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________________ किरण ४-५ ] भारतकी बहिंसा-संस्कृति १८७ की प्रशंसा नही करते। को नरहत्याका पाप लगता है। यहाँ पशुपति जगतका भारतकी अहिंसामयी संस्कृतिने सदा हिंसा कर्ता यशका भोक्ता महादेव बाया हुमा है क्या तुम लोग पर विजय पाई उसे नहीं देख रहे हो?" दक्षने कहा महर्षि! जटाजूटपारी शूलपाणि ११ रुद्र इस लोकमें है परन्तु उनमें महादेव कौनप्राचीन पौराणिक आख्यानोंसे यह भी स्पष्ट है कि जब कभी विदेशी आगन्तुकोंकी सभ्यताके कारण सा है यह मुझे मालूम नहीं है । भारतके उत्तरीय सप्तसिंधुदेशमें अथवा कुरुक्षेत्र, शौरसेन, दधीचिने कहा-"तुम सबने षड्यंत्र करके महादेवव मध्यदेशमें देवपूजा, उदरपूर्ति व मनोविनोद आदिके को निमंत्रण नहीं दिया है किंतु मेरी समझमें महादेवके समान लिये पशुबलि-मांसाहार आदि हिसक-प्रवृत्तियोंने जोर दूसरा श्रेष्ठ देवता और नही है, इसलिये निस्संदेह तुम्हारा पकड़ा तभी भारतकी अन्तरात्माने उसका घोर विरोध यज्ञ नष्ट होगा।" इस पर दक्षने कहा कि "मंत्रों द्वारा पवित्र किया, और जब तक इन हिंसामयी व्यसनोंका उसने किया हुआ यह हवि रक्खा हुआ है मै इस यज्ञभागसे अपने सामाजिक जीवनमेंसे पूर्णतया बहिष्कार नही कर विष्णुको संतुष्ट करूंगा।" यह बात पार्वतीके मनको दिया, उसको शान्ति प्राप्त नहीं हई। इसीलिये भारतका ने भाई। तब महादेवने कहा-"सुन्दरी! मै सब यज्ञोंका मौलिकधर्म अहिसाधर्म कहा जाय तो इसमें तनिक भी ईश हूं, ध्यानहीन दुर्जन मुझे नही जानते ।" तब महादेवने अतिशयोक्ति नही है। अपने मुखसे वीरभद्र नामक एक भयंकर पुरुष उत्पन्न इस ऐतिहासिक तथ्यकी जानकारीके लिये यहा चार किया, जिसने भद्रकाली और भूतगणके साथ मिलकर प्रसिद्ध आख्यान दिये जाते है: दक्षके यज्ञका विध्वंस कर दिया। १. हिमाचलदेशसम्बन्धी दक्ष और महादेवकी कथा। जब प्रजापति दक्षने वीरभद्र से पूछा-"भगवन् ! २. कुरुक्षेत्रसम्बन्धी पणि और इद्रकी कथा। आप कौन है ?"-वीरभद्रने उत्तर दिया-"ब्रह्मन ! न तो ३. पांचालदेशसम्बन्धी राजा वसु और पर्वतकी कथा।। मै रुद्र हूं और न देवी पार्वती, मै वीरभद्र हैं और यह स्त्री ४. शौरसेनदेशसम्बन्धी कृष्ण और इद्रकी कथा। भद्रकाली है, रुद्रकी आज्ञासे यज्ञका नाश करने के लिये हम हिमाचल देश संबंधी दक्ष और महादेवकी कथा आये है तुम उन्ही उमापति महादेवकी शरणमें जाओ। महाभारतके शान्तिपर्व अध्याय २८४ मे दी हई दक्ष- यह सुनकर दक्ष महादेवको प्रणाम कर उनकी स्तुति करने राजाकी कथामे बतलाया गया है कि एक समय प्रचेताके लगा। पुत्र दक्षने हिमालयके समीप गंगाद्वारमे अश्वमेध यज्ञ आरम्भ इस कथाका ऐतिहासिक तथ्य यही है कि सप्तसिंधुकिया, उस यज्ञमें देव, दानव, नाग, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, देशके मूल निवासियोकी भांति हिमाचल प्रदेशके भूत, यक्ष, ऋषि, सिद्धगण, सभी सम्मिलित हुए। इतने बड़े समागम- गन्धर्व लोग भी वैदिक आर्योंके देवतावाद और उनक हिंसाको देखकर महात्मा दधीचि बहुत कुपित हुए और कहने लगे मयी यज्ञोंके विरोधी थे। जब वैदिक आर्यजनकी एक शाखाकि जिस यज्ञमें महादेवकी पूजा नही की जाती वह न तो ने दक्षके नेतृत्वमें गंगाद्वारके रास्ते ईलावर्त अर्थात् मध्य हिमायज्ञ है और न धर्म ही है। हाय! कालकी गति कसी बिगड़ी चलदेशमें प्रवेश किया और इन यक्ष, गन्धर्वोके माननीय है कि तुम लोग इन पशुओंको बांधने और मारनेके लिये धर्म-तीर्थों-बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि स्थानोंमें अपनी उत्सव मना रहे हो ! मोहके कारण तुम नही समझते कि परम्पराके अनुसार हिंसामयी यज्ञोंका अनुष्ठान किया, इम यज्ञके कारण तुम्हारा घोर विनाश होगा। उसके बाद तो वहाके भूत, यक्ष, गन्धर्व लोग उनके विरोधपर उतारू महायोगी दधीचिने ध्यान-द्वारा नारदसहित महादेव, हो गये, और इस विरोधके कारण वे निरन्तर आर्यजनांके पार्वतीको देखा और बहुत संतुष्ट हुए, फिर यह सोचकर कि यज्ञ-यागोंको नाश करने लगे। यह सांस्कृतिक संघर्ष उस समय इन लोगोंने एक मत होकर महादेवको निमंत्रण नही दिया है, जाकर शान्त हुआ, जब वैदिक आर्योने इनके आराध्य देव वह यो कहते हुए यज्ञभूमिमे से चल दिये कि-"अपूज्य महायोगी शिवको और इनके तप,त्याग, ध्यान और अहिंसादेवोंकी पूजासे और पूज्यदेवोंकी पूजा न करनेसे मनुष्य मयी अध्यात्ममार्गको अपना लिया ।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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