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________________ अनेकान्त [वर्ष ११ करनेके लिये इंद्र और ऋषि आकाशचारी चेदिनरेश वसु- यज्ञार्थ-पशुहिंसाका प्रचार करने वाले पर्वत ऋषि के पास पहुंचे, वसुने बिना सोचे कह दिया, कि यज्ञ जंगम और उसके मतका समर्थन करनेवाले चेदिनरेश वसुका ठोक अथवा स्थावर दोनों प्रकारके प्राणियों के साथ हो सकता है, समय निर्णय करना तो कठिन है। परन्तु यह बात निर्विवाद क्योंकि "हिंसास्वभावोयज्ञस्येति" इस पर ऋषि लोगोने उसे रूपसे कही जा सकती है कि वे अवश्य ही महाभारत युद्धशाप दे दिया और वह आकाशसे गिर कर तुरन्त अवोगति- से काफी पहले लगभग २००० ईसा पूर्वके निकट हुए हैं। को प्राप्त हुआ और इससे लोगोकी श्रद्धा हिसासे उठ गयो। क्योकि ऋग्वेदके तीसरे मंडलके ५३ वे सूक्तमे इद्र और पर्वत दोनोंको इकट्ठे ही देवतातुल्य हव्यग्रहण करनेके यही कथा कुछ हेर-फेरके साथ जैन पौराणिक साहित्य में यों बतलाई गई है कि-बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत भगवान्के लिये आह्वान किया गया है। जैन अनुश्रुतिके अनुसारके कालमें "अजैर्यष्टव्यम्" के प्राचीन अर्थ 'जौ से देवयज्ञ भी भगवान् मुनिसुव्रत त्रेतायुगकालीन रघुवंशी रामके करना चाहिए' को बदल कर जब पर्वत ऋषिने यह अर्थ समकालीन है और महाभारत युद्धकालसे काफी पहिले हुए है। करना आरम्भ कर दिया कि बकरोको मारकर देवयज्ञ चेदीका आधुनिक नाम चन्देरी है। यह मध्यप्रदेशके करना चाहिए तो इसके विरुद्ध नारदने घोर सवाद खड़ा बुन्देलखंडमें ललितपुरसे २२ मीलकी दूरीपर स्थित है, कर दिया। इस सवादका निर्णय कराने के लिये रेटिना यह पीछेसे शिशुपालकी राजधानी भी रही है। राजा बसुको पंच नियुक्त किया गया । उस जमाने में इस कयासे पता चलता है कि जब आर्य देवगण कुछ राजावसु अपनी सत्यता और न्यायशीलताके कारण बहुत हिमाचलदेशसे और कुछ सप्तसिंधुदेशसे मध्यप्रदेशकी ओर आगे बढ़े तो उनकी हिंसात्मक प्रथाओका विरोध ही लोकप्रिय था। उसका सिंहासन स्फटिक मणियोंसे खचित उतने ही जोरसे हुआ जितना कि सप्तसिंधु और हिमाचलथा, जब वह उस सिंहासनपर बैठता तो ऐसा मालूम होता मे हुआ था। कि वह बिना सहारे आकाशमें ही ठहरा हुआ है । राजावसुने यह जानते हुए भी कि पर्वतका पक्ष झूठा है, केवल इस शौरसेनदेश, कृष्ण और इन्द्रकी कथा कारण कि वह उसके गुरुका पुत्र है पर्वतका समर्थन कर इस मध्यदेशमे बसनेके बाद देवगणकी जो शाखा दिया। इसपर राजावसु तुरन्त मरकर अधोगतिको प्राप्त मथुरा, आगरा आदि शौरसेनदेशके इलाकेमे बढ़ी, उसे हुआ। जनतामें हाहाकार मच गया, और अहिंसा की पुन: भी यदुवंशी क्षत्रियोके विरोधके कारण हिंसामयी प्रवृत्तियोंस्थापना हो गयी। को तिलाजलि देनी पड़ी। इस सम्बन्धमे भागवतपुराणके - १० वे स्कन्धके २४ वे और २५ वे अध्यायोंमें जो भगवान् १ (अ) ईसाकी आठवीं सबीके आचार्य जिनसे-कृत कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा दी हुई है, वह बड़े हरिवंशपुराण सर्ग १७ श्लोक ३८ से १६४ महत्वकी है। इस कथामें बतलाया गया है कि एक बार (आ) ईसाको सातवों सीके आचार्य रविषण-कृत शौरसेनदेशमै नन्दादिक गोपालोने इद्रकी सतुष्टिके लिये पप्रचरित पर्व ११ यज्ञ करनेका विचार किया, परन्तु कृष्णको उनकी यह () ईसाकी नवीं सवीके आचार्य गुगभद्रकृत उत्तर बात पसन्द न आई, उसने उन्हें यज्ञ करनेसे रोक दिया' पुराणपर्व ६७ श्लोक ५८ से ३६३ । और गायोंको लेकर गोवर्धन पर्वतकी ओर चल पड़ा । (६) ईसाकी बारहवीं सदीके आचार्य हेमचन्द्रकृत कृष्णका यह कार्य इंद्रको अच्छा न लगा। उसने रुष्ट होकर त्रिवष्ठिशलाकापुरुषचरित्र पर्व ७, सर्ग २७ मूसलाधार वर्षा द्वारा गोकुलको नष्ट करनेका संकल्प कर (उ) ईसाको प्रथम सबोके आचार्य विमलसूरि-कृत लिया, इस पर कृष्णने गोवर्धन पर्वत हाथमें उठा और उसके पउमचरिउ ११-७५, ८१ नीचे गोकुलको आश्रय दे, इद्रको असफल बना दिया। (क) ईसाकी प्रथम सबीके आचार्य कुन्दकुन्व-कृत भावप्राभूत ॥४५॥ १वापता वृहता रथेन वामिरिव आवहतं सुवीराः। (ए) साकी दशवीं सबीके आचार्य सोमदेव कृत बीतं हव्यान्मध्वरेषु देवा वर्षेषां गीर्भिरिराचा मुहन्ता ॥१॥ यशस्तिलक चम्पू आश्वास ७ पृ. ३५३ ॥
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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