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________________ भगवान महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ [पं० परमानन्द जैन शास्त्री] भारतीय धर्मप्रवर्तक महात्माओं में भगवान महावीर• किया हो। धर्म किसी मन्दिर, मस्जिद, शिवालय और का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका जीवन आध्यात्मिक विशेष- गिरजाघरमें नहीं है किन्तु वह तो प्रत्येक प्राणीकी अन्तरात्माताओंसे परिपूर्ण था। उन्होंने राजकीय भोग-विलासोंका में निहित है। यह अज्ञप्राणी अपने स्वार्थमें जब अन्धा हो परित्याग कर बारह वर्ष तक कठोर एवं दुर्घर तपश्चर्याके जाता है अथवा अहंकार-ममकारकी ऊंची चट्टान पर सवार द्वारा जो आत्म-साधना की वह असाधारण थी। उन्होंने हो जाता है तब धर्मके असली स्वरूपको भूल जाता है और पूर्णज्ञान ( केवलज्ञान ) के साथ आत्मामें अहिंसाकी पूर्ण अपने स्वार्थकी सिद्धिमें या उसे पुष्ट करनेके लिये अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त की, जो परमब्रह्मपदके अनुरूप है। वे सर्वज्ञ सारी शक्तियोको केन्द्रित कर देता है। उस समय वह और सर्वदशी बने। उस समय देशकी स्थिति अत्यन्त विषम विवेकशून्य होता है, और 'अर्थी दोषं न पश्यति' की नीतिथी, धर्म और अधर्मकी कोई मर्यादा न थी, प्रायः अधर्मने के अनुसार उसके हृदयमें विवेकके स्थान पर अज्ञान और धर्मका स्थान ले लिया था, बड़े-बड़े विद्वान धर्मकी दुहाई अहंकार अपना प्रभाव जमाये रहते हैं। इस कारण उसे देकर याज्ञिक क्रियाकाण्डोंमें धर्म बतला रहे थे। स्त्रियों, अपनी उस सदोष परिणतिका स्वयं पता नही लगता और एवं शूद्रोंको धर्म-सेवनका कोई अधिकार नही था, वे वेद- न उसे आत्मनिरंक्षणादिका कोई ऐसा अवसर ही प्राप्त मत्रका उच्चारण भी नही कर सकते थे। 'यज्ञ की बलि वेदी होता है जिससे उसका विवेक जागृत हो सके। इसी कारण पर होमे हुए जीव स्वर्गसुख प्राप्त करते हैं', यह दुहाई दी जा वह अपने हितसे सर्वथा दूर रहता है। उस समय यदि उसे रही थी। ऐसे समयमें भगवान महावीरने अपने बिहार कोई हितका मार्ग सुझाता भी है, तो भी वह उसे नहीं और उपदेशों द्वारा उस विषम स्थितिको सुधारनेका मानता, किन्तु उसे अपना शत्रु समझने लगता है। उस समय प्रयत्न किया, उन धर्म विहीन शुष्क क्रियाकाण्डोंका घोर उसकी दशा पित्तज्वर वाले रोगीके समान होती है जिसे विरोध किया। जगतमें अहिंसाको दुदुभि बजाई, जीवों- दूध भी नही सुहाता । वह धर्मको बुरा एवं भयावह समझता को सुख-शान्तिका दिव्य उपदेश दिया और बतलाया कि है किन्तु अधर्मको अच्छा और ग्राह्य मानता है। इस तरह संसारके सभी जीव समान है, जिस तरह हमें अपने प्राण भगवान महावीरने अपने उपदेशों द्वारा संसारी जीवोंके प्यारे है उसी तरह दूसरोंको भी अपने प्राण प्यारे है, स्वयं कल्याणका मार्ग प्रशस्त किया, धर्म अधर्मका विवेक कराते हुए उनकी अन्धश्रद्धाको दूर किया और उससे सबको सुखपूर्वक जियो और दूसरोंको भी जीने दो, धर्म किसीकी धर्म सेवनका अवसर तथा अधिकार मिला। भगवान बपौती जायदाद नहीं है, वह तो प्रत्येक प्राणीके अभ्युदय महावीरके उपदेशोंका तत्कालीन जनता पर इतना गहरा एवं विकास का कारण है। संसारके सभी प्राणी सुख चाहते प्रभाव पड़ा कि वे अपनी हिंसक प्रवृत्तिको छोड़कर अहिंसक है और दुखसे डरते हैं। सभी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं, बनें, दयाके उपासक हुए, भगवानकी शरणमें आए और अपना आत्म-विकास करनेके लिए समुद्यत हो गए। कोई भी मरना नहीं चाहता। ऐसी स्थितिमें यदि कोई किसी इसीसे आचार्य समन्तभद्रने भगवान महावीरके को मारता है या उसे कष्ट पहुंचाता है अथवा उसके घन शासन को उनके द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित धर्म कोएवं स्त्री आदिका अपहरण करता है तो वह अवश्य हिंसक निम्न पद्यमें 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया है।है, पापी है। संसारका ऐसा कोई भी जीव नहीं है जिसने सर्वान्तवरावगुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं बमियोऽनपेक्षम् धर्मका माधय लिये बिना ही अपना उत्थान एवं विकास सपिबामन्तकरं निरन्तं सबॉक्यतार्थमिदंतवैव
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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