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अनेकान्त
वर्ष ११
इस पद्यमें जिस शासनको 'सर्वोदयतीर्थ' कहा गया इंद्रियोंके दमन अथवा जीतनेके लिये जिसमें संयमका है वह संसारके समस्त प्राणियोंको संसार समुद्रसे तरनेके विधान किया गया हो, जिसमें प्रेम और वात्सल्यकी शिक्षादी लिए घाट अथवा मार्गस्वरूप है, उसका आश्रय लेकर सभी जाती हो, जो मानवताका सच्चाहामी हो, अपने विपक्षियोंजीव अपना आत्म विकास कर सकते है । वह सबके उदय, के प्रति भी जिसमें राग और द्वेषकी चंचल तरंगें म उठती हों, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नतिमें अथवा अपनी आत्माके जो सहिष्णु एवं क्षमाशील है, वही शासन सर्वोदयतीर्थ पूर्ण विकासमें सहायक है। सर्वोदयतीर्थमें तीन शब्द है सर्व, कहला सकता है और उसीमें विश्व-बधुत्वकी कल्याणकारी उदय और तीर्थ। सर्व शब्द सर्वनाम है वह सभी प्राणियोंका भावना भी अन्तनिहित होती है। वही शासन विश्वके वाचक है, उदयका अर्थ कल्याण, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नति समस्त प्राणियोंका हितकारी धर्म हो सकता है। है, और तीर्थ शब्द संसारसमुद्रसे तरनेके उपाय स्वरूप सर्वोदयतीर्थकी जो सक्षिप्त रूप-रेखा ऊपर खीची जहाज, घाट अथवा मार्ग आदि अर्थोंमें व्यवहृत होता है। गई है वह उसके सिद्धान्तोमें पद पद पर समाई हुई है। खेद इससे इसका सामान्य अर्थ यह है कि जो शासन ससारके है कि आज उसके अनुयायी सर्वोदय तीर्थकी सार्वभौमिकता सभी प्राणियोंके उत्कर्षमें सहायक है, उनके विकास अथवा मौलिकता और महत्तासे अपिरिचित है, वणिक्वृत्ति होनेउन्नतिका कारण है वह शासन 'सर्वोदय-तीर्थ कहलाता है। के कारण वे कृपण और सकीर्ण मनोवृत्तिको लिये हुए है। यह तीर्थ सामान्य-विशेष, विधि निषेध और एक अनेक प्राचीन समयसे भारतमे दो संस्कृतियां रही है श्रमण आदि विविध धर्मोको लिये हुए है, मुख्य-गौणकी व्यवस्थासे
संस्कृति और वैदिक संस्कृति । इन दोनोका परस्परमें व्यवस्थित है, सर्व दुःखोंका विनाशक है और स्वयं सामीप्य रहनेसे उनके अनुयाइयोमें एक दूसरेके विचारोंका अविनाशी है।
आदान-प्रदान हुआ है, एकका दूसरे पर प्रभाव भी अंकित इसके सिवाय जो शासन वस्तुके विविध धर्मों में हुआ है । यही कारण है कि आज भी कितने ही रीति-रिवाज पारस्परिक अपेक्षाको नही मानता उसमे दूसरे धर्मोका एक दूसरे धर्मके इन अनुयाइयो में देखे जाते है । जहा श्रमण अस्तित्व नहीं बनता, अत: वह सब धर्मोसे शुन्य होता है। संस्कृतिके अहिंसा सिद्धान्तकी गहरी छाप वैदिक धर्म पर उसके द्वारा पदार्थ व्यवस्था कभी ठीक नहीं हो सकती। वस्तु पड़ी, वहां वैदिक परम्परा-सम्मत वर्णाश्रम व्यवस्थाका तत्त्वकी एकान्त कल्पना स्व-परके वैरको कारण है, उससे प्रभाव वीरशासनके पुजारी वैश्यों पर भी पड़ा। इसका न अपना ही हित होता है और न दूसरेका हो सकता है, वह परिणाम यह हुआ कि भगवान महावीरका सर्वोदय शासन नोमया एकान्तके आपमें अनरक्त हआ वस्त तत्त्वसे जो इन वैश्योंको विरासतके रूपमें प्राप्त हुआ था, जिसका से दूर रहता है। इसीसे सर्वथा एकान्त शासन इन्हें अपने जीवनमें अनुष्ठान करते हुए दूसरोको भी उससे 'सर्वोदयतीर्थ' नहीं कहला सकते। अथवा जिस शासनमें परिचित एवं उपकृत करते रहना चाहिये था, वहां वे स्वयं सर्वथा एकान्तोके विषम प्रवादोंको पचानेकी शक्ति- ही उसकी महत्तासे प्राय. अपरिचित रहे-उसके स्वरूपसे क्षमता नही है और न जो उनका परस्परमें समन्वय ही कर अनभिज्ञ रहे, अतएव उसे वे अपना ही सम्प्रदाय धर्म समझने सकता है वह शासन कदाचित भी 'सर्वोदय' शब्दका वाच्य लगे। यही वह कारण है जिसकी वजहसे इसका प्रचार व नहीं हो सकता । जो धर्म या शासन स्याद्वादके समुन्नत
प्रसार जिस रूपमें होना चाहिये था नही हुआ और उसके सिद्धान्तसे अलंकृत है, जिसमें समता और उदारताका अनुयाइयोंकी संख्या दिन पर दिन घटती गई और वह सुधारस भरा हुआ है, जो स्वप्नमें भी किसी प्राणीका करोडोंसे घटकर बीस लाखके अनुमान रह गई। अकल्याण नहीं चाहता-पाहे वह किसी नीची-से-नीची जिस तीर्थ में विश्व व्यापी होनेकी शक्ति स्वयं विद्यमान पर्याय में ही क्यों न हो, जो अहिंसा अथवा क्यासे ओत-प्रोत हो, जिसका मूर्तिमान रूप विश्वके प्रत्येक प्राणीके हित एवं है, जिसके प्राचार-व्यवहारमें दूसरोंको दुःखोत्पादनको कल्याणकी भावनासे ओत-प्रोत हो, जिसकी उपासना अभिलाषा कर बत्री-भावनाका प्रवेश भी न हो. पंच एवं भक्तिसे बघता श्री भाता परिणत हो जाती हो,