा हुया है। वह जिस रूपमें मुझे उपविजोलिया कस्वेसे अग्निकोणमें एक मीलके करीब लब्ध हुआ है वह आगे दिया जाएगा। यह लेख सम्बत् एक दि० जैन मन्दिर है जिसके चारों कोनों पर चार छोटे- १४८३ फाल्गुन सुदि ३ गुरुवारका है जिसमें मूल संघ छोटे मन्दिर और भी बने हुए हैं। इन मन्दिरोंको पंचाय- सरस्वतिगच्छ बलात्कारगण कुन्कुन्दान्व के भट्टारक श्री तन' कहा जाता है। ये पांचों ही मन्दिर एक कोटसे घिरे वसन्तकीर्तिदेव, विशालकीर्तिदेव, दमनकीर्तिदेव, धर्मचन्द्रहुए हैं। इनमें मध्यका मुख्य मन्दिर जैनियोंके तेवीसवें देव, रत्नकीतिदेव, प्रभाचंद्रदेव, पानन्दि और शुभचंद्रदेवके तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथका है। दरबाजेके सामने में नाम अंकित हैं। यह निषेधिका प्राथिका प्रागमश्री की शिखरबन्द मन्दिर है जिसके मध्यमें एक ताक है जिसकी स्मृति में बनाई गई है। महराव पर २३ प्रतिमाएँ अंकित हैं, परन्तु ताक खाली ही दूसरा मानस्तम्भ जमीनसे ५ फुट ऊँचाहै जिसमें
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३६०] अनेकान्त
[किरण १० निम्न चार तीर्थंकरोंकी मूर्तियां अंकित हैं-पार्श्वनाथ, गांव उकदि. जैन पार्श्वनाथ मन्दिरको दिये थे। चौहान वर्धमान स्वामो, नेमोनाथ और सम्भवनाथ । इनके चिन्ह वंशकी उक्त वंशावली निम्न प्रकार है:कुछ अस्पष्टसे प्रतीत होते हैं । इन प्रतिविम्बोंके नीचे चारों तरफ मुनियोंकी मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। यह निषे
चाहुमान धिका भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य हेमकीर्तिकी है, जो सं० १५६५ फाल्गुन सुदि । बुधवारके दिन उत्कीर्ण की गई
२ विष्णु (वासुदेव) है। यह लेख भी पागे दिया जायगा।
३ सामन्तदेव इन देवालयोंसे थोड़ी दूरपर जीई-शीर्ण दशामें 'रेवतीकुण्ड' नामका एक कुण्ड है जो अपनी महत्ता और
४ पुरन्टला अतिशयके लिये प्रसिद्ध था। और उसमें स्नान करने वाले ब्राह्मण क्षत्रो वैश्य और शूध आरोग्यादिका लाभ
५ जयराज पुत्र सामन्तदेव) करते थे । समीपमें छोटा सा बाग भी था। मुख्य पार्श्वनाथके मन्दिरमें सरोवरके उत्तर की ओर
६ विग्रहनृप (विग्रहराज (प्रथम) भीतके पास महुश्रा-वृक्ष के नीचे एक वृहशिलापर बड़ाभारी लेख अंकित है। और दूसरीपर दूसरा उन्नति शिवर
७ चन्द्रराज (प्रथम) पुराण नामका एक काव्य ग्रन्थ है, जो अभीतक अप्रकाशित है । ये दोनों ही लेख वि० सं० १२२६ के उत्कीर्ण किये हुए हैं। जिन्हें लोलाक श्रेष्ठीने उत्कीर्ण कराया था।
८ गोपेन्द्रक (गोपेन्द्रराज) इनमेंसे प्रथम लेख ३० पंक्तियों में लिखा गया है । इस लेखको किसीने नष्ट करनेका विचारकर सुरंग लगाई थी,
___ दुर्लभराज प्रथम) परन्तु मधुमक्खियोंके उपद्रवसे वह नष्ट नहीं हो सका. १० गुवक (प्रथम) गोविन्दराज (पुत्र दुर्लभराज) किन्तु उसे काफी क्षति पहुँची है। अब इन दोनों लेखोंपर
वि० सं० १३ (716 A. D.) छतरी बन गई है जिससे वर्षा श्रादिसे उनकी सुरक्षा हो ११ चन्द्रराज (द्वितीय) पुत्र गोविन्दराज गई है। इनमेंसे प्रथम लेखकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि श्रेष्ठी लोलाकने इस शिलालेखमें सांभर और अंज- १२ गूबक (द्वितीय) मेरके चौहान वंशी राजाओंकी जो वंशावली दी है तथा उनमेंसे किसी-किसीका कुछ परिचय भी दिया है। वह १३ चन्दनराज (पुत्र गूवक द्वितीय) वंशावली शुद्ध और प्रामाणिक है। इसकी प्रामाणिकताको महमना स्वर्गीय गौरीशंकर हीराचन्द जी अोझाने अपने १४ वाकपतिराज ( पुत्र चन्दनराज) राजपूतानेके इतिहास में स्वयं स्वीकार किया है, क्योंकि शेखावटी गत हर्षनाथके मन्दिरमें उत्कीर्ण वि० सं० १०३० १५ विन्ध्य नृपति की चौहान राजा सिंहराजके पुत्र विग्रहराजके समयकी प्रशस्तिमें उल्लिखित नामोंसे, और जोधपुरके कनसरिया १६ सिंहराज (ज्येष्ठ पुत्र वाक्पतिराज) इसने वि० सं० नामक गांवसे सांभरके चौहान राजा दुर्लभसेनके सम्बत्
१०१३ (956 A. D..) में हर्षनाथका १०१६ के शिलालेख, तथा 'पृथ्वीराज विजय' नामक महा
मन्दिर बनवा कर उस पर सुवर्ण कलश काव्यमें उल्लिखित नामोंसे वे यथार्थ रूपमें मिल जाते हैं।
चढ़वाया और उसके निर्वाहार्थ गांव इस वंशावलीके अन्तिम दो राजाओंने-पृथ्वीराज द्वितीय
दान दिये थे। इसने मुसलमानोंसे अनेक और सोमेश्वरने-दो गांव दानमें दिये थे । जिनमेंसे
युद्ध कर उन्हें विजित कर उनके हाथी पृथ्वीराजने 'मोराझरी' गांव और सोमेश्वरने रेवणा' नामके
छीन लिये थे।
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किरण १०
गिजोलियाके शिलालेख
[३६१
।
-___।
१० विग्रहराज (द्वितीय)
वंशपरिचयके साथ उनके कार्योंका भी सम्मुल्लेख किया गया
है। जिससे लोलाकके पूर्वजोंकी धर्मनिष्ठता सहज ही - १८ दुर्लभराज (द्वितीय ) यह सिंहराजका पुत्र और अपने ज्ञात हो जाती है । श्रेष्ठी लोलाकके पिता सीयक श्रेष्ठी थे,
। बड़े भाई विग्रहराज द्वितीयका उत्तरा- जो प्राग्वाट या पोरवाड वंशके भूषण थे। सीयकके पिताका धिकारी था।
नाम देसख था । सीयकके ५ भाई और भी थे, दुदकनाथक, १६ गोविन्द (3गोविन्दराज)
मोसल, वीगड, देवस्पर्श और राहक । ये छहाँ भ्राता जिननिष्ठ और राज्यमान्य थे । इन्होंने अजयमेरु पर वर्द्ध
मानका मन्दिर बनवाया था। इनमें सीयक सबसे अधिक २. वाकपति नृप २१ वीयराय २२ चामुण्डराय पुण्यात्मा और लोकमान्य था उसने मंडलाकारक एक
विशाल किला और भगवान नेमिनाथका एक सुन्दर मंदिर २३ सिंहट २४ दूसल
बनवाया था। श्रेष्ठी सीयककी दो धर्मपत्नियां थीं, नागश्री (दुर्लभराज तृतीय) और ममता । जिनमें नागश्रीसे तीन पुत्र और ममतासे
दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। नागदेव, लोलाक और
उज्ज्वल । महीधर और देवधर । इनमें उज्ज्वलके दो २५ वीसज (धर्मपन्नी राजलदेवी) जो मालवेके राजा पुत्र हुए, दुर्लभ और लक्ष्मण । इनमें लक्ष्मण ब्रह्मचारी । परमारकी पुत्री थी।
था ये दोनों ही धर्मात्मा और यशस्वी थे । इनमें २६ पृथ्वीराज (प्रथम) (धर्मपत्नी रासलदेवी) लोलाक सबसे अधिक पुण्यशाली और गुणज्ञ था, वह
जिनभक परायण श्रावक था। इसकी तीन धर्मपत्नियां २७ अजयदेव (धर्मपत्नी सोमलदेवी)
थी, ललिता, कमला और लक्ष्मी । इनमें ललिता सबसे
अधिक जिनधर्म भक्ता थी । श्रेष्टी लोलाकने ललिताकी २८ अणोराज
प्रेरणा तथा स्वप्नकी स्मृतिसे एक मन्दिरका समुद्धार
किया। पार्श्वनाथका विशाल मन्दिर बनवाया, और अन्य २१ विग्रहराज (चतुर्थ) इनका नाम वीसलदेव था यह बड़ा पांच मन्दिर और भी बनवाए । माथुर संघके विद्वान भ..
प्रतापी था, और विग्रहराज चतुर्थ कहलाता गुणभदसे इस प्रशस्निको बनवाया, जिसे नेगमान्ववकायस्थ थ इसने तोमरवंशियोंसे दिल्ली सं०१२०७ छीतिमके पुत्र केशवने लिखा । इतना ही नहीं, किन्तु उन्नतिया उसके पास पास किसी समय ली थी। शिखर पुराण, नामका एक काव्य-अन्य भी लोलाक श्रेष्ठीने
और उसे अजमेरका सूबा बनाया था। उत्कीर्ण कराया। चूकि यह प्रशस्ति सं० १२२६ की विजोलियाके इस लेख में लिखा है कि- उत्कीर्ण की हुई है । अतः यही समय लोलाक और गुणभद्र 'दिल्ली लेनेसे श्रान्त (थके हुए) और मुनिका है। इसमें जिनचन्द्रसूरिका भी उल्लेख है जो उस प्राशिका ( हांसी) के लाभसे लाभान्वित समयके प्रसिद्ध विद्वान् थे। हुए विग्रहराजने अपने यशको प्रतोली
प्रथम शिलालेख और बलभीमें विश्रान्ति -दी-वहाँ उसे ७) सिद्धम् ॥ॐ नमो वीतरागाय॥ चित्र सहजोदित स्थिर किया।
निरवधि ज्ञानकनिष्ठापितं । नित्योन्मीलितमुल्लसत्परकलं ३. पृथ्वीराज (द्वितीय) ( यह अर्णोराजके ज्येष्ठ पुत्र .
स्यात्कारविस्फारितं (तम्) [1] सुव्यक्त' परमातं जगदेवका पुत्र था।)
. शिवसुखानन्दास्पदं शास्व (श्व)तं । नौमि स्तौमि जपामि ३१ सोमेश्वर (सं. १२२६ में मौजूद था।)
यामि शरणं ज्योतिरात्मो[ स्थि] तं (तम्)॥१॥ इस प्रशस्तिको दूसरो विशेषता यह है कि श्रेष्ठी लोलाकके नास्तं गतः कुग्रहसंग्रहो न । नो तीब तेजा........
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३६२ ]
अनेकान्त
[किरण १०
(२)~~-~-ब:। --~- (७) नृपो गूवाक सच्चंदनौ [] श्री मद्प्पयराज विंध्यनैव सुदुष्टदेहोऽपों रवि स्तासमुदेवृषो वः ॥ २॥ [स] नृपती श्रीसिंहरावि (वि) ग्रहो। श्रीमदुर्लभ गुदुभूयाच्छौशांतिः शुभविभवभंगीभवभूतां । विभोर्यस्या- वाक्पतिनृपाः श्रीवीर्यरामोऽनुजः ॥ १३॥ [चामुंड] भाति स्फुरितनखरोचिः करयुगं (गम्)। विनम्रणामेषा- ऽवमिपे (पो) ऽति (थ) श्च राणकवरः श्रीसिंघरो मखिलकृतिना मंगलमयीं। स्थिरीकत्तुं लचमीमुपरचित- दूसलस्तभ्राताथ ततोपि वीसलनृपः श्री राजदेवी प्रियः[1] रज्जु बजमिव ॥३॥ नाशा (सा) स्वा (श्वा) सेन पृथ्वीराजनृपोथ तत्तनुभू (भ) वो रासलदेवीविभुस्तयेन प्रबलबलमृता पूरितः पांचजन्यः
त्पुत्रो जयदेव हत्यवनिपः सोमल्लदेवीपतिः॥१४॥हत्वा (३)---~--वरदलमलि [नी पाद] चञ्चिगसिंधलाभिषयसो (शो) राजादि वीरत्रयं । पद्याप्रदेशः । हस्तांगुष्ठेन शार्ग (शा) प (घ) नुरतुलव ) क्षिप्रं करकृतांतवक्वकुहरे श्रीनार्गदुर्दी () (ब)लष्टमरोप्य विष्णो। रंगुल्यां दोलितोयं हल भृदवनितं न्वितं (तम्)। श्रीमन्मो [8] ण दण्डनायकबरः तस्य नेमेस्तनोमि ॥४॥ प्रांशुप्रकारकांता विदश परिवृढ- संग्रामरंगांगणे जीवने (वन्ने)व नियंत्रितः करभके येन यह (रु) रुवावकाशा। वाचाला केतुकोटि [क] --[क्षिसात् ॥१५॥ अरोराजोस्य सुनुयादनणुमणी किंकिणीभिः समंतात् । यस्य व्याख्यानभूमी दश्तहृदय हरिः सत्ववांशि (वामिछ) र सीमो गांभीरयोंमहह किमिदमित्याकलाः कौतुकेन प्रेक्षते प्राणभाजः नाव : समभवट [ चि1 लव लव)
( स भु][वि विजयतां तीर्थकृत्पार्च (व) मध्यो नदीमारिचयं । नाथः॥॥बर्द्धतां वर्द्धमानस्य बर्द्धमान महोदयः । वडूतां स्थितिरवत महापंकहेतुन्न मथ्या न श्रीमुक्तो न दोषाकरवईमानस्य वर्द्धमान [ महोदयः॥ ६ ॥ सारदां सारदा रचितरतिन द्विजह्वाधिसंव्यः ॥ १६ ॥ यदाज्यं ।। स्तौमि सारदानविसारदा (दाम)। भारती भारती भक्तभुति मुक्ति विशारदा (दाम)॥७॥निःप्रत्यूहमुपास्महे
(6) यदाज्यं कुशवारणं प्रतिकृतं राजांकुशेन स्वयं ।
येनात्रैव नु चित्रमेतत्पुनर्मन्यामहे तं प्रति । तच्चित्रं जिनपतीनन्यानपि स्वामिनः । श्रीनाभेय पुरस्सरान् पर कृपापीयूपपायोनिधीन् । ये ज्यो (ज्यो) तिः परभाग भाज
प्रतिभासते सुकृतिना निर्वाणनारायणन्यक्काराचरणेन भंग
करणं श्रीदेवराज प्रति ॥ १७ ॥ कुवलय विकासकर्ता (३) न तया मुक्कात्मतामा [शि] ताः श्रीमन्मुक्ति नितंवि (बि)नीस्तनतटे हारश्रियं वि (बि) भ्रति ॥८॥
विग्रहराजोजनि (नी) [स्तु (ति)] नो चित्रं (त्रम्) भव्यानां हृदयाभिरामवसतिः सद्धर्म [म] [ने]
तत्तनयस्तश्चित्रं य [न्न] जदक्षीण सफलंकः ॥१८॥ स्थितिः कम्र्मोन्मूखनसंगतिः सु (शु) भततिः निर्वा
भादानत्वं चके भादानपतेः परस्य भादानः [1] यरय (i)धवो (बो) धोद्धतिः [1] जीवानामुपकार
जीव
दधत्करबालः करतलाकलितः। कारणरतिः श्रेयः श्रियां संसृतिः देयाम्मेभवसंभृतिः शिव
१०) करतलाकलितः ॥ ६॥ कृतांतपथ सज्जोभूत्सम तिं जैने चतुधिंस (श)तिः॥॥श्री चाहमा- उजनो सज्जनो भुवः । वैकुतं कुतंपासोगा [यत] वै कु[त] नतितिराजवंशः पौवोप्यपूर्वो नि (न) जडावनद्धः। पालकः ॥ २०॥ जावालिपुरं वाला [पुरं कृता पल्लि भियो न चां
कापि पल्लीव । नब (वि) लतुल्यं रोषा (.) ()[गो] [नच रंध्रयुक्तो नो निः फलः सारयुतो
लं येन सौ(शौ)यण ॥२१॥प्रतोल्यां च बलभ्यां च मतो नो॥१०॥ लावण्वनिर्मलमहोज्य (ज्ज्व)लितांग- येन विश्रामितं यशः ।, दिल्लिकाग्रहणशंत माशिक पष्टिरच्छोच्छनच्युचि पयः परिधान धा [बी][उत्तं] भितं (तम्)॥ २२ ॥ तज्ज्येष्ठ भ्रातृपुत्रोऽभूत्पृथ्वीराजः ग पर्वतपयोधरभारभुग्ना शाकंभ [स] अनि जनीव पृथूपमः । तस्मादजितहेमांगो हेमपब्वंतदानतः ॥ २३ ॥ ततोपि पिच्चो॥19॥ विप्रः श्रीवत्सगोत्रभूवहिही अतिधर्मरतेनापुरे पुरा । सामंतोमंतसामन्तः पूर्णतल्ले (लो) (१ पि पार्श्वनाथ स्वयंभुवे । द मोरामरी प्रामं नृपस्ततः॥ १२॥ तस्माच्छीजयराज विग्रहनृपो श्रीचन्द्र- भुक्तिमुक्तिश्च हेतुना ॥ २४॥ स्वर्णादिदाननिवहेशभिगोपेन्द्रको तस्मादु [] भगूवको शशि
म्महशिस्तोलानरेग्नंगरदानचयेश विप्राः । येनाञ्चिता
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किरण १.]
विजोलियाके शिलालेख
[ ३६३
स्श्चतुरभूपतिवस्तुपालमाक्रम्य चास्मनसिद्धिकरी गृहीतः श्वराः षट्भे () देवियवस्य (श्य) वापरिकरा षट्कर्मक।॥ २५ ॥ सोमेश्वरालव (ब्ध) राज्यस्ततः सोमेस्व (कल्ट)सादराः [ षट्षं (ख) बावनिकीर्तिपालनपराः (श्व) रो नृपः [1] सोमेस्व (श्व) रमतो यस्मा- प (षा) गुगु) ग्यचिंताकराः पहा) () ज्जनः सोमेस्व (श्व)रो भवत् ॥ २६ ॥ प्रतापलंकेस्व ज भास्करा [] समभवः पदे (र देशलस्यांगजाः ॥४ (श्व) र इस्यभिख्यां यः प्राप्तवान् प्रौढ़ पृथु प्रतापः [1] श्रेष्टी (ष्ठी) दुधकनाथकः प्रथमकः श्री मोसलो वीगटिवयस्याभिमुख्ये वरवैरिमुख्याः केचिन्मता केचिदभिद्रुताश्च स्पर्श इतोपि सीयकवरः श्रीराहको नामतः एते तु मतो ॥ २७ ॥ येन श्री
जिनक्रमयुगांभोजैकभृगोपमा मान्या राजशवदाम्यमतयोः (१२) पार्श्वनाथाय रेवातीर स्वयंभुवे । सा (शा) सने राजंति जंबू ५) त्सवाः ॥४२॥ हम्य श्री बर्द्धमानस्यारेवणाग्राम दार्च स्वर्गाय कासया ॥२८॥ अय कारापक जयमेरोविभूषणं णम्)| कारितं चैम्महाभागैम्बिवंशानुक्रमः ॥ तीर्थ श्रीनेमिनाथश्च राज्ये नारायणस्य च। (१६ मानमिव माकिनां (नाम् ) ॥४३॥ तेषामंतः श्रियः अंभोधिमथनाहेब व (ब) लिभिव (ब) लशालिभिः॥२६॥ पात्र [सीय कः श्रेष्टि (ष्ठि) भूषणं (णम् । मंडलकर निर्गतः प्रवरा वंशार (१) व वः समाश्रितः । श्रीमाल- महादुर्ग भूषयामास भूतिना ॥४४॥ यो न्यायांकरसेचनकपत्तने स्थाने स्थापितः शतमन्युना ॥३०॥ श्रीमालशैलप्रव- जलदः कीत्तिं (ते) विधानं परं । सौजन्यांबु (5) जिनोरावचूलः प (५) बोत्तरसत्वगुरुः सुवृत (तः) । प्राग्वाट विकासनरविः पापादि भेदे पविः [0] कारुण्यामृत चारिधेवंशोऽस्ति ब(ब)भूव तस्मिन्मुक्तोपमो वैश्रवणाभिधानः॥३१॥ विलसने राकाश [स] (शा) को [प] मो नित्यं साधुजनोपतहागपत्तने येन कारित
कारकरणव्यापार व (ब) द्धादरः॥४५॥ येनाकारि जितारि(१३) जिनमंदिरं (रम्)। तीर्वा] भ्रांस्वा यस (श)
नेमि भवनं देवद्विगोदरं चंचकांचनचारुदंडकलसस्तन्वमेकत्र स्थिरतां गतां (तम् ) ॥३२॥ योऽचीकरश्चंद्रसु
श्रेणीप्रभाभास्वरं (रम्) । खेलखेचर सुन्दरीश्रमभर (२)रि (चि) प्रभाणि ज्यानरकावी जिनमंदिराणि । कीर्ति- भंजनजोद्वीजमंत्तेष्टापदशेख )गजिनमृत्योहामसा
मारामसमृद्धि हेतोविभांतिकदाइव थान्यमंदाः ॥३३॥ कल्लो- श्रियं ( यम् ) ॥४६॥ श्री सीवकस्यभायें है। लमांसलितकीर्ति शुद्धा (धा) समुद्रः। सर् (द्वि)द्धिवं (ब) (१७) सौ नागश्रीमामटाभिधे (1) भाषायास्तुख (4) धुरवधू' (घ) रणेध [री (1) शः।] [भू] [स] पोकार यः पुत्रा द्वितीयायाःसुतद्वयं (यम्)॥७॥ पंचाचारकरण प्रगुणांतरात्मा श्री चच्चुलस्वतनयः [-~- परायणास्ममतयः । पंचांग मंत्रोव (ज्ज्व) लाः। पंचज्ञानपदेऽभूत् ॥३४॥ शुभंकरस्तस्य सुतोजनिष्ट शिष्टमंहिष्ठः विचारणा सुधुतुराः । पंचेंद्रियार्थोजयाः। श्रीमपंचगुहपरिकीर्यकत्तिः॥(1)श्रीजासटोसूत तदगजम्मा यदंग प्रणाममनसः पंचाणुराखवताः पंचते तनयाः गृह [तवि] जन्मा खलु पुण्यरासि (शि)॥॥३॥मंदिरं वर्द्ध- नयाः श्रीसीयकठिनः ॥४८॥ प्राय [:] श्रीनागदे
मानस्य श्रीनारायाकथित भाति वोऽभूलोलाकश्चोज्व (ज्ज्व) जस्तथा। महीधरो देवधरो याकीिययमियोsa
n द्वावेतान्य मातृजी ।। ४६ ॥ उज्व (ज्व) लस्यांग जन्मानी चत्वारश्चतुराचाराः पुत्राः पात्र शुभश्रियः। प्रमुण्यामध्य- श्रीम[3] लंभलपमणी । अभूतां भुवनोग्रासियसो धर्माणोर्च (ब) भूर्भाज (य) योईयोः ॥३७॥ एकस्यां (शो) दुर्लभ लचमणी ॥५०॥ गांमीय जलस्थिरस्व द्वावजायेतां श्रीमदाम्बटपटी । अपरस्यां [मु तो जातौ] मचलातेज[श्री मल्ल] मटदेसलौ ॥३॥ पाकाणां नरवरे वीरवेश्म- (१८) स्विता (तां) भास्वतः । सौम्यं चंद्रमसःसु (२) कारणपाट (बम्)। प्रकटितं स्वीयवित्तेन घा (धा)नु चिस्वममरश्री (स्त्री) तस्विनीतः परं (रम्)[1] एकक () नेव महीतलं (लम्) ॥३९॥ पुत्री पवित्रौ गुणरत्नपात्रो परिगृह्य विस्व (श्व) विदि [व] यो वेधसा सादरं मन्ये विशुद्धगानी समसी (शी) ल सत्यौ (स्यौ) [ व (ब) बी (बी)ज कृते कृतः सुकृतिना सा लोहकोटि (हि) भूवतुलचमटकस्य जैत्री मुनींदुरामेंदूमिद्धौ (धौ) प्रस (श) नः ॥११॥ अथागमन्मं [दिरमे] पकी श्री वि [ध्यव] स्तो (स्तौ) ॥४०॥
रुली धनधान्यव () बली (क्लीम् )। तत्रालु [लोचे(११) षट्वं (स्व) डागमबड सौहदभराषड्जीवर- हभि][तल्प सुप्तः] कंचिारेसं (0) पुरतः स्थितं सः
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अनेकान्त
३६४ ]
॥ ५२ ॥ उवाच कस्त्वं किमिहाभ्युपेतः कुतः स तं प्राह फणीस्व (श्व) रोहं (हम् ) । पातालमूलात्तव देशनाय [श्री] पारवनाथ स्वयमेष्यतीह ॥१३॥ प्रातस्तेन समुत्थाय न के (किं चन विवेचितं (तम् ) । स्वमस्यांतम्मनोभावा यतो वातादि दूषिताः ॥ १४॥ लोला
(११) क [स्य ] प्रियास्तिभ (स्त्री) व (ब) भूवुमनसः प्रियाः ॥ ( 1 ) ललिता- कमलश्रीश्च लक्ष्मी लक्ष्मी सनाभयः ॥ ५५ ॥ ततः स भक्तां ललितां व (ब) भाषे गत्वा प्रियां तस्य निसि (शि) प्रसुप्तां (ताम् ) [1] श्रणुष्व भद्रे धरणोहमेहि श्री [पार्श्वनाथ ] [ खलु द] श्यामि ॥ १६ ॥ तया सचोको [म] V-V
[ व (वं) (न) हि ] सत्यमेतत् । श्री पार्श्वनाथस्य समु दृष्टतिं स प्रासादमच्च च करिष्यतीह ॥ ५७ ॥ गरवा पुनरलौलिक मेवमूचे भो भक्त शक्तानुगतातिरक्त । देवे धने धम्मंविधौ जिनोटौ श्रीरेवतीतीरमिहाप पार्श्वः ॥ १८ ॥ समुद्धरेनं कुर (रु) धर्म्मकार्य एवं कारय श्रीजिनचे -
(२०) स्य गेहूं । येनाप्स्यसि श्रीकुलकीर्तिपुत्रपौत्रोरुसंतानसुखादिवृद्धिं (द्विम् ) ॥ ५६ ॥ त [ दे ] [ तनी ] माख्यं व (व) न मिह निवासो जिनपतेस्त एते प्रावाणाः (गः) शठकमठमुक्ता गगनतः । सधा ( दा ) रा [मः ] [ शश्वत्स ] दुपचयतः कुडसरित (तो) स्तदत्रैतत् स्थानं [नि ] गमं प्राय परमं (मम् ) ॥ ३० ॥ अत्रास्त्युत्तम मुन्तमादि (द्रि) सिष (शिख) रं सार्द्धं (धि) ष्ठ मंचोच्छ्रितं । ती* श्रीवरलाइकात्र परमं देवोति मुक्ता मिधः । सत्यश्चात्र घटेस्व ( श्व) रः सुरनतो देवः कुमारे स्व ( श्व) रः सौभाग्येस्व ( श्व) रदक्षिणेस्व ( श्व) र सुरो मारिच्छे स्व (ब) रौ ॥ ६१ ॥ सत्योंबरेस्व (श्व ) रो देवी महा स्व ( श्व) रा वपि । कुटि
(२१) लेशः कक रेशो यत्रास्ति कपिलेस्व ( श्व) र ॥ ६२ ॥ महानाल महाका [लभ] रथेस्व (स्व) रसंज्ञकाः | श्री त्रिपुष्करतां प्राप्ता [ : संति ] त्रिभुवनाच्र्च्छिताः ॥ ६३॥ क (की) सिंनाथं (थ) च (श्र) [ के ] [ दार ] ...... .......... मिस्वामिनः [] संगमीसः (मेशः ) पुटीस (श) श्र मुखेव ( श्व) र [ वटे ] स्व ( श्व ) राः । [ । ६४ ॥ नित्यप्रमोदितो देवो सिद्ध े स्व ( श्व) र गया (ये) धु (श्व) राः [] गंगाभेद व ] सोमी (मे) शः गङ्ग (ङ्गा) नाथ त्रिपुरांतकाः ॥ ६४ (६५) ॥ संस्नात्री कोटिलिगानां यत्रास्ति कुटिला ना (न) दी । स्वर्णजालेस्व ( श्व) रो
किरण १०
देवः समं कपिल धारयाः ॥ ६५ (६६) || नाल्प मृत्युम्नं वा रोगा न दुर्भिक्षमवर्षणं (राम्) । यत्रदेव प्रभावेन कलि
(२२) पंक प्रघर्षणं (म्) ॥ ६६ (६७) ॥ षयमासे जायते यत्र शिवलिंगं स्वयंभुवं ( वम् ) । तत्र कोटीस्व( श्व) रे तीर्थे का श्लाघा क्रियते मया ॥ ६७ ( ६८ ) ॥ इत्येवं ज
कृत्वा वतारक्रियां ( याम् ) | कर्त्ता पाव जिनेस्व ( श्व) रोत्र कृपया सोयाच वासः पतेः शक्त े मैं (वें) किविक [:] श्रियस्त्रिभुवनप्राणि प्रबोधं प्रभुः ॥ ६८ (६१) ॥ इत्याकर्ण वचो विभाव्य मनसा तस्योरगस्वामिनः स प्रातः प्रतिवु (बु) ध्य पास्वं ( एवं ) मभितः क्षोणीं विदार्य क्षणात् areas विभुं ददर्श सहसा निःप्राकृताकारिणं कु डाभ्यर्णत एव धाम दधतं स्वायंभुवं श्रीश्रितं (तम् ) ॥६९ ( ७० ) ॥
(२३) नाशी (सी) थश्र जिनेन्द्रपादनमनं नो धर्मकर्म्मार्जनं [न] [ स्नानं ] न विलेपनं न च तपो ध्यानं न दानार्च्चनं ( नम् ) नी वा सन्मुनिदर्शनं [न][~~ - ] [ यत्रेतन्निखिलं बभूव
सदनं ] - [ ॥ ७० (७१) ] ॥ तस्कुड मध्यादथ निर्ज्जगाम श्रीसीयकस्यागमनेन पद्मा । श्री क्षेत्रपालस्तदथांबि (वि) का च [श्री ज्या] लिनी श्रीधरणोरद्रः ॥ ७१ ( ७२ ) ॥ यदा वतारमकार्षीदय पार्श्वजिनेस्व ( श्व) रः [] तदा नागदे यक्ष गिरिस्तवः (धः ] प्रपात मः ॥ ७२(७३ ) ॥ यतोपि दत्तवान् स्वप्नं लक्ष्मणः ( ) ह्मचारिणः । तत्राहमपि यास्यामि यत्र पार्श्वविभुम्र्मम ॥७३ (७४) ॥ रेवतीकुंड
(२४) नीरेण या नारी स्नानमाचरेत् [ ] सा पुत्र सौभाग्यं [ल] चमी च ] लभते स्थिरं ( रम् ) ॥७४ ( ७२ ) ॥ ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि [वै] श्यो वा शूद्र एव वा । रेव] ती स्नानकर्त्ता [ श्रः ] स प्रामोत्युत्तमां गतीं ( तिमू ) ॥ ७२ (७६) ॥ घ[ नं] धा (नं (न्यं) घ[सं धाम धैर्यं धौरेयतां धियं - ( यम् ) । धराधिपति सम्मानं लक्ष्मी चाप्नोति पुष्कलां (लाम् ) ॥ ७६ (८७) ॥ तीर्थापर्यमिदं जनेन विदितं यद्गीयते सांप्रतं कुसृ (छ) प्रेतपिशाच कुज्वररुजाहीनांग गंडापहं [हम् ] 1 संन्यासं च चकार निर्गतभयं धूकसमालीद्वयं काकी नाकमवाप देवकलया किं किं न संपद्यते ॥ ७७ [७८] श्लाघ्यं जन्म कृतं धनं च सफलं नीता प्रसिद्धिं मतिः ।
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विजोलियाके शिलालेख
किरण १०]
(२५) सद्धम्मपि च दर्शितस्तनुरुहस्वप्नोपित [:] सत्यता (ताम् ) । रदृष्टिदूषितमनाः (ड) ष्टिमार्गे कृतो जै [ ने ]
- [ सुकृति ] ना श्री लोलक ष्ठिनः ॥ ७८ (७६ ॥ किं मेरोः शृङ्गमेतत् किमुताहमगिरेः कूटकोटिप्रकांडं किं वा कैलासकट किमथ सुरपते स्वविमानं विमानं (नम् ) [1] इत्थं यत्तयते स्म प्रतिदिन ममरैम (मं) त्यराजो - tator मन्येश्री लोलकस्य त्रिभुवन भरणादुच्छ्रितं कीर्तिपुजं जम् ॥ ७६ ८० ) ॥ पवनधुतपत ता ) कापाणि भव्य मुख्याम् पटुपटहनिनादादा ह्वयत्येष जैनः | कलिकलुषमाच्चैरमुत्सारयेद्रात्रिभुवन वि-
"
(२६) [भु ] [ ला ] भान्नृत्यतीवालयोयं ( यम् ) ॥ ८० (८१) ॥ [ काश्र [रस्था ] नक माधरंति दधते काश्चिच्च गीतोत्सवं काश्चिद्वि ( द्वि ) अति तालवं (कं) स (सु) ललितं कुब्वैति नृत्यं चकाः । काश्विद्वायमुपानयंति निभृतं । वीणास्वरं काश्चन यांचेर्ड ध्वज किंकिणीयुवतयः केषां मुदे नाभवन् ॥ ८१ (८२ ) ॥
यः
सतयुतः सुदीक्षिकलितम्बासादिदोषोज्झितश्चिंताख्यातपदा`दानचतुरश्चितामणेः सोदरः । सोभूद्वीजिनचन्द्रसूरि सुगुरुस्तत्पादकेरुहे यो भृङ्गायत एवलोलक - वरस्तीर्थं चकार सः ॥ ८२ (८३) ॥ रेवत्याः सरितस्तेटतरुवरा यत्राह्वयंते भृशं ॥
(२७) शाखावा (बा) हुलतोत्करैर्न [रसु] राम्पु कोकिलानां रुतैः । मत्पुष्पोच्चयपत्रसफलचयै शनि [ ] [लै ] वरिभिर्भो भोभ्यर्च्चयता भिषकयत वा श्रीपावंनाथं विभुं (भुम् ॥ ८३ (८४ ) ॥ यावत्पुष्करतीर्थ सैकतकुलं यावच्च गंगाजलं याचत्तारक चन्द्रभास्करकर ( रा ) यावच्च दिक्क 'जराः । यावच्छ्रीजिनचन्द्रशासन मदं यावन्म[हें] द्रं पदं तावत्तिव्य (ठ) तु यः प्रशस्ति सस्ति सहितं जैनस्थिरं मन्दिरं ( रम् ) ॥ ८४ (८५) ॥ पूर्खतो रेवतीसिंधुवस्यापि पुरं तथा । दक्षिणस्यां मठस्थानमुदीच्यां कुरमुतडमं (मम् ) ॥ ८ ( ६ ) | दक्षिणोत्तरतो वाटी नाना वृक्षैरलंकृता । कारितं
(२८) लोलिकेनैतत् सप्तायतन संयुतं (तम् ) ॥ ८६(८७ ) ॥ श्री मम्मां (न्मा ) [ थु ] रसिं ( सं ) घेभूरामद्रेण महामुनि [ : ] कृता प्रस ( श ) स्तिरेषाश्च (च) कवि [ कं ] ठ [वि] भूषणा (म्) ८७ (८८ ॥
[ ३६५
नैगमान्वय कायस्थ छीतगस्य च सूनुना । लिखिता केस (श) वेनेदं (यं / मुक्ताफलमिव (वो) जय ( ज्यं, ना ॥ ५ ८8 ) || हरसिंग सूत्रधाराय तत्पुत्रो पाल्हो भुवि । तदंगजेमाह डेनापि निम्र्मापित जिनमंदिरं ( रम् ) ॥ ८६ (३० ) ॥ नानिगः ( ग ) पुत्र गोविंद पाहूणसुतदेल्हणौ । उत्कीर्णाप्रस (श) स्तिरेषा च कीर्तिस्तंभ (भः) प्रतिष्ठितं ( 1 ) ॥ ६० (३१) ॥ प्रसिद्धि मगमदेव: काले विक्रमभास्वतः । पछि (डिव ) स ( श ) द्वादशशते फाल्गुने कृष्ण पक्षके ॥ ६१ ( १२ ) ॥
(२) [तृ] तीयायां तिथौ वारे गुरु (रौ) स्ता (ता ) मेरे च हस्तके। धृतिनामनि योगे च करणे तैतिले तथा ॥१] [२] ( १३ ) ॥ [ सं ] वत् १२२६ फाल्गुन वदि ३ [ 1 ] कांवारेवरणाग्रामयोरतंराले गुहिल पुं ( पु ) त्र रा० दाधरमहं घणसी (सिं) हाभ्यां दत्त ( ता ) क्षेत्र डोहली १ ।। खदु वराग्राम वास्तव्य गौड सोनिगवासुदेवाभ्यांदस (त्ता) डोहलिका १ | | | श्रांतरी प्रतिगणके रायताप्रामीय महं (ह) समली डिपोप लिभ्यां दत्त (सा) क्षेत्र डोहलिका [1] बडौवा ग्रामवास्तव्य पारिग्रही आल्हणेन दत (त्ता) क्षेत्र डोहलिका [] लघुवी कोलीग्रामसंगुहिलपु रा० व्याहरूमहं ( है ) तममाहवा
(३०) [भ्यां द] स ( ता ) से [] डोहलिका १ [1] व (ब) हुभिर्व्वसुद्धा (घा) मुक्ता राजभिर्भरतादय (दिभिः ) । यस्य यस्य [य] दा भूमी तस्य तस्य तदा फलं (लम्) |छ एपिग्राफिका इंडिका भाग २६, पृ० १०२ ) दुसरा शिला लेख
श्री गुरुभ्यो नमः । श्रीमत्परमगंभीरं स्याद्वादमोधलांछन । जीयास्त्रैलोक्य नाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ श्रीबलात्कारगणे । सरस्वतीगच्छे श्री महि ( मूल ) संधे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीवसंतकीर्तिदेवास्तत्पट्ट े भट्टारक श्रीविशातकीर्तिदेवास्तत्पट्ट भट्टारक श्रीदमनकीर्ति देवास्तत्पट्ट भट्टारक श्रीधर्मचन्द्रले वास्तत्पट्टे भट्टारक श्री रत्नकीर्तिदेवास्तत्पट्ट े भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्र देवास्तत्पट्ट भट्टारक श्रीपद्मनदिदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेवाः कस्य तीर्थंकरस्येव महिमाभुषनातिगः । रत्नकीर्तियति स्तुत्यः स न केषाम् ॥ १ ॥ अहंकार स्फारो भवदमित वे विबुधोलसत्कांत श्रेणी उपण निधनोति श्रुतिचुरः श्रधीती जैनेन्द्र जनि रजविनाथ प्रतिनिधिः प्रभाचन्द्रः सांद्रोदयशमितताय व्यतिकराः ॥ २ ॥ श्रीमत्प्रभाचन्द्र
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अनेकान्त
[ किरण १०
श्री कुन्दकुन्दोहि मुनि र्श्वभूव । पदेष्वेनकेषु गतेषु तस्माच्छ्री धर्मचन्द्रो गणिषु प्रसिद्धः ॥ ६ ॥ भवोद्भवपरिश्रम प्रशमकेलि कौतूहली । सुधारस समः सदा जयति यद्वचः प्रक्रमः स मे मुनिमतल्लिका"
fuse मल्लिकाजित्वर, प्रसृत्वर यशोमरो भवतु रत्नकीर्तिमुदे ॥ ७ ॥ प्रसद्वेद्यन्ति प्रशमनपटुः सौगतशिरः करोटी कुट्टा ककषितग्वरचावनिकरः । अहंकारः स्मेरः स्मरदमन दीक्षापरिकरः । प्रभाचन्द्रोजीयाजिनपतिमतांभोनिधिविधुः ॥ ८ ॥ श्रीपद्मनन्दिविद्वन् विख्याता त्रिभुवनेऽपि कीर्तिस्ते । हारति हीरति हसति हरोशंस मनुहरति ॥ १ ॥ एके तर्कवितर्क कर्कशधियः केचित्परं सादसा अन्ये लक्षण लक्षण। परम् 'धौरेय सारः परे । सर्वप्रन्थरहस्यधौतधिषणो विज्ञानवाचस्पतिः, क्षोणीमण्डल मण्डनं भवति ही श्रीपद्मन्दिगुरुः ॥ १० ॥ श्री मत्प्रभेन्दुपट्ट स्मिम्पद्मनन्दी यतीश्वरः । तत्पट्टाम्बुधि सेवीव शुभचन्द्रो विराजते ॥ ११ ॥ गंभीरध्वनि सुन्दरे समरे चारियल म्याकरे कारुण्यामृत देवते गुणग
३३६ ]
मुंगीन्द्र पट्ट लभ प्रतिष्ठा प्रतिभागरिष्ठः विशुद्ध सिद्धांतरहस्य रस्म रस्माकरो नंदतु पद्मनंदि ॥ ३॥ पद्मनंदि सुने पट्ट े शुभबन्द्रो यतीश्वरः । तकiदिक विद्यासु [पदं) धारोस्ति साम्प्रतं ॥४॥ पट्ट श्री यति पद्मनंदि विदुषश्च चारित्रचूडामणिः समस्याकैरव कुलं तुष्टि परां नीतिवान् । व.पी बन्ध वः प्रसादमहिमा श्रीमच्छुभे दुर्गुणो मिभ्ययातं विनाशनैक सुकरः सः च चिन्तामणिः ॥ ॥ श्रार्या घाई लोकसिरी, विनयसिरि तस्याः शिक्षणी वाई चारित्रसिरि । बाई चारित्रकी शिक्षण वाई श्रागमसिरि बाईश्वरि ... तस्था इयं निषेधिकाश्राचन्द्र तारकाक्षय॥ संवत् १४८३ वर्षे फाल्गुन सुदि ३ गुरौ । निषेधिका जैन आर्या वाई श्रागम श्री शुभमस्तु ।
तीसरा शिलालेख
ॐ यो नमः | स्वायंभुवं चिदानन्दं स्वभावे शाश्वतोदयम् । धामध्वस्ततमस्तोम ममेयं महिम स्तुमः ॥ १ ॥ श्रव्यांपेतमपि व्ययोदययुतं स्वात्म क्रम" लोक व्यापि परं यदेकमपि चानेकं च सूक्ष्मं महत् । श्री चन्दामृतपूर पूर्णमपि यच्छून्यं स्वसंवेदनम् । ज्ञानाद्गम्यमगम्यमप्यभिमत प्राप्त्यै स्तुवे ब्रह्मतात् ॥२॥ स्वमर्क सोमोवृत [भूत] लेस्मिन् घनान मूर्तिः किमु विश्वरूपः । खष्टा विशिष्टार्थ विमेद दक्षः स पार्श्वनाथस्तनुतां श्रियं वः ॥३॥ श्रीपाल नाथ क्रियतां श्रियं वो जगत्त्रयी नन्दितपादपद्मः । fruitsar बेन पदार्थ सार्थ: निजेन सज्ञान विल्लोचनेन ॥४॥ सद्वृत्ताः खलु यत्र लोकमहिता मुक्ता भवन्ति श्रियोः नानामपि भये सुकृजिनो यं सर्वेदोपासते । सद्धर्मामृतपूर पुष्टमनस्याद्वादचन्द्रोदयाः कांची सोनसनातनी विजयते श्री मूल संघ्रोदधिः ॥ ५ ॥ श्रीगौतमस्थादि गणीश वंशे
पंचकल्याणक जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा उत्सव
'मोदी नगर उत्तर प्रदेश' में नव निर्मित श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिरको प्रतिष्ठा और श्री मिनबिम्बप्रतिष्ठ मितो माघ शुक्ला पंचमी तारीख १६ जनवरीसे माघ शुक्ल पूर्णिमा तारीख २३ जनवरी तक होगी निश्चित हुई है। प्रतिष्ठाके लिए आने वाली प्रतिमाजी सांगोपांग शास्त्रोक्त एवं मध्य होनी आवश्यक है और समयानुसार पाषाण की १ फुटसे कम ऊँचाईकी प्रतिमाएँ तथा चांदी सोने की कोई प्रतिमाएँ नहीं भेजनी चाहिए ।'
विनीत-प्रेमचन्द जैन
श्रेणी मणि दुस्तरे । सतमुखसत्" मविला कुले सागरे; पट्ट े श्रीमुनि पद्मनंदि....प्रभेन्दुर्गणी । ॥१२॥ महाव्रतैः योऽत्र विभूषितोऽपि संसक्तचेताः समितौ गरिष्ठः । तथा हि की समलिंगकश्च श्रीहेमकीर्तिरभवयतीन्द्रः ॥ १३ ॥ शिष्योऽयं शुभचन्द्रस्य हेमकीर्तिर्महान्सुधीः येन वाक्यामृते नापि पोषिता भव्यपादपाः ॥ १४॥ For........Ful***
विशुद्धा श्री हेमकीर्तियतिनः सुसिद्धः श्रास्तां च तावज्जगती तलेऽस्मिन् यावत् स्थिरौ चन्द्रदिवाकरौ च ॥ १२ ॥
सं० १४६५ वर्षे फाल्गुन सुदि २ बुधौ
संशोधन
समन्तभद्र वचनामृत के १०८वें पथके अनुवादकी तीसरी पंक्ति (पृ० ३४३) में डैश ' ( - ) के अनन्तर और ' तथा ' शब्द के पूर्व निम्न शद्व छपनेसे छूट गये हैं अतः पाठक उन्हें अपनी-अपनी प्रतिमें यथास्थान बना लेने की कृपा करें:
धर्मामृत को कानोंसे पीवें- धर्मके विशेषज्ञोंसे धर्मको सुने
-प्रकाशक
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किरण १०]
सग्रहात जन इतिहासका आवश्यकता
। ३६७
-
-
आचार्य श्री नमिसागरजी
प्रसिद्ध तपस्वी प्राचर्य श्री नमिसागारजी हिसारके चतुर्मासके बाद ७० वर्षकी इस वृद्धावस्था विहार करते और शीतादिकी अनेक परीषहोंको समभावस्ने सहन करते हुए, भारतकी राजधानी देहली में पुनः पधारे हैं।
ॐॐॐॐ संग्रहीत जैन इतिहासकी आवश्यकता
जैन पुरातत्वके स्कॉलरोंके लिए एक ऐसी पुस्तककी रहता है। अब प्रायः सभी उल्लेग्वनीय महापुरुषां और श्रावश्यकता है कि जिसमें समय-क्रमसे जैनधर्म और उनकी कृतियोंका समय प्रायः निर्णीत होचुका है, एतएव संस्कृतिका प्रमाणिक इतिहास हो । ऐतिहासिक अन्वेषण ईसा पूर्वके उस समयसे, जबसे कि जैन इतिहास पर प्रामाका कार्य यद्यपि कई कारणोंसे अभी तक अधूरा ही है, णिक प्रकाश पड सका है, ई०सन १७५० तकका इतिहास फिर भी जितना कुछ हो चुका है वह अनेक साप्ताहिक, अब तक की प्रकाशित सामग्रीके ऊपरसे संकलित करके पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक प्रादि पत्रोंमें अथवा ग्रन्थोंकी समय या शताद्वी-क्रमके अनुसार शीघ्र प्रकाशित होनेकी भूमिका आदिमें समय-समय पर खंड रूपसे प्रकाशित योजना होनी चाहिए । विषयक्रमकी सूची अन्तमें रहे। हुअा है और बादकी शोध खोजके कारण वह भी संभव साथ ही, जैन पुरातत्वके जानकार विद्वान और अन्वेहै कि किसी-किसी विषयमें विद्वान अपना मत बदल चुके षक महानुभावोंको कृपया यह बता देना चाहिए कि एपिमा हों। किसी विद्यार्थकि लिये खंड-खंड सामग्रीका जुटाना फिका इंडिका, गजेटियर, भ्रमणावृत्तान्त, जनरल आदि और उसको विषय-क्रमसे अथवा समय-क्रमसे अध्ययन आदरभूत सामग्रीका किस जिल्द, अंक या समय तकका करना अत्यन्त कठिन होता है। पत्रों में से कुछ लेख पाठ वे कर चुके हैं। उससे भिन्न या भागेका पाठ करके पुस्तक रूपमें प्रकाशित हुए हैं वे भी समय क्रमसे नहीं हैं विचारणीय विषय प्रस्तुत करने में विद्यार्थीगणोंका परिश्रम तथा बादकी शोध-खोजका परिणाम उन परसे भी अज्ञात लाभप्रद हो सकेन । -एन. सी. बाकलीवाल
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३६८ ]
एक सप्ताह में छुपकर तय्यार भारतके महान् जैन तीर्थ
श्रवणबेलगोल
पर
अपने ढंगकी पूर्व पुस्तक
लेखक - श्री राजकृष्ण जैन
अनेकान्त
भूमिका लेखक --- भारत - पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल श्री टी० रामचन्द्रन् एम ए. इस पुस्तकको पढ़कर आप घर बैठे श्रवणबेलगोल तथा दक्षिणके दूसरे जैनतीथोंकी यात्रा और श्री गोम्मटेश्वर स्वामीका पुनीत दर्शन करेंगे ।
आदर्श विवाह
[ किरण १०
खोजपूर्ण सामग्री, कई मनोमोहक चित्र, सुन्दर छपाई और आकर्षक रूप रंग; पृष्ठ संख्या सवासौके लगभग । फिर भी मूल्य केवल एक रुपया
अपनी प्रति शीघ्र ही सुरक्षित करा लीजिये फिर मिलना कठिन है । वितरण के लिए १०० या इससे अधिक प्रतियाँ लेने वालोंको मूल्यमें विशेष रियायत । किसी विशेष जानकारी तथा अपनी प्रतियोंकी सुरक्षा के लिए लिखें
हांसी निवासी
श्री बलवन्त.
सिंहजीके सुपुत्र श्रीवजभूषणजी
का पाणिग्रहण
संस्कार देहली
निवासी श्री
मुरलीधरजी डालमियाकी सुपुत्री श्री लीलावती जी के
वीर- सेवा मन्दिर
१ दरियागंज, देहली
साथ जैन विधिसे सानन्द सम्पन्न हुआ । वधूने पर्दा नहीं किया और अपने मप्त वचन स्वयं कह कर स्वीकार किये। विवाह करनेवाले विद्वान श्री ला० राजकृष्णजी, पं० परमानन्दजी शास्त्री ६० चन्द्रमौलिजी शास्त्री और बाघूलाल जी जमादार थे । संस्कार सम्बन्धी प्रत्येक बातको विद्वान समझाते जाते थे । इस विधिको देखने के लिए देहली प्रांतके शिक्षा मन्त्री किदवई, श्री देवदासगांधी, व अन्य २ प्रसिद्ध सज्जन पधारे थे । दान-दहेजका भरपाया नहीं था । वीरसेवामन्दिरको १०१) रु० श्री. बा० बलवंत सिंह जीने प्रदान किये ।
- सम्वाददाता
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वीरसेवामन्दिरके चौदह रत्न
(१) पुरातन जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-अन्यांकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों में
उद्धत दूसरे पयोंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पय-वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा. कालीदास नाग एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिग अतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
सजिन्द। (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचायकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति,प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
सरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे
युक्त, मजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पाथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृतम्प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांस अलंकृत, सजिल्द । (४) स्वयम्भूम्तात्र--समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियांग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण
प्रस्तावनामे सुशोभित । (७) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनामे अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमलकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित
और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनामे भूषित। " (७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञानसं परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं ___हुआ था । मुख्तार श्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिमे अलंकृत, सजिल्द।
।) (5) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ... ) (8) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थ परिचय )मुनि मदनकीतिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादित-सहित। (१०) सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्यों के १३७ पुण्य-स्मरणोंका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवादादि-सहित ।
... ) ११) विवाह-समुद्देश्य-मुख्तारश्रीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन " ॥) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गृढ गम्भीर विषयको अतीव सरलतासे समझने-समझानेकी कुंजी,
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित । (१३) अनित्यभावना-श्री पद्मनन्दी प्राचार्यको महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ
सहित । (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारधीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त । नोट-थे सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवार्लोको ३७॥) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला'
अहिंसा मन्दिर विल्डिग १, दरियागंज, देहली
...
)
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अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१०२) या० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १०१) बाट केदारनाथ बद्रीप्रसादजी सरावगी,,
१५०० ) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी २५१) बा० मोहनलालजी जैन लमेव २५.१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी २५) या ऋषभचन्द्र (B. R. ('. जैन २४१) बा० दीनानाथजी सरावगी २५१) बा० रतनलालजी भांगरी २५१) या० वल्देवदासजी जैन सरावगी २५१) मेठ गजराजजी गंगवाल २५१) सेट सुप्रलालजी जैन
२५१) या = मिश्रीलाल धर्मचन्द्रजी २५१) सेट मांगीलालजी २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जन २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया २५.१) ला कपूरचन्द्र धूपचन्दजी जैन, कानपुर २५१) वा० जिनेन्द्र किशोरजी जैन जौहरी, देहली २५१) ला राजकृष्ण प्रेमचन्द्रजी जैन, देहली २५१) बाट मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली २५१) लाट त्रिलोकचन्द्रजी महारनपुर २५.१) मंट कमीलालजी जैन फीरोजाबाद २५१) लाट रघुवीर सिंहजी, जैनावाच कम्पनी देहली
सहायक
१०१) बाट राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०९) ला०प. साड़ीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली १०१) बाट लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन
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33
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१०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) बाट लालचन्द्रजी जैन सरावगी
Regd. No. D. 211
35
१०१) बा० काशीनाथजी,
१०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी
४८१) बा. धनंजय कुमारजी
१०१) बा० जीतमलजी जैन
१०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी
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१०२) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची १८१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली (१०१) ला रतनलालजी मादीपुरिया, देहली १०१) श्री फतेहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता (१०२) गुप्तसहायक सदर बाजार मेरठ १०१) श्री श्रीमाला देवी धर्मपत्नी डा० श्रीचन्द्रजी जैन 'सगल' एटा
***४४४४
१०९) लाट मक्खनलालजी मोतीलालजी ठेकेदार, देहली १०६) चा फूलचन्द्र रतनलालजी जैन कलकत्ता १०५) बाः सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता १०१) बाट बद्रीदासजी सरावगी, कलकत्ता १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर १०१) बार महावीरप्रसादजी महवाकट हिसार १०४) ला बलवन्तसिंहजी हांसी १८१) कुँवर यशवन्तमिहजी हांसी
अधिष्ठाता 'वीर- सेवामन्दिर'
सरसाया, जि० सहारनपुर
परमानन्दजी जैन शास्त्री C/o श्रहिंसा मन्दिर १ दरियागंज देहली । मुद्रक-रूप-वाणी मिटिंग हाऊस दरियागंज, देहली
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श्री वीर-जिन का
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सर्वोदय ती
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नासर्वाऽन्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं
सर्वाऽन्त-शून्यच मिथोऽनपेक्षम सर्वा पदामन्तकरं निरन्ती सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
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श्रीवीर जिनालय
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Hom ASHMmaatranemals
SmaranMALEom सन एकानित्या जी
पुण्यालाकास्यभावाबत्यासामान्य असन् अनेकअनित्यजीव
पाप परलाका विभाव AMPARAMERA करतानाDAISINENEMATURESHEETACTERIKANT PARADA Aहिन हिंसासम्यका विचमामाचप्रादेवनयापताताआत्मा अहित अहिंसा मिथ्या अबिद्या
पुरुषाधाममाण अगमव/परमात्मा
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'दय/दम/न्याग/समाधि
शत/ सुमि/समिति/आराध
TER
AAAAT
तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधे-- - व्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कले येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्तन --कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिं वीरं प्रणोमि स्फुटम्॥
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विषय-सूची
१ सरस्वती स्तवन-मलयकीर्ति ... ३६२ ५ दक्षिण भारतमें राजाश्रय और उसका २ कुछ नई खोजें-[पं० परमानन्द शास्त्री ३७० अभ्युदय [श्री टी० एम० रामचन्द्रन एम० ए० ३७८ ३ सरस्वती भवनोंके लिये व्यावहारिक
६ वीर सेवा मन्दिरका संक्षिप्त परिचय ३८१ योजना [एन० सी० वाकलीवाल ... ३७४ [पं० जुगलकिशोर मुख्तार ४ सूतक-पातक विचार-रतनचंद जैन मुख्तार ३७६ ७ विद्वत्समाजकी दृष्टिम वीरसेवामन्दिर
* सूचना अनेकान्तके ग्राहकों और प्रेमी-पाठकोंसे निवेदन है कि वीर सेवा मन्दिर पारिवार 'श्रवणबेलगोल' की और अन्य तीर्थ क्षेत्रोंकी यात्रार्थ २६ जनवरीका जाता है। अतः इस वर्षकी १२६ किरण यात्रासे वापिस आने के बाद अप्रलमें प्रकाशित होगी। और नये वर्प (१२वीं) की प्रथम किरण जूनमें यात्रांक' नामसे विशेषांकरूपमें प्रकाशित होगी। सूचनार्थ निवेदन है।
-प्रकाशक
वण बेल्गोलमें वीरसेवामन्दिरका नैमित्तिक अधिवेशन
श्रवणबेल्गोलमें श्री बाहुबलीके मस्तिकाभिपकके शुभ अवसरपर वीरसेवामन्दिरका एक नैमित्तिक अधिवेशन होगा। जिसमें संस्थाके भावी कार्य-श्रमके सम्बन्ध में विचार किया जावेगा। अधिवेशनकी तारीखें बादको समाचार पत्रों द्वारा प्रकाशित कर दी जावेगी।
-व्यवस्थापक
राजकृष्ण जैन
अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग
(१) अनेकान्तके 'संरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना । (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दसराको बनाना। (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसर पर अनेकान्तको अच्छी महायता भेजना तथा भिजवाना। (४) अपनी ओरसे तृसराको अनेकान्त भेंट-स्वरूप अथवा फ्री भिजयाना; जैसे विद्या-संस्थायी, लायरिया,
समा-सोसाइटियों और जैन-श्रजैन विद्वानोंका । (१) विद्याथियों श्रादिको अनेकान्त अर्थ मूल्यम देनेके लिये २१),२०) श्रादिकी सहायता भेजना। २५) की
सहायतामें १० को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकांको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें दे ना तथा दिलाना। (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना।
महायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको
मैनेजर-'अनेकान्त' 'अनेकान्त' एक वर्ष तक भंट
वीरसेवान्दिर, अहिंसा मन्दिर बिल्डिंग स्वरूप भेजा जायगा।
१, दरियागंज, देहली
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ॐ अहम
त्सि
विश्व तत्व-प्रकाशक
वापिक मूल्य ५)
इस किरण का मूल्य ॥)
।
नीतिविरोधबंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त।
वर्ष ११ किरण ११
____सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वीरसेवामन्दिर, अहिसामन्दिर-बिल्डिंग १ दरियागंज, देहली पौष शुक्ल, वीर नि० सं० २४७६, वि० सं० २००६
।
।
जनवरी १९५३
सरस्वती-स्तवनम्
(भीविजयकीर्ति-शिष्य-मलयकीर्तिकृत) जलजनंदन-चन्द्रन-चन्द्रमा-महश-मृतिरिय परमेश्वरी । निखिल जाइय-जठोप्र-कुठारिका दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥१॥ वरद-दक्षिण-बाह-धृतानका विशद-बाम-करार्पित-पुस्तिका। उमय-पारिण-पयोज-धृताम्बुजा दिशतु मेऽभिमतानि सरम्बनी ॥२॥ विशद-पत्र-विहंगम-गामिनी विशद-पक्ष-मृगांक-महोज्वला। विशद-पक्ष-विनेय-जनार्चिता दिशतु मेऽभिमनानि सरस्वती ॥३॥ मुकुट-रत्न-मरीचिभिवगैर्वतया परमां गतिमात्मनी । भव-ममुद्र-तरी तु नृणां सदा दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वनी ॥४॥ परमहंस हिमाचल-निर्गता सकल-पातक-पंक-विवर्जिता। अमृत-बोध-पयः परिपूरिना दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥५॥ परमहंस-निवास-समुज्वलं कमलयाकृतवासममुत्तमं । वहत (ति) या बदनांबुरुहं सदा दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥६॥ सकल-वाङमय-मूर्तिधरा परा सकल-सत्त्वहितकपरायणा । सकल-नारदे-तुबरे-सेविता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥ ७॥ मलय-चन्दन-चन्द्र रज-कण-प्रकर-शुभ्र दुकूल पटव्रता । विशद-हंसकहारि-विभूषितां दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ।।८।। मलयकीर्तिकृता मति संस्तुतिं पठति यः सततां मतिमानरः । विजयकीतिगुरोः कृतसादरां समतिकल्पलताफलमश्नुते ॥६॥
इति सरस्वती-स्तवन समाप्तम् ।
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(पं० परमानन्द जैन शास्त्री) १मुनिपदमनन्दी-जैन साहित्यमें पधनन्दी नामके में चैत्रसुदीपंचमीके दिन देहलीके बादशाह पेरोजशासके राज्य भनेक प्राचार्य और विद्वान भट्टारक होगये हैं। उनमें प्रस्तुत कालमें - लिखी गई है। उसकी लेखक प्रशस्तिसे ज्ञात होता पानन्दी भधारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर है-शिप्य हैं,जो देहली- है कि उस समय भ. रत्नकीर्तिके पट्ट पर भ. प्रभाचन्द्र की भट्टारकीय गही पर आसीन थे और भट्टारक रत्नकीर्तिके प्रतिष्ठित हुए थे। तब उक्त' भ. प्रभाचन्द्र के शिष्य ब्रह्मपट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे । भ० पद्मनन्दी अपने समयके बहुत नाथूरामने उक्त अाराधना ग्रन्थकी पंजिका टीका धारमही प्रभावशाली और विद्वान भट्टारक थे। ये भट्टारक पद्म- पाठनार्थ लिखाई थी। इससे भट्टारक प्रभाचन्द्रका समय नन्दी वही हैं जिनकी प्रतिकृति बिजोलियाके मानस्तम्भाके विक्रमकी १५ वीं शताब्दीका पूर्वार्ध जान पड़ता है और पाषाणांमें अंकित है। इनके अनेक शिष्य थे, उनमें भट्टा- उनके पट्टधर मुनि पद्मनन्दीका समय कमसे कम २५ वर्ष रक शुभचन्द्र इनके पट्टधर शिष्य थे । और दूसरे शिष्य बादका समझना चाहिये। इस तरह उक्त मुनि पद्मनन्दी भ. सकलकीर्ति थे, जिनमे ईडरकी भट्टारकीय गहीकी विक्रमकी १५ वीं शताब्दीके मध्य कालके विद्वान निश्चित परम्परा चली है। यह अपने समयके बहुत ही प्रभावक होते हैं। विद्वान और तपस्वी थे, इनके शिष्योंमें मतभेद होजानेक मुनि पद्मनन्दीने अपने श्रावकाचारकी प्रशस्तिमें भट्टाकारण भहारकीय गहीकी दो परम्परा चालू हुई हैं, एक भ० रक रस्नकीर्तिका भी आदर पूर्वक उल्लेख किया है। प्रशस्तिमकल कीर्तिकी, और दूसरी देवेन्द्रकीतिको इन्होंने अनेक में उक्त श्रावकाचारके निर्माण में प्रेरक लंबकंचुक (लमेच) अन्योंकी रचनाकी है। इनका समय भी विक्रमकी १५ वी कुलान्वयी साह वासाधरके वंशका परिचय भी दिया हुआ शताब्दीका मध्य और कुछ अन्तिम भाग रहा है। है। साहू वासाधरके पितामह 'गोकर्ण' थे, जिन्होंने
भट्टारक पद्मनन्दीका निम्न ग्रंथ उपलब्ध हाई 'सूपकारसार' नामके एक ग्रन्थकी रचना भी की थी। जिसका नाम 'श्रावकाचार मारोद्धार है। इस प्रन्थ में तीन इन्हीं गोकर्णके पुत्र सोमदेव हुए। इनकी धर्मपत्नीका परिच्छेद हैं जिनमें गृहस्थ-विषयक माचारका प्रतिपादन नाम 'प्रेमा था उसमे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे। वायाधर. किया गया है। ग्रन्थमें रचनाकाल दिया हुआ नहीं हैं
हरिराज, प्रह्लाद, महाराज, भवराज, रतन और मतनाख्य । जिससे यह निश्चय करना अत्यन्त कठिन है कि यह ग्रन्थ
इनमें साह वासाधरकी प्रार्थनामे ही उक्त ग्रन्थ रचा कर रचा गया है, ग्रन्थकी यह प्रति वि० सं० १९६४ की
गया है। लिग्बी हुई है। जिससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि
प्रस्तुत पद्मनन्दीने इस श्रावकाचारके अतिरिक्त और मुनि पद्मनन्दी सं० १५६४ से पूर्ववर्ती हैं, कितने पूर्ववर्ती हैं।
किन किन अन्योंकी रचनाकी है यह विषय ग्रन्थ भंडारोंके यह नीचेके विचारोसे स्पष्ट होगा।
___पेरोजशाह तुगलक सन् १३५७ में दिल्लीके तख्त 'भगवती भराधनाकी पंजिका ® टीका जो संवत् १४१६
पर बैठा था, उसने सन १३५१ से सन् १३५८ तक अर्थात
वि० संवत् १४०८ से संवत् १४४५ तक राज्य किया है। ® "संवत् १४१६ वर्षे चैत्रसुदि पंचम्यां सोमवासरे . संवत् १४४५ में उसकी मृत्यु हुई थी। इससे स्पष्ट है कि सकलराजशिरोमुकुटमाणिक्यमरीचि पिंजरीकृतचरणकमल भट्टारक प्रभाचन्द्र रत्नकीर्तिके पट्ट पर सं० १४०८ के बाद पादपीठस्य श्रीपेरोजमाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविभ्राणस्य ही किसी समय प्रतिष्ठित हुए थे। समये श्री दिल्या श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वती गच्छे + 'सूपकारसार' नामका यह मय अभी तक मास बलात्कारगणे महारक श्री रत्नकीर्तिदेवपहोदयाद्रितरुण- नहीं हुआ। इसका अन्वेषण होना चाहिये । संभव है वह तरणित्वमुकुर्वाणं भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेव तरशिष्याणां किसी प्रथभंगारकी कालकोठरीमें अपने शेष जीवनब्राह्मनाथूराम इल्याराधना पंजिका (१) अन्य प्रात्मपठ- की पलियां बिता रहा हो, और वोज करनेसे वह प्राप्त मार्थ खिखापितम् ।"
हो जाय।
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[किरण ११
कुछ नई खोजें
अम्वेषणसे सम्बन्ध रखता है, इस सम्बन्ध में मेरा अन्वेषण यह ग्रन्थोंका अनुपावन किये विना निर्णय नहीं हो सकता, कार्य चालू है। अभी हालमें अनेकान्तकी वर्ष"किरण उन ग्रन्थोके नाम इस प्रकार हैं। ७-८ में प्रभाचन्द्र के शिष्य पणनन्दीकी भावनापति' सिद्धचक्रपाठ, २ मन्दीश्वरप्रतकथा, ३ अनन्तव्रतकथा, जिसका दूसरा नाम भवना-चतुस्त्रिंशतिका' है। पचनन्दि ४ सुगन्धदशमी कथा, ५ षोडशकारणकथा, ६ रत्नत्रयव्रतमुनि द्वारा रचित एक 'वर्द्धमान चरित्र' नामका एक संस्कृत कथा, ७ आकाशपंचमी कथा, रोहिबीबतकथा, धनग्रन्थ जो सं० १५२१ फाल्गुण वदि . मी का लिखा हुमा कलशकथा, १० निर्दोषससमी कथा, ११लब्धिविधानहै गोपीपुरा सूरतके शास्त्रभंडार और ईडरके शास्त्र- कथा, १२ पुरन्तरविधानकथा, १३ कर्मनिर्जर चतुर्दशीवतभंडारमें विद्यमान है, बहुत संभव है कि वह इन्हीं कथा, १४ मुकुट सप्तमी कथा, १५ दशलाक्षिणीव्रतकथा, पचनन्दीके द्वारा रचा गया हो । ग्रन्थ प्राप्त होने पर १६ पुष्पांजलिव्रतकथा, १० ज्येष्टजिनवरकथा, १८ अक्षयउसके सम्बन्ध विशेष प्रकाश डालनेका यत्न किया निधि दशमीव्रतकथा, १६ निःशल्याष्टमी विधान कथा, जायगा।
२० रक्षाविधान कथा, २१ श्रुतस्कन्ध कथा, २२ कंजिका२. ललितकीर्ति-यह भट्टारक ललितकीर्ति काष्ठा
वनकधा, २३ सप्तपरमस्थान कथा, २४ षटूरसकथा। संघ माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक श्री जगत
___ऊपरके कथनसे भट्टारक ललितकोतिका समय विक्रमकी कीर्तिके शिष्य थे। जो दिल्लीकी भट्टारकीय गहीके पट्टधर थे। १६ वा शता यह बड़े विद्वान और वका ल काजीनिय ३ पंडित जगन्नाथ-इनका वंश खण्डेलवाल था थे। भ० ललितकीर्तिके समयमें देहलीकी भट्टारकीय गद्दीका
और यह पोमराज श्रेष्ठीके लघुपुत्र थे । इनके ज्येष्ठभ्राता महत्व लोकमें ख्यापित था। आपके पास देहलीके बादशाह
वादिराज थे, जो संस्कृतभाषाके प्रौढ़ विद्वान और कवि अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रदत्त वे बत्तीस फर्मान और
थे। इन्होंने संवत् १७२ में वाग्भट्टालंकारकी 'कविचन्द्रिका' फीरोजशाह तुगलक द्वारा प्रदत्त भट्टारकांकी ३२ उपा- नामकी एक टीका बनाई थी, जो अभी तक अप्रकाशित है। धियाँ सुरक्षित थीं । परन्तु खेद है कि ग्राज उनका पता भी इनका बनाया हुआ 'ज्ञानलोचन' नामका एक स्तोत्र भी नहीं चल रहा है, वे कहां और किसके पास हैं ? भट्टारक है जो माणिकचन्द्र दि० जन ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो बलितकीर्ति दहलीसे कभी कभी फतेहपुर भी शाया जाया चुका है । यह तक्षक (वर्तमान टांडा) नामक नगरके निवासी करते थे और वहां महीनों ठहरते थे। यहां भी आपके थे। पं.दीपचन्द्रजी पाण्ड्या केकड़ीके पास एक गुटका है अनेक शिष्य थे। सम्यक्त्वकौमुदी संस्कृत की ५ प्रति जिसके अन्तकी संवत् १७५१ की मगशिर बदी की सं. १८९१ में भ. ललितकीर्तिके पठनार्थ जेठ वदी १२ लिपि प्रशस्ति ज्ञात होता है कि साह पोमराज श्रेष्ठीका को फरुखनगरके जैन मन्दिरमें माहबरामने जिवी थी। गोत्र मोगानी था और इनके पुत्र वादिराजके भी चार पुत्र
प्राचार्य जिनसेनके महापुराणकी संस्कृतटीका इन्द्री थे, जिनके नाम रामचन्द्र, लालजी, नेमीदास, और भधारक ललितको निका
विमलदास थे। विमलदासके उक्त समयमें टोडामें उपद्रव तीन भागोंमें बांटा है। जिनमें प्रथम भाग १२ पाकार हुआ और उसमें वह गुटका भी लुट गया था, बाद में उसे जिसे उन्होंने संसारमा प्रतिपक्ष छुड़ाकर लाये जो फट गया था उसे संवारकर ठीक किया रविवारके दिन समाप्त किया था। और ४३वे पर्वसे ४७३
गया। गया। ४ वादि
वादिराज राजा जयसिंहके सेवक थे-अर्थात् वे पर्व तक ग्रन्थकी टीकाका दसरा भाग है। जिसे उन्होंने जयपुर राज्यके किसी ऊचे पद पर प्रतिष्ठित थे। सं. 1मर में पूर्ण किया है। इसके बाद उत्तरपुराणकी x प्रस्तुत गुटकेकी प्रथम प्रति सं० १६१० की लिखी टीका बनाई गई है। महापुराण की इस टीकाके अतिरिक्त हुई थी उसी परसे दूसरी कापी सं. १७१७ में की भट्टारक खलितकीर्तिने अन्य किन किन ग्रन्थोंकी रचनाकी गई है:है यह निश्चयतः नहीं कहा जा सकता। हां, ललितकीर्तिके संवत् १७५० मगसिर वदी १ तक्षक नगरे खंडेलवा नामसे अकिंत निम्न प्रध प्रध-भण्डारों में पाये जाते हैं, लान्वये सोगानीगोत्रे साहपोमरीज तत्पुत्र साह वादिराज वे इन्हीं की रचना है या अन्य किसी ललितकीर्ति की, तत्पुत्र चत्वारः प्रथमपुत्र रामचन्द्र द्वितीय लालजी तृतीय
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[ ३७२
अनेकान्त
कवि जगनाथ भी संस्कृत भाषाके प्रौढ़ विद्वान थे । और भ० नरेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे। इनकी इस समय तीन कृतियाँ समुपलब्ध हैं जो मेरे अवलोकनमें आई है। इनमें सबसे पहली कृति 'चविंशनिसंधान है। इस प्रथक एक ही पचको २४ जगह कर उसकी स्वोपज्ञ टीका जिमी है जिसमें हम एक ही पचके चौवीस अर्थ किये गये हैं। यह प्रन्थ टीकासहित मुद्रित हो गया है। इसका रचनाकाल वि० सं० १६ । दूसरी कृति 'सुखनिधान' है। इसकी रचना कवि जगन्नायने 'तमालपुर में की थी। इस ग्रन्थ में कविने अपनी एक और कृतिका उल्लेख " अन्यच्च - प्रस्माभिरुक्त शृंगार समुद्र काव्ये" वाक्य के साथ किया है। तीसरी कृति 'श्वेताम्बर पराजय' है जिसमें श्वेताम्बर सम्मन केवनिमुक्तिका सयुक्तिक निराकरण किया गया है । इस ग्रन्थ में भी एक और अन्य कृतिका सम्मुलेख किया है और उसे स्वोपज्ञ टीकासे युक्त बतलाया है। 'तदुक्त' ने मनरेन्द्रस्तोत्रे स्वोपज्ञे' इसमे नेमिनरेन्द्रस्तोत्र नामकी स्वीकृतिका धीर भी पता चलता है जिसका एक पथ भी उद्धृत किया गया है जो इस प्रकार है:
'यदुत तथ न भुक्तिन्नष्टदुः:ग्वोदयत्वाद्वसनमपि न चांगे वीतरागत्वतश्च । इति निरुपमहेतुब्ब सिद्ध सिद्धौ, विशद-विशदष्टीनां हृदि ल (?) सुमुक्तये ।' इनकी एक और अन्य रचना ' सुषेणचरित्र' है जिसकी पत्र संख्या ४३ है और जो सं० १८४२ की जिमी हुई है । यह ग्रन्थ भट्टारक महेन्द्रकीर्ति आमेरके शास्त्र भण्डारसुरक्षित है।
इस तरह कवि जगन्नाथकी छह कृतियांका पता चल जाता है । इनकी अन्य क्या क्या रचनाएँ हैं यह अन्वेष खी है। इनकी मृत्यु कब और कहां हुई इसके जानने का कोई साधन इस समय उपलब्ध नहीं है। पर इनकी रचनाओंके अवलोकनसे यह १७ वीं शताब्दीके उत्तरार्ध और १८ वीं शताब्दीके पूर्वार्धके सुयोग्य विज्ञान जान पढ़ते हैं।
किरण ११]
४ भट्टारक सुमतिकीर्ति - यह मूखसंघमें स्थित नन्दिमंत्र बजारकारगण और सरस्वतिगच्छके महारक ज्ञाननूषय के शिष्य थे। उपमीचन्द्र और वीरचन्द्र नामके महारक भी इन्हींके समसामयिक थे। भ० ज्ञानभूषण इन्हीं अन्वयमें हुए हैं। भट्टारक ज्ञानभूषणने अपना 'ज्ञानतरंगिणी' नामका प्रन्थ संवत् १५६० में बनाकर समाप्त किया है। इनकी अन्य भी कई रचनाएं उपलब्ध है।
नेमिदास चतुर्थ विमलदास टोडामें विषो हुवो, जब याह पोथी लुटी महां थे छुबाइ फाटी-तुटी सवारि सुधारि भाछी करी ज्ञानवरच कर्म या पुत्रादि पटनायें शुभं भवतु। गुटका प्रशस्ति
सुमतिकीर्ति ईडरकी महीके महारक थे। इन्होंने प्राकृत पंचसंग्रहकी संस्कृत टीका ईलाब (ईडर) के ऋषभदेवके मन्दिरमें वि० सं० १६२० में भाद्रपद शुक्ला दशमी के दिन समाप्त की थी। इस ग्रन्थका उपदेश उन्हे 'हंश' नामके वसे प्राप्त हुआ था। इस टीकाका संशोघन भी ज्ञानभूपणने किया था। कर्मकाण्ड टीका (१६० गाथामक कर्मप्रकृति टीका) का भी महारक सुमतिकीर्तिने ज्ञानभूषणके साथ बनाया था और उसे ज्ञानभूषण के ही नामांकित भी किया था ।
इनके अतिरिक्त 'धर्मपरीवाराम' नामका एक प्रव और भी मेरे देखने में आया है, जिसकी पत्र संख्या ८२६, जो गुजराती भाषा में पद्यबद्ध है और जिसकी रचना हांसोट नगर में वि० सं० १६२५ में बनकर समाप्त हुई है । इसके सिवाय, ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वति भवन बम्बईकी सूची में 'उत्तरसीसी' नामका एक संस्कृत ग्रन्थ गणित विषयपर लिखा गया है और उसके कर्ता भी भ० सुतकीर्ति बतलाये जाते है। संभव है यह भी उनकी कृति हो और भी उनकी रचनाएँ होगी, पर वे सामने न होनेसे उनके सम्बन्धमे विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता । भ० सुमतिकीर्तिके उपदेशले अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई हैं जिनका उल्लेख सूरत श्रादिके मूर्ति लेखोंसे पता चलता है ये स्वयं प्रतिष्ठाचार्य भी वे और इन्होंने अनेक मूर्तियां की प्रतिष्ठा कराई थी । इनका समय विक्रमकी १७वी शताब्दीका मध्य भाग है ।
I
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५ पंडित शिवाभिराम-इन्होंने अपनी कृतियोंमें अपना कोई परिचय नहीं दिया; किन्तु एक ग्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया हुआ है जिससे ज्ञात होता है कि वे विक्रमकी १७वीं शताब्दी के उत्तरार्धके विद्वान है। उनकी इस समय दो कृतियों के प्राप्त हुई है जिनमें एकका नाम 'पद्म तु वर्तमान जिनान है और दूसरीका नाम 'अष्टम जिन
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[किरण ११
कुछ नई खोजें
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पुराण संग्रह चन्द्रप्रभ पुराण) है । प्रथम ग्रन्थ कविने मालव नगरके पार्श्वनाथ जिनालयमें वि•संवत् ११५४ की बैशाख नामक देशमें स्थित विजयसारके दिविजनामक दुर्ग में स्थित शुक्ला सप्तमी गुरुवारको समाप्त किया गया है। दूसरी देवालयमें हुई है। उस समय दुर्गमें अरिकुलशन साम- कृति 'वृषभदेव पुराण' है जो २५ सों अथवा अध्यायों में न्तसेन हरितनुका पुन अनुरुद्ध पृथ्वीका पालन करता था, पूर्ण किया गया है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें प्रन्यका रचनाजिसके राज्यका प्रधान सहायक रघुपति नामका एक महा- काल दिया हुआ नहीं है । तीसरी कृति 'पद्मपुराण' है स्मा था उसका पुत्र धनराज ग्रन्थकर्ताका परमभक्त था जिसकी पत्र संख्या ४१२ है । यह ग्रन्थ भामेर भंडारमें उसीकी सहायतासे इस ग्रंथकी रचना सं० १६९२ में सुरक्षित है । इस ग्रन्थमें भी रचनाकाल दिया हुश्रा नही
है। इस कारण यह निश्चय करना कठिन है कि उक्त तीनों दूसरे ग्रन्थमें जैनियोंके ८वें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान प्रन्धों में से पहले किमकी रचना हुई है। इनके अतिरिक्त का जीवन परिचय दिया हुआ है। इस ग्रन्थमें ग्रन्थकर्ता- भ० चन्द्रकीर्तिने और भी अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है। ने अपनेसे पूर्ववर्ती भद्रबाहु, समन्तभद्र, अकलंकदव, जिन- उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं:-पंचमेरू पूजा, अनंतव्रतपेन, गुणभद्र और पद्मनन्दी नामके प्राचार्योंका स्मरण पूजा, और नन्दीश्वरविधान • प्रादि । चूकि ये तीनों ही किया है। यह प्रथ २७ मर्गों में समाप्त हुआ है। ग्रन्थ सामने नहीं हैं। अतः इनके सम्बन्धमें कोई यथेष्ट
गुर्जरवन्शका भूषण राजा ताराचन्द्र था, जो कुम्भ- सूचना इस समय नहीं की जा सकती। नगरका निवासी था और दिलाक बादशाह द्वारा सम्मानित ७.गुणभद्र-इस नामके अनेक विद्वान प्राचार्य और था। उसके पदपर सामन्तसिंह हुआ जिसे दिगम्बराचार्यक भट्टारक हो गए हैं, उनमें प्राचार्य जिनमेनके शिष्य गुणउपदेशन जैनधर्मका लाभ हुअा था । उसका पुत्र भद्राचार्य प्रमुख हैं। जिनका समय विक्रमकी नौमी शताब्दी पद्मसिंह हुआ जो राजनीतिमें कुशल था, उसकी का अन्तिम भाग और दशमी शताब्दीका प्रारम्भिक भाग धर्मपत्नीका नाम “वीणा" देवी था, जो शीलादि है। यहाँ उन सब गुणभद्रोंको छोड़ कर मुनि माणिक्यसेनके सद्गुणोंसे विभूषित थी, उसीके उपदेश एवं अनुरोधमे प्रशिष्य और नेमिसेनके शिष्य गुणभद्रका उल्लेख करना उक्त चरित ग्रन्थकी रचना हुई है। प्रस्तिमें रचनाकाल इष्ट है । अतः उन्हींके सम्बन्धमें यहाँ कुछ लिखनेका दिया हुया नहीं है, इस लिए यह बतलाना सम्भव विचार है। नहीं है कि यह ग्रन्थ किम सम्बतम बना है।
प्रस्तुत गणभद्र सैद्धान्तिक विद्वान थे, वे मिथ्याव ६.भट्टारक चन्दकीति-यह काष्ठासंघ नन्दितटगच्छक तथा कामके विनाशक और स्याद्वादरूपी रत्नभूषणके धारक भट्टारक विद्याभूषणके प्रशिष्य और भट्टारक श्रीभूपणके थे। इन्होंने राजा परमार्दिके राज्यकालमें विलासपुरके जैनशिष्य एवं पट्टधर थे। यह ईडरकी गहीक भट्टारक थे, और मन्दिर में रह कर लंबकंचुक (लमेच) वंशके महामना ईडर की गद्दी के पट्टस्थान उस समय सूरत, डूंगरपुर, माह शुभचन्द्र के पुत्र बल्हणके धर्मानुरागसे 'धन्यकुमारमोजिना, झेर और कल्लाल आदि प्रधान नगरों एवं कस्बामें चरित' की रचना की है। ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें थे। इन स्थानोमस भ० चन्द्रकीर्तिजी किस स्थानके पट्टधर कर्ताने अपना कोई परिचय नहीं दिया और न गण गच्छादिथं यह निश्चितरूपसे मालूम नहीं हो सका, पर जान का ही कोई उल्लेख किया, जिमम ग्रन्थके समयादिका परिपड़ता है कि वे इडरके समीपवर्ती किसी स्थानके पट्टधर चय दिया जाता | प्रशस्तिमें उल्लिग्वित राजा परमादि किम रहे हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थों में अपनी पूर्व गुरुपरम्परा वंशका राजा था यह कुछ मालूम नहीं होता, ग्रन्थकी यह भहारक रामसेनसे बतलाई है। इनकी इस समय तीन प्रति संवत् १५०१ की लिम्बी हुई है जिसमे यह स्पष्ट हो रचनाएँ मेरे देखने में आई हैं, और वे तीनों ही पुराण जाता है कि उक्त ग्रन्थ संवत् ११०१ से पूर्व रचा गया है, ग्रन्थ हैं, और उनके नाम पावपुराण, वृषभदेवपुराण परन्तु कितने पूर्व यह कुछ ज्ञात नहीं होता। और पमपुराण हैं।
इतिहासमें अन्वेषण करने पर हमें परमादि नामके दो इनमेंसे 'पावपुराण' १५ सोमें विभक्त है, जिसकी राजाओंका उल्लेख मिलता है, जिनमें एक कल्याणके हैहयश्लोक संख्या २७१५ है और वह देवगिरि नामक मनोहर वंशी राजाओंमें जोगमका पुत्र पेमादि या परमादि था
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अनेकान्त
|किरण ११
जो शक संवत् १०१ (वि.सं. १८६) में विद्यमान पराजित किया था, और सन १९८२ वि० संवत् १२३६ था। यह पश्चिमी सोलंकी राजा सोमेश्वर तृतीयका में महोवाके चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव पर किया मामन्त था। नवादी जिला बीजापुरके निकटका स्थान था। उस युद्ध में राजा परिमल हार गया था जिसका उल्लेख उसके पाधीन था। इसके पुत्रका नाम विज्जलदेव था। ललितपुरके पास 'मदनपुर' के एक लेख में मिलता है। संभव है इसके राज्यका विस्तार बिलासपुर तक रहा हो। बहुत सम्भव है कि इसका राज्य विलासपुरमें रहा हो;
दूसरे परमार्दि, परमल या परमार्डिदेव वे हैं जिनका क्योंकि इसके वहाँ राज्य होने की अधिक संभावना है। गज्य जेजासकूती महोवामें था। और जिनकी राजधानी खजु- यदि यह अनुमान ठीक हो तो प्रस्तुत 'धन्यकुमार चरित' राहामें थी। वीं सदी में वहाँ चन्देलवंशी राजाओंका बल का रचनाकाल विक्रमकी १३ वीं शताब्दी हो सकता है। बढ़ा, उसका प्रथम राजा नानकदेव था और पाठवां राजा धंग- मदनपुरके जैनमन्दिरमें एक बारादरी है, जो खुली राज । जैसा कि ईस्वी सन् १४के लेखसे - प्रकट है। इनमें हुई ६ मम चौरस खंभोंसे रक्षित है। इसके खंभों पर एक राजा परमल या परमादिदेव नामका हो गया है जिसके
बहुत ही मूल्यवान एवं उपयोगी लेख अंकित हैं। यहाँ प्रसिद्ध पाल्हा (पाला) ऊनल नौकर थे और जो
इनमें दो छोटे लेख चौहान राजा पृथ्वीराजके राज्य गृथ्वीराज चौहानके युद्धमें पराजित हुए थे । यह हमला समयके हैं। जिनमें उन राजा परमादिको व उसके पृथ्वीराज चौहानने, जो पृथ्वीराज तृतीयके नामसे प्रसिद्ध देश 'जंजासकृती' को सं० १२३६ या॥82 A.D. है, सोमेश्वरका पुत्र और उत्तराधिकारी था। इसके पिता
में विजित करनेका उल्लेग्य है । इस मदनपुरको चंदेलसोमेश्वरकी मृत्यु वि० सं० १२३६ में हुई थी। पृथ्वीराज
वंशी प्रसिद्ध राजा मदनवर्माने बसाया था । इमीमे बदा प्रतापी और वीर था। इसने गुजरातके राजाको
इसका नाम मदनपुर श्राजतक प्रसिद्धि में पा रहा है। * देखो, भारतके प्राचीन राज्यवंश प्रथम भाग पृ०६३ ।
प्रशस्ति संग्रह प्रथमभागकी प्रस्तावनाका अप्रकाशित x देखो इंडियन एस्टीक्वेरी भाग।
अंश ।
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सरस्वती भवनोंके लिये व्यावहारिक योजना
[श्री एन० सी० वाकलीवाल 1 (७) रा और निर्माणके सिद्धान्तोंको प्रधानता लिये बदला, मूल्य या उधारकी सुवधानोंका प्रचार और दी जाय।
प्रसार किया जाय। (२) देश भरके सभी स्थानोंके उपलब्ध उत्कीर्ण तथा हस्तलिखित ग्रन्थों व मन्दरादिमें संग्रहीत अन्य पुरातत्व (५) अनुपलब्ध पुरातत्व की ३ अवस्थायें हो सकती सामग्री की सूची और विवरण प्रासकर सम्मिलित सूची है (1) देशके बाहर गया हुश्रा अथवा देशमें ही किसी तैयार कराई जाय।
अन्य समाज या सरकारी पुस्तकालयों आदिमें अज्ञात (३) सम्मिलित सूचीके अनुसार जहां जहां जो अवस्थामें पड़ा हुआ, (२) भूगर्भ या अज्ञात स्थानों में छुपा सामग्री बिना प्रयोजन पड़ी हो या भली भांति रचित न हुश्रा, (३) समाजके व्यक्तियों द्वारा छुपाया हुआ अथवा हो उसे अधिक सुरक्षित और आवश्यकताके स्थानों पर प्रतिबन्ध रखा हुआ। रखने की व्यवस्था को जाय ।
इनमेंसे प्रथम अवस्थाके लिये दस हजार पोंड या एक (५) हस्त लिपिका अभ्यास बना रखने और ग्रन्थों- लाख रुपयेका पुरस्कार उस तमाम साहित्यके लिये घोषित की नाना स्थानों पर विपुखता और उपयोगिता बढ़ानेके किया जाय जोकि ज्ञानमें लाया जा सके । और ऐसे साथ साथ सुरक्षाकी रष्टिसे हस्तलिखित प्रन्थों परसे पठन साहित्यकी सूची और परिचयका कार्य अविलम्ब पूरा पाठन करनेकी प्रथाको पुनर्जीवित किया जाय और उसके किया जाय ।
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सरस्वती भवनोंके लिये व्यावहारिक योजना
किरण ११]
दूसरी अवस्थाके लिये कमसे कम सरकारी और अन्य सभी ऐतिहासिक, पुरातत्व तथा खुदाईके प्रतिष्ठानोंके साथ निकटतम सम्बन्ध स्थापित किया जाय, खुदाई व प्राचीनता श्रन्वेषक विद्वानोंको, चाहे वे किसी भी धर्म या समाजके हो, जैन संस्कृतिका परिचय देकर उनको जैन पुरातत्वका बारीकी अम्वेषण परीक्षण करनेके लिये उत्साहित किया जाय और जैन विद्वानोंको उनके सम्पर्कमे रहनेके लिये नियुक्त या प्रोत्साहित किया जाय ।
तीसरी अवस्थाके लिये अनवरत प्रचार और प्रेरणा की जाय ।
(4) विज्ञान ममस्त सभी धाधुनिक उपायों और यत्रोंका प्रयोग प्राचीन ग्रन्थों व अन्य साहित्यक वस्तुओं की रक्षा और उनको दीर्घ काल तक स्थायी रखनेके लिये भवनों में चालू किया जाय । तथा सभी शास्त्र भण्डारों को वह प्रणाली काममें जानेकी प्रेरणा की जाय ।
(७) प्रतिलिपि समय न गंवाकर माइको फिल्म और अन्य फोटो प्रणाली द्वारा अत्यन्त प्राचीन, अद्वितीय कठिनता प्राप्त और कनही आदि दाक्षिणात्य साहित्य की हूबहू नक़ल अबिलम्व लेली जाय व दक्षिणी भाषांक विद्वानों को हिन्दी लिपिमें अनुवाद व प्रतिलिपि करने योग्य बनानेके लिये स्कालरशिप व प्रोत्साहन दिया जाय ।
(5) एक प्रति परसे एक नकल की प्राचीन लेखनप्रथाके बदले स्टेन्सिल प्रथासे डुप्लीकेटर द्वारा एक साथ १००-५० प्रति निकाली जांय । स्टेन्सिल कापीका मूल प्रति परसे तत्काल मिलान करके दी डुप्लीकेट निकाली जाय । ( इस प्रथामे अनेक लाभ होंगे। बादमें संशोधनकी आवश्यकता नहीं रहेगी, पूरी प्रति खास ग्वास स्थानो में मंत्र ही जाने प्रशस्ति संग्रह आदिका काम कम हो जायगा, प्रकाशन कार्य में सुविधा और शीघ्रता होगी तथा लेखकों का अभाव नहीं खटकेगा । )
(१) प्रत्येक सरस्वती भवनमें एक रजिस्ट्रेशन ग्राफिम रहे जहां धार्मिक और सामाजिक प्रतिदिनकी महत्वपूर्ण घटनाओं को व्यवस्थित रूपसे डायरी तथा रजिस्टरोंमें दर्ज किया जाय और निर्धारित समय पर उनकी संख्या या सार भाग प्रकाशित किया जाय । वर्त्तमान परिचय व सूचीके फार्मोंको सुयवस्थित और सुरक्षित रखा जाय ऐतिहा सिक अनुसंधान, अन्वेषण और पुरातत्व-सम्बन्धी शोध खोज पर जीके दर्जनों मासिक मासिक पत्र तथा
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अन्य भाषाओंके भी पत्रोंमें व रिपोर्ट बादिमें महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित होते रहते हैं, उनमेंसे जो जैनधर्म और जैन संस्कृत पर हों अथवा जिनसे जैनधर्म और संस्कृति पर महत्व पूर्ण प्रकाश पड़ने की आशा हो, उनको नियमित रूपसे नोट करके प्रकाशित किया जाय ताकि कोई महत्वपूर्ण बात छूटने न पावे, तत्सम्बन्धी समर्थन या लण्डनका प्रमाण जो भवनमें मौजूद हो, उसकी सुचना जैन विज्ञानको यथा समय दी जाय, तद्विषयक आवश्यक प्रमाण या माहित्य प्राप्त करनेकी उनको सुविधा दी जाय अथवा मार्ग प्रदर्शन किया जाय।
धर्म और ममाजकी उन्नतिका कोई ठोस कार्य उपरांत प्राथमिक उपायोंका अवलम्बन किये विना कदापि नहीं हो सकता है।
किसी दूसरी संस्थाकी अपेक्षा सरस्वती भवन ही इन कार्योंके लिये सर्वाधिक क्षमताशील साधन और उपयुक्त क्षेत्र है जहां कि किसी भी मत-भेदमे ऊपर उठकर कार्य संचालन हो सकता है।
ऊपर जिन कार्योंकी ओर संकेत है, वे बुनियादी और अनिवार्य आवश्यकताये हैं और इनकी उपयोगिता प्रत्यक्ष व निर्विवाद है ।
ऐलक पशालाल सरस्वती भवनके सभापति महोदय "इसकी सम्पूर्ण शक्तियांका उपयोग ग्रन्थ संशोधन, नवीन अनुसंधान तथा अन्यान्य साहित्य के निर्माणके कार्यों में " करना चाहते है वह ठीक है परन्तु इन कार्यों के लिये उपरोक योजनाको कार्य रूपमें परिणत किये बिना कोई वास्तविक सफलता की आशा आकाश पुष्पवत् है । इम योजना अनुसार काम होने लगे तभी श्रन्यान्य साहित्यके निर्माणका सचा मार्ग खुल सकता है।
इस योजनाको व्यवस्थित रीतिसे सरलता पूर्वक चलानेके लिये झालरापाटन, व्यावर और बम्बई के प्रतिfre और भी केन्द्र हो तो थच्छा हो ताकि महत्वपूर्ण प्रान्तोंका सम्बन्ध उनके साथ अधिक सुविधाकी दृष्टिमे जोड़ा जा सके तथा बांटने योग्य विषय प्रत्येक केन्द्र में वांटे जा सकें । अतः धारा स्थित जैनसिद्धान्त भवनको भी इस योजना से संबद्ध होने की आवश्यकता है ।
यदि सरस्वती भवनको अपना ले तो धर्म और समाजके एक बड़े प्रभावकी पूर्ति सहज और शीघ्र हो सकती है।
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सूतक-पातक-विचार
( लेखक - रतनचन्द जैन मुख्तार सहारनपुर )
तीन या चार माह हुए जैन मित्रमें पं० लक्ष्मीचन्द स्वोपज्ञटीका-भंवति । किं तत् ? अनादि किं विशिष्टम् ? दायक विशारद कैराना निवासीकी, और ४ दिसम्बर सन् १९५२ के दोषभाक् । दायकाश्रयं दोषं भजस्या- श्रयति यत्तदेवम् । जैन- संदेशमें सेठ माणिकचन्द्र अजमेर निवासीकी सूतक व किं विशिष्ट सत् ? दत्तम् । कया ? मलिनी गर्भिणी लिङ्गिपातकके विषय में शङ्का प्रकाशित हुई थी । मैं भी इस म्यादिनार्या । न केवलं, नरेण च किं विशिष्टेन ? शवादिना । विषयमें कुछ निश्चय नहीं कर सका तथापि जो प्रमाण न केवलं क्लीवेनापि नपुंसकेन । मलिनी रजस्वला । गर्भिणी reat मिले हैं उनको मैं इस लेखमें दे रहा हूँ जिससे गुरुभारा। शव मृतकं श्मशाने प्रक्षिप्यागतो मृतक इस विषय पर विशेष ऊहापोह हो सके । मृतक युक्तो वा । आदि शब्दाद्वयाधितादिः ॥ ३४ ॥
सूदी सूंडी रांगी मदय पुंसय पिमायणग्गोय | उच्चार पडिवदत रुहिर-वेसी समणी अंगमम्वीया ॥ ४६ ॥ - मूलाचार पिंडशुद्धयधिकार ६
श्री वसुनंदिश्रमविरचितया टीका—सूतिः या चालं प्रमाधयति । सूंडी-मद्यपान लम्पटः । रोगी-व्याधिप्रस्तः । मदय-मृतकं श्मशाने-परिक्षिप्यागतो यःस मृतक इत्युच्यते । मृतक सूतकेन यो सोऽपि मृतक जुष्टा इत्युच्यते । नपुं सब-न स्त्री न पुमान नपुंसकमिति जानीहि । पिशाचो वाताथ पहतः । नग्न; - पटाद्यावरण रहितो गृहस्थः । उच्चारं - मूत्रादीन् कृत्वा य भागतः । म उच्चार इत्युच्यते पतितो मूर्खों गतः । वान्तश्छर्दि कृत्वा य श्रागतः । रुधिरं रुधिर सहितः । वेश्या दामी । श्रमणिकाऽऽर्यिका श्रथवा पंच भ्रमणिका रक्त पटिकादयः । अंगम्रक्षिका अंगाभ्यंगकारिणी ॥ ४६ ॥
ववहार सोहणाए परमट्टाए तहा परिहरउ । दुविधा चावि दुगंधा लोइय लोगुत्तरा चैव ॥ ५५ ॥ — मूलाचार समयसाराधिकारः १० टीका-जुगुप्सा गर्हा द्विविधा द्वि प्रकारा लौकिकी लोकोत्तरा छ । लोकव्यवहार सौधनार्थ सुतकादि - निवारणाय लौकिकी जुगुप्सा परिहरणीया तथा परमार्थाय रत्नत्रय शुद्ध लोकोत्तराच कार्येति ॥ २२ ॥
मलिनी गर्भिणीलिङ्गिन्यादिनार्या नरेण च । शवादिनपि क्लीवेन दत्तं दायक दोषभाक् ॥३४॥ पं० प्राशावर विरचितं अनगार धर्मामृते पञ्चमोऽध्याय
इन उपर्युक्त श्लोकोंका सारांश यह है कि जो मनुष्य मृतकको श्मशान भूमिमें छोड़कर श्राया है अथवा जिम्मको मृतक सूतक है, लोक व्यवहार शुद्धिके कारण मुनि उसके हाथसे दान नहीं लेते। इससे यह तो विदित हो ही जाता है। कि सूतकके कारण मनुष्य में अपवित्रता श्राती है जिसके कारण वह मुनियोंको आहारदान देनेका अधिकारी नहीं रहता ।
यहां पर जनमके समय भी सूतक होता है या नहीं इसका तो कथन ही नहीं है । मरण सूनकके विषय में भी यह प्रश्न होते हैं कि किसके मरण सूतक होता है और सूतकसम्बन्धि पवित्रता कितने समय तक रहती है और उस अपवित्रताके कालमें कौन कौन लौकिक व धार्मिक कार्य नहीं करने चाहिये । इन विषयोंका विशद वर्णन श्रावकाचारोंमें होना चाहिये था; क्योंकि गृहस्थिके षट् आवश्यकमें एक आवश्यक दान भी है परन्तु श्रावकाचार इस विषय में मौन है। स्वयं पं० श्राशाधरजीने सागारधर्मामृत और उसकी टीका रवी परन्तु उसमें सूतक के विषयमें एक शब्द भी नहीं लिखा । यह बात विचारणीय है कि श्रावकाचारोंमें मृतकके विषय में क्यों कथन नहीं किया गया ।
प्रायश्चित ग्रन्थोंमें कुछ विशेष कथन है जो इम प्रकार है
रवितिय-भ-वसा सुद्दा विय सूत गम्मि जायम्मि । पण दस वारसपण्णरसेहि दिवसेहिं सुकंति ॥३५२ ॥ छाया - क्षत्रिय माह्मण- वैश्याः शूद्रा अपि च सूतकं जाते ।
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किरण ११]
सूतक-पातक-विचार
[३७७
भवन्ति । पंचदिन-दिवसः। शुद्ध
दिवस
पंचदश द्वादश पंचदशभिः दिवस शुद्धचति ॥३५२॥ ब्राह्मण-पत्रिय-विट्-छूद्रा दिनः शुद्धयन्ति पंचभिः । बालसण-सूरत्तण-जलणादिपवेस दिक्खंतेहिं ।
दश द्वादशभिः पचायथासंख्य प्रयोगतः ॥ १३ ॥ मणसण परदेसेसु य मुदाण खलु सूतगं णस्थि ॥३५॥
टीका-ब्राह्मण विप्रा, सत्रियः क्षत्रियाः, विडो वैश्याः छाया-बालस्वं शूरत्वं ज्वलनादि प्रवेश दीक्षितैः सनिः ।
शूद्रा-पाभोर कुंभकार तखकादयः। दिन-दिवसः। शुद्धचन्ति अनशन परदेशेषु च मृतानां खलु मूतकं नास्ति ॥३५३॥
सूत्रक रहिता भवन्ति । पंचभिः (दशभिः) ब्राह्मणा । पंचभिप्रायश्चित्तसंग्रहे छेदपिण्डम् (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला)
दिवसः सत्रियाः शुद्धयन्ति । द्वादशभिः दिवसः वैश्या लोइय सूरत्तविही जलाइपरवेस बाल-सण्णासे । शुद्धयन्ति । पक्षात-पंचदशमि दिवसः शूद्रासंशुद्ध चम्ति मरिदे खणेण सोही बदसहिदे चेव सागारे ॥८६॥
यथासंस्यप्रयोगतः-यथाक्रमयुक्तया ॥१५॥ प्रायश्चित छाया-लौकिक शूरत्व विधिना जलादि प्रवेश बालसंन्यासेन। चूलिका ।
मृते पणे न शुद्धि व्रतसहिते चैव सागारे ॥८६ ॥ इन श्लोकोंसे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि मरणका अस्य अर्थः-लौकिक शौर्येण मृते, पानीये नावादि प्रविष्टेन सूतक पत्रिको ५ दिन, ब्रह्मणको १० दिन वैश्यको १२ मृते, प्रवासन मृते, बालमरणेन मृते, संन्यासेन मृने, व्रत दिन और शूद्र को १५ दिनका होता है किन्तु जल या सहिते श्रावके मृते सूतक नेति ॥८६॥
अग्निमें मरनेसे या पहाइसे गिरकर मरनेसे, प्रवास या पण-दस-बारस णियमा परणरम पहि तत्थ दिवसेहिं ।
परदेश में मरनेसे, संन्यास सहित मरणसे स्वजनके मरनेका खत्तिय-बंभण-वाइसा सहाइ कमेण सुज्झति ॥७॥ सूतक नहीं लगता। परिजन अर्थात् परिवारके मरणका पंचभिःदशभिः द्वादशभिः नियमात पंचदशभिःतन्त्र दिवसः। सूतक ता उपयु क श्लाकाम नहीं कहा ह । अब प्रश्न यह शत्रिय-ब्राह्मण-वैश्याः शूद्रा च क्रगेण शुद्धयन्ति ॥७॥
होता है कि स्वजन शब्दमे किस किसका ग्रहण किया जावे।
जन्मके सूतकका यहां पर भी कथन नहीं किया और नहीं प्रायश्चित्त संग्रहे छेदशास्त्रम्
यह कथन किया कि सूतककी अशुद्धि के कालमें मनुष्य जलाऽनलप्रवेशेन मृगुपाताच्छिशावपि ।
किस किस धार्मिक और लौकिक क्रियानासे वंचित बालसंन्यासतः प्रेते सद्यः शौचं गृहिबते ॥१५॥
रहता है। टीका-जलानलप्रवेशेन ज्वलनप्रवेशेन पानीय प्रवेशं विधाय।
भिन्न भिन्न नगरोंमें, मूतकके विषयमें, पृथक पृथक प्रेते सति अनल प्रवेशेन अग्नि प्रवेशेन च प्रेते भृगु
रूढी हैं। पातात्-पतनात हेतुभूतात् । शिशावपि-बाले च प्रेते । बाल संन्यासतः-बाल संन्यासात् मिथ्यादृष्टि संन्यासेन च कृत्वा यदि इस विषयमें कोई एक निर्णय हो जाये तो सूतक प्रते-स्वजने मृते । सद्यः झटिति । शौचं-शुद्धिर्भवति-सूतकं रूढी न रहकर श्रावकधर्ममें गर्भित हो जावे। पाशा है नास्ति । गृहिवते श्रावके च एतस्मिन् मति तत्क्षणादेव कि विद्वान इस विषय पर सप्रमाण विशेष विचारनेकी शुद्धिर्भवति ॥ ११२॥
कृपा करेंगे।
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दक्षिण भारतमें जैनधर्मको राजाश्रय और उसका अभ्युदय
(श्री टी० एन० रामचन्द्रन एम० ए०) दक्षिण भारतमें जैनधर्मका स्वर्णयुग साधा- रोचक इतिहासकी ओर ले जाता है। श्रवणेबल्गोलमें उत्कीर्ण रणतया और कर्नाटकमें विशेषतया गंगवंशके शासकोंके शिलालेखोंके आधार पर इस बातका पता लगता है कि समयमें था, जिन्होंने जैनधर्मको राष्ट्र-धर्मके रूपमे मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें अन्तिम श्रुतकेवली भरअंगीकार किया था। महान् जैनाचार्य सिंहनन्दी बाहु १२००० जैन श्रमणोंका संघ लेकर उत्तरापथसे दलिगंगराष्ट्रकी नीव डालनेके ही निमित्त न थे, बल्कि गंग- णापथको गये थे। उसके साथ चन्द्रगुप्त भी थे। प्रोफेसर राष्ट्रके प्रथम नरेश कोंगुणिरवर्मनके परामर्शदाता भी थे। जेकोबीका अनुमान है कि यह देशाटन ईसासे २६० वर्षसे माधव (द्वितीय) ने दिगम्बर जैनोंको दानपत्र दिये । कुछ पूर्व हुआ था । भद्रबाहुने अपने निर्दिष्ट स्थान पर इनका राज्यकाल ईमाके २४०-२६५ रहा है। दुर्विनीतको पहुँचनेसे पूर्वही मार्गमें चन्द्रगिरि पर्वत पर समाधिमरणवन्दनीय पूज्यपादाचार्यके चरणों में बैठनेका सौभाग्य प्राप्त पूर्वक देहका विसर्जन किया। इस दशाटनकी महत्ता इम हुना। इनका राज्यकाल ई. ६०१ से ६५० रहा है। बातकी सूचक है कि दक्षिण भारतम जैनधर्मका प्रारम्भ
११. में दविनीतके पुत्र मशकाराने जन-धर्मको राष्ट्र- इसी समयसे हुश्रा है । इसी देशाटनके समयसे जैन श्रमण धर्म घोषित किया। बादके गंग-शामक जैनधर्मके कट्टर संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर दो भागोंमें विभक्त हुआ है। संरक्षक रहे हैं। गंगनरेश मारसिंह ( तृतीय) के समयमें भद्रबाहुके संघ गमनको देखकर कालिकाचार्य और विशाउनके सेनापति चामुण्डरायने श्रवणबल्गालमें बिन्ध्य- ग्वाचार्यके संघने भी उन्हींका अनुसरण किया। विशाखागिरि पर्वत पर गोम्मटेश्वरकी विशाल मूर्तिका निर्माण चार्य दिगम्बर सम्प्रदायके महान् प्राचार्य थे जो दक्षिण भार कराया। जो कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवकी रानी सनंदा- तके चोल और पाण्ड्य देश में गये। महानार्य कुन्दकुन्दके के पुत्र बाहुबलीकी मूर्ति है। मारसिंहका राज्यकाल समयमें तामिलदेशम जैनधर्मकी ख्यातिमें और भी वृद्धि ईमा से १६१-६७४ रहा है । जैनधर्ममें जो अपूर्व हुई। कुन्दकुन्दाचार्य द्राविड़ थे और स्पष्टतया दक्षिण स्याग कहा जाता है, मारसिंहने उस मल्लेग्वना द्वारा भारतके जैनाचार्योंमें प्रथम थे। कांचीपुर और मदुराके देहोस्मर्ग करके अपने जीवन को अमर किया । राजमल्ल राजदरबार तालिमदेशमें जैनधर्मके प्रचारमें विशेष सहा(प्रथम)ने मद्रास राज्यान्तर्गत उत्तरी भारकोट जिलेमें यक थे । जब चीनी यात्री युवान चुवांग ईसाकी ७वीं जैन गुफाएँ बनवाई। इनका राज्यकाल ई. ८१७-८२८ शताब्दीमें इन दोनों नगरों में गया तो उसने कांची में अधिरहा है। इनका पुत्र नीतिमार्ग एक अच्छा जैन था। कतर दिगम्बर जैनमन्दिर और मदुरामें दिगम्बरजैन
बाहुबलीके त्याग और गहन तपश्चर्याकी कथाको धर्मावलम्बी पाये। गुणग्राही जैनोंने बड़ा महत्व दिया है और एक महान् इतिहासज्ञ इस बातको स्वीकार करते हैं कि ईसासे प्रस्तर खंडकी विशाल मूर्ति बनाकर उनके सिद्धांतोंका प्रचार ११वीं शताब्दी तक दक्षिण भारतमें सबसे अधिक शक्तिकिया है, जो इस बातका द्योतक है कि बाहुबलीकी उक्त शाली, अाकर्षक और स्वीकार्य धर्म था। उसी समय मूर्ति त्याग, भक्ति, अहिंसा और परम श्रानन्दकी प्रतीक वैष्णव प्राचार्य रामानुजने विष्णुवर्द्धनको जैनधर्मका परिहै। उस मूर्तिको अग्रभूमि काल, अन्तर, भक्ति और नित्य- त्याग कराकर पैष्णव बनाया था। ता की उद्बोधक है। यद्यपि दक्षिण भारतमें कारकल कांचीपुरके एक पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन (प्रथम)
और बेसूरमें भी बहुबलीकी विशाल मूर्तियां एक ही राज्यकाल ६०० से ६३० ई., पांख्य, पश्चिमी चालुक्य, पाषाणमें उस्कीर्ण की हुई हैं, तथापि श्रवणबल्गोल की यह गंग, राष्ट्रकूट, कालचूरी और होय्यसल वंशके बहुतसे राजा मूर्ति सबसे अधिक आकर्षक होनेके कारण सर्वश्रेष्ठ है। जैनथे । महेन्द्रवर्मनके सम्बन्धमें यह कहा जाता है कि वह बावलीकी मूर्तिका इतिवृत्त हमें दक्षिणभारतके मैनधर्मके पहले जैन-थे, किन्तु धर्मसेन मुनि जब जैनधर्मको त्याग
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किरण ११] दक्षिण भारतमें जैनधर्मको राजाश्रय और उसका अभ्युदय
[३७६ कर शैद हो गए तो उनके साथ महेन्द्रवर्मन भी शैव हो निरवध पंडितको जैन-मदिरकी रक्षाके लिए एक ग्राम गया। शैष होने पर धर्मसेनने अपना नाम अप्पड़ रखा। दिया। उसके पुत्र विक्रमादित्य (द्वितीय) ने राज्यकाल पाठवीं शताब्दीका एक पांख्य नरेश नदुमारन अपर
. (०३३ से ७४७) ई० एक जैन मन्दिर की भली प्रकार मरम्मत नाम कुणपांत्य जैनधर्मावलम्बी था और तामिल भाषाके
कराई और एक दूसरे जैन साधु विजय पंडितको इस शैव प्रन्योंके अनुसार शैवाचार्य सम्बन्धने उससे जैन धर्म
मन्दिरकी रक्षाके लिए कुछ दान दिया । किन्तु वास्तवमें
जैनधर्मका स्वर्णयुग गंग-राष्ट्रके शाशोंके समयमें था छुड़वाया।
और यह पहले ही बताया जा चुका है कि श्रवणबेलगोलमें कर्नाटक में बनवासीके कदम्ब शासकोंमें काकुस्थवर्मन
मारमिह (तृतीय) के सेनापति चामुण्डरायने बाहुबली(४३० से ५५० ई.) मृगेश वर्मन ( ४७५ से ४६० ई.)
की अविनश्वर मूति बनवाई । संक्षेपमें यह कहा जा सकता रविवर्मन (४१७ से १३७) और हरिवमेन (२३७ स क गंगराष्टके शासक कट्टर जेन थे। ३४७ ) यद्यपि हिन्दू थे तथापि उनकी बहुत-सी प्रजाके जैन होनेके कारण वे भी यथाक्रम जैनधर्मके अनकल थे। राष्ट्रकूट वंशके शासक भी जैनधर्मके महान संरक्षक काकस्थवर्मनने अपने एक लेकके अन्तमें प्रथम तीर्थकर रहे हैं । गोविन्द (नृतीय) राज्यकाल (०१८ से ८१५)ई. ऋषभदेवको नमस्कार किया है। उसके पोते मृगशवर्माने
महान जैनाचार्य परिकीतिका संरक्षक था। उसके पुत्र वैजयन्ति प्रतिकेजीमान
अमोघवर्ष (प्रथम) राज्यकाल ८१७ से ८७८ ई. को और समयमें कालवंग प्रामको तीन भागोंमे विभक्त किया। जिनसेनाचायक चरणाम बठनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पहला भाग उसने भगवानकोकिया न श्राचार्य जिनमेन गुणभद्रके गुरु थे । इन्होंने सन् (७८३. भाग श्वेतपथवालों और तीसरा भाग निम्रन्थोंको । पला
८४) में गोविन्द (तृतीय) के समयमें श्रादिपुराणके प्रथम मिका (हालसी) में रविवर्माने एक ग्राम इसलिए दानमें भागकी रचनाकी और उसका उत्तरार्द्ध गुणभद्राचार्य ने दिया कि उनकी आमदनीस हर वर्ष जिनेन्द्र भगवानका मन् ८६७ में अमोघवर्षके उत्तराधिकारी कृष्ण (द्वितीय) उत्सव मनाया जाय । हरिवर्माने भी जैनियोंका बहुत दान- के राज्यकाल ८० से १२ में पूर्ण किया । अमोघवर्ष पत्र दिये हैं।
प्रथमके समयमें राष्ट्रकूटकी राजधानीमें 'हरिवंश पुराण' पश्चिमी चालुक्य वंशक शासक जैनधर्मकी संरक्षकना
'आदिपुराण' और 'उत्तर पुराण' अकलंकचरित, जयके लिए प्रख्यात थे । महाराज जयसिंह (प्रथम ने दिगम्बर
धवला टीका भादि ग्रन्थों की रचना हुई है। जयधवलाजैनाचार्य गुणचन्द्र, वासुचन्द्र और वादिराजको अपनाया।
टीका दिगम्बर जैन सिद्धान्तका एक महान् ग्रन्थ है। यहीं पुलकेशी (प्रथम ) १५२ ई. और उसके पुत्र कीर्तिवर्मा
पर वीराचार्यने गणित-शास्त्रका 'सार-संग्रह' नामका एक (प्रथम ) राज्यकाल (१६६ मे १७)ई. ने जैनमन्दिरोंको
__ ग्रन्थ रचा । अमोघवर्षने स्वयं नीतिशास्त्र पर एक 'प्रश्नोत्तरकई दानपत्र दिये । कीर्तिवर्माका पुत्र पुलकेशी (द्वितीय)
रग्नमालिका' बनाई । संक्षेपमें अमोघवर्ष प्रथमके समयमें राज्यकाल (६.६ मे ६४२) ई० प्रख्यात जैन कवि रविकीर्ति
यह कहा जाता है कि उसने दिगम्बर जैनधर्म स्वीकार का उपासक था, जिन्होंने हाल नामक ग्रन्थ रचा। इसमें
किया था और वह अपने समयमें दिगम्बर जैनधर्मका रविकीनिको कविताचातुरीके लिए कालिदास और भैरविसे
सर्वश्रेष्ठ संरक्षक था। कृष्ण (द्वितीय) के राज्यकालमें उपमा दी । एहाल ग्रन्थके कथनानुसार रविकीर्तिने जिनेन्द्र
उसकी प्रजा और सरदारांने या तो स्वयं मन्दिर बनवाये, भगवान्का एक पापाणका मन्दिर भी बनवाया । रविकीर्ति- या
या बने हुए मन्दिरोंको दान दिया । शक संवत् ८२० में को सत्पाश्रय (पुलकेशी) का बहुत संरक्षण था और गुण
गुणभद्राचार्यके शिष्य लोकमेनने महापुराणकी पूजा की । सत्याश्रयके राज्यकी सीमा तीन समुद्रों तक थी। पूज्य- यद्यपि कल्याणीके चालुक्य जैन नहीं थे तथापि हमारे पादके शिष्य निरवद्य पंडित (उदयदेव) जयसिंह (द्वितीय) पास सोमेश्वर (प्रथम) (१०४२ से १०६८ ई.) का उत्तम के राज्यगुरु थे और विनयादित्य ( १८० से ६६७ ई.) उदाहरण है, जिन्होंने श्रवणबेलगोलके शिलालेखानुसार और उनके पुत्र विजयादित्य ( ६९६ से ७३३ ई.) ने एक जैनाचार्यको 'शब्द चतुर्मुख' की उपाधिसे विभूषित
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मा
३८०]
अनेकान्त
[किरण ११
किया था। इस शिलालेखमें सोमेश्वरको 'पाहवमल' उदाहरणके तौर पर नरसिंह (प्रथम) राज्यकाल (१४३ से कहा है।
११७३)वीरवहन (द्वितीय) राज्यकाल (११७३ से १२२०) * तामिल देशके चोल राजामौके सम्बन्ध में यह धारणा और नरसिंह (तृतीय) राज्यकाल (१२५ से १२६१) निराधार है कि जिन्होंने जैनधर्मका विरोध किया। जिन के नाम उल्लेखनीय हैं। कांचीके शिलालेखोंसे यह बात भली प्रकार विदित होती विजयनगरके राजाओंकी जैनधर्मके प्रति भारी सहिहै कि उन्होंने प्राचार्य चन्द्रकीर्ति और पनवय॑वीर्यवमन- गुता रही है। अतः वे भी जैनधर्मके संरक्षक थे । बुक्का की रचनाओंकी प्रशंसा की। चोल राजाओं द्वारा जिन- (प्रथम) राज्यकाल ( १३५७ से १७७८) ने अपने समयमें कांचीके मन्दिरोंको पर्याप्त सहायता मिलती रही है। जैनों और वैष्णवोंका समझौता कराया। इससे यह सिद्ध है कलचूरि वंशके संस्थापक त्रिभुवनमल्ल विज्जल राज्य-. .
कि विजयनगरके राजाओंकी जैनधर्म पर अनुकम्पा रही काल (११५६ से ११६७ ई.) के तमाम दान-पत्रोंमे एक
है। देवराय प्रथमकी रानी विम्मादेवी जैनाचार्य अभिनयजेनतीर्थकरका चित्र अंकित था। वह स्वयं जैन था। चारुकी ति पंडिताचार्यकी शिष्या रही है और उसीने
वासयत माया श्रवणबेल्गोलमें शांतिनाथकी मूर्ति स्थापित कराई । क्योंकि उसने वासवके कहनेसे जैनिय को सन्ताप देनेसे बुक्का (द्वितीय) राज्यकाल (१३८५ से १४०६) के सेनाइन्कार कर दिया था । वामव लिंगायत सम्प्रदायका संथा- पनि इरगुप्पाने एक सांचीके शिलालेखानुसार सन् १३८५ पक था।
ईस्वी में जिन कांची में १७वें तीर्थंकर भगवान् कुन्थनाथका मैसूरके होयल शासक जैन रहे है। विनयादित्य
मन्दिर और संगीतालय बनवाया। इसी मन्दिरके दूसरे (द्वितीय राज्यकाल (१०४७ से ११०.ई.) तक हम
शिलालेखके अनुसार विजयनगरके नरेश कृष्णदेवराय सन् वंशका ऐतिहासिक व्यक्ति रहा है। जैनाचार्य शांतिदेव
(१५१० से १५२६) की जैनधर्मके प्रति सहिष्णुता रही और ने उसकी बहुत सहायता की थी। विष्णुवर्द्धनकी रानी
उसने जैन मन्दिरोंको दान दिया। विजयनगरके रामराय शान्तलादेवी जैनाचार्य प्रभाचन्द्रकी शिष्या थी और तक सभी शासकोने जैन मन्दिरोंको दान दिये और उनकी विष्णुवर्द्धनके मन्त्री गंगराज और हुलाने जैनधर्मका बहुत
- जैनधर्मके प्रति भास्था रहो । प्रचार किया । अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पहलेके विजयनगरके शासकोंका और उनके अधीन सरदारोंका हाय्यसल नरेश जैन थे। विष्णुवर्द्धन अपरनाम विट्टी' और मैसूर राज्यका आजतक जैनधर्मके प्रति यही दृष्टिरामानुजाचार्य के प्रभावमें आकर वैष्णव हो गये । विही कोण रहा है। कारकलके शासक गेरसोप्पा और भैरव भी वैष्णव होनेसे पहले कट्टर जैन था और वैष्णव शास्त्रोम जैनधर्मानुयायी थे और उन्होंने भी जैन-कलाको प्रदर्शित उसका वैष्णव हो जाना एक आश्चर्यजनक घटना कही जाती करने वाले अनेक कार्य किये। है। इस कहावत पर विश्वास नहीं किया जाता कि उसने अब प्रश्न यह है कि जैनधर्मकी देशना क्या है ? रामानुजकी आज्ञासे जनाका सन्ताप दिया; क्योंकि उसकी अथवा श्रवणबेल्गोल और अन्य स्थानांकी बाहुबलीकी रानी शान्तलादेवी जैन रही और विष्णुवर्द्धनकी अनुमतिसे विशाल मूर्तियों एवं अन्य चौवीस तीर्थंकरोंकी प्रतिमा जैनमन्दिरोंको दान देती रही। विष्णुवर्द्धनके मन्त्री गंग- संसारको क्या सन्देश देती हैं? राजकी सेवायें जैनधर्मके लिए प्रख्यात है विष्णुवर्द्धनने
। जनधमक लिए प्रस्थात ह विष्णुवद्धनने जिन शब्दका अर्थ विकारोंको जीतना है। जैनधर्मवैष्णव हो जानेके पश्चात् स्वयं जैनमन्दिराको दान दिया, के प्रवर्तकोंने मनुष्यको सम्यक श्रद्धा, सम्यक्बोध, सम्यक्उनकी मरम्मत कराई और उनकी मूर्तिया और पुजारिया- ज्ञान और निर्दोष चरित्र के द्वारा परमात्मा बननेका भादर्श की रक्षा की। विष्णुवर्द्धनके सम्बन्धमें यह कहा जा सकता उपस्थित किया है। जैनधर्मका ईश्वरमें पूर्ण विश्वास है है कि उस समय प्रजाको धर्मसेवनकी स्वतन्त्रता थी। और जैनधर्मके अनधान द्वारा अनेक जीव परमात्मा बने
विष्णुवर्बनके उत्तराधिकारी यद्यपि वैष्णव थे तो भी हैं। जैनधर्मके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरके धर्मउन्होंने जैनमन्दिर बनवाये और जैनाचार्योंकी रक्षा की। का २५०० वर्षोंका एक लम्बा इतिहास है। यह धर्म
जनधर्मका मामा बननेका
और जैनधर्मके
और जैनाचायव थे तो भी
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किरण ११)
वीरसेवामन्दिरका संक्षिप्त परिचय
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भारतमें एक कोनेसे दूसरे कोने तक रहा है। प्राज भी एक ऐसी साधु-संस्थाका निर्माण किया, जिसकी मिति पर्णगुजरात, मथुरा, राजस्थान, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, अहिंसा पर निर्धारित थी। उनका 'अहिंसा परमो धर्मः' दक्षिण, मैसूर और दक्षिण भारत इसके प्रचारके केन्द्र हैं। का सिद्धान्त सारे संसारमें २५०० वर्षों तक अग्निकी तरह इस धर्मके साधु और विद्वानोंने इस धर्मको समुज्ज्वल किया व्याप्त हो गया । अन्तमें इसने नवभारतके पिता महात्मा
और जैन व्यापारियोंने भारत में सर्वत्र सहस्रों मन्दिर बन- गांधीको अपनी ओर आकर्षित किया। यह कहना अतिवाये, जो आज भारतकी धार्मिक पुरातत्वकलाकी अनुपम शयोक्तिपूर्ण नहीं कि अहिंसाके सिद्धांत पर ही महात्मा शोभा हैं।
गांधीने नवीन भारतका निर्माण किया है ।*
------- ----- - - - - ----- --- --- ---- भगवान् महावीर और उनसे पूर्वके तीर्थंकरोंने बुद्धकी
8. इस लेखके लेग्वक पुरातत्वविभाग दिल्लीके डिप्टीतरह बताया कि मोक्षका मार्ग कोरे क्रियाकाण्डमें नहीं है,
डाइरेक्टर जनरल है। उनके हालमें १५ जनवरी बल्कि वह प्रेम और विवेक पर निर्धारित है। महावीर
१९५३ को लिखे गये एक अंग्रजी भूमिका-लेख और बुद्धका अवतार एक ऐसे समयमें हुआ है जब भारतमें भारी राजनैतिक उथल-पुथल हो रही थी। महावीरने
(Preface) परसे अनुवादित ।
वीरसेवामन्दिरका संक्षिप्त परिचय
'वीरसेवामन्दि' जैन-साहित्य इतिहास और तत्त्वविष- उद्घाटनकी रस्मके बादसे इस पाश्रममें पब्लिक यक शोध-खोजके लिए सुप्रसिद्ध जैन-समाजकी एक खास लायब्ररी, कन्याविद्यालय, धर्मार्थ अषधालय, अनुसन्धान अन्वेषिका संस्था (रिसर्च इन्स्टिट्यूट) है, जिसका प्रधान (Research), अनुवाद, सम्पादन, प्राची-ग्रंथसंग्रह, लक्ष्य लोक-सेवा है।
ग्रंथनिर्माण, ग्रंथप्रकाशन और 'अनेकान्त' पत्रका प्रकाशसंस्थाकी स्थापना और ट्रस्टकी योजना
नादि जैसे लोक-सेवाके काम होते आये है-कन्याविद्यालोक-सेवाके अनेक सदुद्देश्योको लेकर स्थापित इस
लय और औषधालयको छोड़कर शेष कार्य इस वक्त भी संस्थाका संस्थापक है इन पंक्तियांका लेखक जुगलकिशोर
बराबर हो रहे हैं। अनेक विद्वान् एवं पंडित तथा दूसरे मुख्तार (युगवीर), जिसने अपनी जन्मभूमि सरसावा ।
सज्जन इसके कामों में लगे हैं और संस्थापकतो, ७५ वर्षकी (जिला सहारनपुर) में प्रांड ट्रंक रोड़ पर, निजी वर्चसे
इस वृद्धावस्थामें भी, बिना किसीकी प्रेरणाके दिन-रात विशाल बिल्डिंगका निर्माण कराकर उसमें वैशास्त्र सुदि
सेवाकार्य किया करता है। तीज (अक्षयतृतीया) सम्बत् ११३ ता. २४ अप्रैल
संस्थापकने सन् १९४२ में अपना 'वसीयतनामा' सन् १९३६ को इस संस्थाकी स्थापना की थी। संस्थाके लिखकर उसकी रजिस्टरी करा दी थी, जिसमें अपने द्वारा उद्घाटनकी रस्म बड़े उत्सवके साथ श्रीवीर भगवान्की संस्थापित 'वीरसेवामन्दिर' के
संस्थापित 'वीरसेवामन्दिर' के लिये दूस्टकी भी एक रथयात्रा निकालकर ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी के द्वारा योजना की गई था। यह योजना उसक दहावसानक बाद सम्पन्न हुई थी और वीरसेवामन्दिरकी बिल्डिंग पर पहला ही कार्यमें परिणत होती । परन्तु उसने उचित समझकर मंडा बाबू सुमेरचन्द्र जी जैन एडवोकेट सहारनपुरने लह- अब अपने जीवनमें ही 'वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट' की स्थापना राया था, जिनके विशेष परामर्शसे संस्थाकी अन्यत्र करके उसे पब्लिक ट्रस्टका रूप दे दिया है। ट्रस्टकी रजिस्थापना न करके उसे सरसावामें ही स्थापित किया गया स्टरी ता. २ मई सन् १९५० को करा दी है और अपनी था । संस्थाके इस जन्मके पीछे संस्थापकका लोकहितकी सम्पत्ति ट्रस्टियोंके सुपुर्द कर दी है। उसके दूस्टनामा दृष्टिको लेकर वर्षोंका गहरा अनुचिन्तन एवं सेवाभाव (Deed of Trust) की, जिसे उसने स्वयं अपने हाथलगा हुश्रा है।
से हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपिमें लिखा है, पूरी
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अनेकान्त
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नकल 'भनेकान्त वर्ष के "मर्वोदय-तीर्थात" नामक वनी, जैन-पारिभाषिक-शब्दकोष, जैनप्रन्योंकी सूची, विशेषांक में प्रकाशित हो चुकी है।
जैन-मन्दिर-मूर्तियोंकी सूची और किसी तस्वका नई शैलीबीरसेवामन्दिर ट्रस्टके वर्तमान ट्रस्टियों एवं पदाधि- मे विवेचन या रहस्यादि तैयार कराकर प्रकाशित करना। कारियोंके नाम इस प्रकार है:
(घ) उपयोगी प्राचीन जैनग्रन्थों तथा महत्वके १.बाबू बोटेखानजी कलकत्ता (प्रधान), २. बाबू नवीन ग्रन्थों एवं लेखांका भी विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओं जयभगवानजी एडवोकेट पानीपत (मंत्री), ३. ला० कपूर- में नई शैलीसे अनुवाद तथा सम्पादन कराकर अथवा चन्दजी कानपुर (कोषाध्यक्ष), ४. जुगलकिशोर मुख्तार मल रूपमें ही प्रकाशन करना। प्रशस्तियों और शिला-लेखों सरसावा (अधिष्ठाता), १.ला. राजकृष्णजी जेन देहली प्रादिके संग्रहभी पृथक रूपसे सानुवाद तथा विना अनुवाद (व्यवस्थापक), ६. ला जुगलकिशोरजी कागजी देहली, के ही प्रकाशित करना। ७. ना. जिनेन्द्रकिशोरजी जौहरी देहली, ८, सेठ छदामी
(क) जन-संस्कृतिके प्रचार और पब्लिकके प्राचारलालजी फीरोजाबाद, .. बाबू नेमचन्दजी वकील महारन
विचारको ऊंचा उठानेके लिये योग्य व्यवस्था करना । वर्तपुर, १. डा० श्रीचन्द्रजी संगल एटा, ११. श्री. जयवंती
मानमें प्रकाशित 'अनेकान्त' पत्रको चालू रखकर उसे और जी नानौता, १२. ला. नत्थूमलजी बरनावा।
उन्नत तथा लोकप्रिय बनाना । माथ ही, मार्वजनिक उपवीरसेवामन्दिरके उद्देश्य और ध्येय
योगके पैम्फलेट व ट्रैक्ट (लघु-पत्र-पुस्तिकाएं.) प्रकाशित दृस्टके अनुसार वीरसेवामन्दिरके उद्देश्य और ध्येय करना और प्रचारक घुमाना। ( Aims and objects) निम्न प्रकार हैं, जो मब (च) जन-साहित्य, इतिहास और संस्कृतिकी सेवा जैनधर्म और तदाम्नायकी उमति एवं पुष्टिके द्वारा लोककी तथा तरसम्बन्धी अनसंधान व नई पद्धतिमे ग्रन्थनिर्माणके सच्ची सेवाके निमित्त निर्धारित किये गये हैं
यह
कामों में दिलचस्पी पैदा करने और यथावश्यकता शिक्षण (क) जैन संस्कृति और उसके साहित्य तथा इतिहास- (ट्रेनिंग) दिलाने के लिये योग्य विद्वानांको कालशिप से सम्बन्ध रखने वाले विभिन्न ग्रन्थों, शिला-लेम्वों, प्रश- (वृत्तियां बजीफे देना। स्तियों, उल्लेग्व-चालयों, सिको, मृर्तियां, स्थापत्य व चित्रकलाके ममूनों आदि सामग्रीका लायब्ररी व म्यूजियम
(छ) योग्य विद्वानोंको उनकी साहित्यिक सेवाओं नथा
इतिहासादि-विषयक विशिष्ट म्बोजोंके लिये पुरस्कार या (Library and Musium) मादिके रूपमे अच्छा संग्रह करना और दूसरे ग्रन्थोंकी भी ऐसी लायब्ररी प्रस्तुत
उपहार देना । और जो मज्जन निःस्वार्थभावसे अपनेको
जैनधर्म तथा समाजकी मेवाके लिये अर्पण कर देखें उनके करना जो धर्मादि विषयक खोजके कामोंमें अच्छी मदद दे सके।
- भोजनादि-स्वर्च में सहायता पहुंचाना। (ख) उक्त सामग्री परसे अनुसंधान-कार्य चलाना और (ज) 'कर्मयोगी जैनमण्डल' अथवा 'वीर ममन्तभद्रउसके द्वारा लुप्तप्राय प्राचीन जैन साहित्य, इतिहास व गुरुकुल' की स्थापना करके उसे चलाना। तत्वज्ञानका पता लगामा और जैनसंस्कृतिको उसके वीरसेवामन्दिरके अबतकके कार्य असली तथा मूलरूपमें खोज निकालना।
अपने इस बाल्यकालमें वीरसेवामन्दिरने कितने मेवा (ग) अनुसंधान व खोजके आधार पर नये मौलिक कार्य किये, कितने माहित्यकी सृष्टि की, कितनी विचारसाहित्यका निर्माण कराना और लोक-हितकी दृष्टिसे उसे जागृति उत्पल की, कितनी नई खोजें साहित्यादि-विषयोंकी प्रकाशित कराना; जैसे जैन-संस्कृतिका इतिहास, जैनधर्म- सामने रखी और कितनी उलझने सुलझाई, इन सबका का इतिहास, जैन-साहित्यका इतिहास, भगवान महावीर- विस्तृत अथवा पूर्ण परिचय तो किसी बड़ी रिपोर्टका का इतिहास, प्रधान-प्रधान जैनाचार्योंका इतिहास, जाति- विषय है। यहां संक्षेपमें उन लोगोंकी जानकारीके लिये गोत्रोंका इतिहास, ऐतिहासिक जैनब्यक्तिकोष, जैनलपवा- कुछ थोडासा परिचय दिया जाता है जो वीरसेवामन्दिर
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वीरसेवामन्दिरका संक्षिप्त परिचय
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तथा उसके कार्योक सम्पर्क में नहीं रहे अथवा कम सम्पर्क में वक्त तक संस्थापककी उक्त विशाल लायब रीमें करीब रहे हैं, जिससे उन्हें भी मोटे रूपमें इस संस्थाकी सेवामों- तीन-चार हजार रुपयेके नये उपयोगी अन्योंकी वृद्धि हई का कुछ प्रामान मिल सके:
है। हस्तलिखित ग्रन्योंकी बात इससे अलग है। कितने (१)संस्थाकी स्थापनाके अनन्तर संस्थापक (जुग
ही प्रन्थ संस्थामें निजके उपयोगके लिये लिखाये गये लकिशोर मुख्तार ) की लायब्ररीको मन्दिरमें इस तरहसे
अथवा संस्थाके विद्वानोंने उन्हें स्वयं लिखा; जैसे लोकव्यवस्थित करनेके बाद कि जिससे वह भले प्रकार पब्लिक
विभाग संस्कृत, प्राकृत पंचसंग्रह और उसकी प्राकृत चूर्णि, के उपयोगमें लाई जासके. पहला काम जो वीरसेवा- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कर्मप्रकृति संस्कृत, क्रियासार प्राकृत, मन्दिरने किया वह 'वीर-शासन-जयन्ती' मैसे पावन पर्व पारमसवाध, छन्दोविद्या, तत्वार्थाधिगम-टिप्पण, स्य का उद्धार है। जिसकी स्मृति तकको जनता बहुत कालसे
दसिद्धि, पायसद्भाव, अनेकार्थ-नाममाला, सीतासतु वृत्तभुलाये हुए थी । धवलादि ग्रन्थोंके प्राचीन उल्लेखोंपरसे
सार प्रा०,अध्यात्मतरगिणीटीका विषापहार तथा एकीभावकी इस पर्वका पता लगाकर सर्वप्रथम वीरसेवामन्दिरमें इसके
सं. टीकाएं, सिद्धिप्रियस्तोत्र-टीका, पंचवालयति-पाठ, उत्सवका सूत्रपात किया गया और ता.५ जुलाई सन् ।
विभिन्न स्तोत्र प्रादि । और पचासों हस्तलिखित ग्रन्थ १९३६ को यह उत्सव न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द्रजीके
खरीदे गये जिनमेंसे कुछ प्रमुख ग्रन्थोके नाम हैं:-धवला सभापतित्वमें आनन्दके साथ मनाया गया। इसके उप
टीका, न्यायविनिश्चय-विवरण, तस्वार्थराजबार्तिक, भुतलक्षमें उसी दिन मन्दिरकी लायब्ररीको भी पब्लिकके
सागरी, सिद्धचक्रपाठ, जैनेन्द्रमहावृत्ति, न्यायदीपिका, लिये खोल दिया गया । श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाकी इस
स्वयम्भूस्तोत्र-टीका, प्रद्य म्नचरित्र, भविष्यदत्तचरित्र पुण्यतिथि-सम्बन्धी खोजोंको लिये हुए कितना ही साहित्य
श्वे) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, षडावश्यकसूत्रकी बाल बोधटीका, पत्रों में प्रकाशित किया गया । और यह हर्षका विषय है पार्श्वनाथचरित्र (भावदेव), उपासकदशा, जम्बूचरित्र कि इस खोजका सर्वत्र अभिनन्दन हुथा है और यह पर्व प्रा०, विपाकसूत्र, भक्तामरस्तोत्र-टीका, दशवैकालिकयोगबराबर विद्वज्जन-मान्य होता चला गया है । वीरसेवा
शास्त्र, योगचिन्तामणि, पिंगलशास्त्र (कुवर भवानीदास) मन्दिरके अतिरिक्त का स्थान प्रान ताजिकसार, ताजिकभूषण, हरिवंशपुराण-पद्यानुवाद मनाया जाता है। सम्बत् २००१(सन १६४४) में बाल (शालिवाहन) धर्मपरीक्षा आदि। इनमें धवलाटीकाकी काटेलालजी कलकत्ताके सभापतित्वमें पास हए वीरसेवा- वह प्राथप्रति पं सीताराम शास्त्रीकी लिखी हुई है जिसके मन्दिरके एक प्रस्तावके अनुसार इस उत्सवका एक विशाल
आधार पर दूसरी अनेक प्रतियां होकर जगह-जगह पहुँची
आधार पर दूसरा अनेक श्रायोजन सार्धद्वयसहस्राब्दि-महोत्सवके रूप में राजगृहके हैं। कितने ही हस्तलिखित ग्रन्थ संस्थापकने वैसे ही बिना उपी विपुलाचल स्थान पर किया गया था जहाँसे वीर- मूल्य प्राप्त किये हैं जिनकी सूची इस समय सामने नहीं शासनकी सर्वोदय तार्थ-धारा प्रवाहित हई थी और वहाँ है। वीरसेवा-मन्दिरकी इस प्रन्धराशिसे बहुताने लाभ यह सर्व तीर्थ-प्रवर्तनके ठीक समयपर मनाया गया था। उठाया है और अनेक ग्रन्थ बाहर भी गये हैं। अन्तको इस महोत्सवकी परिसमाप्ति कलकत्ताके -कार्तिकी (३) सरसावा नगरमें वर्षोंसे कन्याओंकी शिक्षाका उत्पव पर हुई थी, जहाँ दिगम्बर,श्वेताम्बर और स्थानक- कोई साधन न होनेके कारण शिक्षाको भारी आवश्यकतावासी सारे ही जैन समाजने इसे भारी उत्साहके साथ को महसूस करते हुए १६ जुलाई सन् १९३६ से इस मनाया था। वीरके शासनतीर्थको प्रवर्तित हुए ढाई हज़ार सेवामन्दिरमं एक कन्याविद्यालय जारी किया गया, जिसमें वर्ष हो जानेके उपलक्षमें विपुलाचलपर, उत्सवके समय, जन-जन कन्याओंकी संख्या ५० के लगभग पहुँच गई एक कीर्ति-स्तम्भ कायम करनेकी भी बुनियाद रखी गई और परीक्षा फल हर साल इतना उत्तम रहा कि अन्तको थी । बा. छोटेलाल जी की अस्वस्थताके कारण वह कीति- पंजाबकी 'हिन्दी रत्न' की परीक्षामें जब नीन छात्राय बेठी स्तम्भ अभी तक बन नहीं पाया है।
तो वे तीनों ही उत्तीर्ण हो गई। इस विद्यालयने स्त्रियों में (२) लायब्ररीको शोधखोज (रिसर्च) के कामोंके भी ज्ञान-पिपासाको जागृत किया, उनके लिये कुछ समय लिये सुव्यवस्थित करनेका काम बराबर चालू रहा । इस तक एक जुद्री कक्षा बोलनी पड़ी और साथ ही सेवामंदिर
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अनेकान्त
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में उनको एक साप्ताहिक सभा भी कायम हो गई, जिसमें (क) साहित्यिक अनुसन्धान-द्वारा सैकड़ों ऐसे प्रन्यों स्त्रियां और कन्याएँ भाषण देती तथा भाषण देनेका का नया पता चला है, जिनका पहलेसे कोई परिचय नहीं अभ्यास करती थीं। चार साल तक यह विद्यालय बदस्तूर था और जिनसे इतिहासके विषयों पर भी कितनाही प्रकाश जारी रहा । बादको आर्थिक सहयोग न मिलनेके कारण पड़ा है। । उनमें बहुतसे प्रन्थ उपलब्ध है और कुछ ऐसे इसे एक साल तक बन्द रखना पड़ा और अब यह स्थानीय भी हैं जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुए, उनके लिये खोज जनताके प्राधीन हुआ उसके तथा सरकारके सहयोग पर जारी है। स्वोज द्वारा उपलब्ध हुए ग्रन्थोंमेंसे कुछके नाम चल रहा है।
इस प्रकार हैं, जिनमेंसे अधिकांशका निश्चित समय भी (७) वीरसेवामंदिरके सेवाकार्यको साधारणसे साधारण साथमें उपलब्ध हो गया है:जनता तक पहुँचानेके लिये जुलाई सन् १९३७ में एक
सस्कृत मन्थ-१क्षपणासार गय, २ पदार्थदीपिकाधर्मार्थ औषधालय खोला गया और उसके लिये वयोवृद्ध
३ अध्यात्मतरंगिणी टीका, ४ मादिपुराण टीका (ललितहकीम उल्फतराय जी जैन रुड़कीकी मॉनरेरी सेवाएं प्राप्त
कीर्ति), पंचमनस्कारमन्त्र (पा. सिंहनन्दी),६-७ पद्मकी गई। हकीमजीके अनुभवों तथा प्रेममय व्यवहारके
पुराण तथा हरवंशपुराण (बलितकीर्ति-शिष्य धर्मकीति). कारण थोड़े ही दिनोंमें औषधालयकी अच्छी ख्याति हो
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माला
मूलाचार प्रदीप (सकलकीति), धर्मरत्नाकर, १० गई और स्थानीय तथा देहाती जनताने उससे खूब लाभ ...
भ - ममवमरणपाठ (पांडे रूपचन्द्र), ११--१३ यशोधरउठाया। दुर्भाग्यसे हकीमजीका देहावसान श्री सम्मेद
चरित्र, सप्तम्यमनकथासमुच्चय तथा प्रद्युम्नचरित्र (सोमशिखरजीकी दूसरी यात्रा करते हुए हो गया। उनके
कीर्ति), १४ प्राकृत पंचसंग्रहटीका (सुमतिकीर्ति), १५ स्थान पर एक आयुर्वेदाचार्यकी योजनाकी गई; परन्तु वह तवाटिप्पण हमकीति शिष्य प्रभाचन्द्र), १६-१७-१८ बात प्राप्त न हुई । इधर कुछ आर्थिक संकट भी उपस्थित
शान्तिनाथपुराण, पाण्डवपुराण तथा अनन्तव्रतपूजा (विद्याहोता हुमा नजर आया, इसलिये औषधालयको दो वर्षके
भूषण शिष्य श्रीभूषण)१९-२५ भविष्यदत्तकथा, हनुमानकरीब चलाकर बन्द ही कर देना पड़ा।
कथा, नेमीश्वरराम, प्रद्य म्नचरित्र,सुदर्शनरास तथा श्रीपाल(२) वीरसेवामन्दिरका प्रधान लक्ष्य शुरूसे ही अनु- रास (ब्रह्म रायमल्ल).२६ त्रिपंचाशतक्रियाव्रतोद्यापन (देवेन्द्रसन्धान, निर्माण, अनुवाद, सम्पादन और प्रकाशन जैसे कीर्ति) इत्यादि जि.का निर्माण-काल साथमे उपलब्ध ठोस कार्योंकी भोर रहा है। इस दिशामें अथवा इन पांचों है और जिनका निर्माणकाल मायमें उपलब्ध नहीं है विभागांमें जो काम अब तक हो पाया है उसका दिग्दर्शन उन संस्कृत ग्रन्थोके कुछ नाम इस प्रकार हैं:-२७ धर्मभागे विभाग-क्रमसे कराया जाता है।
परीक्षा (मुनि रामचन्द्र), २८ देवताकल्प (गुणनिशिष्य अनुसन्धान-कार्य
अरिष्टनेमि), २६ षड्दर्शन-प्रमाण-प्रमेय-संग्रह (शुभचन्द्र), (६) वीरसेवामन्दिरका अनुसन्धान कार्य प्रायः (क)
३० यशोधरमहाकाव्यपंजिका (श्रीदेव), ३१ द्रोपदिप्रबन्ध
(जिनसेन), ३२ तत्वसारटीका (कमलकीर्ति), ३३ भंगारसाहित्यिक, (ख) ऐतिहासिक और (ग) तात्विक ऐसे तीन भागोंमें विभक्त रहा है। इन सभी अनुसन्धान योग्य
मंजरी (अजितसेन), ३. त्रिलोकसारटीका (सहस्रकीर्ति), विषयोंके लिये वीरसेवामन्दिरकी अधिकांश ग्रन्थराशिके
३५ चन्द्रप्रभचरित्र (शुभचन्द्र), ३६ परमार्थोपदेश (ज्ञानअतिरिक्त विल्ली, जयपुर, भामेर, अजमेर, नागौर, कानपुर,
भूषण), ३६ A प्रायसदभाव (मल्लिषण), ३६ B कर्म
' प्रकृति इत्यादि। सहारनपुर, एटा, इटावा, पारा, कांधला, कैराना, हांसी, हिसार, रोहतक, फरुखनगर, शाहगढ़, सागर और कौडि- अपभ्रंश प्रन्थ-३७ पावपुराण (पकीर्ति), ३८ यागंज भादिके अनेकानेक शास्त्रमण्डारोंको देखा गया, जम्बूस्वामिचरित्र (कवि वीर), जिनदत्त चरित्र (पं० लाखू) हजारों प्रन्थों पर रष्टि डाली गई और सैकड़ों प्रन्थों परसे ४. पावपुराण (विबुध श्रीधर), सुदर्शनचरित्र (नयनोट्स लिये गये, जिनका उपयोग कितने ही विषयोंके नन्दी), ४२ रनकरण्डश्रावकाचार (4. श्रीचन्द्र), ४३ नियमें हुमा है और मागे होने वाला है।
षट्कर्मोपदेश (अमरकीर्ति),४ बाहुबलिचरित्र (धनपास),
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किरण ११ )
४५-४६ पांडवपुराण, इरिवंशपुराण (यशःकीर्ति), ४७-४८ हरिवंशपुराण तथा परमेष्ठिप्रकाशसार (श्रुतकीतिं), ४६-५० सम्यकःव गुणनिधान तथा सुकौशलचरित्र (कविरद्दधू), ५१ भविष्य माधवदत्तकथा ( श्रीधर ) ५२-५३ नागकुमारचरित तथा अमरसेनचरित (कवि माणिक्यराज ५४ मृगांकलेखा चरित (कवि भगवतीदाम), १५ शांतिनाथचरित इल्जराजसुन महाचन्द्र) इत्यादि, जिनका रचना समय साथमें लगा हुआ है । और जिनका रचना समय साथमें उपलब्ध नहीं है उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं : – ५६ सुलोचनाचरिन (गणिदेवसेन), २७ प्र म्नचरित्र (कवि सिंह), २८ पुरंद रविधानकथा (श्रमर कीर्ति) ५६ चन्द्रप्रभचरित्र (यशः कीर्ति) ६० पार्श्वनाथ चरित्र (कवि देवचन्द्र), ६१ नेमिनाथचरित्र (कवि लक्ष्मण) ६२ सुकुमालचरित्र (मुनि पूर्णभद्र ), ६३ श्रीपाल चरित्र ( नरमेन ), ६४ मल्लिनाथचरित्र ( जयमित्रहल अथवा हरिचन्द), ६५-६७ चुनडी, निर्भर पंचमीकथा तथा पंचकल्याणक (विनयचन्द्र ), ६८ निर्वाणभक्ति मुनि उदयकीर्ति), ६६ सुगंधदसमीकथा कवि देवदत्त) ७० श्रणथमी कथा ( कवि हरिचन्द्र अग्रवाल), ७१-८६ पद्मपुराण, धन्यकुमारचरित्र, श्रीपाल चरित्र, मंधेश्वर चरित्र, यशोधरचरित्र श्रात्मसंबोधकाव्य, वृत्तंसार, सिद्धान्तार्थसार, जीवंधरचरित्र, नेमिनाथजिनचरित्र, पुण्यास्त्रत्रकथा कोश, श्राथमी कथा, सम्मतिजिनचरित्र नेमिनाथ जिनचरित्र, पार्श्वपुराण तथा करकंडुचरित्र, ८०-१०० भ० गुणभद्रकृत मी क, पासवकथा, चाकाशपंचमीकथा, चान्द्रायण कथा चन्दनपष्ठी कथा, दुदार कथा निदु वनसमी कथा, मकुटमप्तमी रम्नत्रय कवा, दृशलाक्ष ण कथा श्रनन्तकथा, सुगंधदशमी कथा और लब्धिविधानकथा, १०१ श्रादित्यवारकथा ( कवि नेमिचन्द्र), १०२ निदुग्वसप्तमीकथा ( बालचन्द्र ), १०३ सविधानकथा (विमलकीर्ति), १०४ ज्ञानपिण्डकी पाथडी, (कविवीर) १०५ संभवनाथ चरित्र ( कवि तेजपाल ) सफल विधिविधान (नयनंदि ) इत्यादि ।
वीर सेवामन्दिरका संक्षिप्त परिचय
प्राकृत ग्रन्थ- १०६ अर्धकांड ( दुर्गदेव), १०७ चरणमार (ब्र० सोभारण) १०८ क्रियासार ( गोतम ।
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११४- ११५ अनेकार्थनाममाला तथा सीतासतु (पं० भगवतीदास) ११६-११६ पंचमगतिकी बेल, श्रावकाचारबत्तीसी, श्रात्मपच्चीसी तथा सीखपच्चीसी (भ० हर्षकी तिं) १२० त्रेपनक्रिया (ब्रह्मगुलाल ), १२१ सोलहकारणरासा (भ० सकलकीर्ति) १२२ मनकरहा (ब्रह्मदीपचन्द) १२३ स्नप्रबन्ध (भ० देवेन्द्र कीति), १२४ अध्यात्मवारह खड़ी (१० दौलतराम ) ।
प्रद्य
हिन्दी-ग्रन्थ — १०६ श्रागमशनक (पं० थानतराय) ११० प्रवचनसारका पद्यानुवाद पं० हेमराजगोदीका), १११-११२ दर्शनपाहुड तथा प्रवचनसारका पद्यानुवाद (कवि देवीदास), ११३ नेमिनाथरासा (पाण्डे रूपचन्द),
मिश्रित भाषा ग्रन्थ - १६५ छन्दविद्या (कवि राजमल ) अनुपलब्ध ग्रन्थ- जिन ग्रन्थोंके निर्माणादिका दूसरे ग्रन्थोंसे पता चला है और जो अभी तक उपलब्ध नहीं ऐसे ग्रन्थ भी बहुत हैं। यहां उनमेंमें थोड़ेसे संस्कृत ग्रंथोंके नाम नमूनेके तौर पर दिये जाते हैं-१ श्रष्टांग वैद्यक ( समन्तभद्र २-३ विषग्रहशमनविधि तथा नीतिसारपुराण (सिद्धसेन ) ४-६ नेमिनरेन्द्रस्तोत्र स्वापज्ञटीकासहित, शृंगारसमुद्रकाव्य तथा सुषेणचरित्र (पं० जगन्नाथ) ७ श्रात्मसम्बोधन ( भ० ज्ञानभूषण), ऋषभदेव महाकाव्य ( नेमिकुमारसुन वाग्भट)। इनके अलावा कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ ऐसे भी हैं जिनकी अनुपलब्धिका पता इन पंक्तियांक लेखकको वीर-संवामन्दिर की स्थापनासे पहलेही लग गया था और जिन्हें समन्तभद्राश्रम विज्ञप्ति नं० ४ में परिचय तथा परितोपिककी योजना के साथ प्रकाशित किया गया था श्रीर जिन २० प्रथोमेंसे अभी तक प्रायः तीन चार ग्रन्थ ही उपलब्ध हो सके हैं।
(a ) ऐतिहासिक अनुसन्धान द्वारा इतिहास विषयकी मैया का पता चलाया गया, कितनी ही श्रुतपूर्व घटनाओं का सामने लाया गया, अनेक प्राचार्यों तथा दूसरे विद्वानोंके समयादिकको खोजकी गई और उनकी कितनी ही कृतियां का ठीक रचनाकाल मालूम किया गया। साथ ही, कुछ याचायोंके समय-सम्बी उलझन को सुलकाकर उनका निश्चित समय स्थिर किया गया-जैसे समन्तभद्र, थकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र और मृतचन्द्रादिका समय । दूसरी भी कुछ विवादापन बातों का निर्णय किया गया। धनपाल चतुर्थ श्रौर वाग्भट्ट चतुर्थका उनकी कृतियां सहित नया पता लगाया गया । श्रीधर तथा विबुधश्रीधर में भेदकी घोषणा की गई । इनके सिवाय और भी बहुत-सी बातें हैं जिन्हें खोजद्वारा निर्णीत किया गया है और जिन सबका परिचय देना यहां अशक्य
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अनेकान्त
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है । ऐतिहासिक खोजोंका ठीक परिचय प्राप्त करनेके लिये ८. देहलीके तोमर-चंशी तृतीय अनंगपालकी खोजके, 'अनेकान्त' में प्रकाशित उन लेखांको देखना चाहिए द्वारा अन्व तोमर-वंशी राजाओं और चौहान वंशी राजाओं जिनकी सूची निर्माणकार्य अन्तर्गत आगे दी गई है की वंशावली तथा समयका सम्बन्ध ठीक घटित हो जाता
और उन अन्य की प्रस्तावनाओं को भी देखना चाहिए जो है और इतिहासकी कितनी ही भूल-भ्रांतियां दूर हो वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित हुए हैं और जिनकी भी एक जाती हैं। सूची भीगे दी गई है। यहां उदाहरणके तौर पर अथवा
(ग) तात्त्विक अनुसन्धान द्वारा तत्वविषयकी सैकड़ों संकेतरूपमें कुछ थोड़ी-सी खोज-सम्बन्धी बातों को ही नाचे
बातों पर नया प्रकाश डाला गया है। इसमें दर्शन, ज्ञान नोट किया जाता है :
और चरित्र तीनों विषयकी बातोंका समावेश है। इस १. स्वामी समन्तभद्रके एक और परिचय पद्यकी
अनुसन्धान कार्यका पूरा परिचय प्राप्त करनेके लिये उन देहली-पंचायती मन्दिरके एक पुराने जीर्ण-शीर्ण गुटके
तात्त्विक लेग्वोंको देखना होगा जो आगे निर्माणकार्यक परमे खोज, जिसमें ममन्तभद्रके दस विशेषणोका उल्लेग्व अन्तर्गत दी हुई लेख-सूची में समाविष्ट हैं और 'अनेकान्त' है। उनमें से प्राचार्यादि चार विशेषणांके अतिरिक्त दैवज्ञ,
में प्रकाशित हो चुके हैं; जैसे सेवाधर्मदिग्दर्शन, सकामभिषक, मांत्रिक, तांत्रिक, प्राज्ञामिद्ध अ सारस्वत धर्ममाधन. स्व-पर-वैरी कौन ? वीतरागकी पूजा क्यों? ये छह विशेषण नये ही प्रकाशमें पाए हैं।
पुण्य-पाप-व्यवस्था, भक्तियोगरहस्य, अनेकान्तरमलहरी, २. 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' देवागमयादिग्रन्थाके कर्ता श्रीवीरका सर्वोदय तीर्थ और वीरशासनकं कुछ मूलसूत्र स्वामी समन्तभद्रकी कृति है, ऐसा अनुसन्धान-प्रधान इत्यादिक । साथ ही स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, प्राप्तपुष्ट प्रमाणों के आधार पर सुदृढ़ निर्णय करके विवादको परीक्षा और समीचीनधर्म-शास्त्रादि तात्त्विक ग्रन्थोंके अनुशान्त किया गया।
वादों और उन सानुवाद ग्रन्थोंकी अधिकांश प्रस्तावनाओं३. प्रचलित गोम्मटसार-कर्मकाण्ड का प्रकृतिसमुत्कीर्तन के
को भी देखना होगा जिनका निर्माण वीरसेवामन्दिरमें अधिकार त्रुटिपूर्ण है। उसमें प्राकृतके कुछ गद्यसूत्र छूटे
हुआ हैं। ऐसा होने पर ही मन्दिरके तात्विक अनुसंधानोंहुए हैं जो कि मूडबढीकी ताडपत्रीय प्रतिमें पाये जाते हैं,
का यथेष्ट एवं ठीक पता चल सकेगा । यहाँ विवेचनको न कि 'कर्मप्रकृति' वाली कुछ गाथाएँ छूटी हुई है। गद्य
साथमें लिये बिना चलते रूपमे कुछ लिख देना ठीक सूत्रोंकी खोज-द्वारा टिपूर्ति होकर तद्विषयक विवाद की
नहीं होगा। शान्ति हुई।
निर्माण कार्य ४. गहरे अनुसन्धान-द्वारा यह प्रमाणित किया गया ७. निर्माणकार्य में, अनुवादकार्यको छोड़कर जिसे कि 'मन्मतिसूत्र' के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर थे तथा अलगसे ग्रहण किया गया है, ग्रन्थों, लेखों तथा कविताओंसम्मतिसूत्र, न्यायावतार और द्वात्रिंशिकाओके कर्ता एक का रचनाकार्य, सामग्रीका संकलन और ग्रन्थोंकी प्रस्ताही सिद्धसेन नहीं, तीन या तीनसे अधिक हैं। साथ ही वनाओं, परिशिष्टों, विषयसूचियों तथा प्रकाशकीय वक्तव्यों उपलब्ध २१ दुनिशिकाओंके कर्ता भी एक ही मिद्धमेन प्रादिकी सृष्टिका कार्य शामिल है। इस दिशाम वीरसेवानहीं।
मन्दिरमं जो कार्य हुआ है उसकी रूपरेखा इस प्रकार है:५. कल्याणमन्दिरके कर्ता सिद्धसेन दिवाकर नहीं१. समीचीनधर्मशास्त्र ( रस्नकरण्ड ) का प्रामाणिक और न वह श्वेताम्बरकृति है।
अनुवाद प्रस्तुत करनेके लिए उसके सम्पूर्ण शब्दोंकी एक ६. उपलब्ध 'तिलोयपण्णती' यतिवषमकी तिलो- ऐसी सूची तैय्यार की गई जिससे यह मालूम हो सके कि यपण्णत्तीसे भिन्न नहीं और न वह धवलादिके बादकी उन शब्दोंका समन्तभद्रके दूसरे ग्रन्थोंमें कहां पर किस कृति है।
अर्थको लेकर प्रयोग हुआ है। ७. 'मोक्षमार्गस्य नेतार' इत्यादि पद्य तत्त्वार्थसूत्रका २. स्वामी समन्तभद्रके उपलब्ध सभी ग्रन्थोंका मंगलाचरण है।
प्रकारादिक्रमसे एक शब्दसंग्रह 'समन्तभद्र-भारती-कोश' के
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किरण ११]
नामसे तैय्यार कराया गया, जो अनुसन्धान, अनुवाद तथा निर्माण कार्यों में सहायक हो सके और जिसे 'समन्तभद्र-भारती' नामसे प्रस्तुत किये जाने वाले महान् ग्रन्थके साथ देनेका विचार है ।
वीर सेवामन्दिरका संक्षिप्त परिचय
३. त्रिलोकप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्राकृत पंचसंग्रह और न्यायविनिश्चय आदि कितने ही ग्रन्थों की अलगअलग पद्यानुक्रमणिकाएं तैय्यार कराई गई ।
४. प्रायः २०० दिगम्बर और २०० श्वेताम्बर ग्रंथोंने पदार्थोंके लक्षणस्वरूपादिका एक अभूतपूर्व विशाल संग्रह कारादिक्रमसे प्रस्तुत किया गया, जो अनेक विद्वानोंके कई वर्ष परिश्रमका फल है । यह संग्रह, सम्पादन एवं एक-एक विषयके अनेक लक्षणांके कालक्रमसे क्रमीकरण के 'अनन्तर, 'जैनलक्षणावली' अर्थात् लक्षणात्मक जैन-पारिभाषिक शब्दकोष के नामसे पांच-छह बड़े-बड़े खण्डों में प्रकाशित होगा। साथ में हिन्दी लक्षणोंका भी आयोजन रहेगा । और इसलिए यह महान् ग्रन्थ सभी स्वाध्यायप्रेमियों. प्रन्यादि-लेखकों, शांध-ग्वोज तथा किसी विषय के निर्णयका काम करने वालोके लिये बड़े ही कामकी चीज होगा ।
५ विविध जैनग्रन्थोंसे आदि-अन्तभागादिके रूपमें प्रशस्तियं का संग्रह करके उन्हें 'जैनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह के नामसे फिलहाल दो बड़े भागों में विभक्त किया गया है । पहले भाग में उन संस्कृत तथा प्राकृत ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंका संग्रह किया गया जो अभी तक प्रायः श्रप्रकाशित हैं या प्रकाशित होकर भी अन्तिम प्रशस्तिभागसे शून्य हैं अथवा किसी प्रशस्ति में कुछ गलनीको लिये हुए हैं। दुसरे भाग में अपभ्रंश भाषाके ऐसे ही ग्रन्थोंकी नशस्तियों का संग्रह है जो प्रायः अप्रकाशित हैं। पहला भाग छप रहा है और दूसरा भाग प्रेसको जानेकी तैयारी में हैं । इन दोनों प्रशस्तसंग्रहोंमें इतिहासकी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है ।
६ दिगम्बर जैनग्रन्थोंकी एक मुकम्मल सूची भी कुछ सेंसे वीरसेवामन्दिर में तय्यार हो रही है, जिससे दिगम्बर साहित्यका ठीक अन्दाजा लगाया जा सकेगा और हर जैनीको अपने घरकी इस साहित्य-पूँजीका पता चल सकेगा। इस दिशा में अब तक जो काम हुआ है उसके फलस्वरूप कई हज़ार प्रन्थों की सूची 'अनेकान्त' में प्रका
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शित की जा चुकी है । दूसरे ग्रन्थोंकी सूचीका पता लगाया जा रहा है और शास्त्र भण्डारोंकी सूचियोंमें जो गलतियों हैं उनके संशोधनका कार्य भी हो रहा है।
७ 'पुरातन जैन वाक्य सूची' के रूपमें प्राकृत भाषाके ६४ दिगम्बर जैनग्रन्थोंकी अकारादि क्रमसे एक जनरल पथानुक्रमणी तय्यार कराई गई और उसके साथमें ४८ टीकादि ग्रन्थोंमें उद्धृत दूसरे प्राकृत पथोंकी भी अनुकमणी तयार करा कर लगाई गई । और भी कुछ उपयोगी परिशिष्टांकी योजना की गई। साथ ही ग्रन्थ-ग्रन्थकारादि विषयक गवेषणाओंसे परिपूर्ण १७० पृष्ठकी महती प्रस्तावना भी लिखकर लगाई गई और प्रस्तावनाकी उपयोगिताको बढानेके लिये उसकी 8 पृष्ठकी नामसूची भी तय्यार करा कर लगानी पड़ी। इस तरह ग्रन्थकी तय्यारीमें ही नहीं किन्तु छपाईक प्रूफरीडिंग जैसे काम में भी मन्दिरके कई विद्वानोंको भारी परिश्रम उठाना पड़ा है, तब यह महान् मौलिक ग्रन्थ विद्वानोंके हाथोंमें दिया जा सका है।
(८) वीरसेवामन्दरसे प्रकाशित जिन दूसरे प्रमथोंकी प्रस्ताननाओं के निर्माणका कार्य मन्दिरमें हुआ है उनके नाम कुछ प्रस्तावनाओंके वकटमें ) पृष्ठांक सहित इस प्रकार हैं:
१ समाधितन्त्र (२१, २ श्रध्वात्मकमलमार्तण्ड ७८ ) ३ श्राप्तपरीक्षा २४), ४ स्वयम्भूस्तोत्र ( १०६), ५ युक्त्यनुशासन ३६ ), ६ स्तुतिविद्या (३१), ७ उमास्वामिश्रा ० परीक्षा (१४), ८ श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र (१६), ६ शासनचतुस्त्रिशिका (१३), १० सत्साधुस्मरण - मंगलपाठ, ११ प्रभाचन्द्रीय तस्वार्थसूत्र (८), १२ अनित्यभावना, १३ न्यायदीपिका (१०१), १४ बनारसीनाममामा शब्दकोशसहित १२ + ५४ ) । इनके अतिरिक्त जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह (प्रथम भाग ) जो अभी अप्रकाशित है उसकी प्रस्तावना लिखी जा चुकी है और वह करीब १५० पृष्ठकी होगी।
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ग्रन्थोंकी प्रस्तावनाओंसे भी बड़ा निर्माण-काय जो वीरमेवामन्दिर में हुआ है वह उन लेखोंका रचनाकार्य है जो समय समय पर मन्दिरके विद्वानों द्वारा खोजके साथ लिखे जाकर 'अनेकान्त' मासिकमें प्रकाशित हुए हैं और जिनसे कितने ही महत्वपूर्ण साहित्यकी नई सृष्टि हुई है ।
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अनेकान्त
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ये लेख दो भागों में विभक्त है-(क) एकमें स्वयं सम्पादक उसका हिन्दी भरप्य, ४१ ऐतिहासिक घटनाओंका एक अनेकान्त अर्थात् संस्थापक व अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर संग्रह, ४२ गोम्मटमार और नेमिचन्द, ४३ मूलाचार और (जुगलकिशोर मुख्तार) द्वारा लिखे गये लेग्व और (ख) कार्तिकेयानुप्रज्ञा, १४ भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना, दूसरेमें मन्दिरके अन्य विद्वानों द्वारा लिखे गये लेग्ब शामिल ४५ 'वानर महाद्वीप' पर सम्पादकीय नोट, ४६ जीवस्व है, जिनमें पं० परमानन्दशास्त्री, ६० दरबारीलाल न्याया- रूप-जिज्ञासा (प्रश्नावली), . श्री अकलंकदेव भार चार्य, बा. सूरजभान वकील, बा. जयभगवान वकील, विद्यानन्दकी राजवार्तिकादि कृतियो पर पं० सुखलालजीके ६. ताराचन्द दर्शनशास्त्री, पं. दीपचन्द्र पांढ्या, बा. गवेषणापूर्ण विचार, ४८ पं. महेन्द्रकुमारजीका लेख, ४६. बालचन्द एम. ए. और बा. ज्यातिप्रसाद एम. ए. के नाम गदरसे पूर्व लिखी हुई ५३ वर्षकी 'जन्त्री स्वाम', ५० रही खास तौरसे उल्लंग्वनीय है। दोना विभागांक प्रायः ग्वास में प्राप्त हस्तलिखित जैन-अजैन ग्रन्थ, ११ एलक-पदकल्पना लेख इस प्रकार :
(संशोधित और परिवर्धित-संस्करण ', १२ रत्नकरण्डके (क) मन्दिरके अधिष्ठाता-द्वारा लिखे गये लेख- कर्तृत्व विषयमें मेरा विचार और निर्णय, ५३ सन्मति
पनि पानीकोन सूत्र और सिद्धसेन, ५४ समवसरणमें शूद्रांका प्रवेश, २ संघा-धर्म-दिग्दर्शन, ३ भगवनी श्राराधनाकी दूसरी ५५ जन कालानी पार नरा विचार-पत्र, ५६ सन्मतिप्राचीन टीका-टिप्पणियां, ४ ऊँच गोत्रका पवार कहां ?,
विद्याविनाद, ५७ अष्टमहत्रीकी एक प्रशस्ति, १८ 'जैना५ ार्य और म्लेच्छ, ६ सकाम-धमा-माधन, ७ 'गोत्र-सबंधी
गम और यज्ञोपवीत' पर सम्पादकीय विचारणा, ६ एक विचार' पर सम्पादकीय नोट, मात्रकर्म पर शास्त्राजीका
प्राचीन ताम्रशासन, ६. गलनी और गलत फहमी, ६१ उत्तर लग्ब, ६ अन्तरीपज मनुष्य, १० श्री पृयपाद पार
विपुलाचल पर वीर शासन-जयन्तीका अपूर्व दृश्य, ६२ उनकी रचनायें, हमचन्दाचार्य-जन-ज्ञानन्दिर, १२ कलकत्ताम वीर शासनका सफल महात्मव, ६३ संस्कृत पानिप्राभृत श्रार जगत्सुन्दरी-नांगमाला, १३ स्वामी पात्र- कमभात, ६५ भारतका स्वतन्त्रता, उसका में कसरी और विधान परिशिष्ट जगासन्दा प्रयो- वर्तव्य, ६५ वीर-तीयांवतार, ६६ श्रीवारका सर्वोदय-तीर्थ गमाला' पर सम्पादकीय नोट, १५ जगन्मुन्दरी प्रयागमाला ६७ चीर शासन काल मृल सूत्र । की पूर्णता, १६ तस्त्राथांधिगममूत्रकी एक टिप्पणप्रति, [इनके अतिरिक्त कितने ही सम्पादकीय बक्तव्य, १७ धवलादि घृत-परिचय, १८ जानलनणावली, 18 वियांगादि-विषयक सामयिक लेख, साहित्य-समालोचन, 'तत्वार्थभाप्य श्रार असलंक पर सम्पादकीय विचारणा, टीका-टिप्पणी, प्राचायों आदिके स्मरण, अनंक शास्त्र२० हालीका त्यौहार, २१ प्रभायन्द्रका तवार्थ सूत्र, २२ भरडारांक परिचय लेन्व और बीसियां सं स्तुनि-म्नीत्रों प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा, २३ चित्रमय जना अादिक परिचय-लेख भी लिखे जाकर अनेकान्तमें प्रकाशित नीति, २४-२६ समन्तभद्र विचारमाला-(क) स्व-पर- हुए हैं जो प्रायः नई खोजासे सम्बन्ध रखते हैं । इसी चैरी कौन ?, (ख) वीतरागको पूजा क्या?, (ग) पुण्य- तरह कुछ कवितायें भी लिखी जाकर प्रकाशित हुई है। पाप-व्यवस्था, २७ "सिद्ध, प्राकृत' पर सम्पादकीय नोट, जैसे मानवधर्म परमउपास्य कौन ?. जैन गुण-दर्पण २८ भक्तियोग-रहस्य, २६ कवि राजनरल और राजा भार- (जैनी कान ?), हृदय है वना हुश्री फुटबाल होली मल्ल, ३. वीरनिर्वाण सम्बत् की समाजांचना पर विचार, है ?! इत्यादिक । साथ ही कुछ लेग्य वीर, जैन सिद्धान्त३. परिग्रहका प्रायश्चित्त. ३२ महत्वकी प्रश्नोत्तरी, ३३ भास्कर तथा जैनमित्रादि पोका और स्मृति-अभिनन्दनश्वेताम्बर तत्वार्थ सूत्र और उम्प भाप्यकी जांच, ३५ ग्रन्थोंको भी लिख कर भेजे गये हैं। अनेकान्तके मुख पृष्ठका चित्र, ३५ 'सर्वार्थमिन्ति' पर समन्तभद्रका प्रभाव, ३६ समन्तभद्रका एक और परिचय- (ख) मन्दिरके दूसरे विद्वानों द्वारा लिखे गये लेख पद्य, ३० अनेकान्त-रस-लहरी, ३८ बीर-शापनकी उत्पत्ति- पं. परमानन्द शास्त्री-१ अपराजितमूरि और का समय और स्थान, ३६ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, विजयोत्या, २ प्रमाण-नयतत्वालोकालंकारकी आधारभूमि तार्किक और योगी तीनों थे, ४० समीचीन-धर्मशास्त्र और ३ भगवती भाराधना और शिवकोटि, ४ मूलाचार संग्रह
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किरण ११]
वीरसेवामन्दिरका संक्षिप्त परिचय
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ग्रन्थ है, ५ श्रावण कृष्ण-प्रतिपदाकी स्मरणीय तिथि, ६ बुन्देलखण्डके कविवर देवीदास, ६२ ब्रह्म जिनदास, ६३ शिक्षाका महत्व, ७ अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह. ८ गो- कविवर बुधजन और उनकी रचनाएं, ६५ हेमराज गोदीम्मटसार संग्रह-ग्रन्थ है, थहिंसातव, १० श्वेताम्बर का और प्रवचनसारका पद्यानुवाद, ६५ विजा लियाके कर्मसाहित्य और दिगम्बर पंचसंग्रह, १७ अर्थप्रकाशिका शिलालेख, ६६ क्या मूलाचारके कर्ता कुन्दकुन्द हैं?
और पं० सदासुखजी, १२ गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी ब्रटि- ६७ साहित्य-परिचय और समालोचन । पूर्ति, १३ सिद्धसेनके सामने सर्वार्थ सिन्द्रि और राजवार्तिक, १४ गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी टिपूर्तिके विचार पर प्रकाश,
५० दरबारीलाल न्या०- परीक्षामुख और उसका
उद्गम, २ वीर-शासन और उसका महत्त्व, ३ समन्तभद्र .१५ कर्मबन्ध और मोक्ष १६ तत्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज ६७ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें उपलब्ध ऋषभदेवचरित्र, १८ बना
और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ? ४ तत्वार्थसूत्रका मंगलारसीनाममाला, १६ श्वेताम्बरों में भी भगवान महावीरके
चरण (दो लेख), ५ भगवान् महावीर और उनका
अहिंसा सिद्धान्त, ६ क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और अविवाहित हानेकी मान्यता, २० वरांग चरित दिगम्बर है या श्वेताम्बर ? २१ अपभ्रंश भाषाका शांतिनाथचरित्र,
स्वामी समन्तभद्र एक हैं? ७ क्या रस्नकाण्डश्रावकाचार २२ अपभ्रंश भाषाके प्रसिद्ध कवि रहधू २३ कविवर
स्वामी समन्तभद्की कृति नहीं है? - नागार्जुन और भगवतीदास और उनकी रचनाएं, २४ पउमचरिउका
समन्तभद्र साहित्य परिचय और समालोचन, १०श्राचार्य अन्तःपरोक्षण, २५ बागा भागीरथजी वर्णी, २६ समर्थन
.अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय टीका, ११ प्राचार्य २७ मुद्रित श्लोकवार्तिककी टिपूर्ति, २८ जयपुरमें एक
विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन, १२ प्राचार्य महीना २६ धनपाल नामके चार विद्वान ३० भगवती
माणिक्यनन्दिके समय पर अभिनव प्रकाश, १३ प्राचार्य दास नामके चार विद्वान, ३१ शिवभूति. शिवार्य और
विद्यानन्दके समय पर नवीन प्रकाश, १४ क्या भद्रबाहु
स्वामी और नियुक्तिकार एक हैं ? १५ गुणचन्द्र मुनि शिवकुमार, ३२ सुलांचनाचरित और देवमेन, ३३ श्री
कौन हैं? १६ गजपन्थ क्षेत्रका अति प्राचीन उल्लेग्व, चन्द्र नामके तीन विद्वान ३४ अतिशय क्षेत्र चन्दवाड,
१७ क्या वर्तनाका अर्थ ग़लत है? १८ कौन सा कुंडल३५ अमृनचन्द्रमूरिका ममय ३६ दिल्ली और दिलीकी राजावली, ३७ अपभ्रंश भापका जैन कथा साहित्य, ३८
गिरि सिद्धक्षेत्र है, १६ रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका कनिवर लक्ष्मण धार जिनदत्त चरित्र ३६ धर्मरत्नाकर
एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है, २० रत्नकरण्ड-टीका और और जयसेन नामक प्राचार्य, ४० भगवान् महावीर ४
प्रभाचन्द्रका समय, २१ वीरसेनस्वामीके स्वर्गारोहण-समय
पर एक दृष्टि, २२ 'संजद' पदके सम्बन्धमें अकलंकदेवका महाकवि सिंह और प्रद्युम्नचरित, ४२ श्रीधर या विबुधश्रीधर नामके विद्वान, ४३ चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी
महत्त्वपूर्ण अभिमत, २३ वादीभसिंहसूरिकी एक अधूरी कृतियों ४४ ब्रह्म श्रनमागरका समय और साहित्य, २५
अपूर्व कृति, २४ समन्तभद्र भाष्य, २१ संजयबेलट्टि पुत्र
और स्याद्वाद। अपभ्रंश भाषाके दो महाकाव्य और नयनन्दी, ४६ ग्वालिया-किलेका इतिहास, ४७ पं० दौलतराम और उनकी बाबू सूरजभान वकील-१ अदृष्ट शक्तियां और रचनाएं, ४८ पं० सदासुखदासजी, ४६ श्राचार्य- पुरुषार्थ, २ गोत्रकर्माश्रित उंचता-नीचता, ३ गोत्र-लक्षणोंकल्प पं. टोडरमल जी, ५० पांडे रूपचन्दजी और उनका की सदोषता, ४ जातिमद सम्यकृत्वका बाधक है, धार्मिक साहित्य, ११ महाकवि रहध, १२ यशोधरचरित्रके कर्ता वार्तालाप, ६ भगवान् महावीरके बादका इतिहास, ७ पद्मनाभ कायस्थ, ५३ सोलहवीं शताब्दीके दो अपभ्रंश भाग्य और पुरुषार्थ, ८ वीर प्रभुके धममें नातिभेदका काव्य, ५४ भगवान् महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, स्थान नहीं, वीर भगवानका वैज्ञानिक धर्म, १० हरी ५५ कविवर पं० दौलतराम,५६ आमेर भंडारका प्रशस्ति- साग-सब्जीका स्याग, ११ वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब संग्रह, ५७ कविवर द्यानतराय, २८ कविवर भगवतीदास प्रतिष्ठा-विधि, १२ जैनधर्मकी विशेषताएँ, १३ हम और प्रथम और उनकी रचनायें, ५६ अपभ्रंश भाषाका पास- हमारा यह सारा संसार, १४ धर्माचरणमें सुधार, १५ चरिउ और कविवर देवचन्द, ६० प्राचार्य कुन्दकुन्द, ६, भगवान् महावीर और उनका उपदेश ।
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३६.] अनेकान्त
[किरण १० पं.दीपचन्द पांड्या-१ चूनही, २ यशस्मिलकका प्रायः वे ही लोग कर सकते हैं जो स्वयं ऐसे कार्योंको संशोधन, ३ वरदत्तकी निर्वाणभूमि और वरांगके निर्वाण करने में संलग्न रहते हैं अथवा उस विषयका विशेष अनुपर विचार ।
भव रखते हैं। 4. ताराचन्द्र दर्शनशास्त्री-१दर्शमोंकी स्थूल
अनुव
कायं रूपरेखा, २ दर्शनोंकी पास्तिकता नास्तिकताका प्राधार । (10) वीरसेवामन्दिर में जिन ग्रन्थों आदिका हिन्दीमें बाबू जयभगवानवकील- जैनकला और उसका
अनुवाद हुआ है उनकी सूची इस प्रकार है:महत्व, २ भगवान महावीरकी झांकी।
१. स्वयम्भू-स्तोत्र, .. युक्त्यनुशासन, ३. समीचीन-धर्म[वीरसेवामन्दिरमें न रहनेके बाद भी भापके द्वारा शास्त्र, (रत्नकरंड), ४. न्यायदीपिका, ५. प्राप्तपरीक्षा. कई लेख मन्दिरकी खास प्रेरणाको पाकर लिखे गये हैं। मटीक, ६. अध्यात्मकमलमार्तण्ड, ७. श्रीपुरपार्श्वनाथजैसे- भारतीय इतिहासमें महावीरका स्थान, २ मोहन स्तोत्र, ८. शासनचतुनिशिका, १, प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र, जोदडोकालीन श्रमण-संस्कृति, ३ भारत कीअहिसा संस्कृति १० सन्साधु-स्मरण-मंगलपाठ, जिसमें 'समन्तभद्र-भारती४ भारतमें प्रात्मविद्याकी अटूट धारा।]
स्तोत्र' भी शामिल है, ११. अपराध क्षमापणस्तोत्र, १२ बाब ज्योतिप्रसाद एम० ए०-साहित्यका महत्व, अर्हन्महानदस्त्येत्र, १३. प्राकृत पंचसंग्रह, १४. इप्टोपदेश, .२ एक अन्तःसाम्प्रदायिक निर्णय, ३ मैन वाङ्मयका १५. कर्मप्रकृति प्राकृत, १६. अनिन्यभावना, १७. श्री भद्रप्रथमानुयोग, जैन सरस्वती, ५ जैन स्थापत्यकी कुछ बाहुस्वामी (गुजराती), १८. गोम्मट (अंग्रेजी), १६. द्वितीय विशेषताएं, ६ तेरह काठिया, . धर्म और नारी गोम्मटसार जीवकांडकी टीका, उसका कर्तृत्व और समय
धवला-प्रशस्तिके राष्ट्रकूट नरेश, . प्राचीन जैन मन्दिरों- (अंग्रेजी), २०. पंडित गुण ( कविनन्दु), २१. देवागम के ससे मस्जिद, १० बंगालके कुछ प्राचीन जैनस्थल, (अपूर्ण), २२. संस्कृतके बहुतसे प्रकीर्णक पद्य जो अनेकांत
बौद्धाचार्य बुद्धघोष और महावीरकालोन जैन । में अनेक रूपसे प्रकाशित होते रहे हैं। बाबू बालचन्द एम. ए. द्वारा-१ मौर्य समाटका
इनके अलावा 'स्तुति-विद्या' और 'मरुदेवी-स्वप्नासंचित इतिहास, २ जैन गुहामन्दिर, ३ ऐतिहासिक भारत
वली' का अनुवाद साहित्याचार्य पं. पनालालजी सागरसे की पाच मूर्तियां, ४ पुरातनजनशिल्प-कलाका संक्षिप्त
कराया गया है। परिचय, ५ सोनागिरिकी वर्तमान भट्टारक गद्दोका
सम्पादन-कार्य इतिहास।
(४) सम्पादनमें प्रन्थों, लेखों तथा कविताओंको इन सब लेखों तथा अन्य-प्रस्तावनाको लिखनेके
संशोधन, संस्करण, उपयुक्त टिप्पण अथवा संसूचनके द्वारा लिये कितना अनुसन्धान किया गया, अनुसन्धानके पीछे
उपयोगी प्रकाशनके योग्य बनाया जाता है। इस दृप्टिसे कितने प्रन्थोंको देखा गया, कितने अधिक नोट्स लिये
वीरसेवामन्दिरमें १०-११ वर्ष तक 'अनेकान्त' मासिकका गये-और इन सबके साथ कितना परिश्रम उठाना पड़ा,
सम्पादन-कार्य हुया है और साथ ही उन सब ग्रन्थोंका इसका कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता और न सूची
सम्पादन-कार्य हुमा है जो वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित हुए ही दी जा सकती है। हाँ शोध-खोज एवं विवेचनासे
हैं और जिन प्रकाशनांकी एक सूची आगे दी गई है। इन सम्बन्ध रखने वाले उन लेम्बों तथा प्रस्तावनाओं परसे उसका ग्रन्थोंके अलावा बीसियों स्तुति-स्तोयादि ग्रन्थ ऐसे भी है कुछ प्राभास जरूर मिल सकता है। शोध-योजका काम
__ जो अलगसे प्रकाशित नहीं हुए हैं किन्तु उन पर सम्पादन हाकिटानी कार्य हश्रा है और वे 'अनेकान्त' में प्रकाशित किये पहार और निकली चूहिया' की कहावतको चरितार्थ गये । करता है। कभी-कभी तो पहाड़ खोदने पर चूहिया भी
प्रकाशन-कार्य नहीं निकलती, ऐसी हस अनुसन्धानकी हालत है। अतः (१२) प्रकाशन-कार्य में प्रसादिकी योजनाओंके साथ, ऐसे अनुसन्धान प्रधान निर्माणकार्योंका ठीक मूल्यांकन ग्रन्थों तथा लेखोंकी प्रस-कापियों और प्रूफरीडिंगका बहुत
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किरा ११]
बढ़ा काम शामिल है प्रूफको बड़े सावधानीके साथ प्रायः तीन-तीन बार देखकर ठीक किया जाता है. तभी शुद्ध पाई बन सकती है। इस दृष्टिको सदा ध्यान में रखते हुए 'अनेकान्त' मासिक तथा ग्रन्थोंका प्रकाशन-कार्य किया गया है और प्रकाशनके लिये अच्छे लेखक साथ बहु-उपयोगी । एवं महत्वके ग्रन्थोंको चुना गया है। जिन ग्रन्थोंका प्रका शन संस्थासे हुआ है उनकी एक सूची, संचित परिचयके साथ नीचे दी जाती है। इनके अलावा 'जैनमन्थ-प्रशस्तिसंग्रह' नामक ग्रन्थ अभी प्र'समें चल रहा है और उसके करीब २०० पेज छप चुके हैं।
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वीर सेवामन्दिरका संपिप्त परिचय
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रखता आया है । संस्थाको कितनीही आर्थिक सहायता आपके निमित्तले तथा श्रापकी प्ररखाओंको पाकर प्राप्त हुई है। आप सच्चे सक्रिय सहयोगी है और संस्थाके विषय में आपके बड़े ही ॐ चे विचार हैं। हालमें आपने और आपके घंटे भाई बा. नंदलालजी ने अपनी स्वर्गीया माताजीकी प्रोरसे वीरसेवामन्दिर को ४० हजारमें एक ज़मीन दरियामंत्र देहलीमें अन्सारी रोड पर खरीद करवा दी है, जिस पर बिल्डिंग बननेके लिये समाजका सहयोग खास तौर से बांहनीय है। ये तीनों महानुभाव 'बीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला' के संरक्षक हैं, जिसके संरक्षक प्रायः वे ही होते हैं जो पांच हज़ार या इससे ऊपरकी सहयता उसे करते प्रदान हैं। इससे कमकी महायता प्रदान करने वाले सज्जन 'सहायक बेटियोंमें स्थान पाते है। ऐसे जिन सज्जनाने प्रन्थमाला प्रकाशित होने वाले किसी खास प्रत्यके लिये कोई सहायता प्रदान की है उनके नाम उस-उस ग्रन्थमें न्य बादके साथ प्रकाशित होते रहे है, वे संस्थाकी बड़ी रिपोर्टसे जाने जा सकेंगे । उसीसे दूसरे सहायकोंके नाम भी मालूम हो सकेंगे जिन्होंने संस्थाको अनेक रूपमें आर्थिक सहायता प्रदान की है। यहां मैं सिर्फ दो ऐसे सज्जनोंका नाम और उल्लेखित कर देना चाहता है जिन्होंने निस्वार्थभावसे संस्थामें रहकर उसे दूसरे ही प्रकारका सहयोग प्रदान किया है वे हैं स्व० हकीम उल्फतरायजी रुड़की और सुप्रसिद्ध समाजसेवी स्व० बा० सूरजभानजी वकील बाबू सूरजभान जी ने दो ढाई वर्ष तक लगातार साहित्यके निर्माणका कार्य ही नहीं किया बल्कि अपने अनुभवों से संस्थाके विद्वानोंको भारी लाभ पहुँचाया है। और हकीमजी ने बड़े ही प्रेमपूर्ण सेवाभावसे सबकी चिकित्सा ही नहीं की बल्कि एक जैनबन्धुके इकलौते पुत्रको, उसकी अनुपस्थितिमें, मृत्युके मुखमें से जाते-जाते बचाया है ।
वीरसेवामन्दिरके प्रकाशन
यह सब वीरसेवामन्दिरके बाल्यकालके कार्यकलापका संचित परिचय है, जो समाजके सहयोगके अनुरूप ही संक्षिप्त नहीं बल्कि उससे कहीं अधिक है, क्योंकि संस्थापकने वष तक अल्पवेतनके विद्वानोंके साथमें स्वयं लगकर उनसे अधिक काम निकाला है और निजी रूप में सम्पादन-संशो धन, अनुसंधान, अनुवाद तथा निर्माणादिका जितना कार्य किया है यह कार्योंको देखने तथा उनके उक्त परिचयमे भी भली प्रकार जाना तथा अनुभवमें लाया जा सकता है । संस्थाकी व्यवस्थाके अलावा हिसाब लेखन, पत्रव्यवहार श्रीर प्रूफरीडिंगका भी कितना ही भारी काम उसे साथ में करना पड़ा है।
संस्थाके खास सहयोगी
इम
अर्सेमें संस्थाको जिन सज्जनोंका सहयोग प्राप्त हुआ है उनमें कलकत्ता या छोटेलाल जी, बाबू नन्दलालजी और साहू शान्ति आइजी के नाम खास तौर से उ नीय है। साहूजीने इस हजारसे ऊपरकी सहायता प्रदान की है और एक ग्रन्थके लिये पांच हजारकी सहायताका बच्चन उनसे और भी प्राप्त है। बाबू नन्दलालजीने सोलह हजार से ऊपरकी सहायता प्रदानकी है और एक बड़ी सहायताका वचन उनके पास और भी धरोहर रूपमें है आप हर तरहसे संस्थाकी उन्नतिके इच्छुक हैं और उसे दूसरोंसे भी सहायता दिखाते रहते हैं। बालाजी से यद्यपि आर्थिक सहायता अभी तक आठ हजारसे कुछ ऊपर ही प्राप्त हुई है परन्तु प्राप संस्थाके प्रधान हैं माया है और आपका सबसे बड़ा हाथ इस संस्थाके संचालन रहा है। संस्थापक सदा ही आपके सत्यरामलोकी अपेक्षा
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वीरसेवामन्दिरका प्रधान कार्यालय उसके जन्मकाल से ही सरसावा जि० सहारनपुरमें रहा है। यह दूसरी बात है कि कुछ समयके लिये उसका एक आफिस ग्रन्थोंके प्रकाशनार्थ देहलीमें भी रहा है । परन्तु गत दीपमालिकाके बादसे उसका प्रधान कार्यालय (हेड अफिस) स्थायी रूपमें देहलीमें कायम हो गया है और उसे एक जिन्दादिल युवक सज्जन झा० राजकृष्ण जी जैनका भी सहयोग प्राप्त हो गया है, जिन्होंने आफिसकी व्यवस्थाका सारा कार्यभार अपने ऊपर से दिया है और जो इस समय बड़े
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[३१२
अनेकान्त
किरण ११]
उम्साहके साथ संस्थाके कार्य में लगे हुए हैं। अतः वीर- (३) जो कार्य परिचयमें अधूरे दिखलाये गये है:मिसंवत् २४७के प्रारंभके साथ-साथ इस संस्थाके जैसे जैन लक्षणावली'. 'जैनग्रन्थसूची' प्रादि-उन्हें पूरे यौवनकालका भी मारम्भ समझिये । प्राशा है अपने इस कराकर प्रेसमें जानेके योग्य बनाना और फिर प्रकाशमें लाना यौवनकालमें संस्था सविशेष रूपसे अपने उद्देश्योंको पूरा ४) उपयोगी तथा आवश्यक प्रथोंसे लायब्ररीकी करने में समर्थ होगी। उसे दिली जैसे केन्द्र-स्थानमें अनेक वृद्धि करना, जिसमें बड़े मानेपर शोध-खोजका कार्य सहयोगी सज्जन प्राप्त होंगे और वह समाजकी एक आदर्श
। समाजका एक आदर्श सम्पन्न हो सके। संस्था बन कर रहेगी।
(५) 'जैनतीर्थ-चित्रावली' नामकी एक ऐसी पुस्तक वीरसेवामन्दिरके भावी कार्यक्रमकी रूपरेखा तैयार कराकर प्रकाशमें लाना जिसमें जैनतीर्थों के प्रामाणिक
वीरसेवामन्दिरके सामने 'अनेकान्त' को अधिक समु- इतिहासके साथ मुख्य-मुख्य मंदिर-मूर्तियों, चरणपादुकाओं मत एवं लोकप्रिय बनानेके अलावा जो खास-खास काम नथा अन्य किसी स्थान या वस्तुविशेषके चित्रोंका सुन्दर करनेको पड़े हुए हैं और समाजके सहयोगको अपेक्षा रखते संकलन रहे। हैं उनकी संक्षिप्त रूप-रेखा इस प्रकार है:
(६) संस्थाकी एक बड़ी पूरी रिपोर्ट तय्यार करके उमे (१) उस ज़मीन पर बिलिंडगके निर्माणका कार्य जो शीघ्र प्रकाशित करना । अभी खरीदी गई है। विना बिल्डिंगके संस्थाकी लायब्ररी (6) माहित्यिक अनुसंधान के लिये निजी स्टेशन बैगनको सरसावासे दिल्ली नहीं लाया जा सकता और बिना लाय- का प्रबन्ध करके सारे भारतवर्षका भ्रमण ( दौरा) करना परीके शोध-खोज तथा निर्माण प्रादिका यथेष्ट काम नहीं और उसके द्वारा समस्त शास्त्र-भंडारोंका निरीक्षण करके बन सकता। अभी ला० राजकृष्णजीने अपनी धर्मशाला
स मान अपनी शाला अनुपलब्ध ग्रंथांका पता लगाना तथा यह मालूम करना कि के दो-तीन कमरे कामचलाऊ रूपमें एक सालके लिये दिये किस ग्रंथकी अति प्राचीन एवं सुन्दर शुद्ध प्रति कहां पर है हैं, जिनमें लायबरीके लिये पूरा स्थान नहीं है, अतः एक और ऐसी अनुपलब्धादि प्रथ प्रतियाँका फोटो लेना। सालके भीतर अपनी बिल्डिग बन जानी चाहिए, तभी साथही, एक सर्वाङ्गपूर्ण मुकम्मल जैननथ-सूची तय्यार प्रधान कार्यालय दिल्ली में पूर्ण रूपमे व्यवस्थित हो करना । इस कामके लिये वर्षके प्रायः तीन महीने रवय मकेगा। इसके लिये फिलहाल ६० हजार रुपयेकी ज़रूरत जायंगे, और चार वर्ष में यह काम पूरा हो सकेगा। इस है, जिसे समाजके हितैषी एवं गण्यमान्य मज्जनोंको शीघ्रही भ्रमणमें कमसे कम तीन विद्वान, एक फोटोग्राफर, एक पूरा करके राजधानी में अपनी एक आदर्श संस्थाको स्थायी रसोइया और एक नौकर तथा दूसरा ड्राइवर ऐसे मान कर देना चाहिए।
श्रादमी हांगे । इस भ्रमणके द्वारा संरथामें प्रकाशिन (२) 'जैनग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह' (प्रथम भाग) तथा माहित्यकी विक्री (मेल) भी हो सकेगी, प्रचार भी हो ममाधितंत्र और 'इष्टोपदेश' नामके जो दो ग्रन्थ प्रसमें है सकंगा और कितनीही ऐतिहासिक बातों तथा अनुश्रुतियोंऔर प्राधे-बाधेके करीब छप गये हैं उन्हें शीघ्र प्रकाश का पताभी चल सकेगा । खर्चका अन्दाज़ा ४ वर्षका लाना । माथही निम्न प्रथोंका जो करीब-करीब तैयार है, १० हजार होगा, जिसमें पहले वर्ष २५ हजारके लगभग यथासाध्य शीघ्र प्रसमें जानेके योग्य बनाना और उनके आएगा। क्योंकि उत्तम स्टेशन बैगन खरोदनी होगी और छपनेका प्रायोजन करना:
उस अपने उपयोगके अनुकूल व्यवस्थित करना होगा। १. समन्तभद्र का 'समीचीन-धर्मशास्त्र' (हिंदी-भाषामहित)।
किसी दानी महानुभावसे २०-२५ हजारकी सहायता प्राप्त २. लोकविजययंत्र (हिंदी टीकादि सहित ), जो कि होतेही यह कार्य प्रारम्भ कर दिया जावेगा । समाजक प्राकृत भाषाका पूर्व प्राचीन ग्रंथ है और देश विदेशके उत्थान, अवस्थान एवं सम्मानके साथ नीवनके लिये ऐसे भविष्यको जाननेका अच्छा सुन्दर साधन है। ३. जैन- कायोका बड़ा थावश्यकता । साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (ऐतिहासिक भाशा है समाजके धनी-मानी, सेवाभावी और मनिबन्धोंका संग्रह), जैनमथ-प्रशस्ति-संग्रह द्वितीय भाग, प्रेमी सज्जन अपनी शक्ति और श्रद्धाके अनुसार संस्थाके जिसमें अपभ्रंश भाषाके प्रायः अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रश- इन सभी कार्यों में अपना हाथ बटा कर यशके भागी होंगे। स्तियोंका बड़ा संग्रह है, ५. युगबीरनिबन्धावली।
-जुगलकिशार मुख्तार
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वीरसेवामन्दिरके चौदह रत्न
(१) पुरातन जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-प्रन्यांकी पचानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिप्रन्थों में
उद्धत दूसरे पचोंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योंकी मूची । संयोजक और मम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा० कालीदास नाग एम. ए., डी. लिट् के प्राकथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-ग्वोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
मजिल्द । (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज सटीक अपूर्वकृति,प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर
सरम और मजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे
युक्त, सजिल्द । (३)न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द । (४) स्वयम्भूम्तात्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व प्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि
चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण
प्रस्तावनामे सुशोभित। (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोग्यी कृति, पापा जीननेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत सुन्दर जिल्द-पहित । (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित। ...
॥) (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसं परिपूर्ण समन्तभद्रकी अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं ___हुश्रा था । मुख्तार श्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिस अलंकृत, मजिल्द ।
।) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित। ... ॥ (१) शासनचतुस्त्रिशिका-(नीर्थ परिचय )-मुनि मदनकीर्तिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादित-पहिन । ... (१० सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर बर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्यों के १३७ पुण्य-स्मरणोंका
महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवादादि-सहित । ११) विवाह-समुद्देश्य-मुख्तारश्रीका लिखा हुश्रा विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन ... ॥) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गृढ गम्भीर विषयका अतीव सरलतासे समझने-समझानेकी कुंजी,
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित 1 (१३) अनित्यभावना-श्री पद्मनन्दी श्राचार्यकी महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ
सहित । (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय )-मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त । नोट-थे सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोंको ३७॥) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला'
अहिंसा मन्दिर विल्डिंग १, दरियागंज, देहली
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Regd. No D.211
__ अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१५०० ) बाल नन्दलालजी मरावगी. कलकना २५.१) बाल छोटलालजी जैन मरावगी,
५१) बा मोहनलालजी जन लमेचू , २४१) ला गुलजारीमल अपभदामजी , ०५१) बा ऋषभचन्द (B.R.C. जैन ५१) यादीनानाथजी सरावगी ०५१) बाल रतनलालजी झांझरी २५१) बाल बल्देवदामजी जैन सरावगी ०५१) मेठ गजराजजी गंगवाल २५३) सेठ मुबालालजी जैन २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी २५१) मेठ मांगीलालजी
२५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन ₹ २५१) वा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया
२५१) ला०कपरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर २५१) बाल जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जोहरी, देहलो २५१) ला राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली २५१) बा० मनोहरलाल नन्हमलजी. देहली २५१) ला त्रिलोकचन्दजी महारनपुर २५१) मेठ छदामीलालजी जैन फीरोजाबाद
१) लाघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी नेहली
११) या मोतीलाल मक्यनलालजी, कनकना ११)बा केदारनाथ बद्रीप्रमानजी मरावी,, १.१) बा. काशीनाथजी. ... ११) बाल गोपीचन्द रूपचन्दजी १८१) या धनंजयकुमारजी १०२) बा• जीतमलजी जैन १०१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी १७१) या रतनलाल चांदमलजी जैन, रोची १.१) ला. महावीरप्रमादजी ठेकेदार, दहली १०१) ला रतनलालजी मादीपुरिया, देहली १०१) श्री फतेहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता ११गुमसहायक सदर बाजार मेग्ठ । १८१) श्री श्रीमाला देवी धर्मपत्नी श्रीचन्द्रजी
जैन 'संगल' ण्टा १८१) ला- मक्खनलालजी मोतीलालजी ठंकंटार, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन कलकत्ता १८५) बा. सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता १०५) बाल वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता १८१) बा. बद्रीदासजी मरावगी, कलकत्ता १८१) ला. उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर १०१) बा०महावीरप्रसादजी ण्डवाकट हिसार १०१) ला बलवन्तसिंहजो हांसी १०१) कुँवर यशवन्नसिहजी हांसी
महायक
१०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली १०१) बा०लालचन्दजी बी सेठी. उज्जैन १०१) वा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) बा लालचन्द्रजी जैन सरावगी
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर'
मरमावा, जि० महारनपुर
परमानन्दजी जैन शास्त्री (
पहिमा मन्दिर ।. दरियागंज देहली। मुद्रक-रूप-वाणी प्रिटिंग हाऊम दरियागंज, देहली
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THATA
श्री वीर-जिनका
HOM
सर्वोदय तीर्थ
सर्वाऽन्तवत्तण-मुख्य-कल्पं सर्वाऽन्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम सर्वा पदामन्तकरं निरन्त सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव॥
श्रीवारजिनालय
LATE
-
-
AmAH
aaee
सत
LATott नित्य जीव पापण्या लोकस्वभावाजल्य/सामान्य अनित्य अजीव
पाप परलोक विभाव पर्याय विगोष
असत् अनेक
सम्यका विद्या सापेक्ष देव, नय युक्ति/शुद्धि/आत्मा मिथ्याअविवानिरपेक्ष पुरुषार्थाममाण अगमrana/परमारमा
त्या/दम/त्याग/समाधि
Montenefeltika/
INISAVIMAAVITA मता निर्भयता निहता लोका
पित्री प्रमोद रूपये
E
-तीर्थ सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्थाद्वाद-पुण्योदये
व्यानामकलङ्क-भाव-कृतये प्राभावि काले कली। -येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमःसन्ततं: - -कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिं वीरं प्रणोमि स्फुटम् ॥
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विषय-सूची १ श्रीगोम्टेश्वर-बाहुबलि जिन पूजा | युगवीर ३६३ ६ अपभ्रंश भाषाका नेमिनाथ चरित्र२ जिन-धुनि-महिमा (कविता)-पं० भागचन्द ३६६ [परमानन्द शास्त्री
४१४ ३ समन्तभद्र-वचनामृत-[युगवीर- ३६७ ७ वंशालीकी महत्ता-[श्री आरआर० दिवाकर ४१६ ४ फतेहपुर शेखावाटी) के जैन मूर्ति-लेख-
श्रॉम्ब फाडकर चलं, या आर बोतल [पं० परमानन्द जैन शास्त्री ५ वीरमेवामन्दिरके नैमिरिक अधिवेशन
न रक्व ?-[पंकन्हैयालाल मिश्रप्रभाकर ४१८ मभापति-श्री मिश्रीलालजी कालाका भापगण ४५० १. सम्पादकीय
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ग्राहकोंसे आवश्यक निवेदन
अनेकान्तकी इस किरणकं साथ ११ वा वर्ष समाप्त हो रहा है और उनके माथ ही प्राय: सभी ग्राहकोंका मूल्य भी। मब चीजोंकी महँगाईको दखन हुए अगले वर्षकं लिये मूल्य छः रुपये रग्वनका विचार हुआ था, परन्तु यह दंग्वकर कि उत्तम माहित्यको पढ़नकी सदचिका अभी ममाजम बहुत कुछ अभाव है, पहला मूल्य ५) रु० वार्पिक ही बदस्तूर रहने दिया गया है। अतः ग्राहकोंमे निवेदन है कि वे इस किरगणक पहंचन ही अगले वर्षका अपना अपना चन्दा शीघ्र ही मनीआर्डरसे भेज देने की कृपा कर: क्योंकि वी०पी०से मंगाने में अब बड़ी झंझटे खड़ी होगई हैं-एक तो रजिस्टरी तथा वी०पी० का चाज बढ़ जानसे उन्हें आठ आने अधिक व्यर्थ देने होंग-५) के स्थान पर ५॥) ग्वच करने होंगे । दूसरे डाकखान वाले एक दिन में बहुन कम वी० पी० स्वीकार करते है, इससे पत्र के समय पर पहुँचनेमें बहुत देर हो जाती है-उसके कारण पाठकांको कितना ही प्रतीक्षा जन्य कष्ट उठाना पड़ेगा। तीसरे अनेकान्त-कायालयक व्यर्थ कष्टको ध्यान में लेकर शीघ्र ही ५) २० मनीआर्डर से भेजकर हमें अनुगृहीत करेंगे और कुछ नये ग्राहक बनाकर उनका भी चन्दा भिजवानका कष्ट उठायेगे। जो सज्जन किमी कारण वश अगले वर्ष ग्राहक न रहना चाहे वे तुरन्त ही उसमें सूचित करने को कृपा करें, जिसमें कार्यालयको वी० पी० करकं व्यर्थ की हानि न उठानी पडे । जिन ग्राहकोंसे मूल्य अथवा कोई पत्र प्राप्त न होगा उनकं विषयम यह समझा जायगा कि वे वी०पी० से ही पत्र मंगाने के इच्छुक हैं।
मैनेजर-'अनेकान्त'
१ दरियागंज, देहली
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तस्व-सजा
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विश्वतत्त्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य )
एक किरण का मूल्य ॥)
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| नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुजंयत्यनेकान्त ।
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सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वर्ष ११
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली किरण १२ द्वितीय वैशाख वीरनि० संवत् २४७६, वि. संवत् २०१०
श्रीगोम्मटेश्वर-बाहुबलिजिन-पूजा
(संयोजक-'युगवीर') जीत भरतचक्रीशको, लिया परम वैराग । उन श्रीबाहुवलीशको, जनँ धार अनुराग ॥१॥
(पूजाटक) लमल-धावन विख्यात, अन्तर्मल न हरै; दो वह समता-जल नाथ! कम-कलंक धुले । भीबाहुबली अनि धीर, वीर तपस्विमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवधि पार लहा। (जलक्षेपण) चन्दन शीतल, पर नाहिं अन्तदोह हरै; दो निज अकषाय-स्वभाव, भव-आताप टर। भीबाहुबली अति धीर, चीर तपस्विमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव भव-दधि पार लहा। (चन्दनले०) अक्षत सेवत दिन रात, अक्षय गुण न कर; दो अखय-रसायन देव! अक्षय-पद प्रगटै। श्रीबाहुवली अति धीर, वीर तपस्थिमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवदधि पार लहा॥ (अक्षतक्षे०) प्रभु, कुसुम-शरोंकी मार, मनको व्यथित कर दो अनुभव-शक्ति महान, मन्मथ दूर भग। श्रीबाहुबली प्रति धीर, वीर तपस्विमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवधि पार नहा ॥ (पुष्पो०) नाना विध खाद्य पदार्थ, खाते हम हारे; नहिं बुधा हुई निक, भाए तुम द्वारे। श्रीबाहुबली अति धीर, धीर तपस्विमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवदधि पार लहा। (नैवेद्यक्षे०) दीपक तमहर सुप्रसिद्ध, अन्ततम न हरै; मैं खोजूं आत्मस्वरूप, ज्ञान-शिला प्रगटै। भीबाहुबलीभात धीर, वीर तपस्थिमहा; जयगोम्मट ईश्वर देव, भवदधि पार नहा ।।(दीपले०)
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३६४]
अनेकान्त
[किरण १२
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अग्नीन्धन धूप अनूप, नहि निजकाज सर; कर्मेन्धन-दाहन-हेत. योगाऽनल प्रजरै।। श्रीबाहुबली अति धीर, वीर तपस्विमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवदधि पार लहा।। फल पाये भोगे खूब, पर परतन्त्र रहे; दो शिव-फल हे शिव-भूप (रूप), निज-स्वातन्त्र्य ल हैं। श्रीबाहुबली अति धीर, वीर तपस्विमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवदधि पार लहा ।। (फल) इन जल-फलादिसे नाथ ! पूजत युग बीते, नहिं हुए विगतमल 'वीर', अब तुम लिंग आए। श्रीबाहुबला अति धीर, वीर तपस्विमहा, जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवदधि पार लहा ।। अर्घक्षे.)
(अभिनन्दन-जयमान) ऋषभदेवके पुत्र, सुनन्दाके प्रिय नन्दन ।
बाहुबली जिनराज, करें मिल सब अभिनन्दन ।। हे नरवर ! अवतार लिया तुम पूज्य ाठकाने, अवसर्पिणि-युग-श्रादि, नाभिसुत-वृषभ-घराने । पाने पोषे गये रहे सत्संस्कारांमें, आत्मज्ञान-रत सदा रहे दृढ अधिकारोंमें ॥१॥ हे नृपवर ! तुम राज-पाट निज पितुसे पाया, तृषा-रहित हो न्याय-नीतिसे उसे चलाया। सबलोंका ले पक्ष दुबलोंको न सताया, सर्व-प्रजाका प्रेम प्राप्त कर यश उपजाया ॥२॥ पोदन-मंडल-भूमि तुम्हारी राज्य-मही थी, जहाँ प्रकृतिश्री पूर्णरूपसे राज रही थी। भरत तुम्हारे ज्येष्ठ भ्रात थे, गुण-अणियारे, प्रवर-अयोध्या-राज्य-रमाके भोगनहारे।।३।। उन्हें महत्वाकांक्षाने धर आन दबाया, छहों खण्डको जोत राज्यका भाव समाया। चक्ररत्न ले हाथ विजयको निकल पड़े थे, देश-देशके नृपति भेंट ले पाँव पड़े थे॥४॥ जब वे कर दिग्विजय देशको लौट रहे थे, सर्वप्रजामें आनँदका रस घोल रहे थे। चक्ररत्न ा रुका राजधानीके द्वारे, कर नहिं सका प्रवेश, यत्न कर बुधजन हारे ॥५॥ चिन्तातुर थे भरत, मंत्रियोंने बतलाया-बाहुबली महाराज-राज नहीं हाथों आया। जब तक वे आधीन्य नहीं स्वीकार करेंगे, चक्रसहित सुप्रवेश देश हम कर न सकेंगे ॥६॥ तभी भरतने दूत-हाथ सन्देश पठाया, जो कर शीघ्र प्रयाण आपके सम्मुख आया। 'करो सभेंट प्रणाम. शीघ्र या लड़ने आओ, समर-भूमिमें स्वबल दिखा वैशिष्ट्य बताओ' ॥७॥ सन कर यह सन्देश मागसी तनमें लागी, स्वाभिमानको चोट लगी. यद्धच्छा जागी। फलतः दोनों ओर युद्धके साज सजे थे, योद्धागण सब भिड़नेको तय्यार खड़े थे ॥८॥ उसी समय, आदेश सैनिकोंने यह पाया-सुलह-सन्धिका रूप अनोखा सम्मुख पाया। 'सैनिक-दल अब नहीं लड़ेगे, नहीं कटेगे, दोनों भाई स्वयं आय, निःशस्त्र लड़ेंगे ॥६॥ दृष्टि-मल्ल-जल-युव, इन्हें जो जीत सकेगा-वही सकल-साम्राज्य-भूमि स्वाधीन करेगा। उद्घोषित सम्राट बनेगा वह ही जगमें, वही करेगा राज्य विश्वके इस प्रांगणमें ॥ १०॥ महो वीरवर ! दृष्टियुद्ध सम्मुख जब आया-तब तुमने नृपराज भरतको खूब छकाया। भाखिर मानी हार, थकी जब उनको प्रीवा; हुई सहायक तुम्हें तुम्हारी ऊँची काया ॥ ११ ॥ इसी तरह जलयुद्ध-विजयको तुमने पाया, जल-क्षेपणमें भरतराजको अन्त हराया। अपमानित थे भरत, लाजने उन्हें सताया, मल्लयुद्धमें जीत-प्राप्तिका भाव बढ़ाया । १२ ॥ मजयुद्धके लिये अखाड़ा खूब सजा था, युद्ध देखने जनसमूह सब उमड़ पड़ा था। चर्चा थी सबभोर-युद्धभी कौन वरेगा? कौन करेगा राज्य, मुकट निज सीस धरेगा ॥१३॥
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आगाम्मटरवरल्याहुबालोजन पूजा
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इसी बीच में युद्ध सामने सबके आया, दाव-पेंच ओ. युद्धकलाका रदिखाया । एक तरफ थे श्राप, उधर भरतेश खड़े थे, अपनी अपनी विजय-प्राप्तिके लिये अड़े थे ।। १४ ॥ इतने में ही एक सपाटा तुमने मारा, हाथों लिया उठाय भरतको कन्धे धारा । पटक भूमि पर दिया नहीं, यह भाव विचारा-आखिर तो है पूज्य पितासम भ्रात हमारा॥१५॥ उधर क्रोध भरतेश हृदयमें पूरा छाया, सह न सका अपमान घोर, सब न्याय भुलाया। चकरनको याद किया, वह करमें आया, निर्दय होकर उसे आप पर तुरत चलाया ॥१६॥ हहाकार मच गया, चक्र नभमें गुर्राया, शंकित थे सब हृदय, सोच अनहोनी माया। पर वह बनकर सौम्य तुम्हारे सम्मुख पाया, परिक्रमा द तीन तुम्हें निज सीस झुकाया ॥१७॥ निष्फल लौटा देख, भरत दुखपूर हुआ था, उसका सारा गर्व आज चकचूर हुआ था। होकरके असहाय, पुकारा-'हारा भाई !' तब तुम भूमि उतार उसे धिक्कार बताई ॥ १८ ॥ विजय-प्राप्ति पर भगत-राज्यश्री सन्मुख धाई, वरमाला ले तुम्हें शीघ्र वह वरने आई। . तब तुमने हो निर्मत्व दुतकार बता; जग-लीला लख पूर्ण विरक्ती तुम पर छाई ।। १६ ।। 'वेश्या-सम इस राज्य-रमाको मैं नहिं भोD, अपना भी सब राजपाट मैं इस दम त्यागूं। पिता-मार्ग पर चलूँ, निजात्माको आराधू, नहीं किसीसे द्वेष-राग रख संयम साधू, ॥२०॥ ये थे तव उदार, जिन्हें सुन रोना आया, भरतराजका निठुर हृदय भी था पिघलाया। निज-करणीका ध्यान प्रान वह बहु पछताया, गद्गद होकर तुम्हें खूब रोका समझाया ।। २१ ।। पर तुम पर कुछ असर न था रोने-धोनेका, समझ लिया था मर्म विश्व-कोने-कोनेका । आत्म-सुरस लौ लगी, और कुछ तुम्हें न भाया,अनुनय-विनय किसीका भी कुछ काम न पाया ॥२२।। अहो त्यागिवर ! त्याग चले सब जगकी माया, वस्त्राभूषण फेंक दिये, जब रस नहिं पाया। निर्जन वनमें पहुँच खड़े सध्यान लगाया, प्रकृति हुई सब मुग्ध देख तव निर्मम काया ।। २३ ।। नहीं खांस-वकार, नहिं कुछ खाना-पीना, नहीं शयन-मल-मूत्र, नहीं कुछ नहाना-धोना। नहीं बोल-बत नाव, नहीं कहिं जाना-बाना, खड़े अटल नासाम-दृष्टि पर दिकपट-बाना, ॥२४॥ बैंबी बना कर चरण-पासमें नाग बसे थे, कर-जन्तु आ पास, करता भाव तजें थे। बेल-लताएँ इधर-उधरसे खिंच आई थीं, अगोंसे तव लिपट, खूब सुख-सरसाई थीं ॥२५॥ तुम थे अन्तष्टि, देखते कर्म-गणोंको-योगऽनलमें भस्म, विकसते स्वात्म-गुणोंको। इस ही से आनन्द-मग्न थे, गुण-अनुरागी, बहि-चिन्तासे मुक्त, मोह-ममताके त्यागी ॥२६॥ हे योगीश्वर ! योग-साधना देख तुम्हारी, चकित हुए सब देषि-देवता औ' नर-नारी। एक वर्ष तुम खड़े रहे निश्चल-अविकारी, भूख-प्यास औ' शीत-घाम-बाधा सब टारी॥२७॥ योग-कीर्ति भरतेश सुनी, तब दौड़े आए, चरणोंमें पड़, सीस नमा, तव गुण बहु गाए। उसी समय अवशिष्ट मोह सब नष्ट हुआ था, शेष घातिया कर्मपटल भी ध्वस्त हुवा था ॥२८॥ केवल रवि तव आत्म-धाममें उदित हुआ था, विश्व चराचर शान-मुकुरमें झलक रहा था। दर्शन-सुख औ' वीर्य-शक्तिका पार नहीं था, जीवन्मुक्त स्वरूप भापका प्रकट हुआ था ॥ २६ ॥ लखकर यह सब दृश्य,देव-गण पूजन आए, हर्षित हो अतिसुरभि पुष्य नमसे बरसाए। दुन्दुभि वाजे बजे, शोर सुन सब जन घाए, पूजाकर, निज सीस नमाकर, अति हर्षाए ॥३०॥
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भनेकान्त
[किरण १२
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गन्ध-कुटी तब रखी गई देवोंके द्वारा, जिसमें वही अटूट भवद्वचनाऽमृत-धारा । पीकर भात्म-विकास मार्गको सबने जाना, जिनकाथा भव निकट, योग-व्रत उनने ठाना ।। ३१ ॥ भन्त समय कैलाश-शिखरसे निति पाई, जहाँ पिता भादीश राजते थे सुखदाई । भावागमन-विमुक हुए, भव-बाधा टाली, शाश्वत-सुखमें मग्न हुए, निजश्री सब पाली ।। ३२ ।। इस युगके हो प्रथम सिद्ध भगवान हमारे, ऋषभदेव से पूर्व, परम शिवधाम पधारे। निजाऽऽदर्श रख गये जगतके सन्मुख ऐसा, बन भव्य 'युगबोर' त्याग सब कोंडो-पैसा ॥ ३३ ॥
(पाशीर्वाद) बाहुबली जिनराजको, जो ध्या धर ध्यान । सब दुल-दंगल दूर कर, लहें परम कल्याण ॥
इति श्रीबाहुबलिजिन-पूजा मोट-श्रीगोम्मटेश्वरकी मात्रा उपलपमें मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-द्वारा लिखो गई इस नई भावभरी पूजाको कुछ मोटे
टाइपमें अलगसे उत्तम कागजपर पुस्तकाकार पाने का विचार है, जिसके साथमें बाहुबलीजीका नया सुन्दर चित्र भी रहेगा। जिन सज्जनोंको अपने कटम्ब-परिवारके लिये बांटनेके लिये अथवा बेचनेके लिये जितनी प्रतियों की जरूरत हो उन्हें वे शीघ्र रिजर्व करालेवें। क्योंकि प्रायः मांगके अनुसार ही प्रतियाँ छपाई जायेगी। बागत मूल्य प्रायः ढाई माने होगा। बांटने प्रादिके लिये अधिक प्रतियाँ लेने वालोंको लागतसे भी कम भूरपमें दी जावेंगी। इससे कम प्रतियों रिजर्व नहीं की जाएगी। जो सज्जन बांटनेके लिये ... या इससे ऊपर प्रतियाँ चाहेंगे उनके नाम पुस्तक में दिये जायेंगे, और उन प्रतियोंको बिना मूल्य रक्खा जायेगा।
-प्रकाशनविभाग वीरसेवामन्दिर ।
जिन-धुनि महिमा
धन्य धन्य है घड़ी भाजकी जिन-धनि वन परी । तत्व-प्रतीति भई अब मेरे, मिथ्याष्ट टरी ।। जड़से भिन्न लखी चिन्मति, चेतन स्वरस भरी। महकार ममकार बुद्धि पुनि परमें सब प्रहरी ॥ धन्य०॥१॥ पाप-पुन्य विधि'ध-अवस्था, भासी दुखभरी ।। वीतराग-विज्ञान-भावमय, परिनत निज निखरी॥ धन्य० ॥२॥. चाह-दाह बिनसी वरसी पुनि, समता मेघ-झरी। पादी प्रीति निराकुल-पदसों 'भागचन्द' हमरी ॥ धन्य० ॥३:
पं० भागचन्द
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समन्तभद्र-वचनामृत
(सल्लेखना) उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। माम विकास में सहायक पहंदादि पंचपरमेष्ठिका ध्यान धमाय वनु-विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः १३२२० करते हुए बड़े यल के साथ होता है, जैसाकि कारिका 'प्रतीकार (उपाय-उपचार)-रहित असाध्याशाको
मं०१२% से जाना जाता है-याही विष खाकर, कृपादिमें प्राप्त हुए उपसर्ग, दुर्भिक्ष. जरा (बडापावागत दबकर, गोली मारकर या अन्य अस्त्र-शस्त्रादिकसे पापात हालतमें और (कार से) ऐसे ही दूसरे किसी कारणके
पहुँचाकर सम्पन्न नहीं किया जाता। उपस्थित होनेपर जो धर्मार्थ-अपने रत्नत्रयरूा धर्मको
'सन्' और 'लेखना' इन दो शब्दोंम्पे 'सबलेखना' पर रजा-पालनाके लिये-देहका सत्याग है-विधिपूर्वक
बना है। 'सत्' प्रशंसनीयको कहते हैं और 'लेखना' कृषीबोबना है-उसे आर्य-गणपरदेव-'सल्लेखना
करण क्रियाका नाम है। सल्लेखनाके द्वारा जिन्हें कश 'समाधिमरण' कहते है।
अथवा क्षीण किया जाता है वे है काय और कषाय । व्याख्या-जिस देहत्याग ( तनुविमोचन ) को यहाँ
इसीसे सरजेवनाके कायसल्लेखना और कपायसवनेखना सल्लेखना कहा गया है उसोको अगलीकारिकामै 'अस्त
ऐसे दो भेद भागममें कहे जाते हैं। यहाँ अन्तः शुद्धिके क्रिया' तथा 'समाधिमरण' के नामसे भी उल्लेखित किया
रूपमें कषाय-सल्लेखनाको साथमें लिये हुए मुख्यतासे है। मरणका 'समाधि' विशेषण होनेसे वह उस मरणसे
काय-सल्लेखनाका निर्देश है, जैसाकि यहाँ तनुविभाचन' भिक हो जाता है जो साधारण तौरपर श्रायुका अन्त
पदसे और भागे तनु त्यजेत्' (१२८)जैसे पदों के प्रयोगके मानेपर प्रायः सभी संसारी जीवोंके साथ घटित होता है
साथ माहारको क्रमशः घटानेके उल्लेखसे जाना जाता है। अथवा प्रायुका अन्त न आनेपर भी क्रोधादिकके आवेशमें
इस कारिकामें 'निःप्रतीकारे' और धर्माय' ये दो वा मोहसे पागल होकर 'अपघात' (खुदकुशी, Suicide)
पद खासतौरसे ध्यान देने योग्य है। निःप्रतीकार विशेष के रूपमें प्रस्तुत किया जाता है, और जिसमें प्रास्माकी उपसर्ग, दुभिष, जरा, राग
उपसर्ग, दुर्भिस, जरा, रोग इन चारोंके साथ-तथा कोई सावधानी एवं स्वरूप-स्थिति नहीं रहती। समाधि
चकारसे जिस दूसरे सटश कारणका ग्रहण किया जाय पूर्वक मरणमें पारमाकी प्रायः पूरी सावधानी रहती है और उसके भी साथ-सम्बद्ध है और इस पातको सूचित करता मोह तथा क्रोधादिकषायोंके भावेशवश कुछ नहीं किया है कि अ
है कि अपने ऊपर पाए हुए चेतन-मचेतन-कृत उपसर्ग जाता, प्रत्युत उन्हें जीता जाता है तथा चित्तकी शुद्धिको
नया दुर्भिक्षादिकको दूर करनेका यदि कोई उपाय नहीं स्थिर किया जाता है और इसलिये सस्लेखना कोई अपराध,
बन सकता तो उसके निमित्तको पाकर एक मनुष्य सक्नेअपघात था खुदकुशी (Suicide) नहीं है। उसका
खनाका अधिकारी तथा पात्र है, अन्यथा-उपायके संभव 'अन्तकिया' नाम इस बातको सूचित करता है कि वह
और सशक्य होनेपर • वह उसका अधिकारी नथा पात्र जीवनके प्रायः अन्तिम भागमें की जाने वाली समीचीन नहीं है। क्रिया है और सम्यक् चारित्रके अन्त में उसका निर्देश होनेसे 'धर्माय' पर दो दृष्टियोंको लिये हुए है--एक अपने इस बातकी भी सूचना मिलती है कि वह सम्यक चारित्रकी स्वीकृत समीचीन धर्मकी रस-पालनाकी और दूसरी चूखिका-चोटीके रूपमें स्थित एक धार्मिक अनुष्ठान-है। प्रात्मीय धर्मको यथाशक्य साधना पाराधनाकी। धर्मको इसीसे इस किया-द्वारा जो देहका त्याग होता है वह रसादिके अर्थ शरीरके त्यागकी बात सामान्यरूपसे कुछ
अटपटी-सी जान पड़ती है। क्योंकि भामतौरपर 'धर्मार्थभयो पिचापि एवारिसम्मि भागाकारणे जादे। काममोक्षायां शरीरं साधनं मतम्' इस वाक्यके अनुसार
-भगवती चाराधना शरीर धर्मका साधन माना जाता है, और यह पास एक
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३६]
अनेकान्त
[किरण १२
प्रकारसे ठीक ही है; परन्तु शरीर धर्मका सर्वथा अथवा है इसलिये यथाशक्ति समाधिपूर्वक मरणका प्रयत्न अनन्यतम साधन नहीं है, वह साधक होनेके स्थानपर करना चाहिये। कभी कभी बाधक भी हो जाता है। जब शरीरको कायम व्याख्या-इस कारिकाका पूर्वाध और उसमें भी रखने अथवा उसके अस्तित्वसे धर्मके पालनमें बाधाका अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं' यह सूत्रवाक्य बड़ा ही पपना अनिवार्य हो जाता है तब धर्मकी रक्षार्थ उसका महत्वपूर्ण है। इसमें बतलाया है कि 'तपका फल अन्तत्याग ही श्रेयस्कर होता है। यही पहली दृष्टि है जिसका मिना
खात यहाँ प्रधानतासे उल्लेख है। विदेशियों तथा विधर्मियोंके
अन्तक्रिया यदि सुघटित होती है-ठीक समाधिपूर्वक माक्रमवादि-द्वारा ऐसे कितने ही अवसर पाते हैं जब
मरण बनता है-तो.किये हुये तपका फल भी सुघटित मनुष्य शरीर रहते धर्मको छोदनेके लिये मजबूर किया होना तय मजबूर किया होता है, अन्यथा उसका फल नहीं भी मिलता । अन्तक्रिया
यशात्र जाताअथवा मजबूर होता है। अतः धर्मप्राण मानव से पका वह तप कौनसा है जिसके फलकी बातको यहाँ एसे अनिवार्य उपसगादिका समय रहत विचारकर धम उठाया गया है। वह तप अणुव्रत-गुणवत और शिक्षाभएतासे पहले ही बड़ी खुशी एवं सावधानीसे उस धर्मको व्रतात्मक चारित्र है जिसके अनुष्ठानका विधान प्रन्थमें इससे मालिये देहका त्याग करते हैं जो देहसे अधिक प्रिय पहले किया गया है। सम्यक चारित्रके अनुष्ठानमें जो उद्योग होता है।
किया जाता है और उपयोग लगाया जाता है वह सब • दूसरी रष्टिके अनुसार जब मानव रोगादिकी असा 'तप' कहलाता है। इस तपका परलोक सम्बन्धी यथेष्ठ ध्यावस्था होते हुए या अन्य प्रकारसे मरणका होना फल प्रायः तभी प्राप्त होता है जब समाधिपूर्वक मरण अनिवार्य समझ लेता है तब वह शीघ्रताके साथ धर्मकी होता है। क्योंकि मरणके समय यदि धर्मानुष्ठानरूप विशेष साधना-आराधनाके लिये प्रयत्नशील होता है, किये परिणाम न होकर धर्मकी विराधना हो जाती है तो उससे हुए पापोंकी आलोचना करता हुमा महामतों तकको दुर्गतिमें जाना पड़ता है और वहाँ उन पूर्वोपार्जित शुभधारण करता है और अपने पास कुछ ऐसे साधर्मीजनोंकी कर्मोक फलको भोगनेका कोई अवसर ही नहीं मिलतायोजना करता है जो उसे सदा धर्ममें सावधान रक्खें, निमित्तके अभावमें वे शुभकर्म बिना रस दिये ही खिर धर्मोपदेश सुनायें और दुःख तथा कष्टके अवसरोंपर कायर जाते हैं। एक वार दुर्गतिमें पड़ जानेसे अक्सर दुर्गतिन होने देवें । वह मृत्युकी प्रतीक्षामें बैठता है, उसे की परम्परा बढ़ जाती है और पुनः धर्मको प्राप्त करना बुलानेकी शीघ्रता नहीं करता और न यही चाहता है कि बड़ा ही कठिन हो जाता है। इसीसे शिवार्य जी अपनी उसका जीवन कुछ और बढ़ जाय। ये दोनों बातें उसके भगवती आराधनामें लिखते हैं कि 'दर्शनशानचारित्ररूप लिये दोषरूप होती हैं जैसाकि आगे इस व्रतके अतिचारोंकी धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करनेवाला मनुष्य कारिकामें प्रयुक्त हुए 'जीवित-मरणाऽऽशंसे' पदसे जाना भी यदि मरण समय उस धर्मकी विराधना कर बैठता है
तो वह अनन्त संसारी तक हो जाता है:भागे इस सहलेखमा अथवा समाधिपूर्वक मरणकी सचिरमवि गिरदिचार विहरिता णाणदसणचरित। महत्ता एवं आवश्यकता को बतलाते हुए स्वामी समन्तभद्र मरणे विराधयिता अनंतसंसारिओ दिह्रो ।। १५ ।। लिखते हैं :
इन सब बातोंसे स्पष्ट है कि अन्तसमयमें धर्मभन्त-क्रियाऽधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते । परिणामोंकी सावधानी न रखनेस यदि मरण बिगड़ जाता तस्माद्याद्विभव समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥१२३॥ है तो प्रायः सारे ही किये कराये पर पानी फिर जाता है।
(कि) तपका-अणुव्रत-गुणवत-शिवावतादिरूप जैसा कि भगवती भाराधनाकी निम्न गाथासे तपश्चर्याका-फल अन्तक्रियाके-सल्लेखना, सन्यास प्रकट है:अथवा समाधिपूर्वक मरणके-आधार पर अवलम्बित- चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य माउंजणा य जो होई। समाश्रित-है ऐसा सर्वदर्शी सर्वज्ञदेव ख्यापित करते सोचेव जिणेहिं तवो भणियो असई चरंतस्स १०॥
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किरण १२]
समन्तभद्र वचनामृत
[६
इसीसे अन्तसमयमें परिणामोंको सँभालनेके लिये याचना करता हुआ उसे प्राप्त करता है। साथ ही, स्वयं बहुत बड़ी सावधानी रखने की जरूरत है और इसीसे कर-कराये तथा अपनी अनुमोदना में पाये सारे पापोंकी प्रस्तुत कारिकामें इस बात पर जोर दिया गया है कि बिना किसी बल-बिद्रके पालोचना करके पूर्ण महाबतोंको जितनी भी अपनी शक्ति हो उसके अनुसार समाधिपूर्वक मरणपर्यन्तके लिये धारण करता है और इस तरह मरणका पूरा प्रयत्न करना चाहिये।
समाधिमरणकी पूरी तय्यारी करता है। इन्हीं सब बातोंको लेकर जैन समाजमें समाधिपूर्वक शोकं भयमवसाद क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । मरणको विशेष महत्व प्राप्त है। उसकी नित्यकी पूजाओं- सत्वोत्साहमुदीये च मनःप्रसार्थ श्रुतैरमृतैः॥१२६ ।। प्रार्थनाओं आदिमें 'दुक्खखो कम्मखो समाहिमरण
"महावतोंके धारण करनेके बाद। सस्नेखनाके च बोहिलाहो वि' जैसे वाक्यों द्वारा समाधि मरणकी बराबर
- अनुष्ठाताको चहिये कि वह शोक, भय, विषाद, भावना की जाती है और भगवती पाराधना जैसे कितनेही
क्लेश, कलुषता और परतिको भी छोड़ कर तथा बल ग्रन्थ उस विषयकी महती चर्चाओं एवं मरण-समय
और उत्साहको उदयमें लाकर बढ़ाकर-अमृतोपम सम्बन्धी सावधानताकी प्रक्रियाओंसे भरे पड़े हैं। लोकमें
आगम-वाक्योंके (स्मरण-श्रवण-चिन्तनादि-)द्वारा चित्तभी अन्त समा सो समा' 'अन्त मता सो मता' और
को (बराबर) प्रसन्न रक्खे-उसमें लेशमात्र भी अप्रस'अन्त भला सो भला' जैसे वाक्योंके द्वारा इसी अन्तक्रिया
बता न पाने दे। के महत्वको ख्यापित किया जाता है। यह क्रिया गृहस्थ तथा मुनि दोनोंके ही लिये विहित है।
व्याख्या-यहाँ सल्लखना प्रतीके उस कर्तव्यका
निर्देश है जिसे महावतोंके धारण करनेके बाद उसे पूर्ण स्नेहं वैरं सगं परिग्रह चाऽपहाय शुद्धमना ।
प्रयत्वसे पूरा करना चाहिये और वह है चित्त को प्रसन्न स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः।१२४॥
रखना। चित्तको प्रसन्न रक्खे विना सल्लखनाप्रतका ठीक भालोच्य सर्वमेनः कृति-कारितमनुमतं च नियाजम् ।
अनुष्ठान बनता ही नहीं। चित्तको प्रसन्न रखनेके लिये आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ॥ १२५ ॥
प्रथम तो शोक, भय, विषाद, क्लेश, कलुषता और परति__(समाधि मरणका प्रयत्न करने वाले सल्लखना- के प्रसंगांको अपने से दूर रम्बना होगा-उन्हें चित्तमें प्रतीको चाहिये कि वह) स्नेह (प्रीति, रागभाव) वैर भी स्थान देना नहीं होगा। दूसरे सत्तामें स्थित अपने (दुषभाव ), संग ( सम्बन्ध, रिश्ता नाता) और परि- यल तथा उत्साहको उदयमें लाकर अपने भीतर बल मह (धनधान्यदि बाब वस्तुओंमें ममस्वपरिणाम) तथा उत्साहका यथेष्ठ संचार करना होगा। साथ ही ऐसा को छोड़ कर शुद्ध चित्त हुआ प्रियवचनोंसे स्वजनों प्रसंग जोड़ना होगा, जिससे अमृतोपम शास्त्र-वचनोंका तथा परिजनोंको (स्वयं ) क्षमाकरके उनसे अपनेको श्रवण स्मरण तथा चिंतनादिक बराबर होता रहे; क्षमा कराये।और साथ ही स्वयं किये-कराये तथा क्योंकि वे ही चित्तको प्रमा रम्बने में परम सहायक अपनी अनुमावनाको प्राप्त हुए संपूर्ण पापकर्मको होते हैं। निच्छल-निर्दोष आलोचना करके पूर्ण महाव्रतको
आहार परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विषयेत्यानम्। पाँचों महावतोंको-मरण पर्यन्तके लिये धारण करे।' स्निग्धं चहापयित्वा खरपानं पूरयेत क्रमशः॥१२७..
व्याख्या-इन दो कारिकाओं तथा अगली दो कारि- खरपान-हापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । कामोंमें भी समाधिमरणके लिये उद्यमी सल्लखनानुष्ठाता- पंचनमस्कारमनास्तनु त्यजेत्सर्वयलेन ॥ १२८॥ के त्यागक्रम और चर्चाक्रमका निर्देश किया गया है। साथ ही समाधिमरणका इच्छुक श्रावक) क्रमशः यहाँ वह राग-पादिके त्यागरूपमें कषायसल्ल खना अहारको-कवलाहाररूपभोजनको-घटाकर (दुग्धादिकरता हुमा अपने मनको शुद्ध करके प्रिय वचनों द्वारा रूप) स्निग्धपानको बढ़ावे, फिर स्निग्धपानको भी स्वजन-परिजनोंको उनके अपराधोंके लिये समा प्रदान घटाकर क्रमशः खरपानको शुद्ध कांजी तथा उष्ण करता है और अपने अपराधोंके लिये उनसे जमा की जलादिको-बढ़ाये। और इसके बाद स्वरपानको भी
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४००]
अनेकान्त
किरण १२] घटाकर तथा शक्ति के अनुसार उपवास करके पंच- निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तर सुखाऽनिधिम् । नमस्कारमें - अहंदादि पंचपरमेष्ठिके ध्यानमें-मनको निष्पिति पीतधर्मा सबै? खैरनानीढः ॥ १३०॥ लगाता हुआ पूर्ण यलसे-व्रतोंके परिपालनमें पूरी
जिसने धर्म (अमृत) का पान किया है सम्बक सावधानी एवं तत्परताके साथ-शरीरको त्यागे।'
दर्शन, सम्यगशान, सम्यचरित्रका सल्लेखनासहित भने व्याख्या-कषायसा लेखनाके अनन्तर काय-सब्जे
प्रकार अनुष्ठान किया है-वह सब दुःखोंसे रहित होता सनाकी विधि-व्यवस्था करते हुए यहाँ जो माहारादिको
हुआ उस निःश्रेयसरूप सुख-समुद्रका अनुभव करता क्रमशः घटाने तथा स्निग्ध पानादिको क्रमशः बढ़ानेकी बात
है जिसका तीर नहीं-तट नहीं, पार नहीं और इसलिये कही गई है वह बड़े ही अनुभूत प्रयोगको लिये हुए है।
जो अनन्त है, (अनन्तकाल तक रहनेवाला है) तथा उससे कायके कृश होते हुए भी परिणामोंकी सावधानी
उस अभ्युदयरूप सुखसमुद्रका भी अनुभव करता है बनी रहती है। और देहका समाधि-पूर्वक त्याग सुघटित
जो दुस्तर है-जिसको तिरना, उल्लंघन करना कठिन है,
न हो जाता है। यहाँ पंचनमस्कारके स्मरणरूपमें पंचपर
और इसलिये जो प्राप्त करके सहजमें ही छोड़ा नहीं जा मेष्ठिका-अहम्तों, सिद्धों, प्राचार्यो, उपाध्यायों और
सकता। साधु-सम्तोंका-यान करते हुए जो पूर्ण सावधानीक
व्याख्या-यहाँ सल्लेखना - सहित धर्मानुष्ठानके साथ देहके त्यागको बात कही गई है वह बड़े महत्वकी है और इस प्रक्रियाके भवन पर कलश चढ़ानेका काम
फलका निर्देश करते हुए उसे द्विविधरूपमें निर्दिष्ट किया करती है। प्रत उपवासकी पात शक्तिके ऊपर निर्भर है
है-एक फल निःश्रेयसके रूप में है, दूसरा अभ्युदयके वदिशकिन हो तो उसे न करनेसे कोई हानि नहीं।
रूपमें । दोनोंको यद्यपि सुख-समुद्र बतलाया है परन्तु दोनों
सुख-समुद्रामें अन्तर है और वह अन्तर अगली कारिजीवित-मरणाऽऽशंसे भय-मित्रस्मृति-निदान-नामान।
कामोंमें दिये हुए उनके स्वरूपादिकसे भले प्रकार जाना सल्लेखनाऽतिचा:पंच जिनेन्द्र समादिष्टाः ॥१०॥
तथा अनुभवमें लाया जा सकता है। अगली कारिकामें जीनेकी अभिलाषा, (जब्दी मरनेको 'प्रभिलापा, निःश्रेयसको निर्वाण' तथा 'शुद्धसुख' के रूपमें उल्लेखित (शोक-परलोक-सम्बन्धी, भय, मित्रोंकी (उपलक्षणसे किया है, साथही 'नित्य' भी लिखा है और इससे यह स्त्री पुत्रादिकी भी । स्मृति (याद) और भावी भोगा स्पष्ट है EिER दिककी अभिलाषा रूप निदान, ये सल्लेखना व्रतक न होकर सांसारिक है-ऊंचेसे ऊँचे दर्जेका लौकिक सुख पाँच अतीचार (दोष) जिनेन्द्रोंने-जैन तीर्थंकरोने- उसमें शामिल है परन्तु निराकुलता-लक्षण सुखकी (भागममें) बतलाये हैं,
रष्टिसे वह असली ब्रालिस स्वाश्रित एवं शुद्ध सुख म ___ व्याख्या जो लोग सल्ले खनायतको अंगीकार कर होकर नकली मिलावटी पराश्रित एवं अशुद्ध सुखके रूपमें पीछे अपनी कुछ इच्छानोंकी पूर्तिके लिये अधिक स्थित है और सदा स्थिर भी रहने वाला नहीं है, जबकि जीना चाहते हैं, या उपसर्गादिकी वेदनाओंको निःश्रेयस सुख सदा ज्योंका त्यों स्थिर रहने वाला हैसमभावस सहने में कायर होकर जल्दी मरना चाहते हैं उसमें विकारके हेतुका मूलतः विनाश हो जानेके कारण बेअपने सलेखनावतको दोष लगाते हैं। इसी तरह वे कभी किसी विकारकी संभावना तक नहीं है। इसीसे भी अपने उस प्रतको दूषित करते हैं जो किसी प्रकारके - निःश्रेयस सखको प्रधानता प्राप्त है और उसका कारिकामें भय तया मित्रादिका स्मरणकर अपने चित्तमें रंग लाते पहले निर्देश किया गया है। अभ्युदय सखका जो स्वरूप है अथवा अपने इस व्रतादिके फलरूप में कोई प्रकारका १३५ वीं कारिकामें दिया है उससे वह यथेष्ट पूजा, धन, निदान बांधते है। अतः सल्लेखनाके उन फलोंको प्राप्त प्राज्ञा बल, परिजन, काम और भोगके प्रभावमें होने करनेके लिये जिनका मागे निर्देश किया गया है इन पांचों वाले दुःखोंके प्रभावका सूचक है, उन्हीं सब दुखोंका दोषोमसे किसी भी दोषको अपने पास फटकने देना नहीं प्रभाव उसके स्वामीके लिये 'सबदुःखैरनालीरा' इस चाहिये।
वाक्पके द्वारा विहित एवं विवक्षित है। वह अगली
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किरण १२]
कारिकामें दिये हुए जन्म-जरा-रोग और मरणके दुःखोंसे, इष्ट वियोगादि जन्य शोकांसे और अपनेको तथा अपने परिवारादिको हानि पहुँचनेके भयोंसे परिमुक्त नहीं होता; जब कि निःश्रेयस सुम्बके स्वामीके इन सब दुःखोंकी कोई सम्भावना ही नहीं रहती और वह पूर्णतः सर्व प्रकारके दुःखोंसे अनालीढ एवं अस्पृष्ट होता है। ये दोनों फल परिणामों की गति अथवा प्रस्तुत रागादिपरिणतिकी विशिष्टताके आश्रित हैं ।
समन्तभद्र- वचनामृत
प्रस्तुत कारिकामें दोनों सुख- समुद्रोंके जो दो अलग अलग विशेषण क्रमशः ‘निस्तीर' और 'दुस्तर' दिये हैं वे अपना खास महत्व रखते हैं। जो निस्तीर हैं उस निःश्रेयस सुख-समुद्र को तर कर पार जानेकी तो कोई भावना ही नहीं बनती - बह अपने में पूर्ण तथा अनन्त है । दूसरा प्रभ्युदय
सुग्ब-समुद्र सतीर होने समीम हैं, उसके पार जाकर निःश्रेयस सुखको प्राप्त करनेकी भावना जरूर होती है परन्तु वह इतना दुस्तर है कि उसमें पड़कर अथवा विषय-भोगकी दलदल में फँसकर निकलना बहुत ही कठिन हो जाता है- विरले मनुष्य ही उसे पार कर पाते हैं। जन्म-जरा-ऽऽमय-मरणैः शोकैर्दु खैभेयेश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निनयसमिध्यते नित्यम् ॥ १३१ ॥
'जो जन्म ( देहान्तर प्राप्ति ), जरा, रोग, मरण ( देहान्तर प्राप्ति के लिये वर्तमान देहका त्याग ), शोक, दुःख, भय और (चकार या उपलक्षणसे ) राग-द्वेष- काम क्रोधादिकसे रहित, सदा स्थिर रहने वाला शुद्धसुखस्वरूप निर्वाण है-सकल विभाव-भावके प्रभावको लिये हुए बाधारहित परम निराकुलतामय स्वाधीन सहजानन्दरूप मोक्ष है— उसे निःश्रेयम कहते हैं।
विद्या- दर्शन - शक्ति - स्वास्थ्य प्रह्लाद तृप्ति शुद्धि - युज: । निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम्॥ १३२॥
[ ५०१
स्वरूपमें स्थिर रहनेवाले हैं, वे ( ऐसे सिद्ध जीव ) निः श्रेयस सुखों में पूर्णतया निवास करते हैं ।
'जो विद्या- 'केवलज्ञान, दर्शन- केवल दर्शन, शक्ति अनन्तवीर्य - स्वास्थ्य – स्वात्मस्थितिरूप परमोदासीन्य ( उपेक्षा ), प्रह्लाद - अनन्तसुख, तृप्ति - विषयाऽ वाकांक्षा, और शुद्धि - द्रव्य-भाषादि कर्ममल रहितता, इन गुणोंसे युक्त है, साथही निरतिशय हैं विद्यादि गुबोंमें हीनाधिकताके भावसे रहित हैं, और निरवधि है-नियत कालकी मर्यादासे शून्य हुए सदा अपने
व्याख्या - यहाँ निः श्रेयस सुखको प्राप्त होनेवाले सिद्धोंकी अवस्था विशेषका कुछ निर्देश किया गया है, जिसमें उनके निरतिशय और निरवधि होने की बात खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है और वह इस रहस्यको सूचित करती है कि निः श्रेयस सुखको प्राप्त होने वाले सब सिद्ध विद्यागुणोंकी दृष्टिसे परस्पर समान हैं - उनमें हीनाधिक्या कोई भाव नहीं है- और वे सबही सदा अपने गुणोंमें स्थिर रहनेवाले हैं—उनके सिद्धत्व अथवा निंःश्रेयसत्वकी कोई सीमा नहीं है ।
काले कल्पशतेऽपिच गते शिवानां न बिक्रिया लक्ष्या ।
उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोक-संभ्रान्ति-करण-पटुः१३३
'सैकड़ों कल्पकाल बीत जाने पर भी सिद्धों के विक्रिया नहीं देखी जाती उनका स्वरूप कभी भी विकार भाव अथवा वैभाषिक परिणतिको प्राप्त नहीं होता । यदि त्रिलोकका संम्रान्ति कारक - उसे एकदम उलट पलट कर देने वाला - कोई महान असाधारण उत्पात भी हो तब भी उनके विक्रियाका होना सभव नहीं है-वे बराबर अपने स्वरूप में सदा कालके लिये स्थिर रहते हैं ।"
उपाख्या- यहां एक ऐसे महान् एवं असाधारण उत्पातकी कल्पनाकी गई है जिससे तीन लोककी सारी रचना उलट-पलट हो जाय और तीनों लोकोंको पहचाननेमें भारी भ्रम उत्पन्न होने लगे। साथ ही लिम्बा है कि सैकड़ों कoपकाल बीत जाने पर ही नहीं बल्कि यदि कोई ऐसा उत्पात भी उपस्थित हो तो उसके अवसर पर भी निःश्रेयस सुखको प्राप्त हुए सिद्धोंमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होगा - वे अपने स्वरूपमें ज्यांके स्यों अटल और अडोल बने रहेंगे। कारण इसका यही है कि उनके श्रम से विकृत होनेका कारण सदा के लिये समूल नष्ट हो जाता है।
निःश्रेयसमधिपन्नास्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते । निष्किट्टिक. लिका चामीकर-मसुरात्मानः ॥ १३४ ॥ 'जो निःश्रेयसको निर्वाणको प्राप्त होते हैं वे कीट और कालिमासे रहित छवि वाले सुवर्णके समान
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अनेकान्त
[किरण १२
देदीप्यमान आत्मा होते हुए तीन लोकके चूडामणि 'सल्लेखनाके अनुष्ठानसे युक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञानजैसी शोभाको धारण करते हैं।
चारित्ररूप समीचनधर्म जिस 'अभ्युदय' फलको व्याख्या-जिस प्रकार खानके भीतर सुवर्ण पाषाणमें फलता है वह पूजा, धन तथा आशाके ऐश्वर्य स्थित सुवर्ण कीट और कालिमासे युक्त हुा-सा निस्तेज (स्वामित्व) से युक्त हुआ बल, परिजन, काम तथा बना रहता है। जब अग्नि प्रादिके प्रयोग-द्वारा उसका भोगकी प्रचुरताक माथ लोकमें अतीव उत्कृष्ट और वह सारा मल वट जाता है तब वह शुद्ध होकर देदीप्य- आश्चर्यकारी होता है। मान हो उठता है। उसी प्रकार संसारमें स्थित यह व्याख्या-यहाँ समीचीन धर्मके अभ्युदय फलका जीवात्मा भी मुव्यकर्म भावकर्म और नोकर्मके मलसे __ सांकेतिक रूपमें कुछ दिग्दर्शन कराया गया है। अभ्युदय मलिन हुभा अपने स्वरूपको खोए हुए-सा निस्तेज बना फल लौकिक उत्कर्षकी बातोंको लिए हुए है, लौकिकजनोंरहता है । जब सवतों और मालेवनाके अनुष्ठानादिरूप की प्राय. साक्षात् अनुभूतिका विषय है और इसलिये तपश्ररणकी अग्निमें उसका वह सब कर्ममल जलकर उसके विषयमें अधिक लिखनेकी जरूरत नहीं है, फिर भी अलग हो जाता है तब वह भी अपने स्वरूपका पूर्ण 'भूयिस्ट: 'अतिशय भुवनं' और 'अद्भुतं' पदांके द्वारा लाभकर देदीप्यमान हो उठता है, इतना ही नहीं बल्कि उसके विषयमें कितनी ही सूचनाएँ कर दी गई हैं और
लोक्य चडामणिकी शोभाको धारण करता है अथोत् अनेक सचनाएं सम्यग्दर्शनके महात्म्य वर्णनमें पहले मासर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त करता है।
चुकी हैं। पूजार्थज्ञ श्वबैलि-परिजन-काम-भोग-भूयिष्ट।
-युगवीर अतिशयर्यात भुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः।१३५॥
फतेहपुर (शेखावाटी) के जैन मूर्ति लेख
(पं० परमानन्द जैन शास्त्रो) फतेहपुर राजपूताना प्रान्तके अन्तर्गत जयपुरके कम करनेका प्रयत्न करते हैं। हाँ, शहर और गांवोंके शेखावाटी जिलेका पुराना शहर है। इसे हिसारके आस-पास छायादार नीमके वृक्ष भी राजपूतानामें नबाब फतहम्वाँने स०१५०८ में बसाया था और उसे देखने में आते हैं। वे प्रायः घरोंके सामनेभी लगे हुए अपने नामसे प्रसिद्ध किया था।
दिखाई देते है । और बड़-पीपल आदिके वृक्ष केवल फतेहपुर रेगिस्तानके उस बालकामय प्रदेशमें वसा धर्मायतनों में ही पाये जाते हैं। वहाँ अनेक कुवाहुमा है, जहाँ रेतके बड़े-बड़े टीले मीलों तक चारों बावड़ी है इसलिये पानीकी कभी तो नहीं है, परन्तु ओर दिखाई देते हैं। दरसे वे पहाड़ सदृश प्रतीत
कुए अधिक गहरे है, और उनका पानी स्वच्छ एवं होते हैं। परन्तु वे पहाड़ नहीं हैं। हां, उनमें चमकीले मीठा है और वह स्वास्थ्यवर्धक भा है फिर भी जनता बालूकण अथवा अभ्रकके टुकड़े आगन्तुक व्यक्तिको उनसे अपना निर्वाह कर लेती है। अवश्य सम्भ्रम उत्पन्न कर देते हैं। वहाँ अन्य जंगलों- फतेहपुर में गर्मी के दिनोंमें अधिक गर्मी पड़ती के समान सघन एवं छायादार वृक्ष तो कहीं दृष्टिगोचर है-दिन भर लू चला करती है, और जाड़ेके दिनोंमें नहीं होते. पर अनेक झाड़ी, जाट, खैर केकड़ा और शीत भी अधिक पाया जाता है। वहां १५-१६ इंचसे कीकर वगैरहके वृक्षोंका समूह अवश्य दिखाई देता अधिक वारिस नहीं हातो। सिंचाईका यहाँ कोई है, जो प्रकृतिकी शोभाको धारण करते हुए अपनी साधन नहीं है, नदी भी कोई ऐसी नहीं है जिससे साधारण बायामें पथिकोंके दिनकर जनित संतापको सिचाईकी व्यवस्था हो सके, अतएव यहांकी खेती
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किरण १२]
फतेहपुर (शेखावाटी) के जैन मूर्तिलेख
[४०३
केवल वारिस पर ही निर्भर है, इसीसे यहां केवल एक प्राप्त होने के बाद कायमखाँका प्रताप एवं प्रभाव दिन ही फसल बरसातमें गवार, मोठ, मूंग और चोप्रा पर दिन बढ़ता गया। बादशाही दरबारमें भी उसका श्रादिकी होती है । खेती की जमीन बैलों और ऊँटों- प्रभाव अंकित हो गया और उससे प्रायःलोग डरने के द्वारा जोती जाती है। मूली, गाजार, बैंगन, तोरई लगे। कायमखाँको खानखानाकी उपाधि भी प्राप्त थी, कांदा लहसुन टमाटर धनिया, पौदीना और पालक इसकी ७ स्त्रियाँ थीं, जिनसे छह पुत्र पैदा हुए थे।
आदि शाक-सब्जीकी खेती भी होती है। चौमासेमें फीरोजशाह तुगलकको सं०१४७५में मृत्यु होगई, मतीरा (तरबूज) और ककड़ी अधिक होती है, गाँवके तब दिल्लीकी बादशाहत बड़ी अस्त-व्यस्त दशामें आस-पासके लोग मतीरा और ककड़ी बेचने आया
होगई थी, उसका कारण प्रापसी फूट और परस्परका करते हैं।
अविश्वास था। यही वजह है कि २६ वर्षके अल्प. ___ फतेहपुरके मतीरे अधिक प्रसिद्ध हैं। कहा जाता समयमें दिल्ली में फीरोजशाहके बाद स्वाँ बादशाह है कि नवाब अलिफरखाँ (सं०१६६६) के समयमें सैयद खिजरखाँ था। खिजरखाँ नबाब कायमस्लॉके सम्राट जहांगीरने शेखावाटीके मतीरोंकी प्रशसा सुन. प्रतापको सह न सका और उसका विक्रम देखकर वह कर फतेहपुरसे एक मतीरा अपने दरबारमें मंगाया था भयभीत रहने लगा । उसने अवसर पाते ही कायमजिसका वजन ३३।। सेर था।
खाँको अपने बेटे अहमदखाँ के साथ किलेकी बुर्जसे फतेहपुरके नवाब
नीचे जमनामें ढकेल दिया, जिससे ये डूब कर मर फतेहपुरके वे सभी नबाब जिन्होंने वि. सं..
गये। और ताजखाँ तथा मुहम्मदखाँको हिसारसे १५०८ से सं० १७८७ तक २७६ वर्ष झुंझनूं और
निकाल दिया गया। खिजरखाँके मरनेके बाद वे दोनों फतेहपुरमें राज्यशासन किया है। उनकी कुल संख्या
पुनः हिसार में आकर राज्य करने लगे। ताजखाँ और
फतहखाँके ३१ वर्ष राज्य करनेके बाद वे लोग हिसार १२ है और जिनके नाम इसप्रकार हैं:
छोड़ कर चले गये । और अपने द्वारा मरूभूमिमें दो फतहखाँ, जलालखाँ, दौलतख'....हरखाँ, फदन
नूतन शहर बसा कर राज्य करने लगे। खाँ, ताजखाँ, अलिफखाँ, दौलतलाँ, सरदारखाँ (१)
फतहखाँ ने सं०१५०६ में फतेहपुर में किला बनदीनदारखाँ, सरदारखाँ (२) और कामयावखाँ। इनके बाद फतेहपुर और झनृमें शेखावत राजपूतोंका
वाना प्रारंभ किया था जो दो वर्ष में बनकर पूरा हो
गया। तब उसने सं० १५०८में किले में रहना प्रारंभ शासन रहा है।
कर दिया। फतहखॉ हिसारके नबाब थे। इनके पिताका नाम ताजखाँ 'और पितामहका नाम कायमखाँ था. जो सेठ तोणमल या तोहनमन्ल ददरेरागाँवके चौहान राजा मोटेरावका पुत्रथा, और जिस समय फतेहखाँ हिसारसे फतहपुर आया जिसका नाम कमसिंह था। सं० १४४० में दिल्लीके उसी समय उनके साथ वहाँ के निवासी सेठ हेमराजबादशाह फीरोजशाह तुगलककी आज्ञासे हिसारके के सपत्र सेठ तोहनमल्ल, जो फतहखाँ के मुसाहिब ये फौजदार सैयद नासिरने ददरेरा पर हमला किया था, आये। वे अप्रवाल वंशी और दि०जैनधर्मके अनुयायी उसमें मोटेरावका उक्तलड़का उसके हाथ लगा। लड़का थे। फतहखाँ के साथ इनकी घनिष्ट मित्रता थी। होशयार और चतुर था, इसीसे सैयद नासिरने उसे फतहखाँ उनकी सलाह लिये बिना कोई काम नहीं मुसलमान बनाकर अपने पास रख लिया और उसका करता था, सेठ तोणमल या वाहनमल्ल भी राजनीति में नाम कायमखाँ रक्खा गया। बाद में उसके दानों भाइ दक्ष थे और राज्यकार्यमें अपना पूरा योग देते थे। वे भी योंको भी मुसलमान बना लिया गया। सं० १४४५में अपने परिवारके साथ फतहपुर गए । वे बड़े निरसैयद नासिरको मृत्यु होगई। तब फीरोजशाह तुगलक- भिमानी थे, इनके तीन भाई और थे, जिनका नाम ने कायमखाँको हिसारका नबाब बनादिया। नबाबी क्रमशःटीलणदास, रूपचन्द और पद्मराज था,सेठजी
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४०४] भनेकान्त
[किरण १५ अपने साथ हिसारसे दो पुरानी मूर्तियाँ भी लाये थे। का जीर्णोद्धार किया। और सं०१८६५ में जब भ. जिनमें एक प्रतिमा सप्तधातु की थी जिसमें चौबीस ललितकीति फतेहपुर आये, तब वहाँ की समाजने तीर्थकरों की मूर्तियाँ अंकित थी, और जो, सं०१०६६ उनका उचित समादर किया। जैनियोंका यह मन्दिर माघ सुदि ११ को मूलसंघी आचार्य पद्मनन्दि के उस समय पृथ्वीमें घुस गया था, अतः भट्टार जीधारा प्रतिष्ठित हुई थी। इसका चित्र अन्यत्र दिया हुश्रा के अनुरोधसे समाजने उसका जाणणद्धार करवा है। दूसरी मूर्ति चन्दप्रम भगवान की है, जो काले दिया और उसीके ऊपर एक नये विशाल मन्दिरका पाषाणपर उत्कीर्ण की हुई है, वह सं० १११३ में निर्माण भी करवा दिया। ये दोनों ही मन्दिर अब तक बैसाख सुदि ११ को प्रतिष्ठित हुई थी। इन दोनों बराबर बने हुए हैं। ऊपरका मन्दिर तय्यार हो जानेमूर्तियोंको ईश्वरदास नामके भोजक अपने साथ के कारण नीचेके मन्दिरकी सभी मतियाँ ऊपरकी लाये थे।
वेदीमें विराजमान करदी गई, जबसे उनका वहीं पर इन दोनों मूर्तियों के कारण सेठजीने सं०१५०८ बराबर पूजन होने लगा। यह नया मन्दिर पहले में दिल्ली पटक मजिनचन्द्रजीके पदेशसे दिगदर
दियो पटक भ० जिनचन्द्रजीक उपदेशस दिगम्दर मन्दिरसे दूने सु• स्थान पर संगमरमरके पत्थरका बना जैन मन्दिरका शिलान्यास फाल्गुन सुदि २ को किया, हा है, उसमें अन्दर सुवर्णका कामभी किया गया
और मन्दिर तय्यार होने पर उक्त मूर्तियाँ बड़े भारी है। अनेक संस्कृत पद्य भी सुवणोक्षरोंमें अंकित महोत्सबके साथ विराजमान कर दी।
किये गए हैं, जिनसे मन्दिरकी शोभा दुगुणित सं०१७७० में चौधरी रूपचन्दजीने उक्त दिल्ली हो गई है। मन्दिरमें दो शिलालेख और अनेक पट्टके भट्टारक श्रीदेवेन्द्र कीर्तिकी आज्ञासे मन्दिर- प्राचीन यन्त्र हैं जिनसे इतिहास-विषयक कुछ सामग्री
..ईश्वरदास शाकद्वीपीय माय थे। इनका घंश प्राप्त हो जाती है। यन्त्रों में सबसे पुराना यन्त्र भोजक कहलाता है। इनके वंशज फतेहपुरमें अबभी मौजूद सम्पग्दर्शनका है, जो सं० १५४३में मगसिर वदी हैं। जैन मन्दिरमें भजनादि करनेके कारण जैनियोंके साथ १ गुरुवारके दिन उत्कीर्ण किया गया है। दूसरा इनका प्रेम सम्बंध चला जाता है। जैनमन्दिरामें यह सेवा यन्त्र सोलह कारणका है जो सं० १५४९में उत्कीर्ण कार्य करते हैं। अब यह परम्परा नहींके बराबर है। कराया था। तीसरा यन्त्र स० १५७३का है और
२ यह भट्टारक जिनचन्द वे ही हैं जो भट्टारक पद्म- चौथा सं. १५७६ का। नन्दिके प्रशिष्य और भ. शुभचन्दके पट्टधर थे। यह मूल- भ० ललित कीतिके प्रशिष्य और पांडे रूपचन्दजी संघस्थित नन्दीसंघ, बलात्कारगण और सास्वतिगच्छके के शिष्य पं. जीवनराम थे, जिनके हाथका लिखा हुधा विद्वान थे और दिल्ली पट्टके पट्टधर थे। यह बड़े प्रभावी एक गुटका वहां सुरक्षित है, जो एक लाख श्लोक थे। संवत १५०० में पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे, सं० १९४८ प्रमाण बतलाया जाता है! उस गुटके को देखनेसे में इन्होंने जीवराज पापड़ीवाल के सहयोगसे सहस्त्रों इस बातका पता चल सकेगा कि उसमें किन किन प्रथों मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कराई थी। इनके अनेक विद्वान शिष्य का संग्रह एवं संकलन किया गया है, और वे कितने थे। भ. रस्नकीर्ति और पं. मेधावी उनमें प्रधान थे, पुराने एवं महत्व के हैं। उन्होंने अपनी मृत्यूसे पहले जिन्होंने 'धर्मसंग्रह श्रावकाचारकी रचना हिसारमें प्रारम्भ अपनी एक छतरीभी बनवाईथी जो अबभी मौजूद है। करके सं० १९४१ में कुतुबखानके राज्यकालमें समाप्त इनके पश्चात् अन्य लोग पट्ट पर बैठे पर बाद में वह चला किया था। इनके दो शिष्य और भी थे, ब्रह्म नरसिंह नहीं। उक्त सेठ तोहनमन्लजीके माता पिता भी हिसारसे
और पक्ष तिहुमा । ब्रह्म तिहुणाने सं० १५१८ में बादमें आकर फतेहपुर ही रहने लगे थे। वर्तमानमें पं० मेधावीके उपदेशसे पंचसंग्रह और जंबुद्धीपप्रज्ञप्ति फतेहपुर और आस-पासके गांवों में जो भी अग्रवाल खिखाकर उन्हींको प्रदान किया था इनका बनाया हुमा जैनी हैं वे सब इन्ही सेठजीके वंशजकहे जाते हैं। एक चतुर्विशति जिन स्तोत्र भी है। जो 'अनेकान्त' वर्ष हिसारके एक सेठ हेमराजका उल्लेख भ. यशः
कीर्तिने अपने पाण्डव पुराण' में किया है, जिसमें वे
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किरण १२) फतेहपुर-शेखावाटी) के जैन मूर्ति-लेख
[४०५ दोलीके बादशाह मुवारिकशाहके मन्त्री बतलाये गये श्री पार्श्वनाथ दि० जैनमंदिरके कुवेका लेख हैं, वे भी अप्रवाल थे। परन्तु उस ग्रंथमें कुलादि परिचय-विषयक जो नामादि दिये हैं, उनमें कुछ भिन्नता
यह स्वर्गीय सेठ गुरमुखरायजीकी धर्मपत्नी सेठ
सुम्बानंद निहालचंदकी माताने बनवाया। दिखाई देती है दूसरे अपने मन्त्रित्वकालमें वे देहली रहे हैं, परन्तु विशेष सामग्रीके अभावमें अभी प्रामा
दि. जैनियोंके कुवेका लेख णिक रूपसे यह बतलाना कठिन है कि प्रस्तुत दोनों
श्री भगवतजी सत्य सं० १७१६ वर्षे मिति जेष्ठ सुदि हेमराज एक ही व्यक्ति हैं, या भिन्न-भिन्न । इसमें
३ राज्य श्री दिवान दीनदारखों गुरु श्री १०८ श्रीभट्टारक सन्देह नहीं कि, दोनोंका नाम एक है। पाण्डवपुराण
श्री महीश्चन्द्रजी व सकल श्रावक फतेहपुरका पुन्य निमित्त में उनके ज्येष्ट पुत्रका नाम 'मोल्हण' बतलाया गया
जल थानक करायो सर्वको शुभकारक भवत ।' है जबकि 'फतेहपुर परिचय' नामक पुस्तकमें उनका नाम तोणमल्ल मिलता है, यह सभावना जरूर है कि दोनों व्यक्ति हिसार निवासी हैं, पर पर्याप्त सामग्री- ॐ नमः सिद्धेभ्य विदितहो कि यह स्थान कूप पूर्व के अभावमें अभी उन्हें एक बतलाना संगत नहीं १०८ श्री महीश्चन्द्रजीके समयमें सकल पंचाचाबकान जंचता।
कराया थो पुनः जीर्णोद्वार वा नवीन तिवारी सं० १९५६ इस तरह फतेहपुर समुन्नत शहर है, वहाँ अनेक भादवा सुदि ५ को तैयार हुभा । महाराव राजाजी कवि और सुन्दरदासजी जैसे वेदांती संत हुए हैं। और श्री माधोसिंहजी बहादुरके समय श्रावक रामसामन अनेक धनीमानी सज्जन भी हुए हैं। उनमें सेठ गुरमुग्वराय अग्रणी होकर तैयार कराओ मर्षको शुभकारक सुखानन्दजीका नाम तो खास तौरसे उल्लेखनीय है जो भवतुः। फतेहपुर के नियासी थे। और जिन्होंने अपने जीवनमें
पा० श्री दि० जैन मन्दिरके मूर्ति-लेख अनेक धार्मिककार्य सम्पन्न किये हैं। बम्बईकी विशाल धर्मशालाभो उन्हींकी बनाई हुई है।
नोट :-इन लेखोंमें भाषा सम्बन्धि अनेक अशुद्धियाँ फतेहपुरके सज्जन बा.गिनीलालजीने मेरी प्रेरणासे
हैं जिन्हें मौलिकताकी दृष्टिसे सुधारा नहीं गया है। निम्न मूर्तिलेख और 'परिचय' पुस्तक भिजवाई थी, (१):०६६ माध सुदि ११ गुरौ श्री मूलमंधे पद्मनन्दिजिसे मैं अनकाशवश अनेकान्तमें न दे सका था, वे अब
देवा माथुर वंशे साः पद्मनिमिदास रा? दिये जारहे हैं । इसके लिए मैं उनका प्रभारी हूँ।
राजा नवाब प्रतिष्ठाया माप्ति । आशा है दूसरे सज्जनोंको भी इससे प्रेरणा मिलेगी
प्रतिमा-सप्तधातुकी २४ तीर्थङ्कराकी इन्द्र कि वे भी अपने-अपने स्थानोंके मूर्तिलेख उतरवाकर
बाई तरफका खंडित (हिसारसे श्री तोयमलजी अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ भेजें।
साथ लाये थे)।५xsi श्रीपार्श्वनाथ दि० जैनमंदिरके शिलालेख (२) ११३ बैसाम्य सुदि ६ भागेके अक्षर पर नहीं गई ।
कालो.. ... "पुर. ... "पाटण । संवत् १५०६ मिती फागुन सुवि २ साह श्रावक
प्रतिमा-चन्द्रप्रभुकी काले पाषाणकी (हिसार तोहण देवराकी नीव डलवाई। मंवत १७७० मिती फागुन
से तोणमनजी साथ लाये । )। ६xn सुदि २ भहारक श्री खेमकीर्ती तत्प भट्टारक सहस कीर्ती तत्प भहारक महीचन्न तत्पट्ट भट्टारक श्री (३
१९५५ भादो ..... आगे के पचर सब घिस गये। देवेन्द्रकीर्ती तत माम्नाय चौधरी सषमल तस्य पुत्र
प्रतिमा पार्श्वनायको सप्तधातुकी ॥३॥m चौधरी रुपचंद वा सकल पंच श्रावक मिलकर देहराकी (४) १५२५ मूलसंघसा- वि०प० पराभान न सुतनुरगो? मरम्मत कराई।
प्रतिमा पारर्वनाथ धातु की।x॥
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४०६]
अनेकान्त
[किरण १२
.
(५) १५३५ श्री मूलसंधे भट्रारक श्रीभूवनकीर्ती तत्प
भार्या सीता सुत मधान भार्या महणसिरि । भहारक श्री शानभूषण उपदेशात् । प्रतिमाके
प्रतिमा-चौवीस तीर्थरोंकी सप्तधातुकी। के खके ऊपर से. ठाकरसी लिखा हुआ है प्रतिमा
x ३ शामिल है खद्गासन धातुकी । ३॥x २ (१७), वैशाख सुदि ५ काष्ठासंधे भ० गुणभद्रदेव (१) १९४५ मा. श्री पुत्र शाहन पा० पुजा प्रतिमा
सा लूणा सुत तिहुणा । प्रतिमा २४ तिर्थरों पाश्वनाथ, सप्तधातु की । ३॥४२॥
सप्तधातुकी। ॥x ॥ (७) १९५८ बैशाग्य सुदि ३ श्री मूलसंधे भ. श्री जिन- (१८) १५०० माह सुदि १५ भागेके अक्षर घस गये तथा चन्द्र देवा साहु जीवराज पापड़ीवाल नित्यं
संवत्के अंकभी घिस गये।) प्रतिमा-पार्श्वप्रगामति सौख्यं शहर मुडासा श्री राजा
नाथ, धातुकी। Ix॥ स्योसिंध रावल, प्रतिमा पार्श्वनाथ, धातुकी। (18) १९५२ जेठ सुदि १२ वै० स० पु. भ. जिनचन्द्राय
२॥४ ॥
त्रिवेदी सामदेवा. द. रा. लोसायस २ (6) १५४८ लेख उपर मुजब ।
प्रतिलनेचषु प्रतिमा-३ भगवान का सामिल प्रतिमा पार्श्वनाथकी श्वेत पाषामाकी
सप्तधातुकी खङ्गामन, चिन्ह नहीं । ३॥४२॥ १४॥x. यह प्रतिमा मूलनायक प्रतिमा श्री (२०) १६८९ कातिक सुदि.१५ परतू कासलीवाल पार्श्वनाथकी खंडित हो जानेसे पटनासे
प्रतिमा-पार्श्वनाथकी सप्तधातुकी I४॥ मंगाई गई । खंडित प्रतिमाका लेख इस मुजब (२१) १७०३ बैशाख सुदि ३ श्री मूलसंधे भ. जगतकीर्ती था 'सं० १८५१ जेठ सुदि ५ भ० सुरेंद्रकीर्ती
श्री खंडेला विभवर्गे श्री मोहनदास भैसा उपदेशेन रामचंद दीवान प्रतिष्ठा कराई।
नित्यं प्रणमति । प्रतिमा - चौबीस तीर्थङ्करोंकी (6) १५४८ लेख ऊपर मुजब । प्रतिमा चन्द्रप्रभुकी श्वेत
सप्तधातुकी ४२ पाषाण की। १७४१४
(२२) १७११ मगसरवदि ११ शुक्रवार प्रतिष्ठायां साहु माधौ (१०), लेख ऊपर मुजब । प्रतिमा शांतिनाथकी श्वेत
प्रतिमा-पार्श्वनाथकी सप्तधातुकी ३४२॥ पाषाणकी। १०x१४
(२३) १७१५ फागन सुदि ३ श्री काष्ठासंघे भ. श्री भुवन(११), लेख ऊपर मुजब । प्रतिमा पार्श्वनाथकी काले
कीर्ती प्र. सा. केवल ना । प्रतिमा पार्श्वनाथपाषाणकी। .xn
की धातु की ३३४१॥ वैशाग्व सुदि ३ भ. सुरेन्द्रकीर्ती प्रतिष्ठा (२४) १७२२ पं. चर्तुभुज नित्यं प्रणमति । प्रतिमा पार्श्वकरीत, सा• पापड़ीवाल सरमदास ।
नाथकी धातुकी २॥४२ प्रतिमा मल्लिनाथ श्वेत पाषाणकी १४४६ (२३) शके १५८८ माह वदि ६ नाव प्रतिष्ठा भेषदयासु । (१३), लेख उपर मुजब । प्रतिमा मल्लिनाथ श्वेत
प्रतिमा पार्श्वनाथकी सप्तधातुकी दो यंत्र पाषायकी।.x15
सुधा ३॥४२॥ लेख ऊपर मुजब । प्रतिमा अरिहंत, श्वेत (२६) १७७७ कातिक सुदि ३ भ. देवेन्द्रकीर्ती प्रतिष्ठापितं । पाषाणकी खड्गासन । १५४६
प्रतिमा-चन्द्रप्रभुकी श्वेत पाषाणकी ८४. लेख ऊपर मुजब । प्रतिमा अरिहंत, श्वेत (२७), लेख ऊपर मुजब । प्रतिमा चन्द्रप्रभुकी श्वेत पाषाणकी खड्गासन | १५४६
पाषाणकी Euxo . (१०), वैशाख सुदि बु. श्री मूलसंघे भ. श्री जन- (२८), लेख अपर मुजब । प्रतिमा प्रादिनाथकी श्वेत
चन्द्रदेवा तदाम्नाये खंडयाला साह तंगज - पाषाणकी Eux.
FHHHHHHH
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किरण १२]
फतेहपुर (शेखावाटी) के जैन मूर्ति-लेख
[४०७
२६ , लेख ऊपर मुजब । प्रतिमा मुनिसुव्रतकी श्वेत प्रतिमा चन्द्रप्रभुकी श्वेत पाषाणकी २३४॥ पाषाणको ८॥x.
(४२-४३) प्रतिमा चन्द्रप्रमुकी नगर चांदीकी २॥२ ३. १८२६ कातिक सुदि ६ भट्टारक राजेन्द्रकीर्ती । प्र. (५४) नमिनाथकी "" " " मादिनाथकी श्वेत पाषाणकी १०॥x.
पादिनाथकी "धातुकी " लेख ऊपर मुजब । प्रतिमा चन्द्रप्रभुकी श्वेत
महावीरकी ", " x. पाषाणको १.x1
२४ तीर्थरोंकी " : चाँदीकी xam , लेख उपर मुजब । प्रतिमा शांतिनाथकी
(सुखानन्द) श्वेत पाषाणकी १.४८/
महावीरकी नग १ धातुकी ५४३ ३३ ११२३ ॐ मिती द्वितीय जेठ सुदि १० लोहाचार्या
(५६) नाये भ. राजेन्द्रकीर्तीदेवा तत् प्राम्नाये
(सदाराम गंगावक्स) अग्रोतकान्वये वासल गोत्र साहू जिनवरदास
शीतलनाथकी नग धातुकी ६॥४५ भार्या मिश्री कुवंर भगवानदासेन सार्द्ध श्री
नेमनाथकी " कालापाषाण २०-६ जिन प्रतिष्ठा करापिता । प्रतिमा-पार्श्वनाथ
___ स्वड्गासन (सुखानन्द) की सप्तधातुकी १.४५॥
(५२) महावीरकी नग पीले पाषाणकी २१-१४ ३. १८२६ वैशाख सुदि ४ पद्मावतीकी सप्तधातुकी
(सुग्वानन्द) ३५ १६४८ चैतसुदि ५ श्री कुन्द कुन्दाचार्य परम दिगम्बर नोट:-इन सब मूर्तिलेखोंके लेग्य नं. ४ के समान है।
गुरु उपदेशात् जिन बिंब नवानगरे प्रतिष्ठितं। [२३] संवत् १६२६ बैसाखसुदि ३ भ. राजेन्द्रकीर्ती गुरुमुग्वराय सुग्वानंद निहालचंद प्रतिमा तदाम्नाये अग्रोतकान्वये साहु मूभीलाल भार्या श्रेयांश
श्री नेमिनाथको काले पापाणकी २४४१८ कुमारी तया प्रतिष्ठा करापितं । प्रतिमा मेमनाथकी सप्ल३६ ११७२ द्वि. बैशाख सुदि ५ श्री कुन्दकुन्दाचार्य धातुको ६॥ ३॥
दिगम्बर गुरु उपदेशात् बड़नगरे प्रतिष्ठापितं । (१४) संवत् १९२६ बैसाग्वसुदि ३ भ. राजेन्द्रकीर्ती दिगम्बर शुद्धानाय । प्र. चन्द्रप्रभुकी श्वेत तत् श्रेयांशकारक भवतु प्रतिमा सुपार्श्वनाथकी समधातुकी पाषाण की xl
खड्गासन nxn लेग्व अपर मुजब । प्रनिमा चन्द्रप्रभुकी स्फटिक- (२) सवत् १९२६ साखसुदि ३ काष्ठ मर्माणकी ६॥x4
प्रतिमा-नेमनाथकी सप्तधातुकी खड्गासन ||xi ३८ १६७६ वैशाख सुदि २ प्रतिष्ठितं । प्रतिमा सिद्ध (१६) संवत् १७४४ वैसाम्बसुदि १३ सावंतलि प्रण
- मति । प्रतिमा = चौवीस तीर्थरोंकी सप्तधातुकी ४x भगवानको धातुकी १०॥४६॥ ३१ १९८० फागन सुदि २ श्री कुन्दकुन्दाचार्य उपदेशात्
भामा पोशात (१७) पार्श्वनाथकी सप्तधातुकी। ग्वादि कुछ रेवाडी नगरे प्रतिष्ठापितं । प्रतिमा महावीर- नहीं ३।४३ प्रभुकी धातुकी ५४॥
(२८) श्री मूलसंघ श्रावक जाधू पादिनाथ प्रष्ठितं ४. १९८१ फागन सुदि १ नवानगरे कुन्दकुन्दान्नाये चिन्ह संवत् कुछ नहीं, प्रतिमा सप्तधातुकी २x२॥
प्रतिष्ठापितं प्रतिमा-शांतिनाथकी चांदी- (२) लेम्ब संवत् कुछ महीं। प्रतिमा-पार्श्वनाथकी की ६x ma
सप्तधातुकी ॥४२॥ (४१) वि.सं. १९८४ माघसुदि १२ गुरुवार श्री- (६०) " " " x 2 मूलसंधे तदाम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्द
(७७१६३१८७६७७६८०) कुन्दाचार्यान्वये श्री दि. जैन गुरु उपदेशात् फतेहपुर नगरे (६१) चौमुखी प्रतिमा सप्तधातुकी ३॥x m जिनविव प्रतिष्ठापितं । (सुखानन्द)
(१२) पारवनायकी प्रतिमा सप्तधातुकी २॥xm
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४०८]
भनेकान्त
[किरण १२
(३) लेख चिन्ह वगैरह कुछ नहीं। प्रतिमा सप्तभातुकी mxn
(४)संवत् मिती लेख इस मुजबहै:-शांतिनाथ विरा फो.न.पा. रा श्री। मृततमैई प्रतिमा पार्श्वनाभकी सप्तधातुकी २॥४२॥ लेख अशुद्ध है।
(६५) मूल संघ । लेख संवतादि कुछ नहीं । प्रतिमा पारनाकी सप्तधातुकी nxn
(६६-६७) "२ छोटी सप्त धातुकी xmx॥ (८) चरण पादुका सप्त धातुकी २४॥
(1) लेख वगैरह सब घिस गये। प्रतिमा श्वेतपाषाणकी ॥४॥
(..) चौमुखी काले पाषाणकी लेख चिन्ह वगैरह कुछ नहीं Ex
६२ सप्तधातुकी
चाँदीकी
श्वेत पाषाणकी
काले पषाणकी पीलेपाषाणाकी स्फटिकमयिकी
२ पद्मावतीकी
चरणपादुका
समधातुकी
म्नाये भहारक जिनचन्द्रदेवा तद् शिष्य रत्नकीर्ती पं० मीहाख्य तदाम्नाये खडेलवालान्वये भेसा गोत्रे सा. पासू तद्भार्या साध्वी रोहिणी तद पुत्र अडूसा पोल्हण सा• होलाहा तदनन्दना स्तः हालू यहिराज भूर यान मा संज्ञा एतदया पूजयति । ३ दशलक्षणयंत्र- सं० १५७३ फाल्गुन बदि ३ %
मूलसंधे कुन्दकुन्दाचार्यन्वये भ• जिनचंद्रदेवा पत्प भ. श्रीप्रमाचन्द्रदेवा तदाम्नाये खंडेवालान्वये ठाल्या गोत्रे पं. मूना भार्या सामू तत्पुन सेठ होलासि एवोपति राजा होला भा होलाश्री तत् पुत्र कृल्हा पासू तेजपाल स्योपति भा० विगसीरी तद् पुत्र कुता कुल्हा भा. देव तद पुत्र करमाठा सूसीदा सोनपाल जावड़ पोल्ह नित्यं प्रणमति । ४ जलयंत्र-सं० १५७६ मगसर मासे शुक्ल पक्षे १०
शुक्रवारे श्रीमूलसंधे महरीषभसेन गणधरान्वये पुष्कर गच्छे संनगणे भट्टारक श्री गुणभद्रोपदेशात् हुबंड ज्ञातीये साह वदा भार्या रीगाद सुत पं. श्रीचन्द्र सारग जलयात्रा यंत्र प्रतिष्ठाय नित्यं प्रणमति शुभं भवतु । ५ दशलक्षणयंत्र-सं० १६३६ वैशाख यदि = चन्द्रवासरे श्री कहासंघे माथुरगच्छे पुस्करगणे भ. श्री कमलकीर्ती देवा तत्पट्टे भ. श्री शुभचन्द्र देवा तत्प भट्टारक यशः सेन देवा तदाम्नाये पद्मावतीपुरवालान्वये साः वहाँरंगू तत्पुत्र साः दिनकरभादिवो तयो पुत्र त्रयं साहविंशा परिमल दोत्री पुत्र दूगरसी भा. पुन चिः नथमल एतेषां मध्ये सा.दिनकर इदं यंत्र करापितं। ६ दशलक्षणयंत्र-सं. १६८५ माह सुदि ५ गुरूवारे
श्री काष्ठासंघे माथुर गच्छे पुष्कर गणे लोहाचार्याम्नाये भहारक श्री यशःकीर्ती तत्पट्ट भ श्री क्षेमकीती तस्पर्ट भट्टारक श्री त्रिभुवनकीर्ती तत्प भ. सहनकीर्ति शिष्य जयकीर्ति तदाम्नाये पातिसाह श्री सांहजांह खूरम 'दिल्ली गज्ये क्यामखां वंशे फतेहपुरे दिवान अलीखा तत्पुत्र दिवान श्रीदौलतखां राज्ये गर्गगोरा साः सांद तरत्र साः पाल्हा ता पुत्र माला तस्य भार्या जराना पुत्र तेजपाल महारक श्री सहस्त्रकीर्ती उपदेशे साः माला दशनपणी यंत्र प्रतिष्ठापित फतेहपुर मध्ये।
मोटा-जहाँ भासन न लिखा हो वहां पद्मासन सममना।
बीर संवत् २४५४ वि.सं. १९८४ में फतेहपुर में प्रतिष्ठा शिषचन्दरायके पुत्र सूरजमल पहाण्या ने पं० सुन्दरताल बेसवेवालासे कराई थी।
___ ताम्रयन्त्र अभिलेख , सम्यग्दर्शनयन्त्र-सं० १५४३ मगसर वदि १३ गुरु
बार श्री मूलसंघे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भहारक श्रीपद्मनन्दि देवास्प भ०श्रीशुभचन्द्र देवारपट्टे भ.श्री जिनवबदेवा तव भाम्नाये सेतवालान्वये चौधरी बखीराज तत्पुत्र चौधरी पुरजनशाहजुके लूख मामातस्तेसुमध्ये नवग्रामपुर वासतम्य चौधरी सुरजन तत्भार्या सीखवती सती रोतीयो पुत्र भराज, यशोधर एतत्सुमध्ये चौधरी सुरजनने श्री सम्यग्दर्शन यन्त्र करापितं प्रतिहापितं । . सोखहकारवयंत्र-सं. १९५८ बैशाख सुदि। सोमपासरे रोहवं मूबसंघ सरस्वति गच्चे भीडन्दकन्दा
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किरण १२] फतेहपुर- शेखावटी) के जैन मूर्ति लेख
|४०६ • सम्यग्दर्शनयंत्र- सं० १६८५ माहसुदि ५ गुरुवासरे १० रत्नत्रय यंत्र-सं. १९०८ शक १७७३ भावमासे शुक्ल
श्री लोहाचार्याम्नाये माधुरगच्छे पुष्करगणे भ. परे १२ तिथौ रविवासरे श्री काष्ठासंघ माथुरगच्छे यशः कीर्ती तत्प खेमकीर्ती तत्पट्ट त्रिभुवनकीर्ती पुष्करगणे श्री लोहाचार्यान्वये भ. ललितकीर्ती तत्प? तत्पट्ट सहस्रकीर्ती शिष्य जयकी तदाम्नाये पातिशाह भ. श्री राजेन्द्रकीर्ती तन पश्यति अप्रवानान्वये गर्ग श्री साहजाह ( जहां ) खूरम राज्ये क्यामखाँ वंश गोत्रे साह ज्ञानीराम तद् पुत्र महानन्द हंगरसी तत्पुत्र दिवान श्री दौलतखां राज्ये गर्ग गोत्र सा० सांतू तत्पुत्र चिःहरकिशन श्री रत्नत्रय यंत्र करापितं उद्यापितं श्री सा. भैरव तत्पुत्र सा. सोनपाल भार्या गुरुदासी पुत्र फतेहपुर मध्ये लिखी(खि)तं पं० विणतं । केसा. वीभूता. भगता. नेता एतां मध्ये सा० सोनपाल
१ दशलक्षणयंत्र-सं. १६१३ शके १७७८ प्रर्वतमान सम्यग्दर्शन यंत्र प्रतिष्ठा करापितं ।
मासीतम मासे भाद्रपद मासे शुक्सपचे १४ (कांसेका यंत्र )
तिथौ शनिवासरे श्री काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणे ८ ऋषीमंडलयंत्र-सं० १७५५ फाल्गुण सुदि १२ वृह
लोहाचार्याम्नाये भहारक श्रीयशः कीदिवा तत्पभ. स्पतिवारे काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुस्करगणे लोहा
क्षेमकीतदिवा तस्पट्ट भ.त्रिभुवनकीतादेवा तत्पश्री चार्याम्नाये भ. श्रीयशःकी देवा तप भ. खेमकीर्ती
महलकीतदिवा तप श्री महीचंद्र तत्पश्री देवेन्द्रतस्पर्ट भ. त्रिभुवनकीर्ती तत्प? भ० सहस्रकीर्ती तत्
कीतदेिवा तत्पट्ट श्री जगतकीदिवा तत्पश्री ललितशिष्य दीपचन्द तदाम्नाये अग्रोकार (अग्रोतान्वये)५चे
कीर्तदिवा तत्प श्री राजेन्द्रकीदिवा तदाम्नाये अप्रहिसार वास्तव्य साह श्री गिरधरदास तद् भार्या
बाल गर्ग गोत्र साहजी जठमल जी तत्भार्या रूपा ६ तरणी तत्पुत्र वीरभाण तदभार्या भगोतो तत्पुत्राः
तत्पुत्र ज्ञानीराम तत्भार्या हरचंदी तत्पुत्र महानंदप्रथम गुलाबराय द्वितीय पुत्र उत्तमचन्द तद भार्या
राय तत्भार्या द्वय । बृहत् केसरी, लघुवरजी संतोषी तृतीय पुत्र शोभाचन्द तद भार्या अनन्तो
तन्मध्ये केशरी पुत्र रामदयाल तत्भार्या नारायणी तत्पुत्र सुखदेव वीरभाण चतुर्थ पुत्र गुलाबचंद एतेषां तापुत्र मोहनराम इदं वृहत् दशलक्षण यंत्र चिः मध्ये वीरभाण श्री ऋषीमंडल यंत्र करापितं । (यंत्र- रामदयाल दशलक्षणी व्रत उद्यापनार्थे करापितं पं० के किनारे की कोर फूटी हुई है]
रूपराम जी तशिष्य पंजीवनराम जी यंत्र लिखापित
सखावत श्री मैलसिंहजी राज्ये फतेहपुर मध्ये (पोतलके यंत्र )
श्रीरस्तु । ६ दशलक्षण यत्र-संः ८६. शक सं० १७२६ मिती वैशाख सुदी ३ शनिवार श्री काष्ठासंघे माथुरगच्छे
१२ दशमलक्षणयंत्र-सं. १६१४ मासानामासोतममासे
शुक्ल पक्षे पुण्यतिथौ १४ गुरुवारे काष्ठासंघे माथुरपुस्करगणे लोहाचार्यान्वये भट्टारक श्री यशकीर्ती
गच्छे पुष्करगणे श्रीजोहाचार्याम्नाये भहारक श्री तत्प? भ. श्री खेमकीर्ती तत्प? भ. श्रीभुवनकीर्ती तत्प भ० सहस्रकीर्ती तत्प भ. महीचंद तत्प? भ.
जगतकीर्तीदेवा तत्प४ श्री ललितकीर्ती देवा तत्पर्ट देवेन्द्रकीर्ती तस्पट्ट भ• जगरकीर्ती तत्प? भ. ललित
श्री राजेन्द्रकीर्ती देवा तदाम्नाये अग्रवाल गर्गगोत्र कीर्ती तदानाये अनोतकान्वये गर्गगोत्र साहजी
श्रावक संकरवाल तत्पुत्र लखमीचन्द तद्भार्या कस्तूरी जठमलजी तत्भार्या कृषा तत्पुत्र लछमण १ नुदराम
तद् पुत्र मिरजामल दशलक्षण यंत्र करापितं, शिवं २ ज्ञानीराम ३ हरभगत ४ केशरीमन यंत्र जठमल
भूयात् । पुत्र ज्ञानीराम तरपुत्र महानंद इंगरसी सीवलाल तत १३ रत्नत्रय यंत्र--संवत् १६ मासानामासोतम मासे माता हरंचदी श्री वृहत् दशलक्षण यन्त्र' करापितं भद्रपदमासे युक्तपणे पुण्यतिथी ३५ गुरुवारे स्थापितं फतेहपुर मध्ये जती हरजीमन श्रीरस्तु सेखा- काष्ठासंघे माधुरगच्छ पुष्करगये श्री लोहाचार्याबत लक्षमणसिहजी राज्ये श्री कल्याण मस्तु भवतु: म्नाये भधारक जगतकीर्ती देवा तत्पश्रीलखितकीर्ती
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४१०
अनेकान्त
[किरण १२
'देवा तत्पश्री राजेन्द्रकीतदिवा तदाम्नाये अग्रवाल तत्प४ श्री महीचंददेवा तत्प श्री देवेन्द्र कीर्ती
गर्ग गोत्र भावक संकरलाल तत्पुत्र लखमीचन्द तद् तत्प?' जगत कीर्ती तत्पश्री ललितकीर्ती तय भार्या कस्तूरी तव पुत्र मिरजामल तस्य भार्या रामा श्रीराजेन्द्र कीर्ती तदाम्नाय अग्रवाल गर्गगोत्र साहजी श्री रत्नत्रयबत उचापनार्थ ज्ञानावी च्याथै च इदं नुन्दराम जी तत्पुत्र शिवनारायण जी तत्पुत्र दयाचंद यंत्र करापित।
तत् भार्या पार्वती तत्पुत्र धनराज तद भार्या स्योकोरी (तामेका यंत्र)
तत्पुत्र श्रीधर इदं वृहत् दशलक्षण यन्त्र करापितं ५० १४ अनन्तवतयंत्र-सं. ११२. शाके १७८५ रूपरामजी तद शिष्य जयकरनदास तत शिप्य पं. खेम
मासानामासोतम मासे भाद्रपद मास शुभ शुक्ल चन्द यंत्र लिखापितं सेखावत श्री माधोसिंहजी राज्य पचे पुण्य तिथौ १४ शनिवासरे काष्ठासंघे माथुर- मध्ये श्रीरस्तु। गच्छे पुष्करगणे लोहाचार्या म्नाये भट्टारक श्रीराजेन्द्र ११ विनायक यंत्र-लेख कुछ नहीं । कीर्ती तदाम्नाय अप्रवाशान्वये गर्गगोत्रषु पुण्य प्रभावक देवशासा गुरु भक्ति कारक श्रावक विनोदीराम नये दि. जैन मन्दिरकी प्रतिमाओंके लेख । जी तद् भार्या कसूम्भा तत्पुत्र जीवनराम तस्य भार्या १९५७ माघ सुदि । खुर्जा नगरे प्रतिष्ठितं घोटी तत्पुत्र बरदेव तेन अनन्त बत उद्यानाय प्रष्ट
प्रतिमा सिद्ध भगवान की सप्तधातु mxn कर्म पयार्थे इंद मंत्र करापितं पं० रूपराम जी तद् २ .. लेख उपर मुजब । प्रतिमा सिद्ध भगवानकी शिष्य पंजीवनरामेण लिपिकृतं राज्य श्री मेरूसिंह
सप्तधातु की ७४. जी राज्ये फतेहपुर नगरे श्री जिनालयस्थ ।
" " " , " चन्द्रप्रभु की श्वेत(पीतलके यंत्र)
पाषाण की १८॥xe १५ रत्नत्रय यंत्र-सं. १६२. मासाना मासोत्तम मासे .
, फागन सुदि ३ हर्ष प्रामे प्रतिष्ठतं भाद्रपद मासे शुक्ल पक्षे पुण्य तिथौ १४ शनिवारे
प्रतिमा श्वेतपाषाणकी शान्तिनाथ की ११x१. काष्ठा संघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्नाये
५ , लेख उपर मुजव । प्रतिमा चौबीसी पट सप्तधातु श्री राजेन्द्र कीर्ती तमनाये पं जीवनराम जी इदं यंत्र
की .x६ कृतं सुश्रावक पुण्य प्रभावक धर्मज्ञ रामनारायण जी
६ , , , , ,शंभवनाथ की ६॥४॥ तत्पुत्र बालचंद तद्भार्या हरसुखी त पुत्र अनन्तराम तद् भार्या स्योबाई तेभ्यः रत्नत्रय व्रत उद्यापनार्थ इदं
१५६७ फागन सुदि ३ श्री कुन्दकुन्दाचार्या गुरुपदेशात् यंत्र करापितं फतेहपुर नगरे जिन मंदिरं।
राणोली नगरे प्रतिष्ठितं प्रतिमा श्वेत पाषाणकी १६ रत्नत्रय यंत्र-संः ११२१ भादवा सुदि १४ अग्रवाल
२०॥१६॥ गगं गोत्र श्रावक लखमीचन्द तत्पुत्र मोहनलाल ८, प्रतिमा चन्द्रमभुकी स्फटिकमणि की चिः मगर 'रत्नत्रयव्रत उद्यापनार्थ इदं यंत्र करापितं पंजीवनरा ' मेण कृतं फतेहपुर नगरे जिन मंदिरं।
१९६६ माघ सुदि १३ श्री कुन्दकुन्दादि गुरुपदेशात् १७ दशलक्षण यंत्र-संः १६२९ भाद्रपद सुदि १४ अग्रवाल
प्रतिष्टितं सेडमल गोपीराम प्रणामिति फतेहपुर गर्गगोत्रे श्रावक मूलचन्द तत्पुत्र दानमल दशलक्षण
रामचन्दर की मा चढ़ाई प्रतिमा शान्तिनाथ बत उद्यापनार्थ यंत्र करापितं भहारक श्री जगतकीर्ती
श्वेत पाषाणकी १२४१०॥ तत्प महारक श्री बलितकीर्ती तत्प भ. राजेन्द्र
(यह प्रतिष्ठा सेडमल भराम लीला रामगढ़कीर्ती तदम्नाये इदं यंत्र करापितं फतेहपुर नगरे ।
में कराई प्रतिष्ठाचार्य पं. पन्नालाल न्याय१८ दशजण यंत्र-सं. १९२४ शाके १७६ भाद्रपद
दिवाकर) मासे शुक्खा परे । गुरुवासरे काष्ठासंघे माथुरगणे १०१७ बैशाख सुदि २ प्रतिष्ठित प्रतिमा शान्तिनाथ पुष्कर गये लोहाचार्याम्नाये भ. श्री सहलकीर्ती
की सप्तधातु की
६॥४ ॥
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किरण १२]
फतेहपुर (शेखावटी) के बैन मूर्ति-लेख
[४११
गोल
चौकोर
" १९७६ चैशाख सुदि २ प्रतिष्ठितं । प्रतिमा नंयावत प्रादिनाथको सप्तधातुकी ८x. १ वर्द्धमान चक्र
गोख बैशाख सुदि २ प्रतिष्ठितं । प्रतिमा
1. यंत्र प्रादिनाथकी सप्तधातुको १mxe माघ सुदी १२ गुरुवार फतेहपुर नगरे
"नयन्मिनम श्री मूलसंधे नंदिवानाये बला कारगणे १२ सम्यग्ज्ञान सरस्वतीगच्छे श्री कुंद कुंदाचार्यान्वे १३ पुजय श्रीजैन दिगम्बर गुरु उपदेशात् श्रीमान् ४ शांति सेठ शिवचंसी खंडेलवाल वंशोत्पादक
१५ सुरेन्द्र चक्र पाहाब्या गोने तत्पुत्र सुरजमल तत्पुत्र
१६ जिन मात्रिका बसंतलाल जिन प्रतिष्ठा करापितं । प्र.
७॥ चन्द्रप्रभुकी श्वेत पापायकी २१x१६
१. सम्यग्दर्शन यंत्र-१६८५ माइसुदि ५ गुरुवासरे काष्ठालेव उपर मुजब । प्रतिमा पार्श्वनाथकी
संघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्वये भ. श्वेत पाषाशकी १९x१३
यश की सप खेमकीर्ती तस्पट्ट त्रिभुवनलेख उपर मुजब । प्रतिमा महावीर की
कीर्ती तल्प सहस्रकीर्ती शिष्य जयकीर्ती सप्तधातुकी १०४७॥
पातिशाह श्री शाहजहां खुरम राज्वे क्यामखाँ १५ स्फटिकमयिकी धातुकी श्वेत पाषाणकी
वंशे दिवान श्री दौलतखाँ राज्ये फतेहपुर मध्ये
गर्ग गोत्र सां सांतु तरपुत्र माः पाल्दा तत्पुत्र वेदीका लेख
साहमाला भार्या जराना पुत्र तेजपाल श्री बेदी बनवाई स्योचंदराम सुरजमल पंहाउया फतेह
सहस्रकीर्ती उपदेशेन साहमाला सम्यग्दर्शनपुरका दस्कत स्योचंदरायका बाच जन जैश्री जी की मिती
यंत्र करापितं । यंत्र तामेका चौकोर ७४० कातिक सुदी १४ दितवार, सं० १६७५। नये दि० जैन मन्दिरके तामेके यत्रोंके लेख षोडशकारण यंत्र-१६७५ पोह सुदि ३ भौमे श्री गणधर बलय यंत्र गोख
मूलमंध भ. बखितकीर्ती तत्प मंडलाचार्य २ निर्वाण संप्तकर यंत्र
भीरत्नकीर्ती तत्प४ श्राचार्य श्री चन्द्रकीर्ती ३ कल्याण त्रिलोकसार,
उपदेशात् साहु रूपा भार्या पता तयो सुत ४ मात्रिका
01x1
मोदी अस्य भार्या हेभि पुत्र वेनि भार्या मोदनी ५ सम्यग्दर्शन
पुत्र भीवा विहि रामनिधि तिहि मोदी भार्या ६ मोक्षमार्ग
सूवा तत पुत्र कमल भार्या तुलसीपुत्र चतुरभुज ७ सम्यग्चारित्र
प्रणमति । यंत्र तामेका गोख ६॥
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वीरसेवामन्दिरके नैमित्तिक अधिवेशनके सभापति
श्री मिश्रीलालजी कालाका भाषण मुझे परमर्ष है किवीरसेवामन्दिर जैसी साहि- इसीसे प्रेरित हो उन्होंने उसे राष्ट्रधर्म बनाया था। इस त्यिक संस्थाके नैमित्तिक अधिवेशनका कार्य मुझे कारण यहां जैनधर्मका गौरवपूर्ण स्थान रहा है, यह सौंपा गया है। मुख्तार साहबकी तपस्या, साहित्य- कहना सर्वथा युक्तियुक्त है। अनेक राजवंश उसके साधना और वीरसेवा मन्दिरके अब तकके कायेने संचालकही नहीं रहे हैं, किन्तु उन्होंने उसके संरक्षणमें मुझे बाध्य किया कि मैं आपको प्राज्ञाका उल्लंघन अपनी शक्तिको लगाकर अपनी कीर्तिको दिगन्त व्यापी
बनाया है। उनका नाम आज भी इतिहासमें सुरक्षित
है। इस देशमें ही भारतके वे महान योगी आचार्य 'वीर-सेवा-मन्दिरका संक्षित परिचय' नामकी
हुए हैं, उनमें कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामी, स्वामी पुस्तक भाप लोगोंको भेंट स्वरूप देदी गई है उससे
समंतभद्र, पूज्यपाठ, पात्रकेशरी अकलकदेव, विद्यानंद, पापको वीरसेवामंदिर-द्वारा अबतक होने वाले कार्यों
सिहनन्दी, अजितसेन और नेमिचद्र सिद्धांतचक्रवर्ती का परिचय मिल गया होगा और यह भी मालूम हो
आदि प्राचार्यों के नाम खासतौरसे उल्लेखनीय हैं। इस गया होगा कि वीरसेवामन्दिरने जैन संस्कृति, उसके
लोक प्रसिद्ध गोम्मटेश्वर मूर्ति के निर्माता, राजा राश्चमल्ल साहित्य तथा इतिहासकं संरक्षणमें कितना प्रशस्त
तृतीयके प्रधानमन्त्री और सेनापति घीरमार्तड राजा काये किया है, और जैन संस्कृति पर होने वाले आरो
चामुण्डरायके नामसे आप परिचित ही हैं।। पोंका उत्तर देकर उसकी उज्ज्वल गुणगारमाको व्यक्त किया है। इस संस्थाने साहित्यिक और एतिहासिक
भारतीय साहित्यमें जैन माहित्यका महत्वपूर्ण अनुसन्धान द्वारा अनेक प्रन्यों और उनके कर्ता आचा
स्थान है। परन्तु मुझे खेद है कि हमारे पूर्वजोंने अपने योंका केवल पता ही नहीं लगाया है बल्कि उनके
प्रयत्न-द्वारा जिन कृतियाका निमोण किया था और समयादि-निर्णय-द्वारा लझी हई अनेक ऐतिहासिक
जिस निधिको वे हमारे लिए छोड़ गये हैं हम उनका गुत्थियोंको सुलझाया है। यही कारण है कि भाज
अधिकांश भाग संरक्षित नहीं रख सके हैं। जो कुछ विद्वत्समाजको दृष्टिमें यदि किसी सस्थाने ठोस
प्रन्थ राजकीय उपद्रवोंसे किसी तरह बचा सके उन्हें सेमाकार्य किया है तो वह वीरसेवा मन्दिर ही है।
भी पूणतः प्रकाशमें नहीं लासके। आज भी अनेक हमे हर्ष है कि श्रीगोमटेश्वरकी छत्रछायाने श्रवण
महत्वपूर्ण अप्रकाशित ग्रंथ पंथभण्डारोंमें पड़े हुए हैं, बेलगोल जैसे पवित्रस्थान पर नैमित्तिक अधिवेशन
जिनकी एक मात्रही प्रति अवशिष्ट है और जो दूसरे करनेके लिए हम आज यहां एकत्रित हुए हैं।
स्थानोंपर उपलब्ध भी नहीं होते,भण्डारोंमें अपने
जीवनको अन्तिम घड़ियाँ गिन रहे हैं। उन्हें दीमक उपलब्ध साहित्यमें दक्षिण भारतके जैनाचार्योंका खाये जारही है। यदि समाजने उनके प्रकाशनका यह गौरव पूर्ण स्थान रहा है। उन्होंने ग्रंथरचना, घोर सचित प्रबन्ध नहीं किया, तो महत्वपूर्ण ग्रंथ फिर तपश्चयों और कठोर यात्म-साधना-द्वारा आत्मलाभ हमारी आँखोंसे सर्वथा ओमल हो जाएँगे । नवीन करते हुए जैनधर्मके प्रचार-प्रसार एवं संरक्षणमें जो मन्दिरोंका निर्माण किया जा सकता है. नवीन मूर्तियां महत्वपूर्ण योग दिया है वह उनकी महत्वपूर्ण देनहै, भी प्रतिष्ठित की जासकती है. प्रचार द्वारा जैनियोंकी उसे भुलाया नहीं जाकता। यह उन्हींकी तपश्चर्या एवं सख्यामें भी वृद्धि भी की जा सकती हैं, परन्तु ये अपूर्व मात्मसाधनाका बल था जो अनेक राजवंशोंमें जैन- ग्रंथरत्न यदि हमारी थोड़ी सी लापरवाहीसे नष्ट हो धर्मकी केवल बास्था ही नहीं रही किन्तु जैनधमेकी गये तो फिर किसी तरह भी प्राप्त नहीं हो सकते । ममता उनके हृदयोंमें सैकड़ों वर्षों तक उनकी श्रद्धा. तीर्थक्षेत्रोंकी दशा भी अत्यन्त शोचनीय है। को ज्यों का त्यों अडोल बनाये रखने में समर्थ रही है, अनेकतीर्थक्षेत्र तो अभी भी हमारी आखोंसे मोमल
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४१३]
बीर० म. के नैमित्तिक
के सभापति श्री मिश्रीलालजी कालाका भाषण
[किरण १९
अमल करनेसे हम शान्ति
का लाभ लेने में
ज नकी स्वाश आवश्यक
मैं चाहत
हो रहे हैं। यद्यपि तीर्थक्षेत्र-सम्बन्धी छोटी-मोटी अनेक रहा है। इस अशान्तिस छुटकारा दिलाने वाले पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं परन्तु इन तीर्थक्षेत्रां- अहिसा और अपरिग्रहवादके सिद्धान्त हैं, जिनका का ऐतिहासिक परिचय, उनकी स्थापनाका काज और प्रचार आजसे ढाई हजार वर्ष पहले भगवान् महातीर्थक्षेत्र-सम्बन्धी दानपत्र तथा तत्सम्बन्धी प्राव. वीरने किया था। जिनपर अमल करनेसे हम शान्ति: श्यक अनुसन्धान इस विषय में कुछ भी नहीं किया का लाभ लेने में समर्थ हो सकते हैं। भगवान् महागया है, जिसके किये ज नेकी स्वाश आवश्यकता है। वीरने इन्हींका अपने जीवन में आदर्श उपस्थित किया मैं चाहता हूँ कि वीरसेवामन्दिर-द्वारा मुख्तार
द्वारा मुख्तार था। अतः हम सबका कर्तव्य है कि हम भगवान् साहबकी देख-रेखमें इस प्रकारकी महत्वपूर्ण पुस्तक महाबीरकी उस अहिंसाका स्वयं आचण करते हुए तेयार हो जिसमें तीर्थक्षेत्रका प्रामाणिक इतिहास देश विदेशों में उसका प्रचार करनेका प्रयत्न करें। निहित हो।
वीरसेवामन्दिरका अबतकका सेवा-कार्य मुख्तार जैन समाजकी दानशीलता भारतमें प्रख्यात है
साहयके स्वनिर्मित भवन सरसावा जि. सहारनपुर लेकिन उनका दृष्टिकोण नवीन मन्दिरोंका निर्माण
द्वारा होता रहा है। किन्तु अब वीरसेवामन्दिरके तथा बाह्य क्रियाकारको आदिमें रुपया खर्च करनेका
टस्टियोंने यह आवश्यक समझकर उसका प्रधान रहता है। जितना रुपया समाजका अनेक छोटे छोटे
कार्यालय दहली जेसे केन्द्र स्थानपर लानेका यत्न किया कार्यों में खर्च होता है यदि उसका चोथाई भा।
है, जिससे संस्थाके अधिकारी देश-विदेशके लोगोंसे मी साहित्य-निर्माण एव प्रकाशनमें लगाया जाय,
अपना सम्पर्क स्थापित कर सके और वहांकी जनतामें तो जैन समाजका मस्तक सदैवके लिए ऊँचा हो
जैनधर्मके महान् सिद्धान्तोंका प्रचार प्रसार करने में सकता है।
समर्थ हो सकें। जिस अहिंसा तत्त्वकी जैन तीर्थ-करोंने पूर्ण प्रतिष्ठा
इसी आवश्यकताको ध्यान में रखते हुए मेरे परम की है और उसकी बादशताका समुज्ज्वल रूप
मित्र बाबू छोटेलालजी और बाबू नन्दलालजी सरावगी सामने रक्खा है, जैनाचार्योंने जिसके प्रचार एवं
कलकत्ता बालीने व्यालीस हजार रुपये देकर दरियागज प्रसार में अपने जोधनका लगाया है, महात्मा गांधीने
देहली में जमीन खरीद करादी है उस पर एक लाख उसकी केवल मामा से भारतको पराधीनतासे
रुपया स्वच कर बिल्डिंग बनानेकी महती भावश्यकता छुड़ाकर स्वतन्त्र किया है। याद उस अहिंसा तश्वका
है जिसमें संस्था अपनी लायबेरोको व्यवस्थित कर प्रचार सारे संसारमें किया जाय तो उससे ससारकी
उसका ठीक तौरम संचालन कर सके। यह सब अशान्ति दूर हो सकती है जा हमे हर समय अशान्त एवं व्याकुन बना रही है। आज संस्थाकी दूसरी आवश्यकता एक स्वतंत्र प्रेसकी सारा संसार भौतिक अस्त्र-शस्त्रोंकी चकाचौंध है जिसके बिना संस्थाका प्रकाशन-कार्य ठीक ढंगसे भौर उनसे होने वाले अवश्यम्भावी विनाशके परि नहीं हो सकता है। इस कार्यको पूर्ण करनेके लिए एक णामसे शंकित है और अपनी रक्षाके लिए निरन्तर लाख रुपयेकी आवश्यकता है। इसकी पूर्ती होने पर चिन्तित है। अहिंसा ही एक ऐसी शक्ति है जिसका समाजको तथा संस्थाके अधिकारियोंको प्रकाशन जीवनमें आचरण करने पर वह धधकती हुई भौतिक कार्यमें यथेष्ट सुविधा प्राप्त हो सकती है। हथियारोंकी अग्नि शांत हो सकता है,अहिंसाके प्रचार मिलिगका नकशा संस्थाके व्यवस्थापक ला. द्वारा संसार के उस गन्दे वातावरण को बदला जा राजकृष्णजी जैनके पास है। बिल्डिनके हॉल की लागत सकता है जो अशान्ति और बर्बरताका प्रतीक है पचीस हजार रुपया है और बड़े कमरोंकी लागत
और जनता तीसरे महा युद्धसे होने वाली उस भीषण ग्यारह ग्यारह हजार रुपया है तथा शेष छोटे कमरोंकी विभीपिकाके भयसे सर्वथा छूट सकती है। इस समय लागत पांच २ हजार रुपया है कि यह समाजकी विश्वका तमाम बातावरण प्रशान्त और क्षुब्ध हो उपयोगी सस्था है मैं चाहता हूं कि इस पुनीत कार्यमें
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४१४]
अनेकान्त
[किरण १२
समाजके सभी अमीर गरीब भाइयोंका पूर्ण सहयोग मूल्य रखकर उसका प्रचार करते हैं। इमा तरहसे प्राप्त हो । अतएव समी महानुभाव अपनी-अपनी हमें भी चाहिये कि हम भी अपने साहित्यका प्रकाशन शक्ति अनुसार उक्त संस्थाको, अधिक सहायता देकर सुन्दर रूपमें करके लागत मूल्यमे भी कम दाम रक्खें पुण्य और यशके भागी बनें।
जिससे उसका खूब प्रचार हा सके और वह सुमता ___एक-बातकी ओर आपका ध्यान और मी भाक- से सबको मिल सके। र्षित करना चाहता हूं और वह यह है कि जैन समाज मुझे पूर्ण आशा है कि समाज इम उपयोगी में जो प्रन्थोंका प्रकाशन कार्य होता है उसकी कीमत संस्थाको अपनाती हुई अपने कतव्यका पूणे पालन अधिक रक्खी जाती है जिससे उन प्रन्थोंका यथेष्ट करेगी और अपना सहयाग देकर संस्थाको कार्य करने प्रचार नहीं हो पाता। ईसाई लोग वाईबिलका अल्प में और भी समर्थ बनाएगी।
ता०५-३-१६५२
अपभ्रंश भाषाका नेमिनाथ चरित
(सं० परमानन्द जैन शास्त्री)
..तीर्थ यात्रासे वापिस लौटते समय हमें अपभ्रंश टिप्पणउधम्मचरियहोपयडु,तिह विरइउ जिह बुज्मेह जहु । भाषाका एक अप्राप्त प्रन्थ मिला, जिसका नाम 'मिणाह- सक्कयसिलंयविहिणियदिहि, गुफियउ सुहमियरयाणही चरिउ' है जो हाल में एक भट्टारकीय भण्डारसे प्राप्त धम्मोवएस-चूडामणिक्खु,तह माण-पईउ जि माणसिक्खु । हमा है। यह सारा ही अन्य अपभ्रंश भाषामें रचा गया छकम्मुवएस सहु पबंध, किय अट्टसंख सह सच्च संध। है और वह अभी तक अप्रकाशित है। इस ग्रन्थके कर्ता सक्कय पाइयकन्वय घणाई, प्रवराई कियइं रंजिय-जणाई॥" प्राचार्य अमरकीति हैं जिनकी अन्य दो रचनाओंका परि- कविने उक्त सभी ग्रन्थ सं० १२४७ से पहले बनाये चय मैं पाठकोंको पहले करा चुका हूँ।
थे क्योंकि उन्होंने अपना पर कर्मोपदेश वि० सं० १२४७ - अमरकीतिने अपने 'छसम्मोवएस' (षटकर्मोपदेश) के भाद्रपद मासके द्वितीय पक्षकी चतुर्दशी गुरुवारको नामके प्रथमें अपनी कुछ रचनाओंके रचे जानेका उल्लेख एक महीने में बनाकर समाप्त किया था। किया है। जिनमें प्रथम ग्रन्थ उक्त 'णेमिणाहचरिउ' है,
प्रस्तुत 'नेमिनाथचरित'की उक्त प्रति संवत् १११२ की दूसरा 'महाबीर चरिउ' तीसरा 'जसहर चरिउ' चौथा
लिखी हुई है। जिसे भट्टारक पद्मनंदिके शिष्य मदनकीर्ति 'माण पईव' (ध्यान प्रदीप) और पांचा बकम्मोनएस'।
सा। और उनके शिष्य नयनन्दिके लिये हम वंशी श्रेष्ठी इनके अतिरिक्त तीन अन्य संस्कृत भाषाके हैं। 'धर्म चरित- .
रत- श्रणगाई और माणिकके पुत्र जिनदास तथा धनदत्तने टिप्पण', 'सुभाषित रत्ननिधि' और 'धर्मोपदेश चूडामणि'। - इनके सिवाय 'पुरन्दर विधान कथा' भी इन्हींकी रचना है बारह सयह ससत्त-चयालिहिं,विक्कम-संवच्छरहविसालहिं इन सब प्रन्धों में से प्रायः सात प्रन्योंकी रचनाका उल्लेख गणहिं मि भहवयहु पक्खंतरि, गुरुवारम्मिचडाशि वासरि षट्कर्मोपदेशमें पाया जाता है। इनके पालावा और भी इक्के मासें इहु सम्मियड,सई खिहयड मालसु अवहत्यिउ। पतसे काव्य-अन्य लोगोंके मनोरंजनके लिये बनाये थे।
-पटकमोपदेश प्रशस्ति जैसा कि उस प्रन्यके निम्न उद्धरणोंसे स्पष्ट है-
-संवत् ११० भाषाढ़ बदि वर्षे शाका १३७७ 'परमेसर पईणवरस-भरिउ,विरयड णेमिणाहहोचरिउ। प्रवर्तमाने फा. वसंत प्रती पारवानुमास शुक्लपये भरणुविचरिश सम्वत्थ सहिड,पपडल्थु महावीरहोविहिउ। पंचयाँ तिथौ सोम दिने श्री घोषाला से श्री नेमिसुरचरिवीबड चरितजसहर-विवास, पडिया- किउ पपासु। () मई लिखित ।
(शेष अगलं पृष्ठ पर)
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किरण १२1
अपभ्रंश भाषाका नेमिनाथ चरित
[४१५
सुन्दर सुवाच्य अक्षरों में लिखवाई थी। प्रति बहुत कुछ नेमिनाथचरित तीन वर्ष पूर्वकी रचना है जिसे कविने शज जान पहली है। इस प्रन्यका अवश्य उद्वार होना वि.सं. १२४४ में भाद्रपद शुक्खा एकादशीको समाप्त चाहिये अन्यथा इसके विनष्ट हो जाने पर ग्रन्थका फिर किया था । उस समय गोधाने चालुण्यवंशीय उन्हीं दर्शन दुर्लभ हो जायगा।
राजा करह या कृष्णका राज्य था, जिसका उल्लेख षट्इस प्रतिके पत्रोंकी संख्या २० है, ग्रंथ २५ संधि- कर्मोपदेश में भी किया गया है। उस समय गुजरातम योंमें पूरा हुआ है, जिसके जोकोंकी संख्या छह हजार चालुक्य अथवा सोलंकी वंशका राज्य था जिसकी राजपाठसै पचाणवे बतलाई गई है। अन्यमें जैनियोंके धानी अनहिलवादा थी, परन्तु इतिहासमें बंदिगदेव और २२ तीर्थकर भगवान नेमिनाथ का जीवनचरित दिया उनके पुत्र कृष्णनरेन्द्रका कोई समुल्लख मेरे देखने में नहीं
पाया । उस समय अनहिलवादाके सिंहासन पर भीम अमरकीर्ति काष्ठा संघान्तर्गत उत्तर माथुरसंघके
द्वितीयका राज्य शासन था। इनके बाद बाघेल वशकी विद्वान मुनि चन्द्रकीतिके शिष्य थे। षटकर्मोपदेशमें शाखाने अपना राज्य प्रतिष्ठित किया है। इनका राज्य उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा काष्ठ संघके प्रसिद्ध विद्वान
स मान सं० १२३६ से १२६६ तक बतलाया जाता है। सं. प्राचार्य अमितगतिसे बतलाई है। और उसमें ग्रन्थ १२०० से १२३६ तक कुमरपाला, अजयपाल और मूलराज बननेके निमित्तके साथ अपना भी संक्षिप्त परिचय अंकित द्वितीय वहकि शासक रहे हैं। भीम द्वितीयके शासनकिया है। उनकी गुरुपरम्परा क्रमशः इस प्रकार है:
समयसे पूर्व ही चालुक्यवंशकी एक शाखा महीकाठा
प्रदेश में प्रतिष्ठित होगी, जिसकी राजधानी गोधा थी। अमितगनि (संवत् १०१० से १०७०),शान्तिषण, इस सम्बन्धमें और भी अन्वेषण करनेकी आवश्यकता है अमरसन, श्रीपेण, चंद्रकीर्ति (सं. १२९६), जिससे यह पता चल सके कि इस वंशकी प्रतिष्ठा गोध्रामें अमरकीर्ति संवत् १२४४-१२४७
कब हुई, और वह कितने समय तक प्रतिष्ठित रही।
अमरकीर्तिके उपलब्ध प्रन्थोंसे केवल इतना ही ज्ञात यह नगरवंशमें उत्पन्न हुए थे। इनकी माताका नाम 'चर्चिणी' और पिताका नाम 'गुणपाल' था। अमरकीर्तिने
होता है, कि सं० १२४५ से १२४७ तक तो वहाँ मंदिगअपना 'षट्कर्मोपदेश' गुजरातके महीकांठा प्रदेशके गोदा
देवके पुत्र कृष्णनरेन्द्रका राज्य विद्यमान था, परन्तु (गोधा) नगरमें हुई थी जिसके शामक चालुक्यवशी राजा
उससे पूर्व और पश्चात वह कबतक रहा, यह जानना बंदिगदेवके पुत्र कण्ह या कृष्ण थे । ग्रन्थके रचनाकालका
आवश्यक है। उल्लख ऊपर किया जा चुका है षट्कर्मोपदेशसे उक्त x ताहं रज्जिय वट्टतए विक्कम कालिगण,
श्री मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वति गम्छे नंदिसंधे बारहसब चउ भालए सुक्खु । भहारक श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनंदिदेवा सुहिवक्रवमए भवएहो सिय, तस्पट्ट भ. शुभचन्द्र वा तत्प४ भ. जिनचन्द्रदेवा तत्र पक्खे यारसि दिणि तुरित। भट्टारक श्री पद्मनंदिदेव तशिष्य नयणंदिदेवा तस्मै श्री
सकु टिप्पण ए समप्पिउ, सिरिनेमिह चरित। हुपर बंश ज्ञातीयगोत्र खरीयान श्रेष्ठि गजभाई राजे लोदो उत्तर माहुर संघायरिय हो चंदकित्ति नामहो । तयोः पुत्राः श्री खेमे भार्या विरमू तयो पुत्र गागाई या सुहचरियहो वाय पणासिय पर वाक् दहो। मणिकपा तयोः सुत जिनदास धनदसेन श्री नेमिनाथ
-नेमिनाथ चरित प्रशस्ति । परित लिखापितं, श्री नयनंदि मुनये दत्तं ॥ग्रंथान ६८११॥ # Histrory of Gujrat in Bombay -नेमिनाथ चरित लेखक प्रशस्ति
Gageteer Vol.1
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वैशाली की महत्ता
(श्री प्रार. आर. दिवाकर, राज्यपाल बिहार) पिछले दिनों में वैशाली गया था यह एक दशनीय लय तथा एक धर्मशाला बनवाने की योजना बनाई है। स्थान है और इससे प्राचीन मिथलाके ऐश्वर्याशाली दिनों परन्तु वर्तमान समयमें इस भूभागमे ऐसी सामग्रियों का स्मरण हो जाता है।
मिली हैं जिनमे उस स्थान पर बौद्धधर्मके प्रभावके शालीकी दो कारणोंसे महत्ता है । यह जेनांके अधिक प्रमाण हैं। इस स्थानके पास पास रहने वालोंमें चौबीसवें तीर स्वामी महावीरका जन्म स्थान है तथा
से हम शायद ही किसी ऐमा क्तिको पाये जो जैनधर्म
हमश: बुद्धने भी इस स्थानका भ्रमण किया था। यह वह पवित्र से कुछ भी महानुभूति रखता हो। यहीं अधिकतर मुसलस्थान है जहाँसे संमारको अहिमाका संदेश मिला। जैन
मान एवं हिन्दु रहते हैं। सन् १९४५ में वैशाली संघकी धर्मके मतालम्बियांने पहले पहल अहिंसाके सिद्धान्तको
स्थापना तथा वैशाली समारोह मनाने की प्रथा चलानेके अपनाया और इस बातकी घोषणाकी कि'हिसा परमो धर्मः ।
बाद यहां की जनता प्राचीन बौद्धों तथा जैनधर्मके बारे पर तथा उनके शिष्यांने अहिंसाके सिद्धान्ताका बाहरी देशाम में अत्यधिक उत्सक होने लगी है। भीरचार किया। वैशालीम ही लिच्छवियों तथा बिजिजनोंके
जब मैं वहाँ गया तो करीब ३-४ हजारकी भीड़ जनतन्त्र थे, जो हमारे देशके प्रथम गणतन्त्र थे।
एकत्रित थी। वहाँकी जनताने ग्राम्य-गीतों तथा नृत्यको हम मुजफ्फरपुरसे वैशाली गए । हमें २० मील तक
दिवाकर हमारा स्वागत किया। एक नृत्य अत्यन्त ही मासे जानेके बाद करीब ३ मील नकका कच्चा रास्ता आकर्षक रहा। इसमे एक किपानके वास्तविक जीवनका तप करना पड़ा था। यहीं पर बैशाली स्थान है इसीके पास।
दीपाशाली स्थान है इसीके पास चित्रण किया गया था। चकदास, कोण्हुमा, वामकुण्ड तथा अन्य गांव स्थित हैं। इस क्षेत्रका प्रमुग्व स्थान जो विशेष रूपमं महत्व
यहाँ की जमीन कुछ भूरे रंगकी तथा कुछ बलुघट पूर्ण है, वासर ग्राम है। यहाँ एक मिट्टीका टीला है जो है। गर्मी के दिनों में यहाँकी हालत अत्यन्त खराब हो करीब ८ फुट ऊँचा है तथा उमका घेरा करीब एक मीलमें जाती है किन्तु अन्य वस्तुभा में फसल निकलने एवं कमलके है। इस क्षेत्रकी जनता 'गजाविशालका गढ़' कहती है। फुखोंके खिलने पर वातावरण अत्यन्त ही मनहरण हो यही वैशालीका प्रमुख स्थान कहा जाता है । बताया जाता जाता है। इस भूभागमें कुछ तालाब एव छोटी छोटी है कि यह स्थान प्राचीन काल में अत्यन्त ही समृद्ध एवं नहरे भी है। यत्र-तत्र कतिपय टीले भी हैं जो करीब २५ गौरवशाली था। इस संपूर्ण टीलेपर ईंटके टुकड़े पड़े हुए हैं। फुट ऊँचे है। वहीं स्तूप तथा चत्य हैं जो इस समय नष्ठ पुरातत्ववेत्ताको वहां ईटकी दोवाल, पकाई गई मिट्टीकी भ्रष्ट दिखाई पड़ते हैं। ये अधिकांश रूपमें मिट्टी तथा मूर्तियां (टेराकोटा वर्तनके टुकड़े एवं अनेक मोहर(सरकारी इंटोंसे बने हैं। फाहियान तथा हेनसांगने अपने यात्रा एवं गैर सरकारी) प्राप्त हुई हैं। उन दिनों मोहरांका वर्णनोंमें इस बातका जिक्र किया है कि वैशालीके पास- प्रयोग बैंक तथा अन्य संस्थाओं द्वारा किया जाता था। पास कई प्राचीन स्तूप है।
वैशाली संघने पर्यटकांकी सुविधाके लिये एक अतिविद्वानोंने खोज करके इस बातका पता लगाया है कि थि-गृह भी तैयार किया है । संघने एक वहीं संग्रहालयका इस वैशाली शेग्रमें बास कुण्ड नामक एक स्थान है। यहीं निर्माण कर एक बड़ी कमीका पूरा किया है। पर्यटकांके भगवान महावीर स्वामीका जन्म हुभा था। महावीर लिए उस स्थानकी विशेषता जाननेके लिये विवरण पत्रिका कहलानेके पूर्व वे शाल्य अथवा वैशालिकाके नामसे भी तय्यार की हुई है। पुकारे जाते थे। संसार छोडनेके एक वर्ष पूर्व तक आप वैशालोमें अन्य प्रमुख चीज है जो अशोकके समय. वैशाली में ही थे। हाल ही में वहां पद्मप्रभू की एक की याद दिलाती है। वह है कोल्हुवाका एक स्तूप जिसजनप्रतिमा प्राप्त हुई है। जैनधर्मके तीर्थंकरोमेसे एक थे। के ऊपर सिंहकी प्रतिमा है। इसीके पास एक १५ फुट
वहाँ जैन धर्मावलम्बिया ने एक मन्दिर एक पुस्तका- ऊँचा एक और स्तूप है। रतूपका घेरा १२ फुट तथा
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किरण १२1 वैशालीकी महत्ता
[४७ ऊँचाई में २२ फुट है। इससे मालूम होता है कि अशोक महावीर स्वामीके पूर्व जैन धर्म के २३ तीर्थकर थे उनमेंस को २२ वर्षकी श्रवस्थामें अनेक परिवर्तनाका सामना करना २० पारसनाथकी पहाड़ियों में समाधिस्थ कर दिए गए। पड़ा था। यह चुनारके पास पाये जाने वाले पत्थरका बना जैन धर्मवालोंने अनुशास का एक नया नियम चलाया है और इसमें सुन्दर पालिश भी किया गया है। यत्र-तत्र था। जिसे उनके अनुसार अहिंसा कहते हैं। अनशन, यह स्तूप टूट भी गया है।
श्रारमनियंत्रण तथा तपस्या ही उसके लिये प्रर्याप्त नहीं है। इस स्तूपके सम्बन्धमें यह प्रचलिन कहानी बहुत वे उन जीवधारियोंको भी किसी प्रकारका नुकसान नहीं
को भी किसी TAITRI am अंशाम ठीक ही मालूम होती है कि यह बनारसमें तैयार
जिवे देख नहीं सकते थे। र्यालये किया गया था और टुकडामें करके गंगा, गंडक तथा नेवली
नवला वेसर्वदा पानी छानकर पीने, जमीन साफ़ करते तथा सूर्य
मटा पानी नालाकं रास्तेसं यहाँ लाया गया । यहाँ नालेके स्पष्ट चिह्न
इबने के बाद भोजन श्रादि नहीं करते थे। उनका सबसे दिखायी पड़ते हैं। इस स्तूपको देखकर हमें इस बातका बड़ा त्याग पर्योपवेक्षण था, जिसमें एक व्यक्ति अनशन अनुमान भी नहीं होता कि उस समय के शिल्पकार अपनी
करकेही अपने शरीरका त्याग कर देनाई। इस प्रकारके शिल्पकलामें कितने प्रवीण एवं दक्ष होंगे।
सिद्धांत अपनी समस्त कमजोरियांके बावजूद भी उस ऐतिअशोकने पाटलिपुत्रमे कपिलवस्तु तथा नेपालम
हाम्पिक युगमें प्रचलित थे जबकि महावीर वैशाली में ही थे। लुम्बिनीके मार्गपर इस सिंह-स्तम्भको बनवाया था ।
यह मिद्धान अाज भी अपने उसी रूपमे जीवित हैं. जिम इसे उसने अपने शासनकालके २१३ वर्षमें बनाया था।
महावीरक करीब इंढ लाख (2) अनुयायी मानते हैं। बासरम एक पुराने स्तूप पर एक दरगाह हजा इसे सभी लोग जानते हैं कि बुद्धको वैशालीके प्रति जमीनक धरातलमे २३ फुट ऊंचा है। यह 'मिरांजीके प्रेस था और उनकी जनतामें श्रद्धा थी। वे तीन बार उम दरगाह के नाम प्रसिद्ध है परन्तु वास्तव में यह एक पीर-
जियो और जो का दरगाह है जिसका नाम शेम्व मुहम्मद काजी था।
ध्यतीत भी किया यहीं पर उन्होंने इस बातकी घोषणाकी,कि यहाँ के दो अथवा तीन विभिन्न मंदिरोम कई हिंदुओ
मेरे निर्वाण प्राप्त करनेके दिन निकट था चुके हैं। वैशाली की मूर्तियां प्राप्त हुई है। यह अशोकके बारके समयकी
की जनताने जब उनसे याददाश्तके रूपमें कोई चीज मांगी हैं। इनमेंसे अधिकांश पन्थर तथा कुछ कोपेकी हैं। इन्हें
थी तो उन्होंने जनताको यही भिक्षा पात्र दिया था । प्रमुख गम, मीता, लक्मण, परशुराम, मूर्य हर गौरी, कातिकेय वश्या धर्मपरिवर्तनकी कहानी भी वैशालीसे ही सम्बन्धित नथा अन्य हिन्दू देवताओं के नामसे पुकार जा सकते हैं।
है । महान्मा गौतम बुद्धको मृत्युक मी वर्ष बाद वैशालीम परन्तु इनमम एक, जो काफी महत्वपूर्ण है. गोमुखीमहादेव
बौद्धोका द्वितीय सम्मेलन हुआ था। इसके दो सौ वर्षक की है एसी मृति केवल नेपालमै पशुपतिनाथ में है। इस
पश्चात् अशोक पाता है। प्रेम एवं अहिंसा मिन्द्वातके प्रचार नांत्रिक प्रतिमा भी कहते हैं।
में उसने भी काफी महत्वपूर्ण कार्य किया। कोल्हयाका इम वैशाली में पायी सामग्रियों में यह कुछ
अशोकस्तम्भ उस स्थानकी महत्ताका यांनक है। अन्यन्त महत्वपूर्ण है। इन चीजोम हम उस समयकी अशा
- अहिंसाका इतिहास अभी पूर्णस्पर्म नहीं लिखा गया जनताका कुछ परिचय भी मिलना है जिन्होंने अहिंसा
है। ईमाईधर्म हिन्दधर्म तथा मंमारकं अन्य धर्मों में इसका मिद्धांतका व्यापक प्रचार करनेमें भाग लिया था।
नाम अनेक रूपाम पाया है। गांधीजीके द्वारा यह मन्या. __अहिंसा अथवा प्रेमका एक अन्यन्तही रोचक इतिहास है। ना
ग्रहक रूपमै विकसित हुअा। इमी अम्त्रक महारे उन्होंने इस सिद्धांतके सम्बन्ध महावीर, बुद्ध तथा बादको अशोक
सभी प्रकारकी बुराइयोंका सामना किया, अहिंसाका भविष्य ने जो कार्य किए हैं वे वास्तवमें काफी महत्व है। उपनि
भी उज्ज्व ल है। पद्म भी हम अहिंसाको एक अनुशासनके रूपमें पाते हैं। वैशालीकी यात्रास अहिमाकं इस महान् सन्देश तथा यह उस समय प्राध्यात्मिक जीवनका एक प्रमुख अंग था उसके प्रवर्तक एवं प्रचार करने वाले युगपुरुषोंका हमे जैनधमने ही पहले अहिंसाको सबसे बड़ा धम तथा सबसे स्मरण हो जाता है। आशा है वैशाली भावी पीढ़ीक बडा कर्तव्य घोषित किया। उस समय जैन संन्यासियों- लिए प्रेरणा प्रदान करेगा। को 'निर्ग्रन्थ' कहा जाता था जा बुद्धके समय में भी थे। -अमृतपत्रिका विशेषाद, 1 अप्रैल, १९५३ में।
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मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रक्खें ?
(श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर') श्रीमती शान्तिदेवीजी भीतरके कमरेसे बाहर चौकमें ओह ! क्या बात याद आगई। मेरे एक मित्र थे, भारही थीं कि उनका पैर रास्तेमें रजस्वी बोतलसे टकरा वे एक बार मुझे भी यात्रामें साथ ले गये। जहां गए, वहां गया।
उनके एक यजमान थे। निमंत्रण पा, हम दोनों उनके घर बोतल सरसोके तेलकी थी। तेन बिखर गया, नाखून
भोजन करने गये। अजीब बात कि श्रीमतीजी की दाहिनी में सस्त चोट लगी। मालाकर छेदासे बोली-"अरे, तू अखि बन्द तो श्रीमान् जी की बाई; दोनों काने ! मैं सोचता जहाँ देखता है वहीं चीज़ पटक देता है। यह बोतल रहा कि दो कमियोंका गठ-बन्धन कर, यह एक पूर्णताकी रखनेकी जगह है ? गधा कहीं का!"
रचनाकी गई है या दो पूर्णताएँ रोगके किसी कोआपरेटिव अवसर पारखी खेदाने अपनी बहूजीका पैर मसला, श्रीक्रमणस दा
श्राक्रमणसे दो अपूर्णताओं में बदल गई है? तेल समेटा और गल्ती मानी। मारी शान्तिदेवीजी भोजन बनता रहा, बातें चलती रहीं। बातों-बातों में नसभोला शिवपाई जाने क्या बात हुई कि पति-पत्नी में बात बन गई और वे पर इसके कोई दस-पन्द्रह दिन बाद उसी स्थान पर उसी ।
आपसमें भिड़ गए। लड़ाई बातों-बातोंकी, पर काफी घटनाने एक नया रूप ले लिया।
पैनी। पतिको शायद उसके अहंकारने अचानक कहावेदा भीतरके कमरसे बाहर चौकमें प्रारहा था कि
पत्नीकी यह हिम्मत और हिमाकत कि मेहमानोंक सामने उसका पैर रास्ते में रक्खी बोतलसे टकरा गया। पैरमें चोट '
तुझसे चौंच भिडाए! लगी, तेल बिखर गया, बोतल टूट गई। वह संभलही
वह भभक उठा और तमझकर उसने कहा-"माली !
कानी कहीं की%3; बके जा रही है।" रहा था कि मल्लाकर शान्तिदेवीजीने कहा-"अरे, श्रॉम्ब कोड़कर नहीं चला जाता तुझसे ?"
पत्नीने इस भभक को पिया-पचाया और तब अपनी
अनदेखती आँखको जरा दबाकर, देखती अखिकी कुछ वेदा चन्ट-चतुर ! जानता था कि बोतल आज रास्तेमें
कमानसी उपरको खींचे ठण्डे सुरमें कहा-"पोहो हमने महजीने रक्खी है। इसलिये शोखीसे मुस्कराते, कन अँखि ।
कोई दो आँखका भी ना देखा।" बांसे देखकर वह बोला-"बहुजी! मैं आँख फोड़कर
बस कुछ न पूछिये कि निशाना कहां बैठा। पति चलू या आप रास्ते में बोतल न रक्खें ?"
महाशय घड़ी नहा गए और मुझे हसी रोकना मुश्किल ___ समयकी बात; मैं दोनों दिन वहीं था, इसलिये छेदाके
हो गया, तो मैं वहां से उठ भागा । प्रश्नमें जो मीठा-पना व्यंग था, उसे मैं ले पाया और
प्रापको भी सुन-पढ़कर हंसी आए, तो हँस लीजिए, बहुत जोरसे मेरी हंसी फूट पड़ी। मैंने कहा-"ठीक है,
पर बात तो सोचनेकी यह है कि क्या उन दोनोंकी तरह जब दा रास्तेमें बोतल रक्खे, तब चीजको गलत रखनेका
हम सब भी काने नहीं है और हमारा भी वही हाल नहीं है सिद्धान्त माना जाय और जब वही काम खुद बहूजी कर कि अपनी प्रांखको भूले दूसरेकी आंख पर निशाना लगाए तो आंख फोड़कर चलनेका प्रसूख जागू हो!"
बात हँसीकी थी, हँसीमें घुलमिल गई, पर मैं देखता अच्छा, यह कानापन क्या है ? एक पिताके दो बेटे। हैं कि हमारे जीवन में व्यापक रूपसे यह रोग फैला हुमा खेलमें एक बन गया राम, तो दूसरा रावण; बस होने है कि हम हरेक घटनाको, हरेक प्रश्नको अपनेही रषि- लगी तीरदाजी। तीर मामूली तिल के और धनुष बांसको कोबसे देखें। इसे रोग, मैं कुछ मुहावरेके तौरपर नहीं खपच्चीका, पर तीर आखिर तीर! रावणका तीर रामजी कह रहा हूँ। यह सचमुच एक नैतिक रोग है, जो मनुष्यको की वाई पाखमें घुस गया और प्रांख जाती रही-हो मानसिक रूपसे काना बना देता है। काना; जिसकी एक गए काने । मतलब यह कि चोटसे मा खोटसे। एक आंख माख दुर्भाग्यसे फुट गई!
बैठ गई और हो गए काने !
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किरण १२]
मैं बाँख फोड़ कर चलूँ या भाप योतल न रावें
[४१६
यह हुई बाहरी बात, कानेपनकी भीतरी भाषना क्या एक और मित्र है। घरमें एक लड़का है, एक लड़की! है। एक लोक-कथा है कि मां का काना बेटाहरद्वार गया। लड़केका विवाह हुचा, तो उन्होंने लड़की बालेसे उसी खौटा, तो मां ने पूछा-"हरद्वारमें तुझे सबसे अच्छा क्या तरह रुपया वसूल किया, जैस पुलिस वाले किसी चौरमे लगा रे?" गाँवके भोले बेटेने तबतक कहीं बाज़ार देखा चोरीकी जानकारी उगलवाते हैं। बादमें उन्हें बाई हजार नहीं था । बोला-"मां हरद्वार का बाजार घूमता है।" रुपये मिले, पर उम्मीद थी पांच हजार की। ये शान्त रहे,
मां हरद्वार हो पाई थी। बाज़ार घूमनेकी बात सुनकर पर दूसरे दिन बेटेने फैल भर दिवे कि यह तोवह लड़कोही वह घूम गई और चौंककर उसने पूछा- कैसे घूमता हैरे, नहीं है जो पहले दिखाई थी; भला मैं इसे कैसे स्वीकार हरद्वारका बाज़ार ?
कर सकता हूँ। चार-पांच घण्टेकी रस्साकशीके बाद बाई बेटेने नए सिरेसे पाश्चर्य में डूबकर कहा-'मां, मैं
हजार और मिल गए तो बरकी रूपमें लचमी और गुणमें हरकी पैड़ी नहाने गया, तो बाजार इधर था और नहाकर
सरस्वती हो गई। लौटा, तो इधर हो गया।" दुद पाकर भी मां हंस पड़ी
मिले, तो मैंने कहा-"आपने तो कमाईको भी मान और उसने बेटेको छातीसे लगा लिया ।
कर दिया खून निकालने में !" बिना शरमाये और किसके दूसरे शब्दोंमें कानेका अर्थ है-एकांगी; जो प्रश्नको,
वे बोले-"बिना दवाये ग से रस कहां निकलता है
भाई साहब। सन्यको, इकहरा यानी अधूरा देखता है।
कोई तीन वर्ष बाद उन्होंने अपनी बेटीका ब्याह चलती रेल स्टेशनपर भा ठहरी । भीतर डब्बे में कुछ
रचाया, तो करमकी बान, उन्हें उन जैमाही समधी मिल मुसाफिर जिनमें एकका नाम 'क' और डब्बेके बाहर
गया । ऐसा चूसा कि मन द पड़ गए और ऐसा कसा कि दूसरा मुसाफिर जिसका नाम 'ख'। ख चटखनी खोल
करवट न ले सके। विवाहके बाद एक दिन समाजकी भीतर पाना चाहता है पर 'क' उसे कहता है-"अरे
दुर्दशापर आँसू बहातेमे वे कह रहे थे-"मारे यहाँ भाई, पीछे तमाम गाड़ी बाली पड़ी है, वहां क्यों नहीं चले
लः की वालेको नी कोई प्रादमी ही नहीं समझता। जाते"
कम्बख्त मुझे इस तरह देखता था, जैसे मैं उसके बापका ___'क' एक सुन्दर नौजवान है, ग्वाम उसकी दोनों आंखें
कर्जदार है।" नो बहुतही सुन्दर है पर मानसिक रूपसे वह काना है,
जी में पाया. कह दूं-तीन वर्ष पहले तो आपको क्योंकि मसाफिराकी सुविधाके प्रश्नको यह अधूरे रूपमें गनकी उपमा बहत पमन्द थी भाई साहब! ही देखता है, पर क्या हम 'क' की निन्दा करें और 'ख' बीकानेपनकी बातदेचारेका बाजार म गयाको अपनी महानुभूति दें?
देने में दाएँ तो लेने में बाएँ! यह हो सकता है, पर अगलेही स्टेशन तक; क्योंकि एक और मित्र है, जब मिलते हैं; अपने हकलीत वहां 'ख' डब्बेके दरवाजे ना पड़ता है और उपर चढ़ते बेटेकी शिकायत करते हैं-'कोई बात सुनताही नहीं, सदा मुसाफिरोंको मक-झोरता है-"जब पीछेके डब्बोंमें जगह अपने मनकी करता है। नाकमें दम है पगिडतजी! ऐसी खाली पड़ी है, तो यहां क्यों घुस मारहे हो?" चढ़ने वाले श्रौलादसे तो बेऔलाद भखा!! नहीं मानते, तो कहता है "हमारे देशमें तो भेड़िया धसान एक दिन बेटा मिला तो बोला-"मैं तो उनम है साहब, जहां एक घुसेगा, वहीं सब धुसेंगे।" तब उसकी परेशान हूँ पण्डितजी ! हमेशा रट बगाए रहते हैं यह देशभक्ति उमड़ पाती है-"तभी तो हमारे देशका यह मत करो, वह मत करो। माविर पापही बताइये कि मैं हाल है।"
कोई भेद है कि गड़रियेकी तरह वे मुझे हाँका करें, वरना इसी 'ख' ने पहले स्टेशन पर 'क' के बारेमें मोचा मैं गड्ढे में गिर पगा ।" था-"अरे भाई, रब्बेमें जगह होगी बैंड जाऊँगा, नहीं कोई नई बात नहीं, सिवाय इसके कि दोनों कानं खदा रहूंगा । तुम्हारे सिर पर तो गिरूंगा नहीं, फिर तुम्हें है-बापको बेटेकी जवानी नहीं दीग्वती. तो बेटा पापकी मौतयों प्रारही है। 'क' की तरह'ख' मी काना ही है। बुजुर्गी नहीं देख पाता।
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४२०]
अनेकान्त
Lकिरण १२
जो हाल बाप-बेटेका है वही पति-पत्नीका । एक मित्र वाली कड़वाहटमें बदल जाती है यदि हम सब दूसरे के है। रातमें ग्यारह बजे क्लबसे लौटते हैं तो पत्नी सोई दृष्टिकोणको समझने का प्रयत्न करें, तो बड़े बड़े विवाद यां मिलती है। एक दिन दुखी होकर बोले..."मैं सुबह है ही शान्त हो सकते हैं। दूसरेके दृष्टिकोणको समझनेका बजेसे कोई १४.१५ घण्टे घरसं बाहर रहकर लौटता है तो प्रयत्न एक ऐसी प्रवृत्ति है जो वातावरणको कोमलतासे भर श्रीमतीजी भैंस-सी पलंगपर सवार मिलती हैं।" देती है। यह कोमलना समन्वयके लिये जगह बनानी है
और इस प्रकार बीचको दूरी कम होकर एकताका जन्म एक दिन बातों-बातों में मैंने कहा-"भाभीजी, आपसे
होता है। भाई साहबको एक शिकायत है।" भरीतो बैठी ही थीं,
यदि दृरो इतनी अधिक और मौलिक हो कि एकता बीच में ही बात काटकर बरस पड़ी-"ठीक है आपके
असम्भव रहे नबभी यह दूरी इतनी कम जरूर रह जाती भाई माहबको शिकायत है, पर पूरे १८ घंटे तेलीके बैल की
है कि बीच में एक हल्का मनभेदही रह जाए और मन भेद तरह काममें जुटी रहने के बाद, जरा पलंगमे कमर लगानी
तक बात न बढ़। हूँ तो उनके कलेजे मकौड़े क्यों दौड़ने हैं।"
दूसंग्को हमेशा उसकी आँग्बम देग्विये और सावधान वही बात कि दो काने एक गाँठमें बंध गए और पति
रहिए उस खतरेस जी दूरबीनको उल्टी करके देखने महाशय पत्नीको और पत्नी महोदया पनिको अपनी अपनी
पैदा होता है ! यहीं यह भी कि सत्य वही और उतनाही भाग्यमे घुर रहे हैं।
नहीं है कि जो जितना आप देख पाए । फिर यह भी तो अपरिचित मुसाफिर या परिचित मित्र, मगे सम्बन्धी सम्भव है कि हाथीके स्वरूपका अलग अलग वर्णन करन या पति-पत्नी और पिता-पुत्रसे प्रास्मीय; जब दो भिन्न
वाले वे दोनों आदमी शत प्रतिशत सच्चे होकरभी बस विचारोंके लोग आपसमें बातें करते हैं और एक दूसरेसे लिये अधरे हा कि एकने हाथीको देखा था मूकी सहमत नहीं हो पाते, तो एक दूसरेको बेईमान मान बैठते तरफसे और दसरेने पूछकी तरफ। हैं और इस प्रकार सुलझाने वाली बातचीत, उलझाने
( नया जीवनमे)
अनेकान्तकी फाइलें
'अनेकान्त' जैन समाजका उच्चकोटिका एक ऐतिहासिक और साहित्यिक सचित्र मासिक पत्र है। जो संग्रहणीय एवं पठनीय है। इस पत्रको पिछले ४ वर्षसे ११वें वर्ष तक की कुछ फाइलें अवशिष्ट हैं । प्रचारकी दृष्टिसे जिनका मूल्य लागत मात्र लिया जाता है। जिन्हें आवश्यकता हो वे शीघ्र मंगवालें । अन्यथा फिर नहीं मिलेंगी । पोस्टेन रजिस्टरी पैकिंग आदिका सब खर्च अलग होगा।
मैनेजर 'अनेकान्त' १ दरियागंज, देहली।
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सम्पादकीय
१. अनेकान्तकी वर्षसमाप्ति -
जारी रहा और वे पाठकोको बड़े ही रोचक प्रतीत हुए। इस किरणके साथ अनेकान्तके व वर्षकी समाप्ति
प्राशा थी ऐसे लेग्बामे भनेकान्तकी श्री बराबर बनेगी, हो रही है। यह वर्ष अनेक उलझनों तथा कुछ विकट
परन्नु उनकी अस्वस्थताके कारण बह सिलसिला बन्द समस्यायोंसे पूर्ण रहा है। इमका प्रारम्भ निमोनियाकी
हो गया, जिसका मुझे खेद है ! इसी तरह बाब जयभग
वानजी एडवोकेट पानीपतके गवेषणपूर्ण लेग्वांका जो सिलबीमारीसे उठकर मैंने कर्तव्यके अनुरोधवश अपनी निर्बल अवस्था में ही किया था; फिरभी अनेक माजनांके सहयोगी
पिला पहली किरणमे चला था वह भी उनकी अस्वस्थताक पहली किरण विशेषा के रूपमे ऐमी यन आई थी कि
कारण बराबर जारी नहीं रह सका-६ठी किरणके बादमे जिमे सभीने पसन्द किया था और पूज्य वर्णी श्रीगणेश
नो वह बन्द ही पड़ा है। मुझे ऐसे ममाचार मिलते रहे प्रमादजीने तो उमपर अपना हर्ष व्यक्त करते हुए यहां तक
है कि उन्होंने जैसे तैसे दो-एक लेख और भी लिम्व है, लिखा था कि-"पत्रकी प्रशंसा क्या करूँ पत्रको पढकर
जां उनकी बीमारीके कारण अभी कुछ अधरे हैं। यह सब जो ग्रानन्द अाया-इस समय यदि मेरे स्थानपर कोई
समाजका दुर्भाग्य है, जो कुछ निःस्वार्थ भावगं ठोस सद्गृहस्थ होता नब पत्रको अजर-अमर कर देता । मै तो
माहित्य मेवा करना चाहते है उनके पीछे बीमारियों पड़ी भिक्षुक है-यही मेरा आशीर्वाद है जो आप अजर-अमर
हुई हैं। हार्दिक भावना है कि ऐसे महानुभाव शीघ्र ही हो जावें ।' वर्णाजीने ये उद्गार अपने जिस पत्रमें प्रकट
स्वास्थ्य लाभकर अपनी माहिन्य-मेवा-विषयक मनोकामकिये थे उसे अनेकान्तकी दूसरी किरणने ही प्रकाशित कर
नाांको पूरा करने में समर्थ होवे। दिया गया था। परन्तु अभीतक वनीको मनोभावना- अनेकान्तको यह किरण फरवरीके महीनेमे प्रकाशित वाला कोई सद्गृहस्थ सामने नहीं पाया जो अपने याधिक हो जानी चाहिये थी, परन्तु जनवरी में वीरसेवामन्दिरके महयोग श्रादिके द्वारा पत्रका अजर अमर कर देना। प्रचारादिकी दृष्टिमे श्रीबाहुबलीजीको यात्राकं लिये एक उल्टा, इस वर्ष भी प्रचार प्रादिके अभावम पत्रको ग्राहका संघ निकालने और श्रवणबेलगोलमें संस्थाका नैमित्तिक का रोटा ही रहा है। इस वर्षक आय व्ययका हिमाय अधिवेशन करनेका कुछ ऐसा आयोजन हुआ कि जिसके अगली किरणमें प्रकाशित किया जायगा और उसमे पाठका कारण मुझ और पं. परमानन्दजी (प्रकाशक) को भी दो को वस्तुस्थिनिका ठीक पता चल जायगा।
महीने के लिये मफरमे जाना आवश्यक हश्रा । पीछे अपने दूसरी किरणको तय्यार कराते ही मेरे माथ जी भयंकर माफम ऐसा काई नही था जो किरणका निकाल सके नांगा दुर्घटना घटित हुई वह सर्वविदित है, उपने प्राणाको तदनुसार ही हम किरण को अप्रैल माममे निकालने की ही मंशयमें डाल दिया था और मुझे बलात् पाठकाका मुचना पिछली किरण (11) में दे दी गई थी और इममंबास बंचित कर दिया था। धर्मक प्रतापमं कोई नीन लिय यह किरण दो महीनेक पर विलम्ब मईक प्रथम महीने बाद मैं जैसे तैसे पाठकोकी संवा पुनः उपस्थित मप्ताहमे प्रकाशित हो रही है। हो सका था। अनेक उपचारोंके होते हुए भी शरीरको जो इन यब परिस्थितियांक रहने हुए भी अनेकान्तक हति उक्त दुर्घटनामे पहुंची उसकी पूरी प्रति अभी तक भी पाठकोंका मैटरको दृष्टिम तनिक भी टोटेने नहीं रहने दिया नहीं हो पाई है और इसीम मैं पत्रक सम्पादन-कार्यमे गया है-उन्हें निर्धारित मंग्याम अधिक पृष्ट ही पदनका पूरा यांग नहीं दे सका।
दिय गय है और वे भी प्राय. बारबार पढ़ने योग्य अग्छ इस वर्षके प्रारम्भमे ही बाब छोटेलालजी कलकत्ताक डोम माहिन्यके । फिर भी अपनी कमजोरी और परिस्थिमहत्वपूर्ण सचित्र लेख मिलने शुरू हुए थे और उनसे यह तियाक वश मेवामें जो कुछ घटियो रह गई हैं उनके लिये आश्वासन भी प्राप्त हुआ था कि वे घराबर अपने जेब में अपने पाठकान समा-प्रार्थी हूं। देते रहेंगे। तीसरी किरण तक उनके लेखांका मिलमिला यहाँ पर मैं उन मजनाका आभार मान विना नहीं
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४२२]
अनेकान्त
किरण १२]
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रहमकता जिन्होंने संरक्षक और सहायक बनकर अपने मित्र, श्रीराजमलजी मवैया, श्री एन. सी. बाकलीवाल
आर्थिक सहयोग-द्वारा अनेकान्तकी जड़ोंको कुछ मजबूत और बा. रतनचन्दजी मुख्तारके नाम खास तौरसे उल्लेकिया है। वर्षके शुरूम । संरक्षक और १० सहायक खनीय है और ये तथा दूसरे सभी लेखक धन्यवादके पान थे वर्ष भरमें कुल दो मंरक्षक और १. सहायक है। बाकी पं. परमानन्दजी तो अपनेही हैं और अनेकान्तके
और बड़े हैं, जिनके शुभ नाम पहली किरण और इस प्रकाशक होनेसे उसके संचालकों में हैं, उन्हें अलगसे धन्यकिरणके अन्तिम टाइटिल पेजों परसे भले प्रकार जाने जा बाद क्या दिया जाय? फिर भी इतना कहना होगा कि सकते हैं। यह संख्या बहुत थोड़ी है-कमसे कम ... उनके लेख काफी है और उन्होंने हिन्दीके अनेक जैन संरक्षक और १०० महायक तो होने ही चाहिये । ऐमा कवियोंका परिचय पाठकोंके सामने रक्खा है । प्राशा है ये होने पर पत्र आर्थिक चिन्तासे बहुत कुछ मुक्त हो जायगा सब लेखक अगले वर्ष और भी अधिक उत्साहके साथ
और उस वक तकनो मरेगा नहीं जब तक वर्णीजीको अनेकान्तको अपना सहयोग प्रदान करनेकी कृपा करेंगे मनोभावना वाला कोई सदगृहस्थ जन्म लेकर अथवा और दूसरे भी कुछ उदारमना अच्छे लेम्बकाका सहयोग भागे प्राकर इसे सब प्रकारमे अजर अमर नहीं कर देगा। उसे प्राप्त होगा समाजमेंसे इतने संरक्षकों और सहायकोंका होना कोई बड़ी बात नहीं है, यदि बाय नन्दलालजी कलकत्तावाला २. पुरस्कारोंकी योजनाका नतीजाकी तरह भनेकान्तम्मे प्रम रखने वाले सज्जन अपने अपने
अनेकान्तकी गत जून-जुलाईकी किरणमें मैंने अपनी नगर-ग्रामों में इसके लिये कुछ पुरुषार्थ करें । ऐसा करके वे
ओरसे पुरस्कारोंकी एक योजना निकाली थी, जिसमें पांच अनेकामतको स्थायित्व प्रदान करने में ही नहीं बक्षिक उसे विषयोंके पांच लेखोंपर ५००)रु. के पुरस्कारोंकी घोषणा समाजका एक आदर्शपत्र बनाने में भी सहायक हो सकेगे। की गई थी और लेखोंको भेजनेके लिये ३१ दिसम्बर तक उनके इस कृत्यस संचालकोंको बहुत प्रोत्साहन मिलेगा
की अवधि रक्खी गई थी। माथ ही यह निवेदन किया और वे भी फिर कोई बात उठा नहीं रकाबगे । आशा है या जो मन
ही मितिमें न ऐसे उद्योगी पुरुष शीघ्र ही आगे आएंगे और संरक्षका अथवा उसे लेना नहीं चाहेंगे उनके प्रति दृसंर प्रकारम तथा महायकों की संग्याम काकी वृद्धि कराने में समर्थ सम्मान व्यक्त किया जायेगा। उन्हें अपने इष्ट एवं अधिहोगे। जो प्रेमी पाठक कोई संरक्षक या सहायक न बना कृत विषयपर लोकहितकी दृष्टिले लेख लिम्बनेका प्रयत्न
के सम्हें कमसे कम ५-७ ग्राहक तो जरूरही बना जार करना चाहिये ।" इसके सिवा उस कि देखे चाहिये।
'सम्पादकीय' में पुरस्कार-योजनाकी अपनी दृष्टिको भी अन्तमें में उन महानुभावों को भी नहीं भुला मकता स्पष्ट कर दिया गया था, जिसका संक्षेप इतना ही था कि जिन्होंने अपने मूल्यवान लेग्व भेजकर 'अनेकान्त' की 'विद्वानोंको अवकाशके समयमें काम मिले, उनकी प्रतिभाको श्रीवृद्धि की है और जिनके सहयोग बिना अनेकान्त अपने चमकनेका अवसर प्राप्त हो और वे समाज तथा देशहितके पाठकोंकी उतनी सेवा नहीं कर सकता था जितनी कि वह लिये आवश्यक ठोस साहित्यका निर्माण कर यशस्वी बन कर सका है। उन महानुभावामे बाब छोटेलालजी और सकें, तथा वीरसेवामन्दिरसे पुरस्कारोंकी परम्परा मेरे बा. जपभगवानजीके अलावा पं• कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, जीवनमें ही चालू हो जाय। परन्तु खंद है कि समाजके प्रो. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, प्रो. देवेन्द्रकुमारजी विद्वानोंका इस उपयोगी योजनाकी ओर कोई खास ध्यान एम.ए., श्री दशरथशर्माजी एम.ए.डी.लिट्, म. भगवान- नहीं गया! इसीसे किसी भी विद्वानने एक भी विषयपर दीनजी, श्रीरिषभदासजी राका, बाबू अनन्तप्रसादजी बी. लेख भेजनेकी कृपा नहीं की-सिर्फ एक बाल ब्रह्मचारिणी एससी., श्रीजमनालालजी साहित्यरत्न, बाबू उग्रसेनजी विदुषी स्त्री श्रीविद्य लता शाहने, जो न्यायतीर्थ होनेके एम. ए. वकील, पं. दरबारीलालजी न्यायाचार्य, डा. साथ साथ बी. ए. बी. टी. भी है और शोलापुरके श्रावहीरालालजी जैन एम. ए., श्रीनगरचन्दजी नाहटा, काश्रममें शिक्षा प्राप्त करके उसीमें प्रधान अध्यापिकाके बार दुलीचन्दजी जैन एम. एससी., श्रीदौलतरामजी पद पर नियुक्त है, एक विषयपर अपना उत्साह प्रदर्शित
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किया जायगा।
किरण १२] सम्पादकीय
[ ४२३ किया है, अर्थात् 'श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलना- यहां उनका सहस्रांश भी नहीं । इसका मूल कारण समाजस्मक अध्ययन' नामक लेख लिखकर समयके भीतर भेजा में साहित्यिक सद्चिका प्रभाव है और उसीका यह फल है। लेख अछा परिश्रमपूर्वक लिखा गया है, अनेक चित्रों- है जो आज हजारों अन्य शास्त्रभंडारोंकी कालकोठरियोंमें से भी उसे अलंकृत किया गया है और मुकाबलेके लिये पड़े हुए अपने जीवनके दिन गिन रहे हैं-कोई उनका दूसरा कोई लेख अपने सामने नहीं पाया। अतः उक्त उदार करने वाला नहीं। यदि भाग्यस किसी मान्यका विदुषी बाईको पुरस्कारकी अधिकारिणी ठहराया गया है। उद्धार होता भी हैतो वह वर्षों तक प्रकाशकोंके घर पर मैं इस बाईसे अभी यात्राके अवसरपर श्रवणबेलगोल पड़ा-पड़ा अपने पाठकोंका मुंह जोहता रहता है-उसकी तथा शोलापुरमें मिला है, मुझे वह अच्छी सुशील तथा जल्दी खरीदनेवाले नहीं; और इस बीच में कितनी ही होनहार जान पड़ती है। उसे ऊँचे दर्जेके अध्ययनके लिये ग्रन्थप्रतियोंकी जीवन-लीलाको दीमक तथा चूहे आदि प्रोत्साहन एवं सस्समागम मिलना चाहिये । लेखिका बाई- समाप्त कर देते हैं। इसी तरह समयकी पुकार और की यह शिकायत थी कि उसे प्रकृत विषयके गहरे अध्ययन आवश्यकताके अनुसार नत्रमाहित्यके निर्माणमें भी जैनसमाज और उस पर लेख लिम्बनेके लिये काफी समय नहीं मिल बहुत पीछे है। उसे पता ही नहीं कि समयकी आवश्यकतामका, अतः लेख पुनदृष्टि डालनेके लिये कुछ सूचनाओंके के अनुसार नव-महित्यके निर्मापकी कितनी अधिक जरूरन साथ उक्त बाईको दे दिया गया है संशोधित होकर है-समयपर नदीके जलको नये घमें भरनेसे वह कितना वापिस पाजाने पर उसे प्रकाशित किया जायगा। अधिक ग्राह्य तथा रुचिकर हो जाता है। किसी भी देश शेष पुरस्कारोंके सम्बन्ध अब मै यह चाहता हूँ कि
तथा समाजका उत्थान उसके अपने साहित्यके उत्थानपर यदि कमसे कम दो या तीन विद्वान उनमें से किसीभी विषय निर्भर है। जो समाज अपने मस्साहित्यका उद्धार तथा पर लेख लिम्बनेकी अपनी प्रामादगी जाहिर करें तो उम प्रचार नहीं कर पाता और न स्फूर्तिदायक नवसाहित्यके विषयके पुरस्कारकी पुनरावृत्ति करदी जाय, अर्थात् उसके निर्माणमे ही समर्थ होता है वह मृतकके समान है और लिये यथोचित समय निर्धारित करके फिरसं उस पुरस्कारकी उसे प्राजके विश्वकी रष्टिमें जीनेका कोई अधिकार नहीं घोषणा पत्रों में निकाल दी जाय। इसके लिये में लेख है। ऐसी हालतमे ममाजका कालके किसी बड़े प्रहारसं लिस्बनेको उत्सक विद्वानों तथा विदषियोंके पत्रांकी १५ पहले ही जाग जाना चाहिए और अपने में साहित्यिक जून तक प्रतीक्षा करूंगा और उस वक्त तक जिस विषयक मदचिको जगाने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये। इसके भी घोषणायोग्य पत्र प्राप्त होंगे उस विषयके पुरस्कारकी लिये शीघ्र ही संहित होकर निम्न कार्योंका किया जाना फिरसे घोषणा करदी जायगी; अन्यथा वादको नये पुरस्कारी अत्यावश्यक हैकी योजना की जाएगी। जिन चार विषयांपर लेख लिखे
जन चार विषयापर लेख लिख () अपना एक ऐसा बड़ा प्रन्यसंग्रहालय देहलीजाने अभी बाकी हैं उनके नाम निम्न प्रकार हैं और जोर
र है और जैसे केन्द्र स्थानमें स्थापित किया जाय, जिसमें उपलब्ध उनका विशेष परिचय अनेकान्तकी उक्त किरण (नं. ४-२) सभी जैन ग्रन्योकी एक एक प्रति अवश्य ही संगृहीत रहे से जाना जा सकता है:-1 समस्थसारकी १५ वीं गाथा।
गाथा।
और अनसन
और अनुसन्धानादि कार्योंके लिये उपयुकदमरे प्रन्योंका २ अनेकान्तको अपनाए बिना किसीकी भी गति नहीं। मीना ३ शुद्धि-तस्व-मीमांसा । ४ विश्व शांतिका अमोघ उपाय ।।
(२) महत्वके प्राचीन जैन प्रन्योंको शीघ्र ही मूलरूपमें ३. समाजमें साहित्यिक सद् चिका प्रभाव- प्रकाशित किया जाय, लागतसे भी कम मूल्यमें बेचा जाय
जैन समाजमें पूजा-प्रतिष्ठानों, मेले-ठेलों, मन्दिर. और ऐसा आयोजन किया जाय जिमसे बड़े बड़े नगरी मूतियोंके निर्माण, मन्दिरोंकी सजावट और तीर्थयात्रा तथा शहरोंकी लायरियों और जैनमन्दिरीम उनका
आदि जैसे कार्यो में जैसा भाव और उत्साह देखने में आता एक एक सेट अवश्य पहुँच जाय । है वैसा सत्साहित्यफे उद्धार और नव निर्माण जैसे कार्यों में (३) उपयोगी ग्रंथोंका हिन्दी, अंग्रेजी भादि देशीवह नहीं पाया जाता। वहां करोड़ों रुपये खर्च होते हैं तो विदेशी भाषाओं में अच्छा अनुवाद करा कर उन्हें मस्त
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४२४ ।
[किरण १२ मूल्य बराव प्रचारम खाया जाप चार अनंक मावनी- नहीं कि वे वैमा करनेके अधिकारी भीवा किमही द्वारा बांकावयम उनके परमेकी कचि पैदा की जाय। तथा अपनी उस टीकामं काई नखनीय बास विशेषता
(७) सधे हुए प्राव विद्वानों द्वारा अथवा अई पारम्बी ला मकं हैं या कि नहीं और उनके बुदके अपर समयसारविद्वानोंकी देख-रेन्बम ऐम नये माहित्यका निर्माण कराया का कितना असर है।
____हालमें मी दो एक टीकायाको दखनेका मुम जाय जी जैन माहिन्यक प्रति लोकचिका जागून कर,
आवमा मिला है। परन्तु उनमें कुछ वाक्योको इधर-उधरस विद्वानांकी उपपसिषु (ममाधानाप्टि) को बोले, उता
ज्योका न्यो उठाकर या कुछ नार-मराधकर रख देने और रताका वातावरण उत्पन्न कर चार बोकमें कबी हुई
पि पंषण तथा यों ही बढा चढाकर कहनके सिवा कोई नत्यानि-विषयक भूल-भान्नियाको दूर करने में समर्थ हो ।
बाम मान प्रायः दम्बनको नहीं मिली। मन गाथानांक एमं माहित्यका मवत्र सुखभ करके और भी अधिककनाक
पद-वाक्योकी गहराई में स्थित अर्थको स्पष्ट करने अथवा माथ प्रचारमं लाया जाय । ऐमा साहित्य निर्माण कराने के
उनके गुप्त रहग्यको विवंचन-द्वारा प्रकट करनेकी उनमें लिये कुन म पुरस्कारांकी भी योजना करनी होगी,
कोई खाम चेष्टा नहीं पाई गई। घुमी नगण्य टीकार्य नभी यथेष्ट मफलता मिल मकेगी।
प्रायः लोकपणा यशवनी होकर लिम्बी जाती है। जो (अनकानको मभीक पहन योग्य जैन समाजका
मज्जन लो.पणा वशवनी नहीं हैं और जिनपर ममयमारएक आदर्शपत्र बनाया जाय और प्रचारकाद्वारा यथा
का धांडा बहुत रंग चढ़ा हुआ है वो पहले अपने माध्य एसा यत्न किया जाय कि कोई भी नगर-प्राम, जहां
अध्ययन अनुभव और मननके बलपर लिखी गई टीकाम एक भी घरजनका हो, उसकी पहचस बाहर नहमक
अपना विशेष कनृख नहीं समझते और आज भी, जबकि वह सबकी मेवाम बराबर पहुंचा करे ।
उम टीकामं संशोधन नथा परिमार्जनादिका काफी अबसर इन सब कार्योक मम्पक होनेपर साहित्यिक काच
मिल चुका है, अनेक मन प्ररणाांक रहते हुए भी उमं प्रबल वेगस जागृत ही डंउंगी और तब समाज महज की
प्रकाशित करनेम हिचकचाते है। माना वे अभी भी अपनी उमतिक पथपर अग्रसर होने लगेगा। मनः पूरी शकि
उस टीकाको टीकापदके योग्य न समझने हो। ऐम सजना लगाकर इन कार्योंकी शीघ्र ही पूरा करना चाहिय-भले
में वर्णीश्री गणेशप्रसादजीका नाम उल्लवनीय है। ही दूसरे कामांकां कुछ समय के लिये गौण करना पड़े।
यद्यपि मैं उनकी इम प्रवृत्तिम पर्णतः महमन नहीं हूँ४.समयमारका अध्ययन और प्रवचन- वअपने प्रवचनां धादिक द्वारा जब इमरीको चपन अनुभवी
माजकल जैन समाजममममाका प्रचार बह रहा का लाभ पहुंचात है तब अपनी उमटीद्वारा उन्हें
जिस देखो वही पनयमारकी म्बा याय करना नया स्थायी लाभ क्यों न पहुंचाए ! फिर भी उनकी उपस्थितिम उमक प्रवचनाका सुनना चाहना है । बाझ रष्ठिम बात जब उनके चले अपनी समयमारी टीकाणे प्रकाशित करन अच्छी है-धुरी नही. परन्तु नंम्बना यह है कि समयमार- उद्यत हो जाएं तब उनका अपनी कृनिक प्रान यह निर्ममन्त्र का अध्ययन कितनी गहराई माथ हो रहा है और उसके उल्लंग्वनीय जन्म हो जाना है। प्रबचनामे क्या कुछ विशेषना रहती है। भावुकतामे बह जाना निःमन्देह ममयसार-जैसा ग्रंथ बहुन गहरे अध्ययन नथा मराको बहा दना और बान है और किमा विषयक तथा मननकी अपेक्षा रखता है और सभी प्राम-विकामठीक मर्मको समममा समझाना इमरी बात है। कितने ही जैसे यष्ट फलको फल मकना है। हर एकका वह विषय विद्वान तो थोदामा अध्ययन करते ही अपनेको प्रवचनका नहीं है। गहरे अध्ययन तथा मननक प्रभाव कोरी भाबुअधिकारी समझने लगन है और लच्छदार भाषणांका कताम बहने वालांकी गति बहुधा 'न इधरके रहे। उधर भारकर बांकका अनुरंजन करनेमे प्रवृत्तही जाते है, जिनमें- रहे बाली कहावतको चरितार्थ करती है अथवा वे उस
बहुतांकी गति "वागुचारांम्पचं मात्र नबियाः कर्तुम- एकान्तकी भार उल जाते है जिस आध्यात्मिक एकान्त पमा" जैसी होनी है। इसना ही नहीं, बल्कि वे इस ग्रन्थ- कहते है और जो मिध्यान्सम परिगशित किया गया है। पर टीका-टिप्पजनक लिखकर उसे प्रकाशित करते-करान इस विषयकी विशेष चर्चाको फिर किसी समय उपस्थित हुए भी बनेमे बात है। उन्हें इस बातको कोई चिना किया जायगा ।
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S555
N * ॐ अहम् *
अनेकान्त
सत्य, शान्ति और लोकहितके सन्देशका पत्र नीति-विज्ञान-दर्शन इतिहाम-कला और समाज शास्त्रके प्रौढ़ विचारोंसे परिपूर्ण
मचित्र मासिक
45 - FUGLEYFLILLLEUSUSNGLSLELSUSWE LELEVENENEVE
सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' (समन्तभद्राश्रम)
१ दरियागंज, देहली।
ग्यारहवाँ वर्ष [फाल्गुन शुक्ला वीर नि० २४७८ से माघ वोर नि० सं० २४७६ तक]
मार्च सन १९५२ से मई १९५३ तक
Si-shah-SERIFFERUTHENTURESSETTEYEURLASSESSAYESHETREATRESEARSISTERSTHRISHTHH
प्रकाशक
परमानन्द जैन शास्त्री चोरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली
वार्षिक-मूल्य पाँच रुपया ।
Jएक किरण का मूल्य
आठ माने
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अनेकान्तके ११३ वर्षकी विषय-सूची
विषय और लेख
प्रष्ठ कविवर भगवनीदाम और उ. की रचनाएं[० परमानंद जैन शास्त्री
२०५ प्रज-सम्बोधन (सचित्र कविता)-['युगवीर'
कविवर रहधू द्वारा स्मृत विद्वान-परमानन्द जैन २९७ [अनेकान्तका नया वर्ष (सम्पादकीय)
किशोरीलाल घनश्याम मशरू वालाअनेकांनकी सहायताका सदुपयोग
१४२
२४२ बाबू माई दयाल जैन बी. ए. बी. टी. [अनेकांनके सर्वोदय तीर्थीकपर लोकमत
रुछ अज्ञात जैन ग्रंथ-[५० हीरालाल जैन [अनेकांतवाद, मापेक्षवाद और ऊर्जागुगामिकी --
सिद्धांत शास्त्री [चा. दुलीचंद जैन M.S. (E:
कुछ नई खोजें--पं० परमानंद जैन शाम्बी
क्या जैन मतानुसार अहिमाकी माधना अव्यवहार्य अपभ्रंश भाषाका नेमिनाथ चरित
है?-[श्री दौलतराम 'मित्र' [पं. परमानन्द जैन शास्त्रो
११५ क्या यही विश्वधर्म है ?--[बा. अनंतप्रसाद जन 'अपभ्रश भाषाका पासचरिउ और कविवर देवचंद-
बी. एस. मी. [पं० परमानंद जैन शास्त्री
२७ क्या मेवा माधनामें बाधक है?[रिषभदाम गंका ... प्रश्रमण-प्रायोग्य-परिग्रह-जुलक सिद्धिसागर २०. वण्डगिरि उदयगिरि परिचय बा. छोटेलाल जैन । महिंसा (कविता)-[4. विजयकुमारजी १४२ गरीबका धर्म-[बा० अनन्नप्रसादजी B.st. ३१ पहिसक परम्परा-विश्वम्भरनाथ पांडे
गांधीजीका अनासक्तियोग-[प्रो देवन्द्र कुमार एम.ए.१८३ प्राकस्मिक-दुर्घटना परमानंद जैन
गीताका स्वधर्म-प्रो. देवेन्द्रकुमार जैन २७॥ प्राचार्य श्री समंतभद्रका पाटलिपुत्र
गौ रक्षा, कृषि और वैश्य समाज-दौलतगम मित्र ३३ [डा. श्री दशरथशर्मा एम. ए. डी. लिट ४२ गौतम स्वामी रचित सूत्रकी प्राचीननाप्रारमविद्याकी अटूट धाग-बाबू जयभगवान जैन
शुल्क सिद्धिसागर
: ४ एडवोकेट २३५ अन्ध-परिचय-[परमानन्द जैन
३२५ भामेर भंडारका प्रशस्ति मंग्रह-पं. परमानन्द जैन
चतुर्विशतिजिन स्तोत्र-पं० परमानन्द जैन शास्त्री १३५ शास्त्री
चित्र परिचय-[सम्पादकीय ।
जिन धुन महिमा (कविता)-पं० भागचन्द इलायची,-ला. जुगलकिशोरजी कागजी
जैन धर्म और समाजवादउद्धोधन (कविता)-श्री चन्द्रमान कमलेश
[प्रो. महेन्द्रकुमारजी जैन न्यायाचार्य
२१ कविता कुज-['युगवीर'
१३३
जैन पूजाविधिके सम्बन्धमे जिज्ञासाकविवर पं.दौलतरामजीपं०परमानंद जैन शास्त्री ११२
[बा. माईदयाल जैन बी.ए., बी. टी. ३७ कविवर चामतराय,-[पं० परमानंद जैन शास्त्री १७३ जैन साधुमोके निष्क्रिय एकाकी साधनाकी छेडछाहकविवर बुधजन और उनकी रचनाएं
[वा. दौलतराम 'मित्र' (पं० परमानंद जैन शास्त्री
२४३ जैनी कौन ? (कविता) 'युगवी,
.
१२
६
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..
( ३ ) जोधपुरके इतिहासका एक भावरिन पृष
महाकवि रहधू-पं० परमानन्द जैन शास्त्री १९५, ३.. [श्री अगरचन्द नाहा
२५८ महावीर स्तवन (कविता)-[पं० नाथूराम प्रेमी' १०२ दक्षिण भारतमें राज्याश्रय और उपका अभ्युदय- ३०८ महाराज म्वारवेल एक महान निर्माता[डा. टी. एम. रामचन्दन एम. ए.
[गा. छोटेलाल जैन दिहलीमें वीरसेवामंदिर ट्रस्टकी मीटिंग ३०४ महावीर मंदेश (कविता)-['युगवीर'
दुनियाकी नजरोंमें वीरमेवामंदिरक कुछ प्रकाशन महावीर स्वामीसे भक्तकी प्रार्थना (कविता)-[(सम्पादकीय
[पं० नाथूगम 'प्रेमी' नागौरके भट्टारकीय भंडारका अवलोकन
मानवधर्म (कविता)-['युगवीर' [श्री अगरचंद नाहटा
१२८ मीन मंवाद (जाल में मीन) मचित्र (कविता)परम उपास्य कौन ?-[ (कविता) 'युगवीर' ६३ ['युगवीर'
१०८ पंच परमप्ठिमंत्र स्तोत्रम्-[सम्पादक ३३. मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीका दस्टनामा ६५ ५०० रु. के पाँच पुरस्कार-[जुगलकिशोर मुख्तार २१३ मेरी भावना अपने इनिहाम और अनुवादोंके याय १३४ पूज्यवर्णीजीका एक आध्यात्मिक पत्र
२४२ में प्रोग्ब फोड़कर चलू,या पाप बोतल न रखेंफतेहपुर (शेग्वावाटी) के जैनमूनि लेम्ब
[श्री कन्हैयालाल 'प्रभाकर' [4. परमानन्द जैन शास्त्री
५०२ मांदन जानडी कालीन और आधुनिक जैन संस्कृति बुंदेलखण्डके कविवर देवीदास--[पं० परमानंद
-[बा. जयभगवान पडवोकेट जैन शास्त्री
युकायनशामनकी प्रस्तावना-40 जुगलकिशोर ब्रह्म जिनदाम,[4. परमानंद जैन शास्त्री
मुख्तार
२६. ब्रह्म जिनदासका एक अज्ञात रूपक काम्य
रामगिरि पार्श्वनाथ स्तोत्र-[सम्पादक [श्री अगरचंद नाहटा
लोकका अद्वितीय गुरु अनेकांतवादभगवान पार्श्वनाथका किला
- [पं. दरबारीलाल न्यायाचार्य [पं० कैलाशचंदजी शास्त्री
विजालियाक शिलान्नम्व-[पं. परमानंद जैनशाम्बी ३५८ भावना पद्धति-[भ० प्रभावंद शिष्य पदमनंनि ।
विगंध और मामंजस्य-डा. हीगलालजैन एम.ए. २७३ भारतके अहिमक महात्मा सन्त श्री पूज्य गणेशप्रमादजी विश्व एकता और शांति-बा. अनंतप्रमानजी वर्णीकी वर्षगांठ -[परमानन्दजन ३४
बी. एम. मी. २८४ भारतकी अहिंन्या संस्कृति-बा. जयभगवानजी जैन विश्व शुद्धि पर्व पयूषण-बाबू बालचन्द्र एडवोकेट
१८५
कोछल वकील २३३ भगवान महावीरसे धर्मस्थिति निवेदन (कविता)- विश्व मे 'महाननम' हिंदुस्तान में [पं० नाथूरामजी प्रेमी
बीन रही हैं अनुपम घड़ियाँ, (कविता)-[इन्द्र जैन १५ भगवान महावीर-(सम्पादक)
वीर तीर्थावनार-[(सम्पादक) भगवान महावीर और उनका मर्वोदयतीर्थ
वीर बदना-[(कविता) 'युगीर [पं० परमानंद जैन शास्त्री
५५ वीरवाणी-(कविता) 'युगवीर' भेलमाका प्राचीन इतिहास-रारमन मनैया २० वीरशासन के कुछ मलमूत्र--['युगवीर
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बीर शासनाभिनंदन मंदि वीरसेवामंदिरका संचित परिचय
[पं. गाकर सुरुवार वीरसंयामन्दिर के नैमितिक अधिवेशन सभापनि
श्री मिश्रीलालजी कालाका भाषणा
( 8 )
३८१
४१२
वीरसेवामंदिर की प्राप्त सहायता
वैशालीकी महत्ता [श्री आर०आर० दिवाकर राज्यपाल बिहार
२५५
Res
श्री कुंदकुंदाचार्य - [पं. परमानंद जैन शास्त्री गोम्मटेश्वर बाहुबली जिन पूजा - ['युगवीर' श्री पार्श्वनाथस्तुति और महर्षि - [स्तुति सम्पादक २२० श्रीमान स्तवन स्त्रोत अज्ञात '
३७
श्री बीरका सर्वो
(सम्पादक)
श्री सत्यभकजीके खास संदेश
३३२
k
の
३०१
और उनकी धर्मपरी
एम. ए.
जैन वनस्थान[
संगहीत जैन इतिहासकी आवश्यकता - [ एन.सी वाकलीवाल
३६७ संरक्षक और सहायकोंस प्राप्त महायता २२३, ३३२ संस्कृतका अध्ययन जातीय चेतनांक लिए आवश्यक, [ राष्ट्रपति डा. राजेंद्रप्रमादजी
[संत श्री चर्षीप्रमादजी का पत्र सबका उदय - [ महात्मा भगवानदीन
१०२
१२५
३.२६ १२४, १६८
३५
समकालीन विद्वान भट्टारक ( महाकवि - [ पं० परमानन्द जैन
सरस्वती
मंकिजिये व्यावहारिक योजना, एन. सी. वाकलीवाल
२६१
३०४
३३७
६६२
२५
मरस्वती स्तवनम् (स्तोत्र ) - [ (सम्पादक) सरस्वती स्तवनम् (स्तां) - [ मलयकी सर्वोदय कैसे हो ? सर्वोदयतीर्थ - [पं. कैलाशचंदजी शास्त्री
[बा. अनंतप्रसाद BSc.
सर्वोदयतीर्थ के नाम पर - [ श्री जमनालाल सर्वोदयती और उसके प्रति कर्तव्य-
[ बाबू उग्रसैन जैन M. A. L. I. B. सर्वोदय या नियम कुमार एम. ए. सर्वोदय और सामाजिकता, श्री ऋषभदासजी रांका सम्पादकीय १०, २३५.४१८ प्रतिपादित [जुगलकिशोर मुक्तार १७२ समंतभद्रभारती स्तोत्र - [कवि नागराज १६७
मन वचनामृत [ युगवीर ५, १०३, १२०, १७१, २२३, २६०, ३०६, ३३१ ३३७ माहिम्य परिचय और समालोचन - [परमानंद जैन ७४, २२४, ३३४ /
सूनक पानक विचार- [ ० जैनमुना २०६ स्व. दीनानाथजी सरावगी कलकत्ता - (सम्पादक) २२५. स्व-पर-गुण पहिचान (कविता)[कविवर देवीदास ३०२ हेमराज गोदीका और प्रवचनसारका पद्यानुवाद[ पं. परमानंद जैन शास्त्री
१७ १८
४४
१६
२३
३४८
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वोरमेवामन्दिरके मुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरातन-जैनवाक्य-मची-प्राकृनक प्राचीन ६५ मल-प्रन्यांकी पद्यानुक्रमणी. जिसके । ४८ टीकादिनन्याम
उद्धृत नमरे पद्याकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पन-चाक्योंकी । मंयोजक और सम्पादक मुख्तार धीजुगलकिशोरजी की गवेषणापर्ण महचकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनाम अलं दा. कालीदास नाग एम. ए. डा. लिट के प्राकथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ". टी.लिट की भूमिका (Introduction) में भूपित है, शोध-ग्योजके विद्वानों के लिये अतीय उपयोगी, · । माइज, मजिल्द (जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलग पांच रुपये है.)
१५) (२) आप्न-परीना-श्रीविद्यानन्दाचायको म्योपज पटीक अपूर्वकृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके न्दर
मरस और मजीव विवंचनको लिए हुए न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावना।..
युक्त, जिल्द । (३) न्यायापिका-न्याय विद्याकी मन्दर पाथी न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीक संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विम्तन प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांग अलंकृत, मजिल्द । (५) स्वयम्भून्नात्र-समन्तभदभाग्नीका अपर्व ग्रन्थ मुर-तार श्रीजुगलकिशोरजीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि
चय समन्तभद्र परिचय और भत्नियांग ज्ञानयांग नया कमयांगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण
प्रम्नावनाग्य मुगाभिन । (५) स्तुनिांवद्या-वामी यमनभद्रका अनावी कृति, पापांक जीतनका कना. सटीक.मानुवाद धीर श्रीजुगलकिशोर
मुन्नार की महत्वको प्रस्तावनास अलंकन मुन्दर जिल्द सहित । (5) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायांकार कवि गजमलको मन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-महित
बार मुग्तार श्रीजगलकिशोरको ग्वांजपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाम पित। " (७) युक्त्यनशामन-नत्वज्ञान परिपा समन्तभद्रका असाधारण कृनि. जिम्मका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुथा या । मुम्तारधीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिम अलंकृत, जिल्द । ... ) (८) श्रीपुरपाश्यनाथम्नात्र-याचार्य विद्यानन्दचन, महन्त्रकी म्नुनि. हिन्दी अनुवादादि महिन । ॥) () शासनचतुम्ििशका-( नार्थपरिचय )-मुनि मननीनिकी १३ वी शताब्दीकी मुन्दर रचना, हिन्दी
अनुवादादि यहिन । (१०) सत्साध-स्मरण-मगलपाठ-श्रीवीर बर्द्धमान और उनके बाद के " महान श्राचायों के १३१ पुण्य-म्मरणांका
महत्वपूर्ण संग्रह मुग्लारश्रीक हिन्दी अनुवादादि महिन । ५१) विवाह-ममुहेश्य - मुम्नारश्रीका लिग्या हुश्रा विवाहका मप्रमाण मार्मिक और तान्त्रिक विवेचन " ॥) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनकान्त जैसे गढ गम्भीर विषयको अतीय मालतामं समझने-समझानेकी कुजी,
मुग्नार श्रीजगलकिशोर-लिम्विन । (१२) अनिन्यभावना-ग्रा. पदमनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) नत्त्वाथमत्र-(प्रभाबन्द्रीय)-मुग्तारश्रीक हिन्दी अनुवाद नथा व्याख्यान युक। " ) (१५, श्रवणबेल्गोल और दक्षिणक अन्य जननीर्थ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैनकी सुन्दर रचना भारतीय पुरातत्व
विभाग डिप्टी डायग्क्टर जनरल डा० टी० एन० रामचन्द्रनको महत्व पूर्ण प्रस्तावनास अलंकृत ) नोट- मब ग्रन्थ एकमाथ लनवालाको ३७॥) की जगह ३१) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला'
वीरसवामन्दिर, ५, दरियागंज, देहली
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Regd. No.D. 211:
अनेकान्तके संरक्षक और सहायक
संरक्षक
१०१) बाल मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता
१०१) बा० केदारनाथ बद्रीप्रसादजी सराबगी, # १५००) या. नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा.छोटेलालजी जैन मरावगी ,
१०१) बा० काशीनाथजी, ...
१०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू ,
१.१) बा- धनंजयकुमारजी २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदामजी ,
१०१) बा• जीतमलजी जैन ५१) वा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन,
१०१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी २५१) बाल दीनानाथजी सरावगी २५१) बा. रतनलालजी झांमरी
१०१) बा. रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी ,
१०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल
१५१) लाल रतनलालजी मादीपुरिया, देहली
१०१) श्री फतहपुर स्थित जैन समाज, कलकत्ता २५१) सेठ मुआलालजी जैन २५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी
१०१) गुप्तसहायक सदर बाजार मेरठ
१०१) श्री श्रीमाला देवी धर्मपत्नी दा० श्रीचन्द्रजी २५१) मेठ मांगीलालजी
जैन 'सगल' एटा ५१) मेठ शान्तिप्रसादजी जैन
१०१) ला०मक्खनलालजी मोतीलालजी ठकेदार, देहरू २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया
१०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन कलकत्ता : . २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर
१०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जेन, कलकना २५१) बा जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहलो
१०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता. १. २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली २५१) बा. मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली
१०१) बाट बद्रीदासजी मरावगी, कलकत्ता २५१) ला०त्रिलोकचन्दजी सहारनपुर
१०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) सेठ छहामीलालजी जैन फीरोजाबाद
१०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकट हिसार २५१) ला८ रधुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी देहली।
१०१) ला० बलवन्तसिंहजी हांसी
१०१) कुँवर यशवन्तसिहजी हांसी महायक
१०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला.प.सादीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली १०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) बा० लालचन्द्रजी जैन सरावगी ,
अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर'
सरसावा, जि० सहारनपुर
परमानन्दजी जैन शास्त्री C/ बहिसा मन्दिर , दरियागंज देहसी । मुद्रक-रूप-वाणी मिटिंग हाउस दरियागंज, देहाः
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