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बनेकान्त
[वर्ष ११
चूंकि ये दस्यु लोग देव-द्रोही थे इसीलिये ऋग्वेद सूक्तोंमें जगह-जगह इन्द्रसे दस्यु जातिके सर्वनाशके लिये प्रार्थना की गई है। इन प्रार्थनाओमे यहा तक भी कहा है कि इन्हें इच्छानुसार मार दिया जावे',या इन्हें गुलाम बना लिया जावे।
इन्द्रके लिये वैदिक ऋषियोने जगह-जगह जो विशेषण प्रयुक्त किये है, उनसे भी उपर्युक्त मतकी पुष्टि होती है । वे विशेषण निम्न प्रकार है :
१. वृत्रहा-(अर्थात् वृत्रको मारने वाला) ऋ. ४. ३०. १. २. दस्यवे वृक-(अर्थात् दस्युओंको मारने के लिये वृकके समान)।
देखें, ऋग्वेदके आठवें मण्डलसे आगे दिये हुए वाल-खिल्य सूक्त ३. २.७; ८ १, ८ २० ३ दस्युहन-(अर्थात् दस्युओंको मारनेवाला) ऋ. १ १०० १२
४. पुरन्दर अर्थात् (दासोके) नगरोको विध्वस करनेवाला । इन्द्रने एक ऋचानुसार शम्बर दासके ९९ नगर नष्ट किये थे-"नवति च नवेन्द्रः पुरो व्यरच्छम्बरस्य" ऋ २ १९ ६. दूसरी ऋचाके अनुसार उसने शम्बरके १०० नगर नष्ट किये थे-“यः शत शम्बरस्य पुरो विभेदाश्मनेव पूर्वी." ऋ २. १४. ६. ।
उपर्यक्त वृत्तान्तमे स्पष्ट है कि ऋग्वैदिक कालमे सप्तमिन्धु देश नाग लोगोका देश था और उसपर वृत्र. अहि, दास, दस्यु, आदि उपाधियोमे अलकृत उनके गजशासकोका आधिपत्य था । दास, दस्युका वास्तविक अर्थ--
यद्यपि वैदिक संहिताओ और ब्राह्मण ग्रन्थोमे दस्यु लोगोकी बहुत निन्दा की गयी है, उनके प्रति घृणा प्रगट की गयी है, उनके सर्वदमन और सर्वसहारके लिये प्रार्थनाये भी की गयी है और यद्यपि पुरानी वैदिक उक्तियोके प्रभावके कारण आज भी भारतके साधारण जन दास व दस्युका अर्थ एक नीच, कमीन, गुलाम, असभ्य,क्रूर जगली व्यक्ति समझते है परन्तु वास्तवमे दास-दस्य शब्दका यह असली अर्थ नहीं है, यदि ऐसा होता तो दिवोदास, मुदास, त्रसदस्य प्रभृति सप्तसिन्धु देशके आर्य राज्यशासक अपने नामोके साथ उक्त विशेषण क्यो लगाते।
पारसियोके माननीय ग्रन्थ जेन्दावस्था (Zend Avesta) को देखने से पता लगता है कि दस्यु शब्द सन्मान सूचक है, दस्युका अर्थ दीप्यमान, प्रकाशमान है । यह शब्द दस-चमकना धातु से बना है' इसलिये जेन्दावस्थामे जरथुश्त्रको दस्यु (दल्युमा) और कही-कही 'दख्युनाम सुरो' अर्थात् दस्युओमे विद्वान् कहा गया है।
वास्तवमे यह सब सास्कृतिक विद्वेषका ही फल है, कि दस्यु शब्दका असली अर्थ बिगडकर आज इतना विकृत होगया है कि इसके असली स्वरूपका पता लगाना भी कठिन होगया है। इसी प्रकारके अन्य उदाहरण भी हमारे इतिहासमें मौजूद है। 'पाखण्डी' शब्दको लीजिये इसका वास्तविक अर्थ है पापोको खण्डन करने वाला अर्थात् यति, मुनि, साधु, तपस्वी। परन्तु मध्यकालीन युगमे हम देखते है कि सास्कृतिक विद्वेषके कारण इसका अर्थ बदलकर बिल्कुल विपरीत होगया। इसी तरह हमारे अपने जमाने में भक्त और हजरत शब्द इतने विकृत होगये है कि इन्हें हंसी-मजाकके तौर पर मायाचारी, चालाक मनुष्योंके लिये प्रयुक्त किया जाता है। दास वा दस्यु लोगोंकी सभ्यता--
दास व दस्यु लोग नये आगन्तुक वैदिक आर्योसे भिन्न वर्ण,भिन्न जाति,भिन्न भाषा और भिन्न सभ्यता वाले थे। वे कृष्ण वर्ण व कृष्णत्वच् थे (ऋ१.१३०.८; ९.४१.१, )जब कि आर्यजन हिरण्य-भूरे (ऋ १. ३५.१०)शिवनय-सफेद (ऋ १.१००,
१. ऋग्वेद १०, २२, ऋ १०, २३: ऋग् ६, २५, २ ; ऋ६, ६०, ६ । २. ऋ १०, १००, ३२, ऋ ६, ४५, २४ ।
३. ऋ७, ८६, ७; ऋ ८, ५६, ३, ऋग् १०, ६२, १०। ४. गंगा-जनवरी १९३२ के वेदाङ्क पृ. १८९, १९०.. ५. Dr. Banerjee-Asura India-pp 15, 16.