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किरण २]
मोहनजोदड़ो-कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति
१८; ३.-३४.९) वर्णके थे। उनकी नाकें छोटी और बैठी हुई थी। इसलिये उन्हें ऋ५. २९. १० में अनास् अर्थात् बिना नाकों वाला कहा है। उनकी भाषा भी आर्यजनकी भाषासे भिन्न थी, इसलिये उन्हे ऋ५. २९.१० मे मृधवाच: अर्थात् समझमें न आनेवाली भाषावाले कहा है। उनकी संस्कृति भी वैदिक सस्कृतिसे भिन्न थी। वे वेदविहित कार्योको न करते थे, इसलिये ऋ१०.२२.८ में उन्हें 'अकर्मण' कहा गया है वे अग्नि, मरुत, और इन्द्र देवोको न मानते थे, न उनके लिये कोई यज्ञ-हवन करते थे, इसलिये ऋग्० ८.७०. ११ में उन्हे 'अदेवस्' 'अयज्वन्' कहा गया है, वे लिंगोंके उपासक थे इसलिये उन्हें ऋ७. २१. ५ ऋग् १० ९९. ३ मे 'शिशिन देवा.' कहा गया है ।
चकि दस्यु जन भिन्न जाति और भिन्न सभ्यता वाले थे, देवद्रोही थे, इसलिये वैदिक आर्यजनके लिये यह स्वाभाविक ही था कि उन्हें सास्कृतिक विद्वेषके कारण अकर्मा (विधि विधान रहित), अमत्र (अशिक्षित), अव्रत (नियमरहित), अन्यव्रत (भिन्न धर्म मानने वाले) अमानुष (नीच मनुष्य) आदि सज्ञाओमे पुकारे।' ___अथर्व वेदके पृथ्वी गूक्त १२.१.४५ से भी विदित है कि सुदूर अतीत कालम भी भारतवासी भिन्न-भिन्न धर्मोके माननेवाले और भिन्न-भिन्न भाषाय बोलने वाले थे। इसी विद्वपके कारण भास्कराचार्यने निरुक्त उ० षटक १.२३ मे दस्यु शब्दकी व्युत्पत्ति' दस-विनाश करना धातुसे बतलायी है अर्थात् वह जो वेद-विहित धर्मका नाश करने वाला है।
वास्तवमें दस्यु लोग असभ्य और नीच मनुष्य न थे, वे बड़े गिल्पकार थे, वास्तुकलामें वे बड़े माहिर थे, वे जमीन खोदकर बड़े सुन्दर तालाब, वावडी और भवन बनाना जानते थे। उन्होंने बहुतमे पाषाणके नगर और दुर्ग बनाये हुए थे। लोहे के दुर्ग भी उनके पास मौजूद थे। ऋग्४.३०.२० में कथन है कि इन्द्रने शम्बरके पाषाण वाले १०० नगर* आधीन कर हव्यवाता यजमान दिवोदासको दे दिये । इनके पास शरद् ऋतुमें रहने के लिये शारदी दुर्ग अलग बने हुए थे। वे बड़े व्यापारी थे जहाजरानी अच्छी तरह जानते थे-जहाजोमे बैठकर समुद्रके रास्ते एशियाके दूर मध्यवर्ती देशोमे व्यापार करते थे और उनमे आर्थिक वसास्कृतिक सम्बन्ध जोड़े हुए थे। वे बड़े बलिष्ठ, शूरवीर और युद्ध-कुशल थे। इनकी स्त्रियां तक सैनिक बन कर शत्रुसे लडनेके लिये तैय्यार रहती थीं। ऋग् ५ ३०.९ में उल्लेख है कि-"स्त्रियो हि दाम-आयुधानि चक्रे किमाकरनबला अस्य मेन"-अर्थात्-नमुचिदासने स्त्रियों तकको युद्ध में खड़ा कर दिया परन्तु ऐसी दुर्बल सेना क्या कर सकती थी, फलत. नमुचि उम युद्धमे माग गया। शम्बर दास के सम्बन्धमे ऋग् २. १२.११ में उल्लेख है कि वह अपनं १०० नगरोके विध्वंस होनेपर भी इन्द्रके वशमे न आया। वह मैदानमे पराजित होकर भी पर्वतोंका आश्रय ले ४० वर्ष तक इन्द्रके साथ लड़ता रहा । ऐसे शूग्वीर वृत्रको माग्नेके कारण ही इन्द्र महाराजा, महेन्द्र , विश्वकर्मा आदि नामोसे विख्यात हुआ था।"
शूरवीर होने के साथ ही दस्युगण बड़े धर्मनिष्ठ थे, अहिसा धर्मके मानने वाले थे, त्यागी, तपस्वी श्रमणोके उपासक थे। उनकी हारका कारण दुराचार और असभ्यता न था बल्कि उनकी हारके कारण तीन थे-घरकी फूट, घुडसवार सेनाकी कमी और युद्ध समय कवच आदि संरक्षक अस्त्रोंका अभाव । ये कितने ही विशी अर्थात् कबीलोंमें बंटे हुए थे, जो आपसमें निरन्तर एक दूसरेसे लड़ते रहते थे।
१. अकर्मा वस्युरभि नो अमन्त्ररन्यवतो अमानुषः स्वं तस्यामित्रहन् वषर्वास य दम्भय १०.२२.८ २. ऋग्वेद १. १०३.३; २. २०८; ३. १२.६; ४. १२.१०। ३. Vedic Indian-Vol Ip. 356
रस्युयिते सयार्थादुपस्यन्तपरि मनसा उपदापति कर्माणि ।-निरुक्त उत्तर षटक १.२३ ५. “इन्दोवा वा एष पुरा वृत्रस्य वधावय वृत्रम् हत्या
महाराजो विनियान एवं महेन्द्रोऽभवत् "-शतपथ ब्राह्मण १. ६. ४. २१, ४ ३. ३. १७; इन्नोव वनं हत्वा विश्वकर्मा ऽभवत्
-एतरेय ब्राह्मण ४-२२ ६ ऋग० २ ११. ४, ४. २८ ४, ६. २५. २,
महाभारत मीमांसा पृष्ठ १५१-१५३ ७ ऋग् ५. ३०. २०.