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किरण ४-५ ]
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भारतकी अहिंसा सस्कृति
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पैदा हुई है वह आर्यजन और देशके लिये आगे चलकर पानीपत तहसीलका आधुनिक बला नामका ग्राम है। बहुत ही हानिकारक सिद्ध हुई है।
उक्त सरमाने यद्यपि इन पणि लोगोको वृहस्पतिकी इस युगमे सप्तसिधुके आर्यजन सभी ओरसे विजातीय गाये लौटा देनेके लिये बहुत विष समझाया और उन्हें और विधर्मी लोगोसे घिरे हुए थे। उत्तरमें भूत, पिशाच, इद्रका अपार पराक्रम और उसके सैनिक बलका भी यक्ष, गन्धर्व लोगोसे, पूर्वमें वात्य लोगोसे, दक्षिणमें राक्षस डर दिखाया, परन्तु पणिलोगोने कुछ भी परवाह न की, लोगोंसे, और स्वयं सप्तसिंधु देशमें, पणि, शूनि, आदि और उसे यह कह कर चलता कर दिया, कि यदि इंद्रके पास नागलोगोको विभिन्न जातियोसे। चूकि यह सभी लोग सेना और आयुध है, तो हमारे पास भी काफी संरक्षक प्रायः श्रमणसंस्कृतिके अनुयायी थे, त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी, सेना और तीक्ष्ण आयुध है, बिना युद्ध किये ये वापिस नही साधु-संतोंके उपासक थे, अहिंसाधर्मको माननेवाले थे, हो सकती। इसलिये ये सदा देवगणके माननीय देवताओ और उनके आर्यजन और आर्यावर्त हिंसामयी याज्ञिक-अनुष्ठानोका विरोध करते रहते थे इस प्रकारके आये दिनके नागोंके आक्रमणोंसे परेशान और उनके पशुओको विद्वेष वश वध-बन्धनसे छुडाने के लिये होकर देवगण सप्तसिंधुदेशको छोड़कर जमनापार छीन कर व चुराकर ले जाया करते थे। इस सम्बन्धमें मध्यप्रदेशकी ओर बढ़ चले, जो आज उत्तर प्रदेशके नामसे कुरुक्षेत्रको तत्कालीन स्थिति जानने के लिये पणि और इन्द्र- प्रसिद्ध है। चकि पीछेसे यह देश ही आर्यजनकी स्थायी का प्रसिद्ध आख्यान जो ऋग्वेद १०,१० मे दिया हुआ है।
वसति बन कर रह गया, इसलिये भारतका यह मध्यमभाग विशेष अध्ययन करने योग्य है । यह आख्यान सप्तसिंधु देशके आर्यावर्तके नामसे प्रसिद्ध हआ। इस देशम यद्यपि देवगणतत्कालीन विजातीय सांस्कृतिक संघर्षको जाननेके लिये को रहनेका स्थान तो स्थायी मिल गया, परन्तु यहां उन्हें इतना ही जरूरी है जितना कि दक्षिणापथके वि ध्य- भारतकी अहिंसामयी सस्कृतिमे प्रभावित होकर धर्म गिरि देशमे विद्याधर राक्षसो द्वारा याज्ञिकी पशुहिसाके व आहार व्यवहारके लिये होनेवाली अपनी हिंसात्मक विरुद्ध किये गये सघर्षका पता लगानेके लिये रामायणकी
प्रवृत्तियोका सदाके लिये त्याग करना पड़ा। कथाका जानना जरूरी है।
राजावसु और पर्वतकी कथा पणि और इन्द्रका आख्यान
इस सम्बन्धमे पाचालदेशके राजा वसु, नारद और ऋग्वेदके उपर्युक्त आख्यानमें बतलाया गया है
पर्वतकी पौराणिक कथा जो मत्स्यपुराण' व महाभारत' कि पणि लोगोने इद्रके पुरोहित वृहस्पतिकी गायोको
ग्रथोमे दी हुई है, विशेष विचारणीय है। इस कथामें बतलाया चुरा कर सरस्वती, दृषद्वती नदियोंके पार ले जाकर
गया है, कि त्रेतायुगके आरम्भमें इंद्रने विश्वयुग नामका बलपुरकी अद्रिमे छुपा दिया, तब इद्रने वृहस्पतिकी ।
यज्ञ आरम्भ किया, बहुतसे महर्षि उसमे आये। उम यज्ञमें शिकायतपर इन गायोका पता लगाने और इन्हे लानेके
पशुबध होते देख कर महर्षियोने घोर विरोध किया। महर्षियोने लिये सरमा नामकी एक स्त्रीको अपनी दूती बनाकर
कहा-"नाय धर्मो धर्मोऽय, न हिंसा धर्म उच्यते, अर्थात् पणि लोगोके पास भेजा। यह सरमा शूनी जातिकी एक अनार्य स्त्री थी। ये पणि और शूनी जातिके लोग सरस्वती
यह धर्म नही है यह तो अधर्म है, हिसा कभी धर्म नही हो दृषद्धती नदियोके पार कुरुक्षेत्रसे दक्षिणकी ओर अपने
सकता। यज्ञ बीजोसे करना चाहिए, स्वयं मनुने पूर्वकालमें, जनपदोमे बसे हुए थे। पणि लोगोंका जनपद पणिपद
यज्ञमम्बन्धी ऐमा ही विधान बतलाया है. परन्तु इंद्र न माना, और शूनी जातिका जनपद शनीपद नामसे मशहर था। इस पर इंद्र और ऋपियोके बीच यज्ञविधिको लेकर विवाद इतना दीर्घसमय बीतनेपर भी इन जनपदोंके नगर आज भी
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खडा हो गया, कि यज्ञ जगम प्राणियोंके साथ करना उचित अपने स्थानपर स्थित है और पानीपत और सोनीपतके हैं या अन्न और वनस्पतिके साथ। इस विवादका निपटारा नामोंसे प्रसिद्ध है । ये दोनों नगर एक दूसरेसे २५ मीलकी १ मत्स्यपुराण-मन्वन्तरानुकल्प वर्षिसम्बाबनामक दूरी पर कुरुक्षेत्र और देहलीके मध्यभागमें स्थित है। अध्याय १४६ । बलपुर जहा गायोको चुराकर रक्खा गया था, वह समवतः २ महाभारत अश्वमेषपर्व अध्याय ९१