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अनेकान्त
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ऋग्वेद-मन्त्रोंके प्रारम्भिक कालमें भी हम सुदासको पुरुष्णी नदी (रावी) के किनारे दश राजाओंके साथ युद्ध करते हुए देखते हैं । उनकी धर्मनिष्ठाकी जानकारीके लिये महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २८१ विशेष उल्लेखनीय है । जब भीष्म 'वृत्र' की बड़ी प्रशंसा कर चुके तो उसे सुनकर धर्मराजके मुखमे यह शब्द निकल पड़े-
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अहो धर्मिष्ठता तात बुत्रस्यामिततेजसः । यस्य विज्ञानमतुलं विगो भक्तिश्च तादृशी ॥
- शान्तिपर्व २८१ १
अर्थ- हे पितामह! अमित तेज वृत्र की धार्मिकताका क्या वर्णन किया जाय ! उसका यह अतुल विज्ञान और विष्णु पर उसकी वह भक्ति !
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इसके बाद विस्मय- सहित युधिष्ठिर भीष्मसे पूछते है कि, ऐसे धर्मनिष्ठ बुद्धिमान वृत्रको मारनेमे इन्द्र कैसे सफल हुआ ' इसपर भीष्म बतलाते है कि जब महादेवने ज्वर बनकर वृत्रके शरीर में प्रवेश किया और स्वयं विष्णु इन्द्रके में प्रविष्ट हुए, तब वृत्रका वध करनेमें इन्द्र सफल हुआ। इसका ऐतिहासिक तथ्य यही है कि वृत्रके परास्त होनेका मूल कारण इन्द्र न था बल्कि घरको फूट थी । यदि महादेव-उपासक यक्षगण वृत्रके साथ विश्वासघात न करते और विष्णु अर्थात् सूर्यउपासक भग्तगण इन्द्रकी सेनाके साथ जाकर न मिलते तो वृत्र कभी भी परास्त न होता ।
इसमे अगले अध्याय २८२ मे महाभारतमे कथन है कि वृत्रका वध होनेपर उसके शरीरमे ब्रह्महत्या निकली और उसने इन्द्रका पीछा किया। इस ब्रह्महत्या के कारण इन्द्रका तेज बिल्कुल विनष्ट होगया। इस ब्रह्महत्याके हटानेके लिये इन्द्र बहुत प्रयत्न किया किन्तु वह किसी भी तरह उसे दूर न कर सका, तब वह पितामह ब्रह्माजीके पास जाकर उनके चरणोमे जा पड़ा, तब ब्रह्माजीने इंद्रको ब्रह्महत्या के दोषसे मुक्त करनेके लिये उसे चार नियम दिलाये १ - अग्निमें पशुओकी आहुति न देकर जौ और औषधियोकी आहुति देना । २-पर्वके दिनोमे वृक्ष, वनस्पति और घासको न काटना। ३- रजस्वला स्त्रीके साथ मैथुन न करना और 6- जल अर्थात् नदियोका सन्मान करना । जो कोई इन नियमोका उल्लघन करेगा, वह ब्रह्महत्याका दोषी होगा। इस कथा ऐतिहासिक तथ्य यही मालूम होता है कि यद्यपि वृषका वध होनेमे इन्द्र अनुवायी आर्यजन कुछ समयके लिये सिन्धु देशके विजेता बन गये परन्तु वे इस देशकी आत्माको विजय न कर सके, बल्कि दासों और प्रात्योकी हत्याके कारण अथवा देवयज्ञोके लिये पशु हिंसाके कारण इन्द्र उपासक आर्यजन सप्तमिन्धु देशमे घृणाकी दृष्टिसे देखे जाने लगे और यहाके मूलवासी नाग व दस्यु लोग इनके विरोध उठ खड़े हुए उसमे उनकी हिमामयी याज्ञिक आधिदैविक संस्कृतिको बहुत धक्का पहुंचा और वह प्रायः निस्तेज हो गयी, क्योकि यह विरोध उस समय तक शान्त न हुआ जब तक कि वैदिक ऋषियोने अहिसा धर्मको अपनाकर अग्निमें जो का होम करना, पर्वके दिनोंमें वृक्ष और वनस्पतिकी रक्षा करना, पत्नीके रजस्वला होनेपर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना और भारतकी नदियोका सन्मान करना न मीख लिया ।
उपर्युक्त कथनकी पुष्टि एवरेय ब्राह्मणके ३५वे अध्यायका दूसरा लण्ड भी उद्धृत किया जाना जरूरी है। इसम उल्लेख है कि देवताओंने इन्द्रपर विश्वरूपका वध करने, वृत्रका वध करने, यतियोको कुत्तों द्वारा मरवाने, अरुमंत्रोकी हत्या करने और वृहस्पतिपर प्रहार करनेके पांच अभियोग लगाये थे ।
उपर्युक्त प्रकारके आधार पर ही श्री रामप्रसाद चन्दा ने यह सिद्ध किया है, कि प्रचीन कालमं गंगा और जमुनाके मध्यवर्ती क्षेत्र, आर्यखण्डको छोड़कर इसके चारो ओर फैले हुये भारतके शेष खण्डोंमें जिनमें पूर्वके अग, वग, कलिंग, मगच विदेहदेश, पश्चिमके सुराष्ट्र, आनदं, सिन्धु, सौवीर, उत्तरके आरट्ट ( पंजाब ), मद्र ( रावी और चनाब नदियोका मध्यवर्ती भाग), वश (कश्मीरका दक्षिणी भाग), गान्धार (पेशावर) हिमालय प्रदेश, और दक्षिणके आन्ध्र कर्णाटक आदि शामिल थे, पा व्रात्य लोगोकी वस्तियां थी । ये लोग अपनी धार्मिक सस्कृति भाषा भूषा और सामाजिक व्यवस्थाके कारण वैदिक आर्यजनोसे भिन्न जाति वाले थे, इसीलिये इस युगका ब्राह्मणिक साहित्य व्रात्योंके प्रति वैमनस्यसे भरा है। "
1. R. B. Ram Prashad CHANDA The Indr Aryan Races A 1916 PP 37-78
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