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भारतकी अहिंसा संस्कृति
ऋग्वेदकालीन उत्तरी भारतमे पाच क्षत्रिय जातिया इसलिये भारतीय जनता श्रमणयोगियोके समान प्रसिद्ध थी । यदु, अनु, दुस्यु, तुर्वसा, और पुरुस । ऋग्वेद ही अपने खान, पान, व्यवहार और व्यवसायोमें अहिंसा१०,६२,१० में यदु और तुर्वसा लोगोको दास सज्ञासे को अपनाती रही है। यहाके लोग सदा अनभोजी सम्बोधित किया है। इसका कारण यही मालूम होता है कि शाकभोजी स्वच्छव्यवहारी बने रहे है । ये सदा बनस्पति बे वैदिक देवताओ और उनके लिये किये जाने वाले याज्ञिक अथवा वृक्षोका सिंचन करना, कीड़े-मकोड़े आदि छोटे अनुष्ठानोको मानने वाले न थे, दूसरे यदु और तुर्वसा जन्तुओसे लेकर काग, चिड़िया, बन्दर, बैल, गाय, आदि लोग कृष्णवर्णके थे। अर्थात् अनार्य जातिके थे--इस पशुओ तक को आहार दान देना, सांपों तक को दूध पिलाना, लिये उनका याज्ञिक अनुष्ठानोसे विरोध करना स्वाभाविक एक पुण्य कार्य मानते रहे है । हो था। इसी आधार पर ए. बनर्जीने उपरोक्त क्षत्रियोकी आजके भारतीय जीवन, विशेषतया पंजाबी जीवनपाचो जातियोको आर्य मानकर असुरजातिया कहा है? को देखते हुए भले ही यह बात हमे आश्चर्यजनक प्रतीत हो, खैर कुछ भी हो, उपरोक्त व्याख्यासे यह बात स्पष्ट है परन्तु समस्त भारतीय साहित्य और विदेशी यात्रियोंके कि शौरसेनदेशके निवामी तुर्वसा लोग भी अहिसाधर्म- विवरणोपरसे उक्त बात पूर्णतया सिद्ध है। आजके भारके अनुयायी थे ।
तीय जीवनमे जितनी अधिक मासाहारकी प्रवृत्ति देखनेऊपरके आख्यानोसे यह भी साफ सिद्ध होता है, कि में आ रही है, वह सब मुस्लिम और विशेषकर पाश्चात्य भारतका मौलिकधर्म, अहिंसा तप, त्याग, और सयम रहा योरोपीय मभ्यताके दुष्प्रभावोका ही फल है। . है, हिसात्मक याज्ञिक क्रियाकाड, त्रेतायुगके आरम्भमे ईसवी सन्म ३०० वर्ष पूर्व भारतमें आने वाले देवगणकी आमदके साथ भारतमे दाखिल हुआ और द्वापर- यूनानी दूत मैगस्थनीजमे लेकर ई सन् ७०० के लगभग के आरम्भ तक यहाकी अध्यात्म-सस्कृतिके सम्पर्कके आनेवाले चीनी यात्री इत्सिग तक सभी यात्रियोने उक्त कारण अहिसामयी होम 'हवन' मे बदल गया । मतकी पुष्टि की है। भारत सदा शाकाहारी रहा है
___मैगस्थनीजनं बतलाया है कि भारतीयजन बड़े आनन्द__ जैसा कि पहिले बताया जा चुका है, भारतीय जीवनका पूर्वक जीवन व्यतीत करते है, क्योकि इनका चलन बहुत सीधा आदर्श सदा योगी जीवन रहा है। भारत लोग परमात्माकी और मादा है। ये मिवाय यज्ञ-यागके कभी मदिरापान नही कल्पना भी योगीके रूपमे ही करते रहे है, और परमात्म- कग्ने, असभ्य पहाडी लोगोक मिवाय जो शिकाग्मे प्राप्त किये रूप बननके लिये सदा योगी जीवनको अपने जीवनका हुप मामको खा लेते है, उनकी आहार सामग्री विविध प्रकार ध्येय मानते रहे है। इसी ध्येयको लेकर भारतके प्रसिद्ध के अन्न-मुख्यतः चावल है कि इनका स्थायी व्यवसाय राजयोगी भर्तृहरिने कहा है.
कृषि ही है।' एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
फाहियान चीनी यात्रीने जो चन्द्रगुप्त द्वितीयके समयकदा शम्भो भविष्यामि कर्म निर्मूलनक्षमः॥ मे (३९९-०२३ ई मन्) भारत आया था, लिखा है कि अर्थात हे शम्भो वह दिन कब आयगा जब अनादि "भारतवामी किमी मादक द्रव्यका मेवन नही करते, कर्मबन्धनोको निर्मुल करनेके लिये मै योगियोके समान भोजनके लिये वे पशुओको नहीं मारते, केवल चांडाल अकेला शान्तिभावसे बिना किसी वस्त्र उपकरण और जिन्हे पंग्यिा कहते है, मास, प्याज, और लहसुन खाते है, आडम्बरके अलिप्त और निष्कामभावमे विचरूगा । पग्यिा लोग नगरके बाहर रहते है। जब वे नगरमे आते
उतबासा परिविषे समष्टि गोपरीणासा, यस्तु- है तो लोगोको सूचना दनके लिये लकड़ीको दण्डेमे बजाते बंश्च भामहे । अग् १०-६२-१०
है, जिसे सुनकर लोग उनके म्पर्शसे दूर हो जाते है। भारत२. Dr. A.C. Das-Rigvedic Culture. वामी लोग सुअर, मुर्गा आदि जानवरोको भी नही पालते। P. 128.
!. Ancient India as described by 3. Dr. A. Banerjee-Asura India, Megasthenes and Arrian by J. W. pp. 17-19, 34-40.
Mecrindle 1877-pp. 69 and 222.