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________________ किरण २ ] साहित्यिक प्रमाणऋग्वेदमें पूर्व और पश्चिम सागरवर्ती देशोंके तपस्वी श्रमणोंका उल्लेख यो तो वैदिक ऋषियोंकी दृष्टि मुख्यत. आधिदैविक रही है और वैदिक सूक्त अधिकतर देवता-स्तुति परक हैं, उनमें श्रमण लोगोकी गुणगाथा अपना उनकी आध्यात्मिक संस्कृतिका उल्लेख पाना आशासे बाहिरकी चीज है, तो भी जिस प्रकार भारतके क्षत्रियजन वैदिक ऋषियोंकी शब्दविद्या, काव्यकुशलता, नीतिनिपुणता, व्यवस्थाकार दक्षता और लौकिक अभ्युदयके याशिक अनुष्ठानोसे प्रभावित हुए बिना न रहे और उन्होने बहुधा ब्राह्मण ऋषियों और उनके बजोको अपने राज्योमें पुरोहित अध्यापक और मन्त्रियोके सन्मानित स्थानोपर नियुक्त कर दिया, उसी तरह वैदिक आर्यजन भी भारतीय श्रमणोंके महान् आध्यात्मिक आदर्श उनकी विश्वव्यापिनी दृष्टि, उनके शुद्ध संयमी जीवन, उनकी योगसाधना और उनकी ऋद्धि-सिद्धि वाली अलौकिक शक्तियों प्रभावित हुए बिना न रहे। वे दूरसे खिच-विंचकर अध्यात्मविद्या सीखनेके लिये उनके सम्पर्कमे आने लगे; इसलिये प्रारम्भिक देवासुर संग्रामों अथवा ब्राह्मण-क्षत्रियसंघर्षोंसे निपट कर ज्यों-ज्यों भारतीय जनता सन्मेल और एकताकी ओर बढ़ी त्यो त्यो ब्राह्मण ऋषियोने अपनी काव्यरचनाओमे इन व्रात्य लोगोके त्यागी तपस्वी, योगियो और उनकी आध्यात्मिक संस्कृति परक तत्त्वोकी सराहना करनी शुरू कर दी। यही कारण है कि जहा ऋग्वेदके पहले नौ मण्डल, दस्युजनो व व्रात्यजनोके प्रति वैमनस्यसे भरे हुए दिखते है, वहा ऋग्वेदका दशमा मण्डल, प्राय. सम्पूर्ण अथर्ववेद तथा आरण्यक उपनिषद् आदि ब्राह्मणोका उत्तरवतों साहित्य भारतीय क्षत्रियोकी महत्ता, व्रात्योकी पवित्रता और श्रमणोकी दिव्यतासे भरा हुआ है। इस प्रसगमे ऋग्वेद सहिता मण्डल १० का १३६वा सूक्त जो केशी सूक्तके नामसे प्रसिद्ध है, विशेष तौर पर देखने योग्य है, यह सूक्त ऐतिहासिक दृष्टिसे कमसे कम ईम्बी मन्ये २००० वर्ष पूर्वका जरूर है। इसमें जहा भारतके पुराने श्रमण-योगियोth वास्तविक जीवनका एक जीता जागता चित्र खीचा गया है वहा पर ही स्पष्ट रूपमे बतलाया गया है कि ये योगिजन भारतके पूर्व और पश्चिम गागरीके तटवर्ती देशोमे रहते हैं। चूकि इस मूक्नके उपर्युक्त तथ्यकी ओर विद्वानोकी दृष्टि बहुत कम गयी है. इसलिये मममने मुक्तको यहा उद्धृत किया जाता है - नवी दिवं देवी विमति रोस । केशी विश्व स्वपूंगे केशीवं ज्योतिषच्यते ॥ १॥ मुनयो वातरशनाः पिशङ्का बसते मला । वानस्यानुप्राणिं यन्नि पहुंचासो अविक्षत ॥२॥ उन्मविता मौने येन वाना आ नस्थिमा वयम् । शरोरखस्माक यूप मर्तासो अभिवश्यय ॥३॥ अन्तरिक्षे पति जित्वा रूपावच करत् । मुनिर्देवदेव पौवाय मला हित ॥४" वायो नायो वेवेशितो मुनि सवाशेनिसा ॥५॥ अप्सरसा गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन् । कशी केतयविद्वान् सखा स्वादुर्मवित्तमः ॥६॥ - ऋग्वेद म० १० सूक्त १३६. पृथ्वीको धारण करने बाल है। वही 1 मोहनजोदड़ो - कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति भावार्थ - केशी केशवाला' अर्थात् जटाधारी योगी अग्निलोक, जललोक और सारे विश्वको अपने ज्ञान द्वारा प्रकाशित करते हैं. यह ज्योतिस्वरूप कहे जाते है ।। १ । ―― ११७ ये जटाधारी मुनि वायुका भोजन करने वाले है, अर्थात् लम्बे-लम्बे अनशन व्रत करके वायुपर ही रहनेवाले हैं। इन उपवास के कारण इनके अग पीले पड़ गये है, (स्नान न करनेके कारण ) ये मलीन रहते है, ये देवत्वको प्राप्त करके वायुकी गतिके अनुगामी होगये है अर्थात् वायु समान निप विचरते हैं ॥२॥ (यह कहते है) कि हम समस्त लौकिक व्यवहारोके बिसर्जनसे उन्मत्त (आनन्दरसलीन) हो गये है। हम वायुपर चढ़ गये हैं, तुम लोग केवल हमारा शरीर देखते हो, हमारी आत्मा वायु तुल्य निर्लेप है ॥ ३ ॥ ये मुनि लोग आकाश में उड़ सकते है, ये सारे पदार्थोंको देख सकते है । इन मुनियोकी सब ही देवांके प्रति मैत्री है, इनका जीवन सभी के कल्याणके लिये है ||४|| १ प्राचीन भारतमें योगीजन भगवान ऋषभके समान जटाधारी हुआ करते थे, भगवान ऋषभकी जितनी प्राचीन मूर्तिया मथुराके ककाली टीले से मिली है वे सब जटाधारी हैं ।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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