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अनेकान्त
[वर्ष ११
अर्थात्-दम, दान और अप्रमाद ही ब्रह्माके तीन घोड़े इसी प्रकार महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २,३१, है। जो इन घोड़ोंसे युक्त मनरूपी रथ पर सवार होकर सदा- ३२,३३ में कहा है सतयुगमें यज्ञ करनेकी आवश्यकता न थी, चारकी बागडोर संभालता है, वह मौतके भरको छोड़कर त्रेतामें यज्ञ का विधान हुआ द्वापरमें उसका नाश होने लगा ब्रह्म गोकमें पहुंच जाता है ।
और कलियुगमें उसका नामनिशान भी न रहेगा। (३) इसी प्रकार आजसे कोई २५०० वर्ष पूर्व भारतके इसी प्रकार मुडक उपनिषद् में कहा गयाहै:अंतिम तीयंकर महावीरने कहा था
"तदेतत्सत्यं मंत्र कर्माणि कवयो यान्यपश्यंस्तानि धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो ।
प्रेताय बहुधा सन्ततानि ॥ देवा वित नमसति जस्स धम्मे सया मणो ॥
तान्याचरय नियतं सत्यकामा एष वः पन्थाः सुकृतास्य लोके। . -दशवकालिक सूत्र १-१
१.२१
प्लावा होते अबूढ़ा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म, अर्थात्-अहिंसा (दया) संयम (दमन) तप रूप
एतच्छ यो येऽभिनन्वन्ति मूढ़ा जरामृत्यं पुनरेवापयन्ति । धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है । जो इस धर्ममार्गपर चलते है,
१२७ देवलोग भी उन्हे नमस्कार करते है ।
अर्थात-वैदिकमंत्रोंमे जिन याज्ञिककर्मोंका विधान ईसाकी तीसरी सदीके महान् आचार्य समन्तभद्र है वे निःसन्देह त्रेतायुगमें ही बहुधा फलदायक होते है । भगवान् महावीरको दियवागीका सझेपमें यो व्याख्यान
__उन्हे करनेसे पुण्यलोककी प्राप्ति होती है। इनसे मोक्षकी करते है--
सिद्धि नही होती; क्योकि यह यज्ञरूपी नौकाये जिनमें दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठ नय-प्रमागप्रकृतांऽऽजसार्थम्
अठारह प्रकारके कर्म जुड़े हुए है, संसारसागरसे पार
-युक्त्यनुगासन ॥६॥ करनेके लिये असमर्थ है। जो नासमझ लोग इन याजिक अर्यात्-हे महावीर भगवान् आपका धर्ममार्ग दया, कर्मोको कल्याणकारी समझ कर इनकी प्रशंसा करते है दम, त्याग ( दान ) और समाधि (आत्म-ध्यान रूप- उन्हे पुन. पुनः जरा और मृत्युके चक्करमे पड़ना पड़ता है। तपश्चर्या) इन चार तत्वोंमें समाया आ है । और नयप्रमाण- महा० शान्तिपर्व अध्याय २४१ मे शुकदेवने वर्म और द्वारा वस्तुसारको दर्शानेवाला है।
ज्ञानका स्वरूप पूछते हुए व्यासजीसे प्रश्न किया हैहिंसामयी यज्ञप्रथाका त्रेतायुगमें प्रारंभ
"पिता जी! वेदमे ज्ञानवानके लिये कर्मोंका त्याग और कर्म
निष्ठके लिये कर्मोंका करना ये दो विधान है, किंतु कर्म और द्वापरमें अन्त
और ज्ञान ये दोनो एक दूसरेके प्रतिकूल है, अतएव में इस तरह भारतकी सभी पौराणिक अनुश्रुतियोंसे
जानना चाहता हूं कि कर्मकरनेसे मनुष्योंको क्या फल विदित, है कि आदिकालसे भारतका मौलिक धर्म अहिंसा
मिलता है। और ज्ञानके प्रभावसे कौन सी गति मिलती है। तप, त्याग, और संयम रहा है । होम हवन आदि याज्ञिक
व्यासजीने उक्त प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा हैतथा पशुबलि नरमेध, अश्वमेध आदि हिंसक विधान
"वेदमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दो प्रकारके धर्म बतलाये गये है। सब पीछेकी प्रथाएं है, जो त्रेतायुगमें बाहिरसे आकर
कर्मके प्रभावसे जीव ससारके बन्धनमें बधा रहता है भारतके जीवनमें दाखिल हुई है और द्वापरके आरम्भमें ।
और ज्ञानके प्रभावसे मुक्त हो जाता है, इसीसे पारदर्शी यहांकी अहिंसामयी अध्यात्मसस्कृतिके सम्पर्कसे सदाके लिये
संन्यासी लोग कर्म नही करते, कर्म करने से जीव फिर जन्म विलुप्त हो गयी। इस विषयमें मनुस्मृतिकारका मत है
लेता है, किंतु ज्ञानके प्रभावसे नित्य अव्यक्त अव्यय परतपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ।
मात्माको प्राप्त हो जाता है। मूढलोग कर्मकी प्रशसा करते बापरे यामेवाहुनमेकं कलौ युगे॥१-८६॥ है, इसीसे उन्हे बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है अर्थात भारतमें सतयुगका धर्म तप है, त्रेतायुगका जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर लेता है और जो कर्मको धर्म शान है, द्वापरका धर्म यज्ञ है और कलियुगमें अकेला भली भान्ति समझ लेता है, वह जैसे नदीके किनारे वाला दान ही धर्म है।
मनुष्य कुओका आदर नहीं करता, वैसेही ज्ञानीजन कर्म