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भारतकी अहिंसा-संस्कृति
(श्री बाबू जयभगवान एडवोकेट)
भारतका मौलिक धर्म अहिंसाधर्म है
प्राचीनकालसे लेकर आजतक भारतीय जनताका यदि कोई एक धर्म है, जिसने इसके आचार और विचारमें तरहतरहके भेद-प्रभेदोंके रहते हुए भी भारतकी सभ्यताको एक सूत्र मे बांधकर रक्खा है, तो वह अहिंसा धर्म है । यह बात उन सब ही पौराणिक आख्यानों तथा ऐतिहासिक वृत्तांतोंसे सिद्ध हैं, जो अनुश्रुतियो व साहित्य द्वारा हमतक पहुचे है । वृहदारण्यक उपनिषद् ५-२-३ मे किसी पुरानी अनुश्रुतिके आधारपर प्रजापतिकी एक कथा दी हुई है । इसमे बतलाया गया है कि प्राचीन जमाने मे सब आयंजन और असुरगण एक दूसरेके पडोस मे बसे हुए थे, तब देवांका नेता इन्द्र और असुरोका नेता विरोचन दोनो इकट्ठे ही धर्मं सुननेके लिये प्रजापति के पास गये। उन दोनोको प्रजापतिने जिस धर्मका उपदेश दिया था वह तीन अक्षरोमे समाया हुआ है -~द, द, द । ये तीन अक्षर दया, दान और दमन शब्दोका संकेत है । इस तरह इन तीन अक्षरो द्वारा प्रजापतिने आर्य और असुरगणको धर्मका सार बताते हुए यह सूचित किया था कि लोकशाति और मुग्वप्राप्ति के लिए मानवमात्रका सनातन और पुरातनव दया, दान और दमन है ।
पुरातत्व खोजी पडितोका मत है कि ईसामे लगभग ३००० वर्ष पूर्व वैदिक आयंजन सुमेर ( ईगकका दक्खिनी भाग) देशमें और असुरगण इसके पूरबमें पासवाले असूरिया देशमे बसे हुए थे । असूरिया देवकी राजधानी निनेवेह थी । आर्यभाषामे संस्कृत रूपातर होकर इसी नगरका नाम विदेह प्रसिद्ध हुआ । सुमेरसे पूरबकी ओर स्थित होनेके कारण जैन साहित्य में यह देश ही पूर्वी विदेहके नामसे उल्लिखित हुआ मालूम पड़ता है । तब इन देशोंकी सभ्यता बहुत बढ़ीची थी, और इन लोगोंमें उतने ही महान् प्रजापति (सन्त ) पैदा हो रहे थे। हो सकता है ऊारवाली कथा उसी युगकी एक वार्ता हो ।
प्रजापतिने संक्षेपमें जिस धर्ममार्गका दिग्दर्शन कराया था, उसीको समग्र भारतके सन्त सदासे धर्मके रूपमें व्याख्या करते चले आये है । इस तथ्यको जानकारीके लिये निम्न
उदाहरणोंका अध्ययन करना उपयोगी होगा :
(१) इस सम्बन्ध में अंगिराऋषिका उपदेश खास तौरपर अध्ययन करने योग्य है । यह अंगिरा ऋषि एक ऐतिहासिक महात्मा है, जो सभवतः ईसासे १५०० वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध कालके समय भारतभूमिको शोभा दे रहे थे । इनके सम्बन्ध में छादोग्य उपनिषद् ३ १७ मे बताया गया है कि यह देवकीपुत्र कृष्णके आध्यात्मिक गुरु थे । इन्होंने कृष्णको भौतिक यज्ञोंकी जगह उस आध्यात्मिक यज्ञको शिक्षा दी थी, जिसकी दीक्षा इन्द्रियसंयम वा इंद्रियोंका दमन है और जिसकी दक्षिणा तपश्चर्या, दान, आर्जव, ( सरलता), अहिंसा और सत्यवादिता है। इस यज्ञ के करने से मनुष्यका पुनर्जन्म छूट जाता है—उसका संसारपरिभ्रमण खत्म हो जाता है। मीतका सदाके लिये अंत हो जाना है। इसके अलावा इस ऋषिने कृष्णको यह भी उपदेश दिया था कि मरते समय मनुष्यको तीन धारणाए धारण करनी चाहिए- 'अक्षतमति, अच्युतमति', 'प्राणस शितमति', अर्थात् - हे आत्मन् तू अविनाशी है, तू सनातन है, तू अमरचेतन है । इम उपदेशको सुनकर कृष्णका हृदय गद्गद् हो
उठा था ।
इसी प्रकार महाभारतकारने अनुशासनपर्वमे अध्याय १०६, १०७ अंगिराऋषिकी दी हुई अहिंसा, दान, ब्रह्मचर्य व्रत, उपवास संबंधी जिन शिक्षाओं का उल्लेख किया है, वे ऊपर बतलाई हुई शिक्षाओं से बहुत मिलती जुलती है, इससे प्रमाणित होता है कि महाभारतके उद्धृत अंशमें कौरव-पांडव कालीन भारतीय संस्कृतिका काफी आलोक है । यह वही यग है जब कि रैवतक पर्वत (सौराष्ट्र देशका गिरनार पर्वत) के विख्यात सन्त अरिष्टनेमि, अपने तप, त्याग और विश्वव्यापी प्रेम द्वारा भारतकी अहिंसामयी संस्कृतिको देश- विदेशों में सब ओर फैला रहे थे ।
(२) स्त्रीपर्व अध्याय ७ में भी महाभारतकारनं कहा है
दमस्त्यागोऽप्रमादश्च ते त्रयो ब्रह्मणो हयाः । शीलरश्मिसमायुक्तः स्थितो यो मनसि रथे । त्यक्त्वा मृत्युभय राजन् ब्रह्मलोकं स गच्छति ॥ - महा. स्त्रीपर्व ७ २३-२५