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सप्तसिंधुदेश और कुरुक्षेत्रके आर्यजन उस जमानेमें सप्तसिंधुदेशका यह अन्तिम छोर स्वर्ग
इसी तरह बार्यगणकी दूसरी शाखा जो उत्तर पश्चिम- का अन्तिम भाग कहलाता था।' के द्वारोंसे सप्तसिंधु देशमें दाखिल हुई वह धीरे-धीरे सप्त- इस कुरुक्षेत्रमें आबाद होकर देवजन काफी समय तक सिंधु देशमसे होती हुई इस अन्तिम छोर कुरुक्षेत्र में जा पहुंची। अपनी सभ्यताका विकास करते रहे। यहां वे बहुतसे आदियह कुरुक्षेत्र उस समय सरस्वती और दृषद्वती नाम वाली वासी नाग जातिके विद्वानों व राजघरानोंके व्यक्तियोंदो चाल नदियोंके संगम पर स्थित था। आर्यगणकी भारतीय को भी अपनी सभ्यताके अनुयायी बनानेमें सफल हुए। यात्रामें कुरुक्षेत्र ही वह प्रमुख देश है जहां उन्हें विघ्नबाधा- इनमेंसे कईने तो मन्त्रोंकी रचनामें काव्य-कुशलताके रहित दीर्घकाल तक आरामसे रहकर अपनी संस्कृतिको कारण ब्राह्मणोंमें इतनी ख्याति प्राप्त की, कि विजातीय विकसित करने, बढ़ाने और संघटित करनेका सुअवसर प्राप्त होते हुए भी उन्हें ऋषि-श्रेणीमें सम्मिलित किया गया हुआ था, इसलिये स्वभावतः इस देशको आर्यसंस्कृतिका और उनकी रचनाओको वैदिक संहिताओंमें स्थान दिया गया। एक महान केन्द्र कहने का गौरव प्राप्त है। विशेषतया कुरु- ऋग्वेदके दशवें मंडलके ९४वें सूक्तके रचयिता कद्रुके वंशी परीक्षित और जनमेजयके शासनकालमें यह महत्ता पुत्र नागवंशी अर्बुद थे। ७६वें सूक्तके रचयिता नागजातीय और भी बढ़ गयी थी। यह श्रेय कुरुक्षेत्रको ही हासिल इरावतके पुत्र जरुत्कर्ण थे, और १८६३ सूक्तकी रचयित्री है कि आर्यजातिको अपनी प्रगतिकी लम्बी यात्राओमे सर्पराज्ञी थी। यह सब कुछ होते हुए भी अपने जातीय जिन घटनाओंसे वास्ता पड़ा है, और अपने सांस्कृतिक गर्व और अपने सफेद, सुन्दर वर्ण व रक्तकी शुद्धिको विकासमें उन्हें जिन उलझनोंको सुलझाना पड़ा है बनाये रखनेके ख्यालसे वे न तो यहांकी आम जनतामे उनकी अनुश्रुतियों और सस्मृतियों उनकी अपनी संस्कृतिको ही फैला सके और न रोटी-बेटीके सम्बन्ध भावनाओं और कल्पनाओंको, जो सूक्तों (गीतों) के रूपमें कायम करके उन्हें अपने में मिला सके। इसलिये जैसा कि सीना ब सीना चली आ रही थी, चार वैदिक महिताओके अथर्ववेदके पृथ्वी सूक्तसे जाहिर है, इतने लम्बे समय व्यवस्थित रूपमें यहां संकलन किया गया। इन सूक्तों और आर्यजनके बसे रहने के बाद भी इन देशोके लोग अन्य भाषाओं इनमें वर्णित देवताओंकी संतुष्टिके अर्थ किये जानेवाले और अन्य धर्मोको मानने वाले बने रहे। इतना ही नही, याशिक अनुष्ठानोंकी पौराणिक व्याख्यायें, जो ब्राह्मण- बल्कि यहांकी साधारण जनतासे अपनेको अलग और ग्रंथों में मिलती है, उनका संग्रह भी प्रायः इसी देशमें हुआ महान बनाये रखनेकी भावनाने इन्हे यहाकी मानव है, और यहां ही बड़े बड़े याज्ञिक-सूत्रोंका सम्पादन किया समाजको वर्ण व्यवस्थाके आधार पर चार भागोमे विभक्त गया है। इन तमाम विशेषताओंके कारण आर्यजातिके करने पर मजबूर किया। इस कल्पनाने धीरे-धीरे घर करते भारतीय इतिहासमें जो महत्ता कुरुक्षेत्रको प्रदान की गयी हुए ब्राह्मणोंको इस समाजरूपी विराटपुरुषका मुख, है वह भारतके किसी अन्य स्थानको-यहांके पुराने राजकर्मचारियोको इसके बाहु, सर्वसाधारण मध्यवर्गी प्रसिद्ध तीर्थ-धामोंमेंसे भी किसीको-नही मिली है। इस लोगोंको इसका पेट, और श्रमजीवी शूद्र लोगोको इसके सांस्कृतिक महत्वके कारण ही वैदिक विद्याका अपर नाम पाओं बना दिया। इनकी इस भावनाका आलोक ऋग्वेद सरस्वती प्रसिद्ध हुआ है। इसी महत्वके कारण यह के १०-९०वे पुरुष सूक्तसे साफ मिलता है। इस भावनास्थान वैदिकसाहित्यमें देवानां देवयजनं', प्रजापति- के कारण यद्यपि ये अपनी वर्णशुद्धि और अपनी याज्ञिक वेदी", ब्रह्मलोक', और धर्मक्षेत्र",आदि गौरवपूर्ण नामोंसे संस्कृतिको बहुत कुछ सुरक्षित रख सके; परन्तु इस भावनापुकारा गया है। चूकि आर्यजन अपनेको देव और अपने से यहांके लोगोंमें जो पृथक्करण और विद्वेषकी लहर रहनेकी भूमियोंको स्वर्गनामसे पुकारते थे । अतः -
१ऋग्वेद १०,१०८,५ । १ शतपय बाह्मम ॥१४,१,१,५॥
२ अथर्ववेद १२,१,४५ । २ तांग्च बाह्मण ॥२५,१३,३॥
३ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ३ एतरेय ब्राह्मण ॥७,१९॥
उह तबस्य यवैश्यः पद्भ्यां शूबोजायत ।।-ऋग्वेद ४ भगवद्गीता ॥१॥
१०.२०,१२।